मानव इतिहास की महान विदुषी एरियल ड्यूरेंट जब अपने पति विल ड्यूरेंट के साथ मिलकर विश्व इतिहास और सभ्यता सहित दर्शन के विकास का अत्यंत विस्तृत लेखा जोखा लिख रही थीं, उसी दौर में बर्ट्रेंड रसल भी दर्शन का इतिहास लिख रहे थे। फ्रायड मनोविज्ञान के रहस्य खोल रहे थे, फ्रेडरिक नीत्शे मूल्यों को और ईश्वर को चुनौती दे रहे थे, लुडविन वित्गिस्तीन पूरे तर्कशास्त्र को ही नया रूप दे रहे थे, डार्विन इसी समय में क्रमविकास की खोज करते हुए इंसान की उत्पत्ति और विकास की पूरी समझ ही बदल डाल रहे थे, हीगल के प्रवाह में मार्क्स और एंगेल्स पूरे इतिहास और मानव समाज के काम करने के ढंग को एकदम वैज्ञानिक दृष्टि से समझा रहे थे। आइन्स्टीन, मेक्स प्लांक, नील्स बोर और श्रोडीन्जर अपनी अजूबी प्रतिभा से क्लासिकल न्यूटोनियन फिजिक्स और यूक्लिडीयन जियोमेट्री सहित भौतिकशास्त्र की पूरी समझ को एक नए स्तर पर ले जा रहे थे।
उस समय भारतीय चिन्तक क्या कर रहे थे?
उन्नीसवी सदी के आरंभ से बीसवीं सदी के अंत तक भारतीय पंडित पश्चिमी विद्वानों से शर्मिन्दा होते हुए या तो अन्टार्कटिका में अपने पूर्वजों की खोज कर रहे थे या फिर फर्जी राष्ट्रवाद के लिए गणेश-उत्सव का कर्मकांड रच रहे थे।बंगाल के कुछ चिंतक इसाइयत की कापी करके नियो-वेदांत की और मिशनरी स्टाइल समाज सेवा की रचना कर रहे थे, अपने ब्रिटिश आर्य बंधुओं के “आर्य-आक्रमण” को अपने लिए वरदान मानते हुए भरत मिलाप सिद्ध कर रहे थे और पश्चिमी स्त्री की स्वतन्त्रता से शर्माते हुए सती प्रथा से पिंड छुडाने के लिए पहला सभ्य प्रयास कर रहे थे।
इसी दौर के दुसरे संस्कारी पंडित जन भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री फुले पर गोबर और पत्थर फेंक रहे थे, ज्योतिबा फूले के बालिका स्कूल और विधवा आश्रम को बंद कराने के लिए सब तरह के षड्यंत्र कर रहे थे, अंबेडकर को पढने लिखने से रोकने की सनातनी चाल चल रहे थे, कुछ चिन्तक-योगी नीत्शे और डार्विन की खिचड़ी बनाकर अतिमानस और पूर्ण-योग की रचना कर रहे थे।
आजादी के बाद हमारे महानुभाव फिलहाल क्या कर रहे हैं?
एक महर्षि बीस मिनट के ध्यान से हवा में उड़ने की तकनीक सिखा रहे थे। एक योगानन्द जी क्रियायोग के बीस बरस के अभ्यास से बीस करोड़ सालों का क्रमविकास सिद्ध करने का दावा कर रहे थे। कुछ महान दार्शनिक अपने ही शिष्य की थीसिस चुराकर शिक्षक दिवस पर लड्डू बाँटने का इन्तेजाम कर रहे थे। एक रजिस्टर्ड भगवान पश्चिमी मनोवैज्ञानिकों जैसे फ्रायड जुंग और विल्हेम रेख की जूठन की भेल पूरी बनाकर बुद्ध और कबीर के मुंह में वेदान्त ठूंस रहे थे। इस षड्यंत्र से वे जोरबा-द-बुद्धा की रचना करके अभी अभी गए हैं। हाल ही में एक बाबाजी हरी लाल चटनी और रसगुल्ले खिलाकर किरपा बरसा रहे हैं।
एक अन्य महाराज जमुना का उद्धार कर ही चुके हैं और एक गुरूजी देश भर की नदियों को बचाने के लिए सडकों की ख़ाक छानकर फिलहाल सुस्ता रहे हैं, जल्द ही किसी नए अभियान पे निकलेंगे। वहीं एक अन्य बाबाजी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर में प्राणायाम का विश्वरिकार्ड बनाकर च्यवनप्राश बाँट रहे हैं, व्यवस्था परिवर्तन और क्रान्ति से शुरुआत करके आजकल दन्तकान्ति, केशकान्ति बेच रहे हैं।
नतीजा सामने है। पश्चिम में वे नई सभ्यता और नैतिकता सहित ज्ञान विज्ञान साहित्य, कला दर्शन, फेशन, फिल्मों, कपडे लत्ते, चिकित्सा, भोजन, भाषा, संस्कृति और हर जरुरी चीज का विकास और निर्यात कर रहे हैं और हम सबकुछ आयात करते हुए, खरीदते हुए जहालत के रिकार्ड तोड़ते हुए गोबर के ढेर में धंसते जा रहे हैं।
और अब तो गाय के गोबर से मामला गधे की लीद तक पहुँच गया है। विकास रुक ही नहीं रहा।
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।