सोनिया गांधी को लगा बड़ा झटका

लखनऊ। कांग्रेस का गढ़ मानी जाने वाली रायबरेली सीट से उसके 3 कद्दावर नेताओं ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया है. कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं में एक एमएलए राकेश प्रताप सिंह, एक एमएलसी दिनेश प्रताप सिंह और एक जिला पंचायत चेयरमैन अवधेश प्रताप सिंह शामिल हैं. ये तीनों नेता भाई हैं. तीनों नेताओं का आरोप है कि पार्टी नेतृत्व द्वारा उनकी ओर समुचित ध्यान नहीं दिए जाने के कारण वे पार्टी छोड़ रहे हैं.

कांग्रेस छोड़ने वाले एमएलसी दिनेश प्रताप सिंह ने कहा कि फिलहाल वह और उनके परिवार के अन्य सदस्य अब कांग्रेस के साथ नहीं हैं और सभी लोग मिलकर आगे की रणनीति तय करेंगे. रायबरेली लोकसभा सीट कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी की पारंपरिक सीट रही है. अहम बात यह है कि अवधेश प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अकेले जिला पंचायत चेयरमैन थे. ऐसे में, अवधेश प्रताप सिंह के पार्टी छोड़ने के बाद अब उत्तर प्रदेश में पार्टी का एक भी जिला पंचायत चेयरमैन नहीं होगा. इसके अलावा, अब कांग्रेस के राज्य में सिर्फ एक एमएलसी और सिर्फ 6 एमएलए बच गए हैं.

चर्चा यह भी है कि ये तीनों भाई भाजपा ज्वाइन कर सकते हैं. भाजपा की चुनावी रणनीति तोड़ने की रही है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यही किया था. उस दौरान भाजपा ने अपने-अपने क्षेत्र में मजबूत पकड़ रखने वाले उन सभी नेताओं को उनकी पार्टी से तोड़ कर भाजपा में मिला लिया जो टूट सकते थे. इस कड़ी में दर्जनों नाम लिए जा सकते हैं. लगता है भाजपा ने यही फार्मूला राहुल गांधी और सोनिया गांधी के संसदीय सीटों के लिए भी अपना लिया है.

भाजपा के भीतर से फिर योगी के खिलाफ बगावती सुर

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नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के ऊपर लगे रेप के आरोप, इस मामले पर मुख्यमंत्री योगी की चुप्पी और योगी से मिलने के बाद सेंगर का मुस्कुराना जैसी घटनाएं भाजपा नेताओं को ही खलने लगी है. इस पूरे मामले में यूपी की योगी सरकार की भूमिका से पार्टी के कई नेता बेचैनी महसूस कर रहे हैं. आलम यह है कि ये नेता योगी को हटाने तक की वकालत कर रहे हैं.

बीजेपी की मीडिया सेल की सदस्य दीप्ति भारद्वाज ने उन्नाव रेप केस के मामले में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से यूपी को बचाने की गुहार लगाई है. दीप्ति ने ट्वीट कर कहा है कि यूपी सरकार के फैसले शर्मसार कर रहे हैं और ये कलंक कभी नहीं धुलेंगे. अपने ट्विट में दीप्ती ने लिखा, “आदरणीय भाई अमित शाह जी, उत्तर प्रदेश को बचा लीजिए, सरकार के निर्णय शर्मसार कर रहे हैं. ये कलंक नहीं धुलेंगे. आदरणीय भाई नरेंद्र मोदी जी और आपके साथ हम सबके सपने चूर-चूर होंगे.” एक अन्य ट्वीट में मीडिया सेल की सदस्य ने कहा है कि उत्तर प्रदेश में अचानक जो भी घटनाक्रम हुए हैं, वे दुर्भाग्यपूर्ण हैं और इससे संगठन की 2019 की योजना पर पानी फिर जाएगा.

गौरतलब है कि उन्नाव की रेप पीड़िता ने विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के ऊपर रेप का तो वहीं उनके भाई अतुल सिंह सेंगर के ऊपर पिता की पिटाई करने का आरोप लगाया है. इस पिटाई में पीड़िता के पिता की मौत हो गई थी. फिलहाल पुलिस ने अतुल सिंह सेंगर को गिरफ्तार कर लिया है, लेकिन कुलदीप की गिरफ्तारी अभी तक नहीं हुई है.

आरटीआई से खुलासा, 19 लाख मशीनें गायब

नई दिल्ली। सूचना के अधिकार (RTI) के तहत मांगी गई जानकारी में ईवीएम सप्लाई करने वाली दो कंपनियों और चुनाव आयोग के आंकड़ों में बड़ी असमानता सामने आई है. आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक कंपनियों ने जितनी मशीनों की आपूर्ति की है और चुनाव आयोग को जितनी मशीनें मिली हैं उनमें करीब 19 लाख का अंतर है.

यह आरटीआई मुंबई के एस रॉय ने लगाई थी. इसके जवाब में जो जानकारी उन्हें मिली उसमें ईवीएम की खरीद-फरोख्त में गंभीर बेमेल देखने को मिला है, इससे पता चलता है कि यह एक बड़ी गुत्थी है, जो उलझती जा रही है. असल में चुनाव आयोग (EC) दो सार्वजनिक क्षेत्र के ईवीएम आपूर्तिकर्ताओं इलेक्ट्रानिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (ECIL), हैदराबाद और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (BEL), बेंगलुरु से ईवीएम खरीदता है. हालांकि दोनों कंपनियों और ईसी द्वारा RTI में दिए गए आंकड़े में बड़ा अंतर सामने आया है.

रॉय के मुताबिक 1989-1990 से 2014-2015 तक के आंकड़ों पर गौर करें तो चुनाव आयोग का कहना है कि उन्हें बीईएल से 10 लाख 5 हजार 662 EVM प्राप्त हुए. वहीं बीईएल का कहना है कि उसने 19 लाख 69 हजार 932 मशीनों की आपूर्ति की. दोनों के आंकड़ों में 9 लाख 64 हजार 270 का अंतर है. दूसरी ओर ठीक यही स्थिति ECIL के साथ भी रही, जिसने 1989 से 1990 और 2016 से 2017 के बीच 19 लाख 44 हजार 593 ईवीएम की आपूर्ति की. लेकिन चुनाव आयोग ने कहा कि उन्हें केवल 10 लाख 14 हजार 644 मशीनें ही प्राप्त हुईं. यहां 9 लाख 29 हजार 949 का अंतर रहा. अब रॉय ने बॉम्बे हाईकोर्ट से पूरे मामले की जांच की मांग की है.

जयंती विशेषः ज्योतिबा फुले के जीवन की इन 10 बातों को जानना बेहद जरूरी

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देश भर में 11 अप्रैल को राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले की जयंती पूरा बहुजन समाज धूमधाम से मनाता है. ज्योतिबा फुले महान भारतीय विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी थे. महिलाओं में शिक्षा के प्रसार और महिला सुधार के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया. बाबासाहेब अम्बेडकर भी ज्योतिबा फुले को अपना गुरू मानते थे. उनकी जयंती के मौके पर हम आपको ज्‍योतिबा फुले के जीवन से जुड़ी उन 10 बातों को बताते हैं, जिसे जानना सबके लिए जरूरी है. 1. ज्‍योतिबा फुले का जन्‍म 11 अप्रैल 1827 को पुणे में हुआ था. वह माली समाज से थे. वह स्त्रियों की दशा सुधारने के पक्षधर थे. साथ ही दलितों के साथ होने वाले भेदभाव के घोर आलोचक थे. 2. ज्योतिबा ने 21 साल की उम्र में अंग्रेजी की सातवीं क्‍लास की पढ़ाई पूरी की. दरअसल उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई मराठी में की, लेकिन फिर लोगों द्वारा यह कहने पर की स्कूल जाने से बेटा बेकार हो जाएगा, पिता ने ज्योतिबा को स्कूल से निकाल दिया. बाद में फिर से पढ़ाई की अहमियत समझ में आने पर उन्होंने ज्योतिबा को पढ़ाना शुरू किया. 3. साल 1840 में वे सावित्री बाई के साथ शादी के बंधन में बंध गए. ज्योतिबा स्त्री और पुरुष दोनों को समान मानते थे. इसलिए उन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारने और समाज में उन्‍हें पहचान दिलाने के लिए 1854 में एक स्‍कूल खोला. यह देश का पहला ऐसा स्‍कूल था जिसे लड़कियों के लिए खोला गया था. 4. समाजसेवा के काम में सक्रिय होने के बाद ज्योतिबा फुले ने महिला शिक्षा के लिए काम करना शुरू हुआ. महिला शिक्षा और दलितों के पक्ष में बोलने के कारण उनके पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया था. तो वहीं ज्योतिबा दलितों के साथ भेदभाव के घोर विरोधी थे. उन्होंने उनके लिए अपने घर के पानी की टंकी भी खोल दी. नतीजतन उन्‍हें जाति से बहिष्‍कृत कर दिया गया. 5. समाज के निम्‍न तबकों, पिछड़ों और दलितों को न्‍याय दिलाने के उद्देश्य से ज्‍योतिबा फुले ने ‘सत्‍यशोधक समाज’ की स्‍थापना की. सत्‍यशोधक समाज के संघर्ष की बदौलत ही सरकार ने एग्रीकल्‍चर एक्‍ट पास किया. 6. ज्योतिबा फुले ने उन्‍होंने विधवा विवाह का समर्थन और बाल विवाह का जमकर विरोध किया. उन्होंने बिना ब्राह्मण शादी को बॉम्‍बे हाईकोर्ट से मान्‍यता दिलवाई. 7. साल 1873 में ज्‍योतिबा फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ प्रकाशित हुई. यह पुस्तक आज भी बहुजन आंदोलन की प्रमुख किताबों में शामिल है. माना जाता है कि इस पुस्तक में बताए गए विचारों के आधार पर दक्ष‍िण भारत में कई आंदोलन चले. ‘गुलामगिरी’ के अलावा ज्योतिबा फुले ने ‘तृतीय रत्‍न’, ‘छत्रपति शिवाजी’, ‘राजा भोसले का पखड़ा’, ‘किसान का कोड़ा’ और ‘अछूतों की कैफियत’ जैसी कई किताबें लिखीं. 8. विधवा महिलाओं के कल्याण के लिए ज्योतिबा ने पत्नी सावित्रीबाई के साथ मिलकर काफी काम किया. उस दौर में गर्भवती विधवा स्त्रियों के सामने जान दे देने के अलावा और कोई उपाय नहीं था. फुले ने उनके लिए भी अलग से रहने की व्यवस्था की. 9. उन्होंने एक गर्भवती विधवा ब्राह्ण स्त्री के गर्भ से जन्मे बच्चे यशवंत को गोद लिया और उसे पढ़ा लिखाकर डॉक्टर बनाया. बाद में फुले दंपत्ति ने यशवंत को अपना उत्तराधिकारी बनाया. 10. उनकी समाज सेवा से प्रभावित होकर 1888 में मुंबई में एक सभा में उन्‍हें ‘महात्‍मा’ की उपाधि दी गई. महात्‍मा ज्‍योतिबा फुले ने 63 साल की उम्र में 28 नवंबर 1890 को पुणे में अपने प्राण त्‍याग दिए.

मोदी यह समझ लें दलितों को अब दबाया नहीं जा सकताः मायावती

नई दिल्ली। 2 अप्रैल को भारत बंद के बाद उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में दलितों को साजिशन जेल में डालने के खिलाफ बसपा प्रमुख मायावती ने मोर्चा खोल दिया है. दिल्ली में जारी एक बयान में भाजपा सरकार पर हमला बोलते हुए मायावती ने कहा कि ‘‘भारत बन्द” की आड़ में बाबा साहेब डा. भीमराव आम्बेडकर के अनुयायियों पर जुल्म करने वाली बीजेपी व उसकी सरकारों को बाबासाहेब की जयंती मनाने का कोई हक नहीं है.

बसपा प्रमुख ने कहा कि भाजपा एक ओर बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का नाम लेने की नाटकबाजी करती है तो दूसरी ओर उनके करोड़ों अनुयायियों पर जुल्म करने और उनके संवैधानिक अधिकारों को छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ती है. पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा है कि दलित समाज के लोग यह जान गये हैं कि बीजेपी एण्ड कम्पनी के शासन में उन्हें गुलामी से मुक्ति तथा समता व न्याय का जीवन कभी भी नहीं मिल सकता है. इसलिए अब वो लोग अपनी सत्ता हासिल करने को लेकर गंभीर हैं.

उन्होंने कहा है कि नरेन्द्र मोदी को अम्बेडकर की जयंती मनाने का नैतिकता अधिकार तभी हो सकता है जब वो पहले सरकारी कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण देने संबंधी राज्यसभा में पारित संविधान संशोधन विधेयक को लोकसभा से भी पारित करवाएं.

बसपा प्रमुख ने कहा कि बाबा साहेब की असली पहचान उनके करोडों अनुयायियों के दुःख-दर्द, सुख-चैन, उनकी जातिवाद से मुक्ति तथा उनके कल्याण से पूरी तरह से जुड़ी हुई है. इसी के लिए वे जीवन भर संघर्षरत रहे. इसकी उपेक्षा व अनदेखी करके कोई भी सरकार सही मायने में “कल्याणकारी सरकार’’ हो ही नहीं सकती है. ऐसी सरकार हमेशा गरीब, मजदूर व जनविरोधी ही कहलायेगी क्योंकि वे ही बहुसंख्यक हैं और असली भारत हैं.

मेरठ के शोभापुर गांव में 70 फीसदी दलितों पर एफआईआर

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शोभापुर गांव में पसरा सन्नाटा

मेरठ। दो अप्रैल को दलितों के बंद के बाद मेरठ और हापुड़ में स्थिति काफी खतरनाक हो गई है. स्थानीय लोगों का आरोप है कि पुलिस देर रात घर में घुसकर पुरुषों को उठाकर ले जा रही है. कई लोगों को झूठे मामले में भी फंसाने की शिकायत है. इसको लेकर मेरठ में महिलाओं ने प्रदर्शन कर अपना विरोध जाहिर किया था. इस बीच मेरठ के शोभापुर गांव में रहने वाले दलित गिरफ्तारी और हत्या के डर से अपने घर छोड़कर पलायन कर रहे हैं.

इन्हें डर है कि एससी/एसटी एक्ट में बदलाव के विरोध में बंद के दौरान हुई हिंसा से जुड़े मामलों में झूठे तरीके से फंसाया जा सकता है. गांव के करीब 2000 पुरुष और लड़के यहां से पलायन कर गए हैं. इन सभी को आशंका है कि अगर वे अपने घरों पर रहे तो या तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा या हत्या कर दी जाएगी. उनका कहना है कि दलित होने की वजह से उन्हें पलायन करना पड़ा है.

2 अप्रैल को मेरठ में हिंसक घटनाओं के बाद पुलिस पर दलितों के उत्पीड़न के आरोप लग रहे हैं. गांव में दलितों के घरों के दरवाजों पर ताले लटके हुए हैं और दुकानों के शटर गिरे हुए हैं और स्कूलों के दरवाजे बंद हैं. गांव में पसरा सन्नाटा साफ नजर आता है.

गौरतलब है कि 2 अप्रैल को मेरठ में दलितों के विरोध प्रदर्शन के दौरान शोभापुर से भी दंगे और आगजनी के मामले रिपोर्ट हुए थे. इसके अगले दिन ही गांव के एक दलित युवक गोपी की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी जिसका आरोप दूसरे समुदाय के लोगों पर लगा. पुलिस लिस्ट में ऐसे कई लोगों के भी नाम हैं जो कथित तौर पर हिंसा वाले दिन मौके पर मौजूद ही नहीं थे. उन्हें भी आरोपी बना दिया गया है. कई लोग इस बाबत सबूत लेकर पुलिस वालों को बता रहे हैं लेकिन पुलिस उनकी बात सुनने को तैयार नहीं है.

दो अप्रैल के भारत बंद पर कांचा इलैया की टिप्पणी

दो अप्रैल को दलितों द्वारा किए गए भारत बंद के दौरान युवा

दो अप्रैल के भारत बंद का आह्वान गैर-राजनैतिक दलित समूहों ने किया था. इसने हिंदी पट्टी में हमेशा से शोषित रहे दलित समुदाय की लामबंदी की नई क्षमताओं का परिचय दिया. अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए उनके संघर्ष ने नरेंद्र मोदी के शासनकाल में एक नया आयाम लिया है जो उनके नारे “सबका साथ, सबका विकास” के मिथक को छिन्न-भिन्न करता है.

जब से भाजपा हिंदी पट्टी और पश्चिमी प्रांतों में सत्ता में आई तब से दलितों की समस्याएं शुरू हो गईं. प्रधानमंत्री खुद के अन्य पिछड़ा वर्ग से होने का दावा करते हैं पर दलितों के शैक्षणिक-आर्थिक अवसरों की रक्षा की दिशा में उन्होंने कुछ खास नहीं किया. ऐसा इसलिए क्योंकि भाजपा अकेले सरकार चला ही नहीं सकती. सरकारी व्यवस्था असल में आरएसएस की मातृछाया में चल रही है.

आरएसएस और भाजपा ने हिंदीपट्टी और पश्चिमी भारत के हर ढांचे में अपने तंत्र को मजबूत कर रखा है क्योंकि यही उनका मुख्य कार्यक्षेत्र रहा है. दशकों तक उसने अपने सवर्ण कैडर को वर्णधर्म का प्रशिक्षण दिया है. उसने कैडर को सिखाया है कि हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए छुआछूत का बने रहना भी जरूरी है. आरएसएस का दलित/आदिवासी/ओबीसी के साथ मित्रवत रहने का कोई सांस्कृतिक इतिहास है ही नहीं. इसने केवल व्यापारी, पुजारी, साधु, संन्यासी और गाय के आर्थिक व सांस्कृतिक उत्थान के लिए ही प्रयास किए हैं. इसका साहित्य मजदूर के लिए सम्मान की बात करता ही नहीं.

एक संगठन के रूप में इसने न तो कृषक वर्ग के बारे में अध्ययन किया है और न ही उनकी भलाई के लिए कोई कार्य, क्योंकि इनके हिंदू मातृभूमि साहित्य/सांस्कृतिक इतिहास में कृषक वर्ग को कभी शामिल ही नहीं किया गया. “हिंदू मातृभूमि” की इनकी परिभाषा में शूद्र के लिए कोई खास स्थान नहीं है. सिर्फ द्विज—ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय” ही इसमें स्थान और सम्मान पाते हैं.

उत्तर भारतीय शूद्र/दलितों ने ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन देर से छेड़ा है. इससे पहले कि आरएसएस जैसी एक संगठित ब्राह्मणवादी ताकत दक्षिण भारत में अपनी घुसपैठ मजबूत करती, सामाजिक सुधारों के प्रयास शुरू हुए और इसीलिए ज्यादा सहजता से हो गए. हालांकि जातिवाद और छुआछूत अब भी इधर देखने को मिल जाते हैं.

आरएसएस का हिंदू राष्ट्र का एजेंडा एक समाज-सुधार विरोधी एजेंडा है. इस एजेंडे में जाति के मकडज़ाल में फंसे “हिंदुत्व” के सुधार का कोई एजेंडा नहीं दिखता. बस यह भारतीय इस्लाम को सुधारने के लिए ही उतावला दिखता है. उनके “अपने हिंदू समाज” में वे सभी सुधारवादी कानूनों को पलटने के लिए लालायित दिखते हैं.

20 मार्च, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के एससी/एसटी प्रताडऩा कानून पर आए फैसले ने जता दिया कि केंद्रीय कानून मंत्रालय में क्या चल रहा है. हिंदुत्व बिरादरी में इस बात पर आम सहमति है कि आरक्षण से जुड़े सभी कानूनों की समीक्षा की जरूरत है.

इंदिरा गांधी से उलट मोदी लोगों से किए अपने वादे पूरे करने के लिए प्रशासन पर सख्ती नहीं करा सकते. पार्टी और उनके मंत्री उनके नियंत्रण में नहीं हैं, वे आरएसएस के हाथों की कठपुतली बने हैं. सो उनकी अपील “यदि मारना ही चाहते हो तो मुझे मार दो, पर मेरे दलित भाइयों को मत मारो” का भाजपा/आरएसएस के दलित विरोधी सोच पर कोई असर नहीं हुआ.

हिंदी पट्टी में आज पहले से ज्यादा दलित मारे जा रहे हैं. आरएसएस की गोरक्षा नीति दलित दमन की नीति बन गई है. दलित महसूस कर रहे हैं कि गोरक्षा के नाम पर दलित/आदिवासी की पशुधन आधारित अर्थव्यवस्था और खाद्य संसाधनों को नष्ट किया जा रहा है.

दलित छात्रों में आरक्षण और छात्रवृति छिन जाने का डर रहता है और वे उच्च शिक्षण संस्थानों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को लेकर भयभीत रहते हैं. इसी भय ने इस नई लामबंदी को संभव किया है. इसे भारत का दलित वसंत कहिए.

इस आलेख के लेखक कांचा इलैया शेफर्ड टी-मास, तेलंगाना के अध्यक्ष हैं. साभार- आज तक

एडमिशन फॉर्म में हरियाणा सरकार ने पूछा जाति और आरक्षण पर सवाल

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हरियाणा में स्कूलों में एडमिशन के लिए जो फॉर्म बच्चों को दिये जा रहे हैं उनमें मांगी गईं जानकारियां बेहद ही हैरान कर देने वाली हैं. एडमिशन फॉर्म में तकरीबन 100 तरह के सवाल पूछे गए हैं, जिसमें बच्चों की जाति, धर्म और यहां तक की आरक्षण के बारे में पूछा गया है. इस खबर के सामने आने के बाद हंगामा मच गया है.

जरा स्कूल में दाखिले के लिए मिलने वाले फॉर्म के सवालों को देखिए. इसमें पूछा गया है कि क्या माता-पिता किसी भी ‘अस्वच्छ’ व्यवसाय में शामिल हैं? क्या वो आनुवांशिक विकारों से पीड़ित हैं? बच्चों से माता-पिता का आधार नंबर, पैन नंबर, उनका पेशा और पढ़ाई के बारे में भी सवाल किया गया है. और तो और बच्चों से धर्म, जाति और आरक्षण को लेकर भी सवाल पूछे गए हैं. फॉर्म में आधार की जानकारी तो अनिवार्य भी कर दी गई है.

सरकारी स्कूल में एडमिशन के लिए फॉर्म में इस तरह की जानकारियां मांगने के बाद से हरियाणा की मनोहर खट्टर सरकार सवालों के घेरे में आ गई है. विपक्षी नेताओं ने इस मुद्दे पर हरियाणा सरकार को घेरा है. कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ट्वीट कर स्कूलों में प्रवेश के लिए आधार अनिवार्य होने पर सवाल उठाया है. रणदीप सुरजेवाल ने कहा है कि 100 सवालों का फॉर्म क्यों जारी किया गया है? सुरजेवाला ने कहा है कि यह फॉर्म छात्रों के अभिभावकों पर निगरानी रखने जैसा है. उन्होंने हरियाणा सरकार से तत्काल इस आदेश को वापस लेने की और बच्चों के माता-पिता से माफी मांगने की मांग भी की है.

अपने ही नाम वाले विश्वविद्यालय में जेल में बंद है बाबासाहेब की प्रतिमा

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किसी हस्ती को लेकर कोई व्यक्ति या संस्थान कितना द्वेष रखता है, यह लखनऊ के बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रशासन ने साबित कर दिया है. डॉ. अम्बेडकर के नाम से यह देश का इकलौता ऐसा अनोखा संस्थान है, जिसने डॉ. अम्बेडकर को ही कैद कर रखा है. जी हां, इस विश्वविद्यालय में बाबासाहेब की दो प्रतिमाएं हैं, जिसे विश्वविद्यालय प्रशासन ने चारो तरफ से घेर कर उसकी तालेबंदी कर रखी है. विश्वविद्यालय का यह काम जितना शर्मनाक है, इसको लेकर उसका तर्क भी उतना ही हास्यास्पद है. यहां के बहुजन छात्रों के मुताबिक प्रशासन का कहना है कि मूर्ति को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए और पक्षी उसे गंदा न कर दें इसलिए उसे लोहे की चहारदीवारी के भीतर कैद कर दिया गया है. प्रशासन का यह तर्क इसलिए भी बेमानी है कि इसी संस्थान के प्रांगण में अन्य विचारधाराओं के लोगों की मूर्ति शान से खड़ी है. संस्थान के बहुजन छात्र इसको खुलवाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं. उनका आरोप है कि भारत रत्न और संविधान निर्माता की विश्वविद्यालय प्रांगण में लगी दोनो मूर्तियों को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा अपमानित करने के उद्देश्य से ऐसा किया गया है. बहुजन छात्रों का आरोप है कि विश्वविद्यालय में यह पहली घटना नहीं है, बल्कि इससे पहले भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने विवि का नाम छोटा करने, विवि का लोगो बदलने, छात्रों को बाबासाहेब की जयंती मनाने से रोकने और सेमीनार से बाबासाहेब की फोटो हटाने जैसे काम किए गए हैं. असल में विश्वविद्यालय प्रशासन का मूर्तियों को सुरक्षित रखने का दावा इसलिए भी गले से नहीं उतरता है क्योंकि 256 एकड़ में बने विश्वविद्यालय की सुरक्षा में 140 भूतपूर्व आर्मी के जवान लगे हैं. तो वहीं जगह-जगह सी सी टी वी कैमरे लगे हैं. इसके अलावा बाबासाहेब की मूर्तियों की सुरक्षा के लिए दो गार्ड की तैनाती रहती है. ऐसे में यह कहना की मूर्ति क्षतिग्रस्त या फिर गंदी हो जाएगी यह सफाई काफी हल्की है. बाबासाहेब के नाम पर बने इस विश्वविद्याय में लगभग 70% बहुजन छात्र हैं जो बाबासाहेब के अनुयायी हैं. जाहिर सी बात है कि उनसे मूर्तियों को कोई खतरा नहीं है. विश्वविद्यलाय प्रशासन मूर्ति के स्थान पर सीसीटीवी कैमरे लगाकर भी उसकी सुरक्षा पुख्ता कर सकता है. लेकिन उसने ऐसा करने की बजाय अपमानजनक काम किया है. यहा के छात्रों का आरोप है कि विवि प्रशासन बाबासाहेब की विचारधारा को विवि से खत्म करना चाह रहा है. 14 अप्रैल को बाबासाहेब की 127वीं जयन्ती से पूर्व विश्वविद्यालय के बहुजन छात्रों ने ज्ञापन देकर बाबासाहेब को इस चारदीवारी से मुक्त कराने को लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन से आग्रह किया है. और ऐसा नहीं होने पर उन्होंने खुद ही बाबासाहेब को चारदीवारी से मुक्त करने की बात कही है. देखना होगा कि बहुजन छात्रों की इस जायज मांग पर प्रशासन क्या रुख अपनाता है.

मोदी के दलित बनाम योगी के दलित !

यूपी में बीजेपी के अंदर दलित-दलित खेला जा रहा है. योगी के दलित बनाम मोदी के दलित. पहले बीजेपी के 4 दलित सांसदों ने सीएम योगी के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए पीएम मोदी को चिट्ठी लिख दी. रॉबर्ट्सगंज के सांसद छोटेलाल खरवार ने तो बकायदा योगी पर छूआछूत और डांटकर भगा देने का आरोप लगाया. छोटेलाल खरवार ने तो यहां तक कि उच्च जाति के अधिकारियों द्वारा बात न सुनने का भी आरोप लगाया.

पहले जब छोटेलाल खरवार ने आरोप लगाया तो लगा कि ये ऐसे ही है, लेकिन एक के बाद लगातार 4 दलित सांसदों ने सीएम योगी के ख़िलाफ मोर्चा दिया. यहां तक के सिकंद्राबाद के सांसद बाबूलाल चौधरी ने भी सीएम योगी के खिलाफ शिकायती पत्र लिख दिया. लगातार बीजेपी सांसदों के सामने आते चिट्ठियों से सवाल उठने लगा कि आखिर जब बड़े से बड़े नेता बीजेपी आलाकमान के डर से मुंह नहीं खोलते हैं, वहां ये सांसद लगातार चिट्ठी लिखे जा रहे हैं. इस मामले में साजिश की बू आने लगी. मामला तब और साफ हो गया जब योगी के समर्थन में 5 दलित सांसद आ गए. इन सांसदों ने ना सिर्फ योगी के अच्छे व्यवहार की गवाही दी, बल्कि अपने क्षेत्रों में काम और बजट पास करना भी बताया.

दलित सांसदों को लेकर रस्साकसी के बीच एक और पात्र हैं, जिनके ज़िक्र के बगैर यह मामला पूरा नहीं होता. दरअसल वो शख्स हैं ओमप्रकाश राजभर. राजभर को योगी विरोधी खेमे का समर्थन है. सब जानते हैं राजभर हमेशा योगी के खिलाफ बयानबाज़ी करते रहते हैं. भ्रष्टाचार से लेकर कानून व्यवस्था को लेकर राजभर हमेशा योगी सरकार पर निशाना साधते रहे हैं. सोचिए कि एक कैबिनेट मंत्री अपनी ही सरकार को सबसे भ्रष्ट बता रहा है. मेरे हिसाब से यह सब साजिश का हिस्सा लग रहा है.

साजिश इसलिए भी कि बीजेपी अभी तक योगी अपना नहीं मान पाई है. इसकी कई वजहें हैं. पहली कि योगी पर मोदी-शाह का वैसा कंट्रोल नहीं है, जैसा हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, हिमाचल, झारखंड सहित तमाम राज्यों के सीएम पर हैं. दूसरी ये कि यूपी में बीजेपी के समानांतर हिन्दु युवा वाहिनी का विस्तार हो रहा है. हियुवा योगी का अपना संगठन है. इसकी मजबूती बीजेपी को मुश्किल में डाल रही है, क्योंकि 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ हियुवा ने चुनाव लड़ा था.

गोरखपुर हार से लेकर ये जीतनी घटनाए हो रही हैं उसके पीछे साफ वजह है कि योगी की बढ़ती लोकप्रियता को कम किया जाए. योगी के पल पल की खबर दिखाने वाली मीडिया अचानक से यूं ही क्राइम और दूसरे मुद्दों को लेकर योगी के खिलाफ ऐसे ही नहीं है. दरअसल सीएम योगी की लोकप्रियता मोदी-शाह के लिए असहज वाली स्थिति है, मोदी-शाह को डर है कि यूपी कहीं योगीमय ना हो जाए.

जयंती विशेष: वंचितों के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे महात्मा फुले

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डॉ. अम्बेडकर का मानना था-‘अगर इस धरती पर महात्मा फुले जन्म नहीं लेते तो अम्बेडकर का भी निर्माण नहीं होता.’ डॉ. अम्बेडकर महात्मा फुले के व्यक्तित्व-कृतित्व से अत्यधिक प्रभावित थे. वे महात्मा फुले को अपने सामाजिक आंदोलन की प्ररेणा का स्त्रोत मनाते थे. डॉ. अम्बेडकर ने महात्मा बुद्ध तथा कबीर के बाद महात्मा फुले को अपना तीसरा गुरू माना है. महात्मा ज्योतिबा फुले ऐसे महान विचारक, समाज सेवी तथा क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे जिन्होंने भारतीय सामाजिक संरचना की जड़ता को ध्वस्त करने का काम किया. महिलाओं, दलितों एवं शूद्रों की अपमानजनक जीवन स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए वे आजीवन संघर्षरत रहे. ज्योतिबा फुले का पूरा नाम जोतिराव गोविंदराव फुले था. उनका जन्मर 11 अप्रैल 1827 को पुणे में महाराष्ट्रे के एक ऐसे माली परिवार में हुआ, जिसे खुश होकर पेशवा ने 36 एकड़ जमीन दे दी थी. सो इस लिहाज से वह एक संपन्न परिवार में पैदा हुए. ज्योतिबा के पिता का नाम गोविन्दथ राव तथा माता का नाम विमला बाई था. जब ज्योतिबा की उम्र एक साल थी, तभी उनकी माता का देहान्ता हो गया. पिता गोविन्दआ राव जी ने आगे चल कर सुगणा बाई नामक विधवा जिसे वे अपनी मुंह बोली बहिन मानते थे उन्हें. बच्चों की देख-भाल के लिए रख लिया. ज्योतिबा को पढ़ने की ललक थी सो पिता ने उन्हें पाठशाला में भेजा था मगर सवर्णों के विरोध ने उन्हेंो स्कूकल से वापिस बुलाने पर मजबूर कर दिया. अब ज्योतिबा अपने पिता के साथ माली का कार्य करने लगे. काम के बाद वे आस-पड़ोस के लोगों से देश-दुनिया की बातें करते और किताबें पढ़ते थे. उन्हों ने मराठी शिक्षा सन् 1831 से 1838 तक प्राप्ति की. सन् 1840 में तेरह साल की छोटी सी उम्र में ही ज्योतिबा का विवाह नौ साल की सावित्री बाई से हुआ. आगे ज्योतिबा का दाखिला स्का्टिश मिशन नाम के स्कूदल (1841-1847) में हुआ, जहां पर उन्होंेने थामसपेन की किताब ‘राइट्स ऑफ मेन’ एवं ‘दी एज ऑफ रीजन’ पढ़ी, जिसका उन पर काफी असर पड़ा. एक बार वह अपने स्कूबल के एक ब्राह्मण मित्र की शादी में उसके घर गए. वहां उन्हें काफी अपमानित होना पड़ा था. इससे उनमें प्रतिरोध का भाव आ गया. उन्होंने मन में इन रुढ़ियों के खिलाफ बगावत करने का पक्का निर्णय कर लिया.

1 जनवरी, 1848 को उन्होंने पुणे में एक बालिका विद्यालय की स्थापना कर दी. 15 मई, 1848 को पुणे की अछूत बस्ती में अस्पृश्य लड़के-लड़कियों के लिए भारत के इतिहास में पहली बार विद्यालय की स्थापना की. थोड़े ही अन्तराल में उन्होंने पुणे और उसके पार्श्ववर्ती इलाकों में 18 स्कूल स्थापित कर डाले. चूंकि हिन्दू धर्मशास्त्रों में शुद्रातिशुद्रों और नारियों का शिक्षा-ग्रहण व शिक्षा-दान धर्मविरोधी आचरण के रूप में चिन्हित रहा है इसलिए फुले दंपति को शैक्षणिक गतिविधियों से दूर करने के लिए धर्म के ठेकेदारों ने जोरदार अभियान चलाया. उस स्कूल में पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक न मिलने पर ज्योतिबा फुले की पत्नी सावित्रीबाई फुले आगे आईं. लेकिन जब सावित्रीबाई स्कूल जाने के लिए निकलतीं, वे लोग उनपर गोबर-पत्थर फेंकते और गालियाँ देते. लेकिन लम्बे समय तक उन्हें उत्पीड़ित करके भी जब वे अपने इरादे में कामयाब नहीं हुए, तब उन्होंने शिकायत फुले के पिता तक पहुंचाई. पुणे के धर्माधिकारियों का विरोध इतना प्रबल था कि उनके पिता को ज्योतिबा से स्पष्ट शब्दों में कहना पड़ा कि वो स्कूल बंद कर दें या फिर उनका घर छोड़ दे. फुले दंपत्ति ने 1849 में घर छोड़ देने का विकल्प चुना. उस स्कू ल में एक ब्राह्मण शिक्षक पढ़ाते थे. उनको भी दबाव में अपना घर छोड़ना पड़ा. निराश्रित फुले दंपति को पनाह दिया उस्मान शेख ने. फुले ने अपने कारवां में शेख साहब की बीवी फातिमा को भी शामिल कर अध्यापन का प्रशिक्षण दिलाया. फिर अस्पृश्यों के एक स्कूल में अध्यापन का दायित्व सौंपकर फातिमा शेख को उन्नीसवीं सदी की पहली मुस्लिम शिक्षिका बनने का अवसर मुहैया कराया.

सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूकल खोलकर दिया. सन् 1855 में उन्होंने पुणे में भारत की प्रथम रात्रि प्रौढ़शाला और 1852 में मराठी पुस्तकों के प्रथम पुस्तकालय की स्थापना की. यही वजह है कि बहुजन समाज 5 सितंबर को शिक्षक दिवस का विरोध करता रहा है और रुढ़िवादियों को चुनौती देकर वंचित तबके के लिए पहला स्कूल खोलने वाले ज्योतिबा फुले और प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के सम्मान में ‘शिक्षक दिवस’ की मांग करता रहा है. नारी–शिक्षा, अतिशूद्रों की शिक्षा के अतिरिक्त समाज में और कई वीभत्स समस्याएं थीं जिनके खिलाफ पुणे के हिन्दू कट्टरपंथियों के डर से किसी ने अभियान चलाने की पहलकदमी नहीं की थी. लेकिन फुले थे सिंह पुरुष और उनका संकल्प था समाज को कुसंस्कार व शोषण मुक्त करना. लिहाजा ब्राह्मण विधवाओं के मुंडन को रोकने के लिए नाइयों को संगठित करना, विश्वासघात की शिकार विधवाओं की गुप्त व सुरक्षित प्रसूति, उनके अवैध माने जानेवाले बच्चों के लालन–पालन की व्यवस्था, विधवाओं के पुनर्विवाह की वकालत, सती तथा देवदासी-प्रथा का विरोध भी फुले दंपति ने बढ़-चढ़कर किया.

फुले ने अपनी गतिविधियों को यहीं तक सीमित न कर किसानों, मिल-मजदूरों, कृषि-मजदूरों के कल्याण तक भी प्रसारित किया. इन कार्यों के मध्य उन्होंने अस्पृश्यों की शिक्षा के प्रति उदासीनता बरतने पर 19 अक्तूबर, 1882 को हंटर आयोग के समक्ष जो प्रतिवेदन रखा, उसे भी नहीं भुलाया जा सकता. अपने इन क्रांतिकारी कार्यों की वजह से फुले और उनके सहयोगियों को तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े. उन्हें बार-बार घर बदलना पड़ा. फुले की हत्या करने की भी कोशिश की गई; पर वे अपनी राह पर डटे रहे. अपने इसी महान उद्देश्य को संस्थागत रूप देने के लिए ज्योतिबा फुले ने सन 1873 में महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया. उनकी एक महत्वपूर्ण स्थापना यह भी थी कि महार, कुनबी, माली आदि शूद्र कही जानेवाली जातियां कभी क्षत्रिय थीं, जो जातिवादी षड्यंत्र का शिकार हो कर दलित कहलाईं.

ज्योतिबा ने समाज और जाति के बंटवारे को भी अपने तर्कों से समझने की कोशिश की. वैसे तो फुले ने शिक्षा और समाज सुधार के क्षेत्र में अतुलनीय कार्य करते हुए सर्वजन का ही भला किया किन्तु बहुजन समाज सर्वाधिक उपकृत हुआ उनके चिंतन व लेखन से. उनकी छोटी-बड़ी कई रचनाओं के मध्य जो सर्वाधिक चर्चित हुईं वे थीं- ब्राह्मणों की चालांकी, किसान का कोड़ा और ‘गुलामगिरी’. इनमें 1 जून, 1873 को प्रकाशित गुलामगिरी का प्रभाव तो युगांतरकारी रहा. ज्योतिबा ने गुलामगिरी प्रकाशित कर भारत के सबसे अधिक शोषित एवं उत्पीड़ित तबके के अछूतों एवं शूद्रों के अधिकारों की घोषणा की थी. अपनी पुस्तक ‘गुलाम गिरी’ की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है, ‘सैकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज; जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण से शिकार हैं. ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं. इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए. ये लोग अपने आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं. यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं; यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है.’ ज्योतिबा ने लिखा है, ‘यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मण-पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा. वे लोग परदेश से यहां आए. उन्होंने इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके इन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया. उन्होंने इनके साथ बड़ी अमानवीयता का रवैया अपनाया था. ब्राह्मणों ने यहां के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से बेदखल कर इन्हें अपना गुलाम बनाया है, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया. दफना कर नष्ट कर दिया.’ अंग्रेजी शासन को ज्योतिबा ने दलित एवं वंचितों के हित के रूप में देखा. उनका मानना था कि इस देश में अंग्रेज सरकार आने की वजह से शूद्रादि-अतिशूद्रों की जिंदगी में एक नई रोशनी आई. उन्होंने कहा कि यह कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है कि अंग्रेजों के शासनकाल में ही ये लोग ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त हुए.

मुम्बाई सरकार के अभिलेखों में भी ज्योतिबा फुले द्वारा पुणे एवं उसके आस-पास के क्षेत्रों में शुद्र बालक-बालिकाओं के लिए कुल 18 स्कू ल खोले जाने का उल्लेआख मिलता है. समाज सुधारों के लिए पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य ने अंग्रेज सरकार के निर्देश पर उन्हेंन पुरस्कृनत किया और वे चर्चा में आए. इससे चिढ़कर सवर्णों ने कुछ अछूतों को ही पैसा देकर उनकी हत्या‍ कराने की कोशिश की गई पर वे उनके शिष्य़ बन गए. सितम्बर 1873 में इन्होंने महाराष्ट्र में ‘सत्य शोधक समाज’ नामक संस्था का गठन किया. महात्मा फुले एक समता मूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है. पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है. गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया. उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की. जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमद नगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था. इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया.

स्त्रियों के बारे में भी महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे. मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं, लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा. उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया. फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की. प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था. ज्योतिबा ने शराब बंदी के लिए भी काम किया था. वह मानवता के वाहक थे. एक गर्भवती ब्राह्मण विधवा को आत्मं हत्या करने से रोक उन्होंने उसके बच्चेा को गोद ले लिया. जिसका नाम यशवंत रखा गया. अपनी वसीयत ज्योतिबा ने यशवंत के नाम ही की. सन् 1890 में ज्योतिबा के दाएं अंगों को लकवा मार गया. तब वे बाएं हाथ से ही सार्वजानिक सत्यक धर्म नामक किताब लिखने में लग गये. 28 नवम्बर 1890 को उनका महापरिनिर्वाण हो गया. बहुजन समाज महात्मा ज्योतिबा फुले को ‘राष्ट्रपिता’ का दर्जा देता है.

ज्योतिबा फुले के महत्व को इससे भी समझा जा सकता है कि डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘’शूद्र कौन थे?’’ को 10 अक्टूबर 1946 को महात्मा फुले को समर्पित करते हुए लिखा- ‘‘‘जिन्होंने हिन्दु समाज की छोटी जातियों को, उच्च वर्णो के प्रति उनकी गुलामी की भावना के संबंध में जागृत किया और जिन्होंने विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी ज्यादा सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना को महत्व दिया, उस आधुनिक भारत के महान शूद्र महात्मा फुले की स्मृकति में सादर समर्पित.

राबड़ी के आवास पर सीबीआई छापे, तेजस्वी से चार घंटे पूछताछ

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पटना। सीबीआई ने एक बार फिर से लालू यादव के परिवार पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है. आईआरसीटीसी घोटाले में सीबीआइ ने बिहार की पूर्व मुख्‍यमंत्री राबड़ी देवी के पटना स्थित आवास पर मंगलवार को छापा मारा. इसके साथ ही लालू-राबड़ी के बेटे और पूर्व उपमुख्‍यमंत्री तेजस्‍वी यादव से तकरीबन चार घंटे तक पूछताछ भी की.

जांच एजेंसी ने यह कार्रवाई आईआरसीटीसी द्वारा होटलों के रखरखाव को लेकर दिए गए टेंडर में अनियमितता को लेकर की गई है. लालू यादव के रेल मंत्री रहते हुए टेंडर घोटाला होने का आरोप है. इस मामले में जांच एजेंसी लालू यादव, राबड़ी देवी और तेजस्‍वी यादव से पहले भी कई बार पूछताछ कर चुकी है. राबड़ी देवी इससे लगातार बचती रही थीं.

उन्‍हें कई बार समन भेजा गया था, लेकिन वह जांच अधिकारियों के समक्ष पेश नहीं हुई थीं. आखिरकार उनसे पटना में ही पूछताछ की गई थी. सीबीआई के अलावा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) भी इस मामले की जांच कर रहा है. गौरतलब है कि लालू यादव इन दिनों दिल्‍ली स्थित एम्‍स में बतौर कैदी इलाज करा रहे हैं.

गैंगरेप के आरोपी भाजपा विधायक पर बरसी रवीना टंडन

जानी-मानी फिल्म अभिनेत्री रवीना टंडन ने गैंगरेप के आरोपी भाजपा के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर हमला बोला है. बीजेपी विधायक पह निशाना साधते हुए रवीना टंडन ने ट्वीट किया है। इस ट्वीट में फिल्म अभिनेत्री ने सेंगर की जमकर खबर ली है.

 दरअसल हुआ ये कि रेप के आरोपों में घिरे कुलदीप सिंह सेंगर की खबर मीडिया की सुर्खियां बनी हुई हैं. लोगों के आक्रोश को देखते हुए उत्तर प्रदेश के मुक्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने उन्हें मिलने और उनका पक्ष सुनने के लिए सोमवार को अपने कार्यालय तलब किया. कुलदीप सेंगर सीएम से मिलने उनके ऑफिस भी पहुंचे. मुख्यमंत्री कार्यालय पहुंचे बीजेपी विधायक ने मीडिया को मुस्कुराते हुए तस्वीरें भी दीं. रवीना इसी तस्वीर पर भड़क गई.

Raveena Tandon‏Verified account @TandonRaveena

Like the Cat who got the Cream . The least he could do is look embarrassed by the whole incident and apologetic for the death of the woman’s father in police custody.

उन्होंने एएनआई के ट्वीट को रिट्वीट करते हुए लिखा- देखिए, ऐसा लग रहा है जैसे कि बिल्ली को मलाई मिल गई हो. कम से कम ये इतना को कर ही सकता था कि जो आरोप उसपर लगे हैं उसके लिए थोड़ी शर्मिंदगी दिखाता और जिस पीड़िता के पिता मर गए हैं उनसे माफी मांगता.

इस एक्टर के बेटे ने जीती इंटरनेशनल स्विमिंग चैंपियनशिप

फिल्म और खेलों की दुनिया का एक अनोखा मेल है. अमूमन खिलाड़ी का बेटा खिलाड़ी या फिर अभिनेता के बच्चे फिल्मों में ही आते हैं. लेकिन भारतीय सिनेमा में कई ऐसे एक्टर और खिलाड़ी हैं जिन्होंने अपनी अलग राह चुनी है. मसलन मशहूर क्रिकेटर नवाब पटौदी के बेटे सैफ अली ने फिल्मों को चुना तो वहीं बैडमिंटन चैंपियन प्रकाश पादुकोण की बेटी दीपीका पादुकोण ने फिल्मों को.

 इसी राह पर फिल्म इंडस्ट्री का एक और युवा चल पड़ा है. जाने माने फिल्म अभिनेता और थ्री इडियट, साला खडूस जैसी तमाम फिल्मों में शानदार एक्टिंग करने वाले आर. माधवन के बेटे ने इंटरनेशनल चैंपियनशिप जीत ली है.माधवन का बेटा वेदांत इंटरनेशनल स्विमिंग मीट में भारत के लिए मेडल जीतने के बाद से चर्चा में हैं. वेदांत ने थाईलैंड एज ग्रुप स्विमिंग चैंपियनशिप 2018 में 1500 मीटर फ्रीस्टाइल में ब्रॉन्ज मेडल जीता. लेकिन क्या आप जानते हैं कि वेदांत की इस सफलता के पीछे उनके पिता का बड़ा हाथ है.

जी हां, दरअसल माधवन एक अच्छे स्विमर हैं. माधवन अपने बेटे वेदांत के स्विमिंग कोच भी हैं. बेटे को ट्रेनिंग देने का ये ख्याल माधवन को उनकी फिल्म साला खड़ूस के दौरान आया. जिसमें वे बॉक्सिंग कोच बनते हैं. अपने इसी रील कैरेक्टर से प्रेरित होकर माधवन ने अपने बेटे का कोच बनने का फैसला किया था. उनके बेटे ने स्टेट लेवल पर कई स्विमिंग चैंपियनशिप जीते हैं. लेकिन इंटरनेशनल स्विम मीट जीतकर उन्होंने अपने टैलेंट को साबित किया है. माधवन फ्री टाइम में बेटे को स्विमिंग की क्लास दिया करते हैं.

क्या मायावती जैसा दम दिखा पाएंगे सीएम योगी

लखनऊ। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार एनकाउंटर के जरिए क्राइम कंट्रोल करने का दावा कर रही है. लेकिन इसी सरकार की एक दूसरी सच्चाई यह है कि रसूखदारों के द्वारा किए गए क्राइम पर उसका रवैया बिल्कुल उल्टा है. आलम यह है कि सरकार एक-एक कर पार्टी के नेता या फिर पार्टी से नजदीकी रखने वालों पर दर्ज मुकदमें वापस लेने में जुटी है.

वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे स्वामी चिन्मयानंद और रमाशंकर कठेरिया सहित इस लिस्ट में तमाम लोगों के नाम शामिल हैं. यूपी सरकार स्वामी चिन्मयानंद के खिलाफ सालों से चल रहा रेप का केस वापस लेने की तैयारी है. तो ऐसे ही अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष और आगरा से बीजेपी सांसद रामशंकर कठेरिया पर लगे 13 केस भी वापस लिए जा रहे हैं. ताजा बवाल भाजपा के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर का है, जिन पर एक लड़की ने भाई के साथ मिलकर गैंगरेप का आरोप लगाया है. पीड़िता के पिता की जेल में मौत के बाद यह मामला तूल पकड़ गया है. बावजूद इसके इस मामले पर सीएम योगी की चुप्पी हैरान करने वाली है. सवाल उठ रहा है कि क्या सीएम योगी वैसा दम दिखा पाएंगे, जैसा बसपा प्रमुख मायावती ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में उठाया था?

बता दें कि 2007 में बसपा की सरकार बने कुछ ही दिन गुजरे थे. बसपा के तत्कालीन सांसद उमाकांत यादव पर जमीन कब्जे का आरोप था. मायावती ने सांसद को अपने आवास पर बुलाकर उसे वहीं से पुलिस के हवाले कर दिया. सिर्फ उमाकांत यादव ही नहीं, मायावती ने अपने शासनकाल में बांदा जिले से बसपा के तत्कालीन विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी को बलात्कार के मामले में गिरफ्तार करवाकर जेल भेजा था.

द्विवेदी पर भी बीजेपी विधायक सेंगर की ही तरह बांदा की एक लड़की ने बलात्कार का आरोप लगाया था. इस मामले को बाद में सीबीआई को सौंप दिया गया था. ऐसे ही एक लड़की के अपहरण और हत्या के मामले में मायावती ने अपनी सरकार में मंत्री फैजाबाद से विधायक आनंद सेन यादव को कैबिनेट से बर्खास्त कर जेल भेज दिया. मायावती के ऐसे कदम से हर कोई हैरान रह गया था और उससे पुलिस और प्रशासन को भी सख्त संदेश गया था कि रसूखदारों के साथ कोई नरमी नहीं बरती जाएगी भले ही वो सत्तारूढ़ पार्टी से ही क्यों न जुड़े हों. सवाल है कि क्या सीएम योगी ऐसी दिलेरी दिखा पाएंगे?

बंद समर्थकों ने ओबीसी मंत्री से की बदतमीजी

पटना। यूं तो आरक्षण विरोधियों द्वारा आयोजित बंद फेल साबित हुआ है लेकिन इसका असर बिहार में ज्यादा देखा गया. इस दौरान प्रदेश के कई स्थानों से प्रदर्शन की खबर है. बंद के दौरान आरक्षण विरोधियों ने ओबीसी मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा को भी नहीं बख्शा. बिहार के हाजीपुर में आरक्षण का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों ने केन्दीय मानव संसाधन राज्य मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा को साथ बद्सलूकी की. केन्द्रीय मंत्री चंपारण में प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में होने वाले शताब्दी समारोह में हिस्सा लेने के लिए जा रहे थे तभी उनके साथ ये घटना हुई.

कुशवाहा बीजेपी की सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष भी हैं. अभी बिहार पिछले दिनों हुई साप्रंदायिक हिंसा से उबरा भी नहीं था कि दलितों के भारत बंद के विरोध में बिहार की सड़कों पर आरक्षण विरोधियों ने एक और हिंसा भड़का दी. नवादा थाना क्षेत्र के चंदवा मोड़ के समीप आरक्षण के खिलाफ नारे लगा रहे युवाओं ने 84 आरा बक्सर मुख्य मार्ग को सुबह से ही जाम कर विरोध करना शुरू कर दिया. इस दौरान आक्रोशित युवा आरक्षण मुक्त भारत बनाने के लिए जमकर नारेबाजी कर रहे थे.

 

गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय में फुले-आंबेडकर सप्ताह का आयोजन।

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फोटो: बिरसा आंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन, CUG के पदाधिकारीगण

गुजरात। किसी ने सहीं कहा था कि इक्कीसवीं सदी आंबेडकर युग होगा. और आज यह साबित हो चुका है. कल तक जिस बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर को अछूत के नाम से जाना जाता था आज वही भारतीय परिदृश्य में सबका लाडला बन गया है. हर सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्रों में बाबा साहब को भारतीय राजनैतिक पार्टियाँ अपनाने में लगी है. साथ ही साथ बाबा साहेब अब विश्व पटल पर उभर चुके हैं. उनके नाम पर विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थान और विश्वविद्यालय जैसे संस्था खोले जा रहे हैं. अभी हाल ही में साउथर्न यूनिवर्सिटी सिड्नी, ब्रांडीस यूनिवर्सिटी मैसच्यूसेट्स, लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स ब्रिटेन, कोलंबिया यूनिवर्सिटी अमेरिका आदि विश्वविख्यात जगहों पर बाबा साहेब को ज्ञान के प्रतीक के रूप में स्थापित कर उन पर अध्धयन और अध्यापन शुरू किया जा चुका है. लेकिन भारत देश अभी तक अपने भारत भाग्यविधाता को पहचानने में असमर्थ रहा हैं. आये दिन उनके मूर्तियाँ और उनके प्रतीक चिन्हों को नष्ट किया जाना इस बात का द्योतक है कि भारत के लोग अब तक बाबा साहेब को उनके दलित-शोषित समाज के व्यक्ति के ही रूप में जानते और पहचानते हैं. यद्यपि बाबा साहेब को किसी विशेष क्षेत्र में सिमित करना मतलब आसमान में तारे गिनने के बराबर हैं. विश्वरत्न बाबा साहेब सभी क्षेत्रों के ज्ञाता रहे हैं.

भारतीय रिज़र्व बैंक से लेकर भारतीय समाज शास्त्र, मानवशास्त्री, महिलाओं के हितरक्षक, भारतीय संविधान निर्माता, पत्रकार, महान राजनैतिज्ञ, फिलोसोफेर आदि क्षेत्रों के विशेषज्ञ थें. उनके लेखन “एनीहिलेसन ऑफ़ कास्ट” आज भी 82 सालों बाद वर्तमान भारतीय समाज में कितना प्रासंगिक है यह देखा जा सकता है. जिस जात-पात प्रथा को वह तोड़ना चाहते थे और मानव-मानव में समानता लाना चाहते थे जिसे कुछ मनुवादी संस्था और संगठनों ने उनके विचरों को नष्ट करने की कोशिश की है तथा उनके सिद्धांत पर हावी हुए हैं. जिसके कारण जातीय हिंसा वर्तमान समाज का अभिन्न हिस्सा बन चुका. ज्ञात हो बाबा साहेब अनेक महापुरषों के विचारों को अपने में समेटे हुए थे जिसमें प्रमुख रूप से बुद्ध, कबीर, महात्मा ज्योतिबा फुले, शाहू जी महाराज, रैदास, गुरु घासीदास आदि थे, जिनके विचार भारतीय संविधान के प्रस्तावना में भी दिखते हैं, जो सम्पूर्ण मानव समाज के लिए कल्याणकारी है.

“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.”

ऐसे में बाबा साहेब के मानवतावादी विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का काम तमाम विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रहे दलित शोषित पिछड़े वंचित समाज के शोधार्थी और विद्यार्थियों ने संभाल रखा है. ऐसे ही एक मशहुर शैक्षिणक संस्थान गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय गांधीनगर का मामला सामने आया है जहाँ पर बाबा साहेब के नाम पर काम कर रही संस्था “बिरसा आंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन” बाप्सा ने पुरे एक हफ्ते का कार्यक्रम तैयार किया है जिसे “फुले-आंबेडकर सप्ताह” के नाम से मनाया जा रहा है. ज्ञात हो इस वर्ष राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिबा फुले का 11 अप्रैल को 191 वे और विश्वरत्न बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर का 14 अप्रैल को 127 वाँ जन्मदिवस है.

कार्यक्रम 9 अप्रैल से वृहत स्तर पर विभिन्न चरणों में मनाया जा रहा है. कार्यक्रम की शुरुआत सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर खुली चर्चा से रखी गई है. 10 अप्रैल को प्रख्यात मानवाधिकारी, अधिवक्ता व नवसर्जन ट्रस्ट के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर मंजुला प्रदीप प्रमुख वक्ता होंगी. वहीँ 11 अप्रैल को मुंबई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. रमेश काम्बले होंगे. कार्यक्रम में 13 अप्रैल को बाबा साहेब और राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिबा फुले के सामाजिक न्याय सिद्धांत पर “नेशनल पीस ग्रुप” का गायन का कार्यक्रम रखा गया है. वहीँ 14 अप्रैल को फोटो प्रदर्शनी और दलित महापुरुषों पर पेंटिंग तथा “व्हिस्टल ब्लोअर थिएटर ग्रुप” के द्वारा “मैं घांस हूँ” नाम का अभिनय भी किया जाएगा. ज्ञात हो यह थिएटर कार्यक्रम दलित छात्र रोहित वेमुला के लेखन पर आधारित है जिनकी सन 2016 में हैदराबाद विश्वविद्यालय में दबावपूर्ण संस्थानिक हत्या हुई थी.

संतोष कुमार बंजारे

भारत की घृणा आधारित संस्कृति

एक अफ़गान मित्र जो कि वरिष्ठ एन्थ्रोपोलोजिस्ट (मानव-विज्ञानी/समाजशास्त्री) हैं और जो राजनीतिक शरणार्थी की तरह यूरोप में रह रही हैं शाम होते ही कसरत करने लगीं, दौड़ने लगीं, वे अकेली नहीं थीं उनके साथ स्थानीय यूरोपीय लड़कियां और दो अमेरिकी अधेड़ प्रोफेसर भी कसरत कर रहे थे. होटल से लगे मैदान में वे हँसते मुस्कुराते हुए वर्जिश कर रहे थे. ये सब अगले दिन से शुरू होने वाली कांफ्रेंस के लिए आये थे. मैं उनका मेहमान था. कुछ समय बाद भोजन पर बातचीत शुरू हुई. मैंने पूछा कि आप सब पहले से ही इतने स्वस्थ और संतुलित शरीर वाले हैं आज ही आप यात्रा करके पहुंचे हैं आज कसरत न करते तो क्या हो जाएगा?

स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न में मानवशास्त्र और समाजशास्त्र कांफ्रेंस के दौरान इन मित्रों से मुलाक़ात हुई और कांफ्रेंस के दौरान कुछ एक गजब की बातचीत हुई, आज अपने भारतीय मित्रों के लिए यहाँ रख रहा हूँ.

मेरा प्रश्न सुनकर अफगान प्रोफेसर हंसने लगीं, मैंने मजाक में कहा कि अब आपको इस हंसी के बारे में और अपनी कसरत के औचित्य के बारे में कोई गंभीर एंथ्रोपोलोजिकल या समाजशास्त्रीय व्याख्या देनी ही पड़ेगी. सभी मित्र हंसने लगे सभी मित्र मजाक के मूड में थे, आगे इस मुद्दे पर वे अफ़ग़ान प्रोफेसर बोलने लगीं कि पहले मैं भी ऐसे ही सोचती थी कि एक दो दिन कसरत न की जाए तो क्या फर्क पड़ता है. लेकिन बाद में समझ में आया कि अच्छी आदतों का एक अपना प्रवाह होता है एक सातत्य होता है जो बनाकर रखना जरुरी होता है. न केवल अच्छी या बुरी बातों का व्यक्तिगत चुनाव से रिश्ता होता है बल्कि उनका आपके समाज संस्कृति और धर्म से भी सीधा रिश्ता होता है.

ये बात अफगानिस्तान में रहते हुए समझ नहीं आई थी. लेकिन जब अफगानिस्तान छोड़कर भागना पड़ा और यहाँ यूरोप में आकर बसी तब पता चला कि एशिया और यूरोप की संस्कृति और समाज में बुनियादी फर्क क्या है और इस फर्क का इंसानों के शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य से क्या रिश्ता है.

आगे उन्होंने बताया कि असल में अफगानिस्तान पाकिस्तान भारत नेपाल जैसे मुल्कों में शरीर और मन के स्वास्थ्य का ख्याल रखने के लिए कोई इंसेंटिव और कोई व्यवस्था ही नहीं है. वहां सब कुछ मुर्दा और जड़ व्यवस्था में बंधा हुआ है. इसीलिये लोगों के शरीर और मन भी मुर्दा हो गये हैं. व्यक्तिगत जीवन में सृजन और प्रेम न होने के कारण ये मुल्क अपनी सेहत भी ठीक नहीं रख पाते. इसीलिये अफगानिस्तान भारत पाकिस्तान जैसे मुल्कों में डाइबिटीज तेजी से बढ़ रही है. भारत तो पूरी दुनिया में डाइबिटीज के मामले में पहले नम्बर पर है.

पाकिस्तान अफगानिस्तान के नीम हकीमों के इश्तिहार देखिये वे दो ही चीजों को बीमारिया समझते हैं तीसरी कोई बीमारी नहीं उनकी नजर में. ये दो बीमारियाँ हैं – कब्ज और नपुंसकता. ये दोनों चीजें सीधे सीधे लाइफस्टाइल और समाज के मनोविज्ञान से जुडी हुई हैं. ये कब्ज और नपुंसकता न केवल इन समाजों के इंसानों के शरीर में है बल्कि इनकी संस्कृति में भी है. ये समाज न कुछ पैदा कर पा रहे हैं न पुरानी गंदगी को शरीर से बाहर निकाल पा रहे हैं. ये कहकर वे हंसने लगीं.

ये बात सुनकर मैं चौंका, मैंने उनसे पूछा कि थोड़ा विस्तार से बताइए.

वे आगे बताने लगीं कि वे पेशावर, कराची और दिल्ली में भी रह चुकी हैं, काबुल में पैदा हुई हैं. उन्होंने अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत के समाज धर्म और संस्कृति को बहुत करीब से देखा है. भारत और पाकिस्तान में बचपन से ही लोगों को अपने शरीर और मन को स्वस्थ रखने के लिए कोई प्रेरणा या कारण नहीं दिया जाता.

इसकी सबसे बड़ी वजह है कि यहाँ प्रेम करने, दोस्ती, खेलकूद, और औरत मर्द के बीच रिश्ते बनाने की कोई आजादी नहीं है. कबीलों और अमीर गरीब के झगड़े इतने ज्यादा हैं कि आप अपने लिए दोस्त या लड़की या लड़का चुनकर उसे प्रभावित करके अपना दोस्त या जीवनसाथी बनाने की कल्पना ही नहीं कर सकते. आप अपने पडौसी, सहकर्मी, बॉस, या अधीनस्थ को उसकी कबीले वंश इलाके या जाति के गणित लगाये बिना बर्दाश्त ही नहीं कर सकते.

भारत पाकिस्तान या अफगानिस्तान जैसे समाजों में लड़का लड़की अपनी मर्जी से अपने साथी नहीं चुन सकते. लेकिन यूरोप में वे अपनी मर्जी से ही जीवन साथी और मित्र चुनते हैं. इसीलिये यूरोपियन लड़के लडकियां ही नहीं बल्कि अधेड़ और बूढ़े बूढियां भी अपने शरीर को पूरी तरह स्वस्थ रखने की पूरी कोशिश करते हैं. मन को प्रफुल्लित और स्वस्थ रखने की पूरी कोशिश करते हैं ताकि बेहतर भाषा, बातचीत के ढंग, नये विषयों का ज्ञान, नए हुनर, नई कलाएं संगीत, नृत्य, काव्य इत्यादि सीखकर अपने मित्रों और गर्लफ्रेंड बॉय फ्रेंड आदि को प्रभावित कर सकें.

इस तरह न केवल वे व्यक्तिगत जीवन में शारीरिक और मानसिक स्तर पर अनुशासित, स्वस्थ और सक्रिय रहते हैं बल्कि इसी कारण से वे सामूहिक रूप से एक स्वस्थ, वैज्ञानिक, लोकतांत्रिक और सभ्य समाज का निर्माण भी करते हैं. इसीलिये वे विज्ञान, कला, साहित्य, दर्शन, खेलकूद, साहस और शौर्य आदि में बेहतर प्रदर्शन करके दुनिया पे राज करते हैं.

आगे उन्होंने बताया कि पाकिस्तान अफगानिस्तान और भारत जैसे देशों में मामला एकदम उलटा है. यहाँ लड़की को उसका पति और लडके को उसकी पत्नी, उसके माँ बाप खोजकर देते हैं. उन्हें खुद अपने लिए जीवनसाथी की तलाश का कोई अधिकार नहीं है. इन बदनसीब मुल्कों में अगर कोई लडकी अपने लिए खुद कोई लडका चुन ले तो या तो परिवार और कबीले की नाक कट जाती है या जाति और कुल की नाक कट जाती है. ये लडके लडकियाँ अपनी योग्यता या अपनी खूबियों का प्रदर्शन करके अपने लिए बेहतर जीवनसाथी नहीं चुन सकते. इसीलिये उनके जीवन में अपने शरीर, मन, कैरियर को बेहतरीन हालत में बनाये रखने के लिए एक बहुत स्वाभाविक सी प्राकृतिक प्रेरणा ही जन्म नहीं ले पाती.

ऐसे में इन मुल्कों के लडके लड़कियों को अच्छी भाषा, बातचीत का ढंग, कला, नृत्य, काव्य, संगीत इत्यादि सीखने की प्रेरणा ही नहीं होती. अगर आप इन सब कलाओं से अपने संभावित जीवनसाथी को प्रभावित और आकर्षित ही न कर सकें तो आपके व्यक्तिगत जीवन और सामूहिक जीवन से सभ्य होने की, संवेदनशील या सृजनात्मक होने की सारी प्रेरणा ही खत्म हो जायेगी.

पूरे जीव जगत और पेड़ पौधों को देखिये. वहां भी सारी सृजनात्मकता, कला, कौशल, शौर्य, क्षमता और सौन्दर्य का सीधा संबंध अपने लिए बेहतर जीवनसाथी के चुनाव से जुडा हुआ है. जिन समाजों ने इस सच्चाई का सम्मान किया है वे आगे बढ़े हैं और इस सच्चाई को नहीं समझ सके हैं वे बर्बाद हुए हैं.

अब एक पाकिस्तानी या भारतीय लड़की के बारे में सोचिये. उसे उसके माँ बाप उसका पति खोजकर देंगे. वो लडकी खुद अपनी मर्जी से अपना साथी नहीं चुन सकती. ऐसे में वो अपने आसपास के हजारों लड़कों में से अपनी पसंद के लडके को प्रभावित या आकर्षित करने के लिए न गीत संगीत या नृत्य सीखना चाहेगी, न कविता या शायरी सीखेगी न अच्छा भोजन बनाना सीखना चाहेगी न ज्ञान विज्ञान सीखेगी, वो सिर्फ और सिर्फ अपने चेहरे को खुबसुरत बनाने पर ध्यान देगी.

वो लडकी उतना ही सीखेगी या करेगी जितना कि उसके माँ बाप द्वारा खोजे गये नये परिवार और पति को खुश करने के लिए न्यूनतम रूप से आवश्यक होगा. यही चीज सेक्स और रोमांस के संबंध में उसकी क्षमता या पसंद को भी नियंत्रित करेगी वो कभी भी सेक्स या और्गाज्म का पूरा सुख नहीं लेना चाहेगी, क्योंकि ऐसा करते ही वो अपने पति की नजर में “गंदी औरत” बन जाएगी.

इसी तरह एक पाकिस्तानी या भारतीय लड़का भी अपने संभावित जीवन साथी को चुन नहीं सकता इसलिए वो अपने शरीर को स्वस्थ रखने, मन को सृजनात्मक बनाने, नयी कला, गीत संगीत, काव्य, हुनर आदि सीखने के लिए प्रेरित ही नहीं होता.

अन्य मित्र भी इन बातों का समर्थन कर रहे थे. वे भी समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के प्रोफेसर और रिसर्चर थे. किसी एक ने भी इन बातों का विरोध नहीं किया, बल्कि अपने अलग अलग अनुभवों से इन बातों का समर्थन ही किया.

इन बातों के प्रकाश में भारत पाकिस्तान और अफगानिस्तान के समाज संस्कृति और धर्म को ठीक से देखिये.

इन मुल्कों में शादियाँ, रिश्तेदारी और संबंध प्रेम के आधार पर नहीं बल्कि घृणा के आधार पर होते हैं. शादी ब्याह में अधिक जोर इस बात पर होता है कि किन जातियों कबीलों या समुदायों को “नहीं” लाना है. किन लोगों जातियों या समुदायों को “लाना” है इस पर जोर लगभग नहीं ही होता है. वहीं यूरोप अमेरिका में अपने जीवन या परिवार में किसे “लाना” है इस बात पर सर्वाधिक जोर होता है. एक बार वे अपनी उम्र, विचार, और समान क्षमता के लोग पसंद कर लेते हैं और हर हालत में उनकी अमीरी गरीबी या कबीले वंश आदि को नकारते हुए उन्हें अपने जीवन या परिवार या समूह में शामिल कर लेते हैं.

इस तरह यूरोप के प्रेम आधारित समाज में व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर मेलजोल और सभ्यता का विकास तेजी से होता है और भारत पाकिस्तान अफगानिस्तान के घृणा आधारित समाज में सब तरह की सृजनात्मक प्रेरणाओं पर धर्म संस्कृति और भेदभाव का एक बड़ा भारी ताला लगा रहता है.

भारत पाकिस्तान जैसे मुल्कों में “किन लोगों” को “शामिल नहीं करना है”, किन लोगों को “जीने नहीं देना है” किन लोगों को “पढने लिखने नहीं देना है” या “रोजगार नहीं करने देना है” – इसकी बहुत साफ़ साफ़ प्रस्तावनाएँ लिखी गईं हैं. ये प्रस्तावनाएँ ही इन मुल्कों का धर्म और संस्कृति है. मनुस्मृति में तो साफ़ लिखा ही है कि किन वर्णों जातियों को शिक्षा और सम्पत्ति का अधिकार नहीं है. इसीलिये भारत पाकिस्तान जैसे समाज कभी भी प्रेम, बंधुत्व, मित्रता, सहकार, समता, सृजन, आदि के आधार पर न तो व्यक्तिगत जीवन जी पाते हैं न सामाजिक या सामूहिक जीवन का निर्माण ही कर पाते हैं.

भारत की घृणा आधारित संस्कृति और यूरोप की प्रेम आधारित संस्कृति का विभाजन इसमें देखिए, आप देख सकेंगे कि आज का पाकिस्तान अफगानिस्तान और भारत ऐसा क्यों बन गया है. इन मुल्कों की राजनीति, अर्थव्यवस्था, खेलकूद में प्रदर्शन, ज्ञान विज्ञान में फिसड्डीपन, गरीबी और जहालत इत्यादि को देखिये और आज के यूरोप की बुलंदियों को देखिये. अगर आप वर्तमान यूरोप की संस्कृति और समाज की तुलना भारती पाकिस्तानी समाज से नहीं कर पा रहे हैं तो आप भारत को समर्थ बनाने के संभावित मार्ग की कल्पना भी नहीं कर पायेंगे.

 संजय जोठे

भाजपा का आंबेडकर प्रेम कितना सच!

कुछ दिन पूर्व आंबेडकरवादियों के भारी विरोध के बावजूद बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के नाम में ‘राम जी’ जोड़ कर आंबेडकर प्रेम का जबरदस्त मुजाहिरा करने वाली भाजपा दलितों के ऐतिहासिक भारत बंद के बाद एक बार फिर आंबेडकर प्रेम की प्रतियोगिता में बाकी दलों को बहुत पीछे छोड़ती नजर आ रही है. इसकी शुरुआत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की है. एक ऐसे समय में जबकि भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंदी कांग्रेस सहित बाकी विपक्ष एससी/एसटी एक्ट पर भारतीय जनता पार्टी को घेरने में जोर-शोर से जुट गया है, मोदी ने दिल्ली में 4 अप्रैल को दलितों के मुद्दे पर राजनीति कर रहे दलों को ललकारते हुए कहा कि किसी अन्य सरकार ने बाबा साहेब का उस तरह सम्मान नहीं किया , जैसा उन्होंने किया है.

भीमराव आंबेडकर की विरासत के राजनीतिकरण के लिए राजनीतिक दलों पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि उनकी सरकार की तरह दलित चिंतन पर किसी भी सरकार ने काम नहीं किया है. बाबा साहेब की याद में अनेक परियोजनाओं को पूरा करके हमारी सरकार ने उन्हें उचित स्थान दिलाया है. 26ए अलीपुर रोड हाउस जहां आंबेडकर का निधन हुआ था, उसे 13 अप्रैल को उनके जन्म दिन की पूर्व संध्या पर देश को समर्पित किया जायेगा.

उन्होंने कहा कि हर किसी ने राजनीतिक लाभ के लिए आंबेडकर के नाम को अपने साथ जोड़ा. लेकिन उनकी सरकार ने आंबेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र को पूरा किया , हालांकि इस विचार की कल्पना तब की गयी थी, जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. पिछली यूपीए सरकार ने इस परियोजना को सालों तक खींचा , लेकिन पूरा नहीं किया. जिस दिन प्रधानमंत्री दिल्ली से विपक्ष के आंबेडकर प्रेम को चुनौती दे रहे थे, उसी दिन ओड़िसा के कालाहांडी में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गर्जना करते हुए कहा कि आरक्षण नीति को कोई भी बदलने की हिम्मत नहीं कर सकता जैसा कि संविधान में आंबेडकर ने तय किया है.

केंद्र सरकार शिक्षा और नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के समुदायों के आरक्षण की नीति को न तो रद्द करेगी और न ही किसी को ऐसा करने देगी. इस बीच दलितों के भारत बंद से उपजे नए हालात में आंबेडकर के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए पीएम मोदी की ओर से भाजपा सांसदों को निर्देश जारी किया गया है कि वे फुले-आंबेडकर जयंती मनाने के साथ उन गांवों में प्रवास करेंगे जहां दलितों की आबादी 50 % से ज्यादा है. प्रधानमंत्री और भाजपाध्यक्ष के बयानों से क्या ऐसा नहीं लगता कि भाजपा ने आंबेडकर और दलित प्रेम के प्रदर्शन के मामले में शेष दलों को बहुत पीछे छोड़ दिया है. लेकिन क्या ऐसा पहली बार हो रहा है! नहीं . यदि 2014 में मोदी सरकार के केंद्र में आने के बाद के इतिहास का सिंहावलोकन करें तो पाएंगे कि थोड़े-थोड़े अन्तराल पर ऐसा लगातार हो रहा है.

लोग भूले नहीं होंगे कि मोदी राज में ही डॉ.अंबेडकर को भाजपा के मातृ संगठन ‘संघ’ की ओर से भारतीय पुनरुत्थान के पांचवें चरण के अगुआ के रूप में आदरांजलि दी गयी . मोदी राज में ही मुंबई के दादर स्थित इंदु मिल को आंबेडकर स्मारक बनाने की दलितों की वर्षों पुरानी मांग को स्वीकृति मिली.बात यहीं तक सिमित नहीं रही, इंदु मिल में बाबा साहेब का स्मारक बनाने के लिए 425 करोड़ का फंड भी मोदी राज में मुहैया कराया गया. लन्दन के जिस तीन मजिला मकान में बाबा साहेब अंबेडकर ने दो साल रहकर पढाई की थी, उसे चार मिलयन पाउंड खरीदने का बड़ा काम मोदी राज में ही हुआ. इनके अतिरिक्त भी बाबा साहेब की 125 वीं जयंती वर्ष में भाजपा की ओर से ढेरों ऐसे काम किये गए जिसके समक्ष अंबेडकर-प्रेम की प्रतियोगिता में उतरे बाकी दल बौने बन गए.

इनमें एक बेहद महत्त्वपूर्ण काम था 26 नवम्बर को ‘संविधान दिवस’ घोषित करना एवं इसमें निहित बातों से जन-जन तक पहुचने की अपील . इसके लिए उन्होंने 2015में संसद के शीतकालीन सत्र के शुरुआती दो दिन संविधान पर चर्चा के बहाने बाबा साहेब को श्रद्धांजलि देते हुए जो उदगार व्यक्त किया था , उससे लगा था कि आजाद भारत में आंबेडकर लोगों की पीड़ा समझने और उनकी मुक्ति का उपाय करने वाला कोई प्रधानमंत्री पहली बार सामने आया है . तब मोदी ने कहा था – ‘अगर बाबा साहेब आंबेडकर ने इस आरक्षण की व्यवस्था को बल नहीं दिया होता , तो कोई बताये कि मेरे दलित , पीड़ित, शोषित समाज की हालत क्या होती? परमात्मा ने उसे वह सब दिया है, जो मुझे और आपको दिया है, लेकिन उसे अवसर नहीं मिला और उसके कारण उसकी दुर्दशा है. उन्हें अवसर देना हमारा दायित्व बनता है.’ मोदी के उस कथन के बाद लोगों ने मान लिया था कि आंबेडकर के लोगों के जीवन में अभूतपूर्व खुशहाली आ जाएगी . लेकिन क्या वैसा हुआ? सच तो यह है कि मोदी राज में अभूतपूर्व खुशहाली की जगह दलित अभूतपूर्व बदहाली की ओर ही अग्रसर हुए.

संविधान दिवस की घोषणा के अवसर पर मोदी के उस सब्जबाग़ दिखाऊ भाषण के बाद बड़ी तेजी से बाबा साहेब के करोड़ों अनुयायियों को देशभर में अन्याय, अत्याचार व शोषण का शिकार बनाने तथा उनके अधिकारों को एक-एक करके छिनने का अभूतपूर्व सिलसिला शुरू हुआ . चैम्पियन सवर्णवादी संघ प्रशिक्षित मोदी ने मंडलवादी आरक्षण का बदला लेने के लिए न सिर्फ दलितों , बल्कि सम्पूर्ण आरक्षित वर्गों का जीवन बदहाल बनाने में सारी हदें पार कर लिया. ऐसा लगता है कि मोदी ने ठान लिया है कि देश की सारी धन-संपदा सवर्णों के हाथों में सौंप देनी है. इस योजना के तहत ही उन्होंने एयर इंडिया, रेल, हास्पिटल इत्यादि सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौपने का युद्ध स्तर पर अभियान छेड़ा.

यह जानते हुए कि जरुरत से ज्यादा ऍफ़डीआई देश को विदेशियों का गुलाम बना सकती है, मोदी ने सुरक्षा तक से जुड़े उपक्रमों में 100 % एफडीआई लागू करने का फैसला किया. और यह सब किया आरक्षित वर्गों का सफाया करने के लिए. मोदी ने आरक्षित वर्गों के सफाए की योजना के तहत जो आर्थिक नीतियां अपनाई ,उसका परिणाम जनवरी 2018 में आई ऑक्सफाम की रिपोर्ट में दिख गया. इस रिपोर्ट ने बतलाया कि 2016 से 2017 के बीच टॉप की 1% आबादी की दौलत में प्रायः 15% इजाफा हो गया है. दुनिया के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग की धन-संपदा में एक साल में 15% का इजाफा होगा. यदि 1% टॉप की आबादी से आगे बढ़कर टॉप की 10% आबादी की धन-दौलत का जायजा लिया जाय तो पता चलेगा कि देश की 90 % से ज्यादा धन-संपदा इसके हाथ में चली गयी है.

वैसे तो इस स्थिति के लिए 24 जुलाई ,1991 के बाद सत्ता में आई सभी सरकारें ही जिम्मेवार हैं, किन्तु विशेषरूप जिम्मेवार मोदी सरकार ही है. इसकी नीतियों के कारण ही भारत में उस आर्थिक और सामाजिक विषमता का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है, जिसके खात्मे लिए खुद डॉ. आंबेडकर ने बार-बार आग्रह जताया था. किन्तु मोदी राज में न सिर्फ संविधान निर्माता के आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे की चाह का मखौल उड़ाया गया है , बल्कि आंबेडकर के लोगों को आर्थिक रूप से पूरी तरह खोखला करने के साथ और दो ऐसे काम किये गए हैं, जो भाजपा के आंबेडकर प्रेम पर बड़ा सवालिया चिन्ह लगाते हैं.

इनमें पहला है आंबेडकर के लोगों को उच्च शिक्षा से दूर धकलने की साजिश. गांधीजी कहा करते थे शूद्रों को उतनी ही शिक्षा देनी चाहिए जिससे वे अपने शुद्र्त्व यानी तीसरे – चौथे दर्जे का काम कुशलता से कर सकें. वैसे तो 24 जुलाई ,1991 के बाद से सभी सरकारों ने इस दिशा में साजिश की है. किन्तु मोदी राज में यह काम बड़ी बेरहमी से हो रहा है. इस सरकार का लक्षण बतला रहा है कि दलित – बहुजन उच्च शिक्षा का मुंह न देख सकें, इस दिशा में जितना जल्दी हो सके,मोदी सरकार पुख्ता कर गुजरना चाहती है. देश की टॉप की ६२ यूनिवर्सिटीयों को स्वायतता प्रदान करना एवं शिक्षकों की भर्ती में यूनिवर्सिटीयों को यूनिट न मानकर विभागवार रिक्तियां निकालना , मोदी सरकार के दो ऐसे खास काम हैं, जिससे भविष्य में दलितों को प्रोफ़ेसर के रूप में देखना एक सपना बनकर रह जायेगा. उच्च शिक्षा से दूर धकेलने के साथ मोदी राज में आंबेडकर के लोगों की सुरक्षा के लिए जो एससी/एसटी सुरक्षा अधिनियम बना था, उसे भी सुप्रीम कोर्ट की मिलीभगत से निष्प्रभावी बना दिया गया है . ऐसा लगता है रामवादी मोदी आंबेडकर के लोगों के प्रति ,मुख में राम, बगल में छुरी वाली कहावत को सत्य प्रमाणित करने पर तुले हैं.ऐसे में उनके आंबेडकर प्रेम को विशुद्ध दिखावा से भिन्न कुछ कहा ही नहीं जा सकता.

मोहम्मद पैगंबर की वंशज हैं ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ- रिपोर्ट

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मोरक्को के अखबार की एक रिपोर्ट में चौंकाने वाला दावा किया गया है. अखबार की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह दावा किया गया है कि ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय इस्लाम के संस्थापक मोहम्मद पैगंबर की वंशज हैं. इतिहासकारों ने यह दावा ब्रिटेन के शाही परिवार के वंशावली की 43 पीढ़ियों को खंगालने के बाद किया है. रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटेन की महारानी वाकई पैगंबर की 43वीं वंशज हैं.

इतिहासकारों के मुताबिक एलिजाबेथ द्वितीय की ब्‍लडलाइन 14वीं सदी के अर्ल ऑफ कैंब्रिज से है और यह मध्‍यकालीन मुस्लिम स्‍पेन से लेकर पैगंबर की बेटी फातिमा तक जाती है. फातिमा हजरत मोहम्मद की बेटी थीं और उनके वंशज स्पेन के राजा थे, जिनसे महारानी का संबंध बताया जा रहा है. इसी वजह से, महारानी को मोहम्मद का वंशज कहा जा रहा है. आपको बता दें कि इस्लाम का आरम्भ स्पेन में 711 ईसवी में अरब के बनी उमैय्या के शासनकाल में हुआ था.

इससे पहले साल 1986 में शाही वंश पर अध्ययन करने वाली संस्था बर्क्स पीरगे के पब्लिशिंग डायरेक्टर हैरल्ड बी ब्रूक्स बेकर ने भी यह दावा किया था. बर्क्स पीरगे ने अपने दावे में कहा था कि महारानी मुस्लिम राजकुमारी जाइदा के परिवार से हैं. यह दावा किया गया कि अलमोराविद्स ने जब अब्बासी सल्तनत पर हमला किया तो जाइदा अपनी जान बचाने के लिए स्पेन के राजा किंग अल्फोंसो छठे के दरबार में पहुंच गई थी. वहां उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया और किंग से शादी करके अपना नाम इसाबेला रख लिया. किंग से उनको एक लड़का पैदा हुआ जिनका नाम सांचा था. थर्ड अर्ल ऑफ कैंब्रिज रिचर्ड ऑफ कौन्सबर्ग सांचा के वंशज थे जो इंग्लैंड के किंग एडवर्ड तृतीय के पोते थे.

इनपुट नवभारत टाइम्स से भी