भीलवाड़ा। बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर की बात करना और उनकी प्रतिमा को स्थापित करने के लिए खड़ा होना एक अम्बेडकरवादी के लिए इतना भारी पड़ गया कि उस पर सरकार और विभाग की नजर टेढ़ी हो गई. नतीजा उस पर मनगढंत आरोप लगाकर पिछले पंद्रह महीनों में उसका 8 ट्रांसफर किया जा चुका है और 15 महीनों से विभाग ने उसकी सैलरी रोक दी है. पीड़ित के साथ उत्पीड़न की यह इंतहा तब है जब न तो उसके ऊपर कोई आपराधिक मुकदमा है और न ही विभागीय शिकायत. मामला विधानसभा तक में उठ चुका है लेकिन उसे अभी तक न्याय नहीं मिला है.
घटना राजस्थान के भीलवाड़ा की है. वाल्मीकि जाति के अशोक कुमार चिन्नाल यहां स्वास्थ विभाग में नौकरी करते हैं. अशोक अम्बेडकरवादी हैं और सामाजिक मंचों पर भी सक्रिय रहते हैं. अशोक के गांव भीलवाड़ा जिले के हलेड़ में एक सरकारी जमीन खाली पड़ी थी. 2013 में अशोक सहित तमाम अम्बेडकरवादी इस पर बाबासाहेब की प्रतिमा स्थापित करना चाहते थे. गांव के सरपंच से NOC मिलने के बाद 25 दिसंबर 2013 को वहां बाबासाहेब की प्रतिमा लगा दी गई. सत्ताधारी दल भाजपा के कार्यकर्ताओं ने इसे अपनी जमीन बताते हुए बाबासाहेब की प्रतिमा को तोड़ दिया, हालांकि अशोक सहित अन्य अम्बेडकरवादियों के विरोध के कारण वह इस पर कब्जा नहीं कर सकें. चूंकि अशोक ज्यादा सक्रिय और मुखर थे सो उनको घेरने की कोशिशें शुरू हो गई. 2015 में उन्हें बाबासाहेब की जयंती के बाद एक मामूली शिकायत पर अशोक को घेरने का मौका मिल गया.
अशोक पर न सिर्फ हमला हुआ, बल्कि उनके विभाग ने भी उन्हें परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ा. आलम यह हुआ कि किसी खास व्यक्ति के इशारे पर विभाग ने उन्हें लगातार परेशान करना शुरू कर दिया. उनके एक के बाद एक ट्रांसफर किए गए और पिछले कई महीनों से उनकी सैलरी रोक दी गई. अशोक का आरोप है कि उनपर हमले किए गए. एक ट्रक दुर्घटना में अशोक के भाई की मौत हो गई, जबकि अशोक गंभीर रूप से घायल हो गए.
अशोक के पक्ष में राजस्थान में बसपा के विधायकों ने मामला विधानसभा तक में उठाया. झूंझुनू के खेतरी से बसपा विधायक पूरण मल सैनी ने विधानसभा में मामले को उठाते हुए अशोक को फिर से पहले की तरह मुख्यालय पर ट्रांसफऱ करने और उनका वेतन बहाल करने की मांग की. उन्होंने बाबासाहेब की खंडित की गई प्रतिमा को भी ठीक कर फिर से स्थापित करने की मांग की, लेकिन इसके बावजूद भी अशोक की परेशानी कम नहीं हुई है.
अशोक का कहना है कि अगर मैंने कोई गलती की है तो पुलिस मुझ पर एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई करे. विभाग मुझे क्यों परेशान कर रहा है और मेरा वेतन क्यों रोक दिया गया है, यह मेरी समझ से परे है. अशोक राजस्थान में न्याय का हर दरवाजा खटखटा चुके हैं, लेकिन उन्हें अब तक न्याय नहीं मिला है. अशोक चिन्नाल के पक्ष में अब अम्बेडकरवादी संगठन एकजुट होने लगे हैं. डॉ. भीमराव अम्बेडकर विकास समिति ने राज्यपाल कल्याण सिंह को पत्र लिखकर अशोक के लिए न्याय मांगा है और न्याय नहीं मिलने की सूरत में बड़े आंदोलन की चेतावनी दी है. लेकिन अम्बेडकरवादी होने और बाबासाहेब अम्बेडकर की प्रतिमा स्थापित करने के कारण अशोक जिस तरह पूरे प्रदेश सरकार की नजरों में चुभ गए हैं वह सरकार की सोच पर सवाल उठाता है.
2014 के लोकसभा और उत्तर प्रदेश में 2017 में हुए विधान सभाई चुनावों में बी. एस. पी. को मिली हार को देखते हुए यह लगने लगा था कि बी. एस. पी. का वोट बैंक खिसक रहा है. उस दौरान पड़े वोटों का प्रतिशत जिस गति से बढ़ा, उससे लग तो रहा था कि बी.एस.पी. निश्चित रूप से नीचे खिसकेगी, किंतु इतना बुरा हाल होगा यह कतई नहीं सोचा था. यह भी नहीं लग रहा था कि बढ़ा हुआ वोट किसी एक करवट बैठ जाएगा, जैसा कि हुआ. सभी दलों की सभाओं में अप्रत्याशित भीड़ जुटी. क्षेत्रीय दलों की सभाओं में भी अच्छी- भीड़ देखी गई. किन्तु वो मतों में परिवर्तित नहीं हो सकी. सोचा था कि बढ़ा हुआ वोट बिखरेगा, किंतु ऐसा हुखासीआ नहीं. आखिर क्यों? यह एक सोचनीय विषय है. किंतु उत्तर प्रदेश में हुए निकाय चुनावों में बसपा को मिली कामयाबी और फूलपुर और गोरखपुर में हुए हालिया दो उपचुनावों में बसपा के समर्थन से सपा को मिली जीत ने सिद्ध कर दिया कि बसपा का वोटर आज भी कायम है.
वर्ष 2007 के विधान सभा चुनावों में बी.एस.पी. को 85 आरक्षित सीटों में से 61 आरक्षित सीटों पर जीत मिली थी. जबकि इस बार बी.एस.पी. की सबसे बड़ी हार केवल दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर ही हुई थी. इसका कारण यह रहा कि अन्य दलों ने बी.एस.पी. के दलित उम्मीदवारों के खिलाफ कई-कई निर्दलीय दलित उम्मीदवार मैदान में उतार दिए. परिणाम यह हुआ कि दलित वोटों का तो बिखराव हो गया और गैर-दलित मत बी.एस.पी. के खाते में आए ही नहीं. फलत: आरक्षित सीटों पर बी.एस.पी. के उम्मीदवार ही ज्यादा हारे. यह एक सोची-समझी साजिश थी. प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण से कहा जा सकता है कि आरक्षित सीटों पर समाज विरोधी दलितों ने अन्य दलों के जाल में फंसकर बी.एस.पी. के खिलाफ काम किया. यहाँ यह सवाल भी उठ सकता है कि फिर सामान्य सीटों पर बी.एस.पी. के उम्मीदवार कैसे जीत जाते हैं. प्रश्न बेशक जायज है. इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ रहे बी.एस.पी. के उम्मीदवारों के हक में दलित मतों का लगभग 80-85 प्रतिशत मत तो मिल ही जाते हैं, साथ ही गैर-दलितों के मत भी बी.एस.पी. के खाते में चले जाते हैं. किंतु 2017 के चुनावों में ऐसा कुछ भी नहीं हो पाया.
बी.एस.पी. के आला कमान को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बी.एस.पी. का जमीनी कार्यकर्त्ता हवाई यानी गली-कूचे की नेतागीरी करने में ज्यादा रुचि लेने लगा है. काम करने में कम. यहां तक कि वोटरों के घरों तक वोटर-पर्चीयां तक नहीं पहुँचा पाते. नतीजा ये होता है कि बी.एस.पी. के वोटरों का लगभग 10-12 प्रतिशत वोट ही नहीं डाल पाता. यहां तक कि ज्यादातर वोटरों को अपने पोलिंग बूथ का ही पता नहीं होता. इलाकाई कार्यकर्त्ताओं से पूछने पर भी कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिलता. बूथ पर व्यवस्था के नाम पर कुछ भी दिखाई नहीं देता.
दिक्कत एक और भी है कि दलितों में शामिल कुछेक जातियां अपने आपको दलित मानने को ही तैयार नहीं हैं. संविधान के आर्टिकल 16.4 के तहत अन्य पिछड़ा वर्ग भी दलितों में आता है. किंतु अफसोस कि वो अपने आप को ब्राह्मण ही मानने पर उतारू है जिसके चलते समूचे दलित समाज का अनहित हो रहा है.
इस संबंध में जे.एन.यू के प्रोफेसर डॉ. विवेक कुमार कहते हैं, “इस प्रकार हिन्दुत्व बहुजनवाद पर भारी पड़ गया. 1978 के पश्चात जातीय अस्मिताओं का प्रयोग कर जिस उत्तर प्रदेश में बामसेफ, डीएस-4 तथा बहुजन समाज पार्टी के सहारे “बहुजन” का एक बड़ा समीकरण बना था, उस समीकरण को बीजेपी ने अपने तौर पर चुनौती दी. इस जातीय अस्मिता के नवीन समीकरण का सूत्रपात करने वाले स्वयं नरेन्द्र मोदी थे. मोदी ने उप्र की जनसभाओं में अपनी अस्मिता को खूब उछाला. उन्होंने अपने आपको पिछड़े वर्ग का बताया. उन्होंने एक रैली में यहाँ तक कहा – “आने वाला दशक पिछड़ों एवं दलितों का होगा.” मैं समझता हूँ कि मोदी यहाँ दलितों और पिछड़ों के नाम एक अप्रत्यक्ष सवाल भी छोड़ जाते हैं. और वह सवाल है कि अब दलितों और पिछड़ों को सोचना होगा कि वो परम्परागत जातिगत और धार्मिक व्यवस्था अर्थात साम्प्रदायिकता का हिस्सा बनकर जीना चाहते हैं अथवा दलितों और पिछड़ों के तमाम के तमाम राजनीतिक घटक तमाम मतभेदों को भुलाकर एक होकर समाज के दमित और वंचित वर्ग को आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करते हैं.
जाहिर है कि मोदी तो यही चाहेंगे कि दलित और पिछड़े लोग बीजेपी के साथ ही बने रहें. आखिर मोदी के भी तो अपने निजी निहित हैं. अब यह दलितों और पिछड़ों को सोचना है कि उनका भला कहाँ है. यह भी जाहिर है कि यदि दलित और पिछड़े वर्ग से आने वाले तमाम नेता यदि अपने-अपने निजी स्वार्थो और जातीय अहम को छोड़कर पिछले चुनावों में प्राप्त मतों के प्रतिशत के आधार पर एक होकर चुनाव लड़ते हैं तो 2019 के आम चुनावों के नतीजे कुछ अलग ही होंगे. यदि ऐसा हो पाता है तो उम्मीद की जा सकती है कि भारत में मानवाधिकारों की किसी हद तक रक्षा हो सकती है, अन्यथा नहीं.
दिक्कत एक और भी है कि दलितों में शामिल कुछेक जातियां अपने आपको दलित मानने को ही तैयार नहीं हैं. संविधान के आर्टिकल 16.4 के तहत अन्य पिछड़ा वर्ग भी दलितों में आता है, किन्तु अफसोस कि वो अपने आप को ब्राह्मण ही मानने पर उतारू है जिसके चलते समूचे दलित समाज का अनहित हो रहा है. मेरा मानना है कि यदि बी.एस.पी. और सपा आपस में एक हो जाएं तो इनके हाथों में न केवल राज्यों की सता होगी अपितु केंद्रीय-सत्ता भी इनके हाथों में ही होगी. अक्सर देखा गया है कि किसी भी उपचुनाव में प्राय: सत्ताधारी दल की ही जीत होती है, मगर उत्तर प्रदेश में इस बार ऐसा न हो सका. अत: हाल ही में उत्तर प्रदेश में फूलपुर और गोरखपुर में हुए उपचुनावो में बी. एस. पी. के समर्थन से सपा के प्रत्याशियों की भारी जीत तो इस ओर ही संकेत कर रही है. पर इन्हें समझाए कौन? जरूरत है तो केवल निजित्व की भावना से उबरकर सामाजिक हितों की साधना हेतु काम करने की. अब 2019 के लोकसभा चुनाव होने हैं, देखते हैं क्या होगा?
लेखक: तेजपाल सिंह तेज चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक, आजीवक विजन के प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं. स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं. हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं.
न्यूज 18 ने जनगणना के आंकड़ों में जो पाया उसके मुताबिक, दलितों और मुस्लिमों की संख्या लिंगायत और वोक्कालिगा की जनसंख्या से अधिक है. राज्य में अनुसूचित जातियों की संख्या कुल आबादी की 19.5% है जो कि राज्य में सबसे बड़े जातीय समूह के रूप में उभरा है. इसके बाद मुस्लिमों का स्थान है जो कि राज्य की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत हैं. इन दोनों समुदायों के बाद लिंगायत व वोक्कालिगा का स्थान आता है जो कि क्रमशः 14 फीसदी व 11 फीसदी हैं.
अन्य पिछड़ा वर्गों में कुरुबा राज्य की कुल जनसंख्या में अकेले 7 फीसदी हैं. बता दें कि राज्य में 20 फीसदी जनसंख्या अन्य पिछड़ा वर्ग की है.
आंकड़ों के अनुसार राज्य में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, मुसलमान व कुरुबा की जनसंख्या को मिला दें तो ये राज्य की कुल जनसंख्या की 47.5 फीसदी जनसंख्या हो जाती है. मुख्यमंत्री के AHINDA (अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग व दलित) वर्ग को अपनी ओर करने का समीकरण अचूक है, जिसकी सफलता कांग्रेस को जीत के काफी नज़दीक ला सकती है.
हालांकि लिंगायत व वोक्कालिगा दोनों जातियों ने इस डेटा को नकारा है. वीराशैव-लिंगायत महासभा की राष्ट्रीय सचिव एचएम रेणुका प्रसन्ना ने कहा कि जस्टिस ‘चिन्नप्पा रेड्डी कमीशन’ की रिपोर्ट के अनुसार 1980 में हमारी जनसंख्या राज्य की कुल जनसंख्या की 16.92 फीसदी थी और ‘हवनूर कमीशन’ के अनुसार हमारी जनसंख्या 17.23 फीसदी थी. तो ये कैसे संभव है कि 30 सालों बाद हमारी आबादी अब घटकर मात्र 14 फीसदी रह गई हो.
प्रसन्ना ने आरोप लगाया कि सिद्धारमैया वास्तविक आंकड़ों के साथ अपने लाभ के अनुसार खेल रहे हैं. वोक्कालिगा समुदाय का भी यही मानना है. सरकार में ही वोक्कालिगा समुदाय के एक मंत्री ने कहा कि वोक्कालिगा की कुल जनसंख्या राज्य की कुल जनसंख्या की 16 फीसदी है न कि 11 फीसदी.
एक वोक्कालिगा ब्यूरोक्रेट ने कहा कि यदि ये आंकड़े सही हैं तो पिछले 70 सालों से जो दबदबा कर्नाटक की राजनीति में वोक्कालिगा और लिंगायत का बना हुआ था वो खत्म हो जाएगा और आगे से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, कुरुबा व मुसलमान ही कर्नाटक के भाग्य का निर्णय करेंगे.
हालांकि मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने इसे अफवाह बताया और कहा कि सरकार ने ऐसा कोई डेटा जारी ही नहीं किया है. उन्होंने इस पर कोई भी टिप्पणी करने से मना कर दिया. कर्नाटक के बीजेपी अध्यक्ष बीएस येदियुरप्पा और जेडीएस के राज्य प्रमुख एचडी कुमारस्वामी ने कहा कि सिद्धारमैया सरकार राज्य को फिर एक बार जातिगत आधार पर बांटने की कोशिश कर रही हैं.
सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस सरकार अभी दुविधा में है कि रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए कि नहीं क्योंकि इससे वोक्कालिगा व लिंगायत समुदाय नाराज़ हो सकता है और इससे सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल मच सकती है. एक अधिकारी ने बताया कि चुनावों के पहले जातिगत जनगणना के आधार पर मिले आंकड़ों को जारी नहीं किया जायेगा, क्योंकि ये बहुत खतरनाक साबित हो सकता है.
जातिगत जनगणना के अनुसार राज्य में दलित 19.5 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति 5 प्रतिशत, मुसलमान 16 प्रतिशत, कुरुबा 7 प्रतिशत, बाकी के ओबीसी 16 प्रतिशत, लिंगायत 14 प्रतिशत, वोक्कालिगा 11 प्रतिशत, ब्राह्मण 3 प्रतिशत, ईसाई 3 प्रतिशत, बौद्ध व जैन 2 प्रतिशत बाकी के 4 प्रतिशत हैं. कर्नाटक की कुल जनसंख्या 6 करोड़ है जिसमें 4.90 करोड़ रजिस्टर्ड मतदाता हैं.
साभार न्यूज 18
नई दिल्ली। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल द्वारा अकाली नेता बिक्रम सिंह मजीठिया से लिखित में माफी मांगने के बाद आप के भीतर बगावत छिड़ गया है. इस माफी से पार्टी के सांसद और पंजाब अध्यक्ष भगवंत मान ने पंजाब प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया है.
मान ने खुद ही ट्विट कर इसकी जानकारी दी. भगवंत मान ने ट्वीट किया, ”मैं पंजाब प्रदेश अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे रहा हूं. ड्रग माफिया के ख़िलाफ मेरी लड़ाई जारी रहेगी. पंजाब के आम आदमी होने के नाते मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई भी जारी रखूंगा.” दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पंजाब के एक कोर्ट में हलफ़नामा दाख़िल कर शिरोमणि अकाली दल के महासचिव बिक्रम सिंह मजीठिया से माफ़ी मांगी थी.
पिछले साल हुए पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान अरविंद केजरीवाल ने बिक्रम सिंह मजीठिया के कथित तौर पर पंजाब के ड्रग माफ़िया के साथ संबंध होने के आरोप लगाए थे. इन आरोपों को ग़लत बताते हुए बिक्रम सिंह मजीठिया ने केजरीवाल, आप सांसद संजय सिंह और पार्टी प्रवक्ता आशीष खेतान के ख़िलाफ़ अमृतसर कोर्ट में मानहानि का मुक़दमा कर दिया था. केजरीवाल के माफी मांगने के बाद उन्होंने भी मामला खत्म कर दिया. गुरुवार शाम को मजीठिया ने केजरीवाल का माफ़ीनामा ट्वीट किया था.
गोरखपुर और फूलपुर उपचुनावों में सपा-बसपा गठबंधन को मिली जीत के बाद देश की राजनीतिक फिजां बदलने लगी है. वैसे तो भाजपा को मध्यप्रदेश, राजस्थान और बिहार उपचुनाव में भी हार का मुंह देखना पड़ा था, लेकिन यूपी की हार सिर्फ दो सीटों की हार नहीं थी. असल में गोरखपुर और फूलपुर की हार भाजपा के किले के दरकने जैसा है. पिछले तीन दशक से पूर्वांचल का सबसे मजबूत गढ़ बने गोरखपुर की हार भाजपा के एक मजबूत किले के ढहने जैसा है. गोरखपुर और फूलपुर देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की हार है. भाजपा को मिली इस हार के पीछे सबसे बड़ा कारण बहुजन समाज पार्टी और इसकी मुखिया मायावती बन कर उभरी हैं.
भाजपा की हार के बाद उनके बयान से विपक्षी दलों की सुगबुगाहट तेज हो गई है. गोरखपुर और फूलपुर की जीत के बाद कुमारी मायावती ने कहा कि उन्होंने भाजपा को सबक सिखाने के लिए सपा को समर्थन दिया था. साथ ही उनका यह बयान भी चर्चा में है कि भाजपा के खिलाफ समूचे विपक्ष को साथ आना चाहिए. बसपा प्रमुख के इस बयान के बाद यह चर्चा तेज हो गई है कि मायावती 2019 चुनाव के केंद्र में रहेंगी. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जिस तरह से मायावती को लेकर अपनी रुचि दिखाई है, उससे यह भी लग रहा है कि सपा को मायावती को आगे रखकर चुनाव लड़ने में कोई दिक्कत नहीं होगी.
भाजपा को हराने के लिए जिस तरह से विपक्ष गोलबंद हो रहा है उसमें बसपा की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है. अब तक गठबंधन की राजनीति से दूर रही बसपा का नजरिया भी अब गठबंधन की राजनीति को लेकर बदलने लगा है. 15 मार्च को चंडीगढ़ की रैली में भी मायावती ने गठबंधन की राजनीति का संकेत दे दिया है. ऐसे में अगर राष्ट्रीय स्तर पर कोई गठबंधन होता है तो मायावती एक महत्वपूर्ण फैक्टर बनकर सामने आएंगी. कांग्रेस के अलावा तमाम विपक्षी दलों में मायावती इकलौती ऐसी नेता और बहुजन समाज पार्टी इकलौती ऐसी पार्टी है, जिसके समर्थक देश भर में हैं. और वह हर प्रदेश में सहयोगी पार्टी को अपना वोट ट्रांसफर करवाने में सक्षम है.
नई दिल्ली। माल एवं सेवा कर (GST) को बेहतर बनाने की कोशिश में जुटी मोदी सरकार के लिए एक और बुरी खबर आई है. विश्व बैंक ने भारत में लागू इस नई कर प्रणाली को लेकर कई गंभीर सवाल उठाए हैं. विश्व बैंक ने इसे काफी जटिल बताया है. इसके साथ ही कहा है कि भारत में लागू टैक्स स्लैब 115 देशों में दूसरा सबसे ज्यादा है. यह बात विश्व बैंक द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कही गई है.
इस रिपोर्ट में उन देशों के टैक्स रेट और स्लैब की तुलना की है, जहां जीएसटी लागू है. इस रिपोर्ट में कुल 115 ऐसे देश शामिल किए गए. भारत में जहां 5 टैक्स स्लैब हैं. वहीं, दुनियाभर के 49 देशों में एक ही जीएसटी रेट है. रिपोर्ट के मुताबिक 28 देशों में 2 टैक्स स्लैब इस्तेमाल किए जाते हैं. वहीं, भारत समेत 5 ऐसे देश हैं, जहां 4 टैक्स टैक्स स्लैब प्रभावी हैं. 4 और इससे ज्यादा जीएसटी टैक्स स्लैब लागू करने वाले देशों में इटली, लग्जमबर्ग, पाकिस्तान और घाना है.
विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में जीएसटी को लागू करने के लिए किए गए खर्च को लेकर भी सवाल उठाया है. वैश्विक वित्तीय संस्था ने अपनी रिपोर्ट में भविष्य में इसमें जरूरी बदलाव करने का सुझाव दिया है और उम्मीद जताई है कि आगे जाकर इसमें सकारात्मक बदलाव होंगे. रिपोर्ट में टैक्स स्लैब की संख्या कम करने और जीएसटी प्रक्रिया को आसान व सरल बनाने का सुझाव दिया गया है. बता दें कि मोदी सरकार ने 1 जुलाई से जीएसटी लागू किया था. भारत में लागू जीएसटी में 5 टैक्स स्लैब हैं. इसमें 0, 5 फीसदी, 12 फीसदी, 18% और 28 फीसदी है.
दरभंगा। देश में राजनीतिक कट्टरता के बढ़ते खतरे का एक उदाहरण बिहार के दरभंगा जिले में सामने आया है. यहां एक राजनैतिक दल के समर्थकों ने दूसरे राजनैतिक दल के समर्थक का गला काट कर उसे मार डाला. जानकारी के मुताबिक, दरभंगा में एक परिवार ने अपने इलाके में एक चौक का नाम ‘मोदी चौक’ रख दिया. इसके बाद महागठबंधन समर्थकों ने परिवार के व्यक्ति का गर्दन काटकर उसकी हत्या कर दी. इस हमले में मृतक का बेटा गंभीर रूप से घायल हो गया.
मृतक के परिजन ने कहा कि मोदी के नाम पर चौक का नाम रखने और मोदी की तस्वीर लगाने के कारण महागठबंधन के लोग नाराज थे. इसे लेकर पहले भी मारपीट हुई थी. उपचुनाव में मिली जीत के बाद महागठबंधन से जुड़े लोगों ने अतिउत्साह में आकर इस घटना को अंजाम दिया. दरभंगा के भाजपा जिला अध्यक्ष का आरोप है कि बीजेपी समर्थक द्वारा अपने घर के बाहर वाले चौराहे का ‘मोदी चौक’ नाम रखने पर व्यक्ति को मौत के घाट उतार दिया गया और मृतक के बेटे पर भी हमला कर उसे घायल कर दिया गया. घटना के विरोध में बीजेपी समर्थकों ने दरभंगा में कर्पूरी चौक पर विरोध प्रदर्शन किया और रास्ते को जाम कर दिया. इस तरह की घटना और किसी भी दल और नेता को लेकर इस तरह का पागलपन खतरनाक है, जिसमें किसी की जान चली जाए.
नई दिल्ली। राहुल गांधी की अध्यक्षता में दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में कांग्रेस का 84वां अधिवेशन शुरू हो गया. इस महाअधिवेशन में राहुल गांधी की पहल के बाद पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं की भूमिका महत्वपूर्ण होगी. चर्चा है कि इस अधिवेशन में राहुल गांधी कांग्रेस के भविष्य का ब्लू प्रिंट पेश करेंगे. इसके साथ ही पार्टी के भीतर कुछ चीजें भी बदले जाने की खबर है. इस अधिवेशन में संचालन समिति सब्जेक्ट कमेटी में तब्दील हो जाएगी. पहले दिन सब्जेक्ट कमेटी के लोग अलग-अलग प्रस्तावों पर चर्चा करेंगे. तीन दिवसीय इस अधिवेशन में 17 और 18 मार्च के दिन राहुल गांधी भी अधिवेशन में रहेंगे.
अधिवेशन में कई प्रयोग किए जा रहे हैं. इस अधिवेशन में राहुल गांधी की रणनीति जमीनी कार्यकर्ताओं में जोश भरने की है. इसके तहत पार्टी जिला से लेकर ब्लॉक लेबल तक के कार्यकर्ताओं को बोलने का मौका देगी. इस योजना के जरिए सामान्य कार्यकर्ता की बात और जमीन से जुड़े मुद्दे सामने लाने की कोशिश है. राहुल गांधी दो बार इस अधिवेशन को संबोधित करेंगे. 17 मार्च को कांग्रेस अध्यक्ष कार्यकर्ताओं का स्वागत करेंगे. इस दिन दो प्रस्ताव पर चर्चा होगी. 18 मार्च को भी दो प्रस्ताव आएंगे. 18 मार्च को शाम 5 बजे राहुल गांधी का मुख्य भाषण होगा जो समापन भाषण होगा.
इसके साथ ही अधिवेशन में कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ ‘चार्जशीट’ भी लाएगी. कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने बताया कि इस अधिवेशन में कांग्रेस पांच बुकलेट के जरिए बीजेपी पर चार्जशीट लाएगी. अधिवेशन में AICC प्रतिनिधियों को ये बुकलेट दी जाएगी. प्रत्येक बुक 10 पेज की होगी, जिसमें युवा, किसान, शिक्षा, रोजगार, एसटी/एससी और महिलाओं से संबंधित जानकारियां होंगी. इसमें तथ्य और डाटा के साथ काफी जानकारी होगी, जो मोदी सरकार के झूठ का और बेहतर तरीके से पर्दाफाश करने में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के लिए सहायक होगी.
इस दौरान ड्राफ्टिंग कमेटी से जुड़ी चार उपसमिति बनाई गई है. इसमें राजनीतिक मसलों पर उपसमिति, आर्थिक मसलों पर उपसमिति, अंतरराष्ट्रीय मसलों पर उपसमिति और कृषि, रोजगार और गरीबी उन्मूलन पर उपसमिति बनाई जाएगी. तीन दिन के अधिवेशन में तय होगा कि पार्टी राजनैतिक, आर्थिक, अंतरराष्ट्रीय, कृषि, रोजगार और गरीबी उन्मूलन के मसले पर अपनी दिशा तय करेगी.
चेन्नई। तमिलनाडु की राजनीति में गुरुवार को एक नई पार्टी का उदय हुआ. एआईएडीएमके के बागी नेता और आरकेनगर से निर्दलीय विधायक जयललिता के भतीजे ने टीटीवी दिनाकरण ने अपनी नई पार्टी ‘अम्मा मक्कल मुनेत्र कड़गम’ लॉन्च की.
मदुरई में एआईएडीएमके के बागी विधायकों और भारी संख्या में उमड़े समर्थकों की मौजूदगी में दिनाकरण ने अपनी पार्टी, चुनाव चिह्न और झंडा लॉन्च किया. दिनाकरण ने कहा कि वह दिवंगत जयललिता के असली उत्तराधिकारी हैं. अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए दिनाकरण ने कहा, ‘हम अब अपनी नई पार्टी और झंडे के साथ आने वाले सभी चुनावों को जीतेंगे. इसके अलावा हम दो पत्तयों वाले चुनाव चिह्न को पाने की कोशिश करेंगे. इसके न मिलने तक हम चुनाह चिह्न कूकर का इस्तेमाल करेंगे।’
इससे पहले नौ मार्च को दिल्ली हाईकोर्ट ने टी.टी.वी.दिनाकरण के नेतृत्व वाले अन्नाद्रमुक (अम्मा) धड़े को समान चुनाव चिन्ह, संभवत: प्रेशर कुकर, और उनकी पसंद का एक उचित नाम आवंटित करने का निर्देश दिया था. दिल्ली हाईकोर्ट में दिनाकरन ने प्रेशर कुकर चिन्ह मांगा था, जिसके तहत पार्टी ने पिछले वर्ष दिसंबर में राधा कृष्ण्न नगर विधानसभा सीट पर हुआ उपचुनाव 40 हजार से अधिक मतों के अंतर से जीता था.
आवेदन पर सुनवाई के दौरान दिनाकरन ने अपने धड़े के लिए तीन नाम भी सुझाए थे -आल इंडिया अम्मा अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कझगम, एमजीआर अम्मा द्रविड़ मुनेत्र कझगम और एमजीआर अम्मा द्रविड कझगम. पलानीस्वामी -पनीरसेल्वम समूह ने कई आधार पर दिनाकरन की याचिका का विरोध किया था. यह भी कहा गया था कि दिनाकरन के धड़े को नाम और चिन्ह हासिल करने के लिए खुद को एक अलग पार्टी के रूप में पंजीकृत कराना होगा.
इन सभी बातों को खारिज करते हुए अदालत ने कहा कि दिनाकरन धड़े को एक नए राजनीतिक दल के रूप में पंजीकरण कराने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता क्योंकि उस सूरत में दो पत्ती चिन्ह पर उनका दावा खत्म हो जाएगा.
गोरखपुर। गोरखपुर लोकसभा सीट को हारने का दर्द यहां के महंथ योगी आदित्यनाथ को लंबे समय तक सालता रहेगा. लेकिन योगी आदित्यानाथ के लिए लोकसभा सीट की हार से भी ज्यादा चौंकाने वाली घटना हो गई, जिससे योगी की इज्जत ही दांव पर लग गई है. और योगी समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर ऐसा हुआ तो हुआ कैसे??
असल में अब तक पूर्वांचल की गोरखपुर सीट को बीजेपी का सबसे मजबूत दुर्ग माना जाता रहा है, लेकिन उपचुनाव में ये सुरक्षित किला दरक गया है. बीजेपी उम्मीदवार और योगी के प्रतिनिधि की गोरखपुर में हार हुई है. यही नहीं बल्कि योगी को गोरखनाथ मठ के उस बूथ पर भी करारी हार का सामना करना पड़ा है, जिसके महंत योगी आदित्यनाथ हैं.
गोरखनाथ मठ वाले बूथ पर बीजेपी उम्मीदवार को कांग्रेस प्रत्याशी से भी कम वोट मिले हैं. बीजेपी इस बूथ पर 50 वोट भी नहीं पा सकी है. गोरखनाथ मठ वाले बूथ पर बीजेपी उम्मीदवार उपेंद्र शुक्ल को महज 43 वोट मिले. जबकि कांग्रेस को 56 और सपा उम्मीदवार को 1775 वोट मिले हैं. यह तब है जब यह मठ पिछले तीन दशक से योगी और गोरखपुर की सियासत का सबसे बड़ा केंद्र है. यह योगी के लिए इसलिए भी करारी शिकस्त है क्योंकि गोरखपुर के सांसद रहे योगी आदित्यनाथ सूबे के मुख्यमंत्री भी हैं. इतना नहीं वो गोरखपुर से पांच बार के सांसद रहे हैं.
पटना। बिहार और उत्तर प्रदेश हमेशा से देश की राजनीति का रुख तय करते रहे हैं. केंद्र का रास्ता बिहार वाया यूपी होते हुए ही दिल्ली पहुंचता है. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले इन दोनों राज्यों ने भारत विजय पर निकली भाजपा के लिए मुश्किल संकेत दे दिए हैं. 14 मार्च को उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटें और बिहार की एक लोकसभा सीट और दो विधानसभा सीटों का चुनाव परिणाम आया. इन पांच सीटों में से भाजपा के जिम्मे सिर्फ एक बिहार की भभुआ विधानसभा सीट आई, बाकी की पांचों सीटों पर भाजपा चुनाव हार गई.
इस दौरान गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ की हार इतनी भारी थी कि पूरे दिन चर्चा के केंद्र में गोरखपुर का चुनाव बना रहा. जबकि भाजपा को जो झटका यूपी में लगा था वैसा ही झटका उसे बिहार में लालू यादव की पार्टी तेजस्वी यादव ने दिया था. भाजपा और नीतीश कुमार के साथ आने के बावजूद राजद ने अररिया लोकसभा सीट और जहानाबाद विधानसभा सीट बरकरार रखी.
लालू यादव के दोनों बेटे तेजस्वी यादव और तेजपाल यादव
लालू यादव के जेल जाने के बाद भाजपा-जदयू इस सीट पर राजद को हराने की कोशिश में लगे थे ताकि लालू यादव का मनोबल टूट जाए. लेकिन पिता के जेल में होने के बावजूद उनके बेटे और विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव जिस तरह ये दोनों सीटें न सिर्फ बचा ले गए बल्कि उसका अंतर भी काफी रहा. राजद की इस जीत से बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार का कद घटा है. बिहार और यूपी के चुनावी नतीजों ने मोदी और अमित शाह की माथे पर पसीना ला दिया है. और भाजपा के सभी बड़बोले नेताओं ने चुप्पी साध ली है.
जीत की खुशी के बाद पटना में राजद नेता और समर्थक
ऐसी ही एक संभावना को टटोलने के लिए संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने डिनर दिया था, जिसमें 20 विपक्षी दलों के नेता एकत्रित हुए थे. 2019 के पहले विपक्षी खेमें में भाजपा को रोकने की बेचैनी साफ देखी जा रही है. संभव है कि यह उपचुनाव केंद्र से मोदी और बिहार से नीतीश के विदाई की पटकथा बन जाए.
लखनऊ। 14 मार्च को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की सड़कों पर एक अलग ही नजारा था. काफी वक्त बाद ऐसा हुआ था कि किसी चुनाव के बाद सड़कों पर भाजपा नहीं बल्कि सपा और बसपा के कार्यकर्ता थे. और जो सबसे बड़ी बात थी कि सपा और बसपा के कार्यकर्ता साथ-साथ थे. साईकिल और हाथी के झंडे एक ही डंडे में गुथे हुए थे. उपचुनाव में गोरखपुर और फूलपुर सीट को भाजपा से छिनने के बाद ‘बुआ और भतीजा’ की जोड़ी के खूब नारे लग रहे थे. सबकी नजर इस पर थी कि अखिलेश यादव बुआ मायावती का शुक्रिया कैसे अदा करते हैं. औऱ फिर एक ऐसी मुलाकात हुई, जिसका इंतजार बहुजन समाज के सजग लोग पिछले काफी वक्त से कर रहे थे.
अखिलेश यादव शाम 7:25 पर अपने काफिले के साथ बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती के लखनऊ स्थित घर पहुंचे. मायावती के समर्थन से ही अखिलेश यादव को यह जीत नसीब हुई थी इसलिए अखिलेश यादव ने सबसे पहला शुक्रिया मायावती का अदा किया. दोनों के बीच ये मुलाकात करीब 1 घंटे 5 मिनट तक चली. जाहिर है कि एक घंटे की मुलाकात कम नहीं होती. खबर है कि दोनों की मुलाकात काफी अच्छी थी. और दोनों काफी सहज थे.
इस बैठक में तीन खास बातें हुईं. उसमें सबसे बड़ी बात जो निकल कर आई है, वह यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान इस गठबंधन को जारी रखने पर चर्चा हुई. एक शुरुआती चर्चा सीटों को लेकर भी हुई कि गठबंधन होने पर कौन कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा.
इस मुलाकात की दूसरी खास बात यह रही कि इस दौरान 1993 में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के बीच हुई मुलाकात को भी याद किया गया. तब इन दोनों पार्टियों के साथ आने से जो राजनैतिक सफलता मिली थी, उसकी चर्चा हुई. हालांकि इस दौरान दोनों नेताओं ने उसके बाद आई तल्खियों का कोई जिक्र नहीं किया. यह दिखाता है कि मायावती भी अब उस बात को भूल कर आगे बढ़ना चाहती हैं. वैसे भी उन्हें मुलायम सिंह से नहीं बल्कि अखिलेश यादव से बात करनी है.
मुलाकात की जो तीसरी खास बात रही वह राज्यसभा चुनाव था. राज्यसभा में भाजपा, बीएसपी और समाजवादी पार्टी दोनों का खेल बिगाड़ने की कोशिश में लगी है. बीजेपी ने राज्यसभा के लिए नौवां कैंडिडेट उतार दिया है, ऐसे में सीधा खतरा बसपा के उम्मीदवार को है, क्योंकि नरेश अग्रवाल और राजा भैया का खेमा बीजेपी उम्मीदवार को जिताने के लिए जुट गया है. उपचुनाव में हार के बाद भाजपा किसी भी कीमत पर इसका बदला राज्यसभा में लेना चाहेगी. इसे रोकने के लिए और बसपा के उम्मीदवार को जीताने के लिए दोनों ने रणनीति पर चर्चा की.
बहरहाल इस मुलाकात के बड़े राजनैतिक मायने हैं. यह मुलाकात भारत की राजनीति को बदल देने वाला है. यह सभी जानते हैं कि देश की सत्ता का रास्ता यूपी की 80 लोकसभा सीटों से होकर ही गुजरता है. 1993 में पहले भी दोनों मिलकर भाजपा को हरा चुके हैं, 2019 में अगर दोनों साथ आते हैं तो एक बार फिर विजय के रथ पर सवार होकर उड़ रही भाजपा धाराशायी हो सकती है. मायावती और अखिलेश मिलकर भाजपा के हार और अपनी जीत की इबारत लिख सकते हैं. वक्त और बहुजन समाज की यही मांग है.
गोरखपुर। गोरखपुर में सपा बसपा समर्थित उम्मीदवार प्रवीण निषाद ने भाजपा उम्मीदवार उपेंद्र दत्त शुक्ला को 21,961 वोटों से हरा दिया है तो वहीं फूलपुर में सपा प्रत्याशी नागेन्द्र सिंह पटेल ने भाजपा उम्मीदवार कौशलेन्द्र सिंह पटेल को 59,613 वोटों से हराया. उपचुनाव में मिली इस हार को भाजपा पचा नहीं पा रही है. भाजपा के लिए हार से बड़ा सदमा यह है कि वह वोटो की गिनती शुरू के बाद सिर्फ एक राउंड के अलावा बढ़त नहीं बना सकी. भाजपा दोनों ही सीटों पर लगातार पिछड़ती दिखी. वोटों की गिनती शुरू होने के बाद 12 बजे ही दोनों सीटों पर उलटफेर साफ दिखने लगा था. फूलपुर में शाम चार बजे तक भाजपा की हार साफ हो गई थी, लेकिन गोरखपुर को लेकर सस्पेंस कायम रहा.
वोटों की गिनती के दौरान गोरखपुर में डीएम की भूमिका भी काफी संदिग्ध रही. सपा के प्रवीण निषाद की लगातार बढ़त के बाद डीएम ने काउंटिंग स्थल से मीडिया को बाहर कर दिया, लखनऊ में इस खबर के पहुंचते ही विधानसभा और विधान परिषद में सपा और बसपा नेताओं ने जमकर हंगामा काटा और दोनों सदनों को चलने नहीं दिया. डीएम पर चुनाव नतीजों की घोषणा में देरी पर चुनाव आयोग ने रिपोर्ट मांगी है. बाद में चुनाव आयोग और मीडिया का दबाव बढ़ने पर डीएम को नतीजें घोषित करने पड़े. इन नतीजों से सपा और बसपा दोनों पार्टियों में खासा उत्साह है.
हालांकि गोरखपुर में जिस तरह से सपा उम्मीदवार की बढ़त की घोषणा को रोका गया, उससे मीडिया और आम जनता में योगी और गोरखपुर प्रशासन को लेकर काफी गुस्सा देखने को मिला है. एक वक्त तो यह लगा कि कहीं सपा का प्रत्याशी सरकार और प्रशासन की साजिश का शिकार नहीं हो जाए लेकिन मीडिया और सपा-बसपा के समर्थक आखिरी वक्त तक डटे रहे. इस जीत ने समाजवादी पार्टी और बसपा दोनों को यूपी में राजनैतिक संजीवनी दे दी है. तो वहीं गोरखपुर के राजा कहे जाने वाले मुख्यमंत्री योगी को उनके ही गढ़ में हराकर उनके सभी पैतरों को फेल कर दिया है.
मान्यवर कांशीराम की जयंती से एक दिन पहले गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के गठबंधन की जीत असल में बहुजन नायक को सच्ची श्रद्धांजली है. मान्यवर कांशीराम हमेशा यह चाहते थे कि बहुजन समाज एकजुट हो, क्योंकि उसकी एकजुटता ही उनकी ताकत है. उनका हमेशा से मानना था कि बहुजन समाज 100 में 85 है, इसलिए देश की सत्ता पर बहुजनों का शासन होना चाहिए.
जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी हिस्सेदारी जैसे नारे कांशीराम की इसी दूरदर्शिता को दिखाते हैं. असल में कांशीराम देश की राजनीति के गणित को समझ गए थे. वह यह जान गए थे कि देश का अगड़ा कहा जाने वाला समाज आखिर सालों तक सत्ता पर कैसे कब्जा कर के बैठा है. उन्हें यह अंदाजा हो गया था कि बहुजन समाज को जातियों में बांटकर ही देश का सवर्ण तबका इस देश की सत्ता पर कब्जा कर के बैठा है. उन्होंने उसी बिखरे हुए बहुजन समाज को जोड़ना शुरू किया और राजनीति के मुहावरे बदल दिए.
गोरखपुर और (गोरखपुर में शानदार प्रदर्शन) फूलपुर उपचुनाव की जीत इसलिए भी अहम है क्योंकि दोनों लोकसभा सीटें यह सीट पिछले काफी समय से भाजपा का गढ़ रही हैं. गोरखपुर की जीत बहुजन समाज की सबसे बड़ी जीत है. क्योंकि अघोषित तौर पर हिन्दुत्व का गढ़ बन गए गोरखपुर में यह जीत गोरनाथ मठ की सत्ता को सीधी चुनौती है. पिछले कई दशक से गोरखपुर पर इसी के महंथ का कब्जा रहा है. जाहिर है कि इस एक हार से भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व से लेकर राज्य नेतृत्व तक हिल गया है. इज्जत की अहम लड़ाई में अगर भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है तो इसके पीछे मान्यवर कांशीराम जी का बहुजनवाद का सिद्धांत है, जिसने अम्बेडकरवाद को हथियार बनाकर हिन्दुत्व को हरा दिया है.
गोरखपुर और फूलपुर की इस जीत ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को भी बड़ा संदेश दे दिया है. इस जीत से यह भी साफ हो गया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ बहुजन समाज ही हिन्दुत्व के रथ पर सवार भाजपा का रास्ता रोक सकती है. और जिस उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा सीटें जीतकर भाजपा केंद्र में सरकार बनाने में सफल रही है, उसे वहां सबसे ज्यादा खतरा है. बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी मिलकर आसानी से भाजपा का रास्ता रोक सकती हैं. उत्तर प्रदेश में दोनों ही पार्टियां फिलहाल हाशिए पर पड़ी हैं. उसे इससे बाहर निकलने का फार्मूला मिल गया है. उपचुनाव में बसपा प्रमुख मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मिलकर जो प्रयोग किया था, वह प्रयोग सफल रहा है.
इस जीत के बाद अब सबकी नजरें मायावती और अखिलेश यादव पर टिक गई हैं. अगर 2019 लोकसभा चुनाव में दोनों दल आपस में समझौता कर के चुनाव लड़ते हैं तो केंद्र से भाजपा की विदाई तय है. अपनी स्थापना से लेकर अब तक लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा के प्रदर्शन की बात करें तो 2009 में बसपा को 21 और सपा को 23 सीटें मिली थी. यह उनका सबसे बेहतर प्रदर्शन है. अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियां यूपी में 40-40 सीटों पर भी समझौता कर के चुनाव में उतरते हैं तो वो अपने इस बेहतर प्रदर्शन को दोहरा सकते हैं.
ब्रिटेन के मशहूर भौतिक विज्ञानी प्रोफेसर स्टीफन हॉकिंग का निधन हो गया है. वे 76 साल के थे. 1974 में ब्लैक हॉल्स पर असाधारण रिसर्च करके उसकी थ्योरी मोड़ देने वाले स्टीफन हॉकिन्स साइंस की दुनिया के बड़े नाम रहे हैं.
वे अपनी शारीरिक अक्षमता के बावजूद आज विश्व के सबसे बड़े वैज्ञानिक थे. उन्हें एमयोट्रॉफिक लैटरल सेलेरोसिस (amyotrophic lateral sclerosis) नाम की बीमारी थी. इस बीमारी में मनुष्य का नर्वस सिस्टम धीरे-धीरे खत्म हो जाता है और शरीर के मूवमेंट करने और कम्यूनिकेशन पावर समाप्त हो जाती है. स्टीफन हॉकिंग के दिमाग को छोड़कर उनके शरीर का कोई भी भाग काम नहीं करता था.
एलियन की दुनिया कैसी होती है, इसके बारे में उन्होंने काफी रिसर्च किया था. स्टीफन हॉकिंग ने अनुमान लगाया था कि ग्लोबल वार्मिंग और नए वायरसों के कारण संपूर्ण मानवता नष्ट हो सकती है. इनकी खोज की महत्वप का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी पीएचडी थीसिस को लाखों बार देखा गया है.
शरीर से जुड़े तमाम मुश्किलों के बीच उन्होंने काफी हिम्मत नहीं हारी. अपनी सफलता का राज बताते हुए उन्होंने एक बार कहा था कि उनकी बीमारी ने उन्हें वैज्ञानिक बनाने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की है. बीमारी से पहले वे अपनी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान नहीं देते थे लेकिन बीमारी के दौरान उन्हें लगने लगा कि वे लंबे समय तक जिंदा नहीं रहेंगे तो उन्होंने अपना सारा ध्याना रिसर्च पर लगा दिया.
उन्होंने एक बार कहा था- पिछले 49 सालों से मैं मरने का अनुमान लगा रहा हूं. मैं मौत से डरता नहीं हूं. मुझे मरने की कोई जल्दी नहीं है. उससे पहले मुझे बहुत सारे काम करने हैं.
स्टीफन किसी के भी हौंसले को उड़ान देने का जज्बा रखते थे. बच्चों को स्टीफन ने टिप्स देते हुए कहा था – पहली बात तो यह है कि हमेशा सितारों की ओर देखो न कि अपने पैरों की ओर. दूसरी बात कि कभी भी काम करना नहीं छोड़ो, कोई काम आपको जीने का एक मकसद देता है. बिना काम के जिंदगी खाली लगने लगती है. तीसरी बात यह कि अगर आप खुशकिस्मत हुए और जिंदगी में आपको आपका प्यार मिल गया तो कभी भी इसे अपनी जिंदगी से बाहर मत फेंकना.
नई दिल्ली। सपा से भाजपा में गए नरेश अग्रवाल का बड़बोलापन उनके लिए मुसीबत बन गया है. एक के बाद एक कई महिला नेताओं ने नरेश अग्रवाल द्वारा जया बच्चन को लेकर दिए बयान की निंदा की है. इसी क्रम में बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष और यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने नरेश अग्रवाल को जमकर लताड़ लगाई है. मायावती द्वारा जारी एक बयान में उन्होंने कहा कि भाजपा ज्वाइन करने वाले नरेश अग्रवाल ने सांसद और अभिनेत्री जया बच्चन पर टिप्पणी कर के महिला जगत का अपमान किया है. अपने इस महिला विरोधी बयान पर गलती मानते हुए अग्रवाल को देश से माफी मांगनी चाहिए.
भाजपा को निशाने पर लेते हुए बसपा प्रमुख ने कहा कि भाजपा के जिम्मेदार नेताओं के साथ पत्रकार वार्ता में महिला विरोधी टिप्पणी महिलाओं और देश को शर्मिंदा करने वाली है. भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इसे गंभीरता से लेना चाहिए था. बसपा प्रमुख ने कहा है कि “जया बच्चन एक सम्मानित नाम है और फिल्म जगत में उनके परिवार का भारी योगदान है. नरेश अग्रवाल की टिप्पणी की बसपा कड़े शब्दों में भर्त्सना करती है और देखेगी कि देश की सत्ताधारी पार्टी नरेश के असंसदीय विचारों को किस रूप में लेगी.”
इससे पहले अग्रवाल की टिप्पणी पर भाजपा नेता औऱ विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी नाराजगी जताते हुए ट्विट किया था. तो हरसिमरत कौर बादल ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि “एक महिला के खिलाफ जिस तरह का बयान दिया गया है, वह व्यक्ति के पालन-पोषण और सोच पर सवाल खड़ा करता है.”
कोलकात्ता। मोहम्मद शमी के क्रिकेट करियर पर लगे ग्रहण के बीच भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान एम.एस धोनी शमी के पक्ष में खड़े हो गए हैं. धोनी ने शमी का समर्थन करते हुए उन्हें एक बेहतरीन इंसान बताया. धोनी ने कहा है कि मोहम्मद शमी एक बेहतरीन इंसान हैं और वो ऐसे शख्स नहीं हैं जो अपनी पत्नी और अपने देश को धोखा दें. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक धोनी ने कहा कि ‘वह इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं बोलना चाहते, क्योंकि यह एक पारिवारिक मसला है और शमी की निजी जिंदगी से जुड़ा है. जहां तक मैं जानता हूं, शमी एक बेहतरीन इंसान हैं.
इधर दूसरी ओर कोलकाता में शमी की पत्नी हसीन जहां ने पत्रकारों से बातचीत के दौरान मीडियाकर्मियों के साथ बदसलूकी की. कोलकाता में सेंट. स्टेफन स्कूल पहुंची हसीन जहां के पास जब मीडियाकर्मी पहुंचे तो वह उनपर चिल्ला उठीं. इसी दौरान उन्होंने एक वीडियो कैमरा तोड़ दिया. कैमरा तोड़ने के बाद हसीन जहां अपनी एसयूवी में बैठकर वहां से चली गई.
गौरतलब है कि हसीन जहां ने अपनी पति मोहम्मद शमी पर कई तरह के आरोप लगाए थे. हसीन जहां ने इस मामले में पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई थी. मंगलवार को ही हसीन जहां को अपना बयान मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज करवाना है. दूसरी तरफ शमी लगातार अपने बचाव में बयान दे रहे हैं. मोहम्मद शमी ने बयान जारी कर कहा था कि वह अपनी पत्नी और उनके परिवार से इस मसले पर बात करना चाहते हैं.
हसीन जहां ने मो. शमी के खिलाफ कोलकाता के लाल बाजार पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई थी. पुलिस ने शमी और उनके परिवार के चार सदस्यों के खिलाफ आईपीसी की धारा 498A, 323, 307, 376, 506, 328 और 34 के तहत केस दर्ज किया है. इसमें घरेलू हिंसा के आरोप में भी केस दर्ज है. जिन मामलों में शमी पर केस दर्ज किया गया है, वह सभी गैर जमानती धाराएं हैं.
Senior Samajwadi Party leader and Rajya Sabha MP Naresh Agarwal join BJP
नृत्यांगना शब्द सभ्य समाज का आज एक सम्मानित शब्द है. पर विकृत-सामंती दिमागों ने हिंदी क्षेत्र में इसके लिए एक स्थानीय शब्द गढ़ा: ‘नचनिया’! कई बार शब्द अपना अर्थ और बोध बदलते हैं पर इस शब्द के साथ आज भी अपमान, हिकारत और ओछेपन का बोध जुड़ा हुआ है.
यूपी के ज्यादातर हिस्सों में सपा, भाजपा, कांग्रेस या इसी तरह की ज्यादातर पार्टियों में सामंती ऐंठन से भरे लोगों की भरमार है. ऐसे असभ्य और असंस्कृत लोग किसी अभिनेत्री या महिला नाट्य कर्मी के लिए अक्सर ‘नचनिया-गवनिया’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं. सिर्फ सियासत में ही नहीं, हमारे आम समाज में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है!
मुझे अच्छी तरह याद है, मेरे एक वरिष्ठ साथी की बेहद प्रतिभाशाली पुत्री जब नाटयकर्म में सक्रिय हुई तो कई ‘पढ़े-लिखे’ और अपने को ‘सभ्य समाज का हिस्सा’ समझने वाले उनके कुछ पड़ोसी और कुछेक मित्र भी कहते थे कि अमुक जी, अपनी बेटी को ‘नचनिया-गवनिया’ बनवा रहे हैं! ऐसी स्थिति आमतौर पर बंगाल, केरल, कर्नाटक या महाराष्ट्र जैसे अपेक्षाकृत सांस्कृतिक रूप से समुन्नत समाजों, खासकर उनके शहरी क्षेत्र में नहीं मिलेगी. इसलिए आज अगर सपाई से भाजपाई बना कोई कथित बड़ा नेता एक जमाने की यशस्वी अभिनेत्री को ‘नचनिया’ कहकर उनका अपमान करने की धृष्टता करता है तो इसके लिए हिंदी क्षेत्र के बड़े हिस्से की सामाजिक- सांस्कृतिक बनावट और राजनीति में सामंती दबदबे का सिलसिला भी जिम्मेदार है!
यह संयोग या अपवाद नहीं कि संस्कृति और राष्ट्रवाद के स्वघोषित ठेकेदारों को अपसंस्कृति और असभ्यता के ये प्रतीक-चरित्र पसंद आते हैं! कुछ समय पहले एक बड़ी महिला राजनीतिज्ञ को अपशब्द कहने वाले एक पार्टी पदाधिकारी की पत्नी को मंत्री बनाकर पुरस्कृत किया गया था. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे. और यह किसी एक पार्टी या सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं हैं. जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी अपसंस्कृति का फैलाव कुछ कम नहीं है.
ऐसी मानसिकता, सोच, संस्कृति और राजनीति के खिलाफ यूपी जैसे प्रदेशों में बहुत कम संघर्ष हुआ है. मंदिर-मस्जिद, लव-जेहाद, गौ-गुंडई से फुर्सत ही कहां है! इसी का नतीजा है कि असभ्य आचरण और अपशब्दों के लिए विवादास्पद हो चुके चरित्रों को भी आज कोई बड़ी पार्टी बड़ी बेशर्मी से माला पहनाकर अपने साथ जोड़ लेती है!
क्रिकेटर शमी के जिले अमरोहा से हूँ और जहाँ तक मैं जानता हूँ उन्होंने परिवार की मर्जी के बिना हसीन जहां से शादी की थी. ये ठीक उस तरह से था कि बेटा इतने बड़े मुकाम पर पहुँच गया तो उसका लिया हर फैसला सही होगा.
शमी उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले के सहसपुर अलीनगर जैसे छोटे गाँव से निकले, फिर मुरादाबाद पहुँचे वहाँ घण्टो बदरुद्दीन सर के अंडर में पसीना बहाते जी तोड़ मेहनत करते.. मुरादाबाद मंडल के आस पास के क्षेत्र का कोई कोई स्टेडियम, गांव, कस्बे का मैदान उनसे शायद ही अनछुआ रहा हो. किस्मत आगे ले गयी कोलकत्ता पहुँचे, वहाँ से रणजी फिर भारतीय क्रिकेट टीम का सफर.
फिर हमारे जिले के अखबार के लोकल संस्करण में शमी की गांव वाली पिच से लेकर खेत खलिहान और बचपन तक की तस्वीरेँ अखबार में छप गयीं थी. जिले के घर घर में शमी की चर्चाएं थी. पहले दिन टीवी पर आते ही आतिशबाजियां शुरू हुई.. मुझे याद है वो दिन जब वो इंडियन टीम के दौरे से वापस गांव आये तो मीडिया ने उनके ऐसे देसी अंदाज को कैप्चर किया जैसे उनके घर के साधारण से बाथरूम से तोलिया लपेटकर नहाकर निकलने वाली तस्वीर.. हम सब बड़े गौर से उस खबर को पढ़ रहे थे क्योंकि ये बन्दा जमीनी था मिट्टी से जुड़ा.. जो अपने जैसा लगा.
उसके 3 साल बाद हमारे कॉलेज तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी, मुरादाबाद में यूपी vs मध्यप्रदेश का रणजी मैच हुआ तब मैच के आखिरी दिन शाम को अचानक से शमी को देखकर सब चौंक गए. उस वक़्त शमी भारतीय क्रिकेट टीम की ओर से खेल रहे पर ऑफ सेशन में अपने घरवालों से मिलने गांव आए थे जिसमें उन्होंने रणजी खिलाड़ियों से मिलने का भी सोचा तो इस तरह उनकी अचानक एंट्री ने क्राउड में भी गर्मी पैदा कर दी थी. पर शमी की सिम्पलिटी इतनी थी की शमी साधारण सी पेंट, टी-शर्ट और 100 रुपए वाले रिलेक्सो के चप्पल में आ गए थे. ये उस दौर में था जब ब्रांड शमी के आगे पीछे घूमते.. पर वे ऐसे आए जैसे घर से कुछ दूर के कॉलेज में कोई यूँही घूमने निकल आया हो.
फिर मुझे वो दौर भी याद है जब उनकी बीवी को ट्रोलर ने घेरा और भद्दे-भद्दे कमेंट किये तब शमी खुलकर सामने आए और अपनी पत्नी के पक्ष में ऐसी तस्वीर पोस्ट की जिसके बाद सब के मुंह बंद हो गए. शमी की बीवी को धोनी की बीवी, रोहित की बीवी व अन्य क्रिकेटरों की बीवी के साथ स्टेडियम में समान वरीयता के साथ टीवी पर अक्सर देखा जा चुका है. वे अपनी बीवी और बिटियां के साथ तस्वीरेँ पोस्ट करते रहते ही थे.
सुनने में यह भी आया कि हसीन की वजह से शमी ने कोलकत्ता में लिए घर में रहना शुरू कर दिया था. शमी के पारिवारिक गाँव के लोग, उनका कल्चर उनकी मॉडल बीवी को रास नहीं आता था. जिसके कारण वो गांव की जगह या तो मुरादाबाद रहते या फिर कोलकत्ता.. कुल मिलाकर महान बेटा परिवार से दूर होता गया.
1 वर्ष से ज्यादा वक्त बीत गया जब उनके पिताजी की तबियत बहुत बिगड़ी और वो 60 की उम्र के आस पास चल बसे. न जाने यह सदमा बेटे से दूर रहने का था या ऊपर वाले को उनको बुलाना था.. पर कहीं न कहीं हसीन का रोल हर जगह था.
शमी के छोटे भाई लोकल में हमारे दोस्तों के साथ क्रिकेट खेले हैं. हमारे कस्बें में कई बार उनका आना जाना रहता.. जब शमी भाई के बारे में पूछते तो सहम जाते और बस इतना बोलते की शमी भाई मेरे लिए खर्च भिजवा देते हैं.. बाकी वो बहुत व्यस्त रहते समय कम मिल पाता हमारे लिए! जो दबी हुई टीस थी उनके भाई ने कभी हमारे सामने नहीं खोली.
क्या एक महान खिलाड़ी का टेलेंटेड भाई लोकल में क्रिकेट खेलने लायक था? बंगाल से लेकर मुम्बई, बैंगलोर, चंडीगढ़ कोई अकादमी शमी के लिए ज्यादा न थी. पर इन सब जगह इन सब दूरियों में हसीन जहां का रोल पूरा था.
…और आज शमी को क्या मिला, उस बीवी ने सरेआम इज्जत उतारने में एक बार ना सोचा कि वो क्या करने जा रही है और शमी के करियर उनके स्टारडम सबको धूल में मिलाने से पहले उसने एक बार नहीं सोचा की इस बात को शमी के परिवार और खुद के परिवार वालो को पहले बताना चाहिए. शमी से खुद हर बात, चैट, पिक्चर को लेकर खुलकर आमने-सामने क्लियर बात करनी चाहिए थी. कुछ तो सब्र रखती.. तब मीडिया में हल्ला मचातीं.
4 दिन पहले साथ मे होली खेली, इंडिया टीवी को इंटरव्यू देते हुए अपने पति की तारीफें करते हुए मुँह नहीं थक रहा था.. फिर ऐसा न जाने क्या हो गया उन चार दिनों में जो शमी को दुनिया के सामने विलेन बना दिया. शमी लाख बुरे सही, ये सारी गलतियां हो सकती हैं उनकी पर एक बार शमी से इस मामले में बात तो करती..पहले अपने घर वालों, रिश्तेदारों से तो बात करती इस बारे में. उसने शमी की इज्जत उतारने में कोई कमी नहीं छोड़ी, उससे जितना हो रहा है वो कर रही है.
शमी अपनी गलती पर पछतावा भी कर रहा होगा और रो भी रहा होगा.. पर हसीन की इतनी बेरुखी जो शमी के सुनहरे क्रिकेट करियर को बर्बाद कर गयी, ये नासूर सा दर्द है.
हसीन ने शमी के बड़े भाई पर बलात्कार का आरोप, घर वालों पर नींद की गोली देकर मार देने का आरोप और न जाने कितने खतरनाक आरोप शमी पर लगा दिए जिसमें शमी के घर के 4 सदस्यों जिनमें उनकी माँ तक हैं उनके नाम तक की रिपोर्ट दर्ज कराई गई है जिसके जवाब में बोली कि पिछले 3 साल से मैं यह सब सह रही थी. वो औरत यहाँ भी नहीं रुकी उसने शमी पर देश से गद्दारी करने, फिक्सिंग करने जैसे बेबुनियाद आरोप तक लगा दिए.. अपने गुस्से में नीचता की हद पार कर दी.
इस देश मे औरत जो बोले वही सच है बाकी सब बेबुनियाद. वैसे इस देश में रेप, उत्पीड़न, दहेज, मारपीट जैसे आरोपों का दुरुपयोग कोई नया नहीं है… हसीन जहाँ भी जमकर फायदा उठा रही है शायद उस भड़ास को निकाल रही जो शादी होने के बाद उसे मॉडलिंग की गलियों तक न ले जा पायी, जहाँ शमी ऊंचाइयों के आसमान छू रहे थे तो ये घर, बच्ची और शमी को सम्हाल रही थी जो इसे रास न आया. पहले पति और अपनी 2 लड़कियों को 2010 में छोड़ा. अब कुछ दिन बाद दूसरे पति शमी की इज्जत को भी नीलाम करके 50 करोड़ का तलाक फिक्स करके एक्टिंग, मॉडलिंग में चली जायेगी. कुल मिलाकर हसीन जहां जीत गयी. शमी हार गया.
मुझे पता था वो भटक कर सहसपुर गांव ही आएगा माँ के आँचल में रोने को… हुआ भी वही. घटना के दो दिन बाद शमी अपने गाँव वाले घर था जिसे भूलने लग गए थे उस हसीन के कारण… पर माँ तो माँ होती और बीवी बीवी. पर देखा उन बड़े-बड़े सुपर स्टार क्रिकेटरों का जलवा भी जो शमी के पक्ष में 2 लफ्ज बोलने के सिवाय सिर्फ अपने सलेक्शन को समेटते रहे और BCCI तो बहुत ही गजब.. आरोप सिद्ध होने से पहले टॉप के बॉलर के टीम से सम्बंध ही खत्म कर दिए.
खैर शमी तुम हमारे देश भारत, हमारे जिले अमरोहा के सितारे थे, हो और रहोगे.
नई दिल्ली। फादर पीटर पॉल एक्का का इस तरह अचानक चले जाना आदिवासी साहित्य के लिए एक बड़ी क्षति है. 12 मार्च को सुबह करीब 10 बजे के आसपास गौहाटी से रांची आते हुए रास्ते में निधन हो गया. आप इंसानियत, साफगोई और सरलता की मिसाल थे. उन्होंने ‘जंगल के गीत’, ‘पलाश के फूल’, ‘सोन पहाड़ी’, और ‘मौन घाटी’ जैसे उपन्यास तथा ‘खुला आसमान बंद दिशाएं’, ‘राजकुमारों के देश में’, ‘परती जमीन’ और ‘क्षितिज की तलाश में’ जैसे कहानी संकलन लिखा. ये सारी रचनाएं हिन्दी आदिवासी साहित्य की समृद्ध धरोहर हैं.
फादर एक्का लंबे समय तक संत जेवियर कॉलेज, रांची के वाईस प्रिंसिपल रहे तथा वर्तमान में संत जेवियर कॉलेज, गुवाहाटी के वाइस प्रिंसिपल थे. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के एम.ए.-हिंदी (पत्राचार) की पाठ्यक्रम समिति में सदस्य होने के चलते मैंने फादर के उपन्यास ‘जंगल के गीत’ को कोर्स में शामिल करने का प्रस्ताव दिया, जिसे पाठ्यक्रम संयोजक डॉ पुरंदर दास जी ने तुरंत स्वीकार कर लिया. पाठ्यक्रम के सिलसिले में पुरंदर जी की जब भी पीटर साहब से बात हुई, उन्होंने काफी उत्साह और विनम्रता के साथ सहयोग किया. ऐसे शानदार लेखक और उम्दा इंसान के इस तरह चले जाने का सचमुच बहुत दुःख है. आपको भावभीनी जोहार…! जय भीम… !