धर्म हमारे ठेंगे पर

वह एक पत्रकार है. वो जिससे प्यार करता था हाल ही में उसने उससे शादी कर ली है. लेकिन दिक्कत यह थी कि लड़के का नाम सुमित था और लड़की का अजरा. लड़का अम्बेडकरवादी नास्तिक और लड़की पांच वक्त की नमाजी. जब इस जोड़े ने फेसबुक पर अपनी शादी की खबर और तस्वीर साझा कि तो लोग उन्हें ईश्वर और अल्लाह के नाम पर बधाई देने लगे. बस्स… फिर क्या था, सुमित भड़क गए और उन्होंने कह दिया …धर्म हमारे ठेंगे पर. सुमित ने अपने सफरनामे को दलित दस्तकसे साझा किया है. पढ़िए, सुमित के प्यार और समाज द्वारा खड़ी की गई दीवार की कहानी सुमित की जुबानी…। जिन प्रेम कहानियों पर आधारित फिल्मों को देखकर मैं बड़ा हुआ उन्हीं को जीने का मौका भी मिला. कॉलेज के फर्स्ट ईयर में अजरा से दोस्ती हुई और सेकेंड ईयर तक ये दोस्ती प्यार में तब्दील हो गई. 2010 में शुरू हुआ ये सफर आज शादी के मुकाम पर आ पहुंचा है. 6 साल का सफर किसी सुहाने सपने से कम नहीं. हम दोनों राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं तो वाद-विवाद अमूमन हर विषय पर होता है. धर्म को लेकर भी खूब संवाद हुआ है. मैं हिंदू परिवार में पैदा हुआ नास्तिक और अंबेडकरवादी व्यक्ति और मेरी लाइफ पार्टनर पांच वक्त की नमाज़ी. धर्म को लेकर स्पष्ट मत विभाजन लेकिन ये धर्म कभी प्यार में रुकावट नहीं बना. लेकिन कुछ लोगों के लिए हमारा मजहब ज्यादा मायने रखता है. ऐसे धर्मांधकारी किसी के रिश्ते की खूबसूरती नहीं देख सकते. खैर किसी और के कुछ भी सोचने से फर्क नहीं पड़ता. फर्क पड़ता है तो अपने परिवार के सोचने और बोलने से. परिवार को मनाना लोहे के चने चबाने जैसा ही है. हां मेरे हिस्से के चने कुछ नर्म थे जिन्हें मैं जल्दी हजम कर पाया लेकिन अजरा के हिस्से असली लोहे के चने ही आए. पिछले साल दिसंबर में जब मैंने अजरा की अम्मी से बात कि तो उनका कहना यही था कि हम दोनों के मजहब अलग हैं और इस रिश्ते की कोई गुंजाइश नहीं. जब मैंने उन्हें बताया कि मैं तो नास्तिक आदमी हूं और मैं ना इस्लाम को मानता हूं और ना ही हिंदू धर्म को, तब उनका जवाब था… ये तो और भी बड़ा गुनाह है. बताइए, जिस धर्म से मुझे कुछ लेना देना नहीं वो मेरे जीवन में सबसे बड़ी मुश्किल बन कर खड़ा हो गया. आप धर्म को छोड़ सकते हैं लेकिन धर्म आपको छोड़ने के लिए तैयार नहीं क्योंकि शायद हम पर सबसे ज्यादा कब्जा धर्म ने किया हुआ है. जीवन के हर पहलू में धर्म सीधा दखल देता है. मार्क्स बाबा ने धर्म को अफीम यूं ही थोड़े ना कहा है. खैर हम भी कहां मानने वाले थे, इश्क तो वैसे भी हठी होता है. धर्म को हमने घी से मक्खी के जैसे निकाल कर अलग कर लिया और इसे बेहद निजी मामला मानते हुए अपने रोमांस में इसे कहीं भी जगह नहीं दी. हां हम दोनों ने हिंदू धर्म में फैली देवदासी, दहेज, कन्या भ्रूण हत्या, पर्दा प्रथा और इस्लाम में व्याप्त बुर्का, कई शादियां करना, संपत्ति के अधिकार और तीन बार तलाक प्रथा पर घंटों बहस की है. लेकिन कभी मनभेद नहीं हुआ. दो दिन पहले फेसबुक पर मैंने अपनी शादी की जानकारी साझा की. सैकड़ों लोगों ने शुभकामनाएं दी. ज्यादातर बधाई संदेशों में ईश्वर आपको खुश रखे, अल्लाह आपको सलामत रखे जैसी दुआएं दी गई हैं. मैं अपने तमाम दोस्तों की इन शुभकामनाओं को दिल से स्वीकार करता हूं. लेकिन दोस्तों एक बात बताऊं, हमारी पूरी प्रेम कहानी में सबसे ज्यादा दिक्कत इन ईश्वर और अल्लाह नाम के शब्दों ने ही खड़ी की है. धर्म नाम की दीवार शायद सबसे ज्यादा मजबूत होती है जो अपने साथ कई रिश्तों को लेकर ही जमींदौज होती है. कई लोगों के लिए हमारा धर्म ज्यादा मायने रखता है…. रखता होगा. आपका ये ढकोसले वाला धर्म हमारे ठेंगे पर.

लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के कॉलेज में भाषण देने जाएंगी कौशल पंवार

नई दिल्ली। कौशल पंवार एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने लंदन जा रही हैं. वहां वह इंपेरिकल कॉलेज में डॉ. भीम राव अम्बेडकर के परिप्रेक्ष्य से महिलाओं का उद्धार विषय पर संबोधित करेंगी. यह कॉलेज लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स का हिस्सा है जहां से बाबासाहेब ने अपनी पी.एचडी की थी.  पंवार 31 जुलाई को लंदन जाएंगी और 7 अगस्त को वापसी आएंगी. कौशल पंवार दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और संस्कृत पढ़ाती हैं. पंवार बहुजन समाज और स्त्रियों से जुड़े मुद्दों पर भी सक्रिय हैं. अभी तक इनकी पांच किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं. कौशल पंवार का कहना है कि हमारे समाज के लोगों में मेरिट और प्रतिभा कूट-कूट कर भरी है पर ये मनुवादी मानसिकता के लोग हमें आगे नहीं आने देते. कौशल पंवार अम्बेडकरवादी विषयों पर व्याख्यान देने के लिए पहले भी देश के बाहर जा चुकी हैं. वह अम्बेडकारीवादी विषयों, सम्मेलनों व चर्चा में भाग लेने के लिए 2012 में अमेरिका, 2013 में जिनेवा (स्विटजरलैंड), 2015 में अमेरिका और कनाडा जा चुकी हैं. दलित वर्ग से आने के बाद भी संस्कृत का प्राध्यापक बनने की पीछे उनकी मंशा धार्मिक ग्रंथों का बारीकी से अध्ययन करना था, जिसमें शूद्रों और महिलाओं के बारे में कई आपत्तिजनक बातें लिखी है. गौरतलब है कि प्रोफेसर कौशल पंवार को पिछले साल विश्वविद्यालय में जातिवाद का सामना करना पड़ा था और उन पर अशिष्ट टिप्पणियां भी की गई थी. उन्होंने कॉलेज प्रशासन को इसकी शिकायत की लेकिन प्रशासन ने कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं की. इसके बाद उन्होंने इस मुद्दे पर विरोध की आवाज बुलंद की थी.

अनशन पर बैठे डॉ. सुनील कुमार सुमन

वर्धा। डॉ. सुनील कुमार सुमन अन्यायपूर्ण तरीके से किए गए अपने ट्रांसफर के खिलाफ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा प्रशासन के खिलाफ अनशन पर बैठ गए हैं. वर्धा विश्वविद्यालय जातिवाद का गढ़ बनता जा रहा है. खासकर नए कुलपति प्रो गिरीश्वर मिश्रा के आने के बाद तो जैसे ब्राह्मणवाद ही इस विश्वविद्यालय की पहचान बनती जा रही है. यहां भाई-भतीजावाद और परिवारवाद का खेल खुलेआम होता है. डॉ. सुनील कुमार के समर्थन में वहां का छात्र समुदाय भी खुलकर सामने आ गया है. छात्र संगठन अंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम डॉ. सुनील कुमार सुमन को अपना समर्थन दे रहा है. संगठन की तरफ से कुलपति के नाम एक ज्ञापन भी दिया गया है. ज्ञापन में कहा गया है कि सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार वर्धा विश्वविद्यालय के बेहद लोकप्रिय अध्यापक हैं. वे ऐसे अध्यापक हैं, जो अपने विभाग से इतर दूसरे विभागों-केंद्रों के विद्यार्थियों के बीच भी काफी लोकप्रिय हैं. इसका कारण उनका मृदुभाषी-सहयोगी स्वभाव और छात्रों को हमेशा बेहतर बनने-करने के लिए प्रेरित करने वाली उनकी प्रकृति है. वे इस विश्वविद्यालय के एकमात्र आदिवासी वर्ग के प्राध्यापक हैं. डॉ. सुनील कुमार की पहचान राष्ट्रीय स्तर के आदिवासी लेखक-विचारक और एक्टिविस्ट के रूप में प्रतिष्ठित है. विदर्भ के तमाम ज़िलों तथा देश के कई विश्वविद्यालयों-शहरों के दलित-आदिवासी कार्यक्रमों में डॉ. सुनील कुमार को अतिथि वक्ता के रूप में हमेशा बुलाया जाता है. डॉ. सुनील कुमार को क्षेत्र की जनता द्वारा कई बार गोंडवाना भूषण पुरस्कार, शिक्षण मैत्री सम्मान और समाज भूषण सम्मान जैसे पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है. गौरतबल है कि डॉ. सुनील कुमार को विश्वविद्यालय में शुरू से ही उनको जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाता रहा है. पिछले कुलपति के कार्यकाल में भी ऐसा हुआ और अब भी ऐसा ही हो रहा है. उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे लोगों ने जातिगत भावना से निर्णय लेते हुए डॉ. सुनील कुमार का स्थानांतरण कोलकाता केंद्र पर किया गया है. वे दो साल तक नौकरी से बाहर रहे, केस-मुक़दमा झेला, आर्थिक दिक्कतें सहीं और मानसिक पीड़ा भी झेली है. फिर साहित्य विभाग में इतने अध्यापकों के रहते हुए डा. सुनील कुमार को ही क्यों कोलकाता भेजा रहा है ? क्या विश्वविद्यालय प्रशासन ऐसे ही दलित-आदिवासी छात्रों-शिक्षकों को यहाँ परेशान करता रहेगा ?

वर्धा विश्वविद्यालय के खिलाफ अनशन करेंगे सुनील कुमार सुमन!

अंग्रेज़ों को जिसे सज़ा देनी होती थी, उसको वे काला पानी भेज देते थे. वर्धा विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति श्री विभूति नारायण राय को जिससे दुश्मनी निकालनी होती थी, उसको वे यौन-उत्पीड़न के फ़र्जी केस में फंसा देते थे और वर्तमान कुलपति साहब को जिसे सबक सिखाना होता है, वे उसका ट्रांसफर मनमाने तरीके से कोलकाता केंद्र पर कर देते हैं. एक प्राध्यापक पिछले साल सज़ा के तहत कोलकाता भेजे गए थे, अब मियाद पूरी हो गई तो विश्वविद्यालय ने उनको वापस बुला लिया और मुझे भेजने का फरमान जारी कर दिया. लेकिन कुछ दरबारी टाइप चापलूस प्राध्यापकों के बहकावे में जातिगत दुर्भावना से प्रेरित होकर किए गए इस ट्रांसफर के ख़िलाफ मैंने प्रशासन को पत्र दिया है. अगर इस दुराग्रहपूर्ण अलोकतांत्रिक निर्णय को तत्काल वापस नहीं लिया गया तो विश्वविद्यालय एक बड़े प्रतिरोधी आंदोलन को झेलने के लिए फिर तैयार हो जाए…. फेसबुक पर चेतावनी देता यह पोस्ट है  सुनील कुमार सुमन का.  सुनील कुमार सुमन वर्धा युनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर है. विश्वविद्यालय ने सुनील जी को कोलकाता सेंटर पर भेजने का फरमान जारी कर दिया है. यह विश्वविद्यालय का एकाधिकार हो सकता है कि वह अपनेअधीन आने वाले शिक्षक को किसी दूसरे सेंटर पर भेज दे. लेकिन सुमन का मामला थोड़ा अलग है. असल में सुनील साल 2009 में वर्धा पढ़ाने पहुंचे थे और तभी से वो विश्वविद्यालय के प्रशासन को खटकते रहे हैं. वजह शायद यह है कि सुनील कुमार सुमन अम्बेडकरवादी है. वजह यह भी है कि वह वहां के छात्रों को बाबासाहेब के संविधान, समानता के अधिकार और तथागत बुद्ध के मानवतावाद की बात सिखाते हैं. वजह यह भी है कि वह वहां के स्टॉफ और शिक्षकों से नमस्कार की बजाय जय भीम और हूल जोहार कहते हैं. क्योंकि प्रो. सुनील कुमार अंबेडरवादी विचारधारा पर विश्वास करते है और देश भर में होने वाले सेमिनार, सिंपोसियम और वर्कशॉप में अपने विचार देने जाते है. ध्यान देने की बात यह है कि यह पहला मौका नहीं है जब विश्वविद्यालय सुनील कुमार के खिलाफ खड़ा हो गया है बल्कि उनकी नियुक्ति के बाद से ही वह विश्वविद्यालय आए कुलपतियों को चुभते रहे हैं. सुनील जी का घटनाक्रम विश्वविद्यालयी शिक्षा व्यवस्था में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव को भी दर्शाता है. इससे पहले सुनील को घेरने के लिए उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगवाया गया और 2013 में उनको सस्पेंड कर दिया गया और 2014 में टर्मिनेट कर दिया गया. उनकी तनख्वाह रोक दी गई. इसके खिलाफ सुनील ने मुंबई हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. अदालत में जब जिरह हुई तो झूठ की बुनियाद पर गढ़ा गया यह आरोप फर्जी साबित हुआ और सुनील पाक-साफ बाहर आ गए.  अदालत ने सुनील सुमन के पक्ष में फैसला सुनाया और तात्कालिक कुलपति विभूति नारायण को फटकारते हुए उन पर दस हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया. अदालत में जीतने के बाद  सुमन ने 31 जुलाई 2015 को फिर से ज्वाइंन किया. इस आरोप से बरी होने के बाद एक लंबे समय बाद प्रो. सुनील कुमार सुमन फिर से विश्वविद्यालय में पढ़ाने गए. इस दौरान वर्धा विश्वविद्यालय के  स्टूडेंट्स खासकर दलित, आदिवासी और ओबीसी के बीच उनकी लोकप्रियता पहले से ज्यादा बढ़ गयी. विद्यार्थी भी उनकी बातों से प्रभावित होने लगे. यह सब ब्राह्मणवादी कुलपति और सहकर्मी प्रोफेसरों को रास नहीं आया, इस कारणवश उनका तबादला मुख्य वर्धा विश्वविद्यालय से इसके कोलकाता सेंटर में कर दिया और यहां से रिलीविंग लेटर दे दिया गया. प्रो. सुनील कुमार इसको साजिश बता रहे है. उनका कहना है कि बुधवार से एम.फिल.-पी-एच.डी. में प्रवेश के लिए इंटरव्यू शुरू हुए और इसी दिन मुझे रिलिविंग लेटर जारी कर दिया गया. विश्वविद्यालय प्रशासन ने इंटरव्यू को विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए आनन-फानन में मेरा रिलीविंग लेटर जारी कर दिया ताकि मैं तत्काल कोलकाता चला जाऊं और यहां इंटरव्यू बोर्ड में बैठ ही न सकूं. प्रो. सुनील कुमार कहना है कि विश्वविद्यालय जातिगत आधार पर दलित प्रोफेसर और नॉनटीचिंग स्टाफ से भेदभाव व नफरत करता है. विश्वविद्यालय भेदभाव के चलते मेरा दो साल का वेतन और प्रमोशन रोके हुए है. अगर विश्वविद्यालय मेरे साथ ऐसे ही भेदभाव करता रहेगा और रिलीविंग लेटर को वापस नहीं लेगा तो मैं अनशन पर बैठूंगा. धरना प्रदर्शन करूंगा और इसमें मेरे कुछ सहयोगी भी समर्थन करेंगें.

अमेरिका में नस्लीय हमले और भारतीय मीडिया

अमेरिका एक बार फिर नस्लीय हमलों से दहल उठा है. नए सिरे से इसकी शुरुआत जुलाई के पहले सप्ताह के शेष में पुलिस की गोली से दो दिन में दो अश्वेतों की मौत से हुई है. पहली घटना पांच जुलाई की है. उस दिन लुसियाना पुलिस ने एल्टन स्टर्लिंग नाम के एक अश्वेत को पार्किंग स्थल पर रोका. पुलिस को उस पर हथियार रखने का शक था. कहासुनी और हाथापाई के बाद 37 वर्षीय एल्टन को पुलिस वालों ने जमीन पर गिरा दिया और उस पर कई गोलियां झोंक दिया, जिससे मौके वारदात पर ही उसकी मौत हो गयी. दूसरी घटना अगले ही दिन मिनेसोटा में घट गयी. वहां अपनी महिला मित्र के साथ कार में सवार फिलांडो क्रेस्टीले नामक अश्वेत से पुलिस ने ड्राइविंग लाइसेंस दिखाने को कहा. फिलांडो जब लाइसेंस निकाल रहा तब पुलिस को लगा वह गन निकाल रहा है. ऐसा लगते ही पुलिस ने उसे गोलीयों से उड़ा दिया. फिलांडो की महिला मित्र ने उस घटना की वीडियो बना लिया. उस वीडियो के वायरल होते ही एल्टन की मौत से शुरू हुआ विरोध-प्रदर्शन और विकराल रूप धारण कर लिया और अगले दिन डलास में 800 लोग विरोध प्रदर्शन के लिए जमा हो गये. विरोध को देखते हुए मौके पर सौ के करीब पुलिस तैनात की गयी थी. विरोध प्रदर्शन शांति से चल रहा था लेकिन अचानक गोलीबारी शुरू हो गयी. निशाना श्वेत पुलिस अधिकारियों को साध कर लगाया जा रहा था. गोलीबारी में13 लोग जख्मी हुए. घायल होने वालों 12 पुलिस अधिकारी थे, जिनमे पांच की मौत हो गयी. आत्मसमर्पण करने से इनकार करने पर हत्यारे को रोबोट बम से उड़ा दिया गया. बाद में हत्यारे की पहचान अफगान युद्ध में शिरकत किये अश्वेत मीकाह जॉनसन के रूप में हुई. अमेरिका के इतिहास में वहां पुलिस के लिए यह सबसे दुखद दिनों में एक था. इससे पहले अमेरिकी पुलिस को सबसे बड़ी चुनौती कुख्यात 9/11 को मिली थी जिसमें 72 पुलिस वाले हताहत हुए थे. जॉनसन ने बम से उड़ाए जाने के पूर्व पुलिस वालों को खुलकर बताया था कि वह अश्वेतों की हत्या से नाराज है और गोरे लोगों की हत्या करना चाहता है, खासकर गोरे पुलिस वालों की. बहरहाल डलास के इस हत्याकांड ने फर्ग्युसन प्रोटेस्ट के याद ताजा कर दी. लोग भूले नहीं होंगे अमेरिका के मिसौरी प्रान्त के फर्ग्यूसन इलाके की अगस्त 2014 की वह घटना है जिसमें 18 साल के अश्वेत युवक माइकल ब्राउन द्वारा एक स्टोर से जबरन सिगार का पैकेट उठा लिए जाने के बाद मौके पर पहुंचे गोरे पुलिस आफिसर डरेन विल्सन से उसकी तकरार हो गयी और देखते ही देखते उस पुलिस अधिकारी ने उस पर गोलियां बरसा दी थी. बाद में नवम्बर 2014 के तीसरे सप्ताह में जब डरेन विल्सन पर ग्रांड ज्यूरी ने अभियोग चलाने से इंकार कर दिया,वहां के लगभग दर्जन भर शहरों में दंगे भड़क उठे. बहरहाल फर्ग्युसन प्रोटेस्ट के दौरान ही पुलिस की गोली से दो और अश्वेतों की हत्या हो गयी. अश्वेतों ने इन मौतों को फर्ग्युसन कांड से जोड़ते हुए उग्र धरना-प्रदर्शनों का सिलसिला अमेरिका के अन्य शहरों तक फैला दिया. फर्ग्युसन प्रोटेस्ट शुरू होने के ठीक एक महीने बाद एक व्यक्ति ने न्यूयार्क पुलिस के दो अफसरों को काफी करीब से गोली मार कर हत्या करने के बाद खुद को भी अपनी ही बन्दूक की गोली से उड़ा लिया. बंदूकधारी की पहचान 28 वर्षीय इस्माइल ब्रिन्स्ले के रूप में हुई है जो हत्या कांड को अंजाम देने के लिए बाल्टीमोर से 300 किलोमीटर का सफ़र कर न्यूयार्क पहुंचा था. पुलिस अधिकारयों के मुताबिक ब्रिन्स्ले ने सोशल मीडिया पर लिखा था कि माइकल ब्राउन और एरिक गार्नर नामक दो अश्वेतों की पुलिस अधिकारियों द्वारा की गयी हत्या के कारण वह पुलिस अधिकारियों की जान लेना चाहता है. उसने घात लगाकर गश्ती कार में बैठे दोनों अफसरों पर बन्दूक तान कर खिड़की से उनके सिर और शरीर के उपरी हिस्से पर गोली मार दी. इसके बाद वह एक मेट्रो स्टेशन की ओर भाग गया और वहां खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर ली.इस घटना से न्यूयार्क सिटी वैसे ही शोक में डूब गयी थी, जैसे आज डलास डूबा है. बहरहाल फर्ग्युसन प्रोटेस्ट के न्यूयार्क और अब डलास पुलिस हत्याकांड में जो सबसे बड़ी साम्यता है वह यह कि तबके इस्माइल ब्रिन्सले और आज के मीकाह जॉनसन दोनों में ही अपने अश्वेत भाइयों के पुलिस द्वारा मारे जाने से बेहद दुखी थे और इससे दोनों के ही मन में गोरों, खासकर गोरे पुलिसवालों के प्रति अपार घृणा पैदा हो गयी थी जिस कारण उन्होंने लगभग फिदायिनी अंदाज में हमला अंजाम दे दिया.   बहरहाल पिछले दो सालों में फर्ग्युसन से शुरू होकर डलास तक पहुचे नस्लभेद के खिलाफ अश्वेतों में बढ़ता आक्रोश अमेरिका के 1960 के दशक की और मुड़ने का संकेत देने लगा है. सचमुच कुछ ऐसा होता दिख रहा है इसलिए राष्ट्रपति ओबामा को जोर देकर कहना पड़ा है अमेरिका में साठ के दशक वाले हालात नहीं पैदा हुए हैं. पर पैदा न होने के बावजूद ओबामा की सफाई बताती है स्थिति गंभीर है. किन्तु भारी अफ़सोस की बात है कि नस्लभेद के चलते साठ के दशक की ओर लौटने का संकेत देने वाली डलास की घटना को भारतीय मीडिया मुख्य रूप से अमेरिकी नागरिकों के पास बड़ी तादाद में पड़े हथियारों की परिणति बता रही है. इसके मुताबिक़ इस हत्याकांड के बाद बंदूकों पर नियंत्रण को लेकर फिर से बहस शुरू होगी. लेकिन अमेरिका में बंदूकों की बहुतायतता निश्चय ही एक समस्या है, पर फर्ग्युशन और डलास कांड के पीछे क्रियाशील कारणों में इसका स्थान सर्वनिम्न पर है. डलास नस्लभेदी घटनाओं के खिलाफ वंचित अश्वेतों के आक्रोश की उपेक्षा कर, हथियारों की बड़े पैमाने पर मौजूदगी को सबसे बड़ा सबब बताने से क्या ऐसा नहीं लगता कि भारत की सवर्णवादी मीडिया सुनियोजित तरीके से अमेरिकी युवकों में नस्लभेद के खिलाफ उभरे आक्रोश से बहुजनों का ध्यान भिन्न दिशा में खीचना चाहती है ताकि बहुजन युवा जातिभेद के खिलाफ अश्वेत अमरीकियों की भूमिका न अख्तियार करने लगें? यह शक इसलिए पैदा हो रहा है कि व्यवसाय-वाणिज्य, फैशन,टेक्नोलाजी, फिल्म-मीडिया इत्यादि सहित अमेरिका की जीवन शैली तक का अन्धानुकरण करने तथा अपने बच्चों को वहां बसाने का सपना देखने वाले किसी सवर्ण नेता, लेखक, कलाकार इत्यादि ने कभी मीडिया में ऐसा सन्देश नहीं दिया, जिससे अमेरिका के अश्वेतों की भांति भारत के बहुजन भी वहां से कुछ प्रेरणा ले सकें. अगर ऐसा नहीं होता तो अमेरिका में 70 के दशक से लागू वहां की सर्वव्यापी आरक्षण पद्धति (डाइवर्सिटी) से भारत का बहुजन पिछली सदी में ही भलीभांति वाकिफ हो जाता. लेकिन इससे अवगत होने के लिए बहुजनों को नयी सदी में चंद्रभान प्रसाद के उदय का इन्तजार करना पड़ गया. दरअसल अमरीका में पिछले दो सालों से वंचित अश्वेत एक से एक जो भयावह काण्ड अंजाम दिए जा रहे हैं उसके पीछे वहां की न्यायपालिका और पुलिस प्रशासन में उचित भागीदारी की मांग है. अमेरिका में डाइवर्सिटी पॉलिसी के तहत वहां के अश्वेतों को उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया, ज्ञान क्षेत्र इत्यादि में शेयर जरुर मिला, पर पुलिस विभाग और न्यायपालिका में वह अपर्याप्त है. मसलन 2014 में जिस फर्ग्यूसन से दंगे भड़के, वहां की 70 प्रतिशत आबादी अश्वेतों की संख्या स्थानीय पुलिस बल के 53 सदस्यों में सिर्फ तीन थी .जिस ग्रांड ज्यूरी के फैसले से लोगों का गुस्सा फूटा है, वहां उसके बारह सदस्यों में नौ श्वेत और तीन ही अश्वेत थे. पुलिस बल और ग्रैंड ज्यूरी में अश्वेतों जो स्थिति फर्ग्युसन में है, उससे बहुत भिन्न डलास की भी नहीं है. पुलिस बल और न्यायपालिका में श्वेतों का भरमार वहां के अश्वेतों के न्याय के मार्ग में बाधा है. ऐसा है तभी तो अमेरिका के 13 प्रतिशत कालों की जेलों में उपस्थिति 35 प्रतिशत है.पुलिस प्रशासन और न्यायपालिका पूर्वाग्रही तभी तो गोरों के 5.9 के मुकाबले कालों के पूरे जीवन में जेल जाने की सम्भावना 32.2 है. खुद अमेरिका के न्याय विभाग की रिपोर्ट स्वीकार करती है कि ट्रैफिक स्टॉप पर गोरों के मुकाबले तीन गुनी ज्यादा चेकिंग कालों की होती है. कालों के प्रति अमेरिकी पुलिस बल और न्यायपालिका के भीषण पूर्वाग्रही होने के यह सबूत क्या कम है? बहरहाल इसका इल्म भारतीय मीडिया को हो या न हो, पर राष्ट्रपति ओबामा को है इसलिए 2014 में ग्रांड ज्यूरी के फैसले के सम्मान का अनुरोध करने के बावजूद उन्होंने यह कह डाला था-‘अश्वेत अमेरिकियों और कानून प्रवर्तन के बीच बहुत कुछ किया जाना बाकी है.’ इधर 70 प्रतिशत से अधिक आबादी वाले जिस गोरे अमेरिकी प्रभुवर्ग ने अश्वेतों के लिए उद्योग-व्यापार,शासन-प्रशासन, फिल्म-टीवी इत्यादि में सर्वव्यापी आरक्षण नीति (डाइवर्सिटी) लागू करवाने में सदाशयता का परिचय दिया पिछले कुछ वर्षों से वह अब धीरे-धीरे उनके प्रति अनुदार व पूर्वाग्रही होने लगा है. अगर ऐसा नहीं होता तो वहां हाल दिनों में कैसे अश्वेतों के विरुद्ध सक्रिय श्वेतों के 95 हेट- ग्रुप वजूद में आ गए? अमेरिकियों में आये इस नकारात्मक बदलाव के कारण ही डोनाल्ड ट्रंपों का उदय होने लगा है. इस बदलाव के चलते वहां के पुलिस और न्यायपालिका में हावी श्वेत भी अश्वेतों के प्रति अतिरिक्त रूप से पूर्वाग्रही होते जा रहे हैं. अश्वेतों का मानना है कि यदि न्यायपालिका और पुलिस बल में पर्याप्त शेयर मिल जाय तो उनपर नस्लीय भेदभाव में और कमी आएगी. लेकिन फिलहाल वैसा होता दिख नहीं रहा है, इसलिए प्रभुवर्ग पर दबाव बनाने के लिए किसी भी घटना की आड़ में वे भयावह कांड अंजाम दिए जा रहे हैं. इस असल कारण को सवर्ण प्रभुत्व वाली भारतीय मीडिया दबा कर रखना चाहती है, ताकि भारत के बहुजन युवा ब्रिन्सले और जॉनसनों से प्रेरणा न लेने लगें. (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं ,मो-9654816191 )

बसपा की तैयारी और विपक्षी दलों की बेचैनी

उत्तर प्रदेश का चुनावी माहौल गरमा गया है. बहुजन समाज पार्टी ने अपने पत्ते खोलने शुरू कर दिए हैं. पार्टी की अध्यक्ष मायावती जिस तरीके से उत्तर प्रदेश के मुद्दों को लेकर लगातार मुखर हैं, उसने विपक्षी दलों की बेचैनी बढ़ा दी है. उन्होंने हर मुद्दे पर अपनी राय रखनी शुरू कर दी है. कांग्रेस पार्टी ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर यह जता दिया है कि वह यूपी में महज मूकदर्शक बने नहीं रहना चाहती है. चुनाव पूर्व होने वाले सर्वे में मीडिया द्वारा बसपा को पहले ही सबसे बड़ी पार्टी बताया जा चुका है. इसकी जायज वजह भी है. जहां विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और भाजपा अब तक अपनी रणनीति को लेकर पसोपेश में हैं तो वहीं बसपा ने जमीन पर काम करना शुरू कर दिया है. पार्टी के कार्यकर्ता गांव-गांव में सक्रिय हैं, जबकि भाजपा और समाजवादी पार्टी अंदरुनी आपसी गठजोड़ के जरिए कैराना जैसे मुद्दों के भरोसे अपनी चुनावी नैया पार करने की सोच रही है. लेकिन उत्तर प्रदेश में यह संभव होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि प्रदेश की जनता भाजपा-सपा गठजोड़ को समझ चुकी है और उसने कहीं न कहीं बसपा को सत्ता में लाने का मन बना लिया है. विकास और भ्रष्टाचार के साथ वर्तमान में प्रदेश में सबसे बड़ा मुद्दा सुरक्षा और कानून व्यवस्था का बन चुका है. प्रदेश में यह चर्चा आम है कि समाजवादी पार्टी की सरकार कानून व्यवस्था और सुरक्षा से जुड़े मामले पर पूरी तरह से विफल रही है. और जब सरकार से जुड़े लोग ही गुंडागर्दी पर उतर आएं तो फिर स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है. इन सारे तथ्यों के बावजूद उत्तर प्रदेश में बसपा की कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि दलित और पिछड़ा समाज बसपा के पक्ष में कितना खड़ा होता है. क्योंकि लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज बहुजन समाज पार्टी को झटका दे चुका है. तमाम दावों और तैयारियों के बावजूद जमीन पर बसपा की चुनौती दलित-पिछड़े वोटरों को एकजुट करना होगा. यहां उसे भाजपा से चुनौती मिल सकती है, क्योंकि यादव वोट सपा को जाने के बाद पिछड़े वर्ग के अन्य समूहों के वोटों पर भाजपा की भी नजर है. उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण और राजपूत ऐसे दो वर्ग हैं, जिन पर बसपा और भाजपा दोनों का दावा है. तो शीला दीक्षित को मैदान में उतार कर कांग्रेस ने भी इस समुदाय के वोट पर अपना दावा पेश कर दिया है. बसपा का ज्यादातर दारोमदार असल में दलित-पिछड़े वोटरों पर निर्भर है. बसपा की जीत के लिए इन दोनों समाज के वोटरों का बसपा के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना जरूरी है. हालांकि स्वामी प्रसाद मौर्या और आर.के चौधरी के जाने से पार्टी को झटका लगा है. लेकिन इसका ज्यादा असर होने वाला नहीं है क्योंकि चुनाव अभी काफी दूर है और बसपा और उसके समर्थकों ने खुद को इस झटके से उबार लिया है. – लेखक मासिक पत्रिका दलित दस्तक के संपादक हैं।​

बहन जी ने गरीब छात्र के सपने को संभाला, IIT में दाखिले को भिजवाए ढ़ाई लाख रुपये

बसपा और उसकी प्रमुख मायावती अक्सर जरुरतमंदों की मदद तो करती हैं, लेकिन वह उसे  प्रचारित करने में यकीन नहीं करती हैं. वरना कई नेता तो मदद बाद में करते हैं और प्रचारित पहले. खासकर जब चुनाव सर पर हो तो ऐसे मौके भुनाने से राजनीतिक दल और नेता बाज नहीं आते लेकिन मायावती ऐसा नहीं करती हैं.  हालांकि ऐसी खबरें जिसे  मदद मिलती है, उसी के जरिए बाहर आ जाती है. 14 जुलाई को मायावती ने जेईई (ज्वाइंट एंट्रेंस एग्जाम) पास करने वाले एक छात्र को आईआईटी में दाखिला करवाने के लिए 2.5 लाख रुपये की मदद की है. घटना बस्ती की है. यहां के अतुल कुमार एक होनहार छात्र हैं. इसने अपनी मेहनत और लगन के बूते JEE एग्जाम पास कर लिया. इसके बाद उसे आईआईटी में दाखिला लेना था, लेकिन परिवार के पास पैसे नहीं थे. अतुल और उनके परिवार की उम्मीद टूटती नजर आ रही थी. अतुल को अपने सपने बिखरते लग रहे थे लेकिन तभी बसपा प्रमुख मायावती उनके लिए उम्मीद की रौशनी बनकर आई. किसी के जरिए बात बसपा प्रमुख मायावती को पता चली. उन्होंने तुरंत इस मामले की पड़ताल करवाई. पता चला कि कुछ पैसे आ गए हैं और फिलहाल ढ़ाई लाख रुपये कम पर रहे हैं. इसका संज्ञान लेते हुए मायावती ने तुरंत पार्टी के विधायक और पूर्व मंत्री रहे रामप्रसाद चौधरी को अतुल से मिलकर जरूरी मदद करने का निर्देश दिया और ढ़ाई लाख रुपये भिजवाएं. मामला बस्ती सदर तहसील के जिगनी गांव के दलित छात्र अतुल कुमार का है. अतुल ने अपनी कड़ी मेहनत के दम पर जेईई के प्री और मेंस की परीक्षा पास की. जेईई मेंस में 4770 और जेईई एडवांस में 3370 रैंक के साथ अतुल ने परीक्षा पास की. अतुल का सपना इंजीनियर बनने का था. लेकिन गरीबी उसकी राह में बाधा बनकर खड़ी हो गई. अतुल के पिता रामचरित्र एक मेडिकल स्टोर पर रहते हैं. उनके दो बेटे में अतुल छोटा है. रामचरित्र ने दलित दस्तक से बात करते हुए कहा कि बहन जी की मदद के बाद इस साल का फीस हो गया है. उनके सहयोग से अब मेरा बेटा पढ़ सकेगा.

दलित आईएएस अधिकारी को स्वीपर बना दिया!

सरकार और प्रशासन में जातिवाद किस कदर हावी है, इसका सबूत मध्य प्रदेश की एक हालिया घटना है. मध्य प्रदेश में एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी को उसके पद की गरिमा को नजरअंदाज करते हुए स्वीपर जैसा काम करने को दे दिया गया. इससे आहत आईएएस अधिकारी ने न्याय की मांग को लेकर आवाज उठाई है. अधिकारी का नाम रमेश थेटे है. मध्य प्रदेश के चर्चित आईएएस अफसर रमेश थेटे ने अब अपर मुख्य सचिव आरएस जुलानिया पर आरोप लगाया है कि जुलानिया ने उन्हें जातिगत कारणों से सचिव के अधिकार नहीं दिए हैं. उन्होंने टॉयलेट बनवाने और साफ करने का काम देकर मुझे स्वीपर बना दिया है. रमेश थेटे ने पद की गरिमा को बचाने के लिए सरकार से भी गुहार लगाई है. उनकी मांग है कि उन्हें सचिव का अधिकार दिया जाए. हालांकि सरकार भी थेटे की मदद को आगे नहीं आ रही है. आलम यह है कि विभागीय मंत्री गोपाल भार्गव मामले से अंजान बने हुए हैं. उनका कहना है कि दोनों अफसरों के बीच किस बात को लेकर विवाद है इसकी मुझे जानकारी नहीं है. कार्य विभाजन में थेटे को कौन से काम देने हैं, यह जुलानिया ने मुझे नोटशीट पर लिखकर अनुशंसा की थी. इसे मैंने ओके कर दिया था. जुलानिया और थेटे दोनों आईएएस अफसर पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग में पदस्थ हैं. इसी बीच दोनों अधिकारियों के बीच बातचीत का अंश भी सामने आया है, जिससे स्थिति को समझा जा सकता है. थेटे- आप मुझे पूर्व में रहे सचिवों की तरह काम क्यों नहीं दे रहे हैं? जुलानिया- मैंने जो किया, वह सही है. इससे ज्यादा नहीं मिलेगा. थेटे- सर, मैं तो समता के सिद्धांत की बात कर रहा हूं. जुलानिया- इस तरह बात मत करो. थेटे- यह तो जातिवाद है. जुलानिया- मुझे बहस नहीं करनी है. इसे मुद्दा मत बनाइए. थेटे- मुद्दा तो आप बना रहे हैं. मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं? जुलानिया- आपको जो करना है करो. ऊपर बात कर लो. थेटे- ऊपर बात करने के लिए मैं आपसे कोई ऑर्डर नहीं लूंगा. जुलानिया- इस तरह बात करोगे तो दोबारा मेरे पास मत आना. थेटे- मैं अब आपके पास नहीं आऊंगा. इस मामले में अब तक जुलानिया की कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है.

मरी गाय उठाने गए दलितों के साथ गौ रक्षक दल ने की हिंसा

उना। दलित सवर्णों को किस कदर खटकते है उसकी एक बानगी गुजरात के उना तहसील के दलडी और मोतिसर गांव में देखने को मिली. गांव में दो अलग-अलग जगह गाय मरी हुई थी.  गाय के मालिक ने समढीयाला गांव के गाय उठाने वाले ठेकेदार को बताया. ठेकेदार 4 दलित व्यक्ति के साथ मरी हुई गाय उठाने गए. तभी गांव के गौ रक्षक दल ने इन सभी दलितों की पिटाई कर दी. ठेकेदार और दलितों ने गौरक्षक दल को बहुत बार बताया कि गाय पहले से ही मरी हुई है, गाय के मालिक ने हमें फोन करके के बुलाया है लेकिन गौ रक्षक दल ने उनकी बात को अनसुना कर उनके साथ मार-पीट करने लगे. पिटाई के कारण दो दलित व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गए है और अन्य दो लोगों को भी गहरी चोटें आयी. गाय के मालिक ने दलितों का समर्थन किया और दलितों को अस्पताल में एडमिट भी करवाया है. दलितों का कहना है कि हम लोग तो मरी हुई गाय उठाने गए थे, अगर हम लोग गाय नहीं उठाते तो वह वहीं पड़े-पड़े सड़ जाती क्योंकि गांव का कोई भी व्यक्ति दलितों के बिना मरी गाय को हाथ नहीं लगाता. एक अन्य दलित ने कहा कि वैसे तो गाय सड़कों पर कुछ भी खाती रहेगी तब यह गौरक्षक दल उनकों खाना नहीं देते और न ही देखभाल करते हैं, जब हम मरी गाय उठाने जाते हैं तो मारने लगते हैं.

अपनी जाति से कुछ व्यक्तिगत सवाल

मैं दलित नहीं हूं, लेकिन मैं एक ‘बेहतरीन जाति’ की भी नहीं हूं इसका एहसास मुझे बचपन से ही था. मेरा बचपन (नब्बे का दशक) एक कोलियरी-टाउन सिंगरौली की चीप हाउसिंग कॉलोनी में बीता जहां मेरे पिता सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी करते थे. बैरक-नुमा यह कॉलोनी सिंगरौली के आख़िरी छोर पर है, जिसे ‘नीचे कॉलोनी’ भी कहा जाता है. यहां कोलियरी के स्वीपर, सिक्यूरिटी गार्ड, ड्राइवर आदि को रहने के लिए एक कमरे का सरकारी क्वार्टर दिया गया था, जिसमे शुरूआती दिनों में टॉयलेट-बाथरूम की सुविधा नहीं थी. तब शौच आदि के लिए हम पीछे की ओर खाली मैदान जाया करते थे. पिता की सरकारी नौकरी की वजह से मुझे केंद्रीय विद्यालय में दाखिला मिल गया था जहां सिंगरौली के ‘ऊपर’ कॉलोनी के लड़के-लड़कियां भी पढ़ते थे. अक्सर मेरी सहेलियां कहा करती थी कि तुम्हारा घर ‘नीचे कॉलोनी’ में है, वहां जाने से मम्मी डांटती है. ऊपर कॉलोनी की सहेलियों के घर जाने पर एहसास-ए-कमतरी हो जाती थी. कौन किस जाति का है इसको लेकर कुछ भी दबा-छिपा नहीं था. मेरी सवर्ण सहेलियों की माताएं कुछ कम-ज्यादा लेकिन साक्षर थीं. उनके पास ज्यादा सलीके वाले कपड़े थे. उन्हें ठीक-ठाक हिन्दी आती थी. मेरी मां बिलकुल निरक्षर थी. उनको ठेठ भोजपुरी के अलावा कुछ नहीं आता था. मुझे एक प्रकार का एहसास था कि इन सभी बातों का जाति से कुछ ना कुछ लेना-देना तो ज़रूर है. जाति को लेकर एक राजनीतिक समझ पिता की वजह से विकसित हुई. सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी से पहले वो 15 साल फ़ौज में रहे थे. सन 1971 के भारत-पाक लड़ाई में बिहार-उत्तर प्रदेश के तमाम दलित-बहुजन एवं अन्य गरीब युवकों को फौज़ में भर्ती होने का अवसर मिला. लड़ाई ख़तम होने के बाद वहां पढ़ाई-लिखाई के अवसर भी मिले. मुझे ठीक-ठीक तो मालूम नहीं लेकिन मेरे पिता के राजनीतिक चेतना की नींव शायद वहीं पड़ी. और शायद बिहार में हो रहे राजनीतिक बदलावों जैसे राष्ट्रीय जनता दल और लालू यादव के उदय ने उनके विचारों को और मजबूत किया. उनके मुंह से अक्सर मैंने ‘ब्राह्मणवाद’ शब्द सुना था. उनके दोस्तों से होने वाली चर्चाओं में मैंने ‘जातिवादी’, ‘भेदभाव’ जैसे शब्द सुन रखे थे. इसके अलावा रोज़मर्रा के जीवन में होने वाली कुछ और घटनाओं ने इस समझ को गहरा किया. जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रही थी; गणित और भौतिकी का ट्यूशन पढ़ने जाया करती थी. मेरे शिक्षक अक्सर सबके सामने मेरी तारीफ़ किया करते थे क्योंकि मैं दसवीं में अव्वल आई थी. शिक्षक के पिता ने मुझसे पूछा कि तुम कौन जाति कि हो, मैंने बता दिया. वो मानने को तैयार नहीं थे कि अहीर की लड़की दसवीं पास हो गई. उन्होंने कहा कि तुम झूठ बोल रही हो, तुम अहीर नहीं कायस्थ हो. अहीर लोग कहां अपनी लड़कियों को दसवीं तक पढ़ाते हैं. हालांकि मुझे मालूम था कि उनका observation  सही है कि अहीर लोग अपनी लड़कियों को नहीं पढ़ाते. पूरे खानदान ही नहीं बल्कि अपने गांव कि मैं एकमात्र लड़की हूं जिसको पढ़ने का मौका मिला है. इन्हीं दिनों मेरे पिता मुझे एक स्थानीय श्रीकृष्ण समिति सम्मेलन (यादव सम्मलेन) में लेकर गए थे. चूंकि मैं स्कूल में भाषण प्रतियोगिता आदि में हिस्सा लिया करती थी, मेरे पिता ने मुझे मंच से कुछ बोलने को उकसाया. उनकी बड़ी लालसा रहती थी कि समाज उनकी तारीफ़ करे कि उन्होंने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया. मैंने भी भाषण प्रतियोगिता समझ कर कुछ-कुछ बोल दिया, जिसका मुझे एक शब्द भी याद नहीं. वहां उपस्थित लोग भी इस बात से संतुष्ट हो गए कि एक लड़की बड़ा अच्छा बोली, वो लड़की क्या बोल रही है इस बात से किसी को कोई लेना-देना नहीं था. बल्कि मुझे भी उस उम्र में कुछ लेना-देना नहीं था. मेरा मकसद भी सिर्फ ‘भाषण-कला’ के लिए वाहा-वाही लूटना था. महत्वपूर्ण होने की लालसा थी. मेरे पास खुद की उपयोगिता साबित करने का इससे अच्छा अवसर नहीं था, क्योंकि हमें ऐतिहासिक रूप से non-meritorious समझा जाता था. मेरी मां जैसा नहीं बनाना था मुझे, जिसे गंवार महिला की संज्ञा के अलावा कुछ और हासिल नहीं हुआ. मैं इस गंवार-देहाती दुनिया से बाहर निकलने को बेचैन थी. धीरे-धीरे ये समझ बनी की अहीर समाज खुद को तरह-तरह से बेहतर साबित करने में लगा हुआ है. इनमे से एक तरीका ‘कृष्ण’ नामक एक किरदार को अपनी जाति का साबित करना भी शामिल था और गोवर्धन पूजा व कृष्ण समिति सम्मलेन के ज़रिए समाज के लोगों को जोड़ना था. बचपन और किशोर उम्र में ये सब एक मेला सा लगता था लेकिन बाद में खटकने लगा. जब मैंने उच्च शिक्षा की पढ़ाई के फ़ैसले खुद लेने चाहे, अपने लिए साथी चुनने की आज़ादी चाही और भरपूर विरोध झेला तब जाकर समझ आया कि ये यादव सम्मलेन, गोवर्धन पूजा आदि मेरे काम के नहीं हैं. बार-बार ये सवाल खटकने लगा कि अहीर महिलाओं के लिए इन सम्मेलनों का क्या औचित्य है? इन सम्मेलनों में इनकी क्या भूमिका है? सिंगरौली में हुए उस यादव सम्मलेन में मैं performance देने वाली बालिका थी, लोग सिर्फ इस बात से संतुष्ट थे कि ‘फलना यादव’ ने अपनी लड़की को पढ़ाया-लिखाया, लेकिन लड़की कहीं चुनौती न बन जाये इसके लिए एहतियात बरतने की समझाइश भी मिलती रही. और अपवाद के लिए हर समिति या सम्मलेन में जगह होती है. उसका एक मनोरंजक पक्ष होता है. अगर यह अपवाद न रहे है और यादव सम्मलेन के मंचों पर महिलाओं का कब्ज़ा हो जाए तो क्या होगा? लड़कियां सिर्फ पिताओं के संतुष्टि के मुताबिक पढ़ाई का रास्ता न चुनकर अलग सपने देखने लगें तो क्या होगा? अगर अहीर लड़कियां अंतरजातीय विवाह कर लें और अपनी जाति के बच्चे ना पैदा करके संख्याबल में इजाफ़ा ना करें तो क्या होगा? संख्या बल यादव जाति का सबसे मजबूत पक्ष माना जाता है. यादव जाति के लिए संख्या बल कि राजनीतिक महत्ता पर इस आलेख में चर्चा करने से पहले एक विराम लेकर, कुछ और विवरण देना चाहूंगी. मेरे पिता जो पहली पीढ़ी के पुरुष साक्षर और मैट्रिक पास व्यक्ति थे उनके लिए बेटी की पढ़ाई-लिखाई महत्वपूर्ण थी लेकिन एक सीमा में. बेटी ऐसी पढ़ाई पढ़े कि समाज में ही उसकी शादी हो पाए. उन्होंने अपने परिवार, गांव, समाज की गालियां खाकर अपनी बेटी को पढ़ाया-लिखाया. मैं उनके प्रगतिशीलता की बहुत बड़ी प्रशंसक हूं क्योंकि उनके गांव के किसी व्यक्ति ने अपनी बेटी के लिए इतना सपना भी नहीं देखा था. खुद उनके पिता यानि मेरे दादा उनको जबरदस्त गालियां दिया करते थे क्योंकि वो आगे पढ़ना चाहते थे. मेरे निरक्षर और भूमिहीन दादा चाहते थे कि उनका लड़का मजदूरी करे और ये पढ़ाई-लिखाई के फालतू सपने छोड़ दे. ऐसी पृष्ठभूमि से आए एक व्यक्ति का अपनी लड़की को पढ़ाने का सपना देखना और उसके लिए भरपूर मेहनत करके सुविधा मुहैया कराना तारीफ़-ए-काबिल है. ख़ास तौर पे ऐसे भोजपुरी समाज में जहां आज भी पिछड़ी जातियों के मर्द जब कमाने के लिए शहर जाते हैं तो औरतों और बच्चों को गांव में घर ‘अगोरने’ के लिए छोड़ जाते हैं. यह मामला केवल मजदूरी करने वाले बिहारी मर्दों का नहीं है. जहां तक मैंने देखा है कि सिंगरौली में बिहार के क्लास फोर कर्मचारियों में कुछेक ही अपने बीवी-बच्चों को अपने साथ रख कर पढ़ाने-लिखाने की ज़हमत उठाते थे. उनका उद्देश्य पैसा जुटाकर गांव में ज़मीन खरीदना होता है. ऐसे समाज का कोई व्यक्ति अगर गांव में ज़मीन खरीदने के अपने सपने के साथ समझौता करता है, अपने बच्चों ख़ासकर बेटी पढ़ाने के लिए तो यह acknowledge किया जाना चाहिए. ख़ास तौर पे तब जब पिछली पीढ़ी तक आप भूमिहीन थे और इस पीढ़ी के आपके साथी-समाजी व परिजन लोग बाहर से कमाए पैसों को बच्चों कि पढ़ाई लिखाई के बजाए गांव में खेत खरीदने में लगा रहे हैं. गांव से निकल कर ‘शहर’ या क़स्बे पहुंचे ये पहली पीढ़ी के पुरूष जिनके पास सरकारी नौकरी और थोड़ी फुर्सत है अपनी राजनीतिक चेतना खंगालने लगते हैं. जाहिर है कि जातीय हीनता को जातीय महात्म्य में तब्दील करने वाला कोई संगठन उन्हें ज्यादा आकर्षक लगेगा. अहीर समाज के पुरूषों के लिए यादव सम्मलेन एक ऐसा विकल्प रहा है. अहीर समाज की एक हास्यास्पद छवि रही है. अहीर जाति का नाम लेते ही लोगों को गाय-भैंस सूझने लगता है और हंसी छूटने लगती है. अहीर लोग तथाकथित सवर्ण, सभ्य और पढ़े लिखे समाज में चुटकुले की हैसियत रखते हैं. संभवतः इस संस्कृति-विहीन छवि को बदलने के प्रयास में खुद को क्षत्रिय साबित करने की होड़ में अहीर भी शामिल हो गए ताकि जाति भी ना जाए और छवि भी सुधर जाए. बहरहाल, जब मैंने अहीर सम्मलेन के इतिहास यानि इसकी कब और कैसे शुरुआत हुई खोजना शुरू किया तो Christopher Jafferlot की किताब – India’s Silent Revolution: The Rise of the Low Castes in North Indian Politics हाथ लगी. हालांकि मुझे इस विषय में और विस्तार से पढ़ने की ज़रूरत है. इस किताब के मुताबिक पहली अहीर/यादव जातीय महासभा जिसे गोप जातीय महासभा नाम दिया गया था, बिहार में 1912 में आयोजित की गयी थी. इसका प्राथमिक उद्देश्य आर्थिक और सामाजिक शोषण के खिलाफ ज़मीदारों से लोहा लेना था. गोप जाति के लोगों को ज़मींदारों के घर बेगारी करनी पड़ती थी. ज़मींदार उनके उत्पाद भी बाज़ार के मुक़ाबले सस्ते दामों पर खरीदते थे. अहीर महासभा ने उनकी मुखालफ़त के लिए अहीरों को क्षत्रिय कहना शुरू किया और ब्राह्मणवादी सिंबल जनेऊ पहनने को कहा. इसकी वजह से अहीर जाति के लोगों को हिंसा और बहिष्कार का सामना करना पड़ा. और इसके साथ ही अहीर जाति के इतिहास को brahmanise और aryanise करने की कोशिश शुरू हुयी. यह caste hierarchy के भीतर छवि निर्माण क्रियाकलाप (image building activity) थी जो ब्राह्मण की सत्ता को चुनौती तो देती थी मगर पूरी तरह से ख़ारिज नहीं करती थी. यह image building activity आज भी जारी है. इन्टरनेट पर तमाम यादव महासभाओं के वेबसाइट मिलेंगे. जिसमें निश्चित रूप से कृष्ण की दैवीय छवि होती है और ‘प्रमुख यादव पुरुषों’ की सूची और उनकी उपलब्धियों का बखान होता है. कुल मिलाके यह कोशिश दिखाई पड़ती है कि एतिहासिक रूप से पिछड़ी और गंवार जाति ने काफ़ी तरक्की कर ली है. अहीर सम्मेलनों में महिलाओं की भूमिका के बारे में भी कुछ विशेष पढ़ने को नहीं मिलता है. इक्का-दुक्का महिलाएं दिखाई देंगी जिनकी पारंपरिक और पूरक भूमिका दर्शायी जाती है. अब आते हैं संख्याबल के मुद्दे पर. जाहिर है कि अहीर जाति के राजनितिक उभार का आधार इस जाति का बहुसंख्यक होना है. यहां तक कि यूपी-बिहार को ‘यादव प्रदेश’ की संज्ञा दी जाती है क्योंकि यादव जनसंख्या का एक बड़ा प्रतिशत इस भगौलिक इलाके में रहता है. जनसंख्या बल को कायम रखने की ज़िम्मेदारी जाति की महिलाओं के ऊपर है. यहां मैं अपना उदहारण लेकर आना चाहूंगी. जब मैंने एक अन्य प्रदेश के गैर जाति और धर्म के युवक से विवाह किया तो यह कहा गया कि तुम पढ़ी-लिखी होकर भी राज्य और जाति के काम नहीं आई. हमने तुम्हें पढ़ाया और तुमने हमारे साथ धोखा किया. मेरा सवाल यह था कि मैंने भोजपुरी समाज पर PhD लिखी है, क्या वह अपने राज्य और समाज के काम आना नहीं होता? जाति के काम आना यानि लिखाई-पढाई के साथ-साथ जाति के पुरूषों की सेवा करना और उनके बच्चे पैदा करके संख्याबल बढ़ाना. मेरा दूसरा तर्क ये था कि यह युवक जिससे मैंने विवाह किया है, वह हमारे जैसा ही है, यानि बहुजन है. लेकिन यह बात जाति के लोगों के गले नहीं उतर रही. यादव सम्मेलनों से और पुरुषों से मेरा यह सवाल है कि अगर वे सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं तो व्यापक बहुजनवाद से दूर क्यों हैं? वे केवल ‘राजनीतिक गठजोड़’ तक ही सीमित क्यों रहना चाहते हैं. क्या केवल ब्राह्मणों का विरोध और अपनी जाति के पुरूषों की स्थिति मजबूत करके आप बहुजनवादी हो सकते हैं? आप गूगल करेंगे तो पता चलेगा कि राजस्थान यादव महासभा कितनी तत्परता से ‘जातीय उत्थान’ का काम कर रही है. मेरा यह सवाल है कि विजातीय शादी करने वाली दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा भावना यादव जो मूलतः राजस्थान की है, उसके परिजनों ने उसकी हत्या (तथाकथित ‘honour killing’) कर दी.  तब राजस्थान यादव महासभा कहां थी? क्या भावना यादव उनके लिए ‘यादव’ नहीं रही क्योंकि उसने विजातीय विवाह कर लिया? जग जाहिर है कि पितृसत्तामक ढांचा हर संगठन, हर सभा, हर जाति में मौजूद है लेकिन यहां केवल अहीर समाज के पितृसत्तामक ढांचे को उजागर करना मेरा उद्देश्य नहीं हैं, और ना हीं मैं ये चाहती हूं कि सवर्ण अकादमिक अपने dominant caste theory की और पुष्टि कर लें. मेरा उद्देश्य अपनी जाति से कुछ सवाल करना है. • अहीर जाति के लोग, अपने समान अन्य पिछड़ी जातियों और अपने से नीचे समझी जाने वाली जातियों के साथ किस प्रकार का सामाजिक और राजनीतिक संबंध बनाना चाहते हैं? जैसा कि डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने मराठा समुदाय को सुझाव दिया था कि वे सवर्ण जातियों से हाथ मिलाना चाहते हैं या अपने से नीचे की जातियों के साथ मिलकर ब्राह्मणवाद ख़तम करना चाहते हैं (देखें: Dr. Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches, Vol. 17, Part 2, pp: 81-82)? अहीर समाज को यह तय करना होगा कि ब्राह्मणवाद के फ्रेमवर्क में खुद को अपग्रेड करने की कोशिश के बजाए, इसका खात्मा करने के लिए दलित-बहुजन आन्दोलन ने जो राह सुझाई है, उस पर चलने की कोशिश करेंगे क्या? • और दूसरा सवाल यह है कि अहीर पुरूष, अहीर महिलाओं के साथ किस प्रकार का ‘राजनीतिक’ संबंध बनाना चाहते हैं. यहां राजनीतिक शब्द एक ख़ास उद्देश्य से इस्तेमाल किया गया है. अहीर पुरुषों और महिलाओं के पारिवारिक और सामाजिक संबंध तो जातीय बंधनों के कारण हैं ही लेकिन क्या वे जातीय सीमाओं से उठ कर मां-बहन-बेटी वाले संबंध के बजाए बहुजन और सामाजिक न्याय की राजनीति के साथी या मित्र बनना चाहेंगे? (साभारः राउंड टेबल इंडिया) लेखिका ने टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई से ‘भोजपुरी लोकगीतों और महिलाओं’ पर पीएचडी की है. जेंडर स्टडीज़ की शिक्षक हैं और ‘नई दुनिया’ मध्यप्रदेश व ‘लोकमत’ महाराष्ट्र में पत्रकार रह चुकी हैं.

ट्विटर के भद्रलोक को अनुप्रिया पटेल रास न आयी

अनुप्रिया जिस दिन एनडीए सरकार में मंत्री बनी, उसी दिन से (पहले कभी नहीं) उनके विवादित ट्वीट वायरल हो गये. और देखते-देखते वे  दंगाई हो गयी. उनके ट्वीट देश के जाने-माने पुरोधा लोगों ने रिट्वीट किया. अनुप्रिया उच्च वर्ग की ठसक और टेक्नीकल दिव्यांगता का शिकार हो गयी. अनुप्रिया का बैकग्राउंड देश के बाबू साहेब वालो के जैसा नहीं है. उनके पिता सोनेलाल पटेल ने कांशीराम के साथ बसपा में काम किया था, फिर उन्होंने अपना दल की स्थापना की. जिन लोगों ने भी सोनेलालजी का राजनैतिक जीवन देखा है वे बता सकते है कि वे ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी और बौद्ध धर्म के नजदीक थे. 2009 में सोनेलाल पटेल के निधन होने के बाद उनकी पत्नी दल की अध्यक्ष बनी और अनुप्रिया पटेल राष्ट्रीय महासचिव बनी. अनुप्रिया पटेल को पहली राजनातिक सफलता 2012 में मिली; जब वे बनारस की रोहनिया विधानसभा से निर्वाचित हुई. उत्तर प्रदेश में 2013 में त्रि-स्तरीय आरक्षण को लेकर एक बड़ा आन्दोलन हुआ और ये मुख्यत: दलित-पिछड़े वर्ग के युवाओं का आन्दोलन था. प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्र प्रारंभिक परीक्षा और मुख्य परीक्षा से लेकर साक्षात्कार तक में आरक्षण की मांग कर रहे थे. जहां तक मुझे याद है इस आन्दोलन का खुला समर्थन अपना दल की अनुप्रिया पटेल ने किया था. आन्दोलन के समर्थन में कई रैलियों में अनुप्रिया पटेल ने संबोधित किया था और मंडल कमीशन की सभी सिफ़ारिशो को लागू करने की मांग का समर्थन किया था. उस आन्दोलन का जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद शरद यादव, उदितराज (तब इन्डियन जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष थे), भाजपा के सांसद रमाकांत यादव ने समर्थन किया था. जबकि समाजवादी पार्टी की सरकार ने केवल आन्दोलन की मांग को ख़ारिज किया बल्कि आन्दोलन को पुलिस के बल से कुचल दिया. बसपा का भी रुख ज्यादा सहयोगात्मक नहीं रहा था. जहां तक अनुप्रिया पटेल के राजनैतिक जीवन का सवाल है उस कभी भी साम्प्रदायिकता या हिंदुत्व की राजनीति करते नहीं देखा गया. 2014 में उनका भाजपा के साथ राजनैतिक तालमेल हुआ और उनकी पार्टी को दो लोकसभा सीटों पर जीत मिली. ये अपना दल की अभी तक की सबसे बड़ी राजनैतिक सफलता है. भाजपा ने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को देखते हुये नीतीश कुमार की उत्तर प्रदेश में बढती दखल को रोकने के लिये और कुर्मी वोट को साधने के लिये अनुप्रिया पटेल को केन्द्रीय मंत्री बना दिया. भाजपा में कद्दावर कुर्मी नेता और केन्द्रीय मंत्री संतोष गंगवार और ओमप्रकाश सिंह को दर-किनार करके अनुप्रिया पटेल पर दांव लगाया है. लेकिन अनुप्रिया का केन्द्रीय मंत्री बनना देश के भद्रलोक को रास नहीं आया और नकली ट्विटर हैंडल से किये गये ट्वीट को वायरल किया गया और अनुप्रिया पटेल को ट्रोल किया गया. खबर है कि रवि शुक्ला अनुप्रिया पटेल के ऑफिस में आईटी सेल का काम देखता था लेकिन एक साल पहले उनको निकाल दिया गया था और ये सारे ट्वीट रवि शुक्ला ने अनुप्रिया पटेल के नाम से किये हैं. अभी तक भाजपा समर्थक जिन्हें भद्रलोक (तथाकथित लिबरल-सेकुलर-प्रगतिशील) ने भक्त की संज्ञा दी है उन पर ट्रोल करने के आरोप लगाये जाते थे और आरोप लगाने वाले भद्रलोक वर्ग वाले होते थे. इस बार अनुप्रिया को ट्रोल करने वाले यही भद्रलोक वाले थे. ये भी हो सकता है कि भद्रलोक को अनुप्रिया की पिछली राजनैतिक यात्रा के बारे में पता नहीं चल सका हो, और चूंकि उनके नकली ट्विटर हैंडल पर कई सारे केन्द्रीय मंत्रियों के बधाई वाले ट्वीट आएं इसलिए भी अनुप्रिया उनके निशाने पर आ गयी. हालांकि अनुप्रिया पटेल ने पुलिस में अपने नाम से नकली ट्विटर अकाउंट होने की शिकायत की है और मीडिया को ये बताया है कि उनका अभी तक ट्विटर में अकाउंट ही नहीं था. अब जांच होने के बाद ये पता चलेगा कि मामला क्या था लेकिन अनुप्रिया पटेल के ट्विटर प्रकरण से ये जाहिर हो गया कि ट्विटर में ट्रोल करने के दो गिरोह है और बिना जाने-समझे भद्रलोक वाले भी समय-समय पर ट्रोल गिरोह का रूप अख्तियार कर लेते है. – अनूप पटेल, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज में शोधार्थी है.

सबकी लड़ाई बसपा सेः यूपी चुनाव को लेकर प्रो. विवेक कुमार का विश्लेषण

हाल ही में शिक्षा कार्य के लिये मुझे गोरखपुर जाना पड़ा. गोरखपुर के लिये सीधी फ्लाइट रद्द होने के कारण मुझे वाया लखनऊ होकर गोरखपुर जाना पड़ा. लखनऊ एयरपोर्ट पर टैक्सी पकड़ कर मैं जब लखनऊ में दोस्तों से मिलने जा रहा था तो अनजान टैक्सी ड्राइवर जिसकी उम्र तकरीबन 30-35 साल रही होगी, से पूछा कि उत्तर प्रदेश के आने वाले चुनाव में किसकी सरकार बनेगी. टैक्सी ड्राइवर ने बिना झिझक, बिना कोई परवाह किये कि मैं किस विचारधारा का हूं-तपाक से कहा कि भाई साहब सरकार तो अबकी मायावती की ही बनेगी. उसने बीएसपी की जगह सीधे मायावती का नाम लिया था. मैंने पूछा बीएसपी की सरकार क्यों बनेगी? तो उसने उत्तर दिया क्योंकि मायावती इ गुन्डन का बहुत सही इलाज करती है. मैंने फिर पूछा भाजपा क्यों नहीं आयेगी? तो उसने कहा कि भाजपा और मोदी ने अभी कुछ नहीं किया है. उल्टे महंगाई और बढ़ा दी है. इसलिये उत्तर प्रदेश में तो सरकार बीएसपी की ही बनेगी. लखनऊ से मैं गोरखपुर बाई रोड गया. अबकी बार मेरी टैक्सी का ड्राइवर बुजुर्ग व्यक्ति था. कोई 50-55 की उम्र का. मैंने थोड़ी देर में अपना वही प्रश्न दागा- भई अबकी उत्तर प्रदेश चुनाव में किसकी सरकार बनेगी. मुझे आश्चर्य हुआ कि फिर से मुझे उत्तर मिला कि मायावती का. गोरखपुर पहुंच कर छात्रों, शिक्षकों एवं नौकरी पैशा लोगों से यही सवाल दोहराने पर फिर वही उत्तर आया जो दोनों टैक्सी वालों ने दिया था. यहां इस लेख में इन तथ्यों का जिक्र करने का केवल इतना मकसद है कि बच्चा, बूढ़ा, नौजवान, औरत हो या आदमी सब यही कह रहे हैं कि  अबकी बार मायावती सरकार. गोरखपुर से लौटकर लखनऊ में चर्चा के दौरान उत्तर प्रदेश में होने वाले 2017 के विधान सभा चुनाव के बारे में जो जानकारी मिली उसे यहां साझा करना आवश्यक है. सबसे पहले यहां यह बात उभर कर सामने आयी की सब की लड़ाई बसपा से है. सपा, भाजपा, कांग्रेस, आरएलडी, उवैसी हो या रामदास अठावले की आरपीआई सभी बीएसपी या मायावती को निशाना बना रहे हैं. पर आश्चर्य की बात यह है कि कोई भी विपक्षी दल खुले में या प्रत्यक्ष रूप से जनता के सामने बीएसपी को अपना मुख्य प्रतिद्वंदी या ‘दुश्मन नंबर एक’ मानने को तैयार नहीं है. विशेषकर भाजपा और सपा. केंद्र में भी अपनी सरकार बनाने के दो साल बाद भाजपा आज उत्तर प्रदेश में भी अपनी सरकार बनाने का दिवा स्वपन देख रही है. एक रणनीति और डर के तहत भाजपा खुद को बसपा के साथ लड़ाई में नहीं दिखाना चाह रही है. इसके लिये उसने सपा को अपना पहला विपक्ष बताना शुरू कर दिया है. भाजपा यह बताने की कोशिश कर रही है कि उत्तर प्रदेश में उसकी लड़ाई तो सपा से है, बसपा से नहीं. यहां तक कि उसके लीडर बसपा का नाम लेने से कतराते हैं. भाजपा और उसके नेताओं की साजिश बसपा को तीसरे नंबर की पार्टी के रूप में में प्रचारित करने की है. वैसे यह स्थिति भाजपा को सूट भी करती है क्योंकि भाजपा सपा की एंटी-इनकम्बेसी का लाभ उठाने की फिराक में है. भाजपा की रणनीति यह दिख रही है कि भाजपा एवं सपा अपने सांप्रदायिक एजेंडे से एक दूसरे से लड़ते हुए दिखेंगे तो दोनों को लाभ होगा और बसपा पीछे छूट जायेगी. हालांकि भाजपा के इस दावे को अगर दोनों टैक्सी ड्राइवर और उत्तर प्रदेश की जनता की कसौटी पर कसेंगे तो उसकी हवा अपने आप निकल जाती है. 12 जून को इलाहाबाद में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में यह बात खुल कर सामने आ गयी थी कि भाजपा, बसपा की अनदेखी का कतई नाटक नहीं कर सकती. उसे बसपा का संज्ञान लेना ही होगा. लेकिन भाजपा के पास बसपा पर कोई प्रत्यक्ष राजनैतिक हमला करने का मुद्दा नही है. इसलिये उसके अध्यक्ष ने एक नया जुमला गढ़ा है. यह जुमला है- भाजपा सपा-बसपा की जुगलबंदी को खत्म करेगी. परंतु भाजपा के किसी भी लीडर ने सपा-बसपा की जुगलबंदी क्या है इसको परिभाषित नहीं किया. लेकिन इस जुमले से एक बात अवश्य स्थापित हो गयी है कि भाजपा एवं उसका शीर्ष नेतृत्व चाह कर भी बसपा को तीसरे नंबर पर नहीं धकेल पाये और उन्हें बसपा को अपना मुख्य विपक्षी मानना पड़ा. यह बसपा एवं मायावती की जीत है. इसका मतलब यह हुआ कि भाजपा भी अब मान रही है कि उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनावों में उसकी असली लड़ाई बसपा से होगी. इस स्थापना के बाद सपा खुद ब खुद तीसरे नंबर पर पहुंच गयी है. दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के निशाने पर हमेशा बसपा रहती है और सपा एवं उसका शीर्ष नेतृत्व बसपा को अपनी राजनीति का विपक्षी नंबर वन मानता है फिर भी सपा प्रत्यक्ष रूप से यह मानने से परहेज कर रही है क्योंकि अगर सपा बसपा को आम जनता के सामने विपक्षी नंबर वन मान लेगी तो इससे बसपा को ही लाभ मिलेगा और बसपा नंबर एक पार्टी बन जायेगी. जन सामान्य की सोच में कहीं बसपा नंबर एक पोजीशन में न आ जाये, ऐसी स्थिति से बचने के लिये सपा बसपा को मुख्य विपक्षी दल मानने से इंकार करती रहती है. यद्धपि उसका एक-एक कदम तथा राजनैतिक पैतरा बीएसपी के एवं दलित विरोधी होता है. इसको कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है. सपा ने सबसे पहले डॉ. अम्बेडकर गोमती ग्रीन पार्क का नाम बदलकर जनेश्वर मिश्रा पार्क कर दिया. सत्ता में आते ही सपा सरकार ने मान्यवर कांशीराम के नाम पर उर्दू-फारसी विश्वविद्यालय का नाम बदल दिया. सवाल उठता है कि आखिर इसकी क्या आवश्कता थी? बाबा साहेब के नाम पर किसी स्थल का नाम बदलने की यह अपने आप में पहली घटना है. यह बाबा साहेब का अपमान है. फिर भी दलित समाज के नेता सपा से जाकर चुनाव लड़ते हैं. सपा ने जो सबसे बड़ा दलित विरोधी कार्य किया वह प्रोमोशन में आरक्षण के खिलाफ था. उच्चतम सरकार ने जब प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगाई तो सपा सरकार उसके खिलाफ अपील में नहीं गयी. अगर सपा सरकार अपील में गयी होती तो प्रमोशन में आरक्षण बना रहता. इतना ही नहीं जो दलित प्रमोशन में आरक्षण की वजह से पदोन्नत हुए थे उनको बड़ी बेदर्दी से रिवर्ट कर लज्जित किया गया. इसी कड़ी में जब मायावती ने प्रमोशन में आरक्षण हेतु संविधान संशोधन बिल राज्यसभा से पारित करके लोकसभा पटल पर रखवाया तब उस बिल को मुलायम सिंह की अगुवाई में दलित सांसद से फड़वा दिया गया. सपा की दलित विरोधी एवं दमनकारी राजनीति की पराकाष्ठा तब और भी उजागर होती है, जब हम देखते हैं कि उत्तर प्रदेश विधान सभा में सपा कोटे से चुन कर आये 58 आरक्षित वर्ग का एक भी विधायक दलितों की दुर्गती पर एक भी शब्द बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. क्या सपा के नेताओं ने इन 58 दलित विधायकों को डरा रखा है कि अगर दलितों के पक्ष में, प्रमोशन में आरक्षण के पक्ष में और बाबा साहेब के अनादर के एवं उत्तर प्रदेश में दलितों पर बढ़ते अत्याचारों के विरोध में बोलोगे तो तुम्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा. कुछ ऐसा ही हाल भाजपा से चुने गये आरक्षित वर्ग के सांसदों का है. वे सब के सब दलित मुद्दों पर मूक बने बैठे हैं. इसलिये बहुजन समाज की जनता को समझना होगा कि सपा और भाजपा की मुख्य लड़ाई बसपा है. कांग्रेस भी बीएसपी को अपना प्रमुख विपक्षी मानती है यद्यपि उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में उसकी अपनी कोई बड़ी हैसियत नहीं है. कांग्रेस के नेताओं का यह मानना रहा है कि बीएसपी की वजह से ही उनकी राजनीति उत्तर प्रदेश में हाशिये पर चली गयी है. अगर बीएसपी ने दलितों एवं अल्पसंख्यकों को कांग्रेस से नहीं छीना होता तो कांग्रेस हाशिये पर नहीं जाती. आज कांग्रेस इसीलिये दलित एवं अल्पसंख्यकों को रिझाने में लगी है. इसी प्रायोजन के तहत उसने गुलाम नबी आजाद को प्रभारी बनाकर भेजा है. लेकिन उसके बावजूद बसपा उसकी मदद करती रहती है. शायद कहीं न कहीं बसपा एवं बहनजी को मान्यवर कांशीराम की कही हुई बात याद आती है. मान्यवर कांशीराम कहते थे कि किसी भी एक पार्टी को बहुत बलशाली नहीं होने दो नहीं तो वह आपकी राजनीति के लिए हानिकारक होगा. शायद इसलिए बसपा ने कांग्रेस की सरकार उत्तराखण्ड में बचाई. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं हरियाणा आदि राज्यों से कांग्रेस के राज्यसभा के सांसदो को जिताने में मदद की ताकि कांग्रेस की स्थिति राज्यसभा में ठीक-ठाक बनी रहे. कांग्रेस बसपा को उत्तर प्रदेश में कितनी चुनौती दे पायेगी यह तो समय बतायेगा. लेकिन नैतिकता तो यही कहती है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बसपा की भी मदद करे. कांग्रेस के अलावा रामदास अठावले एवं प्रकाश अम्बेडकर की आरपीआई के धड़े भी उत्तर प्रदेश में सक्रिय होकर बसपा के खिलाफ प्रचार कर रहे हैं. इसी कड़ी में एमक्यूएम, पीस पार्टी भी बसपा पर अपना निशाना साध रही है. बहुजन मुक्ति मोर्चा एवं आम्बेडकर समाज पार्टी भी दलित लीडरो की अगुवाई में बसपा को दुश्मन नंबर एक प्रोजेक्ट कर उसको विलेन घोषित कर रहे हैं. इतना ही नहीं, कहा जा रहा है कि कुछ राजनैतिक दलों ने कुछ बौद्ध भिक्षुओ को बौद्ध धर्म यात्रा के बहाने बसपा एवं बसपा प्रमुख पर प्रहार करने के लिए भेजा है. इसमें सबसे अग्रणी भूमिका कभी किसी आयोग के सदस्य रह चुके भन्ते धम्माविर्यों निभा रहे हैं. अब बहुजन समाज के सदस्यों को इन सभी की चाल को समझना पड़ेगा, वे किस प्रकार से बसपा के खिलाफ एवं मायावती जी के खिलाफ अनरगल प्रचार को काउंटर कर पाएंगे इसकी रूपरेखा उन्हें जल्द ही बनानी पड़ेगी. उन्हें बहुजन समाज के लोगों को बताता पड़ेगा कि अम्बेडकरवाद का सच्चा सिपाही कौन है. अगर राजनीति में सामाजिक न्याय को जिंदा रखना है तो बसपा के हाथों को मजबूत करना ही होगा फिर चाहे सारी राजनैतिक पार्टियां ही दुश्मन क्यों न हो जाये. बसपा को अभी अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतना बाकी है. उत्तर प्रदेश में यद्यपि अल्पसंख्यक समाज सपा-भाजपा की जुगलबंदी से उत्पन्न साम्प्रदायिक वातावरण से परेशान एवं भयभीत है और वह सपा से नाराज भी है, परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह बसपा की ओर पूरी तरह मुड़ गया है. अल्पसंख्यक को अपनी ओर पूरी तरह मोड़ने के लिए बसपा एवं उसके नेताओं को पूरा दम लगाना होगा. बसपा को बताना पड़ेगा कि  अल्पसंख्यकों का भविष्य बसपा के साथ ही क्यों सुरक्षित है. बसपा को अल्पसंख्यकों को समझाना पड़ेगा कि वह कांग्रेस एवं सपा से किस तरह से भिन्न है. उसको अपनी धर्मनिरपक्षेता के प्रति प्रतिबद्धता साबित करनी होगी. विशेष परिस्थिति में जब मीडिया एवं बुद्धिजीवी उसकी धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ झूठा प्रचार करते रहे हैं. लखनऊ से प्रकाशित होने वाले उर्दू अखबारों में लगातार अन्य राजनैतिक दलों एवं अल्पसंख्यकों के रिश्तों को लेकर पक्ष में लेख छप रहे हैं, पर बसपा वहां से नदारद है. अतः बसपा के नेतृत्व को जन सामान्य एवं विशेषकर अल्पसंख्यकों को यह बताना पड़ेगा कि वह धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ कैसे मजबूती से खड़ी है. उदाहरण के लिए जब उत्तराखंड की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार पर साम्प्रदायिक ताकतों ने राष्ट्रपति शासन लगाया तब बसपा नेता मायावती ने कांग्रेस की सरकार को बचाकर साम्प्रदायिक ताकतों को मुंहतोड़ जवाब दिया. पर मीडिया या अन्य किसी माध्यम से बसपा ने इसका प्रचार नहीं किया. इसी कड़ी में हाल ही में उत्तर प्रदेश में सम्पन्न हुए राज्यसभा के चुनावों में कांग्रेस के प्रत्याशी के जीतने की कोई उम्मीद नहीं थी. ऐसे में बसपा ने अपने कोटे के सरप्लस वोटों को उसके उम्मीदवार को स्थानान्तरित कर उसे जीता दिया. इससे हुआ यह कि भाजपा समर्थित उम्मीदवार की हार हुई. पर कांग्रेस के नेतृत्व ने इस सभी तथ्यों को कहीं भी प्रचारित नहीं किया. अल्पसंख्यकों में भी पिछड़ी जाति के अल्पसंख्यकों पर बसपा को अधिक ध्यान देना होगा. पहले बसपा में अल्पसंख्यक समाज के कई नामचीन नेता हुआ करते थे जो बसपा की राजनीति को पिछड़ी जाति के अल्पसंख्यकों तक पहुंचाते थे. परन्तु आज बसपा में पिछड़ी जाति के अल्पसंख्यकों का कोई कद्दावर नेता सामने नहीं दिखाई दे रहा है, विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में. ऐसे में बसपा की ओर वह कैसे मुखातिब होगा. अतः बसपा को अल्पसंख्यकों को अपनी ओर मजबूती से लाने के लिए तथा उनमें अपने लिए विश्वास जगाने के लिए पूरी तरह प्रयास करने होंगे. उसे धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता साबित करनी होगी, उसे अपने खिलाफ चल रहे नाकारात्मक प्रचार पर अंकुश लगाना होगा, विशेषकर उर्दू प्रेस, मदरसों एवं मस्जिदों में होने वाले दुष्प्रचारों को काउंटर करने के लिेए प्रयास करने होंगे. एक समय में बसपा ने अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अपील छपवाई थी. उस अपील का शीर्षक था, अल्पसंख्यक समाज सोचे समझे और फिर वोट करे. इस अपील में बसपा की लीडरशिप को समझाना पड़ेगा कि उसके समय साम्प्रदायिक संघर्षों पर कैसे रोक लग जाती है. कानून व्यवस्था कायम रहने से अल्पसंख्यकों को कैसे फायदा होता है आदि अन्य बातें का जिक्र इस अपील में था. ऐसे प्रयास करने से अल्पसंख्यक समाज का रुझान बसपा की तरफ और भी मजबूत होगा. बसपा सभी सर्वेक्षणों में आगे क्यों विचारणीय प्रश्न यह है कि आखिर बसपा उत्तर प्रदेश में सभी राजनैतिक दलों से क्यों आगे है? यह बढ़त नकारात्मक नहीं है. अर्थात यह बढ़त केवल इस कारण नहीं है कि सपा सरकार में गुण्डा राज है और कानून एवं अभिशासन की हालत पतली है. मथुरा काण्ड ने इसको और भी हवा दी है. जिस सरकार के राज में डी.एस.पी. एवं एस.पी. मार दिये जाय, पुलिस थानों पर हमले हों और साम्प्रदायिक दंगों का खतरा हमेशा बना रहे, वहां उस सरकार पर कौन भरोसा करेगा. इससे भी सबसे ऊपर जहां, जिस राज्य के मुख्यमंत्री को उसी पार्टी के वरिष्ठ नेता कुछ न समझे, आई.ए.एस एवं आई.पी.एस आंख दिखाये ऐसे मुख्यमंत्री के राज में कानून-व्यवस्था कैसे दुरुस्त रहेगी. इन सबका फायदा तो बसपा को अवश्य मिलेगा परन्तु बसपा के पास लोगों का समर्थन सकारात्मक कारणों से ज्यादा हो रहा है. उसका सबसे बड़ा कारण है बसपा प्रमुख मायावती का कद. उत्तर प्रदेश में नेतृत्व की बात करें तो फिलहाल विपक्ष के पास बसपा प्रमुख मायावती के कद का कोई नेता मौजूद नहीं है. कई विपक्षी दल केवल विकास का नारा दे रहे हैं, लेकिन उनकी विचारधारा से सामाजिक न्याय नदारद हैं. परन्तु बसपा सामाजिक न्याय के साथ विकास के लिए जानी जाती है. अगर अम्बेडकर ग्राम योजना से ग्रामीण बहुजनों को सामाजिक न्याय मिलता है तो कांशीराम शहरी विकास योजना से शहरी बहुजनों/गरीबों/सर्वजनों को न्याय मिलता है. दूसरी ओर 165 किलोमीटर लम्बी एक्सप्रेस वे, 3 विश्वविद्यालयों एवं 4 मेडिकल कॉलेजों का निर्माण, नवीन जमीन अधिग्रहण योजना तथा ग्रेटर नोएडा का निर्माण आदि विकास की योजनाएं थी, जिसका प्रचार कहीं नहीं हुआ पर आज सभी इस विकास को याद कर रहे हैं. लॉ एंड आर्डर में तो बसपा शासन का कोई सानी नहीं है. बसपा प्रमुख मायावती जी ने अपने शासन काल के दौरान यह साबित किया है कि बसपा का शासन कानून का राज, विकास एवं सामाजिक न्याय का अद्भुत संगम है.

ओबीसी आरक्षण और शिक्षा क्षेत्र में भागीदारी का सवाल

jnu2014 में केन्द्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद भारत में सवर्णवादी ताकतें एकबार फिर पुरजोर तरीके से मुखर व आक्रमक हैं. जाहिर है कि समाज के दलित- आदिवासी- पिछड़ा- पसमांदा जमात के खिलाफ तमाम तरह के हथकंडे रचे जा रहे हैं ताकि इनके प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के सवाल को कुंद व खारिज किया जा सके. बहुजन समाज के सवाल को जिस प्रतीकात्मक तरीके से बीजेपी ने हल करने की कोशिश की है, वह उनके शातिराना छद्म को उजागर करता है. रोहित वेमुला के ‘आत्महत्या’ से उभरे बहुजन जनाक्रोश को दबाने के लिये जेएनयू को केन्द्र बनाकर एक सवर्ण कन्हैया को जबरन मुद्दा बना दिया गया जो वामपंथी ब्राह्मणों और दक्षिणपंथी ब्राह्मणों की एक दूसरे के खिलाफ प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष सामाजिक- राजनीतिक प्रतिक्रियात्मक ताकतों के रूप में खड़ा करने की कोशिश प्रतीत होती है. ऐसा इसलिये भी संभव हुआ कि इन दोनों ही पक्षों की खासी दिलचस्पी कांग्रेस को विमर्श से बाहर रखकर कमजोर करने में थी और साथ ही बहुजन जनाक्रोश को दफन करने में थी. यह अलग बात है कि कांग्रेस भी बहुजनों के भागीदारी से जुड़े सवाल पर कभी खास मुखर नहीं रही बल्कि दब्बू बनी रही है ताकि बहुजन सिर्फ पिछलग्गू बने रहें. इसी बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दलित समर्थक या फिर अम्बेदकरवादी घोषित करने की पुरजोर कोशिश करना, ये कई बातें हैं जो दलितों के मनुवाद- ब्राह्मणवाद विरोधी रूख को बड़े ही सामाजिक- मनोवैज्ञानिक तरीके से कुंद कर प्रगतिशीलता व राष्ट्रवाद के नाम पर सवर्णों के साथ समाहित करने का प्रयास दिखता है. उसी तरह दलित बनाम पिछड़ा बनाम आदिवासी और बहुजन बनाम मुसलमान जैसे द्वंद्व पैदा करने के प्रयासों में बीजेपी- संघ सक्रिय दिखाई देती है. हालांकि दलित बनाम पिछड़ा का द्वंद जितना सामाजिक है उससे कहीं ज्यादा राजनीतिक है जिसकी मूल धुरी व पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश की जमीन पर ज्यादा दिखलाई देता है. वैसे हाल ही के बिहार विधानसभा चुनाव (2015) में दलित- पिछड़ों की सामाजिक गोलबंदी सवर्णों के खिलाफ स्पष्ट देखने को मिला जो इस अवधारणा के अपवाद को प्रस्तुत करते हैं. लेकिन दलितों और पिछड़ों में मुखरता के उभरते स्वर के बीच आदिवासी समाज अपने मुद्दों को लेकर बहुत अलग- थलग पड़ता दिखाई देता है. इसी तरह पसमांदा स्वर भी काफी दबा हुआ और गुमशुदा सा दिखाई पड़ता है जो बहुजन विमर्श में एक बड़ी चिंता का कारण है. कुल मिलाकर सवर्ण तंत्रों के द्वारा यह प्रयास लगातार किया जा रहा है कि एक समेकित बहुजन वैचारिक गोलबंदी मुद्दों को लेकर भी कतई न हो पाये और कम- से- कम शिक्षा केन्द्रों से इनके अधिकार व भागीदारी को तो जरूर ही खारिज कर दिया जाय. इनदिनों बीजेपी- संघ के कारण मनुवादी- ब्राह्मणवादी ताकतें आरक्षण के सवाल पर बहुत मुखर व आक्रमक दिखाई दे रही है तो जाहिर है कि इसका एक बड़ा खामियाजा बहुजन समाज को ही भुगतना पड़ेगा. केन्द्र की बीजेपी सरकार अपने संघ के कार्यकर्ताओं को देशभर के महत्वपूर्ण शोध व शिक्षण संस्थानों एवं राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में काबिज करने के अभियान में लगी है. कला, साहित्य, इतिहास से जुड़ी संस्थायें हो या प्रसार भारती, डीडी-न्यूज, एआईआर जैसे पब्लिक ब्रोडकास्टर से लेकर एनबीटी, एनसीईआरटी, सीबीएसई, कॉलेज- विश्वविद्यालय में हो रही तमाम नियुक्तियां, यह चर्चा आम है कि ये सब आरएसएस के निर्देश पर की जा रही हैं. इसी कड़ी में एफटीआईआई का निदेशक सी-ग्रेड की फिल्मों के कलाकार गजेन्द्र चौहान व निफ्ट का निदेशक क्रिकेटर चेतन चौहान को बनाना किसी मजाक से कम नहीं है. बहुजन समूह के बच्चों के लिये आज की तारीख में देश के सर्वोत्कृष्ट शिक्षा केन्द्रों में छात्र या शिक्षक के तौर पर प्रवेश असंभव होता जा रहा है और जो संभव बना लेते हैं उनका सामाजिक- मनोवैज्ञानिक दबाव के बीच सम्मानजनक तौर पर संस्थान में टिक जाना चुनौतीपूर्ण कार्य है. एससी- एसटी को मिले संवैधानिक संरक्षण के कारण तमाम अप्रत्यक्ष व मनोवैज्ञानिक दबाव के बावजूद उनके खिलाफ खुलकर बोलने से लोग हिचकते हैं पर ऐसा नहीं है कि उनके खिलाफ साजिशें कम हैं जिनसे वे अपने- अपने तौर पर जूझ रहे हैं. वहीं ओबीसी को लेकर हथकंडे खुले तौर पर अपनाये जा रहे हैं जिसकी एक बानगी है दिल्ली विश्वविद्यालय; जहां पर ओबीसी के लिये एडमिशन में आरक्षण लागू होने के बावजूद इस तबके को हतोत्साहित करने का प्रयास जारी है. अभी हाल ही में विश्वविद्यालय ने एक सर्कुलर जारी किया है जिसके तहत छात्रों को एडमिशन के वक्त ओबीसी के क्रिमी-लेयर सर्टिफिकेट के साथ- साथ ही माता-पिता के आय प्रमाण पत्र भी दिखाना होगा. अब प्रशासन में बैठे लोगों को कौन समझाये कि आय प्रमाण पत्र के आधार पर ही क्रिमी-लेयर का सर्टिफिकेट दिया जाता है. दिलचस्प है कि राष्ट्रीय राजधानी में मौजूद दिल्ली विश्वविद्यालय इस तरह का बड़ा निर्णय ओबीसी जाति के छात्रों को प्रताड़ित करने की मानसिकता से लेती है. अब इस मामले से अलग अभी हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के कार्यरत कॉलेज शिक्षकों के शिक्षण कार्य के घंटे में इजाफा करने वाला एक सर्कुलर जारी किया गया जिसका एक बड़ा खामियाजा विश्वविद्यालय में एड-हॉक पर पढ़ाने वाले तकरीबन 5000 शिक्षकों को भुगतना था. इस सर्कुलर के बाद विश्वविद्यालय में हड़कंप की स्थिति उत्पन्न हो गई जिसके बाद लगातार प्रदर्शन का दौर जारी था. एड-हॉक व्यवस्था के तहत शिक्षकों की नियुक्ति परमानेंट पदों के एवज में चार महीने के लिये की जाती है. इस चार महीने के बाद एक दिन का सर्विस ब्रेक कर फिर उनको काम पर जारी रखा जाता है. आश्चर्य ये है कि हजारों की संख्या में शिक्षक 5- 10- 15 सालों से भी एड-हॉकिज्म के तहत काम कर रहे हैं. चूंकि इन एड-हॉक पदों पर नियुक्ति परमानेंट/स्थायी पदों के एवज में होती है तो आरक्षण प्रक्रिया का सामान्य तौर पर अनुपालन होता है. उस स्थिति में इन शिक्षकों में कम- से- कम 2500 एससी- एसटी- ओबीसी समाज के तो जाहिर तौर पर होने चाहिये, जिसका आंकड़ा बहुजन हित में सामने लाने की जरूरत है. अब इस पूरे सर्कुलर की आड़ में जहां वैश्वीकरण के बाद अमेरिकी पैटर्न पर शिक्षा के निजीकरण व व्यावसायिक रि-मॉडलिंग करने खतरे के तौर पर देख सकते हैं वहीं बहुजन समाज के प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के सवाल को भी खत्म करने के खतरे का इशारा देख सकते हैं. दिलचस्प है इन पदों पर अगर स्थायी नियुक्ति होती है तो एससी- एसटी- ओबीसी के लिये उच्च शिक्षा में बड़ी भागीदारी का रास्ता प्रशस्त होगा. सरकार की बहुजनों के खिलाफ साजिश का एक नमूना 2014 में डीयू के कुलपति दिनेश सिंह का बीए के 3 साल के कोर्स को अचानक 4 साल बना देना था जिसे काफी विरोध के बाद वापस लेना पड़ा. कपिल सिब्बल से स्मृति इरानी तक भारत की शिक्षा को अंदरूनी तौर पर कमजोर कर अमेरिकी उच्च शिक्षा के लिये प्रोडक्ट तैयार करने में लगे हैं. लिहाजा सामाजिक न्याय और भागीदारी के सवालों के प्रति शिक्षा तंत्रों में बैठे सवर्ण मठाधीश बिल्कुल उदासीन व बेरूखे नजर आते हैं. यही कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ही सरकार की नीति है जिसको तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी भी समर्थन करते नजर आते हैं. डीयू के कुलपति रहते समय दिनेश सिंह पर जातिवादी मानसिकता से भी काम करने के आरोप लगाये जाते रहे हैं जिसमें अपने चहेतों को विभिन्न पदों पर स्थापित करने से लेकर 2013 के आसपास कोर्ट में हलफनामा देकर एससी- एसटी- ओबीसी के बैक-लॉग पदों के मामले को पूरी तरह दफन करने एवं आरक्षित पदों पर नियुक्तियों में जानबूझ कर कोताही बरतने का मामला भी शामिल है. इसी बीच यह खबर आती है कि एससी- एसटी को दी जाने वाली राजीव गाँधी फेलोशिप अब सिर्फ एससी को दी जायगी और एसटी के लिये यह स्कॉलरशिप शातिर तरीके से खत्म कर दिया गया है. हर साल 667 एमफिल और पीएचडी स्कॉलर्स को यह फेलोशिप दी जाती थी. आश्चर्यजनक तौर पर सरकार की ओर से फंड की कमी का बहाना बनाया जा रहा है लेकिन इन सबका भुक्तभोगी भारत का सबसे शोषित व संघर्षशील आदिवासी तबका क्यों बने! अगर आदिवासी समाज के शिक्षा के लिये उपयोगी धन की कमी का रोना इस आजाद देश में है तो मौजूदा नरेन्द्र मोदी सरकार के लिये यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है. लेकिन जो मसला सबसे बड़ा बवंडर बनकर आया वह यूजीसी के द्वारा देश के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को 3 जून, 2016 को भेजी गई चिट्ठी थी जिसमें स्पष्ट किया गया कि ओबीसी को सिर्फ असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति में 27 फीसदी आरक्षण दिया जायगा और एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर के पद पर ओबीसी को आरक्षण की सुविधा नहीं दी जायगी. हालांकि इसी पत्र में यह कहा गया कि एससी- एसटी को असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर–तीनों पदों पर आरक्षण मान्य होगा. इस पत्र ने देश में बड़ी सुर्खिया बटोरी और ओबीसी समाज के छात्रों- शिक्षकों- बुद्धिजीवियों के बीच एक आक्रोश की स्थिति उत्पन्न की. इस मामले में भी ओबीसी समाज की तीखी प्रतिक्रिया सामने आई तो देखकर लगा कि इसी बहाने कही दलित बनाम ओबीसी की लड़ाई जो राजनीतिक क्षेत्र में मौजूद है इसे ज्ञान क्षेत्र या शिक्षा केन्द्रों में कराने की मनोवैज्ञानिक कोशिश तो नहीं है. खैर इस मामले की गंभीरता इसी बात से समझ सकते हैं कि आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर केन्द्र सरकार को इस सर्कुलर को वापस लेने की मांग कर दी और ओबीसी के लिये एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पदों पर भी नियुक्ति में आरक्षण बहाल करने को कहा. उधर यूनाइटेड ओबीसी फोरम ने इस मुद्दे पर मानव संसाधन मंत्रालय पर प्रदर्शन की घोषणा कर दी. इसी बीच 7 जून, 2016 को यूजीसी ने ओबीसी छात्रों- शिक्षकों- नेताओं के दबाव में आकर एक नया सर्कुलर निकाला जिसमें 3 जून, 2016 के नोटिफिकेशन को वापस लेने की बात करते हुये ओबीसी आरक्षण के इस मसले पर पूर्व की स्थिति को ही स्वीकार करने की बात कही. लेकिन इसके साथ ही ‘इसकी टोपी उसके सर’ की तर्ज पर केन्द्र सरकार ने मामले में कांग्रेस पर ठीकरा फोड़ने का इंतजाम भी कर लिया ताकि ओबीसी आरक्षण का मामला उलझ भी जायें और बीजेपी की नाक किसी संभावित जिम्मेदारी से बच भी जाये. 24 जनवरी, 2007 को जो विश्वविद्यालयों में ओबीसी आरक्षण से संबंधित पहला नोटिफिकेशन जारी हुआ था उसमें भी सिर्फ लेक्चरर (असिस्टेंट प्रोफेसर) के स्तर पर ही 27% आरक्षण की बात थी लेकिन जब 3 जून, 2016 के नोटिफिकेशन में 2007 के इसी पत्र संख्या का हवाला देते हुये यह बात भी अलग से जोड़ दिया गया कि ओबीसी आरक्षण सिर्फ असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिये होगा और एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर नियुक्तियों में आरक्षण लागू नहीं होगा. लेकिन ऐसा करके केन्द्र सरकार ने ओबीसी को अबतक जिन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तीनों स्तरों पर आरक्षण मिल रहा था, वहां पर भी वीटो लगा दिया. पहले से ही उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी का प्रतिनिधित्व नगण्य था और इस आरक्षण व्यवस्था के कारण उसपर भी आफत आ गयी थी. इस मसले पर ओबीसी नेताओं में शरद यादव, अली अनवर, तेजस्वी यादव ने केन्द्र सरकार पर दबाव बनाने में सहयोगी भूमिका निभाई है. उधर सरकार में शामिल अनुप्रिया पटेल एवं उपेन्द्र कुशवाहा ने भी अपनी चिंता का इजहार करते हुये ओबीसी आरक्षण के पक्ष में अपनी बात रखी है. दिलचस्प है कि इन विवादों के बीच कई ऐसे उदाहरण हैं जब ओबीसी के लिये एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर आरक्षण सहित वैकेंसी निकाली गई. केन्द्रीय विश्वविद्यालय- उड़ीसा ने 2012 में अंग्रेजी एवं पर्यावरण विज्ञान विषय में प्रोफेसर के एक-एक पद और समाजशास्त्र विषय में एसोसिएट प्रोफेसर के एक पद के लिये ओबीसी आरक्षित पद की अधिसूचना जारी की. फिर 2015 में केन्द्रीय विश्वविद्यालय- केरल ने हिन्दी विषय में ओबीसी के एक-एक पद एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद के लिये निकाला. इसी साल 2015 में ही सिक्किम विश्वविद्यालय ने विभिन्न विषयों में ओबीसी के 7 प्रोफेसर एवं 11 एसोसिएट प्रोफेसर पद की वैकेंसी निकाली. लेकिन दिलचस्प यह है कि भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग की ओर से 9 जून, 2008 को सभी आईआईटी डॉयरेक्टर के नाम एक पत्र जारी किया जाता है जिसमें कई बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं. पहला, साइंस एवं टेक्नोलॉजी विषयों सहित सभी विषयों में असिस्टेंट प्रोफेसर और लेक्चरर पद पर एससी- एसटी- ओबीसी को संविधान प्रदत्त आरक्षण दिया जाएगा. दूसरा, असिस्टेंट प्रोफेसर/लेक्चरर पद पर योग्य उम्मीदवार न मिलने की स्थिति में एससी- एसटी- ओबीसी के लिये आरक्षित पद गैर- आरक्षित कर दिये जाएंगे. तीसरा, साइंस एवं टेक्नोलॉजी विषयों में एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर कोई आरक्षण का प्रावधान नहीं होगा. लेकिन इसी पत्र में सबसे दिलचस्प एक चौथी बात है कि साइंस एवं टेक्नोलॉजी विषय से इतर मानविकी (Humanities), समाज विज्ञान (Social Science) और मैनेजमेंट (Management) जैसे विषयों में एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर एससी (15%)- एसटी (7.5%)- ओबीसी (27%) आरक्षण पूर्णरूपेण लागू होगा. 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के द्वारा मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा के बाद 1993 में केन्द्रीय समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी के प्रयासों से जब मंडल कमीशन के तहत 27% ओबीसी आरक्षण नौकरियों में लागू की गई तो सभी स्तरों पर सीधी नियुक्तियों में इसे लागू किया गया. केन्द्र सरकार के पर्सनल, पब्लिक ग्रिवांसेज एवं पेंशन मंत्रालय के पर्सनल एवं ट्रेनिंग विभाग के द्वारा दिनांक- 8 सितम्बर, 1993 के पत्र संख्या- 36012/22/93-Estt.(SCT) के तहत जारी अधिसूचना के पैरा- 2(a) में स्पष्ट लिखा है कि- “27 % of the vacancies in civil posts and services under the Govt. of India, to be filled through direct recruitment, shall be reserved for the Other Backward Classes (OBC).” जाहिर है कि एसएससी से लेकर स्टेट पीएससी और यूपीएससी तक जितनी भी वैकेंसी आई तो उसमें उसी वक्त से आरक्षण लागू कर दिया गया. 2006 में केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने शिक्षण संस्थानों में एडमिशन और शिक्षण दोनों में ओबीसी आरक्षण की प्रक्रिया शुरू की तो सवर्ण समाज के प्रतिरोध के कारण मामला कोर्ट में चला गया, जिसपर सुप्रीम कोर्ट से फैसला होकर 2008 में आया. इसके तहत ओबीसी का 27 फीसदी आरक्षण एडमिशन में तमाम केन्द्रीय स्तर के शिक्षण संस्थानों में लागू करने की घोषणा हुई लेकिन इस शर्त के साथ की जेनरल के लिये उतनी ही सीटें सभी संस्थानों व कोर्सों में बढ़ा दी जाएगी. लेकिन तमाम उठापटक और इसे लागू न करने की कोशिशों के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय सहित तमाम केन्द्रीय संस्थानों में इस ओबीसी आरक्षण को 2011 से लागू कर दिया गया. आज जो कुछ भी ओबीसी के मुखर स्वर राजनीति से इतर बौद्धिक- वैचारिक धरातल पर सुनाई देते हैं, ये इसी 27% आरक्षण के फलस्वरूप राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों से पढ़कर निकल रहे आवाम की गूंज है. यह कोई मामूली बात नहीं की विगत दिनों जेएनयू जैसे तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी मुखौटे के खिलाफ ओबीसी यूनाइटेड फोरम के बैनर तले छात्रों के संगठन ने इस विश्वविद्यालय के इतिहास में लगातार संघर्ष कर अपने पक्ष में मांगे मानने पर प्रशासन को बाध्य कर दिया. इस संगठन के दबाव में जो मांगे मानी गई वह किसी भी केन्द्रीय विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय स्तर के शिक्षण संस्थान के इतिहास में खास है. पहला, एकेडमिक काउंसिल ने तय किया कि ओबीसी छात्रों को आगामी सत्र से प्रवेश परीक्षा के दोनों स्तरों पर 10% रिलेक्शेशन दिया जाएगा. दूसरा, आगामी सत्र से ओबीसी को हॉस्टल एलॉटमेंट में 27% आरक्षण दिया जाएगा. तीसरा, आगामी सत्र से एससी- एसटी- ओबीसी आरक्षण को डॉयरेक्ट पीएचडी में लागू किया जाएगा और आरक्षित सीट को जनरल नहीं किया जायगा. इसके अलावा अन्य बातों के लिये कमिटि गठन एवं विशेष अवसर की बात पर गंभीरता से विचार करने पर सहमति बनी. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मौजूदा सत्र में तकरीबन 70-75 छात्रों को डॉयरेक्ट पीएचडी में लिया गया जिसमें दो-तीन छोड़कर सारे सवर्ण थे, इस बात को लेकर बहुजन छात्रों में खासा आक्रोश था. अब जब एसोसियेट प्रोफेसर और प्रोफेसर पद पर ओबीसी आरक्षण नहीं देने की बात सामने आई है तो ये सारे छात्र देशभर में गोलबंदी कर बड़ी मुहिम को अंजाम देने की तैयारी में लगे हैं. आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत प्राप्त सूचना (संख्या- RTI/ UGC/4-6) से पता चलता है कि कुल मिलाकर देशभर के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के सवाल खारिज कर साजिशन कुंद कर दिये जा रहे हैं. केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में एससी के 25 प्रोफेसर, एसटी के 11 प्रोफेसर और ओबीसी समाज के सिर्फ 4 प्रोफेसर हैं जबकि उच्च जाति के 2523 प्रोफेसर हैं. इसी प्रकार एसोसिएट प्रोफेसर (रीडर) के स्तर पर एससी के 79, एसटी के 10 और ओबीसी के 4 लोग हैं जबकि उच्च जाति के 2819 लोग एसोसिएट प्रोफेसर हैं. असिस्टेंट प्रोफेसर (लेक्चरर) के पद एससी के 422, एसटी के 211 और ओबीसी के 233 लोग हैं जबकि 1461 असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इसी प्रकार प्रगतिशील वामपंथी कहे जाने वाले संस्थान जेएनयू भी घोर सवर्णवादी नजर आता है जब एक दिसम्बर, 2015 में प्राप्त आरटीआई सूचना में जेएनयू के सभी विभागों के कुल शिक्षकों का आंकड़ा मालूम पड़ता है. जेएनयू के कुल 470 शिक्षकों में 426 उच्च जाति, 28 एससी, 14 एसटी और सिर्फ 2 ओबीसी जाति के हैं जो जेनरल कैटेगरी में कंपीट कर नौकरी में आये हैं. अब ओबीसी के खाली पदों का लेखा- जोखा लेने की एक कोशिश में स्थिति बहुत ही गंभीर नजर आने लगती है. उपलब्ध कराये गये एक अनुमानित आंकड़े के तहत असम विश्वविद्यालय में 32 पद, विश्वभारती विश्वविद्यालय में 50 पद, पांडिचेरी विश्वविद्यालय में 34, तेजपुर विश्वविद्यालय में 33, हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय में 45, गुरू घासीदास विश्वविद्यालय में 44 पद ओबीसी आरक्षित होते हुए भी खाली हैं और इन्हें जानबूझ कर भरा नहीं जा रहा है. सवाल ओबीसी का है, सवाल एससी- एसटी का भी है लेकिन निशाने पर बारी- बारी से सब हैं. लिहाजा एक बड़ा सवाल समस्त बहुजन समाज के सामाजिक वजूद का है. बहुजन राजनीतिक नेताओं के आपसी द्वंद्व से इतर एक वैचारिक- बौद्धिक गोलबंदी की जरूरत है ताकि 85 फीसदी आवाम के सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व व भागीदारी का सपना हकीकत में तब्दील हो सके. ज्योतिबा फूले और सावित्री बाई फूले ने बहुजनों के बीच शिक्षा की अलख जगाई जिसको छत्रपति शाहूजी महाराज ने विस्तार देने का काम किया जिनकी प्रेरणा से बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर ने देश- विदेश में अर्जित शिक्षा की बुनियाद पर तमाम बड़ी उपलब्धियां हासिल की. अम्बेडकर जी ने भले ही यह कहा कि – “राजनीति का मार्ग ही वह सबसे बड़ी कुंजी है जो समाज के सभी क्षेत्रों के द्वार खोलती है” लेकिन उन्होंने ‘संघर्ष करने’ से पहले ’संगठित होने’ और उससे भी पहले ‘शिक्षित होने’ का संदेश दिया है. जाहिर है कि वे जानते थे कि संख्या बल की बुनियाद पर एक दिन बहुजन समाज के दलित- आदिवासी- पिछड़े अगर सत्ता केन्द्रों तक पहुंच भी गए तो शिक्षा पर आधारित वैचारिकता- बौद्धिकता के बिना ये न तो एजेंडा सेट कर पाएंगे और न ही समाज परिवर्त्तन का सपना पूरा कर पाएंगे. अत: संविधान निर्माता बाबा साहब ने जिस “स्वर्ग पर धावा” की परिकल्पना की थी वह संसद में पहुंचने से भी ज्यादा देश के समस्त ज्ञान व शिक्षा केन्द्रों पर बहुजनों की संख्यानुपातिक भागीदारी एवं कब्जा करने से जुड़ा है. यह उपर्युक्त बात किसी को भी अतिश्योक्ति लग सकती है लेकिन हाल के दिनों में बीजेपी- आरएसएस के द्वारा जिस तरह से देश के सभी शिक्षण संस्थानों पर कब्जा करने और ज्ञान क्षेत्र में दलित- आदिवासी- पिछड़ों के लिये प्रतिनिधित्व व भागीदारी के सवाल को जबरन खारिज करने में लगे हैं तो यह स्वाभाविक तौर पर स्वीकार्य लगती है. भारतीय समाज की जितनी भी त्रासदी है उसका संबंध मूलत: सामाजिक न्याय और भागीदारी के वैचारिक सवाल से ही है. वैसे अतीत काल से ही इन सवालों पर आत्म-सम्मान, न्याय, हक-हकूक को लेकर निजी और सामूहिक संघर्ष जारी है. भारत में आजादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना के बावजूद अब तक चले आ रहे तमाम वाद- संवाद- विवाद के मूल संदर्भ सिर्फ दो ही हैं. एक, सामाजिक न्याय और भागीदारी के सवाल को येन- केन- प्रकारेण दरकिनार कर 15 फीसदी सवर्णवादी लोगों की यथास्थितिवाद को बनाये रखने का हरसंभव प्रयास करना और दूसरा, दलित- आदिवासी- पिछड़ा यानि बहुजन जमात का वैचारिक जनप्रतिरोध जो 85 फीसदी आवाम के सभी क्षेत्रों में उचित न्याय व समुचित भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिये संघर्ष करना. फिलहाल संघर्ष जारी है और यह देखने की बात होगी की देश का एससी- एसटी- ओबीसी- पसमांदा समाज शिक्षण क्षेत्रों पर धावा बोल दावा कर लेने के सपने कब और कैसे पूरा करता हैं. जाहिर है कि बहुजन समाज के लिये ज्ञान की तलाश में शिक्षा केन्द्रों में भागीदारी की लड़ाई सबसे अहम एवं अव्वल है.

एक नये ढसाल की जरुरत

आज ‘दलित पैंथर’ का स्थापना दिवस है. आज से प्रायः साढ़े चार दशक पूर्व,1972 में 9 जुलाई को नामदेव लक्ष्मण ढसाल और उनके लेखक साथियों ने मिलकर इसकी स्थापना की थी. इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान अपमान से बोधशून्य आकांक्षाहीन दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया. इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलित समुदाय में जोश भर दिया, जिसके फलस्वरूप दलितों को अपनी ताकत का अहसास हुआ और उनमे ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई. इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही 15 अगस्त 1972 को राजा ढाले ने ‘साधना’के विशेषांक में ‘काला स्वतंत्रता दिवस’ लेख लिखकर तथा ढसाल ने यह घोषणा कर कि यदि विधान परिषद या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे, शासक दलों में हडकंप मचा दिया. दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक अधिकारों को दिलाने के लिए 1966 से ही संघर्षरत था. इस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और राजा ढाले जैसे जैसे क्रांतिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ‘ब्लैक पैंथर’ की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम ‘दलित पैंथर’ रख दिया. जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैंथरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित किया,जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ. उसके घोषणापत्र में कहा गया,’दलित पैंथर आरपीआई के नेतृत्व की सौदेबाजी के खिलाफ एक विद्रोह है. अनुसूचित जातियां,जनजातियां,भूमिहीन श्रमिक, गरीब किसान हमारे मित्र हैं…वे सब लोग जो राजनीतिक और आर्थिक शोषण के शिकार हैं,वे सभी हमारे मित्र हैं. जमींदार,पूंजीपति,साहूकार और उनके एजेंट तथा सरकार जो शोषण के समर्थक तत्वों का समर्थन करती है, वे पैंथरों के दुश्मन हैं’. उसमें यह भी कहा गया,’हम आर्थिक ,राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में नियंत्रणकर्ता की हैसियत का प्राधान्य चाहते है…हम ब्राह्मणों के मध्य नहीं रहना चाहते.हम पूरे भारत पर शासन के पक्षधर हैं. मात्र ह्रदय परिवर्तन अथवा उदार शिक्षा अन्याय और शोषण को समाप्त नहीं कर सकते. हम क्रान्तिशील जनता को जागृत करेंगे और उन्हें संगठित करेंगे ताकि परिवर्तन हो सके. हमें विश्वास है कि जनसमूह में संघर्ष द्वारा क्रांति की ज्वाला जरुर जलेगी. क्योंकि हम जानते हैं कि कोई भी समाज-व्यवस्था मात्र रियायतों की मांग,चुनाव और सत्याग्रह के जरिये नहीं बदली जा सकती. हमारी सामाजिक क्रांति का विद्रोही विचार हमारे लोगों के दिलों में उत्पन्न होगा तथा तुरंत ही वह गर्म लोहे की भांति अस्तित्व में आयेगा.अंत में हमारा संघर्ष दासत्व की जंजीरों को तोड़ डालेगा.’ दलित पैंथर के घोषणापत्र ने जहां जागरूक दलितों और प्रगतिशील आम युवा पीढ़ी में हलचल पैदा की,वहीँ समाजवादी,साम्यवादी,प्रगतिशील लेखकों-विचारकों को झकझोर दिया.किन्तु तमाम खूबियों के बावजूद यह अपना घोषित लक्ष्य पाने में विफल रहा.’दलित पैंथर आन्दोलन’ पुस्तक के लेखक अजय कुमार के शब्दों में-‘यह आन्दोलन देश में दलित नेताओं और गैर-दलित नेताओं द्वारा अनुसूचित जाति के उद्धार के लिए चलाये गए अन्दोलनों से बिलकुल हट कर है तथा अपनी एक अमिट छाप छोड़ता है. दलित पैंथर आन्दोलन के प्रतिनिधियों ने पैंथरों की भांति ही काम किया तथा सरकार को अपनी मांगे मनवाने के लिए पूर्णतः तो नहीं लेकिन सर झुकाने को मजबूर जरुर कर दिया.परन्तु आंदोलनकारियों के आपसी मतभेदों के कारण यह संगठन अपने चरम बिंदु तक नहीं पहुँच सका. जो चिंगारी के रूप में भड़का वह जंगल में फैलनेवाली आग का रूप धारण नहीं कर सका क्योंकि इसके अंदर संगठनात्मक,संरचनात्मक, वित्त सम्बन्धी, सामंजस्य सम्बन्धी तथा विचारधारा विरोधी कमियां थी. यदि यह आन्दोलन इन सभी विरोधों को समाप्त करके एकल विचारधारा पर चलता तो शायद एक ऐसा आन्दोलन बन जाता कि भारतवर्ष से छुआछूत, अलगाव, अमीर-गरीब, नीच-उच्च, नैतिक-अनैतिक, पवित्र-अपवित्र का वैरभाव मिट जाता.’ यह सही है कि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुँच सका,तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं.बकौल चर्चित मराठी दलित चिन्तक डॉ.आनंद तेलतुम्बडे,’इसने देश में स्थापित व्यवस्था की बुनियादों को हिला कर रख दिया और संक्षेप में यह दर्शाया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है. इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी हुई थी. अपने घोषणापत्र पर अमल करते हुए दलित पैंथरों ने दलित आन्दोलन के लिए राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थों में नई जमीन तोड़ी. उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की और उनके संघर्षों को पूरी दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्षों से जोड़ दिया.’ बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज भी कर सकता है, किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी उपलब्धियों को नज़रअंदाज़ करना किसी के लिए भी संभव नहीं है. दलित पैंथर आन्दोलन और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही दलित साहित्य से जुड़े हुए थे. दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया. परवर्तीकाल में डॉ.आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित मराठी दलित साहित्य ,हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया. बहरहाल जिन दिनों नामदेव ढसाल और उनके साथियों ने दलित पैंथर की स्थापना की, उन दिनों देश में विषमता की आज जैसी चौड़ी खाई नहीं थी.देश अपनी स्वाधीनता की रजत जयंती ही मनाया था और यह उम्मीद कहीं बची हुई थी कि देश के कर्णधार निकट भविष्य में उस आर्थिक और सामाजिक असमानता से पार पा लेंगे, जिसके खात्मे का आह्वान संविधान निर्माता ने 25 नवम्बर,1949 को किया था.लेकिन आज आजादी के प्रायः सात दशक बाद विषमता पहले से कई गुना बढ़ गयी है और भारत इस मामले में विश्व चैम्पियन बन गया है. भारत में आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी का आलम यह है कि परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न और और विशेषाधिकारयुक्त अत्यन्त अल्पसंख्यक तबके का जहां शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, धार्मिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक प्रत्येक क्षेत्र में 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है, वहीं परम्परागत रूप से तमाम क्षेत्रों से ही वंचित बहुसंख्यक तबका, जिसकी आबादी 85 प्रतिशत है, 15-20 प्रतिशत अवसरों पर आज भी जीवन निर्वाह करने के लिए विवश है. ऐसी गैर-बराबरी विश्व में कहीं और नहीं है. किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न तथा वंचित तबकों के मध्य आर्थिक-राजनीतिक–सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में अवसरों के बंटवारे में भारत जैसी असमानता नहीं है. इस असमानता ने देश को ‘अतुल्य’ और ‘बहुजन’-भारत में बांटकर रख दिया है. चमकते अतुल्य भारत में जहां तेज़ी से लखपतियों-करोड़पतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, वहीँ जो 84 करोड़ लोग 20 रूपये रोजाना पर गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हैं,वे मुख्यतः बहुजन भारत के लोग हैं. उद्योग-व्यापार, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र से लगभग पूरी तरह बहिष्कृत बहुजनों के लिए रोजगार के नाम पर अवसर मुख्यतः असंगठित क्षेत्र में है,जहाँ न प्राविडेंट फंड, वार्षिक छुट्टी व चिकित्सा की सुविधा है और न ही रोजगार की सुरक्षा. इस मामले में 2015 के अक्तूबर में क्रेडिट सुइसे नामक एजेंसी ने वैश्विक धन बंटवारे पर जो अपनी छठवीं रिपोर्ट प्रस्तुत की है वह काबिले गौर है. रिपोर्ट बताती है कि सामाजिक-आर्थिक न्याय के सरकारों के तमाम दावों के बावजूद भारत में तेजी से आर्थिक गैर-बराबरी तेजी से बढ़ रही है. रिपोर्ट के मुताबिक 2000-15 के बीच जो कुल राष्ट्रीय धन पैदा हुआ उसका 81 प्रतिशत टॉप की दस प्रतिशत आबादी के पास गया. जाहिर है शेष निचली 90 प्रतिशत जनता के हिस्से में 19 प्रतिशत धन गया. 19 प्रतिशत धन की मालिक 90 प्रतिशत आबादी में भी नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के 4.1 प्रतिशत धन है. इस रिपोर्ट पर राय देते हुए एक अखबार ने लिखा-‘गैर-बराबरी अक्सर समाज में उथल-पुथल की वजह बनती है.सरकारी और सियासी पार्टियों को इस समस्या को गंभीरता से लेना चाहिए. संसाधनों और धन का न्यायपूर्ण पुनर्वितरण कैसे हो,यह सवाल अब प्राथमिक महत्व का हो गया है.’इस बीच रोहित वेमुला की सांस्थानिक, प्रोफ़ेसर और एसोसियेट प्रोफ़ेसर के पदों पर ओबीसी आरक्षण का खात्मा सहित एसटी छात्रों के राजीव गांधी फेलोशिप पर रोक जैसी अन्य कई घटनाएं यह स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि हजारों साल से शिक्षालयों से बहिष्कृत रहे समुदायों को उच्च शिक्षा से दूर रखने का सुनियोजित प्रयास हो रहा है. यह सब हालात देखकर बहुजनों में वह सामाजिक असंतोष चरम पर पहुँच गया है, जो क्रांति को जन्म देता रहा है. विषमताजनित इसी उग्र सामाजिक असंतोष के चलते अमेरिका में ब्लैक पैंथर वजूद में आया, जिसके आंदोलनों के परिणामस्वरूप कालान्तर में अश्वेतों को अमेरिका के संपदा-संसाधनों सहित सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों,फिल्म-मीडिया सहित हार्वर्ड और नासा जैसे हाई-प्रोफाइल शिक्षण संस्थानों में संख्यानुपात में हिस्सेदारी मिली.क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए आज भारत जैसे हालात कहीं नहीं है.किन्तु सब कुछ देखकर बहुजन समाज के नेता आँखे मूंदे हुए हैं. 70 के दशक में दलित नेतृत्व की यही अकर्मण्यता देख कर नामदेव ढसाल और उनके साथी दलित पैंथर की स्थापना के लिए आगे बढे थे. क्या वर्तमान भारत के बहुजन समाज का कोई छात्र, गुरुजन या लेखक भी नामदेव ढसाल की ऐतिहासिक भूमिका में अवतरित होगा? (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)

…और बहनजी की बात सुन सब रो पड़े

रविवार 10 जुलाई को लखनऊ में बहुजन समाज पार्टी की महत्वपूर्ण बैठक चल रही थी. इस दौरान कुछ ऐसा हुआ कि सब रो पड़े. असल में ठीक एक दिन पहले ही 9 जुलाई को बसपा प्रमुख मायावती के छोटे भाई टीटू (सुभाष जी) की मौत हो गई थी. वह लंबे समय से बीमार थे. जिसके बाद 9 जुलाई की शाम को दिल्ली के मेट्रो अस्पताल में उनका निधन हो गया. बावजूद इसके मायावती जी ने 10 जुलाई को लखनऊ में आयोजित कार्यक्रम को रद्द नहीं किया. लखनऊ में जब कार्यक्रम शुरू हुआ तो वहां मौजूद सारे पदाधिकारियों की सहानुभूति भरी निगाह बहन जी की ओर थी. लेकिन मायावती के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. वह अपने तेवर के मुताबिक उत्तर प्रदेश के चुनाव की समीक्षा में व्यस्त थीं. वह हर पदाधिकारी और को-आर्डिनेटर से उनके क्षेत्र का हाल पूछती रहीं. उन्हें काम करने को लेकर चेताती रहीं. चुनाव की तैयारियों में जुटे रहने और समाज के बीच काम करने को कहती रहीं. और जब उन्होंने सबसे बात कर ली तो आखिरकार भाई की मौत का दर्द उनकी जुबान और आंखों में भी छलक आया. बैठक का अंत मार्मिक हो गया. उन्होंने जो कहा उसने उस बैठक में मौजूद सभी लोगों की आंखें नम कर दी. सारी समीक्षा करने के बाद उन्होंने आखिर में कहा, आप सबको मालूम ही होगा कि मेरे छोटे भाई टीटू की मौत हो गई है. उसकी लाश घर पर रखी है. इसकी जानकारी मुझे मिल गई थी, लेकिन मैंने आप सभी को बैठक के लिए बुला रखा था और मेरे लिए पार्टी और मिशन पहले है, परिवार बाद में. मेरे आदर्श बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के बेटे की जब मौत हुई थी तो उन्हें पूना पैक्ट के लिए जाना था और वह पूना पैक्ट में गए. मेरे सामने भी चुनौती थी, लेकिन मेरा मिशन और बाबासाहेब का सपना मेरे लिए ज्यादा अहम था.

अन्नदाता की मेहनत से कौन मालामाल

अर्थशास्त्र में मांग और पूर्ति की एक समान्य सी बात बताई जाती है. यदि मांग ज्यादा है तो कीमत भी ज्यादा होगी. यदि कीमत सस्ती होगी, तो आपूर्ति भी काम होगी. अर्थशास्त्र के इस नियम में भले ही बहुसंख्य धंधे फीट बैठते हों, लेकिन खेती-किसानी में यह बात थोड़ी-सी पटरी से उतर जाती है. मांग देखकर यदि किसान किसी अनाज की बुआई करता है और उस वर्ष उसका उत्पादन ज्यादा होता है, तो उस लागत से बहुत ज्यादा इतना भी धन प्राप्त नहीं हो पाता है कि वह कुछ रुपए अपने पास अगली बुआई के खर्च के लिए बचा सके. पूर्ववर्ती और वर्तमान सरकार के किसान हितैषी होने के तमाम दावों के बाद भी अन्नादाता किसानों की परिवारों में के घर वह बरकत नहीं है, जो धन्नासेठों के यहां होती है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा किसानों के आर्थिक स्थिति आंकलन सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2013 के दौरान किसान परिवारों पर कर्ज के आंकड़े एकत्र किये गये और उस दिन देश के हर किसान परिवार पर औसतन लगभग 47 हजार रुपए कर्ज होने का अनुमान लगाया गया है. इस ऋण में संस्थागत संस्थानों तथा सेठ-साहूकारों से लिए गए कर्ज भी शामिल हैं. सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 52 प्रतिशत किसान परिवारों के कर्ज के बोझ में दबे होने का अनुमान है. कम जोत के किसान परिवार पर कम कर्ज का भार है, जबकि बड़े किसान परिवारों पर अधिक कर्ज है. कम जमीन वाले 41.9 प्रतिशत किसानों पर कर्ज हैं, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन वाले 78.7 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार हैं. एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार पर औसतन 31,100 रुपए का ऋण है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन जोतने वाले किसान परिवार लगभग 2,90,300 रुपए के कर्जदार हैं. एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों ने संस्थागत संस्थानों अर्थात सरकार, सहकारिता समितियों और बैंकों से 15 प्रतिशत कर्ज लिया है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन रखने वाले किसानों ने इन संस्थानों से 79 प्रतिशत कर्ज लिया है. राष्ट्रीय स्तर पर किसानों ने 60 प्रतिशत ऋण संस्थागत संस्थानों से लिया है. बैंकों ने 42.9 प्रतिशत ऋण दिया है, जबकि सहकारिता समितियों ने 14.8 प्रतिशत तथा सरकार ने 2.1 प्रतिशत ऋण दिया हुआ है. गैर-संस्थागत संस्थानों या सेठ-साहूकारों ने 25.8 प्रतिशत कर्ज किसानों को दिया है. वर्ष 2013 में किए गए सर्वेक्षण में देश में 9 करोड़ 2 लाख किसान परिवार होने का अनुमान लगाया गया है. लगभग 69 प्रतिशत कृषक परिवारों के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है. केवल 0.4 प्रतिशत किसान परिवारों के पास 10 हैक्टेयर या इससे अधिक जमीन है. राष्ट्रीय स्तर पर 0.1 प्रतिशत किसान परिवार भूमिहीन पाए गए, जबकि 6.7 प्रतिशत परिवारों के पास केवल मकान की ही जमीन थी. यानि कुल 92.6 प्रतिशत किसान परिवारों के पास मकान के अलावा कुछ जमीनें हैं. यह तो रही आंकड़ों की बात. जमीनी हकीकत तो यह है कि छोटे जोत के किसानों को बैंक कर्ज देने से कतराते हैं. यही किसान मोटे ब्याज दर पर सेठ साहूकारों से कर्ज लेकर केसी-किसानी शुरू करते हैं. परिवार के सदस्यों की जरूरतों को काट कर कर्ज भी उतार देते हैं. छोटे किसानों को बैंक कम ब्याज पर कर्ज दे दे तो थोड़ी बहुत खुशियां इनके घरों में भी अठ्खेलियां कर लेती. किसानों के लिए जो योजनाएं और सुविधाएं हैं, वह आसानी से पहुंच नहीं पाती हैं. सरकार यदि बोनस की घोषणा कर भी दे तो उसे लेने-देने की प्रक्रिया में इतनी कठिनाई होती है कि किसान निराश हो जाता है. वहीं इस प्रकियाओं में दलालों की चांदी होती है. छोटे जोत के किसान बिचौलियों के हाथों फंस कर सस्ते में अपनी फसल बेच देते हैं. इससे मुश्किल से ही अपने घर परिवार लायक खर्च जुटा पाते हैं. किसानों की मेहनत पर मालामाल कर्जदेने वाला साहूकार और अनाज खरीदने-बेचने वाले बिचौलिये होते हैं. -संजय स्वदेश-संपर्क-9691578252- email : sanjayinmedia@gmail.com

दलित भी खत्म करें अपनी जाति प्रथा

आदमी कम शिक्षित हो या ज्यादा शिक्षित, गरीब हो या अमीर, उसे लगता है कि जाति से बाहर निकला, तो आफत आ जाएगी. व्यवहार में, जाति तोड़ने का एक ही मौका आता है  विवाह का. शायद इसीलिए डॉ. अंबेडकर को अंतर-जातीय विवाहों से बहुत उम्मीद थी. भारत के सवर्ण समाज में कुछ सामाजिक सुधार अरसे से बकाया हैं. वे शिक्षित हैं, संपन्न हैं, और कुछ हद तक आधुनिक भी. चाहें तो भारतीय समाज में क्रांति ला सकते हैं. सब प्रकार की कूपमंडूकताओं को अलविदा कह सकते हैं. लेकिन वे ही जाति प्रथा से सब से ज्यादा बंधे हुए हैं. ‘जाति चली जाएगी, लोग क्या कहेंगे, मैं ही क्यों नक्कू बनूं’ की भावना ने उनके हाथ-पैर को निष्क्रिय कर रखा है. वे पहल करना भूल गए हैं. वे भारत पर गर्व करना चाहते हैं, पर कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते, जिससे भारत पर गर्व करने की स्थितियां बनें. इक्का-दुक्का प्रयास जरूर होते रहते हैं, लेकिन वे बिजली की कौंध की तरह हैं, जिससे अंधेरे की वास्तविकता और ज्यादा नजर आती है. सच तो यह है कि सवर्ण समाज पढ़त-लिखत में आगे है, किंतु परिवर्तनशीलता में सब से पीछे. शिक्षा और जीवन के बीच दूरी को मिटा कर ही यूरोपीय जातियां आगे बढ़ सकी हैं. लेकिन भारत का सवर्ण समाज जैसे-जैसे आधुनिक हो रहा है, इस दूरी को और बढ़ाता जा रहा है. आधुनिकता और प्रगतिशीलता के बीच की दूरी को जब तक कम नहीं किया जाता, भारत में किसी भी तरह का सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है. माना जाता है कि मंडल कमीशन ने 90 के दशक में भारत को झकझोर दिया था. यह एक तरह की क्रांति थी, जिससे भारतीय समाज ने अपने आप से बहस करना सीखा. उन दिनों जो बहस शुरू हुई थी, उसकी प्रतिध्वनियां आज भी सुनी जा सकती हैं. लेकिन जैसे भारत की आजादी एक असमाप्त परियोजना है, वैसे ही मंडल क्रांति का संदेश भी बहुत दूर तक नहीं जा पाया है. मंडल आयोग का तीर ज्यादातर गलत निशानों पर लगा है. सच कहा जाए तो इस समय देश के दलित समुदाय में ही सबसे ज्यादा सुगबुगी है. रोहित वेमुला की घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि एक भी दलित के साथ नाइंसाफी हुई, तो यह राष्ट्रीय घटना बन सकती है. यही समुदाय जाति, रोजगार, आत्मसम्मान, सामाजिक समानता आदि को ले कर रोज नई-नई बहसें खड़ी कर रहा है. इसलिए आज के भारत में किसी समुदाय से सब से ज्यादा आधुनिकता और प्रगतिशीलता की उम्मीद की जा सकती है, तो वे दलित ही हैं. जब हम दलितों की बात करते हैं, तो उन्हें एक समुदाय के रूप में देखते हैं. वह एक समुदाय है भी. लेकिन भारत के हर समुदाय की तरह इसमें भी ऊपर-नीचे कई स्तर हैं. हर स्तर अपने को विशिष्ट मानता है, सिवाय भंगी के, जो दलित जाति प्रथा के सबसे निचले पायदान पर खड़ा है. हिंदी में कुछ दिनों पहले चमार बनाम भंगी की बहस चली थी. जब साहित्य में संवेदना का हाल यह है, तो समाज में कितना बुरा होगा. इसे हम उपनिवेश के भीतर उपनिवेश का मामला कह सकते हैं. मेरा निवेदन है कि सवर्ण बनाम दलित में जो उपनिवेशवाद अंतर्निहित है, वैसा ही उपनिवेशवाद दलितों के भीतर मौजूद है. इसे कौन तोड़ेगा? जाहिर है, सवर्णो को इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है. यह दलित समाज का आंतरिक मामला है. दलितों के प्रवक्ताओं का ज्यादा समय सवर्णो के नुक्स निकालने और उन्हें कोसने में खर्च होता है. मेरा प्रस्ताव है कि इसमें से कुछ समय बचा कर दलित एकता का निर्माण करने में लगाना चाहिए. यह जिस तरह बनिये की शादी ब्राह्मण से होने में अड़ंगे आते हैं, उसी तरह लड़की पासी हो और लड़का चमार, तो शादी होना मुश्किल हो जाता है. दलित समाज को अपनी आंतरिक ऊर्जा से यह बैरियर क्यों नहीं तोड़ देना चाहिए? इस प्रस्ताव की तह में एक तरह का आदर्शवाद है. आदर्शवाद यह है कि पीड़ित की संस्कृति को पीड़क की संस्कृति से बेहतर होना चाहिए. यह इस प्राचीन समझदारी का आधुनिक अनुवाद है कि बुराई से बुराई नहीं मिटती, वह अच्छाई से मिटती है. इसमें एक सैन्यवाद भी है. शत्रु को पराजित करने के लिए अपनी सेना को ऐक्यबद्ध और मजबूत करना चाहिए. अपने भीतर का जातिवाद समाप्त कर दलित अपने को शक्तिशाली और सवर्ण समाज को कमजोर ही करेंगे. जब दलितवाद का सूर्य उगेगा, उसके सामने ब्राह्मणवाद के तारे अपने आप अस्त हो जाएंगे. कुछ लोग कहेंगे, यह दलितों को बांटने का एक और नुस्खा है. यह दलितों के बीच काम करने वालों या दलित विचारकों और कार्यकर्ताओं का कर्तव्य है कि वे अपने समाज के भीतरी अंर्तद्वंद को ज्यादा से ज्यादा रचनात्मक बनाएं. ये अंर्तद्वंद वास्तव में हैं नहीं, सिर्फ  दिखाई पड़ते हैं. प्रयास में गंभीरता और ईमानदारी हो, तो ये थोड़े ही समय में उड़न छू हो जाएंगे. इससे दलित समाज की स्वतंत्रता का विस्तार होगा और उसकी शक्ति भी बढ़ेगी. पांचों उंगलियां मिल कर मुट्ठी का रूप ले लें, तो इस ताकत के सामने कौन ठहर पाएगा? मई के समय लाइव से साभार

धार्मिक ग्रंथों में स्त्री अंर्तविरोध

स्त्री जो एक जननी है, मगर ये अतिश्योक्ति ही है कि इसके जन्म पर अमूमन खुशियां नहीं मनाई जाती. हम कहते तो हैं कि बेटे बेटियां एक समान हैं, मगर फिर भी ज्यादातर घरों में उनके जन्म पर भेदभाव होता है. एक बेटी को तो कई घरों में खुशी खुशी स्वीकार भी कर लेते हैं, मगर जैसे ही दूसरी बेटी होती है, ज्यादातर की खुशियां काफूर हो जाती है. जबकि ये बात दूसरे बेटे के जन्म पर नहीं होती है. ये शायद इसलिए भी होता है कि हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी बेटे और बेटियों के जन्म पर विरोधाभाष है. और भारतीय संस्कृति में धार्मिक ग्रंथ लोगों के विचारों में गहरे तक पैठी हुई है. अगर हम धार्मिक ग्रंथों का संदर्भ लें तो इस बात की पुष्टि होती है. अथर्व संहिता में कहा गया है कि हमारे यहां पुत्र का जन्म हो और कन्या का जन्म किसी और के घर हो. जो नीचे लिखे श्लोक में वर्णित है. “प्रतापतिरनुमतिः सिनीवाल्यपीक्लृपत स्वेषूयमन्यत्र दधत्पुमांसमुदधादह ” यहां तक की इस ग्रंथ में पुत्र के बाद भी पुत्र की ही कामना की गई है कन्या की नहीं. “पूमांस पुत्रं जनयतं पुमाननु जायताम भवासि पुत्राणां माता जातानां जयनाश्चयान्” तैतिरीय संहिता में कहा गया है कि पुत्र का जन्म होने पर पिता आनंद पूर्वक माता के पास लेटे हुए नवजात शिशु को हाथों में उठा लेता था, किन्तु यदि कन्या जन्म होती थी तो वह स्नेह नहीं दिखाता था और उसे लेटे देता था. ऐतरेय ब्राह्मण में तो कन्या की उत्पत्ति को स्पष्ट शोक का कारण माना गया है. यथा “कृपणं हि दुहिता, ज्योतिहिं पुत्रः” अर्थात कन्या के जन्म से मनुष्य कृपण (गरीब/छोटा) होता है जबकि पुत्र ज्योति होता है. मतलब स्पष्ट है कि पुत्री के जन्म का न पूर्व में स्वागत होता था और न ही आज के समय में होता है. मगर फिर भी बेटियां अपने आत्मिक तेज और कर्म से धीरे धीरे अपने घरवालों की चहेती बन ही जाती है. इन ग्रंथों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि बहुत सी कुप्रथाएं उस काल में नहीं थी. जैसे सती प्रथा, बाल विवाह प्रथा इसके अलावा विधवा विवाह का भी प्रचलन था. मगर इन सारी अच्छाईयों के बावजूद स्त्रियों को पूर्ण सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी. मनुस्मृति में आठ प्रकार के विवाह का उल्लेख मिलता है. इनमें कुछ विवाह तो स्त्रियों को समुचित सत्कार देते हैं मगर कुछ विवाह में उनकी स्थिति नरकीय ही बनी रहेगी. जैसे- ब्राह्म विवाह में वस्त्र और गहनों से सजी कन्या का विवाह वैदिक रीति से सुयोग्य वर के साथ रचाया जाता था. देव विवाह में कन्या ऋषि को उपहार रूप में दी जाती थी. तीसरा है आर्ष विवाह. इसमें वर पक्ष से दो गाय लेकर कन्या का पिता कन्यादान करता था. प्रजापत्य विवाह में बड़े बुजुर्गों के आशीर्वाद से स्त्री पुरुष गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे. गंधर्व विवाह यानी प्रेम विवाह का प्रचलन तब भी था, जिसमें स्त्री-पुरुष आपसी सहमति से विवाह करते थे. छठवा है असुर विवाह, जिसमें वर पक्ष से धन लेकर कन्या उन्हें दे दी जाती थी. जबकि राक्षस विवाह में कन्या से विवाह के लिए कईयों के बीच युद्ध होता था जिसमें हत्याएं तक होती थी और जितने वाले वर को कन्या मिलती थी. आठवां है पैशाच्य विवाह. इसमें नशे, निद्रा या रोग की स्थिति में कन्या का बलात्कार कर लेने के बाद विवाह का प्रस्ताव दिया जाता था. इन आठ प्रकार के विवाहों में ब्राह्म विवाह, प्रजापत्य विवाह और गंधर्व विवाह को छोड़कर बाकी पांचों प्रकार के विवाह में स्त्री की इच्छा और उसके मान-सम्मान की कोई बात ही नहीं होती थी. किसी विवाह में उसे उपहार स्वरूप दे देते थे. जैसे वो कोई जीवित आत्मा नहीं निर्जीव वस्तु हो. तो किसी में उसकी कीमत महज दो गाय जितनी होती थी. किसी में धन लेकर उसे बेच दिया जाता, तो किसी में उसे युद्ध द्वारा जीता जाता. तो कहीं उसके सम्मान को तार-तार कर उसे विवाह का प्रस्ताव दिया जाता. ऐसे में स्त्री की अपनी इच्छा कहां हुई. उसे तो बस वैसे चलना है, जैसे किसी ने कहीं लिख दिया या फिर नियम बना दिया. ये अंतर्विरोध ही तो है कि एक तरफ ये ग्रंथ उनके आगे बढ़ने की बात बताते हैं तो उन्हें मूक पशु के सापेक्ष प्रेषित करते हैं. यही नहीं अगर आप विवाह से संतुष्ट नहीं है और आपसी रिश्ते में कड़वाहट भी है फिर भी आप उसे तोड़ नहीं सकते. क्योंकि अगर आप वैसा करेंगे तो आपको यज्ञ करने का अधिकार नहीं होगा. मनुस्मृति के (8/371) श्लोक में विवाह विच्छेद करने वाली स्त्री को जन समूह के सामने कुत्तों से कटवाने का विधान है. मगर पुरुषों के लिए तो ऐसा कोई विधान नहीं. उन्हें तो बस यज्ञ करने नहीं दिया जाता, यही बहुत बड़ी बात थी. इसकी वजह से धर्मभीरू लोग इससे बचते थे. तब से काफी वक्त बीत जाने के बाद आज मनुस्मृति और इस जैसे तमाम ग्रंथों की बात घोषित रूप से तो नहीं की जाती है लेकिन देश के तमाम हिस्सों में स्त्रियां आज भी उन नियमों को भोगने के लिए अभिशप्त हैं. लेखिका शिक्षिका हैं. स्त्री मुद्दों पर लिखती हैं. संपर्क- raipuja16@gmail.com

बहुजन केंद्र और सर्वजन परिधी

पिछले दिनों अखबारों और सवर्ण मीडिया में बहुजन समाज पार्टी को लेकर एक बार फिर गलतफहमी का प्रचार किया जा रहा है. ये बताने की कोशिश की जा रही है कि बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में होने वाले 2017 के विधानसभा चुनाव में दलित और ब्राह्मण समीकरण के आधार पर चुनाव लड़ेगी. आने वाले समय में ब्राह्मणवादी एवं मनुवादी मीडिया इस बात को और बढ़ा चढ़ा कर पेश करेगा. इसलिए बहुजन समाज को बहुजन समाज पार्टी की विचारधारा एवं गठबंधन पर अपनी समझ को धार देनी होगी. हमें सोचना चाहिए कि मीडिया किस आधार पर यह कह रहा है कि बहुजन समाज पार्टी ब्राह्मण एवं दलित समीकरण पर ही भरोसा दिखा रही है. उसके उत्तर के रूप में हाल ही में संपन्न राज्यसभा के लिए होने वाले चुनावों में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) द्वारा नामित नेताओं को आधार बनाया जा रहा है. डॉ. अशोक सिद्धार्थ (अनुसूचित जाति) एवं सतीश चंद्र मिश्रा (ब्राह्मण) को राज्यसभा में प्रत्याशी बनाए जाने का उदाहरण दिया जा रहा है. यद्यपि बहुजन समाज पार्टी की तरफ से ऐसी कोई भी दलील राज्यसभा में अपने प्रत्याशियों के नामांकन के बाद नहीं दी गई. इसमें बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने एक बार भी कहीं नहीं कहा है कि वह उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनावों में ब्राह्मण और दलित समीकरण पर चुनाव लड़ेगी. बहुजन समाज पार्टी द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में साफ कहा गया है कि बसपा सर्वजन समाज के आधार पर चुनाव लड़ेगी और इस बात को उन्होंने उत्तर प्रदेश में विधान परिषद (एमएलसी) में पार्टी के कोटे से नामित विधायकों के नामों को आधार बनाया. बसपा द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में साफ कहा गया है कि बहुजन समाज पार्टी द्वारा दो अनुसूचित जाति एवं एक पिछड़ा यानि ओबीसी उम्मीदवार को परिषद में नामित किया जा रहा है. और इससे पहले नसीमुद्दीन सिद्दीकी तथा ठाकुर जयवीर सिंह को विधान परिषद में नामित किया जा चुका है. बहुजन प्लस सर्वजन उपरोक्त तथ्यों से यह बात स्थापित होती है कि बहुजन समाज पार्टी की केंद्रीय विचारधारा अभी भी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग एवं कनवर्टेड मायनॉरिटीज पर आधारित है, जिसे मान्यवर कांशीराम 85 प्रतिशत कहा करते थे और उनको बहुजन का नाम दिया था. इस कोर बहुजन विचारधारा के अंदर बहन मायावती ने समाज की अन्य जातियों को जोड़कर और उसमें भी विशेष कर सवर्ण समाज में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों और जातीय दुराग्रह से परे लोगों को जोड़कर सर्वजन का नारा दिया है. इसके तहत उन्होंने कुछ सवर्ण समाज के लोगों को जैसे सतीश चंद्र मिश्रा एवं ठाकुर जयवीर सिंह आदि को राज्यसभा एवं विधान परिषद में नामित किया है. इसलिए बहुजन समाज को विश्वास होना चाहिए कि बहुजन समाज पार्टी ने ऐसी कोई भी घोषणा नहीं कि है, जिससे कि यह बात स्थापित हो कि बहुजन समाज पार्टी आने वाले विधानसभा के 2017 चुनाव में सिर्फ दलित औऱ ब्राह्मण समीकरण पर ही चुनाव लड़ेंगे. बल्कि उनके कृतत्व एवं नेताओं की सक्रियता को देखते हुए जिसमें मुख्य रूप से बहन मायावती, अशोक सिद्धार्थ, सुखदेव राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्या, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, आर. के चौधरी और रामअचल राजभर सहित बहुजन समाज के अनेक लोग हैं, जो बसपा की बहुजन विचारधारा को परिलक्षित करते हैं. इस विचारधारा के प्रसार के लिए बहुजन समाज पार्टी में सवर्ण समाज के नेताओं को जोड़ना शुरू किया गया था. जिसमें सबसे पहले रामबीर उपाध्याय और बाद में सतीश चंद्र मिश्रा एवं नकुल दूबे आदि का पदार्पण हुआ. भगवान बुद्ध के प्रति बसपा का समर्पण इसके बाद हाल ही में बहुजन विचारधारा की एक झलक तब देखने में सामने आई जब बहुजन समाज पार्टी द्वारा बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा भारत के सभी नागरिकों को बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बधाई दी गई. पार्टी द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि किस प्रकार बहुजन समाज पार्टी की चार सरकारों में भगवान बुद्ध एवं उनसे जुड़ी हुई स्मृतियों को उत्तर प्रदेश में स्थापित किया गया है. सर्व प्रथम प्रदेश में भगवान बुद्ध से जुड़े हुए स्थानों का एक कॉरीडोर विकसित किया गया, जिसके तहत भारत एवं भारत के बाहर से आने वाले सैलानियों को इन स्थानों के प्रति आकर्षित किया जा सके और इससे पर्यटन को भी बढ़ावा मिले. इसी संदर्भ में ग्रेटर नोएडा का नाम बदलकर गौतम बुद्ध नगर रखा गया और गौतम बुद्ध नगर में ही गौतम बुद्धा युनिवर्सिटी (जीबीयू) की स्थापना की गई. साथ ही विश्वविद्यालय के सीडर के तौर पर पंचशील इंटरमीडिएट विद्यालय की स्थापना की गई. इसी के साथ ही साथ लखनऊ में वीआईपी रोड पर अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान, बुद्ध परिवर्तन स्थल एवं अनेक उद्यानों की भी स्थापना की गई. साथ ही साथ चार अन्य नगरों के नाम भी एवं एक नाम भगवान बुद्ध की माता महामाया के नाम पर रखा गया. इसी कड़ी में उद्यानों एवं स्मृति स्थलों के भवनों की बनावट बौधकालीन कला (आर्किटेक्चर) पर आधारित है. उपरोक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि एक तरफ बहुजन समाज पार्टी समाजों के प्रतिनिधित्व के आधार पर बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व करती है तथा अध्यात्मिक स्तर पर बुद्ध, रैदास एवं कबीर से प्रेरणा लेती है एवं अपने समाज के अनेक विचारकों एवं समाज सुधारकों यथा ज्योतिबा फुले, नरायणा गुरू, शाहूजी महाराज, माता सावित्रीबाई फुले एवं बाबासाहेब के बताए हुए मार्ग पर बहुजन विचारधारा का अनुसरण करती है. पर प्रजातांत्रिक राजनीति का अनुसरण करते हुए बसपा ने बहुत पहले एक नारा दिया था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी- उसकी उतनी भागेदारी’ और इसलिए प्रजातंत्र में सभी समाजों के नागरिकों का उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व ही प्रजातंत्र की स्थापना को आगे बढ़ाता है. और शायद इसीलिए बहुजन समाज पार्टी ने सर्वजन का नारा दिया. इसके तहत उन्होंने बहुजन समाज से अलग सवर्ण समाज को भी अपनी राजनीति में शामिल कर प्रतिनिधित्व देना शुरू किया है. परंतु ब्राह्मणवादी एवं मनुवादी मीडिया बहुजन समाज पार्टी की मूल विचारधारा को नजरअंदाज (ब्लैक आउट) करते हुए केवल दलित एवं ब्राह्मण गठजोड़ का राग अलापता है. यद्यपि उसको यह कहना चाहिए कि बहुजन समाज पार्टी की विचारधारा बहुजन प्लस सर्वण समाज की है. इसलिए बहुजन समाज के सभी सदस्यों को मनुवादी मीडिया के इस अनर्गल प्रचार से बचना चाहिए.  सांप्रदायिकता की चुनौती उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों को देखते हुए बहुजन समाज के समक्ष अनेक चुनौतियां है. पहली चुनौती तो ‘मनुवादी’ मीडिया द्वारा बसपा के खिलाफ फैलायी जाने वाली गलतफहमी/दुष्प्रचार से सावधान रहना है. इसी कड़ी में बहुजन समाज की दूसरी सबसे गंभीर चुनौती होगी कि आने वाले समय में उत्तर प्रदेश राज्य में संप्रदायिक संघर्षों से कैसे प्रदेश एवं बहुजन समाज को सुरक्षित रखा जाए, क्योंकि संप्रदायिक संघर्षों से सबसे ज्यादा नुकसान बहुजन समाज के भाईचारे को होता है. क्योंकि समाज धर्मों के आधार पर बंट जाता है. और बहुजन समाज का भाईचारा संप्रदायिकता में बदल जाता है. इसलिए बहुजन समाज के भाई-बहनों को अपने आस-पास होने वाले संप्रदायिक संघर्षों को जिस तरह से भी हो उसे टालना चाहिए. बहुजन समाज द्वारा सांप्रदायिक संघर्षों को टालना इसलिए भी आवश्यक है कि अनेक संप्रदायिक संघर्षों में यह देखा गया है कि इन संघर्षों में सबसे ज्यादा जान माल का नुकसान दलित, पिछड़ों और अक्लियत समाज का होता है और उनके बीच का भाईचारा खत्म हो जाता है. इसलिए बहुजन समाज को सांप्रदायिक संघर्षों को बढ़ाने वाली विचारधारा को चिन्हित करना होगा, उनके नेताओं के कार्यक्रमों को भी समझना होगा जिससे की बहुजन समाज में भाईचारा बढ़े और सांप्रदायिक तनाव दूर हो सके. भ्रष्टाचार के खिलाफ दुष्प्रचार बहुजन समाज की एक अन्य चुनौती होगी कि किस प्रकार बहुजन समाज पार्टी के खिलाफ भ्रष्टाचार के झूठे प्रचार के बहकावे में ना आएं. आज के इस भ्रामक इलेक्ट्रानिक मीडिया के हमले में सच्चाई और झूठ का पता लगा पाना आसान नहीं है. और जैसा कि सभी जानते हैं कि मीडिया घरानों को पूंजीपतियों ने अब खरीद लिया है. इसी कारण भारतीय राजनीति में राजनैतिक दलों का तथा पूंजीपतियों का एक नया गठजोड़ सामने आया है. इस गठजोड़ में सत्ताधारी सरकारें विपक्षियों पर तथा कमजोर प्रांतीय दलों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगातार लगाती हैं. इन आरोपों को इस प्रकार प्रायोजित किया जाता है कि बड़े से बड़ा राजनैतिक दल भी उनको चुनौती नहीं दे पाता. यहां तक की कई मजबूत राष्ट्रीय राजनैतिक दल जिनकी कई राज्यों में सरकारें चल रही होती हैं, साथ ही साथ कई टेलिविजन न्यूज चैनलों और अखबारों में उनका दखल होता है; वे अपने ऊपर लगे आरोपों से अपने आप को बचा नहीं पाते और उनकी साफ-सुथरी छवि धूमिल हो जाती है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में अगस्ता हैलिकॉप्टर डील में देखने को मिला. जिसके अंदर इटली की एक अदालत में सुनाई गई सजा के आधार पर राज्यसभा के अंदर सोनिया गांधी, अहमद पटेल एवं ए.के एंटोनी पर आरोप लगाए गए जिसको बाद में सत्ता दल प्रमाणित भी नहीं कर पाया. परंतु आरोप तो लग गए और कांग्रेस जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी उन आरोपों को अपने ऊपर से हटा नहीं पाई और असम और केरल के चुनाव में उसे भारी हार का सामना करना पड़ा. इसलिए बहुजन समाज को समझना चाहिए कि राजनैतिक दलों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना राजनैतिक प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन गया है. इस राजनैतिक दांव पेच से किसी भी दल और उसके शीर्ष नेता पर झूठा आरोप लगा कर उसके प्रति नकारात्मक माहौल बनाया जा सकता है और उसकी तेज तर्रार छवि को खंडित किया जा सकता है. इस संदर्भ में यहां पर बहुजन समाज पार्टी एवं उसके शीर्ष नेतृत्व को आने वाले समय में इस राजनैतिक रणनीति का सामना करना पर सकता है. इसलिए बहुजन समाज के लोगों को इस गंदी राजनीति के विषय में अभी से सजग रहना होगा, क्योंकि विपक्ष बहुजन समाज पार्टी के खिलाफ और उसके नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप पुनः प्रचारित करेगा. सीबीआई तथा इन्कम टैक्स आदि संस्थाओं से भी नोटिसों को भिजवाएगा लेकिन बहुजन समाज को यह समझना चाहिए कि जो भी सरकार सत्ता में होती है उसके पास पुलिस, सीबीआई, लोकल इंटेलिजेंस, इंकम टैक्स तथा इंफोर्समेंट डायरेक्टरेट सभी कुछ की सुविधाएं होती है. तो ऐसी स्थिति में वो बहुजन समाज पार्टी पर हमेशा आरोप ही क्यों लगाता रहता है, उसको तुरंत आरोपों के समकक्ष त्वरित कार्रवाई करते हुए दोषियों को सजा सुना देनी चाहिए, जिससे की दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए. अगर भ्रष्टाचार के आरोपों में त्वरित कार्रवाई नहीं होती है तो बहुजन समाज को यह समझ लेना चाहिए कि दाल में कुछ काला है और विरोधी सत्ताधारी और मीडिया केवल और केवल बहुजन समाज पार्टी और उसके शीर्ष नेतृत्व की छवि को खंडित करने के लिए ऐसा कर रहा है, जिससे की मतदाताओं को बहकाया जा सके.

राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया का आरंभ था संविधान निर्माण

bheemसंविधान लागू होने के 65 वर्ष बाद पिछले दिनों संसद में पहली बार संविधान दिवस पर बहस देखने को मिला. इसके माध्यम से राष्ट्रनिर्माण में बोधिसत्व भारतरत्न बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के योगदान पर चर्चा हुई. यह अपने आप मे एक ऐतिहासिक क्षण था जब इतने वर्षों बाद बाबासाहेब की पैनी दृष्टि एवं बौद्धिक विरासत के माध्यम से संविधान में निहित राष्ट्र निर्माण के मूल तत्वों पर विस्तार से चर्चा हुई. इस चर्चा से सदन के माध्यम से पूरे राष्ट्र में संविधान के प्रति नई चेतना का प्रसार होने की दिशा में बेहतर काम होने की संभावना बढ़ गई है. इस चर्चा से बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर की अपेक्षानुसार संवैधानिक नैतिकता का भी पुनः प्रसार एवं प्रचार किया जा सकता है. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के संविधान निर्माण में योगदान को हम कई भूमिकाओं के माध्यम से समझ सकते हैं. पहला योगदान संविधान सभा के सामान्य परन्तु सजग एवं सकारात्मक आलोचक की भूमिका में समझा जा सकता है. दूसरा योगदान संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में. संविधान निर्माण में बाबासाहेब के योगदान की गणना निम्न आधार पर की जा सकती है. 1) समय, भौतिक एवं बौद्धिक ज्ञान का योगदान 2) विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधियों की आलोचना को दूर कर उन्हें संतुष्ट करने में योगदान 3) भिन्न मतों एवं भ्रान्तियों को दूर करने में योगदान 4) संविधान कि वर्तमान समय में प्रासंगिकता का उत्तर 5) संविधान के माध्यम से राष्ट्र एवं प्रजातन्त्र के निर्माण हेतु कुछ मूल तत्वों का चिन्हांकन सर्वप्रथम हम अगर बाबासाहेब अम्बेडकर के संविधान सभा के सामान्य सदस्य के रूप में योगदान की चर्चा करें तो हमें उनके जीवन के इस काल के विषय में तमाम जानकारियां मिलती है. बाबासाहेब पहली बार बंगाल (सामान्य) सीट से चुनकर संविधान सभा में पहुंचे थे. सभी जानते हैं कि संविधान सभा पहली बार 9 दिसंबर, 1946 को मिली और उसकी कार्यवाही 11 बजे आरंभ हुई. 11 दिसंबर को राजेन्द्र प्रसाद को नियमित चेयरमैन चुना गया और 13 दिसंबर 1946 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के निर्माण हेतु उद्देश्य एवं लक्ष्यों का मसौदा सदन में बहस के लिए रखा. इस मसौदे पर पहली बार बाबासाहेब अम्बेडकर ने सदन में 17 नवंबर 1946 को अपना वक्तव्य दिया. यहां यह बताना समीचीन होगा कि बाबासाहेब का मानना था कि सदन में वकत्वय के लिए तैयारी अतिआवश्यक है. उन्होंने सभापति से यह कहा कि आपने अचानक मेरा नाम लेकर असमंजस में डाल दिया है क्योंकि मैं इस मसौदे पर बोलने के लिए अभी तैयार नहीं हूं और उस पर भी आपने मुझे केवल दस मिनट का समय दिया है जिससे मेरी कठिनाई और बढ़ गई है. इसके बाद भी बाबासाहेब ने संविधान सभा के अनुशासित सिपाही के तौर पर अपनी बौद्धिक क्षमता एवं अकादमिक साहस का परिचय देते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू के रखे गये मसौदे पर आलोचनात्मक वक्तव्य रखा. यह एक निर्भिक वक्तव्य था. बाबासाहेब ने इस मसौदे को 450 वर्ष पुराना बताया और कहा कि मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू जो कि प्रतिष्ठित समाजवादी हैं, से उम्मीद करता हूं कि वे इससे और भी आगे जाकर कुछ बातों को रखेंगे. बाबासाहेब ने कहा, यद्यपि यह मसौदा कुछ अधिकारों की बात तो करता है परंतु किसी प्रकार के उपचार (रेमिडिज) की बात नहीं करता. यहां तक की किसी व्यक्ति की जान, स्वतंत्रता एवं संपत्ति विधि की उचित प्रक्रिया से नहीं ली जा सकती, का भी जिक्र इस मसौदे में नहीं है. ऐसी स्थिति में क्या सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय संभव है? इसलिए मैं इस मसौदे से निराश हूं. यद्यपि मैं मसौदा प्रेषित करने वाले व्यक्ति की सत्यनिष्ठा से भलीभांति परिचित हूं. बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण हेतु संविधान सभा के सामान्य सदस्य के रूप में दूसरा योगदान कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के नेताओं के बीच उपजे विवाद के निपटान हेतु सुझाव के रूप में दिखाई देता है. संविधान सभा के आरम्भ में उन्होंने बहस के दौरान मुस्लिम लीग के नेताओं के उपस्थित नहीं रहने को गंभीरता से उठाया. उन्होंने उनकी अनुपस्थिति पर खेद जताते हुए आग्रह किया कि संविधान निर्माण की इस बहस में उनका शामिल होना अतिआवश्यक है, नहीं तो संविधान पर पूरी बहस अर्थहीन होगी. बाबासाहेब ने मुस्लिम लीग के संविधान सभा में नहीं शामिल होने की वजह कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के बीच के विवाद को बताया. परंतु उन्होंने संविधान सभा में अपील की कि संविधान का निर्माण इतना महत्वपूर्ण मुद्दा है कि कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग को इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए. उन्होंने जोर देकर कहा कि ”जब राष्ट्रों के भविष्य का निर्णय हो रहा हो तो व्यक्तियों, नेताओं एवं दलों की प्रतिष्ठा का कोई अर्थ नहीं होता.” इसलिये दोनों ही दलों के नेताओं को यह विवाद सुलझा कर संविधान सभा में शामिल होना चाहिए. इसी संदर्भ में बाबासाहेब ने कांग्रेस के नेताओं को समझाया कि हिन्दु-मुसलमानों के मध्य विवाद का निवारण हिंसा से नहीं हो सकता. यह एकदम गलत सोच है. बाबासाहेब ने कांग्रेस के नेताओं को यह बताया कि मुस्लिम लीग को उनकी इच्छा के विरुद्ध पारित संविधान में हिंसा एवं जबरदस्ती नहीं शामिल कराया जा सकता. अतः अगर मुस्लिम लीग को संविधान सभा में लाना है तो उन्हें सह्रदय से ही लाना होगा क्योंकि बाबासाहेब का मानना था कि “सत्ता एवं वैद्य सत्ता शांति, प्यार से ही खरीदे जा सकते हैं.” इसलिए मुस्लिम लीग को प्यार से ही हम संविधान सभा में ला सकते हैं. बाबासाहेब ने इस परिपेक्ष्य में यह विश्वास जताया कि यद्यपि हम भिन्न हैं फिर भी अगर हम कुछ दिन साथ चलें तो हम एकता के सूत्र में अवश्य बंध कर एक सशक्त राष्ट्र बना सकते हैं. और जल्द ही मुस्लिम लीग के नेताओं को यह समझ में आ जायेगा कि एक अखण्ड भारत उनके लिये भी श्रेयकर है. वैसे तो डॉ. अम्बेडकर का आधुनिक भारत के निर्माण में कई योगदान है, परंतु उनमें से संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में भारत के प्रजातांत्रिक संविधान का निर्माण सबसे मौलिक एवं महत्वपूर्ण है. प्रश्न उठता है कि हम बाबासाहेब को संविधान निर्माता किन तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं. सर्वप्रथम इन तथ्यों का प्रमाण हमें 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा के समक्ष दिये गये बाबासाहेब के उदबोधन से मिलता हैं. इस दिन बाबासाहेब ने संविधान की फाइनल प्रति तात्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सौंपी थी. संविधान सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने अनेक तथ्यों का उद्घाटन किया, जिससे यह प्रमाणित होता है कि वास्तविकता में बाबासाहेब अम्बेडकर ही भारतीय संविधान के पिता हैं. इन तथ्यों को वैसे संविधान सभा के अनेक सदस्यों ने भी सराहा. इस लेख में हम उसी का आधार बनाकर यह प्रमाणित करना चाहते हैं कि बाबासाहेब संविधान निर्माता हैं और संविधान निर्माण के माध्यम से उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दिया. संविधान सभा की अंतिम बैठक में 26 नवंबर, 1949 को बोलते हुए बाबासाहेब ने बताया कि संविधान सभा पहली बार कब मिली और उस सभा ने कुल कितने दिनों तक काम किया जिसके वह खुद गवाह थे. उन्होंने बताया कि संविधान सभा पहली बार 9 दिसंबर 1946 को मिली और उसने लगातार दो वर्ष, 11 महीने एवं सत्रह दिनों तक काम किया. इस सभा ने ही संविधान प्रारूप समिति का गठन 2 अगस्त, 1947 को किया, जिसने डॉ. अम्बेडकर को अपना अध्यक्ष चुना. बाबासाहेब ने इस समिति द्वारा किये गये काम का भी उल्लेख किया. उन्होंने बताया कि इस समिति ने लगातार एक सौ इकतालीस (141) दिनों तक काम किया और संविधान को अंतिम रूप प्रदान किया जिसमें 395 अनुच्छेद एवं 8 सूचियां थी. यह शायद विश्व का सबसे विस्तृत संविधान है. इस क्रम में बाबासाहेब ने एक अन्य तथ्य का खुलासा किया कि संविधान का मसौदा तैयार करते समय 7 हजार 635 संशोधन प्राप्त किये गये. इनमें से 5 हजार 162 संशोधनों को दरकिनार करते हुए दो हजार चार सौ तिहतर (2473) संशोधनों को विधायिका में बहस के बाद संविधान में समायोजित किया गया. अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि संविधान को बनाने में बाबासाहेब ने कितना मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक योगदान दिया. बाबासाहेब द्वारा संविधान निर्माण हेतु दिये गये बौद्धिक योगदान का प्रमाण हमें उनके द्वारा विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधियों द्वारा संविधान की संरचना के संबंध में उठाये गये प्रश्नों के उत्तरों से भी मिलता है. कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधियों ने संविधान में संसदीय प्रणाली को लेकर प्रश्न उठाया. वे चाहते थे कि संविधान में भविष्य में ‘सर्वहारा की सत्ता’ के आधार पर सरकार बनाने के प्रावधान को निहित किया जाय. दूसरी ओर समाजवादियों का आरोप था कि संपत्ति का बिना मुआवजा दिये राष्ट्रीयकरण का प्रावधान संविधान में नहीं है. साथ ही साथ वे मूलभूत अधिकारों को असीमित चाहते थे. बाबासाहेब ने मशहूर संविधानविद एम. एल जैकर को उद्धृत करते हुए कहा कि किसी भी देश का संविधान उस वर्तमान पीढ़ी की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है. अतः जो भी प्रावधान भारतीय संविधान में समायोजित किये गये हैं वे सभी उस पीढ़ी की अकांक्षाओं के अनुरूप हैं. जो लोग इससे सहमत नहीं हैं उनको बस 2/3 (दो तिहाई) बहुमत की सरकार बनाकर इसे बदल देने का कार्य करना रहेगा. परन्तु अगर वे अपने बलबूते पर 2/3 बहुमत नहीं ला सकते तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि वर्तमान जनता उनके विचारों से सहमत नहीं है. और जो लोग 2/3 लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करते वो कैसे पूरे राष्ट्र के लिए बोल सकते हैं. इसके बाद बाबासाहेब ने उन आलोचकों को उत्तर दिया जिनका मानना था कि संविधान का अत्याधिक केंद्रीयकरण हो गया है. अर्थात संविधान ने केंद्र को ज्यादा शक्ति दे दी है. इस पर बाबासाहेब ने संविधान सभा को बताया कि संघीय प्रणाली का सार है कि विधायिका एवं कार्यपालिका की सत्ता का केंद्र एवं राज्य के मध्य बंटवारा. हमारे संविधान के आधार पर केंद्र एवं राज्य दोनों बराबर हैं. इसका तात्पर्य यह हुआ कि राज्य अपनी विधायिका एवं कार्यपालिका के अधिकार के लिए किसी भी तरह केंद्र पर आश्रित नहीं है. अतः उन्होंने संविधान सभा को समझाया कि ऐसा संविधान केंद्रीकृत कैसे हो सकता है. हां, ये बात और है कि असामान्य समय में केंद्र के पास कुछ अधिक अधिकारों का प्रावधान संविधान में अवश्य किया गया है जो तर्कसंगत है. संविधान एवं संवैधानिक नैतिकता का प्रश्न संविधान सभा में बाबासाहेब अम्बेडकर ने भारतीय समाज में संवैधानिक नैतिकता के अभाव का प्रश्न भी उठाया, और संवैधानिक नैतिकता के अभाव में बाबासाहेब ने अभिशासन के सूक्ष्म से सूक्ष्म मानदण्डों के विवरण को संविधान में शामिल करने का निर्णय लिया. संवैधानिक मूल्यों से बाबासाहेब का तात्पर्य था, सत्ताधारी वर्ग द्वारा संवैधानिक मूल्यों का अनुपालन सुनिश्चित करना. उनका मानना था कि संवैधानिक नैतिकता के प्रसार हेतु सत्ताधारी वर्ग के रोजाना के आचरण में संवैधानिक मूल्य परिलक्षित होने चाहिए. जब वे लोगों से मिलते हैं, जब वे भाषण देते हैं या फिर जब वे विपक्ष में बैठते हैं तब उनके आचरण में संविधान के प्रति आदर झलकना चाहिए. परंतु उन्होंने कहा, वर्तमान समय में ऐसा लगता नहीं है. इसलिए अभिशासन के मानदण्डों को भविष्य की कार्यपालिका के भरोसे पर नहीं छोड़ा जा सकता. आने वाला अभिशासन कैसा होगा यह कहा नहीं जा सकता. वे संविधान में निहित मूल्यों कि उपेक्षा करेंगे या उनको उसकी भावना के अनुरूप लागू करेंगे अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता. अतः अगर संविधान मोटा हो भी गया तो क्या हुआ; हमें भविष्य में संवैधानिक नैतिकता की स्थापना के लिए यह कदम उठाना ही होगा. क्या संविधान समय की कसौटी पर खड़ा उतरेगा? बाबासाहेब ने उन सदस्यों की आशंका का निदान किया जो यह प्रश्न उठा रहे थे कि क्या संविधान भविष्य के लिए सही रह पाएगा?. इसमें समय की मार झेलने की ताकत है या नहीं? क्या यह समय की कसौटी पर खड़ा उतर पाएगा, आदि-आदि. शायद बाबासाहेब वर्तमान के प्रश्नों का भी उत्तर दे रहे थे. जैसे आज भी अनेक संगठन एवं राजनेता संविधान पर कटाक्ष करते हुए इसकी समीक्षा की मांग करते हैं. बाबासाहेब ने संविधान सभा को आश्वस्त किया कि किसी भी संविधान की व्यवहारिकता उस संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करती. संविधान केवल राज्य की संस्थाएं जैसे- विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को ही स्थापित करता है. पर राज्य की संस्थाओं की व्यवहारिकता उन व्यक्तियों एवं राजनैतिक दलों पर निर्भर करेगी जिसे वे निर्मित करेंगे. कौन जानता है कि भारत के लोग एवं राजनैतिक दल किस तरह का व्यवहार करेंगे. क्या वे संवैधानिक रास्ता अपनाएंगे? या फिर क्रांतिकारी रास्ता अपनाएंगे? इसलिए बिना जनता एवं राजनैतिक दलों की प्रकृति का संज्ञान लिये संविधान का मूल्यांकन व्यर्थ है. संविधान एवं प्रजातंत्र की चुनौतीः समता एवं बंधुत्व की स्थापना बाबासाहेब संवैधानिक मूल्यों के आधार पर भारतीय राष्ट्र के निर्माण में भविष्य की चुनौतियों को हमारे लिए रेखांकित कर गये. उनका मानना था कि भविष्य में समानता एवं भाईचारे की स्थापना, प्रसार एवं विकास सबसे बड़ी चुनौती होगी. संविधान की पूर्ण प्रति को राष्ट्रपति को सौपते हुए उन्होंने बताया कि “26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभाषी जिन्दगी में प्रवेश करने जा रहे हैं. हमारे राजनैतिक जीवन में समानता होगी परंतु आर्थिक जीवन में असमानता.” राजनीति में हमने एक व्यक्ति-एक वोट, एक वोट एक मूल्य के सिद्धान्त को स्वीकृत किया है, परंतु अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक संरचना की बनावट की वजह से हम एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धान्त को नकारते रहेंगे. अगर हम बहुत दिनों तक इसको नकारते रहें तो हमारा राजनैतिक प्रजातंत्र खतरे में पड़ सकता है. अतः सशक्त राष्ट्र की स्थापना के लिए बाबासाहेब अम्बेडकर राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक तीनों ही समानताओं की स्थापना चाहते थे. वे समानता के साथ-साथ एक सशक्त राष्ट्र के लिए भाईचारे के सिद्धान्त की स्थापना भी अनिवार्य मानते थे. सवाल यह है कि आखिर बंधुत्व से उनका क्या तात्पर्य था? बंधुत्व के सिद्धान्त से उनका तात्पर्य था, एक समान भ्रातृत्व, एकता एवं सामाजिक जीवन में एकता एवं ऐक्यभाव. बाबासाहेब ने आगाह किया कि बंधुत्व को समाज में स्थापित करना अत्यंत कठिन कार्य है. उन्होंने अमेरिका का उदाहरण दिया कि यद्यपि वहां जातियां नहीं है, फिर भी वहां बंधुत्व और भाईचारा स्थापित करना बहुत कठित था. परंतु हमारे यहां जातियां भी हैं. जातियां अलगाव एवं वैमनस्य फैलाती हैं. ऐसे में भाईचारा कैसे स्थापित हो सकता है? लेकिन भाईचारे के अभाव में समता एवं स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है. भाईचारा तभी संभव है जब हम राष्ट्र बन जाएं. अतः बाबासाहेब का मानना था कि एक सशक्त राष्ट्र के लिए समता एवं भाईचारे दोनों की महती आवश्यकता है. बाबासाहेब के प्रयास की सराहना इस प्रकार बाबासाहेब अम्बेडकर ने अपने बौद्धिक एवं ज्ञान के कौशल के बल पर संविधान सभा में विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधियों को संतुष्ट ही नहीं किया अपितु उस समस्या का समाधान भी बताया जिसको लेकर वे चिन्तित थे. बाबासाहेब के ज्ञान, परिश्रम एवं भावनात्मक आदि योगदान की पराकाष्ठा का बयान महान संविधानविद एवं संविधान प्रारूप समिति के सदस्य टी.टी. कृष्णमाचारी ने इन शब्दों में किया जिसका उल्लेख यहां समिचिन लगता है. टी.टी. कृष्णमाचारी ने तत्कालीन राष्ट्रपति को बताया, “आपके द्वारा नामित (संविधान प्रारूप समितियों) सात सदस्यों में एक सदस्य ने सदन से अपना त्यागपत्र दे दिया. एक की मृत्यु हो गयी और उसकी जगह कोई दूसरा नियुक्त नहीं हुआ. एक अमेरिका में थे और वो अपना योगदान नहीं दे पाएं. दो व्यक्ति दिल्ली से दूर थे और स्वास्थ्य के कारण समिति में शामिल नहीं हो पाएं. इसलिए सात में से 5 व्यक्ति ने प्रारूप समिति में अपना योगदान दिया ही नहीं. ऐसे में संविधान प्रारूप समिति का पूरा काम डॉ. अम्बेकर के कंधों पर पड़ गया जिसे उन्होंने भलि भांति निभाया.” इसी कड़ी में फ्रैन्क एन्थोनी ने बाबासाहेब के योगदान को कुछ इस तरह सराहा. “इस विशालकाय एवं क्लिस्ट दस्तावेज के उत्पादन में अन्तर्निहित कार्य के आयतन एवं एकाग्रता की तीव्रता की वास्तविकता का कोई अनुमान भी लगा पाएगा, ऐसा मुझे विश्वास नहीं होता.” वहीं, संविधान सभा के एक अन्य सदस्य जसवार रॉय कपूर ने कहा कि मैं कुछ वर्षों तक डॉ. अम्बेडकर से नाराज था क्योंकि वे गांधीजी को उनके आमरण अनशन पर मिलने दो दिन देर से आयें. परन्तु संविधान को पूरा कर उन्होंने एक सच्चे देश भक्त की भूमिका निभायी है. उन्होंने संविधान सभा में संविधान की राह में उठे हर गतिरोध को अपने सुझावों से दूर किया. आज मैं उनमें सच्चा देशभक्त देखता हूं. अन्त में तत्कालीन संविधान सभा के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर का मैं विशेष रूप से धन्यवाद ज्ञापित करना चाहूंगा जिन्होंने अपनी खराब सेहत के बावजूद संविधान निर्माण का कार्य किया. उन्हें प्रारूप समिति में रखने एवं उसका अध्यक्ष बनाने से ज्यादा उचित निर्णय हो ही नहीं सकता था.” धर्मग्रंथ और संविधान में अंतर संसद में संविधान पर बहस के दौरान बार बार अनेक सांसदों ने यहां तक की प्रधानमंत्री, गृहमंत्री एवं सरकार के अन्य वरिष्ठ सांसदों ने संविधान की तुलना धर्मग्रंथ से कर डाली. किसी ने उसे बाइबल कहा तो किसी ने कुरान तो किसी ने उसे गीता कह डाला. यहां यह ध्यान देना होगा कि धर्मग्रंथ आस्था से बनते हैं जिनमें कोई भी परिवर्तन संभव ही नहीं है. परंतु संविधान तार्किक एवं वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर समायोजित अनेक समाजों के अनुभवों का निचोड़ है. जिसमें समयानुकुल जनता की अकांक्षाओं के वशीभूत परिवर्तन किए जा सकते हैं. इसीलिए बाबासाहेब अंबेडकर का मानना था कि किसी भी देश का संविधान उस समय की जनता की चित्तवृति एवं अकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है.