पेरियार की मूर्ति टूटने पर भड़कीं मायावती

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लखनऊ। भाजपा समर्थकों द्वारा लेनिन और पेरियार की मूर्ति तोड़े जाने के खिलाफ बसपा प्रमुख मायावती ने भाजपा की राजनीति पर सवाल खड़ा किया है. इस मुद्दे पर बसपा प्रमुख ने भाजपा की बयानबाजी को खोखला बताते हुए उसकी निंदा की है. उन्होंने सवाल उठाया कि जब पश्चिम बंगाल की तृणमूल सरकार श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी के मामले में तत्काल कानूनी कार्रवाई कर सकती है तो अन्य राज्यों की सरकारें भी त्वरित कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं कर सकती थी.

उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री ने कहाकि बीजेपी एंड कंपनी को अपने लोगों पर नियंत्रण रखने के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी सभी राज्य सरकारों को हिंसा को रोकने के सख्त निर्देश देने चाहिए, न कि उपद्रवियों को खुला छोड़ देना चाहिए. उन्होंने केंद्र व बीजेपी की राज्य सरकारों से लोगों के जान-माल व मजहब के सुरक्षा की संवैधानिक गारंटी को सुरक्षित रखने की मांग की. भाजपा पर तंज कसते हुए मायावती ने कहा कि सत्ता में आ जाने के बाद बीजेपी व आर.एस.एस को राजनीतिक हिंसा व विध्वंस को अपना हथियार बनाने से बाज आना चाहिए.

लखनऊ से जारी अपने बयान में बसपा अध्यक्ष ने कहा कि त्रिपुरा राज्य में नई बीजेपी सरकार के बनते ही वहां मार्क्सवादी नेताओं पर हमले, उनके कार्यालयों में तोड़फोड़ तथा सार्वजनिक स्थलों में स्थापित लेनिन की मूर्तियों का विध्वंस करने के साथ आत्म सम्मान मूवमेंट के नेता रामास्वामी नायकर पेरियार की मूर्ति को खंडित करना यह साबित करता है कि देश में नफरत, हिंसा व विघटन की राजनीति हर तरफ सर चढ़कर बोलने लगी है, क्योंकि आपराधिक मानसिकता वाले लोगों को अब कानून का बिल्कुल खौफ नहीं रह गया है.

मूर्तितोड़ राजनीति के बाद सोशल मीडिया में उबाल

त्रिपुरा में भाजपा के सत्ता में आने के बाद रुसी क्रांति के महानायक लेनिन की मूर्ति तोड़ने से शुरू हुआ विवाद बढ़ता जा रहा है. भाजपा समर्थकों ने लेनिन की मूर्ति तोड़ने के बाद तामिलनाडु में बहुजन विचारक पेरियार की मूर्ति भी तोड़ दी. इससे गुस्साए वाम समर्थकों ने दक्षिण कोलकाता में जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त कर दिया. लेनिन और पेरियार की मूर्ति तोड़ने के बाद चुप्पी साधे सरकार और भाजपा समर्थकों की नींद श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा तोड़े जाने के बाद खुल गई है. पीएम मोदी और अमित शाह ने इस हिंसा को रोकने की अपील की है. पेरियार की मूर्ति से तोड़फोड़ के मुद्दे पर तमिलनाडु के सांसदों ने संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन किया. इस मामले पर टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि- ‘जिस तरीके से ये हो रहा है, आगे वह नेता जी सुभाष चंद्र बोस, विवेकानंद और गांधी की मूर्तियां तोड़ने लगेंगे. हम स्टालिन-लेनिन की विचारधारा का समर्थन नहीं करते, लेकिन हमने चुनाव जीता तो उसे नुकसान नहीं पहुंचाया.

तो वहीं सोशल मीडिया में इस घटना के बाद विचारों को लेकर बहस छिड़ गई है. आम लोगों से लेकर नेताओं और पत्रकारों ने इस घटना को लेकर अपना नजरिया रखा है.

Ram Gayas

राम ग्यास ने फेसबुक पर लिखा है- गांधी की मूर्ति पूरी दुनियां में क्या कर रही है, उसे तोड़ देना चाहिए। ईशा के चर्च यहां क्या कर रहे हैं। मोहम्मद की मस्जिद यहां कर रही है। हिंदुओ के मंदिर कम्बोडिया में क्या कर रहे हैं। बुद्ध की मूर्तियां पूरे एशिया में क्या कर रही हैं। जो लोग एक बूत को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे है वो विश्वगुरु बन के दुनियां को अपनी बकलोली समझाते है.

हाल ही में राजनीति में आए फिल्म अभिनेता कलम हासन ने पेरियार की मूर्ति पर हमले को लेकर कहा है- मूर्ति की सुरक्षा के पुलिस तैनात करने की कोई जरूरत नहीं है. हम तमिल खुद इसकी सुरक्षा करेंगे. मुझे लगता है कि कावेरी मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए यह सब किया जा रहा है.

पत्रकार मंजीत ठाकुर ने (फेसबुक) लिखा है- मूर्तियां नश्वर होती हैं. विचार शाश्वत होते हैं. मूर्तियों को तोड़ देने से विचारों का नाश होना होता, तो मुस्लिम आक्रांताओं के हाथों हजारों मूर्तियों के टूटने से हिंदू धर्म नष्ट हो जाता, राजा शशांक के हाथों बोधि वृक्ष कटवाए जाने और बामियान में तालिबान के हाथों प्रतिमा तोड़ने से बौद्ध धर्म खत्म हो जाता. मूर्तियां खत्म हो जाती हैं, विचार रह जाते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने ट्विट किया- ‘त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति ढहा दी गई, कल अंबेडकर परसों भगत सिंह फिर नेहरु और बाद में गांधी की गिराओगे, लेकिन ये तो बताओ इस देश को कहां ले जाओगे?’ तो जिग्नेश मेवाणी ने राजस्थान हाई कोर्ट में लगी मनु की मूर्ति तोड़ने की बात कर डाली है. इस विवाद पर मेवाणी ने ट्विट कर कहा है कि- Modi ji tell your boys to destroy the statue of manu, not lenin or Periyar. Mind well, exploited dalits will always cherish the legacy of aambedkar, lenin, periyar, Phule and some day they will definitely destroy the manu-murti at Rajasthan high court.

 

आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियों को कमान क्यों नहीं देती भाजपा

त्रिपुरा में जीत के बाद भारतीय जनता पार्टी खासी उत्साहित है. उसे जहां वाम का गढ़ ढहा देने की खुशी है तो वहीं पूर्वोतर राज्यों में जीत से भाजपा फूले नहीं समा रही है. त्रिपुरा में अगर किसी एक समाज के संख्याबल के प्रभुत्व की बात करें तो वह आदिवासी समाज है. प्रदेश में उनके लिए बीस सीटें सुरक्षित हैं, जबकि उनकी आबादी 31.8 फ़ीसदी है. लेकिन 20 सीटों और तकरीबन 32 फीसदी आबादी के बावजूद त्रिपुरा की सत्ता पर एक गैर आदिवासी नेता का कब्जा हो गया है.

सवाल सिर्फ त्रिपुरा का नहीं है, बल्कि त्रिपुरा जैसे ही अन्य आदिवासी बहुल राज्यों का हाल भी यही है. त्रिपुरा के अलावा झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ को आदिवासी बहुल राज्य के रूप में जाना जाता है. हालांकि ये राज्य पूर्वोतर के उन छह राज्यों अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मिजोरम, मेघालय, दादर एवं नागर हवेली और लक्षद्वीप से अलग हैं, जहां आदिवासियों की आबादी पचास फ़ीसदी से भी ज्यादा है. सवाल उठता है कि आखिर आदिवासियों की इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद सत्ता की कमान इनके हाथों में क्यों नहीं सौंपी जाती है?

थोड़ा पीछे चलते हैं. 26.2 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले झारखंड को जब बिहार से अलग राज्य के रूप में गठित किया जा रहा था तो दावा यह किया जा रहा था कि आदिवासी आबादी के लिए यह ज़रुरी हैं और झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद यहां के आदिवासियों का विकास बहुत तेजी से होगा. लेकिन आदिवासी हित के दावे अब तक झूठे ही साबित हुए हैं. पिछले चुनाव में पहली बार अकेले दम पर बहुमत से सत्ता में आने के बाद भाजपा ने यहां रघुवर दास के रूप में गैर आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला लिया.

इसी तरह मध्यप्रदेश से अलग कर के जब 30.6 प्रतिशत आदिवासी आबादी के साथ छत्तीसगढ़ राज्य बनाया गया तो इसको आदिवासियों के पिछड़ेपन को दूर करने लिए जरूरी कदम के रूप में प्रचारित किया गया था. छत्तीसगढ़ में भी भाजपा की सरकार है, लेकिन किसी आदिवासी को सत्ता की कमान देने की बजाय पिछले पंद्रह सालों से सत्ता के शीर्ष पर सवर्ण समाज के रमन सिंह बैठे हैं. ये तब है जब झारखंड में आदिवासियों के लिए सुरक्षित सीटों की संख्या 28 और छत्तीसगढ़ में 29 है और इनकी आबादी राज्य के किसी एक हिस्से में न होकर पूरे राज्य में फैली है.ओडिशा में भी सुरक्षित क्षेत्रों की संख्या 33 हैं और 22.8 प्रतिशत आबादी के साथ आदिवासी समुदाय पूरे चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. लेकिन ओडीशा में भी गैर आदिवासी मुख्यमंत्री ही रहे हैं.

आंकड़े बता रहे हैं कि राजनैतिक दल आदिवासियों को बहला कर उनका वोट और विश्वास तो हासिल कर लेते हैं लेकिन उन्हें सत्ता में भागेदारी देने से बचते हैं. दलितों और आदिवासियों को ज्यादा सबल नहीं बनाने के भी यही कारण हैं, न वो सबल होंगे और न ही सत्ता में हक मांगेगे. और उनके वोट के बूते समाज का सवर्ण तबका लगातार सत्ता का सुख भोगता रहेगा.

राज्यसभा उम्मीदवारी पर मायावती का एक तीर से दो निशान

लखनऊ।गोरखपुर और फुलपूर उपचुनाव में सपा-बसपा के साथ आने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई तरह के कयास लगने शुरू हो गए थे. कहा यह भी गया कि इस गठबंधन के जरिए मायावती अपने भाई और पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष आनंद कुमार को राज्यसभा भेजना चाहती हैं. इन तमाम तरह की चर्चाओं को करारा झटका लगा है. बसपा प्रमुख मायावती ने बसपा के राज्यसभा उम्मीदवार के तौर पर एक जमीनी कार्यकर्ता के नाम की घोषणा कर के सबको चौंकाते हुए सभी अटकलों पर रोक लगा दिया है.

राज्यसभा सीट के लिए मायावती ने कांशीराम के सहयोगी रहे पार्टी के पूर्व विधायक भीमराव अंबेडकर को राज्यसभा भेजने का ऐलान किया. भीमराव उत्तर प्रदेश के इटावा के रहने वाले हैं. मायावती ने मंगलवार को राज्यसभा चुनाव की तैयारी के लिए विधायकों और पार्टी के प्रमुख नेताओं के साथ बैठक के बाद सबको चौंकाते हुए भीमराव अंबेडकर के नाम की घोषणा कर दी. जहां तक बसपा के घोषित राज्यसभा प्रत्याशी भीमराव अंबेडकर की बात है तो वह पार्टी प्रमुख मायावती के करीबी नेताओं में से एक हैं. मौजूदा समय में वो कानपुर मंडल के जोनल को-ऑर्डिनेटर हैं. वह बसपा के संस्थापक कांशीराम के समय से ही पार्टी में सक्रिय भूमिका में है. उनका नाम पार्टी के मिशनरी कार्यकर्ताओं में उनका नाम आता है.

भीमराव पेशे से वकील हैं. 2007 में वो इटावा के लखना विधानसभा सीट से चुनाव जीत कर पहली बार विधायक बने थे. उत्तर प्रदेश की 10 राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव होने हैं. उनके नाम की घोषणा कर के मायावती जहां पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं को साकारात्मक संदेश देने में सफल रही हैं तो वहीं भाजपा द्वारा दलितों को अपने पाले में करने की कोशिशों को भी झटका दे दिया है.

मुस्लिम और बौद्ध अनुयायियों के बीच हिंसा के बाद श्रीलंका में 10 दिनों का आपातकाल

श्रीलंका में बौद्ध धर्म और इस्लाम के अनुयायियों के बीच हिंसक तनाव को देखते हुए सरकार ने 10 दिनों के आपातकाल की घोषणा की है. कैबिनेट की विशेष बैठक में यह फैसला लिया गया है. श्रीलंका सरकार के प्रवक्ता के मुताबिक हिन्द महासागर क्षेत्र के कैंडी जिले में उपजे साम्प्रदायिक तनाव के चलते इमरजेंसी लगाने का फैसला किया गया है. इस इलाके के बौद्ध कट्टरपंथियों और मुसलमनों में पिछले लगभग एक साल से तनाव चल रहा है.

बौद्ध कट्ट्ररपंथियों का कहना है कि मुसलमान जबरन हमारे लोगों का धर्म परिवर्तन करा रहे हैं और साथ ही हमारी ऐतिहासिक धरोहरों को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं. बहुत से बौद्धों को श्रीलंका में रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने को लेकर भी ऐतराज है. सोशल मीडिया के जरिए अफवाह फैलाने वालों पर भी कार्रवाई करने की बात कही गई है.

स्थानीय मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सरकार ने हिंसाग्रस्त कैंडी जिले में भारी मात्रा में सुरक्षाबल तैनात कर दिया है. इस इलाके में सोमवार को कुछ मसलमानों की दुकानों में तोड़फोड़ के बाद उन्हें आग के हवाले कर दिया था. इस इलाके में बौद्ध बहुसंख्यक जबकि मुसलमान अल्पसंख्यक हैं. कैंडी जिले में सरकार ने कर्फ्यू भी लगा दिया है.

हिन्दुत्व का तालिबानी संस्करण

सुबह-सुबह whatsaap पर वीडियो मिला. मेरे अजीज साथी ने भेजा था. वीडियो में हिंदुत्व का तालिबानी संस्करण था. त्रिपुरा में सत्ता पर कब्जे के बाद पहली कार्यवाही शहीद भगत सिंह और उसके साथियों के आदर्श रहे, मेहनतकशों के महान नेता व शिक्षक कामरेड लेनिन के स्टेचू को दक्षिण त्रिपुरा में जीत के नशे में चूर हिंदुत्ववादी तालिबानियों ने तोड़ कर की है.

इन धार्मिक आंतकवादियो के असली दुश्मन तो भगत सिंह और उसकी विचारधारा वाम ही है. क्योंकि वाम विचारधारा मेहनतकश का समर्थन करती है, लुटेरो के खिलाफ आवाज उठाती है. वही ये हिन्दू तालिबानी मेहनतकश को लूटने वाले मालिको के पक्ष में होते है. आजादी के आंदोलन में भी ये अंग्रेजो की मुखबिरी करते थे और क्रांतिकारियों के खिलाफ गवाही देते थे. एक चर्चित घटना है कि “शहीदे-ऐ-आजम भगत सिंह और उसके साथियों को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रवादी नेता लाला लाजपतराय ने कहा कि वो आगे से उनके घर न आये और न उनसे बहस करें. भगत सिंह और उनके साथियों के जाने के बाद जब लाला जी से वहाँ मौजूद लोगों ने इसका कारण पूछा तो, लाला जी ने बताया कि भगत सिंह मुझे लेनिन बनाना चाहता है.” यानि लाला जी का रुझान हिंदुत्व की राजनीति की तरफ बढ़ रहा था, लेकिन भगत सिंह और उसके साथी उसको मेहनतकश आवाम की लड़ाई का हिस्सा बनाना चाहते थे.

24 जनवरी, 1930 को लेनिन-दिवस के अवसर पर लाहौर षड्यन्त्र केस के विचाराधीन क़ैदी अपनी गरदनों में लाल रूमाल बाँधकर अदालत में आये. वे काकोरी-गीत गा रहे थे. मजिस्ट्रेट के आने पर उन्होंने ‘समाजवादी क्रान्ति – ज़िन्दाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद – मुर्दाबाद’ के नारे लगाये. फिर भगतसिंह ने निम्नलिखित तार तीसरी इण्टरनेशनल, मास्को के अध्यक्ष के नाम प्रेषित करने के लिए मजिस्ट्रेट को दिया – “लेनिन-दिवस के अवसर पर हम सोवियत रूस में हो रहे महान अनुभव और साथी लेनिन की सफलता को आगे बढ़ाने के लिए अपनी दिली मुबारक़बाद भेजते हैं. हम अपने को विश्व-क्रान्तिकारी आन्दोलन से जोड़ना चाहते हैं. मज़दूर-राज की जीत हो. सरमायादारी का नाश हो.

साम्राज्यवाद – मुर्दाबाद!!” विचाराधीन क़ैदी, 24 जनवरी, 1930 लाहौर षड्यन्त्र केस (ट्रिब्यून, लाहौर 26 जनवरी, 1930 में प्रकाशित)”

23 मार्च 1931 लाहौर जेल की काल कोठरी में जेलर आवाज लगाता है. भगत फांसी का समय हो गया है. चलना पड़ेगा. अंदर से 23 साल का नौजवान जो भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और मेहनतकश आवाम की मुक्ति व साम्रज्यवाद विरोध का चमकता सितारा है. अंदर से आवाज देता है रुको-“एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है.”

किस क्रांतिकारी से मिल रहा था भगत सिंह, ये क्रांतिकारी थे कामरेड लेनिन. भगत सिंह उस समय कामरेड लेनिन की बुक पढ़ रहे थे. भारत ही नही पूरे विश्व के स्वतंत्रता आंदोलनों और मेहनतकश आवाम की मुक्ति के लिए कामरेड लेनिन ने क्रांतिकारियों की मदद की, साम्रज्यवाद के खिलाफ कामरेड लेनिन ने नेतृत्व किया. साम्रज्यवाद के खिलाफ लड़ रहे क्रांतिकारियों को विश्व की पहली मेहनतकश आवाम की सत्ता रूस ने शरण दीव उन सभी को वैचारिक तौर पर शिक्षित किया. शहीद चंद्रशेखर आजाद भी रूस जाने की योजना बना रहे थे लेकिन वो जाने से पहले ही लड़ते हुए शहीद हो गए.

आखिर ऐसे महान इंसान के स्टेचू को तोड़ने के क्या कारण है? पूरे विश्व में 2 विचार हैं. एक विचार का प्रतिनिधित्व मेहनतकश आवाम करती है जिसमें मेहनत करके खाने वाला इंसान, पीड़ित दलित-आदिवासी-मुस्लिम-महिला, मजदूर-किसानव शोषित और दबा-कुचला इंसा है तो वहीं दूसरे विचार का प्रतिनिधित्व मेहनतकश को लूटने वाला, मानव का शोषण करके अपना पेट भरने वाला, जल-जंगल-जमीन को लूटने वाला, प्राकृतिक संसाधनों का अपने फायदे के लिए दोहन करने वाला, साम्राज्यवादी, फासीवादी, धार्मिक, जातीय, साम्प्रदायिक इंसानइस विचार की अगुवाई करता है.

ये एक युद्ध है मेहनतकश और लुटेरे के बीच इस युद्ध में कामरेड लेनिन पहले वाले विचार की अगुवाही के नेता व शिक्षक हैं. तो स्टेचू गिराने वाले, मालिकों के विचार की तरफ से लड़ रहे हैं. इससे पहले भी धार्मिक आंतकवादियों का निशाना प्रगतिशील, बुद्विजीवी, क्रांतिकारी, उनके स्टेचू, उनकी लिखी बुक्स रही है. अफगानिस्तान में बुद्ध के स्टेचुओं को तोड़ना, हिटलर द्वारा किताबों को जलाना, महात्मा गांधी से लेकर का. पनसारे, दभोलकर, कलबुर्गी, गौरी लंकेश, रोहित वेमुला, अखलाक, की हत्या, दलितों, आदिवासियों, मुस्लिमों, महिलाओं पर हमले, नजीब का अपरहण, JNU पर हमला धार्मिक आंतकवादियों द्वारा की गई कार्यवाहियां इसी युद्ध का हिस्सा है.

डॉ. आम्बेडकर की मूर्तियों को भारत के तालिबानियों द्वारा तोड़ना और अब कामरेड लेनिन के स्टेचू को तोड़ना भी इसी युद्ध का हिस्सा है. क्या कभी आपने इन आंतकवादियों द्वारा नेहरू, इंदिरा, सरदार पटेल, राजीव गांधी किसी दूसरी विरोधी पार्टी के नेता का बूत तोड़ते देखा है. नहीं देखा होगा, क्योंकि वो इनके पक्ष की राजनीति की ही नुमाइंदगी करते रहे हैं. इनको जड़ से उखाड़ने की, इनकी लूट बन्द करवाने की राजनीति भारत में भगत सिंह के विचार की राजनीति है. इसलिए ही त्रिपुरा में जीत होते ही इन तालिबानियों के हमले का निशाना भगत सिंह के आदर्श कामरेड लेनिन हुए. आज अगर इन लुटेरों को हराना है तो देश की कम्युनिस्ट पार्टियों को संसोधनवादी व संसदीय लाईन को छोड़ कर, मेहनतकश आवाम, दलित-आदिवासी- मुस्लिम-मजदूर-किसान और महिला की लड़ाई मजबूती से लड़ते हुए इन सबको मेहनतकश की इस लड़ाई के झंडे के नीचे एकजुट कर इन धार्मिक आंतकवादियों को क्रांतिकारी जवाब देना होगा.

  • लेखक- उदय चे ये लेखक के अपने निजी विचार हैं.

राज्यसभा में जाने को लेकर आनंद कुमार का बड़ा बयान

नई दिल्ली। लोकसभा उपचुनाव में सपा को समर्थन दिए जाने के बाद यह चर्चा आम है कि बसपा प्रमुख मायावती इस समर्थन के बदले राज्यसभा में सपा का समर्थन लेंगी. अटकलें तेज है कि इसके जरिए मायावती अपने भाई और बसपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष आनंद कुमार को राज्यसभा भेजना चाहती हैं. चर्चा तेज होने के बाद अब आनंद कुमार ने खुद सामने आकर इन खबरों को खारिज किया है और इसे अफवाह बताया है.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बीएसपी उपाध्यक्ष आनंद कुमार ने कहा कि- कुछ लोग उनके राज्यसभा उम्मीदवारी को लेकर अफवाहें फैला रहे हैं. ऐसा करके वह बीएसपी और मायावती की छवि को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं जो हमेशा परिवारवाद के खिलाफ खड़ी रहीं.

आनंद कुमार के मुताबिक, ‘सभी कयास झूठे हैं. कुछ लोग अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए यह सब बातें उछालते हैं. बहनजी ने यह स्पष्ट किया है कि यह समझौता केवल लोकसभा उपचुनाव के लिए हुआ है. बीजेपी राजनीतिक लाभ के लिए ऐसा प्रचार कर रही है लेकिन मैं बीजेपी या उनके लोगों से डरता नहीं हूं.”

पिछले साल 14 अप्रैल को आंबेडकर जयंती के दौरान एक रैली में बसपा अध्यक्ष मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बीएसपी का उपाध्यक्ष बनाया था. इसकी घोषणा करते हुए उन्होंने कहा था कि उनके भाई उनकी अनुपस्थिति में पार्टी का कार्यभार संभालेंगे. उन्होंने भाई आनंद कुमार द्वारा सासंद, विधायक या मंत्रीपद स्वीकार नहीं किए जाने की भी बात कही थी. आनंद कुमार ने भी इसी बात को दोहराया है.

राजस्थान में 24 घंटे में दो दलित युवकों की हत्या, यूपी में जिंदा जलाने की कोशिश

जयपुर। राजस्थान के अलवर और भरतपुर ज़िले में चौबीस घंटों के दौरान दो अलग-अलग घटनाओं में दो दलित युवकों की हत्या का मामला सामने आया है. अलवर जिले के भिवाडी थाना क्षेत्र में बीते शुक्रवार को एक नाबालिग दलित की अन्य समुदाय के कुछ युवकों ने पीट-पीट कर हत्या कर दी. इसमें नीरज जाटव की होली खेलने के दौरान हत्या कर दी गई.

उधर, भरतपुर ज़िले के कुम्हेर थानाधिकारी सीताराम मीणा के अनुसार, पुरानी रंज़िश को लेकर हुए विवाद में अज्ञात लोगों ने जयवंत जाटव (26) की लाठियों और धारदार हथियारों से वार कर हत्या कर दी. अपराधी मौके से भाग गए जिनकी तलाश की जा रही है.

इसी तरह उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के बिसंड़ा थाना क्षेत्र में होली के मौके पर हुड़दंगाइयों ने एक दलित की दुकान में आग लगाकर पूरे परिवार को जिंदा जलाने की कोशिश की. पीड़ित परिवार के मुखिया महेश कोरी ने बताया कि उनकी सड़क के किनारे किराना और कपड़े की दुकान है. होली के दिन शाम लगभग सात बजे पारा गांव के दबंग कल्लू, रजोना और रुजुंती ने होली के हुड़दंग में उसकी दुकान में आग लगा दी. आग लगते ही मैं और मेरा पूरा परिवार बाहर की ओर भागा लेकिन दबंगों ने मुझे और मेरे बच्चों को जलती आग में फेंकने की कोशिश की.” पीड़ित ने बताया कि “मैं किसी तरह उनकी पकड़ से छूटकर निकला और पुलिस को फोन कर इसकी सूचना दी लेकिन पुलिसकर्मी मौके पर नहीं पहुंचे और न ही दमकल विभाग के कर्मचारी आग बुझाने आए.”

एक्टर इरफान खान को हुई गंभीर बीमारी, बोले- मेरे लिए दुआ करिए

फिल्म अभिनेता इरफान खान

नई दिल्ली। जाने-माने फिल्म अभिनेता इरफान खान के एक ट्विटर पोस्ट के बाद फिल्म जगत और उनके प्रशंसकों में हलचल मच गई है. इरफान ने एक ट्विट करते हुए खुद को एक गंभीर बीमारी से पीड़ित बताया है. हालांकि उन्हें कौन सी बीमारी है, उन्होंने इसकी चर्चा नहीं की है. हालांकि उन्होंने इस बारे में 10 दिन में सब बताने की बात कही है. इरफान ने कहा है कि तब तक मेरे लिए दुआ करें.

इरफान हिंदी ही नहीं, ब्रिटिश और हॉलीवुड की कई फिल्मों में काम कर चुके हैं. इरफान ने लिखा है कि “किसी दिन आप सुबह उठते हैं, तो आपको लगता है कि जिंदगी हिल गई है. बीते 15 दिनों से मेरी जिंदगी में एक रहस्यमयी कहानी चल रही है. मुझे जितना पता चल सका है, उसके मुताबिक मैं एक गंभीर बीमारी से जूझ रहा हूं. मैंने जिंदगी में कभी समझौता नहीं किया. मैं हमेशा अपनी पसंद के लिए लड़ता रहा और आगे भी ऐसा ही करूंगा.”

इरफान ने आगे लिखा है कि “मेरा परिवार और दोस्त मेरे साथ हैं. हम बेहतर रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे हैं. जैसे ही सारे टेस्ट हो जाएंगे, मैं आने वाले दस दिनों में अपने बारे में बात दूंगा. तब तक मेरे लिए दुआ करें.” इरफान के इस पोस्ट के बाद उनके फैंस चिंतित हैं और उनकी सलामती के लिए दुआ करने लगे हैं. हालांकि एक दूसरा पहलू यह भी हो सकता है कि फिल्म अभिनेता कई बार अपने फिल्म के प्रोमोशन के लिए इस तरह से पोस्ट डालते रहते हैं.

मेघालय में एनडीए की सरकार, पी.ए संगमा के बेटे बने मुख्यमंत्री

शिलॉन्ग। पूर्वोत्तर राज्यों में जीत का परचम फहराने वाली भाजपा के नेतृत्व में एनडीए ने मेघालय में आज सरकार बना लिया. एनडीए के सहयोगी दल एनपीपी के अध्यक्ष कॉनराड संगमा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. संगमा ने मंगलवार को शिलॉन्ग में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और गृह मंत्री राजनाथ सिंह की मौजूदगी में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. मेघालय में पहली बार एनडीए की सरकार बनी है.

संगमा के साथ 11 अन्य नेताओं ने भी मंत्री पद की शपथ ली. राजनाथ सिंह ने शपथ-ग्रहण समारोह के मौके पर कहा, ‘मैं संगमा को बधाई देना चाहता हूं. लोग सोचते थे कि उत्तर-पूर्व में केवल कांग्रेस ही सरकार बना सकती है, लेकिन बीजेपी ने यहां जीत हासिल करके यह साबित कर दिया कि ऐसा नहीं है.’ इससे पहले सोमवार को मेघालय के राज्यपाल गंगा प्रसाद ने कॉनराड संगमा को राज्य में सरकार बनाने के लिए उन्हें आमंत्रित किया था. संगमा के पास 34 विधायकों का समर्थन है. संगमा ने रविवार की शाम गंगा प्रसाद से मुलाकात की थी और 60 सदस्यीय विधानसभा में 34 विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश किया था.

त्रिपुरा में भाजपा की जीत के बाद जगह-जगह हिंसा

अगरतला। त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली जीत के बाद भाजपा नेता और उनके कार्यकर्ताओं का दिमाग खराब हो गया है. जीत के 48 घंटे के भीतर भाजपा समर्थकों ने वामपंथ के अगुवा माने जाने वाले रूसी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी व्लादिमीर लेनिन की मूर्ति गिरा दी. इस दौरान भारत माता की जय के नारे लगाए गए. इस दौरान वाम दलों से जुड़े तमाम इमारतों को भी क्षति पहुंचाने की खबर है.

रिपोर्ट के मुताबिक, यह घटना करीब ढाई बजे की है. जब भारत माता की जय का नारा लगाते हुए सैकड़ों की संख्या में भाजपा कार्यकर्ता जुटे और एक बुलडोजर मंगाकर ब्लादिमीर लेनिन की मूर्ति ढहा दी. यह मूर्ति माकपा शासन के 21 साल पूरे होने पर 2013 में दक्षिण त्रिपुरा ज़िले के मुख्यालय बेलोनिया में लगाई गई थी. त्रिपुरा के एसपी कमल चक्रवर्ती (पुलिस कंट्रोल) ने जानकारी दी कि बीजेपी समर्थकों ने बुलडोज़र ड्राइवर को शराब पिलाकर इस घटना को अंजाम दिया. बाद में पुलिस ने चालक आशीष पाल को गिरफ्तार कर जेसीबी सीज कर दिया.

वहीं, माकपा नेता तापस दत्ता ने कहा, प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि बीजेपी कार्यकर्ताओं ने मूर्ति गिराने के बाद उसे तोड़ना शुरू किया. वे लेनिन की प्रतिमा के सिर से फुटबॉल की तरह खेल रहे थे. फिलहाल भाजपा ने इस मामले से पल्ला झाड़ते हुए कहा है कि वामपंथी शासन में दमन के शिकार लोगों ने मूर्ति को ढहाया.

गौरतलब है कि त्रिपुरा में भाजपा की जीत के बाद से राज्य के कई इलाकों से हिंसा और तोड़फोड़ की खबरें भी आ रही हैं. माकपा ने वामपंथी कैडरों और दफ्तरों पर हुए हमलों की लिस्ट जारी की है और कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा उनके कार्यकर्ताओं को डरा रहे हैं. साथ ही यह भी कहा है कि ये हिंसक घटनाएं घटनाएं प्रधानमंत्री द्वारा बीजेपी को लोकतांत्रिक बताने के दावों का मजाक है.

कहीं सपा-बसपा गठबंधन का सच ये तो नहीं?

मायावती के साथ उनके भाई आनंद कुमार

उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में बहुजन समाज पार्टी द्वारा समाजवादी पार्टी को समर्थन देने से देश की राजनीतिक हलचल तेज हो गई है. कई लोग इसे यूपी में बसपा-सपा के साथ आने के तौर पर देख रहे हैं तो वहीं प्रदेश में इसे भाजपा को रोकने की कवायद में दलित-पिछड़ा एकता के रूप में देखा जा रहा है. हालांकि इस गठबंधन पर न तो अखिलेश यादव खुलकर कुछ कह रहे हैं और न ही मायावती.

दोनों की यही चुप्पी एक तीसरी बात की ओर इशारा कर रही है. असल में उत्तर प्रदेश में बिछी इस सियासी बिसात का एक पहलू गोरखपुर और फुलपूर सीटों पर भाजपा को रोकना है तो वहीं दूसरा पहलू राज्यसभा और विधान परिषद में दोनों दलों का एक दूसरे की जरूरत होना है. आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश के कोटे से राज्यसभा की दस सीटें खाली होनी है. इसमें से 8 सीटों पर भाजपा की जबकि एक सीट पर समाजवादी पार्टी की जीत तय है. सारी गोलबंदी बची हुई एक सीट के लिए हो रही है. चर्चा है कि मायावती अपने भाई और बसपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष आनंद कुमार के लिए राज्यसभा की यह सीट चाहती हैं.

जहां तक आंकड़ों की बात है तो राज्यहसभा की एक सीट जीतने के लिए 37 वोट चाहिए. समाजवादी पार्टी के अभी 47 विधायक हैं. और राज्यसभा की एक सीट हासिल करने के बाद समाजवादी पार्टी के पास 10.64 वोट बच जाएंगे. बीएसपी के पास 19 वोट हैं. दोनों को जोड़ लिया जाए तो यह 29 के करीब हो जाता है. ऐसे में एक सीट के लिए बसपा को 8 और वोटों की जरूरत होगी, जिसमें 7 विधायक का समर्थन उसे कांग्रेस से मिल सकता है. जबकि एक अन्य समर्थन के लिए उसे निर्दलीय कोटे के तीन और राष्ट्रीय लोकदल के हिस्से की एक सीट पर निर्भर रहना होगा. संभव है कि मायावती इस सियासी गणित को साध लें और अपने भाई आनंद कुमार को राज्यसभा भेजने में सफल हो जाएं. लेकिन अगर यह सच है और गठबंधन की वजह सिर्फ सियासी लाभ है तो यह यूपी के दलित और पिछड़े वर्ग के साथ एक बड़ा धोखा होगा.

एक के बाद एक क्यों ढह रहे हैं कम्युनिस्ट दुर्ग

साम्यवाद का काबा माना जाने वाला सोवियत संघ जब भरभराकर ढ़ह गया, तब यह कहा गया कि विश्व की पूंजीवादी शक्तियों ने पूरी ताकत के साथ समाजवाद का अंत कर दिया. लेकिन उन विपरीत हवाओं में भी भारत में कई राज्य ऐसे थे जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी का शासन कायम हुआ और बरकरार रहा. धीरे-धीरे यहाँ भी कम्युनिस्ट संगठन और उनकी सरकारें दरकने लगीं. पहले संसद में उपस्थिति कम हुई, फिर राज्यों के विधान मंडल में कमजोर हुए और बाद में पश्चिम बंगाल हाथ से गया.

अब 2018 विधानसभा चुनावों के परिणाम आ जाने के बाद 25 साल पुराना त्रिपुरा की सरकार भी कम्युनिस्टों के हाथ से चली गयी. अब इसे सत्ता विरोधी लहर कहें या विरोधी ताकतों की अभेद रणनीति, सच्चाई यही है कि तकनिकी रूप से त्रिपुरा रंग लाल से भगवा हो चुका है. 25 साल की कम्युनिस्ट हुकूमत में 20 साल तक त्रिपुरा के मुख्यामंत्री रहने के बावजूद माणिक सरकार आखिर लाल झंडे की बुलंदियों को बचा क्यूँ नहीं पाए, इस पर विचार होना चाहिए.

त्रिपुरा चुनाव परिणाम के बहाने आईये जानते हैं कि वे 10 बड़े कारण क्या हैं, जिनकी वजह से त्रिपुरा के साथ-साथ पूरे भारत से एक-एक कर कम्युनिस्ट पार्टियों के दुर्ग भरभराकर ढह रहे हैं :

1. घिसी-पिटी कार्यशैली एक जमाने में कम्युनिस्ट होने का अर्थ आधुनिक होना माना जाता था. नवीनतम तकनीक के इस्तेमाल, चुस्त-दुरुस्त कार्यशैली और आधुनिक सोच-समझ की वजह से कम्युनिस्ट लोग सबसे अलग दिखते थे. किताबें पढ़ने की आदत और किताबों के प्रकाशन व प्रसार में कम्युनिस्टों का कोई मुकाबला नहीं था. जब लोग मुश्किल से टाइपराइटर का इस्तेमाल कर पाते थे, तब कम्युनिस्ट पार्टी ले दफ्तरों में आधुनिकतम टाइपिंग और साइक्लोस्टाइल मशीनें, छापेखाने और प्रकाशन हुआ करते थे. समय के साथ कम्युनिस्टों ने अपने तंत्र को अपडेट नहीं किया. नतीजा यह हुआ कि बेहतरीन माना जाने वाला कम्युनिस्टों का संगठन निर्माण कौशल धीरे-धीरे परम्परापरस्त और अप्रसांगिक हो चला है, जबकि उसके मुकाबले खड़े खेमों में आधुनिक तकनीक पर आधारित सांगठनिक ढांचे पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है. सूचना क्रांति के इस दौर में सोशल मीडिया पर कम्युनिस्ट नेताओं की मौजूदगी और फैन फॉलोविंग बहुत कम है. दूसरी पार्टियों के नेतागण जहाँ जनता से संवाद कायम करने के लिए सूचना माध्यमों का आक्रामकता से इस्तेमाल कर रहे हैं, उनके मुकाबले कम्युनिस्ट लीडर इस रेस में बहुत पीछे हैं.

2. युवाओं का मोहभंग भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों में नेतृत्व का संकट पैदा हो चुका है. एक जमाने में युवाओं को आकर्षित करने वाली विचारधारा की पार्टी मानी जाने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में आज युवा देखने को नहीं मिलते हैं. अगर कुछ युवा पार्टी के साथ जुड़े भी हैं तो वे नेतृत्व में नहीं हैं. पार्टी के पोलित ब्यूरो या नेशनल काउंसिल में लगभग सभी सफेद बाल वाले कॉमरेड ही बचे हैं.

3. नेतृत्व में वंचित समाज का प्रतिनिधित्व नगण्य जिनके हक में राजनीती करने का दावा कम्युनिस्ट पार्टियाँ करतीं हैं, वे पार्टी संगठन में कभी नेतृत्व की भूमिका में नहीं आ पाते हैं. वंचित समाज के लोग, दलित, मजदूर, किसान, खेतिहर मजदूर, अल्पसंख्यक और पसमांदा समाज की राजनीती का दावा तो कम्युनिस्ट करते हैं लेकिन उस समाज से आने वाले लोगों की भागीदारी पार्टी नेतृत्व में नहीं हो पाती है. ये विरोधाभासी सत्य है कि जातिवाद का विरोध करने वाले कम्युनिस्टों के संगठन में नेतृत्व अधिकतर ऊँची जातियों से आए कामरेड्स के हाथ में है.

4. कमजोर होते जनसंगठन कम्युनिस्ट पार्टियों में कैडर जनसंगठनों (मास-आर्गेनाईजेशंस) से आया करते थे. ये जनसंगठन विद्यार्थियों, युवाओं, महिलाओं, लेखकों, रंगकर्मियों, किसानों और अन्य समूहों के लिए बनाए जाते थे. पार्टी का अपना सांस्कृतिक समूह होता था जो अब भी कहीं-कहीं है. ऐसे जनसंगठन शाखा स्तर से ही बनाए जाते थे, जिनके संघर्ष की अपनी रणनीति होती थी. अलग-अलग मुद्दों और मांगों को लेकर जनसंगठन संघर्ष किया करते थे. जनसंगठन में ही रहकर व्यक्ति वैचारिक रूप से मजबूत होता था. आंतरिक बैठकों से निकलकर सड़क पर उतर कर सभाओं, धरनों, प्रदर्शनों में भाग लेना और नेतृत्व की क्षमता का विकास करना, ये सब जनसंगठन में रहकर सम्भव हो पता था. किसी साधारण सदस्य को कम्युनिस्ट पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता बनने के लिए असली प्रशिक्षण जनसंगठन में ही मिल जाया करता था और साधारण से साधारण व्यक्ति पक्का कॉमरेड बन जाया करता था.

समय के साथ-साथ भारत की लगभग सभी कम्युनिस्ट पार्टियों के जनसंगठन कमजोर हो गए और पार्टी नेतृत्व ने इसे नजरअंदाज कर दिया. नतीजा यह हुआ कि गर्म खून वाले जोशीले युवा जो पहले जनसंगठन के रास्ते पार्टी में आया करते थे, वह मार्ग अवरुद्ध हो गया. धीरे-धीरे स्थिति यह हो गयी कि पार्टी संगठन में काम करने वाले नए लोगों की भारी कमी हो गयी.लेफ्ट जो काडर बेस पार्टी कहलाती थी, जनसंगठनों के कमजोर होने से उसी पार्टी में काडर का अकाल पड़ गया.

5. ट्रेड यूनियन और पार्टी के बीच तालमेल की कमी ट्रेड यूनियन को पार्टी की रीढ़ की हड्डी कहते हैं. किसी पार्टी से जुड़े ट्रेड यूनियन के संघर्ष की राह पार्टी की राजनैतिक धारा पर आधारित होती है. ट्रेड यूनियन के सदस्य पार्टी की सदस्यता भी ग्रहण करते हैं. लेकिन पार्टी और ट्रेड यूनियन में जो तालमेल होना चाहिए, समय के साथ उसमें भारी कमी देखने को मिली है. ट्रेड यूनियन का जुडाव पार्टी से नाम मात्र का रह गया है बल्कि वे लगभग स्वतंत्र इकाईयों की तरह कार्य करने लगे हैं. नतीजा यह हुआ है कि जिस इलाके में ट्रेड यूनियन के सदस्यों की संख्या हजारों में है वहां पार्टी के कार्यक्रम में मुट्ठी भर लोग ही पहुँच पाते हैं. इसके अलावा जिन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की नुमाईंदगी का दावा कम्युनिस्ट पार्टियाँ करतीं हैं, उन्हीं के बीच ट्रेड यूनियन कमजोर है या है ही नहीं. यह भी एक चिंताजनक स्थिति है कि जिन ट्रेड यूनियनों को पार्टी की रीढ़ की हड्डी बनकर संगठन को मजबूत बनाने में मददगार होना चाहिए था, वह पार्टी पर हावी हो जाते हैं. नतीजतन, ट्रेड यूनियन लीडर ही पार्टी का भी नेता हो जाता है और लम्बे समय तक उसका प्रभुत्व और प्रभाव पार्टी संगठन पर बना रहता है. ऐसी स्थिति में पार्टी के अंदर से सिर्फ पार्टी के विस्तार और मजबूती के लिए काम करने वाला लीडर नेतृत्व में नहीं आ पाता है. ट्रेड यूनियन और पार्टी के बीच घटते तालमेल से पार्टी संगठन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.

6. अनेक कम्युनिस्ट पार्टियाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की स्थापना 1925 में हुई. इसके बाद 1964 में वैचारिक मतभेद के कारण पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) का जन्म हुआ. इसके बाद नक्सलबाड़ी समर्थक नेताओं ने ‘ऑल इंडिया कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ़ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरी’ (एआईसीसीआर) का गठन किया और वे सीपीएम से अलग हो गए. फिर बाद में आंध्र प्रदेश में भी तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह समर्थक नेताओं का अलग धड़ा बना. फिर सीपीआई (एम एल) बना. इस तरह समय-समय पर बनीं अनेक कम्युनिस्ट पार्टियाँ आज अस्तित्व में हैं. यही भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की कमजोरी भी है. अनेक अवसर ऐसे आए जब एक कम्युनिस्ट पार्टी दूसरी कम्युनिस्ट पार्टी से अलग खड़ी दिखी.

पिछले महीने ही पडोसी देश नेपाल में एक बड़े राजनैतिक घटनाक्रम के तहत दो सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट दलों, सीपीएन-यूएमएल और सीपीएन (माओवादी सेंटर) ने विलय कर एक नई पार्टी बनाने का फैसला किया है. नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के नेताओं ने फैसला किया कि नेपाल में अब एक ही कम्युनिस्ट पार्टी होगी जिसका नाम नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी होगा. मौजूदा दौर में जब हवाएं कम्युनिस्ट आन्दोलन के विपरीत बह रहीं हैं, साम्प्रदायिकता का जहर समाज में घुलता जा रहा है, कॉर्पोरेट घरानों के हक़ में नीतियां बनाई जा रही हैं, रिटेल से लेकर कोयला खनन तक सब निजी हाथों के हवाले हो चुका है, नौकरियां धडल्ले से छीनीं जा रहीं हैं, महंगाई, बेरोजगारी और असमानता विकराल रूप घारण कर चूकी है, ऐसे समय में भारत में लेनिन, मार्क्स और माओ को मानने वाली मुख्यधारा और कट्टरपंथी कम्युनिस्ट पार्टियों में नेपाल से सबक लेते हुए वामपंथ की एकता और मजबूती के लिए जितनी बेचैनी दिखनी चाहिए थी, वो नहीं दिख रही है.

7. आत्मसमर्पण की मुद्रा ऐसा प्रतीत होता है जैसे भारत के कम्युनिस्ट आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ गए हों. टूटा हुआ मनोबल साफ़-साफ़ दिखाई देता है. विरोधी खेमा लगातार कम्युनिस्टों के बार में दुष्प्रचार कर रहा है कि ये भारत विरोधी हैं, हिन्दू विरोधी हैं, नास्तिक और धर्म विरोधी हैं, विदेशी विचारधारा वाले हैं और यहाँ तक कि विकास और राष्ट्रवाद के विरोधी भी हैं. भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास संघर्षों और आन्दोलन का इतिहास रहा है. अंग्रेजों से लोहा लेने के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्टों ने देशी पूंजीपतियों, भू-माफियाओं, जमींनदारों और सरकारों की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ लम्बी लडाई लड़ी है. कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों ने बड़ी संख्या में आज़ादी से पहले और बाद में शहादत हासिल किया है. कम्युनिस्टों ने इस देश को बेहतरीन सांसद और जनप्रतिनिधि दिए हैं. भ्रष्टाचार का दाग कम्युनिस्टों को छू भी नहीं पाया है. इसके अलावा बहुत कुछ है जो कम्युनिस्ट अपने खिलाफ हो रहे दुष्प्रचार के काउंटर में कह सकते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे भारत के कम्युनिस्टों ने हथियार डाल दिए हैं. हालत यहाँ तक खराब हो चुकी है कि महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर कम्युनिस्ट पार्टियों के बयान तक जारी नहीं हो पाते हैं.

8. जनमानस में स्वीकार्यता भारतीय समाज में धर्म विशेष दखल रखता है. यहां लोगों के जीवन में धर्म का महत्व रोटी के बराबर है. वहीं दूसरी ओर जाति भारतीय समाज की एक और ज्वलंत सच्चाई है. धर्म और जाति पर बात किए बगैर भारत की बात करना बादलों पर पैदल चलने जैसा है. कम्युनिस्टों ने यहां वर्ग संघर्ष के आगे वर्ण, जाति और धर्म की सच्चाईयों को नजरअंदाज किया है. लकीर की फकीरी की तरह भारत के कम्युनिस्टों ने मार्क्स के उस कथन का अक्षरशः अनुपालन करते हुए धर्म को ‘अफीम का नशा’ मान लिया. जबकि सोवियत संघ में कभी कम्युनिस्ट गवर्नमेंट और चर्च के बीच कोई टकराव देखने को नहीं मिला. जाति की मौजूदगी और उसके मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को सिरे से नकारते हुए वर्ग चेतना की घुट्टी जबरन पिलाने की कोशिशों के कारण भारतीय समाज में कम्युनिस्टों की वह स्वीकार्यता नहीं बन पायी जितनी अन्य विचारों के लिए बनी है. कम्युनिस्टों का आचरण कैसा हो, इसके लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पार्टी संविधान के अलावा एक आचार संहिता का निर्माण किया था लेकिन आज उस आचार संहिता के अनुपालन की अनिवार्यता पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. आमजनमानस में कम्युनिस्टों के बारे में नास्तिक, धर्म विरोधी और विदेशी विचारों के अनुयायी जैसी छवि जो शुरुआत में ही बन गयी थी, वह आज भी कायम है.

9. कार्यक्रमों की घोर कमी कम्युनिस्टों को सड़क से संसद तक संघर्ष करने वाले क्रांतिकारी की तरह देखा जाता था लेकिन आजकल आलम यह है कि कम्युनिस्ट पार्टियों के पास संघर्ष के कोई देशव्यापी कार्यक्रम ही नहीं हैं. पार्टी की आंतरिक संचार व्यवस्था जो नियमित सर्कुलर जारी करके ज़िंदा रखी जाती थी, वह भी अब दम तोड़ती सी दिखाई पड़ती है. पार्टी के सामाचार-पत्रों की पाठक संख्या भी दिनों-दिन घट रही है. कई कम्युनिस्ट पार्टियों के अखबार जो कभी दैनिक हुआ करते थे, बंद हो चुके हैं. कुछ मुद्दों पर आन्दोलन की कॉल लेफ्ट पार्टियों द्वारा समय-समय पर दी भी है तो वे आन्दोलन पहले की तुलना में खानापूर्ति भर रह गए हैं.

10. चुनौती को किया नजरअंदाज बीजीपी की त्रिपुरा में हासिल की गयी जीत कोई एक दिन की मेहनत का नतीजा नहीं है. 2014 में एनडीए की केन्द्र में सरकार आने के बाद बीजेपी ने पूर्वोत्ततर के राज्योंन पर खासा ध्यापन दिया है,जिसमें से त्रिपुरा भी एक है. बीजेपी का समर्थन करने वाली धार्मिक, आध्यात्मिक संस्थाएं, एनजीओ और संघ से जुडी अनेक संस्थाओं ने त्रिपुरा सहित पूरे उत्तर-पूर्व में सुनियोजित ढंग से काम करना शुरू कर दिया था. इस बात को वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने हल्के में लिया. 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को त्रिपुरा में सिर्फ दो फीसदी वोट मिले थे. इसके बाद बीजेपी ने जमीनी स्तिर पर काम किया और निकाय चुनाव में 221 सीटों पर जीत हासिल की थी. बीजेपी ने सबसे ज्यािदा ट्राइबल वोटरों पर ध्याीन दिया है. क्योंकि वहां 30 फीसदी सिर्फ ट्राइबल है और ट्राइबल की 20 सीटें लेफ्ट का गढ़ हैं. त्रिपुरा में लेफ्ट का पिछले चुनाव में 51 फीसदी वोट पर कब्जास था, जिसे बीजेपी ने इस बार कड़ी चुनौती दी है. यही कारण है कि 25 साल राज करने और बेहतर मत प्रतिशत हासिल करने के बावजूद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी त्रिपुरा में सत्ता से बाहर हो गयी है.

  • लेखक- सुशील स्वतंत्र (9811188949)

ऑस्कर 2018 में ‘द शेप ऑफ वॉटर’ बेस्ट फिल्म

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Oscars 90th Academy Awards

 90वें ऑस्कर अवॉर्ड समारोह में सभी अवॉर्ड की घोषणा की जा चुकी है. इसमें बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड ‘द शेप ऑफ वॉटर’ को मिला है. इस फिल्म के निर्देशक गूलेर्मो डेल टोरो ने बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड जीता है. ये अमेरिकी फैंटेसी ड्रामा है. इसमें 1962 के बाल्टीमोर शहर की कहानी बताई गई है. एक सरकारी लेबोरेटरी के गूंगे चौकीदार को पानी में रहने वाले जीव से प्रेम हो जाता है. इस फिल्म में सैली हॉकिन्स ने मुख्य भूमिका निभाई है. इसमें हॉकिंन्स को चौकीदार के रूप में दिखाया है, जो अपने घर में अकेली रहती हैं.

इसके अलावा बेस्ट लीड रोल एक्टर का अवार्ड डार्केस्ट ऑवर के लिए गैरी ओल्डमैन को दिया गया, जबकि बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड फ्रांसेस मैकडोरमंड को दिया गया. उन्हें ये अवॉर्ड थ्री बिलबोर्ड्स के लिए मिला. सबसे ज्यादा तीन अवॉर्ड क्रिस्टोफर नोलान की फिल्म डनकर्क ने जीता. इसे बेस्ट साउंड एडिटिंग, बेस्ट साउंड मिक्सिंग और बेस्ट फिल्म एडिटिंग का अवॉर्ड दिया गया. बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवॉर्ड थ्री बिलबोर्ड्स आउटसाइड एबिंग, मिसूरी के लिए सैम रॉकवेल ने जीता. बेस्ट सिनेमैटोग्राफी का अवॉर्ड ब्लेड रनर 2049 को दिया गया.

मुख्य अवार्ड – बेस्ट फिल्म: ‘द शेप ऑफ वॉटर’, निर्देशकः गूलेर्मो डेल टोरो – बेस्ट एक्ट्रेस: फ्रांसेस मैकडोरमंड (फिल्म थ्री बिलबोर्ड्स आउटसाइड एबिंग, मिसूरी के लिए) – बेस्ट लीड रोल एक्टर का अवार्डः डार्केस्ट ऑवर के लिए गैरी ओल्डमैन – बेस्ट डायरेक्टर: द शेप ऑफ वॉटर के लिए गूलेर्मो डेल टोरो

सुप्रीम कोर्ट करेगा SSC पेपर लीक मामले की सुनवाई

नई दिल्ली। स्टॉफ सिलेक्शन कमिशन (एसएससी) पेपर लीक मामला अब सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है. इस घोटाले की जांच के लिए दायर जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट 12 मार्च को सुनवाई करेगी. केंद्र सरकार के DOPT मंत्रालय ने इस मामले की सीबीआई जांच के आदेश दे दिए हैं.

वकील मनोहरलाल शर्मा ने अपनी याचिका में कोर्ट से कहा है कि सरकार को निर्देश दिए जाएं कि आगे से कभी पेपर लीक न हो इसके लिए फुलप्रूफ सिस्टम बनाया जाय. जिसमें किसी भी तरह से सेंध लगाना नामुमकिन हो. क्योंकि तमाम महत्वपूर्ण प्रतियोगी इम्तहानों के पेपर आये दिन लीक हो जाते हैं और प्रतिभावान छात्रों का समय और मेहनत बर्बाद हो जाता है. सरकार कुछ इंतजाम नहीं कर रही है लिहाजा अदालत ही सरकार को इस बाबत निर्देश दे.

इस पर कोर्ट ने कहा कि ये गम्भीर मामला है लिहाजा इस पर अगले सोमवार को सुनवाई होगी. फिलहाल इसी मुद्दे पर पीड़ित छात्रों का धरना जारी है. दूसरी ओर छात्रों के लगातार प्रदर्शन से इस मामले ने राजनीतिक रंग भी ले लिया है. धरना स्थल पर सभी बड़े राजनीतिक दलों के नेता पहुंचकर बयान दे चुके हैं. दरअसल एसएससी की ओर से सीजीएल 2017 के टियर 2 की परीक्षा का आयोजन करवाया गया था. वहीं छात्रों का आरोप है कि परीक्षा से पहले प्रश्न पत्र और आंसर की लीक हो गए थे, जिसके बाद छात्रों ने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया.

होली का जश्न मनाने पर दलित युवक की हत्या

मृतक नीरज जाटव (Photo Credit- NARAYAN BARETH/BBC)

अलवर। राजस्थान में अलवर ज़िले के भिवाड़ी में होली मनाने के दौरान एक दलित किशोर की हत्या कर दी गई. हत्या की वजह यह थी कि किशोर अपने दोस्तों के साथ मिलकर डीजे पर नाच रहा था और धूम-धाम के साथ होली मना रहा था. मृतक के पिता बाबूलाल जाटव का आरोप है कि दबंगों ने उनके किशोर बेटे नीरज जाटव की पीट-पीटकर जान ले ली.

बीबीसी के मुताबिक बाबूलाल जाटव का कहना है कि जातिवादी गुंडों ने युवक और उनके परिवार को जातिसूचक गालियां दी. दलित होकर जोशो-खरोश से होली मनाना उन लोगों को बर्दाश्त नहीं हुआ. भिवाड़ी के ही मोहर सिंह फ़ासल का कहना है कि “दलित नौजवान डीजे के साथ होली मना रहे थे. यह दबंगों को नागवार लगा और फिर हमला कर दिया गया.” पुलिस ने इस घटना में पांच लोगों को हिरासत में लिया है. लेकिन होली जैसे त्यौहार के दिन दलित युवक की हत्या उस वर्ग के तर्क को बल देती है, जो होली को दलितों का पर्व मानने से इंकार करते हैं.

पाकिस्तान की पहली दलित महिला सीनेटर से मिलिए

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कृष्णा कोहली
(फोटो क्रेडिट- गूगल इमेज)

करांची। भारत और पाकिस्तान में इन दिनों कृष्णा कोहली के नाम की चारो ओर चर्चा है. असल में कृष्णा कोहली पाकिस्तान में सीनेटर बनने वाली पहली दलित महिला हैं. शनिवार 3 मार्च को पाकिस्तान में हुए सीनेट के चुनाव में उन्होंने जीत हासिल कर ली है. उन्हें पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने सिंध क्षेत्र से टिकट दिया था. कृष्णा की चर्चा इसलिए भी हो रही है क्योंकि वह काफी गरीब परिवार से आती हैं. उन्होंने बचपन में मजदूरी भी की है.

39 वर्षीय कृष्णा की जिंदगी संघर्षों के बीच बीती है. उनका परिवार नगरपारकर इलाके के एक गांव में रहता था. कृष्णा के पिता जुगनू कोहली मजदूरी करते थे और एक बार तो उनके पूरे परिवार को तीन साल तक जमींदार की कैद में रहना पड़ा. 16 साल की उम्र में ही कृष्णा की शादी कर दी गई थी, जब वो 9वीं कक्षा में पढ़ती थी. हालांकि उनके पति ने उन्हें आगे पढ़ने और बढ़ने में मदद की.

2013 में कृष्णा ने सिंध यूनिवर्सिटी से सोशियोलॉजी में मास्टर डिग्री हासिल की. इससे पहले ही कृष्णा ने साल 2005 में सामाजिक कार्य शुरू किया और साल 2007 में इस्लामाबाद में आयोजित तीसरे मेहरगढ़ मानवाधिकार नेतृत्व प्रशिक्षण शिविर के लिए उन्हें चुना गया. इसके बाद वह मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में उभरी थीं. कृष्णा को मौका देने के लिए पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बिलावल भुट्टो की भी काफी तारीफ हो रही है. माना जा रहा है कि कृष्णा के उच्च सदन का सदस्य चुने जाने से पाकिस्तान में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को आवाज मिलेगी.

दलित-मुस्लिम एकता चाहता था मुंबई का वह मशहूर डॉन

हाजी मस्तान

मुंबई के अंडरवर्ल्ड में हाजी मस्तान का नाम कई दशकों तक गूंजता रहा था. अंडरवर्ल्ड माफिया होने के बावजूद हाजी मस्तान दूसरों से अलग था. जैसे माना जाता है कि उसने कभी बंदूक नहीं उठाई न कभी किसी पर गोली चलाई. वह अन्य माफियाओं की तरह झूठ और फरेब की बजाय ईमानदारी पसंद था. अंडरवर्ल्ड से ऊबने के बाद एक वक्त उसने राजनीति की राह भी पकड़ी थी जहां उसने दलितों और मुस्लिमों की एकता की बात कही थी.

कई दशक तक मुंबई के अंडरवर्ल्ड पर राज करने के बाद 80 के दशक की शुरुआत में हाजी मस्तान की ताकत में कमी आना शुरू हो गई थी, क्योंकि मुंबई अंडरवर्ल्ड में नई ताकतें उभरने लगी थी. नए ‘गैंग्स’ ने हाजी मस्तान की प्रासंगिकता को काफी कम कर दिया था. 1974 में इंदिरा गांधी ने हाजी मस्तान को पहली बार ‘मीसा’ के अंतर्गत गिरफ़्तार करवाया था. 1975 में आपातकाल के दौरान भी हाजी मस्तान को सलाखों के पीछे रखा गया.

फाइल फोटो- हाजी मस्तान (फोटो क्रेडिट- गूगल इमेज)

तब देश के सबसे बड़े ‘क्रिमिनल’ लायर राम जेठमलानी को अपना मामला देने के बावजूद उनकी रिहाई नहीं हो पाई थी. जेल से छूटने के बाद उनकी जयप्रकाश नारायण से मुलाकात हुई थी. इस मुलाकात ने हाजी मस्तान का राजनीति में आने का रास्ता तैयार किया. इसके बाद मस्तान ने ‘दलित मुस्लिम सुरक्षा महासंघ’ नाम की एक पार्टी भी बनाई. मस्तान ने इस पार्टी को खड़ा करने के लिए काफी पैसे खर्च किए और महीनों तक मेहनत की. उनकी सोच थी कि वो एक दिन शिव सेना का स्थान ले लेगी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. ये पार्टी कुछ ख़ास नहीं कर सकी. हाजी मस्तान अंडरवर्ल्ड की दुनिया में जितने सफल हुए, राजनीति में नहीं हो पाए.

मायावती के दांव से गोरखपुर पर टिकी देश भर की निगाह

लखनऊ। देश की राजनीति में जब भी कोई बदलाव आया है, उसकी सुगबुगाहट बिहार और उत्तर प्रदेश से ही शुरू हुई है. यहां तक की केंद्र में सरकार बनाने का सपना देखने वाली भाजपा को भी उत्तर प्रदेश में सारा जोर लगाना पड़ा तो वहीं मोदी को गुजरात छोड़कर चुनाव लड़ने बनारस जाना पड़ा. एक बार फिर उत्तर प्रदेश से ही देश की राजनीति में हलचल पैदा होने की संभावना जोर पकड़ने लगी है. गोरखपुर और फुलपूर सीट पर होने वाले उपचुनाव में बसपा द्वारा समाजवादी पार्टी को समर्थन दिए जाने के बाद इन सीटों पर होने वाले उपचुनाव पर अब देश भर की नजरें टिक गई हैं.

गोरखपुर की सीट भाजपा नेता और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के इस्तीफा देने से खाली हुई है. यह उनके लिए प्रतिष्ठा की सीट है. लेकिन सपा ने उन्हें घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ा है. गोरखपुर संसदीय सीट पर निषाद समुदाय काफ़ी प्रभावी हैं. सपा ने निषाद समुदाय से उम्मीदवार खड़ा करके पहले ही माइलेज ले लिया था. दूसरी ओर बीएसपी का साथ मिलने से बीएसपी का कैडर वोट जुड़ गया है. माना जा रहा है कि सपा-बसपा के साथ आने से अल्पसंख्यक वोट एकमुश्त इस गठबंधन को जाना तय है. तो वहीं ज़मीनी स्तर पर राज्य सरकार के क़रीब एक साल का और केंद्र सरकार के चार साल का प्रदर्शन भी उपचुनाव पर असर डालेगा.

सपा-बसपा के साथ आने से भाजपा जहां सकते में है तो वहीं प्रदेश भर में एक बार फिर दलित-पिछड़ा गठबंधन की मांग जोर पकड़ने लगी है. खासकर दलित और पिछड़ा समाज इस गठबंधन से काफी उत्साहित है. हालांकि बसपा प्रमुख मायावती ने इसे सपा के साथ गठबंधन से ज्यादा भाजपा को हराने की बात कह कर प्रचारित किया है लेकिन जाहिर है कि इस प्रयोग के परिणाम पर उनकी नजर रहेगी.

गोरखपुर और फूलपुर में भाजपा के खिलाफ साथ आई सपा और बसपा

लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में सालों बाद वह हुआ, जिसकी कल्पना फिलहाल राजनीति के बड़े-बड़े पंडितों ने नहीं की होगी. गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के लिए होने वाले उपचुनाव में बसपा ने समाजवादी पार्टी को समर्थन देने का ऐलान किया है. दोनों जगहों पर बसपा के जोन-कोऑर्डिनेटरों ने प्रेस कांफ्रेंस कर सपा को समर्थन देने की घोषणा की है. गोरखपुर सीट सीएम योगी के सांसद पद से इस्तीफ़ा देने के बाद खाली हुई है तो फूलपुर सीट से यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य सांसद थे.

दोनों धुरविरोधियों के साथ आने से जहां भाजपा सकते में है तो वहीं इन दोनों जगहों के दलित और पिछड़े समाज ने इस गठबंधन का समर्थन किया है. बहुजन समाज पार्टी अपनी रणनीति के तहत उपचुनाव से दूर ही रहती है. गोरखपुर औऱ फूलपुर के उपचुनाव में उसने यही रणनीति अपनाई लेकिन बसपा ने सपा को समर्थन देने का ऐलान कर दोनों चुनावों को रोचक मोड़ दे दिया है.

गोरखपुर लोकसभा सीट से बीजेपी ने उपेन्द्र शुक्ला को टिकट दिया है तो वहीं समाजवादी पार्टी ने निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद को प्रत्याशी बनाया है. वहीं कांग्रेस ने सुरहिता करीम चैटर्जी को अपना उम्मीदवार बनाया है. दूसरी ओर फूलपुर लोकसभा सीट की बात करें तो बीजेपी ने युवा नेता कौशलेंद्र पटेल को टिकट दिया है, जबकि सपा ने नागेन्द्र पटेल व कांग्रेस ने मनीष मिश्रा को उम्मीदवार बनाया है. इस सीट पर जेल में बंद माफिया डॉन अतीक अहमद ने भी निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भरा है.

दोनों सीटों पर सपा-बसपा के एक साथ आने के बाद यह उपचुनाव बेहद खास हो गया है. यह महज उपचुनाव तक सीमित न होकर 2019 लोकसभा चुनाव की पृष्ठभूमि भी तैयार करने में मददगार होगा. जाहिर है कि इन दोनों सीटों पर बसपा प्रमुख मायावती और सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव की सहमति के बाद ही समझौता हो पाया है. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव लगातार इन दोनों सीटों पर बसपा से समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे थे. अखिलेश 2019 चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन के पक्षधर हैं.