लखनऊ। देश की राजनीति में जब भी कोई बदलाव आया है, उसकी सुगबुगाहट बिहार और उत्तर प्रदेश से ही शुरू हुई है. यहां तक की केंद्र में सरकार बनाने का सपना देखने वाली भाजपा को भी उत्तर प्रदेश में सारा जोर लगाना पड़ा तो वहीं मोदी को गुजरात छोड़कर चुनाव लड़ने बनारस जाना पड़ा. एक बार फिर उत्तर प्रदेश से ही देश की राजनीति में हलचल पैदा होने की संभावना जोर पकड़ने लगी है. गोरखपुर और फुलपूर सीट पर होने वाले उपचुनाव में बसपा द्वारा समाजवादी पार्टी को समर्थन दिए जाने के बाद इन सीटों पर होने वाले उपचुनाव पर अब देश भर की नजरें टिक गई हैं.
गोरखपुर की सीट भाजपा नेता और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के इस्तीफा देने से खाली हुई है. यह उनके लिए प्रतिष्ठा की सीट है. लेकिन सपा ने उन्हें घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ा है. गोरखपुर संसदीय सीट पर निषाद समुदाय काफ़ी प्रभावी हैं. सपा ने निषाद समुदाय से उम्मीदवार खड़ा करके पहले ही माइलेज ले लिया था. दूसरी ओर बीएसपी का साथ मिलने से बीएसपी का कैडर वोट जुड़ गया है. माना जा रहा है कि सपा-बसपा के साथ आने से अल्पसंख्यक वोट एकमुश्त इस गठबंधन को जाना तय है. तो वहीं ज़मीनी स्तर पर राज्य सरकार के क़रीब एक साल का और केंद्र सरकार के चार साल का प्रदर्शन भी उपचुनाव पर असर डालेगा.
सपा-बसपा के साथ आने से भाजपा जहां सकते में है तो वहीं प्रदेश भर में एक बार फिर दलित-पिछड़ा गठबंधन की मांग जोर पकड़ने लगी है. खासकर दलित और पिछड़ा समाज इस गठबंधन से काफी उत्साहित है. हालांकि बसपा प्रमुख मायावती ने इसे सपा के साथ गठबंधन से ज्यादा भाजपा को हराने की बात कह कर प्रचारित किया है लेकिन जाहिर है कि इस प्रयोग के परिणाम पर उनकी नजर रहेगी.