चुनावी तैयारियों को अंतिम रूप देने लखनऊ पहुंची मायावती

नई दिल्ली। बहुजन समाज पार्टी हमेशा से सबसे पहले अपने उम्मीदवारों का नाम घोषित करने के लिए जानी जाती है. जहां तमाम अन्य दल दूसरे दलों के प्रत्याशियों को देखकर आखिरी वक्त में अपने प्रत्याशी फाइनल करती है, तो वहीं बसपा चुनाव से काफी पहले हर सीट पर प्रभारी बना देती है. संभवतः कुछ सीटों पर छोड़ कर यही प्रभारी उसके प्रत्याशी भी होते हैं. समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बाद बसपा अब चुनावी तैयारियों में पूरी तरह जुट गई है. चुनावी तैयारियों में लगी बसपा को लेकर दो बड़ी खबर है.

पहली खबर यह है कि बसपा जल्दी ही अपने प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर सकती है. तो दूसरी खबर यह है कि इस घोषणा से पहले बहनजी पार्टी के जोनल प्रभारियों सहित संगठन के अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारियों के साथ बैठक करेंगी. दरअसल अपने जन्मदिन 15 जनवरी के दिन ही बसपा प्रमुख शाम को दिल्ली लौट गई थीं. इस दौरान उन्होंने अन्य पार्टी के नेताओं के साथ भी मुलाकात की. दरअसल बहनजी लोकसभा चुनावों को देखते हुए अन्य राज्यों में भी प्रमुख छोटे दलों के साथ गठबंधन की संभवानाओं को टटोल रही हैं, जिसके लिए वह लगातार तमाम नेताओं से मुलाकात कर रही हैं.

सोमवार 21 जनवरी को बहनजी के दिल्ली से लखनऊ पहुंचने की खबर है. लखनऊ प्रवास के दौरान वह पार्टी के प्रमुख जोनल इंचार्ज और को-आर्डिनेटरों के साथ बैठक करेंगी. खबर है कि इस बैठक में संभावित प्रत्याशियों के नामों को अंतिम रुप दिया जाएगा. साथ भी यह भी सामने आ जाएगा कि बसपा के हिस्से में लोकसभा की कौन-कौन सी सीट आई है. फिलहाल अभी तक सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकसभा सीटों के नाम सामने आए हैं. जिसमें बसपा 11 लोकसभा सीटों पर जबकि सपा 8 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. बताते चलें कि आधिकारिक घोषणा के तहत सपा और बसपा उत्तर प्रदेश में 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ रही है.

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अपने साथी के साथ आई पुलिस, सुबोध के परिवार वालों को 70 लाख की मदद

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नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर (Bulandshahr Mob Violence) में पिछले साल 3 दिसंबर को गोकशी के शक में भड़की भीड़ की हिंसा में जान गंवाने वाले इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के परिवार को यूपी पुलिस ने 70 लाख रुपये का दान (मदद राशि) दिया है. शुक्रवार को समाचार एजेंसी एएनआई से सीनियर पुलिस अधिकारी प्रशांत कुमार ने कहा कि योगी सरकार द्वारा दिए गये 50 लाख रुपये के मुआवजा राशि के अलावा, हमने भी खुद के बल पर 70 लाख रुपये की मदद राशि दी है.

दरअसल, पिछले साल 3 दिसंबर को बुलंदशहर के स्याना इलाके में कथित रूप से गोवंश के अवशेष मिलने के बाद हिंसा फैल गई थी. गोवंश के अवशेष मिलने के बाद पुलिस को इसकी सूचना दी गई थी, पुलिस मौके पर पहुंची तो वहां लोगों की भीड़ पहले से वहां मौजूद थी. पुलिस भीड़ को समझाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन लोग काफी उग्र थे और उन्होंने पुलिस पर ही हमला कर दिया. हिंसा में पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या कर दी गई. वहीं गोली लगने से सुमित नाम का एक युवक भी मारा गया था.

बता दें कि बुलंदशहर हिंसा के दौरान इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह को न सिर्फ गोली मारी गई थी, बल्कि पहले कुल्हाड़ी से उनके सिर पर वार कर बुरी तरह से घायल कर दिया गया था. पुलिस ने 28 दिन बाद इस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह पर कुल्हाड़ी से हमला करने वाले कलुआ उर्फ राजीव को गिरफ्तार किया था. पुलिस के मुताबिक कलुआ ने ही सबसे पहले सुबोध कुमार सिंह पर हमला किया था. कलुआ कुल्हाड़ी से पेड़ की टहनी काट सड़क जाम कर रहा था, इंस्पेक्टर ने रोका तो उसने कुल्हाड़ी से उन पर ही हमला कर दिया.

मुख्य आरोपी कलुआ ने पहले इंस्पेक्टर की अंगुलियां काटी फिर कुल्हाड़ी से ही सिर पर कई वार कर दिए. इस हमले में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह बुरी तरह घायल हो गए. जख्मी हालत में इंस्पेक्टर जान बचाने खेतों की तरफ भागे तो प्रशांत नट ने उन्हें पकड़कर घुटनों के बल गिरा लिया. इसके बाद नट ने इंस्पेक्टर की ही लाइसेंसी रिवॉल्वर छीनकर उन्हें गोली मार दी.

बाद में प्रशांत नट ने अपने साथियों के साथ मिलकर इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के शव को उनकी ही सरकारी गाड़ी में डाल कर जलाने की कोशिश की. प्रशांत नट को पिछले सप्ताह गिरफ्तार किया गया था. प्रशांत ने पुलिस के सामने अपना गुनाह भी क़ुबूल कर लिया. पुलिस ने कलुआ के पास वह कुल्हाड़ी भी बरामद कर ली है. बता दें कि हिंसा का मुख्य आरोपी बजरंग दल का योगेश राज भी अब पुलिस की गिरफ्त में है.

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कोलकात्ताः भाजपा के खिलाफ 20 बड़े नेता एक मंच पर

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सियासी पिच के रूप में कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड पर ममता बनर्जी और विपक्ष बैटिंग करते नजर आएंगे. विपक्षी एकजुटता रैली के बहाने आज यानी शनिवार को कोलकाता में ममता बनर्जी अपनी ताक़त दिखाएंगी. कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड पर तृणमूल कांग्रेस की बड़ी रैली हो रही है, जिसमें पार्टी को उम्मीद है कि कम से कम 3 लाख लोग जुटेंगे. रैली में विपक्षी दलों के कई दिग्गज दिखेंगे. शुक्रवार को ही अखिलेश यादव कोलकाता पहुंच गए. वहीं कई दूसरे दलों के नेता भी पहुंच रहे हैं. ममता बनर्जी की आज होने वाली रैली में करीब 20 विपक्षी दलों के नेता पहुंच रहे हैं. हालाकि इनमें कई नेताओं में कोई गठबंधन नहीं हुआ है. लेकिन वो एक मंच पर दिखेंगे. इन सबके निशाने पर बीजेपी है. 20 विपक्षी दलों के एक मंच पर जुटान से लोकसभा चुनाव 2019 से ठीक पहले ऐसा लगने लगा है कि पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में एक बार फिर से विपक्षी एकता की झलक देखने को मिल सकती है. ममता बनर्जी की कोलकाता में होने वाली ‘संयुक्त विपक्षी रैली’ में विपक्षी दलों से समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव, डीएमके चीफ एमके स्टालिन, पूर्व बीजेपी नेता अरुण शौरी, शरद यादव, अरविंद केजरीवाल आदि शामिल हो सकते हैं

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‘तुम्हें SDM का चार्ज लेना है तो जैतपुर में बीजेपी को जीताओ’

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शहडोल (मध्यप्रदेश)। मध्यप्रदेश में शहडोल की कलेक्टर अनुभा श्रीवास्तव और डिप्टी कलेक्टर पूजा तिवारी के बीच कथित विवादस्पद व्हाट्सअप चैट वायरल हुई है. इस संबंध में पुलिस ने अज्ञात आरोपी के खिलाफ मामला दर्ज किया है.

यह चैट मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए हुए हाल ही में हुए मतदान की मतगणना करने के दौरान की बतायी बताई जा रही हैं, जिसमें डिप्टी कलेक्टर से कलेक्टर साहिबा बीजेपी के पक्ष में काम करने के लिए कह रही हैं. इस सीट पर बीजेपी प्रत्याशी को जीत मिली थी.

कांग्रेस ने इस चैट के वायरल हो जाने के बाद शहडोल जिले की जैतपुर विधानसभा सीट पर फिर से चुनाव कराने की मांग की है. वहीं, इस चैट के वायरल होने के बाद डिप्टी कलेक्टर पूजा तिवारी ने इसे किसी की शरारत बताते हुए कोतवाली थाने में शिकायत की है, जिसके बाद पुलिस ने अज्ञात आरोपी के खिलाफ मामला दर्ज किया है.

शहडोल जिले के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक प्रवीण भूरिया ने बताया, ‘‘पूजा की शिकायत पर बुधवार को आईटी एक्ट के तहत अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है और जांच जारी है.’’

क्या है चैट में?

वायरल हुई अनुभा और पूजा के बीच विवादस्पद वॉट्सऐप चैट की स्क्रीन शॉट्स में कलेक्टर द्वारा जैतपुर में बीजेपी को जिताने के लिए मदद करने की बात कही गई है. यह चैट पिछले साल 11 दिसंबर को हुए विधानसभा चुनाव की मतगणना के दिन परिणाम घोषित करने से ठीक पहले की हैं और जिस वक्त यह चैट की गई, उस वक्त बीजेपी प्रत्याशी जैतपुर सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी से पीछे चल रही थी. कलेक्टर की इस चैट में कहा गया है कि यदि पूजा बीजेपी की मदद करती है तो उसे बीजेपी की सरकार फिर से आने पर सब डिविजनल मजिस्ट्रेट बना दिया जाएगा.

वायरल स्क्रीन शॉट में ऐसे हुई बातचीत

डिप्टी कलेक्टर: मैम दो सेक्टर में सिचुएशन कण्ट्रोल है, बट जैतपुर की नहीं हो पा रही है। कांग्रेस लीड बना रही है एन्ड उमा धुर्वे के समर्थक काफी हैं.

कलेक्टर: मुझे कांग्रेस क्लीन स्वीप चाहिए मैं आरओ डेहरिया को फ़ोन कर देती हूं पूजा तुम्हें एसडीएम का चार्ज लेना है तो जैतपुर में बीजेपी को विन कराओ.

डिप्टी कलेक्टर: ओके मैम मैं मैनेज करती हूं, बट कोई इन्क्वायरी तो नहीं होगी.

कलेक्टर: मैं हूं, मेहनत कर रही हो तो बीजेपी गवर्नमेंट बनते ही तुम्हें एसडीएम का चार्ज मिलेगा.

शहडोल जिले के वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व विधायक रामपाल सिंह ने शुक्रवार को संवाददाताओं को बताया, ‘‘हम चुनाव आयोग को लिख रहे हैं कि कलेक्टर को हटाया जाये और जैतपुर में दोबारा चुनाव कराया जाये.’’

उन्होंने कहा, ‘‘हम चाहते हैं कि जैतपुर में फिर से चुनाव हो.’’ शहडोल कलेक्टर अनुभा श्रीवास्तव से इस बारे में प्रतिक्रिया जानने के लिए बार-बार फोन करने पर भी संपर्क नहीं हो पाया.

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दस प्रतिशत कोटा को डीएमके ने अदालत में दी चुनौती

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चेन्नई। डीएमके ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े तबके को नौकरियों और शिक्षा में 10 प्रतिशत आरक्षण देने के केंद्र सरकार के फैसले को शुक्रवार को मद्रास हाई कोर्ट में चुनौती दी. पार्टी ने कहा कि यह प्रावधान संविधान के ‘मूल ढांचे का उल्लंघन’ करता है.

याचिका में अदालत से अनुरोध किया गया है कि इसका निपटारा होने तक संविधान (103 वां) संशोधन अधिनियम, 2019 के क्रियान्वयन पर अंतरिम रोक लगाई जाये. याचिका पर 21 जनवरी को सुनवाई की संभावना है.

डीएमके ने अपनी याचिका में दावा किया है कि आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य उन समुदायों का उत्थान कर सामाजिक न्याय करना है, जो सदियों से शिक्षा या रोजगार से वंचित रहे हैं.

डीएमके के संगठन सचिव आर एस भारती ने याचिका में कहा, ‘‘इसलिए, आवश्यक रूप से समानता के अधिकार का अपवाद केवल उन समुदायों के लिए उपलब्ध है, जो सदियों से शिक्षा और रोजगार से वंचित रहे हैं. हालांकि, पिछड़े वर्गों के लोगों में ‘‘क्रीमी लेयर’’ को बाहर रखने के लिए आर्थिक योग्यता का इस्तेमाल एक फिल्टर के रूप में किया गया है.’’

उन्होंने कहा, ‘‘ इस तरह, समानता के नियम के अपवाद के रूप में केवल आर्थिक योग्यता का इस्तेमाल करना और सिर्फ आर्थिक मापदंड के आधार पर आरक्षण मुहैया करना संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है.’’ याचिकाकर्ता ने कहा, ‘‘…आरक्षण में 50 प्रतिशत की सीमा भी मूल ढांचे का हिस्सा है और उच्चतम न्यायालय ने कई मामलों में यह कहा है.’’

याचिका में कहा गया है, ‘‘हालांकि, तमिलनाडु पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (राज्य के तहत शैक्षणिक संस्थाओं में सीटों और नौकरियों में नियुक्ति एवं तैनाती में आरक्षण) कानून, 1993 के कारण तमिलनाडु में यह सीमा 69 प्रतिशत है. इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दिया गया है.’’

उन्होंने कहा कि राज्य में आरक्षण 69 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता. हालांकि, हालिया संशोधन ने आरक्षण को बढ़ा कर 79 प्रतिशत करने को संभव बनाया गया और यह ‘‘असंवैधानिक’’ होगा. उन्होंने दलील दी कि संविधान में संशोधन करने की शक्ति की यह सीमा है कि इस तरह के संशोधनों से संविधान के मूल ढांचे को नष्ट नहीं किया जा सकता.

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टीम इंडिया ने सीरीज जीतकर रचा इतिहास

भारतीय क्रिकेट टीम ने शुक्रवार को मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड (एमसीजी) पर खेले गए तीसरे और निर्णायक वनडे मैच में ऑस्ट्रेलिया को सात विकेट से हरा दिया. इसी के साथ भारत ने तीन मैचों की वनडे सीरीज 2-1 से अपने नाम कर ली है. भारतीय गेंदबाजों ने बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए ऑस्ट्रेलिया को 48.4 ओवरों में 230 रनों पर ढेर कर दिया था. इस लक्ष्य को भारत ने 49.2 ओवरों में तीन विकेट खोकर हासिल कर जीत दर्ज की.

मेलबर्न वनडे में भारत के लिए अनुभवी बल्लेबाज महेंद्र सिंह धोनी ने नाबाद 87 और केदार जाधव ने नाबाद 61 रन बनाए. उनके अलावा विराट कोहली ने 46 रन बनाए. इससे पहले, ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाज युजवेंद्र चहल की फिरकी में फंस कर रह गए. लेग स्पिनर चहल ने छह विकेट अपने नाम किए। आस्ट्रेलिया के लिए पीटर हैंड्सकॉम्ब ने सबसे ज्यादा 58 रन बनाए जिसके लिए उन्होंने 63 गेंदें खेलीं और दो चौके मारे. हैंड्सकॉम्ब के अलावा शॉन मार्श ने 39 और उस्मान ख्वाजा ने 34 रन बनाए.

यह टीम इंडिया की ऑस्ट्रेलिया की सरजमीं पर द्विपक्षीय वनडे सीरीज में पहली जीत है. इसके साथ ही टीम इंडिया ने इतिहास रच दिया है. यह ऑस्ट्रेलिया की वनडे सीरीज में लगातार छठवीं हार है. वे आखिरी बार पाकिस्तान के खिलाफ 2017 में वनडे सीरीज अपने घर पर ही जीते थे.

टीम इंडिया पहली टीम है जो ऑस्ट्रेलिया का दौरा करने के बाद वनडे, टेस्ट और टी20 तीनों में नहीं हारी. धोनी इस सीरीज में फॉर्म में नजर आए और तीन अर्धशतक जमाए. उनको शानदार प्रदर्शन के लिए मैन ऑफ द सीरीज चुना गया.

बसपा को लेकर बहनजी की घोषणा का बहुजनों ने किया स्वागत

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नई दिल्ली। बसपा प्रमुख मायावती द्वारा अपने भतीजे आकाश को बीएसपी से जोड़ने की घोषणा के बाद बहुजन समाज के एक तबके में खासा उल्लास है. बहुजन समाज पार्टी के तमाम समर्थकों ने बहनजी के इस फैसले का स्वागत किया है, लेकिन लगे हाथ आकाश के लिए सुझाव भी दिया है. मायावती ने 17 जनवरी को मीडिया से बात करते हुए अपने भतीजे आकाश को बीएसपी के मूवमेंट से जोड़कर उनको संघर्ष से जोड़ने और सीखने का मौका देने की बात कही थी. इस दौरान मायावती ने मीडिया को भी आड़े हाथों लिया था और अपना गुस्सा जाहिर किया था. इसकी वजह यह थी कि बहनजी के जन्मदिन के दिन और पिछले कुछ दिनों में आकाश के बार-बार दिखने के कारण मीडिया इसको बसपा के भीतर परिवारवाद बताकर मायावती को निशाने पर ले रहा था. हालांकि बसपा समर्थकों ने इस तर्क को खारिज कर दिया है. आकाश के बीएसपी में सक्रिय होने की खबर के सामने आने के बाद ही प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ गई है. ‘दलित दस्तक’ द्वारा इस खबर को चलाने के बाद इस पर महज 15 घंटों के भीतर 100 से ज्यादा प्रतिक्रियाएं आई है. उससे साफ पता चल रहा है कि बसपा समर्थकों ने शुरुआती तौर पर बहनजी के इस फैसले को साकारात्मक रूप से लिया है. अमृत प्रकाश ने लिखा है-

फिलहाल इसमें कुछ गलत नहीं है, पर आकाश जमीन पर जाकर काम करें. मीडिया मनुवादी है. मीडिया ऐसा ही करेगा. विपिन कुमार का सुझाव है कि आकाश को छोटे कार्यकर्ता के पद से शुरुआत करनी चाहिए, जिससे उनको जमीनी स्तर की राजनीति की जानकारी हो सकेगी. सुशील कुमार ने भी इसी बात को दोहराते हुए लिखा है कि आकाश भाई को युवा नेता के रूप उभर कर जमीनी शुरूआत करनी चाहिए. Roshan Padwar का कहना है कि, सवर्ण मीडिया भाजपा और कांग्रेस सहित मनुवादी दलों के वंशवाद, परिवारवाद की बातें नहीं करती, जबकि बसपा की छोटी सी बात का बतंगड़ बना रही है. यही सवर्ण मीडिया का दोगलापन है. चिरंजीव लाल और विजयभान ने बसपा प्रमुख के इस फैसले का समर्थन किया है. उन्होंने लिखा है- बहनजी का फैसला बिल्कुल सही है. मुझे बहुत खुशी हुई. इसी तरह कुछ लोगों ने आकाश को चुनाव लड़वाने की भी मांग कर दी है. तो कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि पार्टी का उत्तराधिकारी कोई जमीनी कार्यकर्ता होना चाहिए, न कि परिवार का कोई व्यक्ति. जैसा की मान्यवर कांशीराम ने किया था. हालांकि बसपा में फिलहाल उत्तराधिकारी का कोई सवाल नहीं है. और वो बहुत बाद की बात होगी. बसपा प्रमुख ने भी अपने बयान में आकाश को सिर्फ बीएसपी मूवमेंट से जोड़ने की बात कही है, न कि उत्तराधिकारी बनाने की. फिलहाल सभी प्रतिक्रियाओं को देखें तो बहुजन कार्यकर्ताओं ने बसपा प्रमुख के फैसले का स्वागत किया है.

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आर्थिक आधार पर आरक्षण : आशंकाएं एवं नयी संभावनाएं

हाल में भाजपा सरकार द्वारा आर्थिक तौर पर वंचित लोगों को सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण देने सम्बन्धी बिल पास कराया गया है और संविधान संशोधन किया है जिसे राष्ट्रपति की स्वीकृति भी मिल गयी है. यह भी उल्लेखनीय है कि इसे लगभग सभी राजनीतिक दलों का समर्थन मिला है. यद्यपि केन्द्रीय सरकार द्वारा इस सम्बन्ध में अभी तक कोई शासनादेश जारी नहीं किया गया है परन्तु गुजरात सरकार ने इसे तुरंत लागू करने का फैसला किया है. यह भी उल्लेखनीय है कि इसे सवर्णों के ही एक संगठन द्वारा सुप्रीम कोर्ट चुनौती भी दे दी गयी है.

इस व्यवस्था के अंतर्गत समाज के आर्थिक तौर पर पिछड़े तबके के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं (सरकारी एवं गैर सरकारी) में 10% आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है. इस श्रेणी के लोगों को चिन्हित करने के लिए 8 लाख से कम वार्षिक आय, 5 एकड़ से कम ज़मीन, शहरी क्षेत्र में 1000 वर्ग फुट, छोटे नगरों में 100 वर्ग गज तथा ग्रामीण क्षेत्र में 200 वर्ग गज से कम पलाट होने की शर्त रखी गयी है. यह भी उल्लेखनीय है इस माप दंड के अंतर्गत समाज का 90% हिस्सा आ जाता है.

अब देखने की बात यह है कि क्या यह भाजपा सरकार की गरीबों को वास्तविक लाभ पहुँचाने की भावना से प्रेरित है या केवल आसन्न चुनाव में राजनीतिक लाभ के लिए गरीब लोगों को प्रभावित करने का प्रयास है. यह बात भी सही है कि अब तक भाजपा तमाम वायदों और सबका साथ, सब का विकास जैसे नारों के बावजूद समाज के कमज़ोर तबकों, किसानों और मजदूरों की समस्यायों को हल करने में नाकामयाब रही है. सरकार प्रति वर्ष 2 करोड़ रोज़गार पैदा करने के वायदे के विपरीत कुछ लाख ही रोज़गार पैदा कर सकी है. सरकारी क्षेत्र में रोज़गार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं और बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ऐसी स्थिति में ऐसा नहीं लगता कि प्रस्तावित आरक्षण व्यवस्था समाज के आर्थिक तौर पर गरीब लोगों को कोई वास्तविक लाभ पहुंचा पायेगा. अतः बेरोगजारी समस्या का हल तो अधिक रोज़गार सृजन ही है न कि आरक्षण.इसके साथ ही रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने तथा निजी क्षेत्र में भी आरक्षण को लागू करने की ज़रुरत है.

अब अगर आरक्षण के प्रस्तावित मापदंडों को देखा जाये तो यह बहुत ही अन्यायकारी और अव्यवहारिक हैं क्योंकि 8 लाख की आय सीमा के अंतर्गत गैर अनुसूचित और अनुसूचित जातियों का 90% तबका आ जाता है जिसके लिए 10% आरक्षण प्रस्तावित किया गया है. इसी प्रकार 5 एकड़ कृषि भूमि की सीमा भी बहुत ऊँची है जबकि लघु एवं सीमांत कृषकों की संख्या बहुत अधिक है. इसी प्रकार मकान के पलाट के साईज वाला माप दंड भी बहुत अव्यवहारिक है. अब सरकार अगर वास्तव में समाज के गरीब तबकों को कोई लाभ पहुंचना चाहती है तो 8 लाख की आय की सीमा को घटा कर आय कर से मुक्त व्यक्तियों और 5 एकड़ की सीमा को कम कर के लघु एवं सीमांत कृषक और प्लाट का साईज़ निर्बल वर्ग आवास तक ही सीमित किया जाना चाहिए.

यदि प्रस्तावित आरक्षण के संवैधानिक पहलू को देखा जाए तो वर्तमान में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का कोई भी प्रावधान नहीं है. इससे पहले भी जब जब आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया गया है तो इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया जाता रहा है. आरक्षण का वर्तमान आधार सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन सामूहिक और जातिगत है जबकि गरीबी व्यक्तिगत स्थिति है. सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन ऐतहासिक परिस्थियों की देन है जबकि आर्थिक पिछड़ापन सरकार की आर्थिक नीतियों का परिणाम है और परिवर्तनीय है. अतः प्रस्तावित आरक्षण के सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किये जाने की भी प्रबल सम्भावना है क्योंकि यह संविधान की मूल भावना के विपरीत है. यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% है जबकि प्रस्तावित आरक्षण इसे 60% तक ले जाता है. इस आधार पर भी इसके सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किये जाने की सम्भावना है.

यह भी विचारणीय है कि आरक्षण का मूल प्रयोजन सदियों से व्यवस्था से बाहर रखे गये अनुसूचित जाति/ जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के लोगों को प्रशासन, राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में विशेष अवसर दे कर प्रतिनिधित्व द्वारा शेष वर्गों के समकक्ष समानता स्थापित करने का है. यह कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है. उच्च वर्गों की गरीबी दूर करने के लिए गरीबी उन्मूलन एवं कल्याणकारी कार्यक्रमों को मजबूती से लागू करने की है जबकि सरकार इन कार्यक्रमों का बजट लगातार घटा रही है. अतः राज्य के कल्याणकरी कार्यक्रमों हेतु अधिक बजट दिए जाने की ज़रुरत है.

सामाजिक न्याय के नाम पर दलित बहुजन दृष्टि वाले कुछ नेता यह मांग उठाते हैं कि आरक्षण को सभी जातियों में उनकी आबादी के अनुपात में बाँट देना चाहिए. यह तर्क एक दम बेतुका है क्योंकि आरक्षण कोई खैरात नहीं है जिसे सबको बाँट देना चाहिए. यह एतहासिक तौर पर शोषण और भेदभाव का शिकार हुए तबकों को विशेष अवसर देकर मुख्य धारा मे प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था है न कि कोई आर्थिक लाभ पहुँचाने की. इसके अतिरिक्त जब वर्तमान व्यवस्था में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% है तो फिर इसे 100% कैसे किया जा सकता है. इस सम्बन्ध में दलित वर्ग के अन्दर भी एक भय पैदा हो गया है कि यदि आज सवर्णों के लिए आरक्षण का आर्थिक आधार हो जाने से कल को दलितों के आरक्षण के जातीय आधार को अर्थिक आधार में बदलने की मांग जोर पकड़ सकती है.

मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित आरक्षण का एक सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि इससे सवर्णों द्वारा आरक्षण के विरोध का आधार समाप्त हो गया है क्योंकि इसे समाज के सभी वर्गों ने स्वीकार कर लिया है. इससे अब तक दिए गये आरक्षण का औचित्य और आवश्यकता भी सिद्ध हो गयी है. इसके अतिरिक्त इसने सवर्णों के अभिजात्य वर्ग द्वारा इसका विरोध करने के कारण सवर्णों की जातीय एकजुटता को भी कमज़ोर किया है जोकि लोकतंत्र के हित में है और स्वागतयोग्य है.

जिस जल्दबाजी और समय के बिंदु पर मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण की घोषणा की है वह एक राजनीतिक चालबाजी का प्रतीक है. इसके माध्यम से भाजपा एक तो सवर्णों के गरीब तबके जो कि उससे तेजी से हट रहा था को आरक्षण दे कर जोड़े रखने का प्रयास कर रही है वहीं वह इसका विरोध करने वाली पार्टियों को भी गरीब विरोधी घोषित करके लाभ लेने के प्रयास में थी परन्तु उसे इसमें आंशिक सफलता ही मिली है. इसके विपरीत सवर्णों का अभिजात्य वर्ग उससे नाराज़ हो गया है क्योंकि इसमें उसे अपने लिए खतरा दिखायी दे रहा है. उसे लगता है कि आगे चल कर आरक्षण की सीमा और भी बढ़ाई जा सकती है. इसी लिए किसी और ने नहीं बल्कि “यूथ फार इक्वालिटी”’ जो हमेशा से जातिगत आरक्षण का विरोध करती रही है ने इसका विरोध करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में रिट दाखिल कर दी है. इसके इलावा अगर सुप्रीम कोर्ट इस आरक्षण को रद्द नहीं करती तो यह पिछड़े वर्गों द्वारा भी अपने आरक्षण की सीमा बढ़ाये जाने की मांग को उठाने के लिए प्रेरित कर सकता है.

यह भी सर्वविदित है कि आरक्षण उत्पीडित वर्गों में शासक वर्ग को अपना विस्तार करने और एक नये अभिजात्य वर्ग को जन्म देने का अवसर देता है जिसका स्वार्थ उसे शासक वर्ग में आत्मसात होने के लिए प्रेरित करता है. यह देखा गया है कि दलित और पिछड़े वर्गों में जो अभिजात्य वर्ग (क्रीमी लेयर) पैदा हुआ है जिसका स्वार्थ आरक्षण के लाभ को अधिक से अधिक अपने लिए हथियाने का होता है. यह भी एक आम चर्चा है अब तक आरक्षण का लाभ केवल कुछ संपन्न परिवारों तक ही सीमित हो कर रह गया है. यह भी आरोप लगाया जाता है कि इन वर्गों का अभिजात्य हिस्सा आरक्षण के माप दंडों शिथिल करने का विरोध करता है, जैसे क्रीमी लेयर के लिए आय सीमा को कम किया जाना. सवर्ण तबका प्राय यह मांग करता रहा है कि इन वर्गों के संपन्न परिवारों तथा एक बार आरक्षण से लाभान्वित हो चुके परिवारों को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए. नई आरक्षण व्यवस्था इस बहस को और भी गति देगी.

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मोदी सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर लाया गया आरक्षण यद्यपि सवर्णों के गरीब तबकों को वास्तविक लाभ पहुँचाने की बजाये राजनीति से अधिक प्रेरित है परन्तु फिर भी इसके बहुत सारे निहितार्थ हैं. यदि इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द नहीं किया जाता तो यह समाज के अन्दर नये समीकरणों को जन्म दे सकता है और सवर्ण जातीय एकजुटता को कमज़ोर कर सकता है. दलित, ओबीसी तथा सवर्णों के अभिजात्य वर्ग की शेष तबकों के विरुद्ध निहितस्वार्थ के लिए एकजुटता को भी जन्म दे सकता है. जहाँ तक भाजपा के लिए इससे राजनीतिक लाभ की बात है वह बहुत सीमित ही होगा क्योंकि जहाँ एक तरफ गरीब सवर्ण खुश हो सकता है तो वहीं उच्च सवर्ण नाराज़ भी हो सकता है. वैसे कुल मिला कर आर्थिक आधार पर आरक्षण पूरे सामाजिक के लिए एक दिलचस्प परिघटना है जिसके दूरगामी सामाजिक एवं राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं.

एस.आर.दारापुरी पूर्व आई.जी. एवं संयोजक जन मंच Read it also-विश्व पुस्तक मेले में संत रविदास और सहारनपुर की घटना पर दो महत्वपूर्ण पुस्तक का विमोचन

देव कार्यक्रम में दलित युवक की गोद में गिरा फूल, लोगों ने पीटा

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हिमाचल प्रदेश में कुल्लू की बंजार घाटी के थाटीबीड़ में करथा मेले में परंपरा के नाम पर अनुसूचित जाति के युवक केे पिटाई करने का मामला सामने आया है. पीड़ित युवक एसपी से मामले की शिकायत की है. पीडित का आरोप है कि वह 10-12 दोस्तों के साथ मेले में गया हुआ था और इस दौरान देवता का आशीर्वाद माना जाने वाला नरगिस का फूल उसकी गोद में गिरा. जिस पर कारिंदों ने आपत्ति जताई और कहा कि यह अनुसूचित जाति का है और नरगिस का फूल इसके पास गिरना अपशगुन हो गया है. जिसके बाद भीड़ ने युवकों की पिटाई कर दी.

युवक ने शिकायत में कहा कि भीड़ ने उसके साथ मारपीट की और साथ में आए दोस्तों को भी दौड़ा-दौड़ाकर पीटा. युवक ने देव कारिंदों पर आरोप लगाया है कि इसके लिए पहले उनसे 11 हजार रुपए जुर्माना मांगा गया. लेकिन दोस्तों ने 5100 रुपए देकर जान बचाई. युवक ने कारिंदों पर यह भी आरोप लगाया है कि देव कारिंदों ने उनके साथ जाति सूचक शब्दों का भी प्रयोग किया. युवक ने प्रदेश सरकार से मामले में उचित कार्रवाई की मांग की है.

पीड़ित ने एसपी कुल्लू से शिकायत करने के बाद उचित कार्रवाई की मांग की है. पीड़ित ने शिकयत में आधा दर्जन से अधिक लोगों के नाम दिए हैं. युवक ने कहा कि सरकार इस मामले में गहनता से छानबीन करवाए और जितने भी दोषी हैं उन सबकों को कड़ी सजा दी जाए.

एसपी कुल्लू शालिनी अग्निहोत्री ने कहाकि कि पीड़ित ने उनके पास शिकायत दी है. पीड़ित की मेडिकल जांच करवाई जा रही है और इसकी जांच के आदेश दिए गए हैं. जल्द ही इस मामले में बंजार थाने में मामला दर्ज किया जाएगा और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई अमल में लाई जाएगी.

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पीएम पद के लिए मोदी के बाद मायावती दूसरी सबसे दमदार

नई दिल्ली। बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों का महागठबंधन बन सकने की संभावना ने हाल के महीनों में इस अटकलबाजी को हवा दी है कि पीएम नरेंद्र मोदी मई में होने वाले आम चुनाव में सत्ता से बाहर हो जाएंगे. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद इसके कुछ नेताओं ने लोकसभा चुनाव में 120-150 सीटें जीतने का अनुमान भी दे डाला है. ऐसा होने पर बीजेपी विरोध गठबंधन का नेतृत्व करते हुए कांग्रेस सत्ता में आ सकती है.

हालांकि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती का जलवा बढ़ने से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का चांस कुछ कमजोर पड़ा है. एसपी और बीएसपी ने अपने गठबंधन में कांग्रेस को जगह नहीं दी. हालांकि दोनों दल रायबरेली और अमेठी में अपने उम्मीदवार नहीं उतारेंगे.

एसपी-बीएसपी का सपोर्ट न होने पर कांग्रेस हो सकता है कि यूपी की 80 में से केवल दो लोकसभा सीटें जीत पाए. ऐसा होने पर 543 सदस्यों की लोकसभा में कांग्रेस का आंकड़ा 100 तक पहुंचना भी मुश्किल होगा. कई क्षेत्रीय दलों को बीजेपी से डर तो है ही, वे कांग्रेस से भी सतर्क रहते हैं. उन्हें भले ही मोदी पसंद न हों, लेकिन गांधी को गले लगाने से वे हिचकते हैं. वे खुद अगुवा बनना चाहते हैं.

मायावती की संभावना मजबूत

ऐसी भी संभावना है कि एसपी-बीएसपी मिलकर पीएम पद के लिए मायावती को आगे बढ़ाएं, जबकि 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव को यूपी के सीएम कैंडिडेट के रूप में पेश किया जाए. इससे दोनों की महत्वाकांक्षा पूरी होगी. यह गठबंधन यूपी में 60 सीटें जीतने की उम्मीद कर रहा है. 2014 के आम चुनाव के दौरान 80 में से 41 सीटों पर इन दोनों दलों को मिले कुल वोट एनडीए के वोट से ज्यादा थे. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में उनका कंबाइंड वोट शेयर 80 में से 57 लोकसभा क्षेत्रों में ज्यादा रहा.

सत्ता विरोधी रुझान से मोदी का वोट शेयर अगर और कम हो तो यह गठबंधन 57 से ज्यादा सीटें जीतने की भी उम्मीद कर सकता है. इस तरह यह संसद में क्षेत्रीय दलों का सबसे बड़ा ग्रुप बन जाएगा और पीएम पद पर दावा करने की स्थिति में होगा.

समाजवादी पार्टी ने लिया सबक

एसपी-बीएसपी के रिश्ते का इतिहास हालांकि मधुर नहीं रहा है. 1995 में मुलायम सिंह यादव की अध्यक्षता के समय एसपी के विधायकों ने उस गेस्ट हाउस पर हमला कर दिया था, जहां मायावती थीं. आरोप है कि वह भीड़ मायावती की जान ले सकती थी, लेकिन एक साहसी जूनियर पुलिस अफसर ने ऐसा होने नहीं दिया. मायावती ने उसके लिए मुलायम सिंह यादव को कभी माफ नहीं किया, लिहाजा दोनों के बीच गठबंधन संभव नहीं था. हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश यादव ने परिवार में तख्तापलट कर अपने पिता के हाथ से पार्टी की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी.

मायावती को यह नजारा रास आया होगा. वह मुलायम से कभी हाथ नहीं मिला सकतीं, लेकिन आज वह अखिलेश से जुड़कर खुश हैं. एसपी पिछड़े वर्ग के अधिकतर वोट पाने की उम्मीद कर रही है. बीएसपी अधिकतर दलित वोट पाने की उम्मीद कर रही है. उनका सोचना है कि अपर कास्ट के वोटर बीजेपी और कांग्रेस में बंट जाएंगे, जिससे ये दोनों पार्टियां कमजोर हो जाएंगी.

कांग्रेस 2017 के विधानसभा चुनाव में एसपी के साथ थी. एसपी ने 403 विधानसभा सीटों में से 105 कांग्रेस के लिए छोड़ी थीं. बीजेपी ने लेकिन 312 सीटें जीतकर सबकी हवा खराब कर दी. कांग्रेस को सात सीटों से संतोष करना पड़ा. इससे एसपी ने यह नतीजा निकाला कि कांग्रेस कमजोर तो है ही, वह अपने वोट सहयोगी दलों को दिलवा भी नहीं सकती.

कांग्रेस को खारिज नहीं किया जा सकता

बिहार, कर्नाटक, तमिलनाडु और संभवत: हरियाणा में कांग्रेस के पास दमदार क्षेत्रीय सहयोगी हैं. हालांकि वेस्ट बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना के क्षेत्रीय दल केंद्र में गैर-बीजेपी, गैर-कांग्रेस सरकार बनने से खुश होंगे. इसकी संभावना कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन से ज्यादा दमदार दिखने लगी है.

यूपी के ताजा घटनाक्रम के बाद मोदी का अपने दम पर जीतने का कुल चांस 50 प्रतिशत पर बना हुआ है, लेकिन कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन का चांस घटकर 10 प्रतिशत रह गया है. थर्ड फ्रंट गवर्नमेंट का चांस 40 प्रतिशत हो गया है. पीएम पद के लिए मोदी के बाद दूसरी सबसे दमदार दावेदार अब मायावती हैं. राहुल गांधी बहुत पीछे दिख रहे हैं.

हालांकि आने वाले दिनों में मोदी कम आमदनी वालों के लिए बेसिक इनकम और अयोध्या में राम मंदिर बनाने की योजना की घोषणा कर सकते हैं या पाकिस्तान पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कर सकते हैं. या हो सकता है कि ग्लोबल इकनॉमी में मंदी का साया मोदी सरकार को घेर ले. अभी कुछ भी फाइनल नहीं है.

श्रोत-नवभारत टाइम्स इसे भी पढ़ें-स्टिंग ऑपरेशन: देश के इन बड़े मंदिरों में नहीं मिलती दलितों को एंट्री

सवर्णों को 10% आरक्षण

जब से सवर्णों को 10% आरक्षण का मामला आगे बढ़ा है और जल्दबाजी में संविधान संशोधन और आरक्षण का बिल पास किया गया, यह घटना हैरान करने वाली है. समझ नहीं पा रहा हूं कि इस लेख की शुरुआत कहां से करूं. बहुत सारे लोग इस घटना से प्रतिक्रिया विहीन हो गए हैं. कुछ समझ नहीं पा रहे हैं कि ऐसा कैसे हो गया. राजनीतिक दलों की अपनी मजबूरी हो सकती है. इस बिल को समर्थन देने के लिए. लेकिन बहुत सारे प्रश्न इस बिल के साथ में खड़े हो रहे हैं. सबसे पहला प्रश्न यह है कि क्या भाजपा को सवर्ण आरक्षण बिल से फायदा मिलेगा? जिस मकसद से भाजपा ने आरक्षण बिल को आनन-फानन पास करवाया है.
यह तो तय है कि आरक्षण बिल सवर्णों को मिले या ना मिले. सवर्ण हमेशा से भाजपा का वोटर रहा है. 10% बिल के बाद भी वह भाजपा का सपोर्टर रहेगा उसका वोटर भी रहेगा. इससे भाजपा को बहुत ज्यादा लाभ होते हुए नहीं दिख रहा है. हां यह बात तय है कि गैर सवर्णों से भाजपा को नुकसान पहुंच सकता है. क्योंकि यदि 12 से 15% स्वर्ण भारत में हैं. तो 85% जनता इस बिल के कारण या तो आहत है या फिर विरोध में है.
आइए हम 10% आरक्षण बिल के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हैं.
संविधान के मुताबिक आरक्षण क्या है?
मैं बता दूं कि आरक्षण जो संविधान की मंशा के अनुरूप एससी एसटी और ओबीसी को दिया गया था. इसका जन्म दरअसल आजादी के पहले मिले हुए कम्युनल अवॉर्ड से हुआ.
उसके बाद पूना पैक्ट में पारित कंडिकाओं के अनुरूप संविधान में आरक्षण शामिल किया गया. डॉक्टर भीमराव अंबेडकर द्वारा द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में अछूत जातियों में प्रतिनिधित्व के सवाल को लेकर मुद्दा उठाया गया था. जिसे स्वीकार करते हुए कम्युनल अवार्ड की घोषणा की गई और जिस पर गांधी का अनशन फिर पूना पैक्ट और इसके बाद संविधान में आरक्षण की धाराएं जोड़ी गई.
आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम कभी भी नहीं रहा है.
बता दू इन सारे पहलू में आरक्षण कहीं पर भी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है. यह दरअसल छोटी-छोटी पिछड़ी सामाजिक रूप से दलित पतित जातियों को विभिन्न सरकारी पदों में हिस्सेदारी या प्रतिनिधित्व के रूप में जोड़े जाने का प्रयास था. ताकि उन्हें मुख्यधारा मे लाया जा सके. आरक्षण के बारे में संविधान का मत निम्नलिखित है.
1         आरक्षण एक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है.
2         आरक्षण सामाजिक प्रतिनिधित्व पर आधारित है.
3         संविधान में आरक्षण पूना पैक्ट के समझौते के अनुसार दिया गया है.
4         आरक्षण धर्म ग्रंथों के अनुसार दमित छुआछूत के शिकार हुए लोग और समाज के हाशिए के लोगों को दिया गया जिन्हें कभी भी किसी प्रकार का कोई सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं था.
डॉ अंबेडकर ने प्रतिनिधित्व के सवाल को लेकर बात रखी थी उनका कहना था कि 10 से 12% सवर्णों का 90% संसाधनों में कब्जा है वे तमाम सरकारी विभागों में चाहे न्यायपालिका हो चाहे मंत्रालय हो चाहे कर्मचारी हो तमाम जगह वही हैं और दलित आदिवासी पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व इन क्षेत्रों में बहुत ही कम है. दरअसल इसलिए आरक्षण की व्यवस्था का उन्होंने प्रावधान रखा था. आजादी के बाद से 49.5 परसेंट आरक्षण दिए जाने के बावजूद सवर्ण जो ऊंचे पदों में विराजमान हैं उन्होंने किसी ना किसी प्रकार से इस आरक्षण को लागू होने नहीं दिया. आइए जानते हैं कि वह किस प्रकार इस आरक्षण को शत प्रतिशत लागू होने से रोके रहे हैं.
1         आरक्षण का रोस्टर बनाने में गड़बड़ी रोस्टर छोटे संख्या में बनाया गया है या विभाग बार या विभाग के बजाय उपविभाग बार बनाया गया ताकि रक्षित पदों की संख्या कम होती जाए.
2         तमाम यूनिवर्सिटी से लेकर के बड़े पदों में योग्य उम्मीदवार नहीं है कहकर पद को खाली रखा गया या फिर सवर्णों के द्वारा भर दिया गया जो कि पूरी तरीके से गैरकानूनी है प्रतिनिधित्व के सवाल में योग्यता कोई मायने नहीं रखता है.
3         बैकलॉग को जानबूझकर नहीं भरा गया या उसकी भर्तियां नहीं निकाली गई ताकि कोई आरक्षित वर्ग का व्यक्ति पदस्थ ना हो पाए.
4         आरक्षण जनसंख्या के अनुपात में दिया जाना था. एससी और एसटी को जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण दिया गया लेकिन मनुवादी मानसिकता के जजों ने इसे 50% पर रोक दिया. जबकि नियमानुसार ओबीसी को 52% आरक्षण मिलना चाहिए था लेकिन उन्हें 27% ही आरक्षण दिया गया यह आरक्षण प्रतिशत संविधान की भावना के विपरीत था.
5         इलाहाबाद के हाईकोर्ट ने तो जनरल कैटेगरी में आरक्षित वर्गों का प्रवेश ही रोक दिया यानी यानी 12% सवर्णों के लिए 50% सीट आरक्षित कर दिया.
6         जाति प्रमाण पत्र में रोड़े लगाए गए संविधान की भावना के विपरीत जाति प्रमाण पत्र को बेहद कठिन बना दिया गया. sc/st जाति प्रमाण पत्र के लिए 1950 के पूर्व के दस्तावेज मांगे जा रहे है, जबकि एक सफाई कामगार एक बहुत ही दलित व्यक्ति के लिए पुराने दस्तावेज उपलब्ध कराना बहुत ही मुश्किल है. इसीलिए वह जाति प्रमाण पत्र नहीं बना पाता है. इस प्रकार करीब 50% दलितों को आरक्षण से महरूम रखा गया है.
10% सवर्ण आरक्षण देने का मकसद क्या हो सकता है?
यह प्रचारित किया जा रहा है कि राजनीतिक मकसद से 10% सवर्णों को आरक्षण दिया गया ताकि एट्रोसिटी एक्ट लागू करने पर नाराज हुए सवर्णों को खुश किया जा सके. लेकिन इसके कई पहलू भी हैं यह खुले तौर पर संविधान संशोधन करने के लिए उनकी जो मंशा रही है उस का यह प्रयोग भी है. कि वह किस प्रकार से संविधान की मूल भावनाओं के साथ छेड़छाड़ कर सकते हैं. यदि यह प्रयोग सफल होता है और दोबारा भाजपा सत्ता में आती है तो पूरे संविधान को बदला जा सकता है.
सवर्णों को 10% आरक्षण देना यानी जनरल केटेगरी जिसमें एससी एसटी ओबीसी अल्पसंख्यक भी भाग्य आज़मा सकते हैं. उसमें से यानी 50 परसेंट से दस परसेंट कम करके 40 परसेंट कर देना है.
आज आप देख सकते हैं कि कोई भी सवर्ण मैला उठाने के लिए सीवर लाइन में नहीं उतरता है ना ही रिक्शा चलाता हुआ दिखता है. ना ही पशुओं के चमड़े उतारने का घिनौना काम करता है. सामाजिक रूप से शोषित और पीड़ित भी नहीं है. सवर्णों का सम्मान क भी गरीबी के कारण कम नहीं हुआ है ना ही उनका कभी सामाजिक शोषण हुआ है.
यदि प्रतिनिधित्व के सवाल को लेकर भी देखा जाए तो वे अपने प्रतिशत के अनुपात में कई गुना ज्यादा प्रतिनिधित्व विभिन्न क्षेत्रों में रखता है. ऐसी स्थिति में सवर्णों को 10% आरक्षण देने का मतलब होता है कि वास्तविक दबे कुचले पिछड़े लोगों को और शोषण गुलामी की कगार में लाकर खड़ा कर देना. खासकर ऐसे वक्त जब किसी ना किसी प्रकार से दलितों पिछड़ों के आरक्षण को कमजोर किया जा रहा है.
महिला आरक्षण विधेयक पर सवाल
सवर्णों का आरक्षण विधेयक उस समय आनन-फानन में पास किया गया जब इससे ज्यादा जरूरी महिलाओं का 33% आरक्षण विधेयक 4 साल से संसद में लंबित है यह इस बात को बताता है कि तत्कालीन सरकार की भावना क्या है वह महिलाओं के प्रति अपनी कोई ज़िम्मेदारी नहीं समझती है.
ऐसे समय जब तमाम बड़े मुद्दों पर काम करने की जरूरत है चाहे शिक्षा गरीबी बेरोज़गारी या फिर स्वास्थ्य का मामला हो. भारत लगातार सांप्रदायिक मुद्दों से जूझ रहा है, और आपसी सामाजिक सौहार्द्रता पर कड़वाहट बढ़ रही है. ऐसे समय में सवर्णों द्वारा आरक्षण की मांग किए बिना उन्हें 10% आरक्षण देना रहस्यमय है. यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा है क्या जो सवर्ण आरक्षण को देश के पिछड़ेपन का आधार बताता रहा है. आरक्षित वर्गों को जलील करता रहा है. क्या वह इस आरक्षण को स्वीकार कर पाएगा.
संजीव खुदशाह

मायावती ने किया भतीजे आकाश को बीएसपी मूवमेंट से जोड़ने के ऐलान

15 जनवरी को बहुजन नेत्री और बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती के जन्मदिन के दिन हालिया राजनीति से इतर भविष्य की एक और पटकथा लिखी जा रही थी और 17 जनवरी को यह पटकथा सबके सामने आ गई. बसपा प्रमुख मायावती ने घोषणा कर दिया है कि वो अपने भतीजे आकाश को बसपा के मूवमेंट से जोड़ेंगी. मीडिया को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में बसपा प्रमुख ने यह महत्वपूर्ण घोषणा की है.

इस दौरान उन्होंने उन तमाम मीडिया चैनलों को निशाने पर लिया है जो आकाश को लेकर दुष्प्रचार कर रहे थे. दरअसल आकाश के बसपा में सक्रिय होने के कयास तभी से लगाए जाने लगे थे जब वो अपनी बुआ मायावती के जन्मदिन के दिन उनके साथ दिखे. इससे पहले अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव से मुलाकात के दौरान भी आकाश प्रमुखता से अपनी बुआ के साथ दिखाई दिए थे.

बहनजी के जन्मदिन के दिन उनके साथ खड़े नीले सूट में आकाश ने कईयों का ध्यान खिंचा. इससे पहले सहारनपुर दौरे के दौरान भी मायावती आकाश को अपने साथ ले गई थीं. यहीं नहीं, कई मौकों पर रैली के दौरान मंच पर बहनजी के पीछे खड़े आकाश की मौजूदगी रही. तो कई बार बसपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से भी आकाश बाहर निकलते दिखाई दे चुके हैं. दलित दस्तक ने भी एक बार आकाश को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से बाहर निकलते हुए अपने कमरे में कैद किया था. लखनऊ में बसपा सुप्रीमो के जन्मदिन के कार्यक्रम के दौरान आकाश घर से लेकर दफ्तर तक गाड़ी में मायावती के साथ दिखे थे. यही नहीं जब अखिलेश यादव मायावती के घर पहुंचे थे तो फूल और शॉल देते वक्त वह मायावती के ठीक बगल में खड़े थे. इससे पहले 12 जनवरी को सपा-बसपा गठबंधन के दौरान भी आकाश की मौजूदगी थी.

इन तमाम गतिविधियों के बाद आकाश का बसपा में सक्रिय होना तकरीबन तय माना जा रहा था. क्योंकि बार-बार अपनी बुआ और बसपा अध्यक्ष मायावती के साथ दिखना कोई इत्तेफाक नहीं है, क्योंकि मायावती अपने इतने करीब किसी को नहीं रखती हैं, भले ही वह उनके परिवार का कोई सदस्य ही क्यों न हो. लेकिन हालिया घोषणा से साफ हो गया है कि आकाश अब अपनी बुआ का हाथ बटाएंगे. मायावती अब अपने भतीजे के लिए राजनीति में क्या पटकथा लिखती हैं, यह देखना बाकी है.

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सपा-बसपा ने किया 22 सीटों का फैसला, देखिए कहां से किसका होगा प्रत्याशी

नई दिल्ली। जब अन्य दल 2019 चुनावों को लेकर अपनी रणनीति को फाइनल करने में जुटे हैं, गठबंधन की घोषणा से आगे बढ़ते हुए सपा और बसपा ने सीटों को लेकर बातचीत शुरू कर दी है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पहले चरण में इस गठबंधन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 22 लोकसभा सीटों पर फैसला कर लिया है. इन सीटों पर यह तय हो गया है कि कहां से किस पार्टी का उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरेगा. खबरों के मुताबिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मजबूत दखल रखने वाली बहुजन समाज पार्टी सबसे ज्यादा 11 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि 8 सीटों पर समाजवादी पार्टी और 3 सीटों पर गठबंधन में हाल ही में शामिल हुए राष्ट्रीय लोकदल का उम्मीदवार मैदान में उतरेगा. बाकी बचे 56 सीटों पर जल्द ही फैसला लेने की बात कही जा रही है.

सीटों के बंटवारे के बाद जो तस्वीर सामने आई है, उसमें बहुजन समाज पार्टी नोएडा, गाजियाबाद, मेरठ-हापुड़, बुलंदशहर, आगरा, फतेहपुर सिकरी, सहारनपुर, अमरोहा, बिजनौर, नगीना और अलीगढ़ लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी.

जबकि समाजवादी पार्टी के हिस्से में हाथरस, कैराना, मुरादाबाद, संभल, रामपुर, मैनपुरी, फिरोजाबाद और एटा की सीटें आई है. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और राष्ट्रीय लोकदल के उपाध्यक्ष जयंत सिंह की मुलाकात के बाद गठबंधन में शामिल हुए राष्ट्रीय लोकदल के हिस्से में तीन सीटें आई है. रालोद बागपत, मुजफ्फरनगर और मथुरा में अपने उम्मीदवार उतारेगी. हालांकि इस बारे में सपा और बसपा की ओर से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है.

बतातें चले की सपा बसपा में हुए गठबंधन में दोनों दलों ने 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया था. रायबरेली और अमेठी में गठबंधन ने उम्मीदवार नहीं उतारने का फैसला किया है, जबकि बाकी की बची दो सीटें रालोद को दी गई हैं. इसके अलावा सपा अपनी एक और सीट रालोद के लिए छोड़ने पर राजी हो गई है. जबकि रालोद का एक अन्य उम्मीदवार सपा के टिकट पर चुनाव लड़ेगा.

इस बंटवारे के साथ ही बसपा ने अब उम्मीदवारों के नामों को फाइनल करना शुरू कर दिया है. दरअसल बसपा चुनाव से काफी पहले ही लोकसभा प्रभारी घोषित कर देती है, जिसे पार्टी का संभावित उम्मीदवार माना जाता है. 22 सीटों पर फैसले के साथ ही गठबंधन ने चुनावी तैयारियों में अपने विपक्षी दलों पर बढ़त बना ली है.

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बीजेपी ने दलितों को खिलाई खिचड़ी : आंध्र प्रदेश में ब्राह्मणों को कारें

विदित हो कि 06.01.2019 (रविवार) को दिल्ली के रामलीला मैदान में बीजेपी ने दलितों को अपने पक्ष में लुभाने के लिए ‘भीम महासंगम’ का आयोजन किया जिसमें एक ही बर्तन में 5,000 किलो खिचड़ी तैयार की गई. खिचड़ी खाने वालों में कितने दलित थे, यह तो सही से नहीं कहा जा सकता लेकिन यह कहने में कोई हिचक नहीं कि खिचड़ी खाने वालों की कतार में आरक्षित सीटों से जीतकर लोकसभा में पहुँचने वाले दलित नेताओं में से किसी की सूरत देखने को नहीं मिली, शायद वो आम दलितों से ऊपर उठ चुके हैं. शायद यही कारण रहा होगा कि 09.01.2019 को आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य जाति से जुड़े लोगों को 10% आरक्षण के हक में इन दलित नेताओं ने लोकसभा और राज्य सभा में दिखावे के तौर पर भाषण तो जोरदार दिए किंतु तेजस्वी यादव गुट और ओवेसी गुट के सांसदों ने आर्थिक रूप से पिछड़े तथाकथित उच्च जातियों से जुड़े लोगों को 10% आरक्षण का खुलकर विरोध किया, बाकी किसी ने नहीं. पिछ्ड़े वर्ग के नेताओं ने भी भाषण तो दमदार दिए और पिछ्ड़े वर्ग के हक अपनी-अपनी वोट पक्के करने के लिए विडियो तैयार करके भी वायरल करवाए किंतु संबंधित बिल का विरोध न करके 10% आरक्षण के हक में ही अपना-अपना वोट डाला. ज्ञात हो कि 1993 में जब पिछ्ड़े वर्ग को वी. पी. सरकार ने आरक्षण का बिल पास किया था तो पिछ्ड़ों की जनसंख्या 51 प्रतिशत आँकी गई थी. … और आरक्षण महज 27.50% दिया गया… आबादी से लगभग आधा. अब जबकि 1993 के बाद अनेक जातियां पिछ्ड़े वर्ग में जोड़ी जा चुकी हैं ( मोदी जी भी उन ही पिछ्ड़ों में से आते हैं) तो उनकी जनसंख्या में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई होगी, ऐसा कैसे माना जा सकता है? फिर पिछड़े वर्ग से आए सांसद अपने लोगों की लड़ाई ही नहीं लड़ सकते तो और उनके लिए कौन लड़ेगा? 1993 में तो अनुसूचित/अनुसूचित जन जातियों नें समाज के पिछड़े वर्ग को आरक्षण के लिए अपनी जान जोखिम में डालदी थी. अब इन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिए यदि कोई बाधा है तो दलितों और पिछड़े वर्ग से सांसद चुनकर आए गुलामी की मानसिकता के राजनेता ही हैं… और कोई नहीं. इन राजनेताओं को इतना जान लेना चाहिए कि लोकसभा के चुनावों के बाद बीजेपी के ‘समरसता’ से ‘सम’ तो अलग हो जाएगा और ‘रस’ बीजेपी चूस लेगी… फिर दलितों से घरों से आए दाल-चावल की खिचड़ी उनके हिस्से में नहीं होगी. रविवार के अगले करीब तीन सप्ताह तक यहां बीजेपी के मेगा इवेंट होने जा रहे हैं. इस प्रकार के आयोजन महज चुनावी रणनीति का हिस्सा हैं. न खिचड़ी खाने से दलितों का कोई भला होने वाला है और न ही आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य जाति से जुड़े लोगों को 10% आरक्षण का कोई लाभ मिलेगा… कारण महज और महज यह है कि सरकारी नौकरियां तो हैं नहीं और निजी संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान लागू नहीं है.

सबसे बड़ा छलावा तो ये है कि उच्च कहे जाने वाले वर्ग को अब तक 50% आरक्षण था जिसको अब केवल आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य जाति से जुड़े लोगों को 10% तक समेट दिया गया है. क्या आर्थिक रूप से पिछड़े तथाकथित उच्च जाति से जुड़े लोगों को 10% आरक्षण का प्रावधान करना, केवल उनके वोटों पर कब्जा जमाने के लिए क्या कोई धोखा नहीं है?

अब पुन: खिचड़ी पर लौटकर आते हैं.. दरअसल बीजेपी नेताओं की माने तो भीम महासंगम यूनिक इवेंट है. इसमें बनने वाली 5,000 किलो खिचड़ी गिनेस बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स में अपनी जगह बनाएगी. इससे पहले मनोहर ने नागपुर में 3,000 किलो की खिचड़ी तैय़ार की थी, जिसे रिकॉर्ड बुक में जगह मिली थी. 15 फुट चौड़े और 15 फुट लंबे प्लैटफॉर्म पर खिचड़ी तैयार की जाएगी, जिसके लिए कई गैस स्टोव लगाए जाएंगे. बीजेपी का इस बहाने दुनिया भर में डंका बजाना है कि भारत में बीजेपी ही एक मात्र ऐसी राजनीतिक पार्टी है जो दलितों की हितकारी है. मेरी समझ से तो परे है कि इन दलितों/ पिछड़े वर्ग से आए नेताओं को कौन सा साँप सूंघ गया है कि वो राजनीतिक और सामाजिक गुलामी का दामन नहीं छोड़ पा रहे हैं. …..शायद केवल और केवल सत्तासुख … और कुछ नहीं.

यह भी साफ है कि बीजेपी के इस भीम महासंगम के सियासी मायने केवल 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले दलितों का अपने पक्ष में करने का एक छलावा भर है. बता दें कि इस समरसता खिचड़ी के लिए बीजेपी कार्यकर्ताओं ने दिल्ली के सभी 14 जिलों के परिवारों के घर-घर जाकर चावल, दाल, नमक व अन्य सामग्री को इकट्ठा किया है, यह केवल एक दिखावा भर है. कहा जा रहा है कि इसमे भी घोटाला है…..5000 किलो खिचडी तो कुल एक हज़ार किलो चावल की बन जाएगी…..बाकी चावलों का क्या हुआ होगा? दिल्ली बीजेपी के मीडिया संयोजक अशोक गोयल ने बताया कि पार्टी ने बीते कुछ दिनों में दलित समाज के लोगों से ही 10,000 किलो चावल और दाल जुटाया है. इसके अलावा खिचड़ी में पड़ने वाले टमाटर, अदरक, प्याज और नमक आदि की व्यवस्था पार्टी की ओर से ही की जाएगी.

इसके उलट सवाल यह है कि आंध्र प्रदेश में ब्राह्मणों को सरकारी खजाने से आखिर क्यों बांटी जा रही हैं महंगी कारें. राजनीति के ये अजब-गजब रंग कौन से लोकतंत्र की राजनीति का हिस्सा है कि दिल्ली में दलितों को केवल खिचड़ी खिलाकर उनके वोट हासिल करने का उपक्रम किया गया और आन्ध्र प्रदेश में सीएम बनने के बाद से नायडू ने ब्राहम्णों का खास ख्याल रखा और राज्य में ब्राह्मणों के लिए अलग से निगम और क्रेडिट सोसायटी बनाईं.

राज्य में ब्राह्मण कॉरपोरेशन चंद्रबाबू नायडू के जून 2014 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद स्थापित किया गया. इसकी स्थापना की बात नायडू ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में की थी. कहते हैं कि आंध्र प्रदेश के विभाजन के चलते समृद्ध ब्राह्मण तेलंगाना के हिस्से चले गए. गरीब ब्राह्मण आंध्र प्रदेश के हिस्से बचे, जिनकी सरकारी नौकरियों में भी हिस्सेदारी बेहद कम है. खेती भी उनके पास नहीं है. मंदिर, पूजा-पाठ के जरिए होने वाली आय से ही उनका जीवनयापन होता है. राज्य की कुल आबादी में ब्राह्मण आबादी का हिस्सा तीन से चार प्रतिशत के बीच है, जिसमें से बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे है. गरीब होने की वजह से ब्राह्मण शिक्षा में भी पिछड़ रहे हैं. कहते हैं कि 2014 के राज्य विधानसभा चुनाव के वक्त चंद्रबाबू नायडू जब राज्य की यात्रा पर थे तो उन्होंने ब्राह्मणों की यह स्थिति बहुत नजदीक से देखी और तभी ऐलान कर दिया कि अगर वह सत्ता में आते हैं तो ब्राह्मणों की स्थिति सुधारने के लिए कुछ बेहतर करेंगे. हैं न लोकतंत्र में राजनीति के अजब-गजब रंग?

विदित हो कि सीएम चंद्रबाबू नायडू ने 4 जनवरी को अमरावती में 30 बेरोजगार ब्राह्मण युवकों को कारें दीं…. अब सवाल यह उठता है कि यदि इन तथाकथित बेरोजगार युवकों को मंहगी कारे दी जा रही हैं तो इनके लिए पैट्रोल/सी.एन.जी. का भार कौन उठाएगा? दरअसरल बेरोजगारों की इस फिक्र के पीची कुछ न कुछ राजनीतिक मायने भी छिपे हुए हैं… और वह है किसी भी प्रकार से वोटर को मूर्ख बनाकर उनके वोट हथियाना. इतना ही नहीं, नायडू ने ब्राह्मणों को खुश करने का दांव इसलिए खेला है कि उन्हें लगता है कि घर-घर ‘माउथ टु माउथ’ पब्लिसिटी में ब्राह्मण उनका जरिया बन सकते हैं. दूसरा, यह भी माना जाता है कि ब्राह्मण का आशीर्वाद बहुत लाभकारी होता है. इस वजह से चंद्रबाबू सरकारी खजाने से ब्राह्मणों को खुश कर उनका आशीर्वाद लेना चाहते हैं.

आंध्र प्रदेश में फिलहाल नौ ऐसी योजनाएं हैं जो सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण समाज को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं. इनके नाम भी ऋषि-मुनियों पर रखे गए हैं….यथा वेदव्यास, गायत्री, भारती, चाणक्य, द्रोणाचार्य, वशिष्ट, कश्यप, गरुण और भार्गव जैसी योजनाओं के तहत ब्राह्मण समुदाय को लाभ पहुँचाने हेतु राजनीतिक उपक्रम किए जा रहे हैं. इस अवस्था में भला ये क्यों न मान लिया जाए कि लोकतंत्र ही एक जुमला बनकर रह गया है.

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आर्थिक आरक्षण के खिलाफ विपिन भारतीय ने डाली जनहित याचिका

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जनहित याचिका दायर करने वाले विपिन कुमार भारतीय

नई दिल्ली। आर्थिक आधार पर गैर बहुजन लोगों को दस फीसदी आरक्षण दिए जाने के खिलाफ बहुजन समाज के लोगों के बीच काफी रोष है। लोग इसे संविधान से छेड़छाड़ मान रहे हैं। हालांकि देश के दोनों सदनों में तमाम दलों की सहमति से यह विधेयक पारित हो चुका है और इसे राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल चुकी है, बावजूद इसके बहुजन समाज का एक वर्ग इस निर्णय को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। युवा एक्टिविस्ट विपिन कुमार भारतीय ने सरकार के इस फैसले के खिलाफ सु्प्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल किया है।

विपिन भारतीय ने 14 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर करते हुए कोर्ट से आर्थिक आधार पर दस फीसदी आरक्षण दिए जाने के फैसले को निरस्त करने की मांग की है। अपनी याचिका में युवा एक्टिविस्ट ने दो बातें कही है। उनका कहना है कि जिसको आरक्षण देने की बात यह एक्ट करता है वैसा कोई नागरिकों का समुह भारत में एग्जिस्ट ही नहीं करता है, यानि की आरक्षण दिए जाने का आधार ही काल्पनिक है। इसको लेकर किसी तरह का सर्वे या स्टडी नहीं की गई है, जो बता सके कि कोई ऐसा वर्ग है। वहीं अपने दूसरे तर्क में विपिन भारतीय का कहना है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण जैसी कोई भी व्यवस्था संविधान में नहीं है।

फिलहाल युवा एक्टिविस्ट इस मामले पर आर-पार के मूड में हैं। उनका कहना है कि इस मामले की पहली सुनवाई के दौरान सबसे बेहतर वकील को हायर किया जाएगा। बता दें कि विपिन ओएनजीसी में कार्यरत हैं और ओएनजीसी के मेहसाना सेंटर पर पदस्थापित हैं।

मायावती ने मनाया 63वां जन्मदिन, कार्यकर्ताओं से मांगा तोहफा

अपने 63वें जन्मदिन पर बसपा प्रमुख मायावती ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से जन्मदिन का तोहफा मांगा है. बहुजन दिग्गज नेता ने तोहफे में क्या मांगा ये हम आपको बाद में बताएंगे. इससे पहले की खबर यह है कि बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष सुश्री मायावती ने आज 15 जनवरी को अपना 63वां जन्मदिन मनाया. बसपा प्रमुख ने पार्टी मुख्यालय में 63 किलो का केक काटा. तो साथ ही हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी उन्होंने ब्लू बुक जिसका शीर्षक ‘मेरा संघर्षमय जीवन और बी.एस.पी मूवमेंट का सफरनामा’ है, का विमोचन किया. इस दौरान बसपा कार्यकर्ताओं में खूब उल्लास रहा. पार्टी के दिग्गज नेताओं में पार्टी मुखिया को जन्मदिन की बधाई देने के लिए तांता लगा रहा. बसपा कार्यकर्ता इस दिन को जन कल्याणकारी दिवस के रूप में मनाते हैं. इस दौरान सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव भी बहनजी को जन्मदिन की बधाई देने पहुंचे. दो दिन पहले ही दोनों दलों ने गठबंधन का ऐलान किया है. इस दौरान उन्होंने जहां भाजपा पर जमकर निशाना साधा, तो कांग्रेस को भी नहीं बख्शा. मायावती ने नोटबंदी से लेकर रक्षा खरीद सौदे के लिए भाजपा को कठघरे में खड़ा किया और धर्म के नाम पर राजनीति करने की निंदा की. अपनी जिंदगी के इस महत्वपूर्ण दिन पर बसपा मुखिया ने पार्टी कार्यकर्ताओं से जन्मदिन का तोहफा मांगा. उन्होंने कहा- “इस बार लोकसभा चुनाव से पहले मेरा जन्मदिन मनाया जा रहा है. इसके लिए हमारी पार्टी ने सपा के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ने का फैसला किया है. सपा के साथ हमारे गठबंधन ने बीजेपी की नींद उड़ा दी है. सपा और बीएसपी के लोग अपने गिले-शिकवे और स्वार्थ भुलाकर गठबंधन के सभी उम्मीदवारों को भारी बहुमत से ऐतिहासिक जीत दिलाएं, क्योंकि यही मेरे जन्मदिन का तोहफा होगा.” बहनजी की इस मांग के साथ ही बसपा कार्यकर्ताओं ने बहनजी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग के साथ नारेबाजी शुरू कर दी. इससे साफ है कि सपा-बसपा गठबंधन के बाद दोनों दलों के कार्यकर्ताओं को यकीन हो गया है कि दोनों दल मिलकर प्रदेश और देश में सत्ता की बाजी पलट सकते हैं.

डॉ. अम्बेडकर और लोहिया के वो पत्र जो सपा-बसपा को साथ लाती है

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सपा और बसपा के विचारधारा की बात करें तो बसपा खुद को आम्बेडकरवादी पार्टी कहती है तो सपा खुद को लोहियावादी बताती है। मायावती और अखिलेश यादव से पहले मुलायम सिंह और कांशीराम भी एक साथ आ चुके हैं। लेकिन इससे पहले एक दौर में डॉ. आम्बेडकर और डॉ. लोहिया ने भी एक दूसरे के नजदीक आने की कोशिश की थी। सन् 1955 से 56 के बीच डॉ. आम्बेडकर और राम मनोहर लोहिया के बीच कई बार संवाद हुआ और जिसमें दोनो नेता एक मंच पर आने को तैयार दिख रहे थे।

बात 10 दिसंबर 1955 की है। जब डॉ. राम मनोहर लोहिया ने हैदराबाद से डॉ. भीम राव आम्बेडकर को पहली बार पत्र लिखा। इस पत्र में लोहिया ने यह इच्छा जताई थी कि डॉ. अंबेडकर देश भर की जनता की आवाज बनकर उभरें। वो पत्र कुछ यूं था-

‘प्रिय डॉक्टर अंबेडकर, मैनकाइंड (अखबार) पूरे मन से जाति समस्या को अपनी संपूर्णता में खोलकर रखने का प्रयत्न करेगा। इसलिए आप अपना कोई लेख भेज सकें तो प्रसन्नता होगी। आप जिस विषय पर चाहें लिखिए। हमारे देश में प्रचलित जाति प्रथा के किसी पहलू पर आप लिखना पसंद करें, तो मैं चाहूंगा कि आप कुछ ऐसा लिखें कि हिंदुस्तान की जनता न सिर्फ क्रोधित हो बल्कि आश्चर्य भी करे। मैं चाहता हूं कि क्रोध के साथ दया भी जोड़नी चाहिए। ताकि आप न सिर्फ अनुसूचित जातियों के नेता बनें बल्कि पूरी हिंदुस्तानी जनता के भी नेता बनें। मैं नहीं जानता कि समाजवादी दल के स्थापना सम्मेलन में आपकी कोई दिलचस्पी होगी या नहीं। सम्मेलन में आप विशेष आमंत्रित अतिथि के रूप में आ सकते हैं। अन्य विषयों के अलावा सम्मेलन में खेत मजदूरों, कारीगरों, औरतों और संसदीय काम से संबंधी समस्याओं पर भी विचार होगा और इनमें से किसी एक पर आपको कुछ बात कहनी ही है।’ – सप्रेम अभिवादन सहित, आपका राम मनोहर लोहिया।

बाद में डॉक्टर अंबेडकर ने डॉ. लोहिया को जवाबी पत्र लिखा। डॉ. आम्बेडकर ने लिखा-

‘प्रिय डॉक्टर लोहिया, आपके दो मित्र मुझसे मिलने आए थे। मैंने उनसे काफी देर तक बातचीत की। अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की कार्यसमिति की बैठक 30 सितंबर, 56 को होगी और मैं समिति के सामने आपके मित्रों का प्रस्ताव रख दूंगा। मैं चाहूंगा कि आपकी पार्टी के प्रमुख लोगों से बात हो सके, ताकि हम लोग अंतिम रूप से तय कर सकें कि साथ होने के लिए हम लोग क्या कर सकते हैं। मुझे खुशी होगी अगर आप दिल्ली में मंगलवार दो अक्तूबर 1956 को मेरे आवास पर आ सकें। अगर आप आ रहे हैं तो कृपया तार से मुझे सूचित करें ताकि मैं कार्यसमिति के कुछ लोगों को भी आपसे मिलने के लिए रोक सकूं।’ आपका, बी.आर.अंबेडकर।

बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर ने इस बीच लोहिया को पांच अक्तूबर को एक और पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने एक और पत्र का हवाला दिया-

‘आपका 1 अक्तूबर 56 का पत्र मिला। अगर आप 20 अक्तूबर को मुझसे मिलना चाहते हैं तो मैं दिल्ली में रहूँगा। आपका स्वागत है। समय के लिए टेलीफोन कर लेंगे।’ आपका बी.आर. अंबेडकर

सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले दोनों नायकों की मुलाकात जब तय मानी जा रही थी, तब होनी को कुछ और मंजूर था। छह दिसंबर 1956 को डॉ. अंबेडकर ने इस दुनिया को ही अलविदा कह दिया, जिस कारण लोहिया और आम्बेडकर की बहुप्रतीक्षित मुलाकात मुलाकात नहीं हो सकी। माना जाता है कि अगर यह मुलाकात हो गई होती तो न केवल सामाजिक न्याय की लड़ाई का आज रंग-रूप कुछ और होता बल्कि देश की राजनीति की दिशा भी दूसरी होती।

क्या 25 साल पुराना करिश्मा दोहरा पाएगा सपा-बसपा गठबंधन

साल 1993 में देश भर में और खासकर उत्तर प्रदेश में जोर-शोर से जयश्री राम का एक नारा गूंज रहा था। ये वो दौर था जब 6 दिसंबर 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा ने देश भर के हिन्दुओं को धर्म के नाम पर अपने पाले में करने की पुरजोर कोशिश शुरू कर दी थी। धर्म का सहारा लेकर भाजपा अपने राजनीतिक इतिहास के चरम की ओर बढ़ रही थी। लेकिन तमाम धार्मिक उथल-पुथल के बाद भी उत्तर प्रदेश का बहुजन समाज इस नारे के भंवर में नहीं फंसा। उस दौर में बहुजन समाज पार्टी के अध्यक्ष मान्यवर कांशीराम और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव प्रदेश में दो प्रमुख ध्रुव बने हुए थे। भाजपा को रोकने के लिए 1993 में दोनों नेता एक साथ आ गए और बहुजनों ने नारा दिया… मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम।

12 जनवरी को लखनऊ में जब अखिलेश यादव और मायावती एक साथ प्रेस कांफ्रेंस करने पहुंचे तो कइयों के जहन में वो दौर एक बार फिर ताजा हो गया। दोनों दलों ने 2019 लोकसभा का चुनाव साथ मिलकर लड़ने का फैसला किया है। दोनों पार्टियां उत्तर प्रदेश की 38-38 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी। इस फैसले के बाद उत्तर प्रदेश के सपा और बसपा के मतदाताओं में काफी जोश है। इस गठबंधन के बाद एक बड़ी चर्चा यह है कि क्या सपा और बसपा एक बार फिर भाजपा को सत्ता में आने से रोक पाएंगी?

इसको समझने के लिए 25 साल पहले के उस दौर में जाना होगा। 1992 में अयोध्याक में विवादास्पंद ढांचा गिराये जाने के बाद तत्कापलीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया और उत्त्र प्रदेश चुनाव के मुहाने पर खड़ा हो गया। भाजपा को पूरा भरोसा था कि राम लहर उसे आसानी से दोबारा सत्ता में पहुंचा देगी। तब दोनों पार्टियों ने पहली बार चुनावी गठबंधन किया और बीजेपी के सामने मैदान में उतरीं।

1993 में उत्त र प्रदेश की 422 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए थे। इनमें बसपा और सपा ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। बसपा ने 164 प्रत्याशी उतारे थे, जिनमें से 67 प्रत्याशी जीते थे। सपा ने इन चुनावों में अपने 256 प्रत्याशी उतारे थे। इनमें से उसके 109 प्रत्याशी जीते थे। बहुजन समाज के बीच हुए इस गठबंधन के आगे भाजपा टिक नहीं सकी और 1991 में 221 सीटें जीतने वाली भाजपा 1993 में 177 सीटों पर सीमट गई। तब सपा-बसपा ने मिलकर सरकार बना ली और मुलायम सिंह दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हुए।

भाजपा तब भी चरम पर थी और आज भी चरम पर है। सवाल है कि जैसे तब सपा और बसपा ने भाजपा को रोक दिया था, क्या एक बार फिर 2019 में इतिहास खुद को दोहराएगा। इस सवाल का जवाब चुनाव परिणामों के बाद मिल सकेगा लेकिन वर्तमान की हकीकत यह है कि गठबंधन के ऐलान से देश भर के बहुजन समाज में काफी उत्साह है तो भाजपा सकते में है।

अमित शाह के पानीपत युद्ध के आवाह्न की सच्चाई

भाजपा अध्यक्ष अमितशाह ने कल (11 जनवरी ) भाजपा के राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए पानीपत के तीसरे युद्ध का आह्वान किया। मिस्टर अमित शाह पानीपत का तीसरा यु्द्ध तो लड़ा ही जायेगा, लेकिन पानीपत के इस युद्ध में एकतरफ जै श्रीराम, मनु, पुष्यमित्र शुंग,आदि शंकराचार्य, तुलसी, पेशवा, तिलक,हेडगेवार, गोलवरकर, सावरकर और दीदयाल उपाध्याय के मानस पुत्रों होंगे और दूसरी तरफ बुद्ध, अशोक, शंबूक, एकलव्य, कबीर, फुले, शाहू जी, पेरियार, डॉ. आंबेडकर, पेरियार ललई सिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा के मानस पुत्र होंगे।

आप पानीपत के तीसरे युद्ध का आह्वान हिंदू धर्म और संस्कृति रक्षा और पूरी तरफ इसकी पुनर्स्थापना के लिए कर रहे हैं, जिसका लक्ष्य द्विज मर्दों के वर्चस्व को कायम रखना और उसे और मजबूत बनाना है। जाहिर तौर यह काम वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को कायम रखकर और मजबूत बनाकर ही किया जा सकता है।

हम इस युद्ध का आह्वान डॉ. आंबेडकर के उस संकल्प को पूरा करने के लिए कर रहे हैं, जो संकल्प उन्होंने जाति का विनाश नामक किताब और अन्य किताबों में प्रकट किया है। वह संकल्प है, वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का पूर्ण विनाश और स्वतंत्रता, समता और बंधुता की स्थापना। उन्होंने यह भी कहा था कि यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था की जड़ मनुववाद- ब्राह्मणवाद का विनाश हो जाए।

मिस्टर अमितशाह इस युद्ध में आपके हाथ में वेद, मनुस्मृति, गीता, रामचरित मानस और बंच ऑफ थाट होगा। हमारे हाथ में बुद्ध के वचन, कबीर के दोहे, फुले की गुलामगिरी, पेरियार की सच्ची रामायण और डॉ. आंबेडकर का जाति का विनाश और 22 प्रतिज्ञाएं होगीं। आपने पानीपत के युद्ध के के हवाले से कहा यदि इस युद्ध यदि संघ-भाजपा नहीं जीतती है, अंग्रेजों की गुलामी (200 वर्षो) की तरह यह देश एक बार फिल गुलाम हो जायेगा।

हम कह रहे हैं कि यदि इस युद्ध में आप विजयी होते हैं, 2000 वर्षों से चला आ रहा सवर्ण मर्दों का वर्चस्व सिर्फ कायम ही नहीं रहेगा और ज्यादा मजबूत होगा। हम दलित-बहुजन और महिलाएं और अन्याय के शिकार अन्य लोग, इस देश के किसानों, मजदूरों और अन्य मेहनतकशों के साथ मिलकर आपको, संघ-भाजपा को और आपके आका पूंजीपतियों को अवश्य पराजित करेंगे। डॉ. आंबेडकर के शब्दों में हम पानीपत के इस युद्ध में ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद का एक साथ विनाश करेंगे और आपको इस युद्ध में आपकी औकात बता देंगे।

  • डॉ. रामू सिद्धार्थ

ये कैसी गरीबी, ये कैसा आरक्षण?

मोदी सरकार द्वारा जिस तरह आनन-फानन में गरीबों को दस फीसदी आरक्षण देने की बात कही गई है, वो कई सवाल उठाने वाला है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आरक्षण के लिए मोदी सरकार ने आय और जमीन की जो सीमा तय की है, वह चौंकाने वाला है। कैबिनेट की बैठक में फैसला लिया गया कि सामान्य वर्ग में जिनकी सालाना आमदनी 8 लाख और जिनके पास खेती की 5 एकड़ से कम ज़मीन हो, ऐसे लोगों को नौकरी और शिक्षा में 10 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा. सरकार का यह फैसला कई सवाल उठाता है। 8 लाख रुपये सलाना आमदनी के लिहाज से देखें तो सरकार ने उनको भी गरीब माना है, जो हर महीने 65 हजार से कुछ ज्यादा कमाता है। आप खुद सोचिए कि जो इंसान प्रतिदन दो हजार से अधिक की कमाई करता है, क्या वह गरीब है? आम तौर पर इस आय वर्ग के लोगों के पास घर, गाड़ी और ठीक ठाक बैलेंस रहता है। ये अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ा पाते हैं, जहां की फीस तकरीबन 4-5 हजार रुपये तक होती है। ये महीने में आराम से मल्टीप्लेक्श में एक-दो फिल्म देखते हैं, शॉपिंग भी कर लेते हैं। अब इस तरह की जिंदगी जीने वाले लोगों को क्या गरीब माना जाना चाहिए?

राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संस्थान के आंकड़ों के मुताबिक देश में 95 प्रतिशत परिवारों की सालाना आय आठ लाख रुपये से कम है। एक हजार वर्गफुट से कम भूमि पर मकान वालों की संख्या 90 प्रतिशत है। इसी तरह कृषि जनगणना के अनुसार 87 प्रतिशत किसान के पास कृषि योग्य भूमि का रक़बा पांच एकड़ से कम है। यानी देश की आबादी में 40 फीसदी सवर्ण ग़रीब हैं।

मान लिया जाए कि एक बार 10 फीसदी आरक्षण का अगर समर्थन भी करने की सोची जाए तो भी यह तब संभव है जब  सवर्ण समाज के भीतर से यह मांग उठे कि कमाई की सीमा 8 लाख रुपये सलाना से घटाकर 3-4 लाख तक किया जाए। सरकारी नौकरी में रहने वाले परिवार वालों को भी इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए। सरकार के हालिया आऱक्षण के फैसले पर सवर्ण समाज के उन गरीब वर्ग के लोगों को आंदोलन करना चाहिए जो शहरों में 10 और पंद्रह हजार की नौकरी करते हैं, जो छोटे-मोटे धंधे कर के महीने के 10-20 हजार की कमा पाते हैं, जिनके बच्चे सरकारी स्कूल या औसत प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं। आरक्षण को लेकर सरकार की नीयत साफ नहीं है।