गुरुद्वारे से हुआ ऐलान, इन दलित मजदूरों को कोई काम नहीं देगा

संगरूर। चमकीले भारत की चमक-दमक को ज़रा सा खुरच लें, तो अंदर बड़ी बदनुमा परत उजागर होती है. समानता के अधिकार की वकालत करता मेरा भारत न जाने किस-किस जगह नाइंसाफियों की नित नई दास्तानें लिखता रहता है. अपर कास्ट के सामंती अहंकार की नई इनस्टॉलमेंट पंजाब से आई है.

पंजाब के संगरूर के धांडीवाल गांव में ऊंची जाति के किसानों ने मजदूरों का हुक्का-पानी बंद कर दिया है. उनका बहिष्कार कर दिया है. महज़ इसलिए क्योंकि उन्होंने अपनी मजदूरी में 50 रुपए की बढ़ोतरी की मांग की थी. यहां तक कि उन्हें खेतों से गाय-भैंसों के लिए चारा भी नहीं लेने दिया जा रहा. ये सब पिछले 15 दिनों से जारी है.

इन दलित भूमिहीन मजदूरों ने महज़ इतनी मांग रखी थी कि उनकी मजदूरी में 50 रुपए बढ़ा दिए जाए. अभी 250 रुपए मजदूरी मिलती हैं. उसे 300 कर देने की प्रार्थना थी उनकी. इसे माना तो नहीं ही गया, उलट उनका बहिष्कार करने का फैसला कर दिया गया. बाकायदा गुरुद्वारे से इसका ऐलान किया गया.

इन दलितों के पास अपनी कोई ज़मीन-जायदाद नहीं है. सेविंग्स का तो सवाल ही नहीं. रोज़ाना पेट भरने के लिए, ये लोग पूरी तरह मजदूरी पर ही निर्भर हैं. ऐसे में पिछले 15 दिनों से कोई काम न मिलने से इनके भूखे मरने की नौबत आ गई है. 50 साल की अमरजीत कौर बताती हैं कि उन्होंने पिछले 10 दिनों से घर में कोई सब्जी नहीं बनाई है. चटनी के साथ रोटी खा रहे हैं.

“20 जुलाई को गांव के गुरुद्वारे से ऐलान हुआ कि हम दलितों को कोई भी काम पर नहीं बुलाएगा. कोई भी हमें दूध, अनाज या और खाने-पीने की चीज़ें नहीं देगा. हम 21 जुलाई को डिप्टी कमिश्नर के पास गए. उन्होंने दूध, अनाज खरीदने पर लगी हुई पाबंदी तो हटवा दी, लेकिन बहिष्कार के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की.”

बहिष्कार के 2 दिन बाद धुरी के SDM ने सबको बुलाकर इन मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी तय कर दी थी. बिना खाने के 303 रुपए और खाने के साथ 273 रुपए. लेकिन किसान इस पर भी नहीं माने. एक और दलित महिला ने HT को बताया कि वो लोग खाने के साथ 273 रुपए की मजदूरी पर राज़ी हैं. मजदूरों को खाना देने की परंपरा काफी पुरानी है. मजदूर काम के वक़्त खाना नहीं बना सकते, इसलिए उन्हें काम करने की जगह ही खाना उपलब्ध करा दिया जाता है. लेकिन गांव के किसान इस अरेंजमेंट को भी कबूलने को तैयार नहीं. वो इन मजदूरों को सबक सिखाना चाहते हैं.

“मुझे जानवरों के लिए चारा लेने के लिए पड़ोस के गांव जाना पड़ा, जो 3 किलोमीटर दूर है. यहां के जाट किसान कहते हैं कि तुम्हारे पास खेत नहीं हैं, तुम हमारे खेतों से चारा चोरी कर रहे हो. हमें रोजाना ये सब झेलना पड़ रहा है.”

समरथ का हमलावर होना और कमज़ोर का दब जाना काफी प्राचीन चलन है इस पावन भूमि का. 21वीं सदी में आने के बावजूद, समानता के तमाम दावों के बावजूद ऐसी घटनाएं बताती हैं कि श्रेष्ठताबोध से अकड़े कुछ लोग दलितों को इंसान मानने को राज़ी नहीं हैं. शाइनिंग इंडिया की ये तस्वीर बेहद व्यथित करने वाली है.

सिख धर्म के बारे में अक्सर यही सुना कि ये मानवीयता के बेहद करीब है. गुरूद्वारे में ऊंच-नीच का फर्क मिटाकर लंगर में बर्तन साफ़ करते, जूते पॉलिश करते लोग देखता था तो बराबरी की अवधारणा पर विश्वास मज़बूत हो जाता था. उसी सिख धर्म से आती ऐसी ख़बर दिल तोड़ देती है. दलित होना, तथाकथित नीची जाति में पैदा होना कितना बड़ा अपराध है इस मुल्क में. फिर चाहे वो किसी भी धर्म के दलित हो. हिंदू धर्म में तो दलितों पर किए गए ज़ुल्म का लंबा इतिहास है. यही हाल इस्लाम का भी है. हम किस एंगल से महान देश हैं?

साभारः लल्लनटॉप

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