महानायक बिरसा का जन्म छोटानागपुर के उलीहातु या चालकाद के बंबा गांव में 15 नवम्बर 1875 ई को हुआ था। 12 वर्ष की उम्र में सिंहभूम के चाईबासा के लूथरन मिशन चर्च में 1886ई में ईसाई धर्म में उन्हें दीक्षा दी गई थी। उनके माता-पिता के नाम करमी और सुगना मुंडा था। उनके दो भाई कोन्ता मुंडा एवं कन्हू मुंडा और दो बहनें दस्कीर एवं चंपा थे। चाईबासा केज बुरजू छात्रावास में रहकर उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा हासिल की। 1886 ई से 1890 ई तक उन्होंने पादरियों के उपदेशों को सुनकर और समझ कर अपने चरित्र एवं व्यक्तित्व का विकास किया। 1890 के बाद उन्होंने पढ़ना लिखना छोड़ दिया और वे पूरे परिवार के साथ बंदगांव चले गए, जो खूंटी और चक्रधरपुर के बीच में है।
जुलाई,1894 ई में अंग्रेजों ने एक नया कानून बनाया जिससे जंगल के अधिकार जमींदारों के हाथ दे दिया गया। मुंडाओं में क्रोध और आक्रोश की एक लहर दौड़ गई। पूरे क्षेत्र में सभी मुंडा संस्थाओं ने जगह- जगह बैठकें कर जंगल पर अपने पूर्वजों के अधिकारों को पुनः बहाल करने के लिए आवेदन दिए। इसी फैलती अशांति के बीच बिरसा अपने गांव चालकाद चले गए। वहां उन्हें अपने पूर्वजों के आदिधर्म के बारे में सोचने और चिंतन करने के अवसर प्राप्त हुआ। उसके बाद उन्होंने “उलगुलान” का ऐलान किया था।
1.मुंडाओं के सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा की शक्ति पर विश्वास करने,
2.रोगियों की सेवा करने,
3.जंगल पर अपने अधिकार रखने,
4.चुटियानागपुर को अपने पूर्वजों के धरोहर मानने और 5.किसी भी सरकार की कोई आज्ञा न मानने एवं मालगुजारी नहीं देने ,
6.बेगार सेवाएं नहीं देने आदि के आह्वान के साथ उन्होंने उलगुलान की घोषणा की।वे गांव-गांव जाकर मुंडाओं को संगठित करने लगे और रोगियों की सेवा करने लगे। बिरसा के उपदेश सुनने के लिए अपार जनसमूह उमड़ने लगी। लोग उन्हें अब धरती आबा या धरती के पिता के नाम से पुकारने लगे।
थाना में शिकायत दर्ज कराई गई कि बिरसा ने घोषणा की है कि सरकार का राज्य खत्म हो गया है। उनकी गिरफ्तारी के लिए 24अगस्त,1895 ई को पुलिस दल चालकाद भेजा गया और 26 अगस्त को उन्हें गिरफ्तार कर रांची लाया गया। हजारों लोग उनके साथ साथ चल रहे थे। 18 नवंबर 1895 को उन्हें पचास रूपए जुर्माना और दो वर्ष की कैद की सजा सुनाई गई। 1897 ई में जब महानायक जेल से रिहा हुए तो पूरा क्षेत्र भीषण अकाल के चपेट में था। वे अकाल पीड़ितों की सेवा में लग गए। उनकी सेवाओं के कारण लोग अब लड़ने मरने के लिए उनके साथ खड़े हो गए।
उन्होंने अत्याचार,अन्याय के विरुद्ध संघर्ष और आदिधर्म के प्रति आस्था के पर्यायवाची शब्द उलगुलान को पुनः धार देना शुरू कर दिया। 24 दिसम्बर,1899ई को जगह -जगह शाम के समय विद्रोह हो गया। तीन फरवरी,1900 ई को कुछ पैसे की लालच में एक मूलनिवासी क़ौम के गद्दार ने पुलिस को सूचना देकर उन्हें गिरफ्तार कराने का कार्य किया। 400 से अधिक मुंडा क्रांतिकारी जगह-जगह मार दिए गए और 300 से अधिक लोगों को कारावासों में डाल दिए गए। 09 जून,1900 के सुबह में उन्हें ख़ून की उल्टी हुई और 09 बजे जेल में ही अंग्रेजों की साजिश के शिकार हो कर उन्होंने अपनी शहादत दे दी। कहा जाता है कि उन्हें खाने में जहर दिया गया था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उन्होंने भारत के मूलनिवासियों को जल जमीन और जंगल के अधिकार, सम्मान तथा संस्कृति की रक्षा के लिए महान शहीद तिलका मांझी, प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और महान शहीद सिद्धु, कान्हो, चांद, भैरव सहित तमाम शहीदों के संघर्षों को आगे बढ़ाए थे और क्रांतिकारी मुहीम को अग्रगति दी थीं।उन्होंने अपनी शहादत से यहां के मूलनिवासियों को अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया और आत्मसम्मान के लिए उन्हें जीन सिखाया।
आज भी पूरे देश के स्तर पर लूटेरी सरकारों द्वारा मूलनिवासी अनुसूचित जनजाति के जल, जमीन , जंगल और सम्मान छीनने की मुहिम जारी है। बस्तर सहित देश के सभी पर्वतीय भागों में उनके संवैधानिक अधिकारों पर लुटेरों के हमले जारी हैं। बिरसा मुंडा सहित सभी शहीदों के वारिस आज भी अपने पर हो रहे शोषण, अत्याचार और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं।
तो आइए, हम उनके संघर्ष की विरासत को आगे बढ़ाएं और अपने महानायक एवं महान शहीद को पुनः शत् शत् नमन और श्रद्धाजलि अर्पित करें।जय बिरसा! जय भीम !! जय भारत!!!

प्रोफेसर विलक्षण बौद्ध उर्फ विलक्षण रविदास इतिहासकार हैं। भागलपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे हैं। वर्तमान में सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार फुले-अंबेडकर युवा मंच और बहुजन स्टूडेंट्स यूनियन बिहार जैसे संगठनों से जुड़े हैं। समसामयिक विषयों पर गंभीर टिप्पणीकार हैं।