
ग्यारह साल बाद सोनी सोरी को अदालत ने कहा निर्दोष, चंद्रभूषण सिंह यादव ने उठाया बड़ा सवाल

राजस्थान के बाद अब मध्य प्रदेश से आयी दलितों पर अत्याचार की बड़ी खबर, होलिका की आग में दलित को झोंका

प्रकाश राज ने विवेक अग्निहोत्री को दे डाली चुनौती

पेरियार की रचनाओं का 21 भाषाओं में होगा अनुवाद

राजनीतिक दबाव कहें या महाराष्ट्र के भीतर बाबासाहेब को लेकर सजगता, बाबासाहेब का विचार सबके सामने आ गया। मगर पेरियार के विचारों को मनुवादियों ने भरसक दबाने की कोशिश की और कमोबेश सफल भी हुई। लेकिन पेरियार के विचार अब लोगों को आसानी से उपलब्ध हो सकेंगे। तामिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के स्टालिन की सरकार ने पेरियार के विचारों को दुनिया भर में पहुंचाने के लिए एक बड़ा कदम उठाया है। पेरियार की रचनाओं का हिंदी और मराठी समेत 21 भारतीय भाषाओं में अनुवाद होगा। इसे डिजिटल रूप में भी जन-जन तक पहुँचाया जाएगा। तमिलनाडु सरकार ने इसके लिए पहले साल में 5 करोड़ रुपये का बजट रखा है।
वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने इसकी जानकारी दी है। साथ ही लिखा है-
पेरियार हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में बड़े पैमाने पर आ रहे हैं। प्राइवेट पब्लिशर पेरियार को छिटपुट पहले भी छाप रहे थे। अब तमिलनाडु सरकार लगेगी। पहले साल के लिए ₹5 करोड़ का बजट होगा।
हिंदी क्षेत्र में सावरकर-गोलवलकर बनाम आंबेडकर-पेरियार!
स्वागत कीजिए इस वैचारिक द्वंद्व का।
दिलीप मंडल के इस ट्विट पर बहुजन समाज में खासा उत्साह है।
एक व्यक्ति ने लिखा- जय पेरियार! इतिहास याद रखेगा जब उत्तर भारत के नेता ब्राह्मण क्रांति पर उतारू होकर फरसा अभियान चला रहे थे, तब स्टालिन जी ने अकेले मनुवाद/ब्रह्मणवाद से मोर्चा ले रखा था।
एक अन्य व्यक्ति ने ट्विट किया है-
एक तरफ गुजरात के बच्चे गीता पढ़े और दूसरी तरफ बच्चे पेरियार को पढ़ें, क्या लगता है कौन से राज्य के बच्चे ज्यादा अच्छे नागरिक बन सकेंगे?
दरअसल भारत में मनुवादियों और गैर बराबरी को बढ़ावा देने वाले समाज को दो बहुजन नायकों से हमेशा सबसे ज्यादा दिकक्त रही है। एक हैं डॉ. आंबेडकर जबकि दूसरे हैं पेरियार। इन दोनों नायकों ने अपने तर्कों और तथ्यों के जरिए मनुवाद की जिस तरह धज्जियां उड़ाई, उतनी शायद और किसी बहुजन नायक ने नहीं किया। डॉ. आंबेडकर का तो पूरा साहित्य ही भारतीय हिन्दू समाज के भीतर के बजबजाते सडांध की परते उघाड़ता है। तो पेरियार ने सच्ची रामायण लिखकर हिन्दूवादी पाखंड की धज्जियां उड़ा दी थी। ललई सिंह यादव के जरिए यह किताब अनुवाद होकर हिन्दी में छपी। पेरियार ने अपनी इस किताब में जिस तरह रामायण के तमाम पात्रों की व्याख्या की उससे मनुवादी बौखला गए थे। इस कारण खासकर हिन्दी पट्टी में पेरियार के विचारों को रोकने के षड्यंत्र किये गए। लेकिन अब तामिलनाडु सरकार के इस फैसले से निश्चित तौर पर पेरियार के विचारों को देश भर में फैलाने में मदद मिलेगी जो एक नई बहस और विचार जन्म देगा।
जिेतेंद्र मेघवाल के बाद अब और कितने दलितों की हत्या के बाद खुलेगी राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की नींद?

मामला एक बार फिर दलितों के खिलाफ सवर्णों द्वारा अत्याचार का है। एक बार फिर एक दलित नौजवान सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह अच्छे कपड़े पहनता था और मुंछें रखता था। अपराधी मृतक से किस कदर जातिगत खुन्नस रखते थे, इसका अंदाज सिर्फ इससे लगाया जा सकता है कि अपराधी जातिगत वर्चस्व को बनाए रखने के इरादे से हत्या को अंजाम देने के लिए 800 किलोमीटर की दूरी मोटरसाइकिल से गुजरात से चलकर राजस्थानी के पाली जिला पहुंचे थे। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग है, जो अब भी कान में तेल डालकर सो रहा है। यह आयोग की निष्क्रियता नहीं तो और क्या है कि आजतक जितेंद्र मेघवाल के अपराधी गिरफ्तार तक नहीं किये जा सके हैं।
सवालों के घेरे में राजस्थान की कांग्रेसी हुकूमत भी है और वे सभी हैं जो दलितों के नाम पर राजनीति करते रहते हैं। आखिर कौन है वह जिसके दम पर सवर्ण बेखौफ होकर घटनाओं को अंजाम देने के लिए 800 किलोमीटर की दूरी तक तय कर लेते हैं और पुलिसिया तंत्र उन्हें गिरफ्तार तक नहीं कर पाता है?
मामले की बात करें तो जितेंद्र मेघवाल राजस्थान के पाली जिले में एक स्वास्थ्य कर्मी के रूप में पदस्थापित थे। सोशल मीडिया पर वह अपनी खास तरह की मुंछों व अच्छे कपड़ों आदि के लिए प्रसिद्ध थे। वे अपने पोस्ट में कहा करते थे– “मैं गरीब जरूर हूं, पर मेरी जिंदगी रॉयल है।”
जितेंद्र मेघवाल की हत्या के दोनों आरोपी सूरजसिंह राजपुरोहित और रमेशसिंह राजपुरोहित ने इसके पहले भी 23 जून, 2020 को अपनी जातिगत नफरत का परिचय तब दिया था जब अपने गांव बारवा के आंगनबाड़ी केंद्र के बाहर बैठे जितेंद्र मेघवाल ने आरोपियों को नजर उठाकर देखा था। तब आरोपियों ने जितेंद्र के घर में घुसकर उनके और उनकी मां व बहनों के साथ मारपीट की थी। तब पुलिस में शिकायत दर्ज कराए जाने के करीब छह माह के बाद आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था और उसने मुकदमे को इतना कमजोर कर दिया था कि निचली अदालत में पहली ही पेशी में दोनों आरोपियों को जमानत मिल गयी थी।
मिली जानकारी के अनुसार सूरजसिंह राजपुरोहित और रमेशसिंह राजपुरोहित जमानत मिलने के बाद गुजरात के सूरत चले गए। लेकिन जितेंद्र मेघवाल को लेकर दुश्मनी की आग में जलते रहे। बीते 13 मार्च को दोनों गुजरात से मोटरसाइकिल चलाकर राजस्थान के पाली जिला पहुंचे जो कि करीब 800 किलोमीटर दूर है। वहां पहुंचने पर दोनों आरोपियों ने जितेंद्र मेघवाल की रेकी की तथा अगले दिन उसकी हत्या चाकू घोंपकर कर दी।
बहरहाल, यह पहला मौका नहीं है जब किसी दलित की निर्मम हत्या की गयी और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग हाथ पर हाथ धरे बैठा है। इसके पहले यूपी के हाथरस में भी जब एक वाल्मीकि समुदाय की बेटी के साथ पहले बलात्कार और फिर उसके साथ शारीरिक हिंसा व मृत्यु के बाद पुलिस द्वारा आरोपियों को बचाने की नीयत से शव को रातों-रात जला देने के मामले में भी आयोग ने खामोशी की चादर ओढ़ ली थी। सवाल यही है कि यदि वह ऐसे मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है तो उसके होने का मतलब क्या है? क्या उसके अध्यक्ष व सदस्य केवल सरकारी खजाने से लाखों रुपए पगार के रूप में लेने के लिए बने हैं?
आदिवासी बेटी सलीमा टेटे बनी हॉकी टीम की कप्तान, वर्ल्ड कप में करेंगी भारत का नेतृत्व

झारखंड की सलीमा टेटे को भारतीय जूनियर महिला हॉकी टीम का कप्तान बनाया गया है। उनकी कप्तानी में भारतीय टीम आगामी 12 अप्रैल से दक्षिण अफ्रीका के पोटचेफस्टूम में शुरू होने वाले एफआईएच महिला जूनियर विश्व कप खेलेगी। इस संबंध में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सलीमा टेटे को बधाई देते हुए कहा है कि पूरे झारखंड को उनके उपर नाज है।
बताते चलें कि करीब बीस साल की सलीमा टेटे झारखंड के सिमडेगा जिले की रहनेवाली हैं। उनके माता-पिता अब भी खेतों में काम करते हैं। हालांकि उनके पास थोड़ी बहुत अपनी खेती भी है। सलीमा के पिता भी हॉकी के खिलाड़ी थे।
सलीमा को इंडियन टीम में पहली बार 2017 में शामिल किया गया था। उनका पहला अंतरराष्ट्रीय मैच बेलारूस के खिलाफ था। झारखंड की इस बेटी ने 2018 में हुए यूथ ओलंपिक गेल्म में भारतीय टीम की कप्तानी की थी। उनकी कप्तनी में भारतीय टीम रजत पदक जीतने में कामयाब रही थी। इसके अलावा उनका चयन 2021 में टोक्यो ओलंपिक के लिए भी हुआ था।
बहरहाल, भारतीय हॉकी फेडरेशन ने जूनियर महिला हॉकी टीम की सूची जारी कर दी है। इसके मुताबिक– गोलकीपर : बिचु देवी खाखिम, खुश्बू, डिफेंडर : मारिना लालरामनयाकी, प्रीति, प्रियंका, इशिका चौधरी, अक्षता अबसो, मिडफीडल्डर : सलीमा टेटे (कप्तान), शर्मिला देवी, लालरेमसियामी, रीत, अजमीना कुजूर, बलजीत कुजूर, वैष्णवी विट्ठल फाल्के, फारवर्ड : लालरिदिकी, जीवन किशोरी टोप्पो, मुमताज खान, ब्यूटी डुंगडुंग, दीपिता व संगीता कुमारी,अतिरिक्त खिलाड़ी : मधुरी किडो, नीलम, मंजू चौरसिया, रूतुता ददासी पिसल आदि टीम में शामिल हैं।
गांधी से कैसे अधिक महान थे बाबासाहेब, जानें यह तथ्य
मैं सीधी समझ वाला आदमी हूं। खुद को बहुत घुमाने-फिराने में यकीन नहीं रखता। मेरी नजर में गांधी डॉ. आंबेडकर के जैसे नहीं हैं। मैं गांधी का सम्मान भी नहीं करता। मेरे लिए वह एक व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने भारत में हुए एक राजनीतिक आंदोलन का नेतृत्व किया। इससे अधिक कुछ नहीं। डॉ. आंबेडकर अलहदा हैं। उन्होंने गांधी से अधिक बड़ा काम किया।
दरअसल, आज मैं यह देख रहा हूं कि अनेक लोग पंजाब के नये मुख्यमंत्री भागवंत सिंह मान के दफ्तर में भगत सिंह और डॉ. आंबेडकर की तस्वीर के साथ गांधी की तस्वीर नहीं होने को लेकर टिप्पणियां कर रहे हैं। कोई भागवंत सिंह मान और उनकी पार्टी (आम आदमी पार्टी) को भाजपा की बी टीम बता रहा है तो कोई और कुछ भी लिख रहा है। एक सज्ज्न ने तो यह भी लिखा कि यदि गांधी तस्वीर भी होती तो क्या हो जाता।
निस्संदेह आम आदमी पार्टी एक नयी पार्टी है, जिसके पास सबसे अधिक कमी है तो वह विचारधारा की। वह कट्टर हिंदुत्व को अपनाकर तो भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकती है जिस पर भाजपा ने अपनी मुहर लगा दी है। सॉफ्ट हिंदुत्व पर कांग्रेस व अन्य दलों का कब्जा है। आम आदमी पार्टी को राजनीति करनी है तो उसे इन दोनों के बीच में ही कोई राह तलाशनी होगी। मेरे हिसाब से यह पार्टी यही कर रही है। वह यह जानती है कि इस देश में स्पेस बनानी है तो बहुसंख्यक वर्ग के बीच जाना होगा। इसके लिए डॉ. आंबेडकर और भगत सिंह से बेहतर कोई चेहरा नहीं है। पेरियार की विचारधारा को आम आदमी पार्टी बर्दाश्त नहीं कर सकती। पेरियार डॉ. आंबेडकर की तुलना में अधिक समतावादी हैं।
लेकिन वे लोग जो गांधी को लेकर आम आदमी पार्टी की आलोचना कर रहे हैं, उनके बारे में सोच रहा हूं। ये कौन लोग हैं। मैं भी गांधी की हत्या को आजाद भारत में हुई पहली आतंकी घटना मानता हूं जिसे एक संघी आतंकवादी नाथूराम गोडसे ने अंजाम दिया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं गांधी का प्रशंसक हूं।
हालांकि एक समय था जब मेरे पास जानकारियां कम थीं। गांधी के बारे में उतना ही पढ़ा था, जितना कि मेरे पास उपलब्ध था। अब जबकि मैंने ठीक-ठाक अध्ययन कर लिया है तो सोचता हूं कि गांधी का व्यक्तित्व एक विशाल व्यक्तित्व था। दक्षिण अफ्रीका से लेकर बिहार के चंपारण और फिर पूरे भारत में राजनीतिक आंदोलन का सफलतापूर्वक नेतृत्व करना कोई खेल नहीं है। गांधी ने हर तरीके से भारतीय राजनीति को प्रभावित किया। उन्होंने समाज और संस्कृति को भी अपने राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा बनाया। वैसे यह जरूरी भी था। वजह यह कि बिना समाज और संस्कृति के राजनीति की भी नहीं जा सकती।
डॉ. आंबेडकर ने भी यही किया। मेरे हिसाब से तो गांधी ने राजनीतिक आंदोलन में सफलता हासिल की तो डॉ. आंबेडकर ने सामाजिक आंदोलन में। दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। लेकिन मुझे लगता है कि मेरे पास यह आजादी है कि इन दोनों में से मैं किन्हें अपना आदर्श मानूं। ठीक ऐसे ही आम आदमी पार्टी और भागवंत सिंह मान को भी है।
बहरहाल, आज मैं 18 जुलाई, 1936 को ‘हरिजन’ पत्रिका में प्रकाशित गांधी के संपादकीय आलेख का वह हिस्सा रख रहा हूं, जिसकी वजह से मैं गांधी को केवल और केवल राजनीतिज्ञ मानता हूं। एक ऐसा राजनीतिज्ञ जिसने जातिवाद और ब्राह्मणवाद की आजीवन रक्षा की। यह अंश फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताब ‘जाति का विनाश’ के पृष्ठ संख्या 132-133 से लिया गया है–
“जाति का धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह एक ऐसी प्रथा है, जिसका उद्गम मैं नहीं जानता और अपनी आध्यात्मिक भूख की शांति के लिए जानना जरूरी भी नहीं समझता। लेकिन यह मुझे जरूर पता है कि यह आध्यात्मिक और राष्ट्रीय, दोनों प्रकार के विकास के लिए नुकसानदेह है। वर्ण और आश्रम ऐसी संस्थाएं हैं, जिनका जाति से कोई संबंध नहीं है। वर्ण का नियम हमें बताता है कि हममें से प्रत्येक को अपना पैतृक पेशा अपनाकर अपनी जीविका कमानी चाहिए। यह हमारे अधिकारों को नहीं, कर्तव्यों को परिभाषित करता है। आवश्यक रूप से इसका संबंध उन पेशों से है, जो मानवता के कल्याण का हेतु हैं– किसी अन्य पेशे से नहीं। इससे यह भी नि:सृत होता है कि कोई भी पेशा न तो बहुत नीचा है और न बहुत ही ऊंचा। सभी अच्छे और कानून संगत हैं तथा सबकी हैसियत पूरी तरह से बराबर है। ब्राह्मण– आध्यात्मिक गुरु– और भंगी के पेशों का महत्व एक जैसा है और उनका उचित ढंग से निष्पादन ईश्वर के सम्मुख बराबर योग्यता रखता है तथा ऐसा लगता है कि एक समय मनुष्य के सम्मुख उनका प्रतिफल भी बराबर था। दोनों को जीविका का अधिकार था, लेकिन इससे ज्यादा का नहीं। वास्तव में अभी भी गांवों में इस नियम के स्वस्थ रूप से लागू होने के धुंधले चिह्न मिल जाते हैं। मैं 600 की आबादी वाले गांव में रहता हूं और ब्राह्मणों सहित विभिन्न पेशों में लगे हुए लोगों की आय में बहुत फर्क नहीं देखता। मैं यह भी पाता हूं कि इन पतनशील दिनों में भी असली ब्राह्मण मौजूद हैं, जिनका जीवन उदारता से दी गयी भिक्षा पर चलता है और स्वयं उनके पास जो भी आध्यात्मिक खजाना है, उसमें से वे उदारता से देते रहते हैं। वर्ण के नियम का मूल्यांकन उसके कैरिकेचर के आधार पर– जो उन व्यक्तियों के जीवन में मिलता है, जो अपने को वर्ण के अधीन मानते हैं, लेकिन इसके एकमात्र क्रियाशील नियम का खुलेआम उल्लंघन करते हैं –करना गलत और अनुचित होगा। एक वर्ण द्वारा अन्य वर्णों के मुकाबले अपने को उच्चतर मान लेना, इसके नियम को धता बताना है। और वर्ण के नियम में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो अस्पृश्यता में विश्वास का आधार बन सके। (हिंदुत्व का सार इस विश्वास में है कि एक और एकमात्र ईश्वर सत्य है और इस साहसपूर्ण स्वीकार में कि अहिंसा मानव परिवार का नियम है, निहित है।) मुझे पता है कि हिंदुत्व की मेरी व्याख्या का विरोध डॉ. आंबेडकर के अलावा और भी बहुत-से लोग करेंगे। इससे मेरी अवस्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता। यह एक ऐसी व्याख्या है, जिसके अनुसार लगभग आधी शताब्दी से मैं जीवन बिता रहा हूं और जिसके अनुसार मैंने अपनी समस्त योग्यता के साथ अपने जीवन को अनुशासित करने का प्रयास किया है।”
(नवल किशोर कुमार के फेसबुक से साभार)होलिका दहन का बहिष्कार करें दलित-बहुजन, कंवल भारती ने बताए ये अहम कारण
डा. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक “फिलोसोफी ऑफ हिन्दुइज्म” में एक जगह लिखा है, “आज के हिंदू सबसे प्रबल विरोधी मार्क्सवाद के हैं. और इसलिए हैं, क्योंकि वे उसके वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से भयभीत हैं. लेकिन वे भूल जाते हैं कि भारत न केवल वर्ग-संघर्ष की भूमि रहा है, बल्कि वर्ग-संग्राम की भी भूमि रहा है.”
अब एक साक्षी ऋग्वेद (१०,२२-८) से लेते हैं, “हे इंद्र! हमारे चारों ओर यज्ञ-कर्म से शून्य, किसी (ईश्वरीय सत्ता) को न मानने वाले, वेद-स्तुति के प्रतिकूल कर्म करने वाले दस्यु हैं, वे मनुष्य नहीं हैं. उनका नाश करो.”
स्पष्ट है कि यह वर्गसंघर्ष और वर्गसंग्राम भारत के लिए नया नहीं हैं. वैदिक काल में जो देवासुर संग्राम शुरू हुआ, वह आज तक, इस इक्कीसवीं सदी के लोकतंत्र में भी, चल रहा है. देवों ने न केवल अपने विरोधी असुरों को मारा, बल्कि उसे उन्होंने अपने धर्म की जीत भी घोषित किया और व्यापक स्तर पर उसका जश्न मनाया. लगभग सभी हिंदू त्यौहारों की बुनियाद में यही देवासुरसंग्राम है, चाहे वह दुर्गापूजा हो, दशहरा हो, दिवाली हो, या होली हो. ये सारे त्यौहार असुरों की मौत पर देवों अर्थात ब्राह्मणों के जश्न हैं. ब्राह्मणों ने अपने विरुद्ध चलने वाली विचारधारा को पसंद नहीं किया. भारत के जनजातीय क्षेत्रों में ब्राह्मणों ने अपना ब्राह्मण राज्य कायम करने की हर संभव कोशिश की. इस योजना में वे सबसे पहले अपने धर्मगुरुओं को वहाँ भेजते थे, जो वहाँ अपने आश्रम बनाकर यज्ञयागादि की गतिविधियों आरंभ करते थे, उनका जो विरोध करते, उनको वे मरवा देते थे, कुछ जन जातीय लोगों को वे प्रलोभन देकर मिशन से भी जोड़ लेते थे. ऐसा वे आज भी करते हैं. आज भी दलित-पिछड़े समुदायों के बहुत से बुद्धिजीवी ब्राह्मणवाद के फोल्ड में हैं. उन्हीं की मदद से उन्होंने अपनी योजना को आगे बढ़ाया और विरोधियों का राज्य समाप्त करके वहाँ अपना उपनिवेश कायम किया. बलि, हिरण्यकश्यप, शम्बर, दिवोदास, रावण से लेकर मौर्य राज्य की स्थापना तक उनका यही मिशन चला. किसी ने ठीक ही कहा है, इतिहास अपने को दुहराता है. ठीक उसी मिशनरी रास्ते से मुगलों और ब्रिटिश ने भी भारत को अपना उपनिवेश बनाया. हालाँकि उन उपनिवेशों में भी ब्राह्मण ही प्रभुत्त्वशाली थे.
आज जिस तरह हिन्दूराष्ट्रवादी वर्ग ने अपनी विद्यार्थी परिषद के द्वारा देशभर के शिक्षण संस्थानों में दलित-वाम शक्ति के खिलाफ वर्गयुद्ध छेड़ा हुआ है, ठीक वैसा ही वर्गयुद्ध हमें पुराणों में असुर राजाओं और उनकी संस्थाओं के खिलाफ मिलता है. मैं यहाँ हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद की कथा का विश्लेषण करूँगा. महाभारत के अनुसार, प्रह्लाद ने देवासुरसंग्राम में इंद्र को परस्त कर उसके राज्य पर कब्जा कर लिया था. वह अपनी जनता में अपने धार्मिक सद्गुणों से इतना लोकप्रिय था कि इंद्र उससे अपना राज्य वापिस नहीं ले सकता था. अत: इंद्र ब्राह्मण का भेष बनाकर प्रहलाद के पास गया, और उससे अपना धर्म सिखाने की प्रार्थना की. इंद्र की प्रार्थना पर प्रह्लाद ने इंद्र को अपने सनातन धर्म की शिक्षा दी. अपने शिष्य से प्रसन्न होकर प्रह्लाद ने इंद्र से वरदान मांगने को कहा, और ब्राह्मण भेष बनाए हुए इंद्र ने कहा, ‘मेरी इच्छा तुम्हारे सद्गुण पाने की है,’ इंद्र प्रहलाद का गुण और धर्म अपने साथ लेकर चला गया. और प्रह्लाद के धर्म पर चलकर इंद्र ने उसकी सारी कीर्ति खत्म कर दी.
देव-विरोधी असुरों के साथ ब्राह्मण-छल की यह कोई पहली घटना नहीं है, हिंदू कथाओं में, जिसे वे इतिहास कहते हैं, ब्राह्मणों के छल की ऐसी अनेक कहानियां हैं. यही छल एकलव्य के साथ किया गया था, जिसका अंगूठा मांगकर गुरु द्रोणाचार्य ने उसको विद्या-रहित कर दिया था. ठीक उसी तरह प्रहलाद से उसका धर्म लेकर उसका सर्वस्व ले लिया गया था. प्रहलाद ने जिस सनातन धर्म की शिक्षा दी थी, वह वैदिक वर्णव्यवस्था वाला धर्म नहीं था, क्योंकि इंद्र उसे क्यों सीखता, जबकि वह उसी धर्म से आता था? दरअसल, इंद्र ने प्रहलाद से देव-विरोधी असुर धर्म को त्यागने का वरदान माँगा था. अपने धर्म को त्यागने के बाद प्रह्लाद अपने समुदाय की नजर में गिर गया था, और इंद्र ने अपना खोया राज्य पुनः प्राप्त कर लिया था. ठीक यही तरीका हमें बलि की कहानी में मिलता है, जिसमे विष्णु ने बौने वामन का रूप धारण करके एक वरदान के जरिये उसका समस्त राज्य छीन लिया था. बलि राजा से जुड़े अनेक मिथकों से पता चलता है कि प्रह्लाद ने, जो रिश्ते में बलि का दादा था, बलि को सावधान किया था कि यह बौना वामन असल में विष्णु है. एक अन्य कथा में प्रह्लाद बहुत ही तीखे शब्दों में प्रतिवाद करता है कि विष्णु ने बौना बनकर उसके पोते बलि के साथ धोखा किया है और उसे लूटा है. (देवीभागवतपुराण). एक और मिथक, जो एकलव्य से जुड़ा है, बताता है कि किस तरह स्वयं इंद्र ने बलि के पिता विरोचन से भी वरदान के जरिये उसका सिर मांग लिया था. इंद्र ने कहा था, “मुझे अपना सिर दे दो.” और विरोचन ने तुरंत अपना सिर काटकर इंद्र को सौंप दिया था. (स्कन्दपुराण). मिथक इतिहास नहीं हैं, यह सच है, पर उनमें भारत के मूल निवासी असुरों के साथ हुए वर्गयुद्धों और उस युद्ध में शहीद हुए असुर राजाओं की नृशंस हत्याओं का पूरा राजनीतिशास्त्र है. कोई भी व्यक्ति न अपने हाथ से अपना अंगूठा काटकर किसी को देगा, और न अपना सिर काटकर देगा. किसी का भी अपने हाथ से अपना सिर काटना, और फिर, उस कटे सिर को अपने ही हाथ में लेकर दूसरे को सौंपना—ये दोनों ही बातें अविश्वसनीय है. हकीकत में एकलव्य का जबरन अंगूठा काटा गया था, और विरोचन की हत्या की गयी थी. आज भी धर्म के लिए की गयीं हत्याओं को मिथकीय रंग दे दिया जाता है, पुराणों ने भी यही काम किया था. पर उसने एक कदम आगे बढ़कर देव-विरोधी असुरों को जनता का खलनायक बनाने का भी काम किया. प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु की हत्या तो और भी बड़ी क्रूरता है. उसे उसी के महल में घुसकर नरसिंह ने मारा था. ऐसा प्रतीत होता है कि इस असुर राजा का पूरा वंश ही ब्राह्मणों के निशाने पर था, और उसका बीजनाश करके ही उन्होंने दम लिया था. इसकी जो मिथकीय कथा विष्णु पुराण और भागवत पुराण में मिलती, उसके अनुसार, देवविरोधी हिरण्यकशिपु को ब्रह्मा से यह वरदान मिला हुआ था कि वह न मनुष्य के द्वारा, न देवताओं के द्वारा, न पशु के द्वारा, न भीतर, न बाहर, न दिन में, न रात में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न शस्त्र से, न अस्त्र से मारा जायेगा. अपनी अमृत्यु से निश्चिंत होकर उसने पृथ्वी और स्वर्ग में उत्पात मचाना शुरू कर दिया. किन्तु, उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु का भक्त था. सो, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मारने की धमकी दी, जो विष्णु को सर्वव्यापी ईश्वर मानने पर जोर देता था. तब हिरण्यकशिपु ने एक खम्बे में लात मारकर पूछा, “क्या वह इसमें भी है?” अचानक उसी समय खम्बा फाड़कर शेर जैसा मनुष्य (नरसिंह) प्रगट हुआ. और उसने हिरण्यकशिपु को अपने घुटनों पर रखकर अपने लम्बे नाखूनों से फाड़कर मार डाला. उसके बाद विष्णु-भक्त प्रह्लाद असुरों का राजा बना और अपनी देवविरोधी प्रकृति को त्यागकर देवों के प्रति समर्पित हो गया. यह बहुत ही सामान्य कहानी है, जो अनेक असुरों पर दुहराई गयी है. महाभारत में वर्णित इंद्र और असुर वृत्र (अथवा नमुची) की कहानी भी इसी तरह की है, जिसे गोधूलि (न दिन और रात) में समुद्र के किनारे (न भूमि और न समुद्र) मारा गया था. रावण और महिष की हत्याओं की कहानी भी कुछ इसी तरह की है. इस कहानी में प्रकृति को ही चुनौती दी गयी है. सभी वस्तुएं और जीवजन्तु मरणशील हैं, कोई भी अमर नहीं है. इस पौराणिक कहानी में इसी प्रकृति का खंडन किया गया है. यह माया हिन्दूधर्म में ही है कि देवता मनुष्यों को अमर होने का वरदान देते हैं, पर इसके बावजूद कोई अमर नहीं रहता है. दूसरी बात यह विचारणीय है कि जो प्रह्लाद राजा बलि को चेता रहा है, वह खुद विष्णु-भक्त कैसे हो सकता है? तीसरी बात यह कि अगर प्रह्लाद इतना परम विष्णु-भक्त था कि उसके लिए वह खम्बा फाड़ कर नरसिंह के रूप में प्रगट हुए, तो उसने अपने पिता को बचाने को क्यों नहीं कहा? उसने अपने पिता की हत्या कैसे बर्दाश्त कर ली? यह कहानी यह साबित करने की कोशिश है कि प्रह्लाद ने अपनी ब्राह्मण-भक्ति में अपने असुर-धर्म, अपनी असुर-संस्कृति और अपने पिता तक को कुर्बान कर दिया. हकीकत यह है कि हिरण्यकशिपु ने बलि और विरोचन की तरह ब्राह्मणों के आगे घुटने नहीं टेके थे, और उसने अंत तक असुरों के हित में संघर्ष और युद्ध किया था. जब उसके पुत्र प्रहलाद को ब्राह्मणों ने राज्य का लालच देकर अपने ब्राह्मण राष्ट्रवाद में शामिल कर लिया था, तो भी हिरण्यकशिपु ने हथियार नहीं डाले थे. किन्तु यही विष्णु-भक्ति प्रह्लाद के भी पतन का कारण बनी थी. ब्राह्मण-भक्ति की जो भूमिका विभीषण ने निभाई थी, वही प्रह्लाद ने निभाई थी. इस सम्बन्ध में महात्मा जोतिबा फुले का मत भी गौरतलब है. सम्भवतः फुले पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने हिन्दू मिथकों का बहुत ही वैज्ञानिक विश्लेषण किया है. वे नरसिंह के विषय में “गुलामगीरी” में लिखते हैं, ‘वराह के मरने के बाद द्विजों का मुखिया नरसिंह बना था. सबसे पहले उसके मन में हिरण्यकशिपु की हत्या करने का विचार आया. उसने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि उसको मारे वगैर उसका उसे मिलने वाला नहीं था. उसने अपने एक द्विज शिक्षक के माध्यम से हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद के अबोध मन पर अपना धर्म-सिद्धांत थोपना शुरू किया. इसकी वजह से प्रह्लाद ने अपने हरहर नाम के कुलस्वामी की पूजा करनी बंद कर दी. प्रह्लाद पर द्विज रंग ऐसा चढ़ा कि हिरण्यकशिपु की उसे समझाने की सारी कोशिशें बेकार गयीं. तब नरसिंह ने प्रह्लाद को अपने पिता की हत्या करने को उकसाया. पर ऐसा करने की प्रह्लाद की हिम्मत नहीं हुई. अंत में नरसिंह ने अपने शरीर को रंगवाकर मुंह में नकली शेर का मुखोटा लगाकर अपने शरीर को साड़ी से ढककर प्रह्लाद की मदद से हिरण्यकशिपु के महल में एक खम्बे की आड़ में छिपकर खड़ा हो गया. और जब हिरण्यकशिपु आराम के लिए पलंग पर लेटा, तो शेर बना नरसिंह उस पर टूट पड़ा, और बखनखा से उसका पेट फाड़कर उसकी हत्या कर दी.’ महात्मा फुले ने यह भी लिखा है कि हिरण्यकशिपु की हत्या के बाद नरसिंह सभी द्विजों को साथ लेकर अपने मुल्क भाग गया. जब क्षत्रियों को पता चला तों वे आर्यों को द्विज कहना छोड़कर ‘विप्रिय’ (अप्रिय, धोखेबाज़, दुष्ट) कहना शुरू कर दिया. बाद में इसी ‘विप्रिय’ शब्द से उनका नाम ‘विप्र’ पड़ा. हिरण्यकशिपु के प्रकरण में अभी होलिका का प्रवेश होना बाकी है. यह शायद किंवदंती है, जिसमें कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका को अग्नि से बचने का वरदान प्राप्त था. उसको वरदान में एक ऐसी चादर मिली हुई थी, जो आग में नहीं जलती थी. हिरण्यकशिपु ने अपनी इसी बहिन की सहायता से प्रह्लाद को मारने की योजना बनाई. होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर धू-धू करती आग में जा बैठी. किन्तु विष्णु की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ, और होलिका जलकर भस्म हो गयी. कहते हैं कि तभी से होली का त्यौहार मनाया जाने लगा. क्या इस कहानी पर यकीन किया जा सकता है? वास्तव में इसकी अंतर्कथा यह है कि हिरण्यकशिपु की हत्या के बाद उसकी बहिन ने देवों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और प्रह्लाद को भी उसने चेताया था कि ब्राह्मण राष्ट्रवाद समस्त असुर संस्कृति के विनाश का दर्शन है. वह देवों और ब्राह्मणों के रास्ते की अंतिम बाधा थी, जिसे हटाकर ही वे प्रह्लाद के मुखोटे से ब्राह्मण-राज्य कायम कर सकते थे. अत: एक दिन अवसर पाकर लाठी-डंडों से लैस ब्राह्मणों ने होलिका को जिन्दा जलाकर मार डाला. उसकी मौत पर ढोल-नगाड़े बजाए गए. आज उसी तर्ज पर हिंदू हर वर्ष होलिका के रूप में होली जलाकर ब्राह्मणवाद की विजय का जश्न मनाते हैं. आज लाठी-डंडों की जगह उनके हाथों में गन्ने होते हैं, पर ढोल-डीजे का शोर तो होता ही हैं.
(कंवल भारती के फेसबुक से साभार)
मुस्लिम छात्राओं के समर्थन में उतरे DU के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद, कह दी मोदी हुकूमत को लेकर बड़ी बात

“मेरे सामने दो चीज़ें हैं ! एक है उन लड़कियों की शिक्षा का अधिकार और दूसरी तरफ है कुछ लोगों की यूनिफार्म की समझ ! तो जो ये ऑथोरिटीज हैं, उनकी यूनिफार्म की समझ को तरजीह दूंगा या उन लड़कियों की शिक्षा के अधिकार को?
मैं ऐसा फैसला नहीं कर सकता, जिस फैसले से स्कूल – एक ऐसी जगह बन जाए, जिससे हिजाब पहनकर आने वाली लड़कियां – वो हो सकता है मुझे पिछड़ी हुई दिखाई पड़ें, कुंद ज़ेहन मालूम पड़ें, हो सकता है उन पे मौलवियों का फंदा हो, लेकिन वो स्कूल आ रही हैं, हिजाब पहन कर, वही सिलेबस पढ़ रही – उसमे से कोई फोटोग्राफर बनना चाहती थीं, कोई पायलट बनना चाहती थीं या कुछ और बनना चाहती थीं ! आपने क्या किया? आपने कहा की नहीं साहब, यूनिफार्म की मेरी समझ है! तुम इसको करोगी, तभी तुम पायलट बन सकती हो, वर्ना नहीं — ये किसी सभ्य समाज का तरीक़ा नहीं है!
असल सवाल क्या है? कि अगर मैं हिजाब पहन रही हूँ, तो उससे क्या जो तालीम का मक़सद है या स्कूल में बराबरी का सिद्धांत है, वो बराबरी का उसूल कहीं बाधित होता है? या किसी संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन होता है? — यूनिफार्म बराबरी स्थापित करने के लिए होती है, विविधता को समाप्त करने के लिए नहीं! तो क्या हिजाब ऐसी चीज़ है जिसे एकोमोडेट नहीं किया जा सकता?
लड़कियां क्या कह रही थीं? वो कह रही थीं कि आपका यूनिफार्म जिस रंग का है, उसी रंग का दुपट्टा होगा, उसी से हम अपने सर को ढांक लेंगे, उसी से अपनी गर्दन ढांक लेंगे, वो तो चेहरा ढांकने के लिए भी नहीं कह रही थीं.. अगर हम इतना भी एकोमोडेट नहीं कर सकते हैं, तो हम किस तरह के एकोमोडेटिव मुल्क हैं, उसके बारे में भी सोचना चाहिए !”
बिहार में जहरीली शराब से रोज मरते हैं इतने दलित-आदिवासी

पूरे देश में बिहार अनोखा राज्य बनता जा रहा है। यहां के सीएम नीतीश कुमार आए दिन शराबबंदी को लेकर दावे करते हैं तो दूसरी ओर उनका सिस्टम उनके ही दावे की धज्जियां उड़ा देता है। और हो यह रहा है कि आए दिन बिहार में जहरीली शराब के कारण लोग बेमौत मारे जा रहे हैं। वहीं उनका तंत्र सच कबूलने के बजाय कहानियां गढ़ने में लगा है।
गत 15 मार्च को राज्य के कटिहार, गोपालगंज और बेतिया में हुई अलग-अलग घटनाओं में 8 लोगों की मौत जहरीली शराब के सेवन के कारण हुई है। लेकिन नीतीश कुमार के अफसरान यह स्वीकारने के बजाय इन मौतों को संक्रमण, मधुमेह और हृदयाघात आदि करार दे रहे हैं।
सबसे पहले बात करते हैं कटिहार जिले की। यहां के कोढ़ा थाना के चरखो जुराबगंज गांव में चार लोगों की मौत हो गई। मरनेवालों में दो औरतों रेखा देवी, सुलोचना देवी के अलावा अविनाश कुमार और जमील शामिल हैं। जबकि दो अन्य युवक सचिन और विकास कुमार की हालत गंभीर है। स्थानीय डीएम उदयन मिश्रा ने इन सभी के पीछे जहरीली शराब नहीं होने की बात कही है।वहीं गोपालगंज के थावे थाना के कविलासपुर गांव में दो लोगों और बेतिया के नौतन अंचल के श्यामपुर गांव में दो लोगों की मौत स्थानीय लोगों के मुताबिक जहरीली शराब पीने की वजह से हो गई है। इन मामलों में भी स्थानीय अधिकारियों ने जहरीली शराब के कारण होने से इंकार किया है।

दरअसल, बिहार सरकार जहरीली शराब से हो रही घटनाओं को रोकने में नाकाम हो रही है तो उसने और उसके तंत्र ने बदनामी से बचने का यह तरीका खोज लिया है। यह बिल्कुल वैसा ही जैसे भुखमरी के कारण होनेवाली मौतों से होनेवाली बदनामी से बचने के लिए सरकारें तमाम तरह का झूठ बोलती हैं।
बताते चलें कि पिछले छह महीने में साढ़े पांच सौ से अधिक लोगों की जान चली गयी है। वहीं करीब दो सौ लोगों को अपनी आंख् गंवानी पड़ रही है। इनमें अधिकांश दलित और पिछड़े वर्ग के लोग हैं। जाहिर तौर पर इन घटनाओं से यह तो साबित होता ही है कि बिहार में शराबबंदी के बावजूद शराब की बिक्री जारी है। लेकिन नीतीश कुमार, जो अपनी इमेज को लेकर चौकन्ने रहते हैं, ने इस तरह के तमाम सच्चाइयों को खारिज किया है।
योगी के शपथग्रहण से पहले अखिलेश ने किया #Awesome कमेंट, जानकर रह जाएंगे हैरान

यूपी के विधानसभा चुनाव में भले ही अखिलेश यादव और उनके सहयोगी दलों को बहुमत से कम सीटें मिलीं, लेकिन इससे उनके हौसले पर कोई असर नहीं पड़ा है। अभी जबकि योगी आदित्यनाथ द्वारा सीएम पद का दूसरी बार शपथ लेना शेष है, अखिलेश यादव ने जबरदस्त कमेंट किया है। उन्होंने योगी का नाम लिए बगैर यूपी के हाल को बयान कर दिया है।
दरअसल, अखिलेश यादव अपने चुटीली टिप्पणियों की वजह से भी जाने जाते रहे हैं। पूरे चुनाव के दौरान उन्होंने योगी आदित्यनाथ को भले ही बाबा कहकर सबोधित किया हो, लेकिन उसका असर योगी आदित्यनाथ पर सीधे होता था। अब जबकि चुनाव खत्म हो चुका है और भाजपा विधानसभा में अकेले 255 सीटों के साथ सरकार बनाने जा रही है, अखिलेश यादव ने राजनीतिक प्रहारों का सिलसिला रोका नहीं है।
बुधवार को ऐसी ही एक टिप्पणी अखिलेश यादव ने अपने ट्वीटर हैंडल पर जारी किया। ट्वीटर पर अपलोडेड वीडियो में वह स्वयं एक गाड़ी में बैठे हैं और एक सांढ़ उनके काफिले के बीच से गुजरता है। इस वीडियो के साथ ही अखिलेश ने टिप्पणी लिखी है– “सफ़र में साँड़ तो मिलेंगे… जो चल सको तो चलो…बड़ा कठिन है यूपी में सफ़र जो चल सको तो चलो!”
सफ़र में साँड़ तो मिलेंगे… जो चल सको तो चलो…
— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) March 16, 2022
बड़ा कठिन है यूपी में सफ़र जो चल सको तो चलो! pic.twitter.com/ZunRV6qlPa
जाहिर तौर पर अखिलेश यादव ने जहां एक ओर सांढ़ के बहाने योगी आदित्यनाथ पर हमला बोला है तो दूसरी ओर उन्होंने यूपी की जनता को आगाह किया है कि उन्होंने अपना जनादेश ऐसे ही एक अराजक को दिया है।
बहरहाल, एक दूसरे ट्वीट में अखिलेश यादव ने पंजाब के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री भागवंत सिंह मान को बधाई दी है।
सपा ने डॉ. कफील को बनाया MLC कैंडिडेट, योगी मुश्किल में
गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग विशेषज्ञ रहे डा. कफील खान एक बार फिर सुर्खियों में हैं। हालांकि सुर्खियों में वे यूपी सरकार की दमनकारी नीतियों के चलते गिरफ्तारी और अपनी समाजसेवाओं के लिए पहले से रहते रहे हैं। परंतु, इस बार सुर्खियों में उनके बने रहने की बड़ी वजह यह कि समाजवादी पार्टी ने उन्हें देवरिया कुशीनगर स्थानीय निकाय से विधान परिषद का उम्मीदवार बनाया है। यह पहला मौका है जब डा. कफील खान सियासी संग्राम में शरीक होंगे।
बताते चलें कि डा. कफील खान की पहचान एक जुझारू चिकित्सक की रही है। वह आमलोगों के बीच आम आदमी के डाक्टर के रूप में भी प्रसिद्ध रहे हैं। फिर चाहे वह कोविड की महामारी हो या फिर बिहार में बाढ़ के कारण फंसे लोगों की सेवा, डा. कफील सभी जगह नजर आए और पूरे देश में उनकी अलग पहचान बनी।
हालांकि डा. कफील खान उत्तर प्रदेश सरकार के निशाने पर भी रहे। यहां तक कि उन्हें गोरखपुर स्थित बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी के कारण बच्चों की मौत मामले अभियुक्त भी बनाया गया और गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। जबकि उन्होंने न केवल बच्चों को बचाने की पूरी कोशिश की थी और सार्वजनिक तौर पर यह उजागर किया था कि किन कारणों से अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी हुई। इस सच बयानी की कीमत उन्हें जेल में यातना सहकर चुकानी पड़ी। लेकिन डा. कफील खान झुके नहीं।
ध्यातव्य है कि हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने किसी भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया था। इस बार कुल 29 मुसलमान विधायक विजयी हुए हैं और ये सभी सपा गठबंधन के उम्मीदवार रहे।
बहरहाल, समाजवादी पार्टी ने उन्हें देवरिया कुशीनगर स्थानीय निकाय से प्रत्याशी बनाकर यूपी में वापसी करनेवाली भाजपा सरकार के समक्ष चुनौती पेश कर दी है। अब देखना दिलचस्प होगा कि सियासी अखाड़े में डा. कफील खान को जीत मिलती है या हार।
मान्यवर की जयंती पर सामने आईं बहनजी, कही यह बात
देश के करोड़ों दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को संगठित कर उन्हें सत्ता हासिल करनेवाला बनाने के संघर्ष के महानायक मान्यवर कांशीराम के 89वें जयंती की धूम पूरे देश में रही। तमाम दलित-बहुजन संगठनों ने इस मौके पर मान्यवर को पूरे सम्मान के साथ याद किया और उनके बताए रास्ते पर चलते रहने का संकल्प लिया। मुख्य समारोह लखनऊ के बसपा स्थित प्रदेश कार्यालय में आयोजित हुआ, जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री व बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने भी भाग लिया। इस मौके पर पार्टी के अनेक नेतागण व पदाधिकारी मौजूद थे।
इस मौके पर उन्होंने मान्यवर की प्रतिमा पर पुष्प अर्पित करने के बाद अपने संबोधन में उनके महान संघर्ष और अनंत कुर्बानियों को याद किया। उन्होंने कहा कि देश में करोड़ों, दलितों, आदिवासियों और अन्य उपक्षितों को लाचारी और मजलूमी की जिंदगी से निकालकर पैरों पर खड़ा करने के बसपा के संघर्ष में दृढ़ संकल्प के साथ लगातार डटे रहना ही मान्यवर कांशीराम को सच्ची श्रद्धांजलि देना है। उन्होंने मान्यवर के योगदानों को याद करते हुए कहा कि मान्यवर ने डॉ. आंबेडकर के आत्म-सम्मान व स्वाभिमान के मानवतावादी मूवमेंट को जीवंत बनाने के लिए आजीवन कड़ा संघर्ष किया और अनंत कुर्बानियां दीं।
मौजूदा राजनीति के संदर्भ में मायावती ने कहा कि वास्तव में वर्तमान युग में जारी चमचा युग में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के मिशनरी कारवां के प्रति तन, मन की लगन तथा धन्नासेठों के धनबल की जकड़ के बजाय अपने खून-पसीने से अर्जित धन के बल पर डटे रहना कोई मामूली बात नहीं। यह इस मूवमेंट की ही देन है और जिसके बल पर बसपा ने खासकर यूपी में कई ऐतिहासिक सफलता हासिल की है। आगे भी हमें डटे रहना है।
इस मौके पर मायावती ने बसपा के कार्यकर्ताओं के प्रति अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा कि आज की विषम परिस्थितियों से हम सभी वाकिफ हैं। जिस तरह से छल-बल की राजनीति की जा रही है, ऐसे वे सभी जो पूरी प्रतिबद्धता से अपने मिशन में मुस्तैदी से लगे हैं, उनके प्रति हम आभार प्रकट करते हैं।
बनिया-सवर्णों के गंठजोड़ को चुनौती देंगे बहुजन
भारतीय समाज में सबसे बेवकूफ दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं। मैं यह बात प्रमाण के साथ कह सकता हूं। एक प्रमाण तो यह कि मेरी जानकारी में ऐसा कोई मामला नहीं आया है जिसमें किसी सवर्ण महिला को डायन के आरोप में नंगा कर घुमाया गया हो, उनके बाल काटे गए हों, उन्हें पखाना पिलाया गया हो। ऐसी अमानवीयता और पशुवत व्यवहार केवल और केवल दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज की महिलाओं के साथ होता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है कि तमाम वंचित वर्ग इस तरह के अंधविश्वासों का शिकार है? क्या वह खुद इसके लिए जिम्मेदार है या फिर उसे अंधविश्वासी बनाया जा रहा है?
इस सवाल के पहले एक बात जो कल पटना में दैनिक जागरण से जुड़े मेरे एक वरिष्ठ मित्र ने डायरी में उल्लिखित दलित-बहुजनों के लिए अलग अखबार की आवश्यकता के मसले पर अपनी टिप्पणी भेजी। उनका कहना है– “किसी अखबार के मालिक सवर्ण नहीं हैं। आप अपनी यह बात उन्हें समझा सकते हैं कि अपर कास्ट को हटाकर दलितों और आदिवासियों के लिए भी जगह निकालें।
सच्चाई यह है कि जो पिछड़ा, दलित और आदिवासी माल कमा लेता है वह शोषक वर्ग में शामिल हो जाता है।
आपसे निष्पक्षता के साथ बेबाक टिप्पणी की उम्मीद है कि कैसे आप अपने मालिक की इच्छा के अनुकूल अपने अधीनस्थ कर्मचारियों का शोषण करते हैं।
सामान्य सिद्धांत है कि हर मालिक शोषक होता है और हर कर्मचारी शोषित। मालिक को मुनाफा चाहिए और कर्मचारी को अधिक वेतन और सहूलियत।
कोई मीडिया हाउस यह दावा नहीं कर सकता कि उसने इमानदारी के साथ वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर रखी है। …और संपादक नाम का प्राणी भी दावे के साथ नहीं कह सकता है कि वह शोषण नहीं कर रहा है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। मगर होता सब जगह है। इसलिए पहले अपने घर को ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए।”
उपरोक्त टिप्पणी में मेरे हिसाब से मेरे लिए महत्वपूर्ण यह है कि “किसी अखबार के मालिक सवर्ण नहीं हैं। आप अपनी यह बात उन्हें समझा सकते हैं कि अपर कास्ट को हटाकर दलितों और आदिवासियों के लिए भी जगह निकालें। सच्चाई यह है कि जो पिछड़ा, दलित और आदिवासी माल कमा लेता है वह शोषक वर्ग में शामिल हो जाता है।” मैं इसी बात पर विचार करता हूं।
मेरे हिसाब से मेरे मित्र का यह कहना सही है कि सारे अखबारों के मालिक सवर्ण नहीं हैं, लेकिन संपादक से लेकर तमाम तरह के शीर्ष पदों पर सवर्ण काबिज हैं। दरअसल अखबार निकालना एक बिजनेस है। इसमें पूंजी की आवश्यकता होती है और पूंजी निस्संदेह भारतीय समाज में बनिया के पास ही रहता आया है। सूदखोरी के तमाम किस्से-कहानियां इसके गवाह हैं। झारखंड में फिर चाहे वह सिदो-कान्हू हों या तिलका मांझी हों या बिरसा मुंडा हों या फिर शिबू सोरेन, सबने महाजनी कुप्रथा के खिलाफ संघर्ष किया। होता यह था कि सूदखोर व्यापारी वर्ग अकूत लाभ कमाने के लिए आदिवासियों पर जुल्म करता था। इसके लिए व सामंती जातियों को अपना गुलाम बनाकर रखता था। अपने जुल्म को न्यायोचित साबित करने के लिए वह ब्राह्मणों को पालता था। अंग्रेज जब भारत आए थे, उनका इरादा बिजनेस करना ही था। वे जनसेवा के लिए भारत नहीं आए थे। तो हुआ यह कि भारत के व्यापारी वर्ग ने उनका आगे बढ़कर साथ दिया। भामाशाह की तरह उनकी तिजोरियों भरीं और इसके बदले अपना व्यापार बढ़ाया। झारखंड का जमशेदपुर इसका सबसे नायाब उदाहरण है कि कैसे एक पूरा का पूरा शहर एक व्यापारी को दे दिया गया।
वर्तमान में प्रसिद्ध सामाजिक न्याय विचारक प्रो. कांचा आइलैया शेपर्ड ने अपनी एक पुस्तक में बनिया वर्ग को सामाजिक स्मगलर की संज्ञा दी है।
खैर, उपरोक्त उद्धरण सिर्फ यह बताने के लिए व्यापारी वर्ग लाभ कमाने के लिए सारे उद्यम करता है। इसके लिए वह ब्राह्मणों का उपयोग करता है। और ब्राह्मण इसका उपयोग समाज में अपनी सर्वोच्चता को बरकरार बनाए रखने के लिए करता है। पूंजी होती है व्यापारी की और उसका लाभ उठाकर वह दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के उपर राज करता आया है। आज भी यही हो रहा है। मेरे वरिष्ठ मित्र ने यह बात बिल्कुल वाजिब कही है कि सारे अखबारों के मालिक सवर्ण नहीं हैं। लेकिन यह कि उनसे कहकर दलित, पिछड़े और आदिवासी अपने लिए जगह निकलवाएं, मुमकिन ही नहीं है।
मैं तो आज दिल्ली से प्रकाशित “आरएसएस सत्ता” (जनसत्ता) देख रहा हूं। इसने आज धर्म पर आधारित एक पन्ना प्रकाशित किया है। चूंकि यह आरएसएस का मुख पत्र है, लिहाजा इसके इस पन्ने पर सारे आलेख ब्राह्मण वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। एक आलेख में एक व्यापारी वर्ग के लेखक ने होलिका दहन के बारे में लिखा है कि जब 150 डिग्री सेल्सियस तापमान पर होलिका का पुतला जल रहा होता है तब उसकी परिक्रमा करने से शरीर के अंदर के सारे रोगाणु खत्म हो जाते हैं। यह बनिया लेखक यही नहीं रूकता है। वह यह भी कहता है कि दांपत्य जीवन में निराश लोग, व्यापार में नुकसान उठा रहे लोग या फिर बीमारियों से ग्रस्त लोग अपने लाभ के लिए होलिका की आग में क्या-क्या आहूति दे सकते हैं ताकि उनके कष्टों का निवारण हो।
दरअसल, यह वह उदाहरण है जो इस सवाल का जवाब है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को कैसे बेवकूफ बनाकर रखा जाता है। इसकी एक वजह यह भी है कि यह वर्ग अभी भी नवसाक्षर है। अधिकांश लोग यह मानते हैं कि किताबों और अखबारों में लिखित बातें ही सच है और मौखिक बातें गलत। ऐसे में वे आसानी से सवर्णों और बनियों की मिली-जुली साजिश के शिकार हो जाते हैं।
बहरहाल, यह सामाजिक संघर्ष के विभिन्न चरणों में से एक चरण है। आज मैं आह्वान कर रहा हूं कि दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज के तमाम बड़े नेता और उद्यमी अपने-अपने समाजों के लिए अखबारों का प्रकाशन करें। कल मेरे जैसे अनेक होंगे और फिर वह दौर आएगा जब इन सवर्णों के अखबारों को कोई दलित, पिछड़ा और आदिवासी नहीं पढ़ेगा।
लोग उन पर कीचड़ फेंकते रहे, वह लड़कियों को पढ़ाती रहीं
महान नारीवादी, समाज सुधारक, सामाजिक कार्यकर्ता, मराठी कवयित्री व शिक्षाविद सावित्री बाई फुले आज ही के दिन यानी 10 मार्च 1897 को चल बसी थी. आज के दिन करोड़ों लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. उनका जीवन संघर्ष कठिनाइयों से भरा रहा. उनके कार्यों का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि जिस दौर में महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझकर काल कोठरी में बंद रखा जाता था व मात्र बच्चे पैदा करने की मशीन समझा जाता था उस समय सावित्री बाई ने न केवल स्वयं शिक्षा ग्रहण की बल्कि लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया और उनके लिए जगह जगह विद्यालय भी खोले. उनका पूरा जीवन नारी शिक्षा और उनके बेहतर जीवन को समर्पित रहा.
सावित्री बाई का जन्म 03 जनवरी 1931 को हुआ था. मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनकी शादी ज्योतिबा फुले से हो गई थी. उस समय उनके पति की उम्र 13 साल थी. सावित्री बाई की जब शादी हुई थी, तब वह पढ़ना लिखना नहीं जानती थीं और उनके पति तीसरी कक्षा में पढ़ते थे.
सावित्री बाई का सपना था कि वह पढ़े लिखें, लेकिन उस समय दलितों के साथ काफी भेदभाव किया जाता था. सावित्री बाई ने एक दिन अंग्रेजी की एक किताब हाथ मे ले रखी थी तभी उनके पिता ने देख लिया और किताब को लेकर फेंक दिया. उनके पिता को पता था कि इसे कोई पढ़ने नहीं देगा. उन्होंने सावित्री को कहा कि शिक्षा सिर्फ उच्च जाति के पुरुष ही ग्रहण कर सकते हैं. दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करने की इजजात नहीं है, क्योंकि उनका पढ़ना पाप है. लेकिन वह नहीं मानी और अपनी किताब वापस लेकर आ गईं. उन्होंने प्रण लिया कि वह जरूर शिक्षा ग्रहण करेंगी चाहे कुछ भी हो जाए. इसके बाद ज्योतिबा फुले ने सावित्री को पढ़ाया और लड़कियों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया. इतना ही नहीं इस काम में हर कदम पर उनका साथ भी दिया.
जब सावित्री बाई फुले अपने घर से लड़कियों को पढ़ाने स्कूल जाती तो बीच से सवर्णों के मोहल्ले से गुजरना होता. सवर्ण समाज के लोगों को यह बात बर्दास्त नहीं थी कि महिलाएं पढ़ना लिखना सीखें. चाहे वह सवर्ण महिलाएं हों या अवर्ण महिलाएं. सावित्री को अपमानित करने के लिए सवर्ण समाज के पुरुष उन पर गंदगी व कीचड़ फेंकते. इस सब के बावजूद भी सावित्री ने हार नहीं मानी और वह लगातार लड़कियों को पढ़ाती रही. वह अपने साथ थैले में एक साड़ी रखती थी. गंदी कर दी गई साड़ी को वह स्कूल में पहुंचकर बदल लेती.
सावित्री बाई द्वारा समाज में किए गए कार्य
- पहले बालिका विद्यालय की स्थापना की
- जातिवाद और पितृसत्ता का खुलकर विरोध किया
- भेदभाव और बालविवाह के विरुद्ध जन अभियान चलाया
- भारत के प्रथम कन्या विद्यालय की प्रथम शिक्षिका बनीं
- नवजात कन्या शिशुओं की हत्याओं को रोकने का अभियान चलाया व आश्रम खोले
- पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 19 वीं शताब्दी में विधवा विवाह, छुआछूत व सती प्रथा आदि महिला अधिकारों के लिए संघर्ष किया
- प्लेग महामारी में लोगों की सेवा व प्रसूति एवं बाल संरक्षण ग्रहों की स्थापना में भी उनका अहम योगदान रहा
3 जनवरी 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने महिलाओं के लिए पहले विद्यालय की स्थापना की. इसके बाद वे एक ही वर्ष में पाँच नए स्कूल खोलने में सफल हुए. तत्कालीन सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया. उनके कार्य की काफी लोगों ने सराहना भी की. उनके जीवन संघर्ष पर कई भाषाओं में किताबें लिखी गई हैं.
सावित्री बाई का जीवन काफी संघर्षमय रहा है. उनकी जीवन घटनाओं से उनके हौसले और आत्मविश्वास का अहसास होता है. वर्तमान में महिलाएं उन्हें अपना आदर्श मानती हैं. गूगल ने भी 3 जनवरी 2017 को उनकी जयंती पर गूगल डूडल जारी कर उन्हें अभिवादन किया था. वहीं भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में डाक टिकट निकाली गई. उनके संघर्ष और कार्यों को देखते हुए उन्हें सरकार द्वारा भारत रत्न से नवाजा जाना चाहिए. सावित्री बाई फुले के नाम से अधिक से अधिक महिला स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, बाल आश्रम, अनाथालय, वृद्धाश्रम और चिकित्सा केंद्र खोले जाने चाहिए. सभी महिलाओं को हर क्षेत्र में बराबर का हक मिले. शिक्षा, स्वास्थ्य, सेवाओं जैसी मूलभूत सुविधाओं में समान अवसर मिलें यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
भारत की महिलाओं में शिक्षा की अलख जगाना साहसिक व ऐतिहासिक कदम है. उन्हें नारीवाद की महानायिका कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. “चौका बर्तन से बहुत जरूरी है पढ़ाई, क्या तुम्हें मेरी बात समझ में आई?” उनकी इन दो पंक्तियों में उनके कार्य करने की व्याख्या छिपी है. निश्चित ही उन्होंने मौजूदा दौर का भयंकर विरोध झेला, गालियां सुनी और उन पर गंदगी फेंकी गई लेकिन वह डटी रही, भारत की बेटियों को पढ़ाती रही और उनका हाथ पकड़कर उन्हें अंधेरे कमरे से निकालकर खुले आसमान के नीचे ले आई.
फुले दंपत्ति के लिए ब्राह्मणवादी हिंदू समाज में अपना घर चलाना काफी मुश्किल रहा. उन्होंने छोटे छोटे काम करके जैसे तैसे गुजारा किया और निर्वहन करते रहे. उन्होंने फूल बेचे, सब्जियां बेची, रजाई की सिलाई की. इस तरह गुजर बसर करते हुए भारत का पहला बालिका विद्यालय भी खोला. इसके बाद एक एक करके कुल 18 बालिका विद्यालय खोले.
साबित्रीबाई फूले का जिन लोगों ने विरोध किया उसी समाज की एक लड़की की उन्होंने जान भी बचाई. एक विधवा गर्भवती आत्महत्या करने जा रही थी जिसका नाम काशीबाई था. लोकलाज के डर से वह ऐसा कर रही थी, लेकिन साबित्रीबाई ने उनको खौफनाक कदम उठाने से रोका. वह काशीबाई को अपने घर ले आई और उसकी डिलीवरी कराई. उन्होंने काशीबाई के बच्चे का नाम यशवंत रखा और उसे अपना दत्तक पुत्र बना लिया.
उन्होंने समाज से अस्पृश्यता के कलंक को समाप्त करने के लिए अपने घर में अछूत और वंचितों के लिए एक कुआं भी स्थापित किया. पति के साथ मिलकर पीड़ितों और बिना दहेज के विवाह कराने के लिए सत्यशोधक समाज का निर्माण किया. 1897 में पुणे में उन्होंने अपने दत्तक पुत्र यशवंत के साथ प्लेग की तीसरी महामारी के पीड़ितों के उपचार के लिए चिकित्सा केंद्र खोला. इस दौरान लोगों की देखभाल करते करते वह भी प्लेग की शिकार हो गई और 66 वर्ष की आयु में उनकी मौत हो गई. सावित्री बाई फुले अपने कार्यों के लिए हमेशा याद की जाएंगी.
रवि संबरवाल स्वतंत्र पत्रकार (अमर उजाला में पत्रकार रहे हैं।) संपर्क सूत्र: 8607013480
सपा-बसपा के जातीय चक्रव्यूह में फंसी भाजपा का निकलना मुश्किल
यूपी विधानसभा चुनाव अपने आखिरी चरण की ओर बढ़ चला है। आखिरी दो चरणों की लड़ाई पूर्वांचल में लड़ी जा रही है। इन दो चरणों की 111 सीटों पर 3 और 7 मार्च को मतदान होना है। छठवे चरण में 10 जिलों की 57 सीटों पर गुरुवार को वोटिंग हो रही है। 2017 में इन 57 सीटों में से भाजपा ने 46 सीटें जीती थी, बसपा ने पांच, सपा ने दो जबकि कांग्रेस को एक सीट पर जीत मिली थी। हालांकि 2012 में समाजवादी पार्टी 32 सीटें जीती थी।
एक बार फिर से जीत के इस आंकड़े को दोहराने के लिए भाजपा की ओर से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत तमाम दिग्गज चुनाव प्रचार में जुटे हैं। लेकिन इस क्षेत्र में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने टिकट के बंटवारे में जाति का ऐसा जाल बुना है, जिसमें भाजपा उलझती नजर आ रही है।
इसमें तुर्रा यह कि पूर्वांचल की 8 जिलों की 16 सीटें ऐसी हैं, जहां बीजेपी आज तक अपना खाता नहीं खोल पाई है। जैसे आजमगढ़ की सदर सीट को भाजपा आज तक नहीं जीत पाई है। इसके अलावा गोपालपुर, सगड़ी, मुबारकपुर, अतरौलिया, निजामाबाद और दीदारगंज में भी आज तक कमल नहीं खिला है। मऊ सदर की सीट भी भाजपा अब तक नहीं जीत पाई है। तो सीएम योगी के शहर गोरखपुर की चिल्लूपार सीट, देवरिया की भाटपाररानी सीट और जौनपुर की मछलीशहर विधानसभा सीट पर भी भाजपा का खाता नहीं खुला है।
10 जिलों की जिन सीटों पर छठवें चरण का मतदान हो रहा है, उसमें अंबेडकर नगर की 5, बलरामपुर की 4, सिद्धार्थनगर की 5, बस्ती की 5, संतकबीर नगर की 3, महाराजगंज की 5, गोरखपुर की 9. कुशीनगर की 7, देवरिया की 7 और बलिया की 7 सीटें शामिल हैं। इन जिलों में दलित, ओबीसी और ब्राह्मण वोटर सबसे ज्यादा निर्णायक हैं। कुछ जिलों में मुस्लिम वोटर भी मजबूत है। दलित वोटों की बात करें तो वह 22-25 प्रतिशत तक है।
छठवें और सातवें चरण में अस्मिता की राजनीति करने वाले ओमप्रकाश राजभर, डॉ. संजय निषाद, अनुप्रिया पटेल जैसे नेताओं की भी परीक्षा होगी। कुल मिलाकर पूर्वांचल में होने वाले अंतिम दो चरणों का चुनाव उत्तर प्रदेश की राजनीति तय करने के साथ अस्मिता की राजनीति करने वाले राजनैतिक दलों और नेताओं का भी भविष्य तय करेगा।
त्रिकोणीय हुआ यूपी चुनाव, मजबूती से उभरी बसपा
चौथे चरण के चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति बदलती नजर आ रही है। जिस बहुजन समाज पार्टी को पीछे बताया जा रहा था, वह चुपके से आगे बढ़ती जा रही है। बसपा के साथ कैडर वोटों के अलावा कई क्षेत्रों में ब्राह्मण और मुस्लिम वोटों के जुड़ने की खबर से भाजपा और सपा दोनों में बेचैनी है। इस नई खबर से उत्तर प्रदेश का चुनाव रोचक होता जा रहा है। आखिर हम यह बात किस आधार पर कह रहे हैं, और क्या है जमीनी हकीकत… आईए, हम आपको बताते हैं-
चौथे चरण के चुनाव में लखनऊ में अपने बूथ पर वोट डालने के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने चुनाव परिणाम में सबको चौंकाने की बात एक बार फिर दोहराई और दावा किया कि 2007 की तरह बहुजन समाज पार्टी एक बार फिर से प्रदेश में सरकार बनाएगी। मायावती यह दावा पहले दिन से कर रही हैं। अगर बहनजी का दावा सच निकल गया तो यह भारत की राजनीति का सबसे ज्यादा चौंकाने वाला चुनाव बन जाएगा।
ऐसा होगा या नहीं यह 10 मार्च को सामने आएगा, लेकिन यह साफ है कि यूपी चुनाव उलझता हुआ दिख रहा है। भले ही समाजवादी पार्टी और भाजपा सत्ता में आने का जोरदार दावा कर रही है और ज्यादातर मीडिया समूह और राजनीतिक विश्लेषक इस दावे पर मुहर भी लगा रहे हैं, लेकिन ऐसा कहने वाले लोग जमीन पर बसपा की ताकत को भूल रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को मिले 19 सीटों का हवाला देकर उसे कमजोर आंका जा रहा है। लेकिन उस चुनाव में बसपा को मिले वोट प्रतिशत की तरफ इन मीडिया समूहों और राजनीतिक विश्लेषकों का ध्यान नहीं है।
दरअसल प्रो. विवेक कुमार इसे मीडिया और कुछ राजनीतिक विश्लेषकों की साजिश बताते हैं। उनका कहना है कि अगर बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश के चुनावों में भाजपा से सीधी लड़ाई में दिखाया गया तो बसपा के जीतने के आसार बढ़ जाएंगे, क्योंकि बसपा के पास उसका 20 प्रतिशत कैडर वोट बना हुआ है। बसपा की जीत की आहट से प्रदेश के 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक और भाजपा से नाराज सवर्ण वोटर और गैर यादव पिछड़ी जातियों के वोटर बसपा के साथ आ सकते हैं। यह पूरा चुनावी खेल बदल सकता है। क्योंकि अगर ऐसा होता है, जो कि हो सकता है, तो बसपा की 19 सीटों को 119 और उससे भी आगे बढ़कर 219 होने से कोई दल नहीं रोक सकता।
दूसरी वजह, बहनजी ने जिस तरह से टिकटों का बंटवारा किया है, उसमें जाति और सोशल इंजीनियरिंग दोनों साफ नजर आ रहा है। टिकट बंटवारे में मायावती ने मुसलमान, पिछड़े और ब्राह्मण सभी का ख़्याल रखा है। यह 2007 का पैटर्न है। अगर ये उम्मीदवार अपने-अपने समाज के 5 प्रतिशत वोट भी ले आते हैं, तो बीएसपी का वोट प्रतिशत आसानी से 25 से तीस प्रतिशत तक जा सकता है।
तीसरी बात, 2017 का चुनाव भाजपा के लिए प्रचंड बहुमत का चुनाव था। लेकिन सीएसडीएस के आंकड़े बताते हैं कि भाजपा के लहर में भी बसपा को हर वर्ग का समर्थन मिला था। यह आंकड़ा काफी मायने रखता है। सीएसडीएस के आंकड़े के मुताबिक 2017 के चुनाव में बसपा को मिले वोटों का प्रतिशत देखें तो ब्राह्मण समाज का दो प्रतिशत वोट, राजपूत/भूमिहार का 6 प्रतिशत, वैश्व का चार प्रतिशत, जाट का तीन प्रतिशत जबकि अन्य अगड़ी जातियों का सात प्रतिशत वोट बसपा को मिला था। इसी तरह यादव समाज का 3 प्रतिशत, कुर्मी-कोईरी का 14, अन्य ओबीसी जातियों का 13 प्रतिशत, जबकि मुस्लिम समाज का 19 प्रतिशत वोट बसपा को मिला था। जाटव वोट निश्चित तौर पर सबसे ज्यादा 86 प्रतिशत था, जबकि गैर जाटव दलित समाज का वोट 43 प्रतिशत मिला था।
यहां यह ध्यान रखना होगा कि जब भाजपा अपने चरम पर थी, तब भी 14 प्रतिशत कोईरी कुर्मी समाज, 13 प्रतिशत अन्य ओबीसी, 43 प्रतिशत गैर जाटव दलित वोट, और 19 प्रतिशत मुस्लिम समाज का वोट बसपा को मिला था। यानी तब इन्होंने भाजपा और सपा को न चुन कर बसपा को समर्थन दिया था। इस बार तो भाजपा पहले जैसे लहर पर सवार भी नहीं है, तो क्या बहुजन समाज पार्टी सबको चौंकाते हुए कोई करिश्मा करने को तैयार है?
सामने आई यूपी चुनाव में पिछड़ती भाजपा की बौखलाहट
उत्तर प्रदेश के चुनाव में जैसे-जैसे भारतीय जनता पार्टी पिछड़ती जा रही है, उसकी बौखलाहट सामने आ रही है। और बौखलाहट में भाजपा नेता अल-बल कुछ भी बोले जा रहे हैं। यूपी के सिद्धार्थ नगर जिले के डुमरियागंज के भाजपा विधायक राघवेंद्र सिंह का एक वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है, जिसमें वह धर्म और जाति को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी कर रहे हैं।
इस वीडियो में भाजपा का बड़बोला विधायक कह रहा है कि, जो हिंदू दूसरी पार्टी को वोट देगा उसके अंदर मिया का खून है, वो गद्दार है… जो भाजपा को वोट नहीं करेगा वो अपने बाप की नाजायज़ औलाद है… यहीं नहीं इस सनकी विधायक ने लोगों को अपना डीएनए टेस्ट कराने की सलाह भी दे डाली..
हद तो यह है कि भाजपा विधायक राघवेंद्र सिंह की ऐसी बयानबाजी पर वहां मौजूद लोग तालियां बजा रहे हैं। हालांकि लोगों के बीच यह वीडियो आने के बाद भाजपा विधायक की जमकर खबर ली जा रही है। महाराष्ट्र सरकार में मंत्री डॉ नितिन राउत ने इस विडियो को ट्विटर पर साझा करते हुए चुनाव आयोग से पूछा है कि क्या चुनाव आयोग इस वीडियो को देख रहा है। दरअसल उत्तर प्रदेश में जिस तरह भाजपा की हार की लेकर खबरें सामने आने लगी है, उससे भाजपा और उसके नेता बौखलाए हुए हैं। मंदिर के नाम पर हिन्दुओं को एकजुट करने की राजनीति करने वाली भाजपा के नेता हिन्दू वोटों को अपने पाले में लाने के लिए हर सीमा पार करते जा रहे हैं। वो न सिर्फ मुसलमानों पर निशाना साध रहे हैं, बल्कि हिन्दुओं की भी फजीहत और अपमान कर रहे हैं।
फिलहाल वीडियो वायरल होने के बाद चुनाव आयोग ने भाजपा नेता के भाषण को उन्मादी बताते हुए उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया है। दरअसल इस चुनाव में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिसमें चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन होता दिख रहा है। लेकिन चुनाव आयोग ने ज्यादातर मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है। जिसको लेकर वह निशाने पर भी है। भाजपा नेता के ताजा बयान पर हालांकि चुनाव आयोग ने संज्ञान ले लिया है, लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या ऐसे बायनों पर बाद में कार्रवाई होगी या फिर चुनाव के साथ ये भी रफा-दफा हो जाएंगे? फिलहाल यही कहा जा सकता है कि भाजपा नेता का बयान बौखलाहट है, जो सत्ता से बाहर जाने के डर से आई है।
भाजपा हार रही है यूपी चुनाव, पूर्व राज्यपाल का दावा
दिल्ली के पूर्व राज्यपाल नजीब जंग का दावा है कि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश का चुनाव हारने जा रही है। नजीब जंग का कहना है कि भाजपा सरकार नहीं बनाने जा रही है। वह यूपी में चुनाव हारेगी। द वायर के लिए वरिष्ठ पत्रकार करण थापर को दिये गए इंटरव्यू में नजीब जंग ने यह दावा किया है। जब करण थापर ने पूछा कि आखिर वह इतने श्योर कैसे हैं? इस पर नजीब जंग ने यूपी चुनाव का पूरा गणित समझा दिया।
साल 2017 के यूपी चुनाव में भाजपा के बहुमत की वजह नजीब जंग ने मोदी को माना। उनका कहना है कि मोदी काऊ बेल्ट में काफी पॉपुलर हैं। पिछली बार उनका चेहरा सामने था। उनके साथ अमित शाह थे, यह करिश्मा काम कर गया। लेकिन इस बार योगी का चेहरा आगे हैं। योगी को भाजपा ने सीएम कैंडिडेट बनाया है और योगी का आगे होना कई निगेटिव फैक्टर प्ले करेगा, जिसका भाजपा को नुकसान होगा।
पूर्व राज्यपाल का कहना है कि योगी को यूपी चुनाव में आगे रख कर भाजपा ने गलती कर दी है और इस बार यही उसकी हार का कारण होगा।
नजीब जंग ने कारण गिनवाते हुए कहा कि
- भाजपा को किसान आंदोलन का खामियाजा उठाना पड़ेगा। गृहराज्य मंत्री टेनी के बेटे से जुड़ा विवाद और फिर उसको बेल मिलने से भी भाजपा को नुकसान होगा।
- गौशालाएं नहीं होने से गाएं खेतों में खुला घूम रही हैं, किसानों के खेतों को जानवरों से नुकसान पहुंच रहा है। इससे किसान नाराज हैं।
- पिछले दो सालों में उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी दोगुनी हो गई है। आलम यह है कि यूपी में ग्रेजुएट युवा मनरेगा में काम कर रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
- योगी जिस तरह से मुसलमानों के खिलाफ बयान दे रहे हैं, उससे भी फर्क पड़ा है।
तो आखिर यूपी में किसकी सरकार बनने जा रही है। इस पर नजीब जंग समाजवादी पार्टी का नाम लेते हैं। उनका दावा है कि अखिलेश यादव अपने दम पर यूपी में सरकार बनाने जा रहे हैं। अखिलेश यादव के पक्ष में दावा करने का कारण बताते हुए नजीब जंग का कहना है कि वह शानदार तरीके से चुनाव लड़ रहे हैं। पूर्व राज्यपाल के मुताबिक जब भाजपा यह कह कर अखिलेश यादव को घेर रही थी कि अखिलेश यादव घर में बैठ गया, वह कोविड से डर गया। उस वक्त अखिलेश यादव घर में बैठ कर चुनाव की रणनीति बना रहे थे।
अखिलेश यादव ने यह समझ लिया है कि सिर्फ MY यानी मुस्लिम-यादव समीकरण से जीत नहीं मिलेगी। अखिलेश ने इस बार अन्य पिछड़ी जातियों को जोड़ा है, जो मिलकर एक बड़ी संख्या है। पिछली बार भाजपा ने यही काम किया था। और अखिलेश यादव ने सिर्फ जातियों को ही नहीं जोड़ा। उन्होंने महिलाओं को जोड़ा, रोजगार की बात की, बिजली की बात की। नजीब जंग का दावा है कि चुनाव शुरू होने से ठीक पहले गैर यादव ओबीसी जातियों के अखिलेश यादव के साथ आने से पूरा गणित बदल गया है। यह पिछड़ा वर्ग ठाकुरवाद से चिढ़ा हुआ है। मुस्लिम वोटों पर पूर्व राज्यपाल का दावा है कि 80 फीसदी मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी को जा रहा है। मुस्लिम ओवैसी को वोट नहीं देने जा रहे हैं। ओवैसी वोटकटवा हैं।
उनका दावा है कि ब्राह्मण वोटों का बंटवारा होगा। जबकि ठाकुर वोट भाजपा के साथ मजबूती से खड़ा है। हालांकि यह नजीब जंग ने भी माना कि बसपा का परंपरागत वोटर बसपा के साथ मजबूती से खड़ा है। ऐसे में चाहे कोई दूसरा भले ही कुछ भी दावा करे, अगर बसपा के परंपरागत वोटों में भाजपा से छिटके ब्राह्मण वोटर और सपा से छिटके मुस्लिम वोटर मिल जाते हैं तो बसपा भी मजबूत ताकत बनकर सामने आ सकती है और सरकार को बनाने या बिगाड़ने में अहम रोल निभा सकती है।