कश्मीर में आतंकी हमले के बीच उठते सवाल
जम्मू-कश्मीर का पहलगाम आतंकी हमले से ऐसा गूंजा है कि उसकी गूंज देश भर में महसूस की जा रही है। मंगलवार 22 अप्रैल को दोपहर तीन बजे के करीब हुए इस आतंकी हमले में 28 नागरिकों की जान चली गई। इसमें दो विदेशी पर्यटक भी थे। खास बात यह है कि इस हमले में सिर्फ पर्यटकों को निशाना बनाया गया है। ये हमला पहलगाम की बैसारन घाटी में हुआ जिसे कश्मीर का ‘मिनी स्विट्ज़रलैंड’ भी कहा जाता है। पर्यटकों पर इससे पहले इतना बड़ा हमला कभी नहीं हुआ था। पुलवामा में 40 सैनिकों की हत्या के बाद और कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद यह चरमपंथियों का सबसे बड़ा हमला है।
घटना के बाद तमाम लोग सुरक्षा एजेंसियों और इंटेलिजेंस फेल्योर पर सवाल उठा रहे हैं। ऐसा इसलिए भी क्योंकि कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान के आर्मी प्रमुख जनरल सैयद आसिम मुनीर ने कहा था कि दुनिया की कोई ताकत कश्मीर को पाकिस्तान से अलग नहीं कर सकता है।
इस बीच हमले को लेकर आ रही खबरें परेशान करने वाली है। इस हमले में भारतीय नौसेना के 26 वर्षीय लेफ़्टिनेंट विनय नरवाल भी मारे गए। बीते 16 अप्रैल को उनकी शादी हुई थी और वह अपनी पत्नी के साथ कश्मीर पहुंचे थे। इस हमले के बाद अपनी सऊदी अरब की यात्रा को बीच में छोड़कर प्रधानमंत्री मोदी भारत पहुंच चुके हैं। उन्होंने कहा है कि ‘हमले के ज़िम्मेदारों को बख्शा नहीं जाएगा।’ लेकिन हमले के बाद श्रीनगर पहुचें गृहमंत्री अमित शाह की रेड कार्पेट वाली फोटो की आलोचना की जा रही है। ऐसे मौकों पर रेड कार्पेट कौन बिछाता है। और कौन उस पर चलता है।
जम्मू कश्मीर कि मस्जिदों से पहलगाम आतंकी हमले कि निंदा कि गई। मीडिया आपको ये नहीं दिखायेगा… pic.twitter.com/vhzniis0Zd
— Ashraf Hussain (@AshrafFem) April 23, 2025
तो वहीं आज तक के रिपोर्टर अशरफ वानी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि खासकर होम मिनिस्ट्री और कुछ अधिकारियों की तरफ से और इंटेलिजेंस की तरफ से सुरक्षा में चूक हुई है।
हालांकि दूसरी ओर इस हमले से कश्मीर में डर का माहौल है। श्रीनगर के मस्जिद से इस हमले की जानकारी देते हुए हमले की निंदा की गई। तो स्थानीय लोगों की जो तस्वीरें और वीडियो सामने आ रहे हैं, उसमें कश्मीरी मायूस दिखाई दे रहे हैं और हमले की निंदा कर रहे हैं।
दूसरी ओर पर्यटकों के भरोसे गुजर बसर करने वाले कश्मीरी भी इस हमले के खिलाफ खड़े हो चुके हैं। उनका कहना है कि यह हमला हमारे बच्चों के पेट पर हमारे गुजर बसर पर किया गया है। टैक्सी स्टैंड यूनियन ने तो बकायदा वीडियो जारी कर पर्यटकों के लिए हर तरह की मदद देने की बात कहते दिखे।
आतंकियों ने हाथों में कलावा देखकर.. नाम पूछकर.. धर्म जानकर खून की होली खेली.. मौत का नंगा नाच किया.. लेकिन स्थानीय कश्मीरियों के लिए ये आतंकी हमला उनके पेट पर लात मारने से कम नहीं है. जम्मू-कश्मीर में लंबे अरसे बाद फिर से पर्यटन बढ़ रहा था. आतंकवाद से त्रस्त जम्मू-कश्मीर के… pic.twitter.com/s9L1dxtQpZ
— Vivek K. Tripathi (@meevkt) April 23, 2025
हालांकि भारतीय मीडिया और सोशल मीडिया पर एक दूसरी ही बहस चल रही है। वह धर्म की बहस है। इसमें खासकर सारा जोर इस बात पर है कि हिन्दुओं को चुन-चुन कर धर्म पूछ कर गोली मारी गई। हालांकि मृतकों में दो कश्मीरी मुस्लिम, एक बंगलौर का मुस्लिम व्यक्ति और दो विदेशी भी हैं। मृतक सईद हुसैन शाह जम्मू कश्मीर के अनंतनाग से हैं। यह खबर कश्मीर के लोगों के मार्फत मीडिया में घूम रही है।
इस बीच भारतीय जनता पार्टी की छत्तीसगढ़ यूनिट ने तो इस हमले में अपनी असंवेदनशीलता और एजेंडा सेटिंग की शर्मनाक कोशिश दिखा दी है। उसने बड़ी बेशर्मी से एक पोस्टर जारी कर दिया है, जिसमें लिखा गया है, धर्म पूछा – जाति नहीं। याद रखा जाएगा। जब देश गम में डूबा है तो क्या किसी राजनीतिक दल को, जो सत्ता में भी हो ऐसी बेशर्मी की छूट दी जा सकती है। हर सवाल जनता खुद से जरूर पूछे।
रक्षा विशेषज्ञ इसे मोदी सरकार की विफलता बता रहे हैं। रिटायर्ड मेजर जनरल जी.डी बख्सी का मोदी सरकार पर आरोप है कि मोदी सरकार ने पैसा बचाने के लिए राष्ट्र की सुरक्षा के साथ समझौता किया। भर्ती बंद करके सेना में 1 लाख 80 हज़ार सैनिक कम किए फिर 4 साल सेना में भर्ती की अग्निवीर जैसी स्कीम लाई। ये तमाम सवाल ऐसे हैं, जिस पर सरकार को जवाब देने की जरूरत है। सरकार आतंकवादियों को और देश को क्या जवाब देगी, इसका इंतजार रहेगा।
टाटा कंस्लटेंसी सर्विसेज को कौड़ियों के भाव जमीन देना कितना जायज
अगर किसी कमजोर व्यक्ति के ऊपर बैंक के कुछ लाख रुपये बकाया हो जाए तो बैंक जब्ती के आदेश निकाल देती है। अगर कोई साधारण व्यक्ति बैंक से लोन लेने जाए तो उसे इतने पापड़ बेलने पड़ते हैं कि वह लोन की बात ही भूल जाता है। यानी कि सरकार भले जितने दावे कर ले, उससे सुविधा लेकर अपना बिजनेस खड़ा करने का सपना देखना देश के एक आम आदमी के लिए बड़ी चुनौती होती है। लेकिन यही सरकारें बड़े-बड़े अरबपति उद्योगपतियों को कई एकड़ जमीन कौड़ी के भाव दे देती है और यह उद्योग स्थापित करने और नौकरियों का सृजन करने के नाम पर दिये जाते हैं।
केंद्र में भाजपा को समर्थन देने वाले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की सरकार ने टाटा की कंपनी टाटा कंस्लटेंसी सर्विसेज को 21 एकड़ जमीन महज 99 पैसे प्रति एकड़ के हिसाब से दे दिया है। कंपनी इस जमीन का उपयोग IT Hills नंबर 3 पर एक IT कैंपस बनाएगी। बताया जा रहा है कि इसको बनाने में 1370 करोड़ रुपये की लागत आएगी। इस प्रोजेक्ट से 12 हजार नौकरियां मिलने की संभावना जताई जा रही है।
इसी तरह जहां देश का अंबेडकरवादी और बौद्ध समाज बोधगया का महाविहार मुक्ति का आंदोलन चला रहा है, आंध्र की कैबिनेट ने एलुरु ज़िले के द्वारका तिरुमला मंडल के IS राघवपुरम में श्री लक्ष्मी नरसिंह स्वामी मंदिर को 30 एकड़ ज़मीन बिना किसी शुल्क के देने की मंजूरी दी।
यह कोई पहला मौका नहीं है। सरकार और सरकारी बैंक हमेशा से उद्योगपतियों पर मेहरबान रहे हैं। दिसंबर 2024 में मीडिया में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक0 अंबानी, जिंदल और जयप्रकाश जैसे उद्योगपति लोन की रकम को चुका नहीं पा रहे हैं। इससे बैंकों पर बोझ लगातार बढ़ रहा है। पिछले 10 साल में बैंकों ने 12 लाख करोड़ रुपये का लोन माफ किया है। वहीं पिछले 5 साल में कर्ज माफी की आधे से ज्यादा रकम सरकारी बैंकों की है। लोन माफ करने में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) सबसे आगे है।
द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक टॉप 100 डिफॉल्टरों के पास कुल एनपीए का 43 फीसदी हिस्सा है। द इंडियन एक्सप्रेस ने यह जानकारी आईटीआर के माध्यम से जुटाई है। इसमें बताया गया है कि लोन न चुका पाने वालों में अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस कम्युनिकेशन लिमिटेड भी शामिल है। साथ ही इसमें जिंदल और जेपी ग्रुप की भी कंपनियां शामिल रही हैं। इसी तरह जहां तक लोन माफी की बात है तो वित्त वर्ष 2020 से 2024 के बीच SBI ने 1,46,652 रुपये, PNB ने 82, 449 रुपये, UBI ने 82,323 रुपये, BoB ने 77,177 रुपये और BoI ने 45, 467 रुपये का कर्ज माफ किया।
इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि बड़े बड़े उद्योग लगने से देश की जनता को रोजगार मिलता है। लेकिन बड़े-बड़े उद्योग घरानों को कौड़ियों के भाव जमीन दे देना कितना जायज है?
आंध्र प्रदेश में भी आरक्षण में कोटा मंजूर
आंध्र प्रदेश। तेलंगाना और हरियाणा के बाद आंध्र प्रदेश सरकार ने भी आरक्षण में वर्गीकरण का अध्यादेश जारी कर दिया है। प्रदेश सरकार ने यह अध्यादेश 17 अप्रैल को जारी किया गया। आंध्र प्रदेश की बात करें तो राज्य में कुल 59 अनुसूचित जातियां हैं, जिनको 15% आरक्षण मिलता है। आंध्र प्रदेश के अध्यादेश में सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के लिए SC जातियों को तीन ग्रुप में बांटा गया है।
ग्रुप-1 में- चंदाला, पाकी, रेल्ली, डोम जैसी 12 जातियों को रखा गया है। जिन्हें 1 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। ग्रुप-2 में- चमार, मादिगा, सिंधोला, मातंगी जैसी जातियां शामिल है। उन्हें 6.5 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। ग्रुप-3 में शामिल माला, आदि आंद्र, पंचमा जैसी जातियों को 7.5 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलेगा।
पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को SC और ST जातियों को कोटे में कोटा देने के बारे में फैसला सुनाया था, जिसके बाद तमाम प्रदेश सरकार इस संबंध में फैसला ले रहे हैं। बता दें कि आंध्र प्रदेश सरकार ने पिछले साल दिसंबर में रिटायर्ट IAS राजीव रंजन मिश्रा को SC कोटे में कोटा देने के लिए एक सदस्यीय आयोग के रूप में नियुक्त किया। आयोग ने 2011 की जनगणना के आधार पर रिपोर्ट दी थी, जिसे केंद्र को भेजा गया था।
देश को मिलेगा दूसरा दलित चीफ जस्टिस, बी.आर. गवई के आने से क्या कुछ बदलेगा?
उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीश बी.आर. गवई यानी भूषण रामकृष्ण गवई भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश होंगे। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने केंद्रीय कानून मंत्रालय को उनके नाम का प्रस्ताव भेज दिया है। सीजीआई खन्ना 13 मई को रिटायर हो रहे हैं। इसके बाद बी.आर. गवई देश के 52वें मुख्य न्यायाधीश बनेंगे। जस्टिस गवई अंबेडकरवादी समाज से आते हैं। साल 2007 में जस्टिस के.जी बालाकृष्णन के बाद जस्टिस गवई दलित समाज से आने वाले देश के दूसरे चीफ जस्टिस होंगे। ऐसे में सवाल है कि क्या अंबेडकरवादी समाज के एक व्यक्ति के देश का चीफ न्यायाधीश बनने से इस समाज को लेकर कुछ बदलेगा?
सबसे पहले बात करते हैं जस्टिस गवई के शुरुआती जीवन के बारे में। 24 नवंबर 1960 को महाराष्ट्र के अमरावती में जन्में जस्टिस बी.आर. गवई करीब 25 साल की उम्र में 16 मार्च 1985 को बार में शामिल हुए और कानूनी प्रैक्टिस शुरू की। सन् 1987 से 1990 तक उन्होंने बॉम्बे हाई कोर्ट में वकालत की। अगस्त 1992 से जुलाई 1993 तक बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में सहायक सरकारी वकील और एडिशनल पब्लिक प्रॉसीक्यूटर के रूप में नियुक्त हुए।
साल 2000 में वह बॉम्बे हाई कोर्ट के जज नियुक्त हुए। इसके बाद 14 नवंबर 2003 को वह बॉम्बे हाईकोर्ट के एडिशनल जज के रूप में प्रमोट हुए और 12 नवंबर 2005 को बॉम्बे हाईकोर्ट के परमानेंट जज बने। 24 मई 2019 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बने।
जस्टिस गवई द्वारा दिये गए महत्वपूर्ण फैसलों में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद और 2019 का राफेल डील मामला प्रमुख है। जस्टिस गवई की बेंच द्वारा लिये गए अन्य बड़े फैसलों में-
साल 2023 में नोटबंदी को वैद्य ठहराना साल 2023 में ही ईडी निदेशक के कार्यकाल के विस्तार को अवैध घोषित ठहराना साल 2024 में बुलडोजर कार्रवाई को अवैध घोषित करते हुए इस पर रोक लगाने का फरमान सुनाया साल 2022 में तामिलनाडु सरकार के वणियार समुदाय को विशेष आरक्षण देने को असंवैधानिक घोषित कर दिया साल 2023 में जस्टिस गवई की पीठ ने नागरिक अधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को 2002 के गोधरा दंगों से संबंधित मामले में नियमित जमानत दी
जस्टिस गवई उस संवैधानिक बेंच का भी हिस्सा थे, जिसने यह निर्णय दिया कि मंत्रियों और सार्वजनिक अधिकारियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अतिरिक्त प्रतिबंध नहीं लगाए जा सकते।लेकिन यहां एक सवाल यह है कि वंचित समाज के एक व्यक्ति के सु्प्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनने से क्या इस समाज के बीच कोई फर्क पड़ेगा। मसलन, देश की जेलों को लेकर आए नए आंकड़ें बताते हैं कि भारतीय जेलों में बंद दो तिहाई कैदी दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग वर्ग से हैं। जबकि 19% मुसलमान हैं। राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में मुस्लिम और दलित कैदियों की संख्या सबसे अधिक है, जबकि मध्य प्रदेश में आदिवासी कैदियों का अनुपात सबसे अधिक है। ये आंकड़े जेल सांख्यिकी 2018 में दिए गए हैं। इसमें तमाम कैदी ऐसे हैं, जो मामूली अपराध में जेलों में बंद हैं। देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू न सिर्फ इसका जिक्र कर चुकी हैं, बल्कि कानून मंत्री और पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी. वाई चंद्रचूड़ के सामने इसका हल निकालने को लेकर भी चिंता जाहिर कर चुकी हैं। जस्टिस गवई 14 मई को कार्यभार संभालेंगे और अगले सात महीनों तक देश के चीफ जस्टिस के पद पर रहेंगे। वह 23 नवंबर 2025 को रिटायर होंगे। सवाल है कि इन सात महीनों में क्या जस्टिस बी.आर. गवई इस मामले में कोई ठोस उपाय निकाल पाएंगे।
फुले फिल्म पर सेंसरशिप से उठे सवाल, चुनिंदा सेंसरशिप क्यों?
‘द स्टोरीटेलर’ जैसे गुणवत्तापूर्ण, संवेदनशील और अर्थपूर्ण फिल्म बनाने वाले राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अनंत महादेवन निर्देशित ‘फुले’ फिल्म प्रदर्शन से पहले ही जबरदस्त विवादों में फँस गई है। ‘फुले’ मूलतः 11 अप्रैल 2025 को प्रदर्शित होने वाली थी, लेकिन महाराष्ट्र की कुछ ब्राह्मण संघटनों द्वारा जातीय भेदभाव को बढ़ावा देने के आरोपों के कारण इसे 25 अप्रैल 2025 तक स्थगित कर दिया गया है।
शिक्षा के माध्यम से भारत में लड़कियों के लिए पहली स्कूल की स्थापना और तथाकथित पिछड़ी जातियों के उत्थान का काम फुले दंपत्ति के सामाजिक न्याय के सिद्धांत का केंद्र है। फिल्म में प्रतीक गांधी ने ज्योतिराव फुले की भूमिका निभाई है और पत्रलेखा ने सावित्रीबाई फुले की भूमिका। यह फिल्म 19वीं सदी के भारत में शिक्षा और सामाजिक समानता के लिए उनके अग्रणी प्रयासों की समीक्षा करती है, जिसमें 1848 में लड़कियों के लिए देश की पहली स्कूल की स्थापना शामिल है। अनंत महादेवन द्वारा निर्देशित इस फिल्म का उद्देश्य जाति और लिंग भेदभाव के खिलाफ उनके अथक संघर्ष को उजागर करना है। ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित यह फिल्म उनके इस संघर्ष को मुख्यधारा में लाने का प्रयास करती है।
ब्राह्मण संगठनों की आपत्तियों के जवाब में सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) ने फिल्म में कुछ बदलाव सुझाए हैं। सीबीएफसी ने ‘मांग’, ‘महार’, ‘पेशवाई’ जैसे जातीय संदर्भ वाले शब्दों को हटाने या परिवर्तित करने का सुझाव दिया है। इसी प्रकार, ‘3000 वर्ष की गुलामी’ संवाद को ‘अनेक वर्षों की गुलामी’ में बदलने का प्रस्ताव रखा गया है। वास्तव में, इससे फुले की चाल में जातीय अत्याचारों की सख्त ऐतिहासिक सच्चाई को नरम किया जा रहा है। यह काटछाँट या बदलाव फुले की वैचारिक विरासत की प्रामाणिकता और वंचित समुदायों के ऐतिहासिक संघर्ष पर अन्याय करती है। विभिन्न सामाजिक संगठनों ने इस निर्णय की आलोचना की है और सीबीएफसी पर पक्षपात का आरोप लगाया है।
पहला सवाल यह है कि क्या हमारे देश में फिल्मों के अनुमोदन के मानदंड अलग-अलग हैं? विवादित बयानों और तथ्यों वाली ‘द केरला स्टोरी’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्मों को सेंसर बोर्ड ने आसानी से प्रमाणित कर दिया, जबकि ऐसी अन्य फिल्मों को इस तरह की छंटनी का सामना नहीं करना पड़ा। परंतु सामाजिक सुधार और ब्राह्मणवादी जातिव्यवस्था विरोधी संघर्ष को चित्रित करने वाली ‘फुले’ पर कई बदलावों का सुझाव जानबूझकर दिया जा रहा है।
महात्मा फुले का जन्म 11 अप्रैल को हुआ था और उनकी जयंती के अवसर पर यह फिल्म रिलीज़ करने का व्यावसायिक लाभ भी होते। फिल्म के समय पर रिलीज़ न होने से इसकी सफलता पर प्रभाव पड़ेगा, इसलिए ये बदलाव सुझाए गए और प्रमाणन में देरी हुई। यह असंगति दर्शाती है कि सीबीएफसी सभी फिल्मों पर समान नियम लागू नहीं करता। जिन फिल्मों की कथा किसी विशिष्ट दृष्टिकोण का समर्थन करती है, उन्हें सुविधा होती है, जबकि चुनौतीपूर्ण विषयों वाली फिल्मों को रोका जाता है। यह चयनात्मकता सीबीएफसी की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है और कलात्मक स्वतंत्रता व ऐतिहासिक सत्य पर बंधन लगाती है।
दूसरी बात यह है कि भारत में जाति एक अति संवेदनशील मुद्दा है। जाति आधारित भेदभाव आज भी मौजूद है। ‘फुले’ जैसी फिल्में जो इन प्रश्नों का सीधा सामना करती हैं। सेंसर बोर्ड में शामिल लोगों के नाम और पृष्ठभूमि की जांच से स्पष्ट होता है कि सीबीएफसी की यह कार्रवाई राजनीतिक दबाव या सामाजिक स्थिरता के नाम पर हो रही है। ‘फुले’ जैसी फिल्म पर सख्त नियम लगाना यह दिखाता है कि सीबीएफसी सामाजिक सुधारों पर बोलने वाली फिल्मों को नियंत्रित करना चाहता है, जबकि विभाजनकारी कथानकों को छूट देता है।
तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘फुले’ को समय पर रिलीज़ न करने में ब्राह्मण संगठनों की शिकायतों का बड़ा हाथ है। इन संगठनों का मानना है कि जोतीराव और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित इस फिल्म में ब्राह्मण समुदाय का प्रतिकूल चित्रण किया गया है, जिससे ब्राह्मणों को खलनायक के रूप में दिखाया गया है या उन पर अन्यायपूर्ण आरोप लगाए गए हैं। इन शिकायतों के कारण सीबीएफसी ने फिल्म के प्रदर्शन पर प्रश्नचिन्ह लगाया, कुछ दृश्यों और संवादों पर आपत्ति जताई और बदलाव सुझाए, जिससे फिल्म की रिलीज़ में देरी हुई। दूसरी ओर, फिल्म निर्माताओं का दावा है कि फिल्म ऐतिहासिक रूप से सटीक है, इसमें फुले दंपत्ति के कार्य को समर्थन देने वाले ब्राह्मण पात्र भी हैं, और किसी भी समुदाय को बदनाम करने का उद्देश्य नहीं है। फिर भी, सीबीएफसी ने ब्राह्मण संगठनों की शिकायतों को प्राथमिकता दी, निर्माताओं की ऐतिहासिक सटीकता की दावों की अनदेखी करते हुए जाति संबंधित शब्दों या प्रसंगों को बदलने पर जोर दिया। इससे सीबीएफसी की निष्पक्षता संदिग्ध हो जाती है, क्योंकि यह एक विशिष्ट समूह की भावनाओं को अधिक महत्व देता प्रतीत होता है और निर्माताओं की कलात्मक दृष्टि की अनदेखी करता है। परिणामस्वरूप, यह प्रश्न उठता है कि क्या सीबीएफसी स्वतंत्र रूप से निर्णय ले रहा है या संगठनों के दबाव में काम कर रहा है। यदि सीबीएफसी दबाव में आकर ऐतिहासिक सत्य या कलात्मक दृष्टिकोण बदलने के लिए मजबूर हो रहा है, तो फिल्म निर्माताओं का मूल संदेश कमजोर होता है और दर्शकों के अधिकार पर असर पड़ता है। इसलिए, सीबीएफसी की कार्यप्रणाली और विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाना स्वाभाविक और आवश्यक है।
चौथा मुद्दा कलात्मक स्वतंत्रता का है। फुले के उद्देश्य का मूल तत्व शोषण आधारित सुधार था, इसलिए उस समय उन्हें बड़ा विरोध और कठोर सामाजिक संघर्ष झेलना पड़ा। इन संपादनों से फिल्म की ऐतिहासिक सटीकता प्रभावित होगी। इससे निर्माताओं की कलात्मक दृष्टि और दर्शकों के अप्रतिबंधित सूचना अधिकार के साथ अन्याय होगा। यह ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित सामाजिक भयावहता की कलात्मक अभिव्यक्ति और वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में संघर्ष को प्रतिबिंबित करता है।
चाहे फिल्म को अनुमति मिले या विरोध, एक बात निश्चित है—यह फिल्म हमारे सामाजिक इतिहास का आईना बनकर ज्वलंत वास्तविकता सामने ला रही है। इसमें शिक्षा के लिए संघर्ष करती महिला, जाति की दीवारें तोड़ने वाला शिक्षक, ब्राह्मणवादी वर्चस्व पर आधारित हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था, सामाजिक बहिष्कार, धार्मिक आतंक; महात्मा फुले का जीवन—ये सभी शामिल हैं।
महात्मा फुले का कार्य उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के योगदान के बिना पूरा नहीं हो सकता था। महात्मा फुले ने एक अशिक्षित कम उम्र की अपनी विवाहिता पत्नी सावित्री को पढ़ाया लिखाया और समाज में पहली महिला शिक्षिका के रूप में स्थापित किया। इस महिला ने सामाजिक बहिष्कार का सामना करते हुए शिक्षा का दीपक जलाए रखा। फुले ने जातिवादी वर्चस्ववाद पर आधारित शिक्षा व्यवस्था की दीवारें ढहा दीं। उन्होंने अस्पृश्य, दलित और शूद्र बच्चों के लिए अलग स्कूल खोले। उनकी स्कूलों में जाति नहीं पूछी जाती थी, जो उस समय क्रांतिकारी था। फुले ने ‘गुलामगिरी’ जैसे ग्रंथ में जातिगत व्यवस्था का पर्दाफाश किया और ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद पर सीधा प्रहार किया। उन्होंने कहा, “जब तक समाज शिक्षित नहीं होगा, वह गुलाम ही रहेगा।”
महात्मा फुले द्वारा आरंभ किया गया सामाजिक आंदोलन सत्ता समर्थित वर्णव्यवस्था के खिलाफ थी। इससे उन्हें समाज से व्यापक विरोध सहन करना पड़ा। समाज ने उन्हें बहिष्कृत किया। सावित्रीबाई के अपमान और फेंकी गंदगी से वे नहीं डिगीं। धार्मिक आतंक का स्वरूप भी उन्होंने सहन किया। उन्होंने ईश्वर, धर्म और पूजा पद्धतियों पर प्रश्न उठाए। “ईश्वर ने इंसान को नहीं बनाया बल्कि ईश्वर खुद मनुष्य कि निर्मिती है” उन्होंने स्पष्ट कहा। इन विचारों के कारण उन्हें ‘नास्तिक’ और ‘धर्मद्रोही’ कहा गया, फिर भी वे दोनों अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए।
महात्मा फुले का कार्य केवल शिक्षा तक सीमित नहीं था। उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना करके सामाजिक समानता का नया मार्ग खोला। विधवाओं का पुनर्विवाह, महिलाओं के गर्भपात अधिकार, लड़कियों की शिक्षा की आवश्यकता, कृषि शोषण और ब्राह्मण-पूजक वर्ग का वर्चस्व—इन सभी मुद्दों पर उन्होंने लेखन और कार्य किए। उन्होंने संघर्ष नहीं रोका और सत्यशोधक समाज की नींव रखी, जिसका मुख्य उद्देश्य जातिगत समानता स्थापित करना और ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध करना था।
सत्यशोधक समाज ने विवाह, नामकरण, अंत्यसंस्कार जैसे धार्मिक अनुष्ठानों को ब्राह्मणों के बिना संपन्न करना शुरू किया। जातिगत भेदभाव को त्यागकर एक साथ भोजन और सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित करने की परंपरा चलाई। सभी जातियों के लोगों ने मिलकर ‘सत्यशोधक’ के रूप में अपनी पहचान बनाई। सत्यशोधक समाज ने पहली बार दलित, शूद्र, महिलाएं—इन सभी को ‘अपना’ महसूस कराने वाला सामाजिक मंच प्रदान किया। समाज में शिक्षा के समान अधिकारों का आंदोलन हुआ।
महात्मा फुले के बढ़ते उम्र, खराब होते स्वास्थ्य के बाद भी समाज के लिए कार्य करने की उनकी ऊर्जा कम नहीं हुई। उनकी मृत्यु के बाद भी सत्यशोधक समाज आंदोलन जारी रहा। बाद में शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, पेरियार जैसे नेताओं ने सत्यशोधक विचारधारा से प्रेरणा ली। आज भी जातिगत भेदभाव के आधार पर लोगों की हत्या होती है, देव-धर्म के नाम पर अंधविश्वास कि घटनाएं घटित होती हैं। आदिवासी, महिलाओं, दलितों, ओबीसी के अधिकारों पर प्रहार होता है।
निर्देशक अनंत महादेवन ने फिल्म का बचाव करते हुए स्पष्ट कहा है, “मेरी फिल्म का कोई एजेंडा नहीं है। यह भारतीय समाज के चेहरामोहरे बदलने वाले समाज सुधारकों को सच्ची सिनेमाई श्रद्धांजली है।” उनके अनुसार, फिल्म का उद्देश्य भड़काना नहीं, बल्कि शिक्षित करना और प्रेरित करना है। फुलेवाद केवल एक फिल्म तक सीमित नहीं; यह भारत में जातिगत चर्चाओं के आसपास उभरी है। फुले का कार्य शैक्षणिक रूप से मनाया जाता है, फिर भी मीडिया में उनके सामाजिक परिवर्तनकारी विचारों को चित्रित करने के प्रयासों को अब भी रोका जा रहा है।
जातिगत विषमता को चुनौती देकर दलित–पीड़ित समुदायों को सशक्त करने के लिए फुले दंपत्ति ने अनवरत संघर्ष किया। महात्मा फुले द्वारा आरंभ की गई विचारधारा का संघर्ष आज भी हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। शिक्षा, समानता और न्याय की दिशा में हर कदम पर महात्मा फुले की प्रेरणादायी विरासत दिखाई देती है। महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले द्वारा प्रदर्शित ‘सत्यशोधक’ मार्ग आज भी अनेक विचारों को दिशा देता है।
इस आलेख की लेखिका कल्पना पांडे हैं जो महाराष्ट्र के भायंदर, ठाणे में रहती हैं। ईमेल- kalpana2810283@gmail.com
हेमंत सोरेन बने झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष, नए संकेत से देश की राजनीति में हलचल
रांची। झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन यानी गुरुजी के बेटे और राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए हैं। रांची में आयोजित पार्टी के 13वें महाधिवेशन में पार्टी ने हेमंत सोरेन को अपना अगला अध्यक्ष चुन लिया। इस दौरान शिबू सोरेन के लिए एक नया पद सृजित किया गया। वह संस्थापक संरक्षक होंगे। पार्टी अध्यक्ष शिबू सोरेन ने बेटे हेमंत सोरेन के नाम का प्रस्ताव रखा, जिसे सर्वसम्मति से पास कर दिया गया।
पद संभालने के बाद हेमंत सोरेन ने सोशल मीडिया पर एक भावनात्मक पोस्ट किया। उन्होंने लिखा कि- आज जब मैं झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के अध्यक्ष पद का दायित्व संभाल रहा हूँ, तो मेरे मन में अनेक भावनाएँ उमड़ रही हैं। यह कोई साधारण पद नहीं, बल्कि झारखंड की जनता के सपनों, संघर्षों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व है। आदरणीय बाबा, हमारे संरक्षक आदरणीय शिबू सोरेन जी ने जिन विचारधाराओं छांव तले झामुमो की नींव रखी थी, आज उसे आगे बढ़ाने का अवसर मिलना मेरे लिए गर्व का क्षण है। मैं विनम्रतापूर्वक इस जिम्मेदारी को स्वीकार करता हूँ और प्रण लेता हूँ कि झारखंड के हर गाँव, हर गरीब, हर वंचित और हर युवा की आवाज बनूँगा।
आज जब मैं झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के अध्यक्ष पद का दायित्व संभाल रहा हूँ, तो मेरे मन में अनेक भावनाएँ उमड़ रही हैं। यह कोई साधारण पद नहीं, बल्कि झारखंड की जनता के सपनों, संघर्षों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व है।
— Hemant Soren (@HemantSorenJMM) April 16, 2025
आदरणीय बाबा, हमारे संरक्षक आदरणीय शिबू सोरेन जी ने जिन… pic.twitter.com/awxYul2bzJ
हमारी पार्टी का इतिहास संघर्षों से भरा है, लेकिन हमारा संकल्प अडिग है। आज फिर से हमें एकजुट होकर झारखंड की अस्मिता, विकास और न्याय के लिए संघर्ष करना है। मैं सभी कार्यकर्ताओं, नेताओं और झारखंडवासियों से वादा करता हूँ — आपका विश्वास कभी टूटने नहीं दूँगा। पार्टी ने जो नया दायित्व दिया है उसे कड़ी मेहनत के साथ निभाया जाएगा। मजबूती से आगे बढ़ेगा झारखण्ड मुक्ति मोर्चा।
अपने पिता और झामुमो संस्थापक शिबू सोरेन का जिक्र करते हुए हेमंत सोरेन ने कहा कि आदरणीय बाबा दिशोम गुरुजी ने मुझे जो जिम्मेदारी दी है, पार्टी के लाखों साथियों ने मुझ पर जो विश्वास जताया है उसे दिन-रात कड़ी मेहनत कर पूरा करने का काम करूंगा। आप सभी का यही साथ ही मेरी ताकत है। आदरणीय बाबा के मार्गदर्शन में वीर पुरुखों के सपनों को साकार करने के लिए मैं दोगुनी ताकत के साथ राज्यवासियों की सेवा के लिए आगे बढूंगा।इस बीच पार्टी के 13वें केंद्रीय महाधिवेशन में एक राजनीतिक प्रस्ताव पेश किया गया, जिससे देश की राजनीति में हलचल शुरू हो गई है। इस प्रस्ताव में उल्लेख है कि नई राजनीतिक परिस्थिति में पार्टी के स्वरूप को एक राष्ट्रीय आकार देने की कवायद होगी। साफ है कि विधानसभा चुनाव में मिली जीत के बाद हेमंत सोरेन अब पार्टी को देश के अन्य हिस्सों में भी बढ़ाना चाहते हैं। पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर अगर हेमंत सोरेन इसमें सफल रहते हैं तो यह उनके लिए एक बड़ी जीत होगी।
कांग्रेस और डॉ. अंबेडकर को आमने-सामने खड़ा करने का भाजपाई षड्यंत्र
डॉ. अंबेडकर ही एक ऐसे महापुरुष हैं जिनका जन्मदिन, उनके जन्मदिन से पहले और सप्ताह और महीनों बाद तक मनाया जाता रहता है। संविधान निर्माण में डॉ. अम्बेडकर की भूमिका के बारे में कौन नहीं जानता? संविधान में बहुत सारे प्रावधान हैं लेकिन अभी भी उनको अमल में लाना रह गया है। संविधान में आरक्षण का प्रावधान तो है लेकिन सरकारी नौकरी हो या शिक्षा उसमें कोटा की सीमा का निर्धारण नहीं हैं। सरकार की इच्छा शक्ति और ईमानदारी न होती तो अन्य प्रावधान जैसे आरक्षण को भी न लागू किया गया होता। संविधान में प्रावधान जरूर हैं लेकिन उतना पर्याप्त नहीं है, अगर सत्ताधारी सरकारें न चाहें। संविधान की धारा 16 (2) के अनुसार किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर राज्य के अधीन किसी रोजगार या पद के लिए अपात्र नहीं ठहराया जाएगा या उसके साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा।
अब भी संविधान वही है लेकिन जमीन-आसमान का फ़र्क़ देखने को मिल रहा है। कांग्रेस के शासनकाल में दलितों और आदिवासियों को मुफ्त शिक्षा, वजीफ़ा, हॉस्टल की सुविधा मिली और वे पढ़ गए। सरकारी विभाग बनें और उनका विस्तार हुआ, जहाँ उन्हें नौकरी मिली। सार्वजनिक प्रतिष्ठान खड़े किए गए और लाखों-करोड़ों नौकरियां सृजित हुईं और रोजगार मिला। एयर इंडिया, एलआईसी, बैंक, कोयला, तेल की कंपनियां आदि के राष्ट्रीयकरण से लाखों रोजगार मिले। दलित-आदिवासी इसलिए पढ़ गए कि मुफ्त शिक्षा ही नहीं मिली, बल्कि वजीफा और हॉस्टल की सुविधा भी मिली। इस तरह से मध्यम वर्ग तैयार हुआ और वह सामाजिक न्याय को समझने लगा। कोटा-परमिट में भी आरक्षण के कारण लाखों लाभार्थी पैदा हुए जिससे उनकी आर्थिक व सामाजिक ताक़त बढ़ी। आपातकाल में इनका सबसे ज़्यादा उत्थान हुआ और 20 सूत्रीय कार्यक्रम के तहत कई लाभ मिलें और उसमें भूमिहीनों को जमीन मिल सकी। सरकारी नौकरी और शिक्षा में आरक्षण के कारण एक मध्यम वर्ग खड़ा हो गया और फिर उसकी आकांक्षा बढ़ने लगी। इन्होंने ही डॉ. अंबेडकर के विचार को फैलाया और 1980 के दशक से इनका नाम व विचार गांवों तक पहुँचने लगा। लेखन और मीडिया की भूमिका के कारण ऐसा नहीं हुआ बल्कि उनके अनुयायी प्रचार करने का कार्य किए। जब डॉ. अम्बेडकर के विचार फैलने लगे तो स्वाभाविक रूप से ज्योतिबा फूले, सावित्रीबाई फूले, शाहूजी महाराज, पेरियार, नारायण गुरु, संत गाड़गे, अय्यंकाली आदि के विचार का फैलाव स्वतः होना ही था। जैसे ही हिस्सेदारी की रफ्तार बढ़ी, रुकावट आ गई। तथाकथित बहुजन मूवमेंट ने इन्हें हुक्मरान का सपना दिखा दिया और जो कुछ मिल रहा था उसके लिए भी लड़ना और माँगना छोड़ दिया। देने वाली कांग्रेस को भी छोड़ते गए। अगर विकास की रफ्तार वही होती तो अब तक उद्योग, मीडिया और अन्य क्षेत्रों में भी हिस्सेदारी हो गई होती।
दलित समाज का मध्यम वर्ग परिपक्व होता, उसके पहले तथाकथित बहुजन मूवमेंट ने उसे भावनात्मक बनाकर झाड़ पर चढ़ा दिया। आरक्षण खत्म हो, जमीन का सवाल हो, निजीकरण का मुद्दा हो, उत्पीड़न, शिक्षा का निजीकरण और महंगी होना, संसद में सवाल उठाना, व्यक्तिगत समस्या या किसी तरह से भी अधिकार का हनन आदि सबका एक ही जवाब कि तुम्हें हुक्मरान बनना है और छोड़ो इन छोटी-छोटी बातों को। हमारी आबादी 85% है, हम देने वाले बनेगें। इस तरह से बात रखी कि अब सत्ता आने वाली है और जैसे आदिवासी और पिछड़ा वर्ग इनसे कोई संधि या करार कर लिया हो। ज़ोर-ज़ोर से कहा कि अब बहुजन एक होने वाले हैं। किसी बात को बार-बार कहा जाए तो लोग सच मानने लगते हैं। दूसरी तरफ करीब 50% ओबीसी जिसे मण्डल कमीशन के साथ खड़ा होना था, वह जाकर कमंडल से जुड़ गया। मण्डल के विरुद्ध में कमंडल को जबरदस्त समर्थन के पीछे पिछड़े ही थे। ऐसे में कैसे आरक्षण, शिक्षा, जमीन जैसे सवाल को नजरअंदाज करके सत्ता प्राप्ति के सपने के लिए सारी ताकत झोंक दिया। जो पिछड़ा अपने विरोधी के साथ खड़ा होने में गर्व कर रहा था, उसका झूँठा भरोसा दिखाकर दलित वर्ग के मध्यम वर्ग को मूर्ख बनाकर खूब समर्थन बटोरा। होना तो यह चाहिए था कि सत्ता प्राप्ति की लड़ाई चलती रहती लेकिन जो हिस्सेदारी मिल रही थी, उन मुद्दों को सड़क से संसद तक उठाया जाता रहता।
डॉ. अंबेडकर के विचार को सुविधानुसार ग्रहण किया, जातियों के संगठन खड़े करने लगे और सबको कहा कि अपनी-अपनी जाति को सांगठित करो। डॉ. अंबेडकर ने जातिविहीन समाज की बात किया था और ये जाति की दीवार मजबूत करने में लगे रहे। बढ़ती हिस्सेदारी रुक गई और यह कहना ज़्यादा उचित होगा कि ख़ुद अपने विकास के रास्ते के अवरोधक बन गए। कल्याणकारी योजनाएं दम तोड़ती गईं और उसे बचाने में ताक़त लगाने के बजाय सिर्फ राजनीतिक सत्ता हासिल करने में जुटे रहे। विशेष रूप से उत्तर भारत में कांग्रेस को प्रमुख विरोधी मान लिया और सारी ताक़त, संसाधन और सोच एक ऐसे सपने के लिए लगाना शुरू कर दिया जो व्यावहारिक न थी। पिछड़ा साथ न हो, आदिवासी समाज सोया हो, मुस्लिम बीजेपी हराने में लगे हों और अधिकारों के लिए संसद से लेकर सड़क तक कोई आवाज़ और संघर्ष न रहा हो तो कैसे बचते अधिकार? अधिकार देने वाली कांग्रेस को ही चमचा पैदा करने का दोषी और अंबेडकर विरोधी बताया। वोट भी देना बंद कर दिया तो ऐसे में कौन सी ताक़त बची कि वह अधिकारों के लिए संघर्ष करती?
कांग्रेस और डॉ. अंबेडकर को आमने-सामने खड़ा करने के पीछे तथ्यहीन और विचारहीन बातें रहीं। हिन्दू कोड बिल न पास होने से दुखी डॉ. अंबेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था। ज्ञात रहे कि क्या बिना मंत्रिमंडल की मंशा के बिल पेश किया जा सकता था? यह बिल समस्त हिन्दू महिलाओं की समानता के लिए था और नेहरू जी भी उतने ही पास कराने के इच्छुक थे, जितना बाबा साहब डॉ. अंबेडकर। इस बिल के विरुद्ध पूरे देश में आरएसएस और हिन्दू महासभा ने धरना-प्रदर्शन जारी रखा था और कांग्रेस के अंदर से भी इसका विरोध था। नेहरू जी ने ही इसको बाद में पास भी कराया था। तो इस तरह से कांग्रेस को दोषी ठहराना कहाँ तक उचित है? एक भावनात्मक आरोप यह भी लगाया जाता है कि कांग्रेस ने भारत रत्न नहीं दिया। तो इसको कैसे दलित विरोधी कहा जा सकता है, क्योंकि भारत रत्न तो सचिन तेंडुलकर जैसे लोगों को भी मिल गया है। संविधान निर्मात्री समिति का चेयरमैन और कानून मंत्री कांग्रेस ने बनाया तभी तो बाबा साहब डॉ. बी. आर. अंबेडकर यह सब कर सके। एक निराधार आरोप और लगाया जाता है कि बाबा साहब को कांग्रेस ने चुनाव में हराया जबकि यह गलत है। 1952 में चुनाव हारने का कारण कम्युनिस्ट नेता एस. ए. डांगे और सावरकर थे। दुनिया में कोई चुनाव हारने के लिए नहीं लड़ता। आजादी के बाद डॉ. अंबेडकर संविधान सभा के सदस्य नहीं थे, उन्हें कांग्रेस ही चुनवाकर फिर से लाई।
अनुयायी अपने गिरेबान में झाँककर देखें कि क्या वे जाति के बंधन से मुक्त हो गए हैं? क्या संगठित होकर संघर्ष कर रहे हैं? क्या दलित जातियों ने आपस में रोटी-बेटी का संबंध कायम करना शुरू कर दिया है? तर्क और तथ्य से परे हटकर जातीय मानसिकता से नहीं सोच रहे हैं? क्या पुरुष सत्ता की मानसिकता से मुक्त हो सके हैं? राहुल गांधी संविधान बचाने की लड़ाई संसद से सड़क तक लड़ रहे हैं, बाबासाहेब के अनुयायी कितनी ईमानदारी से उनका साथ दे रहे हैं? अनुयायियों को सोचने और समझने का समय ज्यादा नहीं रह गया है। सबकुछ खत्म हो जाने के बाद होश में आने का क्या फायदा होगा?
यदि डॉ. आंबेडकर प्रधानमंत्री होते?
नेहरू की जगह सरदार पटेल पी.एम. होते तो देश के हालात कुछ और होते। ये सवाल नेहरू या कांग्रेस से नाराज हर नेता या राजनीतिक दल खासकर संघी/ जनसंघी/ भाजपायी हमेशा उठाते रहे हैं। समय समय पर समाचार पत्र और पत्रिकाओं में भी इसकी चर्चा की जाती है। लेकिन इस सवाल को किसी ने कभी नहीं उठाया कि अगर नेहरू की जगह डॉ. आंबेडकर पी.एम. होते तो हालात कुछ और होते? यह सवाल न किसी राजनीतिक पार्टी ने उठाया और न तो समाचार पत्र /पत्रिकाओं में चर्चा का विषय बना। आजादी के कुछ वर्ष पूर्व गांधी ने कहा था कि आजादी के बाद वे देश के सर्वोच्च पद पर किसी हरिजन को देखना चाहते हैं । इसके बावजूद फिर भी डॉ. आंबेडकर पर चर्चा क्यों नहीं होती? आंबेडकर को या तो संविधान निर्माता या फिर दलितों के मसीहा के तौर पर कमोवेश हर राजनीतिक सत्ता ने देश के सामने पेश किया । ऐसे लोगों ने क्यों डॉक्टर अंबेडकर के राष्ट्रीय चरित्र, व्यक्तित्व और प्रतिभा को रिड्यूस (कमतर) करने का काम किया।
अगर इतिहास के पन्नों को पलटे कि आजादी से पहले या तुरंत बाद, देश के हालातों को लेकर डॉ. आंबेडकर तब क्या सोच रहे थे? क्यों आंबेडकर को राजनीतिक तौर पर उभारने की कोई कोशिश नहीं हुई? मौजूदा वक्त में भी बाबासाहेब आंबेडकर का नाम लेकर राजनीतिक सत्ता और राजनीतिज्ञ खूब प्रशंसा के पुल बांधते हैं। लेकिन यह कहने से बराबर बचते हैं कि अगर डॉ. आंबेडकर पी.एम. होते तो क्या होता? आईये, जरा डॉ. आंबेडकर के लेखन, आंबेडकर के कथन और आंबेडकर के अध्ययन को ही परख लें कि वह उस वक्त देश को लेकर क्या सोच रहे थे, जिस दौर में देश गढ़ा जा रहा था।
संविधान निर्माता की पहचान लिये आंबेडकर राइटिंगस और स्पीचीज की पुस्तक माला के खंड 13 के पेज 1216 के अनुसार 25 नवंबर 1949 को बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा कि ”26 जनवरी 1950 को हम अंतरविरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हम समान होंगे लेकिन हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता का बोलबाला होगा। राजनीति में एक व्यक्ति : एक वोट और एक वोट : एक मूल्य का सिद्धांत होगा लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य को हम नकारते रहेंगे। हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को कब तक नकारते रहेंगे? हम कब तक विरोधाभासों का यह जीवन जीते रहेंगे? यदि हम लंबे समय तक इसे नकारते रहे तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। जितनी जल्दी हो सके हमें इस अंतर्विरोध को दूर करना चाहिये। वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीडि़त है वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनीतिक लोकतंत्र के महल को ध्वस्त कर देंगे।”
सिर्फ संविधान देश में सामाजिक और आर्थिक समानता नहीं ला सकता है। संविधान में वर्णित सामाजिक और आर्थिक समानता को लाने की मुहिम चलानी होगी। इसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता है। डॉ. आंबेडकर असमानता के उस सच को उस दौर में ही समझ रहे थे जिस सच से अभी भी राजनीतिक सत्ता आंखे मूंदे रहती है या फिर सत्ता पाने के लिये असमानता का जिक्र करती है।
संविधान के लक्ष्य और उद्देश्य के बारे में 17.12.1946 को नेहरू के प्रस्ताव भारत को “स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य” घोषित करने के बारे में बोलते हुए डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा कि “प्रस्ताव हालांकि यह कुछ अधिकारों का उल्लेख करता है लेकिन उपायों की बात नहीं करता है। हम सभी इस तथ्य से अवगत हैं कि अधिकार तब तक कुछ भी नहीं है जब तक की ऐसे उपाय न दिए जाएं जिनके माध्यम से लोग अधिकारों पर आक्रमण होने पर निवारण प्राप्त करने की मांग कर सकें।“
यानी जो व्यवस्था समानता की होनी चाहिये, वह नहीं है। इस बात की कुलबुलाहट आंबेडकर को उस दौर में इतनी ज्यादा थी कि 13 दिसंबर 1946 को जब जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यों पर प्रस्ताव पेश किया तो बिना देर किये आंबेडकर ने नेहरू के प्रस्ताव का विरोध किया। आंबेडकर राइटिंगस और स्पीचीज की पुस्तक माला के खंड 13 के पेज 8-9 में लिखा है कि आंबेडकर ने जवाहरलाल नेहरू पर भी कितना तीखा प्रहार किया। आंबेडकर ने कहा, “समाजवादी के रूप में इनकी जो ख्याति है उसे देखते हुये यह प्रस्ताव निराशाजनक है। मैं आशा करता था, कोई ऐसा प्रावधान होगा जिससे राज्यसत्ता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय को यथार्थ रुप दे सके। उस नजरिए से मैं आशा करता था कि ये प्रस्ताव बहुत ही स्पष्ट शब्दों में घोषित करे कि देश में सामाजिक-आर्थिक न्याय हो। इसके लिये उद्योग-धंधों और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा। जब तक समाजवादी अर्थतंत्र न हो तबतक मैं नहीं समझता कि कोई भावी सरकार जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय करना चाहती है वह ऐसा कर सकेगी।”
डॉ. आंबेडकर उन हालातों को उसी दौर में बता रहे थे जिस दौर में कांग्रेस सत्ता के लिये बेचैन थी। बीते 75 बरस में हर नई राजनीतिक सत्ता पूर्व की सरकारों को लेकर यही सवाल खड़ा करते सत्ता पाती रही है। फिर सामाजिक – आर्थिक असमानता तले उन्हीं हालातों में काम करती रहती है। आंबेडकर राइटिंगस और स्पीचीज की पुस्तक माला के खंड 13 के पेज 60 में डॉ. आंबेडकर ने 4 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि “संविधान के स्वरूप को बदले बिना, केवल प्रशासन के स्वरूप को बदलकर उसे असंगत और संविधान की भावना के विरुद्ध बनाना पूरी तरह संभव है।” आज आंबेडकर की यह भविष्यवाणी सत्य साबित होती जा रही है।
9 साल पहले संसद में संविधान दिवस मनाये जाने के दौर को भी याद किया जा सकता है, जब 26 नवंबर 2015 को संविधान दिवस मनाते मनाते कांग्रेस हो या बीजेपी या अन्य सत्ताधारी, सभी ने एक सुर में माना कि आंबेडकर जिन सवालों को संविधान लागू होने से पहले उठा रहे थे, वही सवाल संविधान लागू होने के बाद देश के सामने मुंह बाये खड़े हैं।
यह अलग बात है कि कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ने खुद को डॉ. आंबेडकर के सबसे नजदीक खड़े होने की कोशिश संसद में बहस के दौरान की। लेकिन दोनों राजनीतिक दलों में से किसी नेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि आजादी के बाद अगर आंबेडकर देश के पी.एम. होते तो देश के हालात कुछ और होते। क्योंकि आंबेडकर एक तरफ भारत की जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खडे होकर देश की व्यवस्था को ठीक करने की सोच रहे थे, और दूसरा उस दौर में आंबेडकर किसी भी राजनेता से सबसे ज्यादा पढ़े लिखे व्यक्तियों में से थे, जो अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी के विश्वविद्यालय में राजनीति और सामाजिक अध्ययन करने के साथ साथ भारत की अर्थ नीति कैसी हो इस पर भी लिख रहे थे। लेकिन डॉ. आंबेडकर का अध्ययन और भारत को लेकर उनकी सोच कैसे दलित नेता और संविधान निर्माता के तौर पर मान्यता के तहत दब कर रह गई। जबकि डॉ. आंबेडकर आधुनिक भारत के अग्रीम पंक्ति के राष्ट्र निर्माता हैं।
जिस दौर में महात्मा गांधी ‘हिन्द स्वराज’ लिख रहे थे और हिन्द स्वराज के जरिये संसदीय प्रणाली या आर्थिक हालातों का जिक्र भारत के संदर्भ में कर रहे थे, उस दौर में आंबेडकर भारत की पराधीन अर्थव्यवस्था को मुक्त कराने के लिये स्वाधीन इकोनॉमिक ढांचे पर भी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में कह-बोल रहे थे। साथ ही भारत के सामाजिक जीवन में झांकने के लिये संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और वेद संबंधी समूचा वाड्मंय अनुवाद में पढ़ रहे थे और भौतिक स्थापनायें लोगों के सामने रख रहे थे।
इसलिये जो दलित नेता आज सत्ता की गोद में बैठकर बाबासाहेब आंबेडकर को दलित नेता के तौर पर याद कर के नतमस्तक होते है, वह इस सच से आंखे चुराते हैं कि आंबेडकर ब्राह्मणी हिन्दू व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था से आगे एक राजनीतिक व्यवस्था मानते थे। 1936 में उनका बहुत साफ मानना था कि ब्राह्मण हिन्दू सिस्टम में अगर अछूत जाति का व्यक्ति भी किसी ब्राह्मण की जगह ले लेगा तो वह भी उसी अनुरुप काम करने लगेगा, जिस अनुरुप कोई ब्राह्मण करता।
अपनी किताब मार्क्स और बुद्ध में डॉ. आंबेडकर ने भारत की सामाजिक व्यवस्था की उन कुरितियों को उभारा भी और समाधान की उस लकीर को खींचने की कोशिश भी की है। जिस लकीर को गाहे बगाहे नेहरू से लेकर मोदी तक कभी सोशल इंजिनियरिंग तो कभी अमीर-गरीब के खांचे में उठाते हैं। 1942 में आल इंडिया रेडियो पर एक कार्यक्रम में आंबेडकर कहते है, भारत में इस समय केवल मजदूर वर्ग ही सही नेतृत्व दे सकता है। मजदूर वर्ग में अनेक जातियों के लोग है जो छूत-अछूत का भेद मिटाती है। संगठन के लिये जाति प्रथा को आधार नहीं बनाते। उसी दौर में आंबेडकर अपनी किताब, “स्टेट्स एंड माइनारिटिज” में राज्यों के विकास का खाका भी खींचते नजर आते हैं । जिस यूपी को लेकर आज बहस हो रही है कि इतने बड़े सूबे को चार राज्यों में बांटा जाना चाहिये। वहीं आजादी के बाद आंबेडकर यूपी को प्रशासनिक दृष्टि से बोझिल स्टेट कहते हुए यूपी को तीन हिस्से में बांटने की वकालत करते हैं।
फिर अपनी किताब “स्माल होल्डिग्स इन इंडिया” में किसानों के उन सवालों को 75 बरस पहले उठाते हैं, जिन सवालों का जवाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है। आंबेडकर किसानों की कर्ज माफी से आगे किसानों की क्षमता बढाने के तरीके उस वक्त बताते है। जबकि आज यूपी में किसानों के कर्ज माफी के बाद भी किसान परेशान है। कर्ज की वजह से सबसे ज्यादा किसानों की खुदकुशी वाले राज्य महाराष्ट्र में सत्ता किसानों की कर्ज माफी से इतर क्षमता बढाने का जिक्र करती है। लेकिन ये होगा कैसे? इसका रास्ता बता नहीं पाती। जबकि डॉ. आंबेडकर “स्माल होल्डिग्स” में सभी उपाय बताते हैं। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. आंबेडकर को कानून मंत्री के रूप में नियुक्त करते समय उन्हें कुछ समय बाद योजना आयोग का प्रभार देने का वायदा किया था। क्योंकि आंबेडकर लगातार भारत के सामाजिक – आर्थिक हालातों पर जिस तरह अध्ययन कर रहे थे, वैसे में उन्हें लगता रहा कि आजादी के बाद जिस इकोनॉमी को या जिस सिस्टम की जरुरत देश को है, वह उसे बाखूबी जानते समझते हैं। पर जवाहर लाल नेहरू आंबेडकर को योजना आयोग का प्रभार नहीं दिलवा सके। और अंत में डॉ. आंबेडकर ने उन्हीं सामाजिक हालातों की वजह से नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दिया, जिन परिस्थितियों को वह तब ठीक करना चाहते थे।
हिन्दू कोड बिल को लेकर जब संघ परिवार से लेकर हिन्दू महासभा और कई दूसरे संगठनों ने डॉ. आंबेडकर के खिलाफ सड़क पर विरोध प्रदर्शन शुरू किया। संसद में लंबी चर्चा के बाद भी देश की पहली राष्ट्रीय सरकार में भी जब आंबेडकर हिन्दू कोड बिल पर सहमत नहीं करा पाये तो 27 सितंबर 1951 को आंबेडकर ने नेहरू को इस्तीफा देते हुये लिखा “बहुत दिनों से इस्तीफा देने की सोच रहा था। एक चीज मुझे रोके हुये था, वह ये कि इस संसद के जीवनकाल में हिन्दू कोड बिल पास हो जाये । मैं बिल को तोड़कर विवाह और तलाक तक उसे सीमित करने पर सहमत हो गया था। इस आशा से कि कम से कम इन्हीं को लेकर हमारा श्रम सार्थक हो जाये। पर बिल के इस भाग को भी मार दिया गया है। मुझे आपके मंत्रिमंडल में बने रहने का कोई कारण नहीं दिखता है।”
इतिहास के पन्नों को पलटिये तो गांधी और आंबेडकर कभी राजनीति करते हुए नजर नहीं आयेंगे बल्कि दोनों ही अपने-अपने तरह से देश को गढना चाहते थे। और आजादी के बाद संसदीय राजनीति के दायरे में दोनों को अपना बनाने की होड़ तो शुरु हुई लेकिन उनके विचार को ही खारिज कर दिया। उनके जीवित रहते हुए यह उन्हीं लोगों ने किया जो आंबेडकर को अपना बनाते या मानते नजर आये। इसलिये नेहरू या सरदार पटेल का जिक्र प्रशासनिक काबिलियत के तौर पर तो हो सकता है, लेकिन आजादी के ठीक बाद के हालात को अगर परखे तो उस वक्त देश को कैसे गढ़ना है यही सवाल सबसे बड़ा था। लेकिन पहले दिन से ही जो सवाल सांप्रदायिकता के दायरे से होते हुए कश्मीर और रोजगार से होते हुए जाति-व्यवस्था और उससे आगे समाज के हर तबके की भागेदारी को लेकर सत्ता ने उठाये या उनसे दो चार होते वक्त जिन रास्तों को चुना, बीते 75 वर्ष में देश उन्हीं मुद्दों में आज भी उलझा हुआ है। राजनीतिक सत्ता जाति-व्यवस्था के दायरे से इतर सोच पाने में सक्षम नहीं है।
इस सवाल को आंबेडकर ने जवाहरलाल नेहरू के पहले मंत्रिमडल की बैठक में ही उठा दिया था। इसलिये आंबेडकर ग्राम पंचायत प्रणाली का भी विरोध कर रहे थे। क्योंकि उनका साफ मानना था कि पंचायत चुनाव जाति में सिमटेंगे। जाति राजनीति को चलायेगी और असमानता भी एक वक्त देश की पहचान बना दी जायेगी। जिसके आधार पर बजट से लेकर योजना आयोग की नीतियां बनेंगी और ध्यान दें तो हुआ यही। अंतर सिर्फ यही आया है कि आंबेडकर आजादी के वक्त जब देश को गढ़ने के लिये तमाम सवालों को मथ रहे थे तब देश की आबादी 31 करोड़ थी और आज दलितों की तादात ही करीब 25 करोड़ हो चली है। शिक्षित चाहे 46 फ़ीसदी हो लेकिन ग्रेजुएट महज 4 फ़ीसदी है। इतना ही नहीं 70 फ़ीसदी दलितों के पास अपनी कोई जमीन नहीं है और 85 फ़ीसदी दलितों की आय 5 हजार रुपये महीने से भी कम है। आबादी 17 फ़ीसदी है लेकिन सरकारी नौकरियों में दलितों की तादाद औसतन सभी सेवाओं को मिलाकर महज 11.96 फ़ीसदी है। दलितों के लिये सरकार के तमाम मंत्रालयों का कुल बजट यानी उनकी आबादी की तुलना में आधे से भी कम है ।
जिस नजरिये का सवाल आंबेडकर आजादी से पहले और आजादी के ठीक बाद उठाते रहे उन सवालों के आईने में अगर बाबासाहेब आंबेडकर को देश सिर्फ संविधान निर्माता मानता है या दलितों के मसीहा के तौर पर देखता है तो समझना जरूरी है कि आखिर आजतक किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी पी.एम. ने ये क्यों नहीं कहा कि ऐसे विचारवान आंबेडकर को तो प्रधानमंत्री होना चाहिये था। क्योंकि ये बेहद महीन लकीर है कि महात्मा गांधी जन सरोकार को संघर्ष के लिये तैयार करते रहे और आंबेडकर नीतियों के आसरे जनसरोकार के संघर्ष को पैदा करना चाहते रहे।
देश की पॉलिसी ही अगर नीचे से ऊपर देखना शुरु कर देती तो अंग्रेजों का बना बनाया सिस्टम बहुत जल्द खत्म होता। जिस नेहरू मॉडल को कांग्रेस ने महात्मा गांधी से जोड़ने की कोशिश की, इन दोनों को आत्मसात करने वाली राजनीतिक सत्ताओं ने आंबेडकर मॉडल पर चर्चा करना तो दूर आंबेडकर को दलितों की रहनुमाई तले संविधान निर्माता का तमगा देकर ही उन्हें खत्म करने की कोशिश की। जो अब भी जारी है। आंबेडकर एक उच्च कोटि के राष्ट्रीय नेता और प्रधानमंत्री पद के सबसे सुयोग्य उम्मीदवार थे यह कहने की हिम्मत किसी भी राजनीतिक दल में क्यों नहीं है? यह एक गहन शोध का विषय है।
डॉ. आंबेडकर जातियों के उच्च और निम्न दृष्टिकोण की श्रेणीबद्धता की भावना को हिंदुत्व कहते थे। असमानतावाद और ब्राह्मणवाद हिन्दुत्व के अभ्यंतर में है। जाति और वर्ण हिंदुत्व का महत्वपूर्ण सार है। हिंदुत्व में जातियाँ हैं। ये जातियाँ राष्ट्र-विरोधी हैं। इसलिए क्योंकि वे सामाजिक जीवन में अलगाव लाती हैं। जाति-व्यवस्था अमानवीयकरण की प्रक्रिया है। यह जाति उत्पीड़न का साधन है और नफरत फैलाती है। अस्पृश्यता, समाजीकरण के निषेध के साथ मानवीय घृणा की चरम अभिव्यक्ति है। इस कारण डॉ. आंबेडकर हिन्दुत्व के कटु आलोचक थे। आंबेडकर ने कहा कि जातिविहीन समाज की स्थापना के बिना लोकतंत्र अर्थहीन है।
मेरा विश्वास है कि यदि डॉ. आंबेडकर प्रधान मंत्री होते या उनके सुझावों को अमल में लाया गया होता तो वह जाति व्यवस्था के उन्मूलन का प्रयास करते और जातिविहीन समाज की स्थापना के अग्रदूत बनते। जिससे न केवल जातिजनित भेदभाव और जातीय समस्याओं का हल निकलता बल्कि भारत की कम से कम 50% झगड़े और समस्याएं सुलझ जाती । सामाजिक-आर्थिक समानता लाने की गति बढ़ती । एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री होने के नाते डॉ. आंबेडकर देश की अर्थव्यवस्था को एक नया आयाम देते । बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन होता जिससे बेरोजगारी पर लगाम लगती। देश आर्थिक संपन्नता की ओर तेजी से बढ़ता।
क्या प्रधानमंत्री पद के लिए डॉ. अंबेडकर पर चर्चा नहीं करने का एकमात्र कारण उनका जाति-विरोधी रवैया है जो हिंदुत्व का मूल है? डॉ. आंबेडकर की एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति भेद के उच्छेद) नामक पुस्तक पर कभी भी गंभीर चर्चा होते हुए न तो समाजवादियों , साम्यवादियों को देखा -सुना जाता है न कांग्रेस को, तो भाजपा द्वारा इस पर चर्चा किए जाने के बारे में क्या सोचा जाए ? भाजपा को तो इस पर चर्चा करने का प्रश्न ही नहीं है। जो लोग अपने को भाजपाई, समाजवादी, साम्यवादी या दलित हितैषी कहते हैं उनमें से अधिकतर हिंदुत्ववादी मानसिकता से ग्रसित रहते हैं। इसलिए वोट के लालच में वे डॉ. आंबेडकर की ऊपर से खूब प्रशंसा करते हैं, फूल माला चढ़ाने में सबसे आगे रहते हैं पर अंदर से उनके सिद्धांतों की कब्र खोदते रहते हैं।
नफरत और समर्थन के बीच डॉ. आंबेडकर
बढ़ती आर्थिक असमानता अर्थशास्त्र में विकास के सकारात्मक सूचक के रूप में मानी जाती है। परंतु यह सिद्धान्त केवल पश्चिमी देशों में लागू होता है। भारत जैसे सोपानिक, जातीय रूप से विखण्डित समाज में आय और संसाधनों का असमान वितरण जातीय रूप धारण कर अलगाववाद को जन्म दे सकता है, जिसका प्रमाण नक्सलवाद है। यहीं से डॉ. आंबेडकर का चिंतन प्रासंगिक होता है। डॉ. आंबेडकर इस परिस्थिति से परिचित थे, इसलिए उन्होंने ‘सकारात्मक विभेद’ की अनुक्रियाओं का सहारा ले कर एक समता मूलक समाज की स्थापना का प्रयास किया।
एक तरफ जहाँ तमाम स्वतन्त्रता सेनानी 20वीं सदी के प्रारम्भ में राजनीतिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे थे। वहीं डॉ आंबेडकर का संघर्ष ‘सामाजिक स्वतन्त्रता’ का था। वे समाज में मौजूद जातीय-लैंगिक शोषण को समाप्त कर ‘सामाजिक- आर्थिक लोकतंत्र’ की स्थापना करना चाह रहे थे। इसी दिशा में सकारात्मक विभेद की प्रक्रियाओं के द्वारा ‘अवसर की समानता’ लाने का प्रयास किया गया। पर नव उदारवादी तब भी और आज भी सकारात्मक विभेद की आलोचना कर रहे हैं। यहाँ नॉजिक का विचार महत्वपूर्ण है जो अवसर की समानता और राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली सकारात्मक विभेद की क्रियाओं की आलोचना करते हुए कहते हैं कि “प्रकृति ने सबको समान बनाया है अतः व्यक्ति के पास मौजूद सम्पत्ति उसकी मेहनत और क्षमता का परिणाम है। ऐसे में सकारात्मक विभेद व्यक्ति की प्रतिभा पर चोट है” और कमोवेश यही बात भारत में कई सकारात्मक विभेद की प्रक्रिया के आलोचक कहते हैं, परंतु नॉजिक का यह विचार भारतीय समाज की प्राकृतिक अवस्था की सही व्याख्या नहीं करता, क्योंकि भारत में व्यक्ति के पास मौजूद सम्पत्ति उसकी क्षमता और प्रतिभा का परिणाम न होकर उसकी जातीय श्रेष्ठता का परिणाम है।
उदाहरण के तौर पर भारत में कुछ जातियां हैं जो जातीय श्रेष्ठता, धार्मिक एकाधिकार के बल पर हजारों वर्षों से सम्पत्तिशाली भी है और आज लोकतांत्रिक भारत में भी प्रभावशाली है। भारत में जातीय व्यवस्था और आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण दोनों जुड़े हुए हैं। डॉ आंबेडकर का दर्शन इसी ‘सामाजिक अलोकतांत्रिक व्यवस्था’ को समाप्त करने की बात कहता है, जहाँ व्यक्ति अपनी प्रतिभा नहीं जातीय श्रेष्ठता के बल पर समाज में स्थान प्राप्त करता है। किसी देश की एकता, अखण्डता तभी बनी रह सकती है, जब देश मे संशाधनों का वितरण सभी वर्गों में समान रूप से हो और शासन तंत्र में सभी की सहभागिता हो और इस सहभागिता और वितरण की समानता प्रदान करने के क्रम में जातीय रूप से शोषित निम्न वर्गों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए ही आरक्षण अनिवार्य तत्व बन जाता है। यह प्रतिभा का अपमान नहीं बल्कि सभी को साथ ले चलने की अनुक्रिया है, जो राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए अनिवार्य है और ‘वितरणात्मक न्याय’ का साधन भी है।
डॉ आंबेडकर यहाँ शिक्षा को प्लेटो से ज्यादा महत्व देते हुए शिक्षा को सामाजिक क्रांति का जरिया मानते हुए वंचितों को अपना सबसे पहला संदेश ‘शिक्षित बनो’ देते हैं। यहां डॉ आंबेडकर के दर्शन में शिक्षा का वही महत्व है जो मार्क्स की विचारधारा में ‘सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व’ का है। अर्थात बाबा साहब ने शिक्षा को बदलाव का क्रांतिक साधन माना है।
दूसरी तरफ डॉ आंबेडकर जातीय शोषण के भी अन्दर मौजूद ‘लैंगिक शोषण’ को समाप्त करने और आधी आबादी को आज़ाद करने के लिए हिन्दू कोड बिल ले कर आते हैं। महिलाओं को जो पुरुष की ‘संपत्ति का हिस्सा’ मानी जाती रही हैं उसे आज़ाद कर ‘सम्पत्ति का हिस्सेदार’ बनाते है। महिलाओं की आज़ादी के लिए वे और भी उग्र रूप धारण करते है और हर संभव प्रयास करने के क्रम में महिला स्वतंत्रता के लिए आज़ाद भारत के पहले मंत्रिमंडल से इस्तीफा तक दे देते हैं।
इससे यह स्पष्ट होता है कि उनका दर्शन मात्र जातीय शोषण तक सीमित न होकर, शोषण के हर रूप की समाप्ति का है, ताकि कल के सशक्त भारत में सबकी सहभागिता हो और भारत में किसी भी आधार पर अलगाव जन्म ही ना ले सके। वे वर्ण नहीं वर्गीय शोषण को भी स्वीकार करते हैं और किसानों के हित में सामूहिक खेती की बात करते हैं, जिसे डॉ आंबेडकर से प्रभावित हो कर सोवियत रूस अपनाता है। खेती पर मानसून की निर्भरता को समाप्त करने के लिए डॉ आंबेडकर 1931 में नदी जोड़ो की बात करते हैं, जिसे बाद में जा कर चीन अपनाता है और भारत आज भी इस पर विचार कर रहा है। वे सर्वांगीण नहर प्रणाली की बात करते हैं, जो भारत में आज भी प्रारंभिक चरण में है। डॉ आंबेडकर के विचारों पर ही रिज़र्व बैंक की स्थापना होती है। और यही सब मिलाकर डॉ आंबेडकर की ‘सामाजिक आर्थिक लोकतंत्र’ की अवधारणा बनाते हैं। यहाँ किसी भी प्रकार का शोषण न हो और सभी नागरिक मिल कर देश के विकास में योगदान दे सकें। पर इस सब के बीच में भारत में तब भी जब डॉ आंबेडकर दलितों और महिलाओं को अधिकार दिलाने की बात कर रहे थे, उनसे नफरत करने वाले लोग थे और आज भी यह नफरत करने वाले लोग मौजूद हैं। मेरा मानना है, डॉ आंबेडकर की आलोचना होनी चाहिए। कई मुद्दे ऐसे हो सकते हैं, जहां उनकी आलोचना हो सकती है।
जैसे अनुच्छेद 16(4) पर बहस के दौरान वे महिलाओं को सरकारी सेवाओं में आरक्षण की मांग नहीं रखते, जिसकी उम्मीद उन्हीं से की जा सकती है। वहीं लोकसभा व विधान सभा में वे महिला आरक्षण की बात नहीं करते जो आज तक संभव नहीं हो पाया है। परन्तु महिला आरक्षण के मुद्दे पर डॉ आंबेडकर की आलोचना करने से पहले हमें यह ध्यान रखना होगा कि 1950 में भारत में गिनी चुनी महिलाएं ही शिक्षित थीं औऱ वे भी तथाकथित उच्च वर्णों से थी, ऐसे में महिला आरक्षण का सम्पूर्ण लाभ वे ही ले जातीं। यह सच है कि महिलाएं मनुवादी शोषण से पीड़ित हैं पर जब वे जातीय शोषक वर्ग का हिस्सा होतीं हैं तव वे भी पुरुषों के समान शोषक होने के साथ जातिवाद की पोषक और संरक्षक की भूमिका में भी होती हैं। ऐसे में बाबा साहब महिलाओं की समस्या का हल हिन्दू कोट बिल में देख रहे थे, उनका प्रयास था कि पहले महिलाएं पुरुषवादी तंत्र से मुक्त हों, तब कहीं उनका विकास सम्भव होगा।
दूसरी डॉ आंबेडकर की आलोचना पिछड़ा वर्ग के संदर्भ में की जाती है कि उनका पूरा ध्यान दलितों के उद्धार पर था पिछड़ा वर्ग के लिए उन्होंने कुछ नही किया। पर यह सतही आलोचना है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 340 जिसमे पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए आयोग की बात कही गई है, बाबा साहब के प्रयास से ही संविधान में शामिल किया गया। बाबा साहब ने मंत्री पद छोड़ने के कारणों का उल्लेख करते हुए अपने इस्तीफे में अनुच्छेद 340 के तहत पिछड़ा वर्ग के लिए आयोग का गठन ना होने को भी कारण बताया है। यहां बाबा साहब और अखिल भारतीय पुछडा वर्ग संघ के नेता आर. एल. चांदापुरी के संबंधों के बारे में लिखना सम्भव नही है इस विषय पर अलग से पूरा लेख लिखा जा सकता है।
पर समस्या यह है कि बाबा साहब की आलोचना की जगह उनसे नफरत की जाती है, उनकी मूर्तियाँ तोड़ी जाती है, उस वर्ग को नुकसान पहुचाया जाता है जो डॉ आंबेडकर के कारण मानवीय जीवन प्राप्त कर पाया है। यही भारतीय समाज का जातीय स्वरूप है, वह मुद्दों पर न होकर जातीय कारणों से डॉ आंबेडकर से नफरत करता है। एक दूसरा वर्ग भी है जो बिना डॉ आंबेडकर को पढ़े केवल जातीय कारणों से उनका समर्थन करता है, या उनका भक्त बना बैठा है। यह नवोदित वर्ग है जो जोर जोर से जय भीम बोलने को, हर समस्या को ले कर किसी एक जाति को ही रात दिन कोसने को आंबेडकरवाद समझता है और बाबा साहब के नाम पर सेना बनाता है। यह वर्ग बाबा साहब के गंभीर चिंतन को हल्कापन प्रदान कर रहा है, अम्बेडकरवाद को The Great Chamar में परिवर्तन करने में लगा है, यह और भी ज्यादा गलत है। जरूरत दोनों के बीच में संतुलन की है।
लेखक बुद्ध प्रिय सम्राट शोधकर्ता हैं।
मासिक धर्म होने पर दलित छात्रा को परीक्षा कक्ष से बाहर निकाला
तमिलनाडु। तामिलनाडु के कोयंबरटूर जिले से एक हैरान करने वाली खबर आई है। जिले के सेनगुट्टईपलायम में एक दलित छात्रा को इसलिए कक्षा के बाहर बैठकर परीक्षा देनी पड़ी, क्योंकि उसे पीरियड आ गया था। इस मामले में पीड़ित छात्रा के परिजनों ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। पीड़िता के पिता द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत के मुताबिक, उनकी दोनों बेटियाँ स्वामी चिद्भवानंद मैट्रिक हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ती हैं। बेटियों की परीक्षा थी। इस दौरान छोटी बेटी को पीरियड आ गया, जिसके बाद उसे बाहर बिठा दिया गया।
इस शिकायत के बाद तमिलनाडु पुलिस ने कोयंबटूर जिले में 10 अप्रैल को स्वामी चिद्भवानंद मैट्रिक हायर सेकेंडरी स्कूल के तीन अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दायर किया। जिन पर मुकदमा दर्ज किया गया है, उनमें निजी मैट्रिकुलेशन स्कूल कॉरेस्पोंडेंट, सहायक कॉरेस्पोंडेंट सह-प्रधानाचार्य और कार्यालय सहायक पर एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के तहत मामला दर्ज किया गया है। मामले के तूल पकड़ने के बाद स्कूल प्रबंधन ने प्रिंसिपल को निलंबित कर दिया है।
लड़की के पिता ने बेटियों के साथ जातिवाद का भी आरोप लगाया है। उनका आऱोप है कि “मेरी पत्नी द्वारा स्कूल प्रशासन से शिकायत करने पर स्कूल के कॉरेस्पोंडेंट ने उससे कहा की दलितों के साथ ऐसा ही व्यवहार होगाl” इसके बाद मां ने कक्षा के बाहर बैठी अपनी बेटी का वीडियो बना लिया। स्कूल शिक्षा मंत्री वी सेंथिल बालाजी ने कहा कि कोयंबटूर ग्रामीण पुलिस दुर्घटना की विस्तृत जांच कर रही है।
जोतीराव फुले: भारतीय पुनर्जागरण के असली पुरोधा

क्या बौद्ध धर्म पर टिप्पणी कर फंस गए हैं अखिलेश यादव!
हम आपको अपना मानते हैं, तब भी जब आप हमारे ग्रंथों को अपना नहीं मानते। फिर भी हम हिन्दू वो लोग हैं, जो आपको स्वीकार करते हैं और गले लगाकर चलते हैं। वक्फ संशोधन बिल पर चर्चा के दौरान संसद में बौद्ध धर्म पर यह टिप्पणी कर अखिलेश यादव बुरी तरह घिर गए हैं। बौद्ध धर्म को लेकर उनके इस बयान के बाद अंबेडकरवादियों में खासा रोष है।
दरअसल अखिलेश यादव वक्फ संशोधन बिल पर चर्चा करने उठे तो अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू की ओर मुखातिब हो गई। किरण रिजिजू बुद्धिस्ट हैं। ऐसे में अखिलेश यादव उनकी धार्मिक पहचान से जोड़ते हुए बौद्ध धर्म पर सवाल उठाने लगे। कहने लगे कि आप हमारे वेदों और पुराणों को नहीं मानते, फिर भी हम आपको गले लगाते हैं।
पीडीए का ढिंढोरा पीटने वाले अखिलेश यादव ने जिन शब्दों का प्रयोग किया, उनके भीतर का कट्टर हिन्दू सामने आ गया। लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या मुस्लिम समाज हिन्दू धर्म ग्रंथों और पुराणों को मानता है? क्या क्रिश्चियन और अन्य धर्मों के लोग हिन्दू धर्म ग्रंथों को मानते हैं? या फिर क्या हिन्दू समाज के लोग मुस्लिमों के धार्मिक ग्रंथों को मानते हैं? जवाब है नहीं।
भारत में हर धर्म के अपने ग्रंथ हैं और उस धर्म के लोग उन्हीं ग्रंथों को मानते हैं। ऐसे में अखिलेश यादव भगवान बुद्ध और बौद्ध धर्म पर टिप्पणी कर आखिर क्या साबित करना चाहते हैं?
अखिलेश यादव फिलहाल पीडीए की राजनीति कर रहे हैं, पीडीए यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक। बीते दिनों में तमाम दलित नेताओं ने अखिलेश यादव की पार्टी को ज्वाइन भी किया। तो लोकसभा चुनाव में उनको दलितों का समर्थन भी मिला। वो दलित समाज जो बाबासाहेब आंबेडकर और तथागत बुद्ध को मानता है। उसी बुद्ध और बौद्ध धर्म पर टिप्पणी करना आने वाले दिनों में अखिलेश यादव को भारी पर सकता है।
बीएचयू में दलित प्रोफेसर को जाति के कारण नहीं बनाया जा रहा है विभागाध्यक्ष, जानिये पूरा मामला
वाराणसी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पीएचडी में दाखिले को लेकर शिवम सोनकर अभी धरने पर बैठे ही थे कि विश्वविद्यालय में जातिवाद का नया मामला सामने आ गया है। खबर है कि दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले सीनियर प्रोफेसर को अंगूठा दिखाते हुए उनसे दो साल जूनियर ब्राह्मण जाति के प्रोफेसर को विभाग का अध्यक्ष बना दिया गया है। इसके बाद दलित समाज के प्रोफेसर के समर्थन में छात्रों ने प्रदर्शन शुरू कर दिया है।
महेश अहिरवार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में प्रोफेसर हैं। विभागाध्यक्ष का पद खाली हुआ तो विश्वविद्यालय द्वारा ही बनाए नियम 25 (4) के अनुसार वरिष्ठता के हिसाब से प्रोफेसर महेश अहिरवार को विभाग का अध्यक्ष चुना जाना चाहिए था। लेकिन युनिवर्सिटी ने अपने ही बनाए नियमों को धत्ता बताते हुए उनसे दो साल जूनियर ब्राह्मण जाति के प्रोफेसर को विभाग का अध्यक्ष बनाने की कोशिश शुरू कर दी। इससे विश्वविद्यालय में हंगामा शुरू हो गया।
प्रोफेसर महेश अहिरवार और विभाग के तमाम छात्र विश्वविद्यालय प्रशासन पर जातिवाद का आरोप लगा रहें हैं तो दूसरी ओर विश्वविद्यालय आंखें मूंदे है। बता दें कि यह तब है जब प्रोफेसर अहिरवार बीएचयू में 29 साल की सेवा कर चुके हैं।
इस घटना को लेकर बीएचयू में पढ़ने वाले बहुजन छात्रों के संगठन ने बीएचयू प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। ओबीसी, एससी, एसटी, अल्पसंख्यक संघर्ष समिति ने एक पत्र लिखकर प्रोफेसर सोनकर के साथ जातिवाद का आरोप लगाते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन पर सवाल उठाया है। अपनी पत्र में संगठन ने विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि-
बीएचयू के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में विश्वविद्यालय के नियम [Statute 25 (4) (2)] के अनुसार वरिष्ठता क्रम में विभागाध्यक्ष के रूप में प्रोफेसर महेश प्रसाद अहिरवार की नियुक्ति किया जाना था किंतु अनुसूचित जाति समुदाय का होने के कारण उन्हें विभागाध्यक्ष के पद पर नियुक्ति से वंचित कर दिया गया।
प्रो अहिरवार की शिक्षक के रूप में 29 साल की सेवा और प्रोफेसर के पद पर 14 साल गुजारने के बावजूद उन्हें उनके विधिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। यह पूरा षड्यंत्र रजिस्टर महोदय अपनी सीनियारिटी बढ़ाने के चक्कर में कर रहे हैं ताकि वह रजिस्टर पद से हटने के बाद महिला महाविद्यालय का प्रिंसिपल बन सकें जबकि सीनियर प्रोफेसर के रूप में उनकी नियुक्ति खुद अधर में लटकी है तथा विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी द्वारा अभी तक अनुमोदन नहीं है। यह पूरी तरह स्पष्ट है कि रजिस्ट्रार महोदय द्वारा अपनी तथाकथित सीनियर प्रोफेसर की सीनियरिटी बढ़ाने तथा अपने गिने-चुने घनिष्ठ मित्रों को इसका अनुचित लाभ दिलाने के लिए सुनियोजित योजना बनाई गई है और प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में विभागाध्यक्ष की नियुक्ति को विवादित बनाया गया है। यह रजिस्ट्रार की कुत्सित और घोर जातिवादी मानसिकता का परिचायक है।
इस साजिश का पता चलने पर प्रो. महेश प्रसाद अहिरवार ने जब रेक्टर महोदय के यहां अपनी लिखित आपत्ति दर्ज कराई तो कला संकाय प्रमुख को आगामी आदेश तक के लिए विभागाध्यक्ष बना दिया गया जो पूरी तरह नियमों की अनदेखी है क्योंकि विश्वविद्यालय के नियम (Statute) 25(4) 2 में रोटेशन के आधार पर (बारी-बारी से) वरिष्ठता के क्रम में प्रोफेसर्स को विभागाध्यक्ष बनाने का प्रावधान है न कि संकाय प्रमुख को। इसी तरह की अनियमिताओं और नियम कानूनों की अवहेलना के कारण पिछले तीन सालों में 400 से अधिक मुकदमे विश्वविद्यालय के खिलाफ हाईकोर्ट में दर्ज किए गए हैं जिसमें विश्वविद्यालय प्रशासन मात्र एक साल में ही जनता की गाढ़ी कमाई का एक करोड रुपए से अधिक खर्च कर रहा है।
अतः हम विश्वविद्यालय प्रशासन से हमारी मांग है कि प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में विभाग अध्यक्ष की नियुक्ति विश्वविद्यालय के नियम(Statue) 25(4)2 का अनुपालन करते हुए प्रोफेसर महेश प्रसाद अहिरवार की नियुक्ति विभाग अध्यक्ष के रूप में की जाए ठीक उसी तरह जिस प्रकार दर्शनशास्त्र विभाग, शारीरिक शिक्षा विभाग, पाली विभाग तथा विश्वविद्यालय के अन्य विभागों में विभाग अध्यक्षों की नियुक्ति हाल के दिनों में की गई है।
रिजर्व बैंक की स्थापना और अर्थशास्त्री डॉ. आंबेडकर का योगदान
आज एक अप्रैल है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का स्थापना दिवस। वह रिजर्व बैंक जिसकी स्थापना में बाबासाहेब डॉ. आंबडेकर की अहम भूमिका थी। जी हां, बाबासाहेब आंबेडकर ने न सिर्फ भारतीय संविधान को बनाने में अहम भूमिका निभाई, बल्कि रिजर्व बैंक की स्थापना में उनका बेहद अहम योगदान था। डॉ. आंबेडकर ने हिल्टन यंग कमिशन को जो सुझाव दिया था, उसी के आधार पर ही 1 अप्रैल सन् 1935 को रिजर्व बैंक की स्थापना हुई थी।
बाबासाहेब आंबेडकर एक शानदार स्कॉलर थे। उन्होंने 1923 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से अर्थशास्त्र में पीएचडी की थी। उनकी थीसिस का विषय था- The Problem of the Rupee: Its Origin and its Solution.डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखित यह ग्रंथ भारतीय आर्थिक इतिहास और मुद्रा नीति पर केंद्रित है। ऐसे में जब रिजर्व बैंक की स्थापना की बात चली तो हिल्टन यंग कमिशन को इससे काफी मदद मिली। हिल्टन यंग कमीशन को ‘रॉयल कमीशन ऑन इंडियन करेंसी एंड फाइनेंस’ भी कहा जाता है। जब भारत में इस कमीशन को लेकर काम शुरू हुआ, तब कमीशन के सभी सदस्यों के हाथ में बाबासाहेब आंबेडकर की किताब ‘The Problem of the Rupee – Its origin and its Solution’ यानी भारतीय रुपये की समस्या – इसकी उत्पति व समाधान।
कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर 1934 में आरबीआई एक्ट को केंद्रीय विधान सभा में पास किया गया। आरबीआई एक्ट में केंद्रीय बैंक की जरूरत, वर्किंग स्टाइल और उसके आउटलुक को अंबेडकर के उसी कॉन्सेप्ट के आधार पर तैयार किया गया था, जो उन्होंने हिल्टन यंग कमीशन के सामने पेश किया था।
हालांकि, यह अजीब है कि रिजर्व बैंक के गठन में बाबा साहेब के अंबेडकर के योगदान को लेकर कोई आधिकारिक साक्ष्य नहीं है। आरबीआई की आधिकारिक वेबसाइट पर हिल्टन यंग कमीशन का जिक्र है, लेकिन अंबेडकर के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली। हालांकि, कुछ किताबों में इसक जिक्र मिलता है। नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने उन्हें- ’फादर ऑफ माय इकॉनमिक्स’ कहकर सम्मान दिया था।
अमेरिका में बोधगया महाविहार मुक्ति के आंदोलन को समर्थन देने सड़क पर उतरे बुद्धिस्ट
बोधगया महाविहार मुक्ति का आंदोलन भारत से होते हुए अब दुनिया के तमाम देशों में पहुंच चुका है। दुनिया के तमाम हिस्सों में मौजूद अंबेडकरवादी और बौद्ध समाज के लोगों ने भारत में चल रहे इस आंदोलन को अपना समर्थन दिया है। बीते दिनों अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में सैकड़ों की संख्या में लोग इस मुद्दे को समर्थन देने सड़क पर उतरे।
इस प्रदर्शन में अमेरिका के विभिन्न शहरों में रहने वाले अंबेडकरवादी और बौद्ध समाज के लोग पहुंचे। उनकी मांग थी कि बोधगया महाविहार को बौद्ध समाज को सौंपा जाए। इस प्रदर्शन में न सिर्फ भारत बल्कि श्रीलंका, बांग्लादेश, थाईलैंड और कंबोडिया जैसे देशों के बुद्धिस्ट भी पहुंचे थे।
दरअसल बिहार की राजधानी पटना से 120 किलोमीटर दूर गया ज़िले के बोधगया शहर में बीते 12 फरवरी से बौद्ध भिक्खु धरने पर हैं। उनकी मांग है कि बोधगया के महाबोधि महाविहार को पूरी तरह से बौद्ध समाज को सौंपा जाए और बीटी एक्ट यानी बोधगया टेंपल एक्ट, 1949 को ख़त्म किया जाए।
बता दें कि बोधगया वह स्थान है जहां तथागत बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। दुनिया भर के बौद्ध समाज के लिए यह स्थान तथागत बुद्ध के जीवन से जुड़े चार प्रमुख स्थानों में एक है। लेकिन यहां कि व्यवस्था में ब्राह्मण समाज का खासा हस्तक्षेप है, जिससे इस महाविहार की हिन्दूकरण होने लगा है। इसको लेकर बौद्ध समाज के लोग नाराज हैं और इस महाविहार के प्रबंधन से ब्राह्मण पुजारियों को हटाकर मैनेजमेंट को पूरी तरह से बौद्ध समाज को सौंपने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं।
हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे, तू मुझे अच्छी लगती है.. दलित बेटी पर मुस्लिमों का कहर

मासूम बच्ची अपने घर के बाहर खेल रही थी, तभी मोनिस ने उसे पीछे से पकड़ लिया और बदनीयती से उसके छेड़छाड़ करते हुए गलत तरीके से छूने लगा। लड़की ने विरोध किया और किसी तरह अपनी जान बचाकर भाग निकली। उसने पूरी घटना अपने पिता को बताई। जब उसने और उसके पिता ने मोहम्मद मोनिश का विरोध किया, तो 10-12 मुस्लिम लोगों के एक समूह ने “खटीकड़” जैसे जातिसूचक गालियां देते हुए चाकू, लाठियों और अन्य हथियारों से लैस होकर उन पर हमला कर दिया, उनके घर पर पथराव किया। भयानक! यही नहीं, पीड़िता के पिता ने शिकायत से भड़के आरोपियों के साथियों ने पीड़ित परिवार पर गर्म तेल उड़ेल दिया। इस भयावह मामले में दर्ज एफआईआर घटना को बताने के लिए काफी है। नोट- घटना कब की है, दलित दस्तक को इसकी तारीख पता नहीं चल पाई है, लेकिन एफआईआर 20 मार्च को दर्ज हुई है। आप खुद पढ़िये-Mohd Monish & Mohd Arish molested a minor Dalit girl in Muzaffarnagar, UP and touched her private parts.
— Suraj Kumar Bauddh (@SurajKrBauddh) March 23, 2025
When victim and her father resisted, a dozen of ISLAMISTS attacked her family with sticks, knives & other weapons.
The minor girl was playing outside her house when Mohd… pic.twitter.com/hfftvVMq2H


आदिवासियों में गरीबी का आलम, दादी ने पोते को दो सौ रुपये में बेचा
ओडिशा के आदिवासी बहुल मयूरभंज जिले में भूखमरी के कारण एक दादी को अपने पोते को मात्र 200 रुपये में बेच दिया। पोते की उम्र सात साल है। यह सिर्फ़ एक घटना नहीं, बल्कि इस देश की असलियत है। यह कोई पहली घटना नहीं है। 2023 में इसी जिले में एक माँ ने 800 रुपये में अपने नवजात शिशु को बेचा था। लेकिन क्या इस देश की सरकारों को इससे कोई फर्क पड़ता है?
मोदी सरकार ‘विश्वगुरु’ बनने का दावा करती है, लेकिन हकीकत यह है कि हम भुखमरी और गरीबी में फिसलते जा रहे हैं। अगर यह ‘अमृतकाल’ है, तो फिर ‘काल’ कैसा होगा? मोदी सरकार और बीजेपी की राज्य सरकारें आदिवासियों को केवल वोट बैंक और प्रचार सामग्री के रूप में देखती हैं। जब चुनाव आते हैं, तब ‘आदिवासी राष्ट्रपति’, ‘आदिवासी मुख्यमंत्री’, और ‘आदिवासी गौरव दिवस’ जैसे तमाशे किए जाते हैं, लेकिन जब आदिवासी भूख से मरते हैं, अपने बच्चों को बेचने पर मजबूर होते हैं, तब सरकार और संघ के ठेकेदार पूरी तरह चुप्पी साध लेते हैं। यही असली चेहरा है इस सरकार का, जहाँ एक ओर भव्य महाकुंभ, मंदिर, और कॉर्पोरेट महोत्सवों पर खरबों रुपये उड़ाए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर भारत के असली मालिक, आदिवासी समाज, भूख और गरीबी में दम तोड़ रहे हैं।
वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत की स्थिति:
— Hansraj Meena (@HansrajMeena) March 20, 2025
● 2013 – 63
● 2023 – 111
ओडिशा के आदिवासी बहुल मयूरभंज जिले की यह तस्वीर ही काफ़ी है आज के दौर के भारत को जानने और समझने के लिए, जहाँ भूखमरी के कारण एक दादी को अपना पोता मात्र 200 रुपये में बेचना पड़ा। यह सिर्फ़ एक घटना नहीं, बल्कि इस… pic.twitter.com/lmQCDNQCrS
बीजेपी और मोदी सरकार सिर्फ़ पोस्टरबाज़ी में व्यस्त है, ‘सबका साथ, सबका विकास’ का झूठा नारा लगाकर सिर्फ़ अपने पूंजीपति मित्रों को फायदा पहुँचाने में लगी है। आदिवासी इलाकों में राशन की किल्लत, बेरोज़गारी और विस्थापन चरम पर है। क्या यही ‘अमृतकाल’ है? क्या यही ‘नया भारत’ है, जहाँ गरीबों के बच्चे बिक रहे हैं और सरकारें अपने जुमलों में मस्त हैं? अगर इस देश में सरकारों में ज़रा भी इंसानियत बची है, तो आदिवासियों के लिए भूखमरी और विस्थापन खत्म करने की ठोस योजना लागू की जाए। अब भाषण नहीं, जवाब चाहिए, न्याय चाहिए!