मैं रमणिका गुप्ता (जी) को नहीं जानता. मतलब बहुत अच्छे से नहीं जानता. उन्होंने जो किताबें लिखी हैं, उनके बारे में जानता हूं. उनकी मैग्जीन, उनके प्रकाशन और आदिवासियों के लिए किए गए उनके काम के बारे में जानता हूं. उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानने का कारण यह भी हो सकता है कि उनके और मेरे उम्र का अंतर काफी ज्यादा है. 2016 के विश्व पुस्तक मेले में पहली बार उनको देखा था. बमुश्किल एक 18-19 साल के नवयुवा का सहारा लिए वह पुस्तक मेले में घूम रही थीं. पीछे कुछ और लोग भी थे. सोशल मीडिया और कुछ किताबों में उनकी तस्वीर देखी थी सो उन्हें पहचान गया. हां, बात और मुलाकात नहीं हो पाई थी, क्योंकि किसी से भी एकदम से जाकर मिल लेने में मैं हमेशा से सकुचाता रहा हूं.
31 अगस्त वाले इंडिया टुडे के अंक में उनकी एक किताब की चर्चा ने इतने दिनों बाद मुझे उनका जिक्र करने पर मजबूर किया है. उनकी आत्मकथा आई है, ‘आपहुदरी… एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा’ के नाम से. इससे पहले उनकी आत्मकथा का पहला खंड ‘हादसे’ के नाम से आ चुका है. फिलहाल चर्चा दूसरे खंड आपहुदरी की. इंडिया टुडे में इसी का जिक्र है. पत्रिका ने इसे अपना एक शीर्षक दिया है, ‘अंतरंगता का उत्सव.’ और इसी ‘उत्सव’ की झांकी ने मुझे यह लेख लिखने पर मजबूर कर दिया. क्योंकि बहुत संक्षिप्त में दिए गए पुस्तक के कुछ अंश मेरे मन में सवाल छोड़ गए. यहां गुप्ता जी के आत्मकथा के अंश का जिक्र करते हुए लिखा है, “मैं अब सब परिधियां बांध सकती थी, सीमाएं तोड़ सकती थी. सीमाओं में रहना मुझे हमेशा कचोटता रहा है, सीमा तोड़ने का आभाष ही मुझे अत्यधिक सुखकारी लगता है. मैं वर्जनाएं तोड़ सकती हूं… अपनी देह की मैं खुद मालिक हूं. मैं संचालक हूं. संचालित नहीं.”
उनकी आत्मकथा के एक अन्य अंश को भी देखिए, “यौन के बारे में भक्ष्य-अभक्ष्य क्या है, समाज इसका फैसला तो करता रहा है, पर उसने समझ के साथ अपने मानदंड नहीं बदले… व्यक्ति बदलता रहा, प्यार की परिभाषाएं, सुख की व्याख्या, यौन का दायरा सब तो देशकाल के अनुरूप बदलता है. रिश्ते भी सापेक्ष होते हैं. दुर्भाग्यवश समाज ने अपना दृष्टिकोण नहीं बदला खासकर भारतीय समाज ने.” कुछ लाइनें इस किताब को पढ़ने (शायद) के बाद समीक्षक मनोज मोहन ने लिखी है. मनोज लिखते हैं, “इस भारतीय समाज के जिन पुरुषों से रमणिका गुप्ता का साबका पड़ता है उनमें उनका पति, पति के दोस्त, नेता, नेता के साथ चलने वाले छुटभैये, ओहदेदार पुरुषों की भी लंबी फेहरिस्त है.”
इतनी लंबी फेहरिस्त को लांघने के बाद इस शिखर पर पहुंची रमणिका गुप्ता अपनी उम्र के 86वें वर्ष में हैं. मुझे नहीं पता कि आज वो अपने जीवन के तीसरे और चौथे दशक को किस तरह देखती हैं. मेरे मन में बस इतना सा सवाल भर है कि जिन परिस्थितियों को लांघ कर वह इस मुकाम तक पहुंची हैं और उन्होंने जो सफलता अर्जित की है, वह सफलता उनकी अपनी कितनी है? अपनी आगे बढ़ने की अकांक्षाओं और सीमाओं को तोड़ने को तैयार एक मनुष्य के लिए क्या सफलता आसान नहीं हो जाती है? जब वो औरत हो तो तब तो कई मामलों में सफलता चल कर आती है. ऐसे में क्या उसकी सफलता में उन लोगों का भी हिस्सा नहीं हो जाता जिनको लांघ कर उसने वह सफलता पाई होती है.
मैं यहां साफ कर देना चाहता हूं कि मैं कोई स्त्री विमर्श नहीं कर रहा हूं, और न ही स्त्री के देह और वर्जनाओं पर सवाल उठा रहा हूं. मैं रमणिका गुप्ता जी की इन लाइनों का विरोध नहीं करता कि स्त्री अपनी देह की मालिक खुद है. निस्संदेह यह उसकी अपनी ‘स्वतंत्रता’ हो सकती है. मैं तो बस उस सफलता की बात कर रहा हूं जो उसे तमाम रास्तों से गुजरने के बाद मिलती है, क्योंकि जब कोई सीढ़ियां चढ़कर छत पर पहुंचता है तो जाहिर है कि उसके ऊपर पहुंचने में सीढ़ियों का भी योगदान होता है. मेरी समझ से ऐसी सफलता अकेले की सफलता नहीं है. और जहां तक व्यक्तिगत जीवन और देह की स्वतंत्रता का उत्सव मनाने की बात है तो आत्मकथा के बहाने जीवन के निजी पलों और संबंधों को बेचना कुछ साहित्यकारों का शगल बनता जा रहा है.
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अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-अंबेडकरवादी पत्रकारिता के प्रमुख चेहरा हैं। जब हिन्दी पट्टी में अंबेडकरवादी मूल्यों की पत्रकारिता दम तोड़ने लगी थी, अशोक ने 2012 में मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ शुरू कर सामाजिक न्याय की पत्रकारिता को नई धार दी। उनके काम को देखते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने साल 2020 में उन्हें हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया। जहां उन्होंने Caste and Media विषय पर अपनी बात रखी। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास की पत्रकारिता को लेकर DW (Germany) सहित The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week और Hindustan Times आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
IIMC दिल्ली से 2006 में पत्रकारिता करने के बाद अशोक दास ने अपनी पत्रकारिता शुरू की। वह लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में रहे। 2010-2015 तक उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
‘दलित दस्तक’ एक मासिक पत्रिका के साथ वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल एवं प्रकाशन (दास पब्लिकेशन) है। उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
Ashok Das (Ashok Kumar) is a prominent face of Dalit-Ambedkarite journalism. When journalism based on Ambedkarite values was beginning to die down in the Hindi belt, Ashok gave a new edge to social justice journalism by starting ‘Dalit Dastak’ in 2012. Harvard University invited him as a speaker at the Harvard India Conference in the year 2020.Where he spoke on the topic of Caste and Media. India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of 50 Dalits, Remaking India in april 2021 issue. Features regarding Ashok Das’s journalism have been published in media organizations like DW (Germany), The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week and Hindustan Times etc.
Ashok Das started his journalism career after doing journalism from IIMC Delhi in 2006. He worked in prestigious media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4Media and Deshonnati. From 2010-2015 he covered various ministries and the Indian Parliament. He has been awarded the Prabhash Joshi Journalism Award. On January 31, 2020, on the completion of 100 years of the first paper ‘Mooknayak’ published by Dr. Ambedkar, Ashok Das and Dalit Dastak organized a grand event in Delhi where Dr. Ambedkar was remembered as a journalist. This gave a new edge to Ambedkarite journalism in India.
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