हरियाणा में दलित पर कहर, वाल्मीकि समाज का पुलिस को अल्टीमेटम

सोनीपत। हरियाणा के सोनीपत में दलित युवक पर जातिवादी गुंडों का आतंक देखने को मिला है। जिले के धनाना गांव में युवक के साथ बेरहमी से मारपीट की गई। उसके बाद उसे जबरन चोरी का आरोप कबूल करवाने को दबाव बनाया गया। इस घटना के बाद सोनीपत के इलाके में माहौल गरमा गया है। स्थानीय वाल्मीकि समाज ने 3 मार्च को गोहाना में पंचायत बुलाकर पुलिस को दो दिनों के भीतर दोषियों को गिरफ्तार करने का अल्टीमेटम दिया। और ऐसा नहीं होने पर बड़े आंदोलन की धमकी दी। घटना को दो हफ्ते से ज्यादा समय हो चुका है लेकिन पुलिस दोषियों को गिरफ्तार नहीं कर रही है।

दो हफ्ते पहले घटी इस घटना के मुताबिक पीड़ित युवक मोनू हथवाला रोड पर गया था। वहां कुछ बदमाशों ने उसे पकड़ लिया और चोरी का आरोप लगाकर उसे बुरी तरह पीटा। जातिवादी गुंडों ने इससे जुड़ा हुआ एक वीडियो भी वायरल कर दिया, जिसमें सोनू पर हुआ अत्याचार साफ दिखा। वीडियो में साफ दिखा कि गुंडों ने न सिर्फ सोनू के साथ मारपीट की, बल्कि उसे जातिवादी गालियां भी दी। घटना के बाद सोनू ने एफआईआर दर्ज कराई थी, लेकिन पुलिस ने चुप्पी साध रखी है, जिसके कारण वह सवालों के घेरे में है। पुलिस यह दावा तो कर रही है कि वह जल्दी ही आरोपियों को गिरफ्तार कर लेगी लेकिन कब करेगी, यह नहीं बता रही है।

मायावती ने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी से निकाला

नई दिल्ली। मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को बसपा से निष्कासित कर दिया है। बहनजी ने कल दो मार्च को लखनऊ में आकाश आनंद को पार्टी के सभी पदों से अलग कर दिया था। इसके बाद 3 मार्च को आकाश आनंद ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सोशल मीडिया एक्स पर एक लंबा पोस्ट लिखा था। आकाश आनंद का यही पोस्ट पार्टी से उनके निष्कासन का कारण बन गया।

आकाश आनंद के पोस्ट के कुछ ही घंटे बाद बहनजी ने इसका संज्ञान लेते हुए आकाश आनंद को लताड़ा और उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया। बहनजी ने सोशल मीडिया पर इस संबंध में पोस्ट करते हुए लिखा-

बीएसपी की आल-इण्डिया की बैठक में कल श्री आकाश आनन्द को पार्टी हित से अधिक पार्टी से निष्कासित अपने ससुर श्री अशोक सिद्धार्थ के प्रभाव में लगातार बने रहने के कारण नेशनल कोआर्डिनेटर सहित सभी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया था, जिसका उसे पश्चताप करके अपनी परिपक्वता दिखानी थी। लेकिन इसके विपरीत श्री आकाश ने जो अपनी लम्बी-चौड़ी प्रतिक्रिया दी है वह उसके पछतावे व राजनीतिक मैच्युरिटी का नहीं बल्कि उसके ससुर के ही प्रभाव वाला ज्यादातर स्वार्थी, अहंकारी व गैर-मिशनरी है, जिससे बचने की सलाह मैं पार्टी के ऐसे सभी लोगों को देने के साथ दण्डित भी करती रही हूँ।

अतः परमपूज्य बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर के आत्म-सम्मान व स्वाभिमान मूवमेन्ट के हित में तथा मान्यवर श्री कांशीराम जी की अनुशासन की परम्परा को निभाते हुए श्री आकाश आनन्द को, उनके ससुर की तरह, पार्टी व मूवमेन्ट के हित, में पार्टी से निष्कासित किया जाता है।

बहनजी ने फैसले पर आकाश आनंद ने दी पहली प्रतिक्रिया

नई दिल्ली। 2 मार्च को बहुजन समाज पार्टी में हलचल भरा दिन रहा। बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती ने आकाश आनंद को पार्टी के सभी पदों से अलग कर दिया। साथ ही यह भी घोषणा कर दिया कि उनकी (बहन मायावती) आखिरी सांस तक अब कोई भी उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी नहीं रहेगा। बहनजी के इस फैसले के बाद बसपा में खासी हलचल मच गई। कई तरह की चर्चाएं शुरू हो गई। बहनजी के इस फैसले के दूसरे दिन आकाश आनंद ने बहनजी के फैसले को लेकर पहली प्रतिक्रिया दी है। आकाश आनंद ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा-

मैं परमपूज्य आदरणीय बहन कु. मायावती जी का कैडर हूं, और उनके नेतृत्व में मैने त्याग, निष्ठा और समर्पण के कभी ना भूलने वाले सबक सीखे हैं, ये सब मेरे लिए केवल एक विचार नहीं, बल्कि जीवन का उद्देश्य हैं। आदरणीय बहन जी का हर फैसला मेरे लिए पत्थर की लकीर के समान है, मैं उनके हर फैसले का सम्मान करता हूं उस फैसले के साथ खड़ा हूं। आदरणीय बहन कु. मायावती जी द्वारा मुझे पार्टी के सभी पदों से मुक्त करने का निर्णय मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से भावनात्मक है, लेकिन साथ ही अब एक बड़ी चुनौती भी है, परीक्षा कठिन है और लड़ाई लंबी है।

ऐसे कठिन समय में धैर्य और संकल्प ही सच्चे साथी होते हैं। बहुजन मिशन और मूवमेंट के एक सच्चे कार्यकर्ता की तरह, मैं पार्टी और मिशन के लिए पूरी निष्ठा से काम करता रहूंगा और अपनी आखिरी सांस तक अपने समाज के हक की लड़ाई लड़ता रहूंगा। कुछ विरोधी दल के लोग ये सोच रहे हैं कि पार्टी के इस फैसले से मेरा राजनीतिक करियर समाप्त हो गया, उन्हें समझना चाहिए कि बहुजन मूवमेंट कोई करियर नहीं, बल्कि करोड़ों दलित, शोषित, वंचित और गरीबों के आत्म-सम्मान व स्वाभिमान की लड़ाई है। यह एक विचार है, एक आंदोलन है, जिसे दबाया नहीं जा सकता। इस मशाल को जलाए रखने और इसके लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए लाखों आकाश आनंद हमेशा तैयार हैं।

प्रखर दलित-बहुजन बुद्धिजीवी डॉ. ए.के बिस्वास का निधन

 दलित समाज के प्रखर बुद्धिजीवि और बिहार कैडर में 1973 बैच के आईएएस अधिकारी डॉ. ए. के. बिस्वास का 28 फरवरी को निधन हो गया। डॉ. बिस्वास लंबे समय से बीमार थे। उन्होंने कोलकाता में अपनी अंतिम सांस ली। उनके जीवन की कहानी संघर्ष भरी रही। उनका जन्म जैसोर जिले (अब बांग्लादेश) में हुआ था। देश विभाजन के फलस्वरूप वो अकेले नंगे पैर पैदल चलकर सीमा पार कर अपनी बहन के घर बोगांव पहुँचा। छोटे बालक ने अपने बहन के परिवार के बच्चों के बीच उन्हें भी शिक्षा देते हुए अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की। प्रतिकूल परिस्थितियों में उन्होंने अपनी स्नातक की डिग्री और अर्थशास्त्र में एम.ए. की डिग्री कोलकाता विश्वविद्यालय से प्राप्त की। फिर पश्चिम बंगाल प्रांतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में उत्तर बंगाल में डिप्टी कलेक्टर के रूप में कार्य किया। इसके बाद उन्होंने यू.पी.एस.सी. पास किया और बिहार कैडर में 1973 बैच के आई.ए.एस. में शामिल हुए। जब वे मुजफ्फरपुर के आयुक्त के रूप में कार्यरत थे, तब उन्होंने अर्थशास्त्र में पी.एच.डी. की। वह बिहार के डॉ. बी.आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के पहले कुलपति नियुक्त किये गए। वो इस पद पर लंबे समय तक रहें। एक ईमानदार, प्रभावशाली और सक्षम नौकरशाह के रूप में कई चुनौतीपूर्ण विभागों में सेवा देने के बाद वे 2007 में विद्युत और ऊर्जा विभाग के प्रधान सचिव के रूप में सेवानिवृत्त हुए।

 

अपने चुनौतीपूर्ण नौकरशाही जीवन के बावजूद वे हमेशा बहुजन समाज की सेवा के लिए आगे बढ़ते रहे। एक बार उनके रिपोर्टिंग अधिकारी ने उनकी एसीआर में नकारात्मक टिप्पणी की थी कि वे केवल अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकारियों की मदद करने के लिए आगे बढ़ते हैं, जिसे संप्रेषित किया गया था, और उन्हें इसका बचाव करना पड़ा था। वह लेखन के जरिये भी सक्रिय थे। उन्होंने ईपीडब्ल्यू, अदल बदल, मेनस्ट्रीम, दलित वॉयस आदि सहित विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में दलित मुद्दों पर कई बौद्धिक लेख लिखे थे। वह ‘अन्नेसन’; “अंडरस्टैंडिंग बिहार” जैसी किताबों के लेखक भी थे। डॉ. बिस्वास अंबेडकरी विचारधारा से ओत प्रोत थे। खबर है कि अपने जीवन के अंतिम दिन 28 फरवरी, 2025 की दोपहर को जब उन्हें घर ले जाने के लिए कोलकाता के अपोलो अस्पताल से छुट्टी दी गई, तो नर्सिंग अर्दली ने उन्हें अस्पताल के बाहर स्थित मंदिर में हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का अनुरोध किया। डॉ. बिस्वास ने ऐसा करने से सख्त लहजे में मना कर दिया। इससे उनके वैचारिकी प्रतिबद्धता को समझा जा सकता है। उनके परिवार में दो बेटे हैं, जिनमें से एक अमेरिका में बसा हुआ है और दूसरा दिल्ली में भारत सरकार की सेवा में है, साथ ही उनकी बहुएँ और उनकी पत्नी हैं।

बिहार सरकार की तानाशाही, बौद्ध महाविहार मुक्ति के लिए धरने पर बैठे भिक्खुओं को आधी रात जबरन हटाया

बोधगया महाविहार को ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराने के लिए धरने पर बैठे बौद्ध और अंबेडकरी समाज के लोगबोधगया महाविहार को ब्राह्मणों से मुक्त कराने को लेकर चल रहे आंदोलन को बिहार सरकार कुचलने का काम कर रही है। बीते 15 दिनों से धरने पर बैठे बौद्ध भिक्खुओं को जबरन 27 फरवरी को देर रात करीब एक बजे धरना स्थल से उठा दिया गया। उन्हें स्वास्थ्य का हवाला देकर जबरन हटाया गया। इस दौरान बौद्ध भिक्खुओं ने उन्हें हटाए जाने का विरोध किया, लेकिन पुलिस ने उनकी एक न सुनी।

बता दें कि बिहार का बोधगया, जहां तथागत बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उसकी मुक्ति के लिए आंदोलन चल रहा है। यह आंदोलन इस महाविहार को ब्राह्मण पंडों से मुक्त कराने के लिए है। आंदोलन करने वाले बौद्ध समाज BT ACT 1949 को रद्द कर महाविहार का पूरा प्रबंधन बौद्ध समाज को सौंपने की मांग कर रहा है। इस मांग को लेकर बीते दो हफ्ते से देश के तमाम हिस्सों से बोध गया पहुंच कर बौद्ध भिक्खु आंदोलन कर रहे थे। इस आंदोलन को देश और दुनिया भर के बौद्ध समाज का समर्थन मिल रहा है। इससे बिहार में जदयू और भाजपा की सरकार में हलचल मची है। साथ ही केंद्र की मोदी सरकार में भी इस मुद्दे को लेकर दबाव बढ़ता जा रहा है।

बिहार में विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह आंदोलन और तेज होता जा रहा है। ऐसे में धरना करने वाले बौद्ध भिक्खुओं को रातों रात इलाज के नाम पर हटा दिया गया है। हालांकि इसके बाद आंदोलन और भड़क गया है। और देश भर के बौद्ध और अंबेडकरी समाज ने बिहार की भाजपा और नीतीश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। मिशन जय भीम के संयोजक और बौद्ध धर्म के लिए लगातार काम करने वाले राजेन्द्र पाल गौतम ने इस घटना का वीडियो पोस्ट करते हुए बिहार सरकार को चेतावनी दी है।

उन्होंने कहा कि, बिहार की सरकार अगर यह सोचती है कि इस प्रकार आधी रात को अनशन पर बैठे भिक्खुओं को इलाज के बहाने उठा ले जाने से महाबोधि महाविहार को ब्राह्मणों से पूर्णतया मुक्त कराकर बौद्धों को संचालन सौंपने के आन्दोलन को वह बलपूर्वक दफ़न कर देगी तो यह आपकी गलत फ़हमी है इससे यह आन्दोलन ओर तेज होगा! आप हमारी आस्था की कद्र कीजिए वर्ना आपकी आस्था भी खतरे में पड़ जाएगी।

रातों रात धरना करने वाले बौद्ध भिक्खुओं को हटाने से साफ है कि बिहार सरकार इस मामले में बौद्धों के खिलाफ खड़ी है। अब देखना होगा कि देश भर का बौद्ध और अंबेडकरी समाज इस आंदोलन को लेकर क्या रुख अपनाता है।

दलित साहित्य महोत्सव 28 फरवरी और 1 मार्च को दिल्ली में

दलित साहित्य सम्मेलन का पोस्टर जारी करते अंबेडकरवादी लेखक संघ के पदाधिकारीबीते कुछ सालों में दलित साहित्य महोत्सव ने दलित साहित्य को आगे बढ़ाने की दिशा में गंभीर काम किया है। इस वर्ष का दलित साहित्य महोत्सव दो दिनों तक चलेगा। यह 28 फरवरी और एक मार्च को दिल्ली में आर्यभट्ट कॉलेज में आयोजित होगा। अंबेडकरवादी लेखक संघ (अलेस) की ओर से आयोजित होने वाला यह चौथा दलित साहित्य सम्मेलन है। इस दौरान अलेस की ओर से सभी साहित्यकारों, कलाकारों, रंगकर्मियों, विद्वानों, शोधकर्ताओं, को चतुर्थ दलित साहित्य महोत्सव में आमंत्रित किया गया है।

अंबेडकरवादी लेखक संघ की ज्वाइंट सेक्रेट्री डॉ. सीमा माथुर ने बताया कि इस बार की थीम, ‘दलित साहित्य से विश्व शांति संभव है’ रखा गया है। इस कार्यक्रम के जरिये दलितों, आदिवासियों और बंजारा समाज को साथ जोड़ने की कवायद की जा रही है। दो दिनों की कार्यक्रम में पहले दिन 28 फरवरी को कार्यक्रम शुरू होंगे। इस दौरान देश के दिग्गज दलित साहित्यकार मौजूद रहेंगे। साथ ही सामाजिक रूप से पिछड़े सीवर वर्कर को भी उद्घाटन सत्र में मंच दिया जाएगा ताकि समाज के बीच एक मैसेज जा सके।चौथा दलित साहित्य सम्मेलन का पोस्टर

दो दिनों में तमाम विषयों पर चर्चा होनी है, इसमें स्त्री मुद्दों को भी जगह दी गई है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू स्त्री का देश और समाज में योगदान जैसे विषयों पर चर्चा होगी। इसके साथ ही भारतीयता के आईने में हाशिये के समुदाय की साहित्यिक अभिव्यक्ति और चुनौतियां जैसे गंभीर विषय भी शामिल किये गए हैं। इस बार एलजीबीटी समाज के मुद्दों को भी शामिल किया गया है। दो दिनों के कार्यक्रम में भारतीय मीडिया और दलित प्रश्न पर भी चर्चा होगी। इस मौके पर सांस्कृति कार्यक्रम भी होंगे। इसके लिए लखनऊ और राजस्थान के कलाकार अपनी प्रस्तुति देंगे। सांस्कृतिक कार्यक्रम दोनों दिन होंगे जो शाम को होगा। एक मार्च को कार्यक्रम के दूसरे दिन कवि सम्मेलन का आयोजन होगा।

अंबेडकरवादी लेखक संघ के पदाधिकारी और चर्चित कवि सुदेश तंवर ने बताया कि इस आयोजन में देश के दिग्गज साहित्यकार मौजूद रहेंगे। हमारी कोशिश है कि इस आयोजन के जरिये दलित समाज के दिग्गज साहित्यकारों के मार्गदर्शन में हम दलित साहित्य को नई ऊंचाई तक ले जाएं।

 

बहुत प्राचीन है विद्रोही साहित्य : चुप्पी तोड़िए, बोलना ज़रूरी है

इस उदघाटन सत्र में मंच पर आसीन सम्मानित विद्वान साथियों, और उपस्थिति श्रोताओं, आप सभी को सप्रेम जय भीम, जय भारत!! सत्यशोधक समाज की 151वीं वर्षगाँठ पर विद्रोही सांस्कृतिक आन्दोलन के अंतर्गत औरंगाबाद में आयोजित इस 19वें अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन का उदघाटन करते हुए, मुझे आज विशेष ख़ुशी हो रही है। यह जानकार अच्छा लगा कि विद्रोही सांस्कृतिक आन्दोलन 1999 से महाराष्ट्र भर में समतावादी मूल्यों का जागरण करने का काम कर रहा है। इसके तहत आप 2007 से अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन का आयोजन कर रहे हैं, जिसकी कड़ी में इस19वें सम्मेलन में मुझे भाग लेने का गौरव प्राप्त हुआ है। मैं इसके लिए आयोजन के पदाधिकारियों को, ख़ास तौर से किशोर धमाले जी को, धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिनके प्रेमपूर्ण आग्रह पर मैं यहाँ उपस्थित हुआ। मैं सचमुच आप लोगों के एक बड़े योगदान से अनभिज्ञ रहता, अगर मैं यहाँ न आता। आज मुझे इस मंच से महान साहित्यकारों को सुनने का अवसर मिलेगा। हालाँकि भाषाई समस्या मेरे साथ रहेगी, पर मन की भाषा सब साध लेती है। साथियों, हिंदी क्षेत्र में, बल्कि कहना चाहिए कि हिंदी साहित्य में विद्रोह का स्वर बहुत ही आधुनिक घटना है। हिंदी में यह क्रान्ति मार्क्सवाद के कारण आई। अगर मार्क्सवाद न आता, तो हिंदी के लेखक अभी भी गगन-विहारी लेखन करते होते। मार्क्सवाद ने प्रगतिशील चेतना का निर्माण किया। किन्तु इसने हिंदी से ज्यादा उर्दू वालों को बहुत प्रभावित किया। हिंदी में प्रेमचन्द इसी प्रगतिशील चेतना का परिणाम हैं। इसीलिए मैं प्रेमचंद से पहले के हिन्दी साहित्य को ख़ारिज करता हूँ। लेकिन दलित क्रान्ति की साहित्यिक चेतना उसके परिवेश से जन्मी है। दलितों ने अपने जन्म से ही अपने इर्दगिर्द अस्पृश्यता, भूख, गरीबी, अपमान, जलालत और तिरस्कार का वातावरण ही देखा। दलित जब अपनी बस्ती से निकलता था, तो सड़क पार करते ही उसके लिये संस्कृति बदल जाती थी। दलितों में विद्रोह की चेतना इसी परिवेश ने पैदा की। दलितों का विद्रोह मौलिक है। उन्नीसवीं सदी में डा. आंबेडकर की क्रान्ति ने दस्तक दी, तो उसे एक नई धार मिली। इसलिए हिंदी में दलित-विद्रोह वास्तव में विद्रोह की पहली और मौलिक धारा है। यह याद रखियेगा।

अब मैं कुछ संक्षिप्त चर्चा इतिहास पर करूँगा। साथियों ! इस देश में दो विचारधाराएँ रही हैं: एक श्रमण विचारधारा और दूसरी वैदिक विचारधारा। इसमें पहली समतावादी विचारधारा है, और दूसरी विषमतावादी। बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने इसे क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति की विचारधारा कहा है। क्रान्ति की धारा का नेतृत्व किसी एक जाति और वर्ग के हाथ में नहीं है, किन्तु प्रतिक्रान्ति की धारा, यानी विषमतावादी विचारधारा का नेतृत्व हमेशा एक ख़ास जाति और वर्ण, ब्राह्मण के हाथ में रहा है। वह आज भी उसके हाथ से किसी अन्य वर्ग या जाति के हाथ में नहीं गया है, और आगे भी इसकी सम्भावना नहीं है। इसलिए विषमतावादी विचारधारा को ब्राह्मण या ब्राह्मणवादी विचारधारा भी कहा जाता है। इस ब्राह्मणवादी विचारधारा को सामाजिक भेदभाव पसंद है, ऊंच-नीच का भाव पसंद है, बहुत सारे देवी-देवता पसंद हैं। वैदिक विचारधारा को एक ईश्वर पसंद नहीं है, क्योंकि एक ईश्वर के नाम पर अलग-अलग मंदिर और आडम्बर खड़े नहीं किये जा सकते, एक ईश्वर के नाम से भोग और दंड की संस्कृति खड़ी नहीं की जा सकती, और सबसे बड़ी बात, एक ईश्वर के नाम पर लोगों को डराने-धमकाने का उन्माद पैदा नहीं किया जा सकता। इस ब्राह्मणवादी विचारधारा को स्त्रियों और निम्न वर्गों की शिक्षा पसंद नहीं है, क्योंकि निम्न वर्गों का शिक्षित होना ब्राह्मण के प्रभुत्व के लिए खतरा पैदा करती है। उसे देश में भौतिक आविष्कार और नई तकनीक पसंद नहीं है, क्योंकि इससे उसके गढ़े हुए ज्ञान पर सवाल खड़े होते हैं। उसे विज्ञान पसंद नहीं है, क्योंकि इससे उसकी धर्म-सत्ता पर आंच आती है। वह शास्त्रों में विश्वास करता है, और लोक-यथार्थ की उपेक्षा करता है। असल में यह श्रमण विचारधारा के विरुद्ध ब्राह्मणों की प्रतिक्रान्ति थी। दूसरे शब्दों में यह आजीवकों, लोकायतों और बुद्ध की क्रान्ति के विरुद्ध प्रतिक्रान्ति थी। प्रतिक्रान्ति का एक दौर होता है, एक कालखंड होता है, पर वह हमेशा नहीं रहता। भारत में ब्राह्मणों की प्रतिक्रान्ति का कालखंड पुष्यमित्र शुंग का समय है। इसी काल में ब्राह्मण ग्रन्थ लिखे गए, मनुस्मृति लिखी गई, बौद्धों के खिलाफ जनता में नफरत फैलाई गई, बौद्ध मंदिर ध्वस्त किए गए और एक बड़े पैमाने पर बौद्धों का कत्लेआम हुआ। इसी काल में स्त्री-शूद्रों के खिलाफ कठोर कानून बनाए गए, उन्हें शिक्षा से वंचित किया गया, और स्त्रियों को घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया गया। अंतरजातीय विवाह सख्ती से रोक दिए गए। ये सारी कठोरताएं इससे पहले के समय में नहीं थीं। ब्राह्मणवाद की यह प्रतिक्रान्ति लगभग दो सौ साल रही। उसके बाद हर्षवर्धन का समय आया, और ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक बहुत बड़ा विद्रोह हुआ। इस विद्रोह का समय चौथी-पांचवी शताब्दी का है। यही समय भक्ति आन्दोलन के आरम्भिक चरण का भी है।

यह आन्दोलन एक बहुत बड़ा विद्रोह था। विद्रोह नहीं, विद्रोह का सैलाब था। इस काल में ज्ञान के क्षेत्र में शूद्रों और स्त्री-संतों ने तूफ़ान की तरह प्रवेश किया। जिस स्त्री को ब्राह्मण-धर्म ने घर की चौखट तक सीमित कर दिया था, जिसके लिए मनु ने सिर्फ पति-सेवा ही एकमात्र धर्म बना दिया था, और जिसे शिक्षा तक से वंचित कर दिया था, उस स्त्री ने इस काल-खंड में संत बनकर ब्राह्मण-धर्म के विरुद्ध ऐसा विद्रोह किया, जिसे रोकने का साहस आज भी ब्राह्मण-नेतृत्व में नहीं है। इसी सदी में आजीवक दर्शन ने ब्राह्मणधर्म के खिलाफ ऐसा विद्रोह किया कि शंकर भी तिलमिला गए। उसने ‘ब्रह्मसूत्र’ के अपने भाष्य में आजीवकों को ‘प्राकृत जन’ यानी असभ्य, यानी गंवार कहा। इसके बाद आठवीं सदी में विद्रोह का एक दूसरा सैलाव सिद्धों के रूप में आया, जिनका बारहवीं सदी तक समाज में अमिट प्रभाव बना रहा। इन सिद्धों में सभी वर्णों के स्त्री-पुरुष थे, जिनमें 28 शूद्र और 4 स्त्रियाँ भी सिद्ध थीं। इसके बाद, दसवीं सदी में गोरखनाथ हुए, जिन्होंने नाथ-संप्रदाय की नींव डाली। नाथ शिव-भक्त थे। पर वे ब्राह्मणवादी विचारधारा के विद्रोही और समतावादी विचारधारा के प्रचारक थे। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि नाथों के ज्ञान-दर्शन ने सम्पूर्ण भारत को अपने प्रभाव में ले लिया था। पूरा उत्तर भारत ही नहीं, बल्कि कश्मीर से लेकर नेपाल तक में नाथ-दर्शन का प्रभाव था। कल्पना कीजिए, जिन शूद्रों के द्वारा धर्म का उपदेश देने पर उनकी जीभ काटने का विधान मनु ने बनाया था, वे शूद्र भक्ति-काल में बड़ी संख्या में संत बनकर धर्मगुरु बन गए। यह ब्राह्मण और ब्राह्मण-धर्म दोनों के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी, क्योंकि मनु के विधान के अनुसार ब्राह्मण ही धर्मगुरु बन सकता है। किन्तु इन शूद्र संतों का विद्रोह इतना जबरदस्त था कि उन्होंने किसी भी ब्राह्मण को अपना गुरु स्वीकार नहीं किया। यही नहीं, उन्होंने बड़े-से बड़े पुनीत और ऊंचे कुल के ब्राह्मण संतों तक को महत्व नहीं दिया। कबीर ने ऐसे ब्राह्मण संतों का मज़ाक बनाते हुए कहा— ‘अति पुनीत ऊंचे कुल कहिए, सभा माहिं अधिकाई/ इनसे दिच्छा सब कोई मांगे, हंसी आवै मोहि भाई।’

ब्राह्मण धर्म-शास्त्रों और कर्मकांडों को इन शूद्र संतों ने न सिर्फ नकारा, बल्कि उनके खिलाफ जनता में अलख भी जगाई। उन्होंने सिर्फ समानता और मानव-प्रेम को स्थापित करने पर जोर दिया, जिसका ब्राह्मण-धर्म में अस्तित्व न कल था और न आज है। इस सन्दर्भ में कन्नप्पार नामक नयनार संत सर्वाधिक प्रसिद्ध थे। वह निषाद जाति के थे। उन्होंने ब्राह्मण को गुरु नहीं माना, बल्कि एक शूद्र को अपना गुरु स्वीकार किया। मीराबाई ने किसी ब्राह्मण को नहीं, चमार जाति के महान संत रैदास साहेब को अपना गुरु बनाया था। पंद्रहवीं शताब्दी तक आते-आते तो इन स्त्री-शूद्र संतों ने वर्णव्यस्था का ऐसा क़िला ध्वस्त किया कि भारत की ब्राह्मण सत्ता ने तिलमिलाकर उनको ठिकाने लगाने के लिए ब्राह्मण विद्वानों की पूरी फौज उतार दी। स्त्री-शूद्रों के इस विद्रोह का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि उस विद्रोह में गैर-ब्राह्मण जातियों का भी प्रवेश हो गया था। कई क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के स्त्री-पुरुष भी संत हो गए थे, जो जनता को धर्म का उपदेश देकर ब्राह्मण को खुली चुनौती दे रहे थे।

पन्द्रहवीं शताब्दी में कबीर और रैदास ने जो क्रान्ति की, उसने ब्राह्मणवाद और वैदिक संस्कृति के विरुद्ध समाज में ज्ञान और सामाजिक संघर्ष की नई चेतना ही विकसित नहीं की, बल्कि कई नई धार्मिक क्रांतियों को भी जन्म दिया। इनमें दो क्रांतियाँ बहुत प्रमुख हैं : गुरु नानक की धार्मिक क्रान्ति और गुरु घासीदास की सतनामी क्रान्ति। कबीर ने खुल्लमखुल्ला कहा कि ब्राह्मण उनका गुरु हो ही नहीं सकता, क्योंकि ब्राह्मण के पास सिर्फ पोथियों का ज्ञान है, उसके पास समाज का वास्तविक ज्ञान नहीं है। उन्होंने कहा—‘ब्राह्मण गुरू जगत का, साध का गुरू नाहीं/ उरझ-पुरझ कर मर रह्या, चारों वेदा माहिं।’ रैदास साहेब ने कहा, ‘ब्राह्मण को मत पूजिए जो हो गुण से हीन / पूजिए चरण चंडाल के जो हो ज्ञान प्रवीन।’ यह एक नया सौन्दर्य शास्त्र था, जो गुण और योग्यता को महत्व देता था। सौ साल बाद तुलसीदास ने इसी की प्रतिक्रान्ति में कहा, ‘पूजिए विप्र सील गुण हीना/ नाहिं न शूद्र गुण ज्ञान प्रवीना।’ यानी अयोग्य और अज्ञानी ब्राह्मण भी पूजनीय है, जबकि योग्य और ज्ञानी शूद्र भी सम्मान का पात्र नहीं है। यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि विषमतावाद के विरुद्ध समतावाद की लड़ाई कभी भी ब्राह्मणवादियों के नेतृत्व में नहीं लड़ी जा सकती। कबीर और रैदास इसीलिए सफल हुए, क्योंकि उन्होंने ब्राह्मण रामानन्द के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया था। जिसने भी समाज को बदलने की लड़ाई ब्राह्मणवादी नायक के नेतृत्व में लड़ी, उसे कभी सफलता नहीं मिली। ब्राह्मणवाद की धारा के विरुद्ध लड़ाई की पूरी परम्परा के इतिहास में अगर आप देखेंगे तो यह लड़ाई वहीं कमजोर हुई है, जहाँ उसका नेतृत्व किसी ब्राह्मण ने किया है। इसीलिए ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणवादी तिलक का और डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं किया था। यही कारण है कि वे अपनी क्रान्ति में सफल हुए।

पंद्रहवीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद के खिलाफ जो विद्रोह हुआ, वह फिर रुका नहीं, अनवरत जारी रहा। यह सोलहवीं शताब्दी में भी नहीं रुका, जब तुलसीदास ने वर्णव्यवस्था को पुनर्स्थापित करने की भरसक कोशिश की। तुलसी के समय में ब्राह्मण को धर्म का उपदेश देने वाले शूद्र जातियों के लोग इतनी बड़ी संख्या में थे कि उससे तिलमिलाए हुए तुलसी को मानस में लिखना पड़ा—‘बादहिं सूद्र द्विजन्ह सम, हम तुम्ह तें कछु घाटि/ जानइ ब्रह्म सो बिप्रवर आँखि देखाबहिं डाटि।’ शूद्र द्विजों से कहते थे, हम तुमसे कम नहीं हैं, तुमसे हीन भी नहीं हैं, क्योंकि हम भी ब्रह्म को उतना ही जानते हैं, जितना तुम जानते हो। किन्तु, दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद भारत की शासन-सत्ता ब्राह्मणवादी नेताओं के हाथों में आई। उनका उद्देश्य समतावादी समाज का निर्माण करना बिलकुल नहीं था। इस सच्चाई को डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने आजादी मिलने से पहले ही महसूस कर लिया था। उन्होंने राष्ट्रवादी नेताओं के स्वतंत्रता-संग्राम पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि आज़ादी की लड़ाई सिर्फ दलित और आदिवासी वर्गों के लोग लड़ रहे हैं, शेष सारे राष्ट्रवादी नेता आजादी के लिए नहीं, बस, देश के संसाधनों पर अपना कब्जा करने के लिए लड़ रहे हैं। यही हुआ भी। जैसे ही भारत से अंग्रेज गए, और ब्राह्मणों के हाथों में सत्ता आई, देश के सारे संसाधन उन्होंने अपने नियंत्रण में ले लिए। उन लोगों ने लोकतंत्र के नाम पर ब्राह्मणवादी राज्य कायम किया, और सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए जो आन्दोलन चल रहे थे, वे उनके दमन से प्रभावहीन होते चले गए। न दलित-आदिवासियों पर जुल्म कम हुए, और न गरीबी का खात्मा हुआ। समाज में यथास्थिति बनाए रखने के लिए हिन्दू धर्म तंत्र को तेज कर दिया गया, जिसके कारण सत्ता के संरक्षण में ब्राह्मणवादियों की प्रतिक्रान्ति दिन-पर-दिन तीव्र से तीव्र होती चली गई। आज वह चरम सीमा पर है।

यह इसी प्रतिक्रान्ति का परिणाम है कि फासीवादी ताकतों को सत्ता में आने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। उसकी ज़मीन आजादी के बाद से ही तैयार की जा रही थी। इन ताकतों ने राजसत्ता के साथ-साथ धर्म और विचार की स्वतन्त्रता पर भी नियंत्रण कर लिया। आज स्थिति यह है कि अन्याय के खिलाफ जो आवाज़ उठाता है, उसे देशद्रोही बता दिया जाता है और पुलिस और न्यायपालिका द्वारा उसे सालों तक जेल में सड़ाया जाता है। कोई-कोई जज न्यायप्रिय हुआ, तो उसे जमानत मिल जाती है, वरना वह जेल में ही पड़ा रहता है। कईयों ने तो जेल की कोठरी में ही दम तोड़ दिया। इसके विपरीत, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर खुली हिंसा करने वाले हिन्दुत्ववादी सत्ता के संरक्षण में आज़ादी से घूमते हैं। उन्हें कुछ भी उपद्रव करने, कुछ भी बोलने का परमिट मिला हुआ है। फासीवाद के इस घोर मनुष्य-विरोधी वातावरण में, विद्रोह का साहित्य लिखना अब पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है। यह दौर इतना पेचीदा है कि हमारा बहुजन समाज भी आरएसएस और हिन्दू संगठनों की पालकी ढो रहा है। हमारे आज के शम्बूक और एकलव्य ब्राह्मणवादी रंग में रंग गए हैं। वे गले में भगवा गमछा डाले, हाथों में त्रिशूल लिए सड़कों पर घूम रहे हैं। यह हमारे विद्रोह के लिए का एक नया मोर्चा है, जो इस फासीवाद ने पैदा किया है। इसलिए हमें अपने समाज के इन भटके हुए लोगों के विरुद्ध भी अपने विद्रोह को तेज करना होगा।।

विडंबना देखिए, दुनिया भर में पिछड़े वर्गों के संघर्ष खत्म हो गए, लेकिन भारत में न दलितों के संघर्ष खत्म हुए, न पिछड़ों के संघर्ष खत्म हुए, न आदिवासी समुदायों के संघर्ष खत्म हुए और न अल्पसंख्यकों के संघर्ष खत्म हुए। हमारे पुरखों ने संघर्ष किए, हमारी पिछली पीढ़ियों ने संघर्ष किए, और हमारी वर्तमान पीढ़ी के लोग भी संघर्ष कर रहे हैं। आगे भी कुछ पता नहीं, यह संघर्ष कभी खत्म होगा। हिंदी के विद्रोही दलित कवि मोहन मुक्त वसुधैव कुटुम्बकम, यत्र नार्यस्तु पूजन्ते और सत्यमेव जयते को संस्कृति के चुटकुले कहते हैं। क्या हम कह सकते हैं ‘वसुधैव कुटुम्बकम?’ क्या हम कह सकते हैं ‘यत्र नार्यस्तु पूजन्ते?’ क्या हम कह सकते हैं ‘सत्यमेव जयते?’ नहीं कह सकते। क्योंकि, इस वसुधा पर हमारे लिए प्यार का एक टुकड़ा तक नहीं है। हमारी स्त्रियाँ उनके लिए सम्मान की पात्र नहीं हैं। और हमारे लिए सत्य आज भी न्याय की अभिलाषा में दम तोड़ देता है। इसलिए चुप्पी तोड़ना जरूरी है, बोलना जरूरी है और लिखना जरूरी है। मोहन मुक्त की ही एक कविता की इन पंक्तियों से मैं अपने व्याख्यान का अंत करता हूँ—

कहो कि चुप्पी नाज़ी चिमनियों से धुआं बन कर उड़ती है और पूरी दुनिया में बेआवाज़ पसर जाती है कहो कि चुप्पी भाषाओं में बदल गई है कहो कि चुप्पी हमारे कानों में पिघल गई है कहो कि चुप्पी हमारे शरीरों पर हर समय जकड़ी हुई ज़ंजीरों में ढल गई है कहो कि हमारी चुप्पी इतिहास में हुए पहले क़त्ल की चश्मदीद है कहो कि चुप्पी ने अपनी जान बचाकर हत्याओं को ही बना दिया है विधि-संहिता कहो कि लाशों की बातें भी कही जा सकती हैं कहो कि लाशों के कहने का अधिकार ही ज़िन्दा लोगों का असली कर्तव्य होता है कहो कि अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता की तरह औपचारिक नहीं, सांस की तरह आदिम है।


औरंगाबाद में 22 फरवरी को अ. भा. विद्रोही मराठी साहित्य सम्मेलन में वरिष्ठ साहित्यकार कँवल भारती द्वारा दिया गया उदघाटन व्याख्यान

डॉ. आंबेडकर और भारत-पाकिस्तान विभाजन की पहेली

डॉ. आंबेडकर ने एक बार कांग्रेस पार्टी की तुलना धर्मशाला से की थी, जहां विभिन्न विचारों और विचारधाराओं के लोगों ने शरण ली थी। उन्होंने कहा कि पार्टी के भीतर सनातनवादी, पूंजीवादी, समाजवादी, कम्युनिस्ट, रूढ़िवादी और रूढ़िवादी विरोधी व्यक्ति और विरोधाभासी मान्यताओं वाले कई अन्य लोग थे। उन्होंने एक ही राजनीतिक इकाई के भीतर ऐसी परस्पर विरोधी विचारधाराओं के सह-अस्तित्व के सामान्य उद्देश्य पर सवाल उठाया। उस समय डॉ. आंबेडकर ने यह टिप्पणी कांग्रेस पार्टी की आलोचना के रूप में की थी। आज, भाजपा के बारे में भी ऐसा ही अवलोकन किया जा सकता है। 1947 में भारत का विभाजन कई कारकों से प्रेरित था। यह केवल ब्रिटिश कूटनीति का परिणाम नहीं था। ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों में अलगाववादी भावनाओं को बढ़ावा दिया, लेकिन यह अकेले विभाजन का कारण बनने के लिए पर्याप्त नहीं था। विभाजन की जड़ें इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष में खोजी जा सकती हैं जो एक हज़ार वर्षों तक जारी रहा, साथ ही गहरे सामाजिक विघटन और कमजोरियों ने सदियों से हिंदू समाज को विभाजित कर दिया था। इसके अतिरिक्त, कांग्रेस पार्टी के भीतर वैचारिक मतभेदों ने पाकिस्तान के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि कई नेताओं ने ऐसी नीतियों का अनुसरण किया जो भेदभाव को कायम रखती थीं। हालाँकि महात्मा गांधी विभाजन के विरोधी थे, लेकिन कांग्रेस नेताओं द्वारा इस बिंदु पर उनके बातों की अक्सर अवहेलना की जाती थी।

अपनी पुस्तक पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन में डॉ. आंबेडकर हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के भीतर चरमपंथियों का एक सम्मोहक विश्लेषण करते हैं, जो उनके स्थायी संघर्षों और भावनाओं को उजागर करते हैं। इस पुस्तक के महत्व को एक दिलचस्प ऐतिहासिक घटना से आंका जा सकता है। जब मुहम्मद अली जिन्ना 1945 में महात्मा गांधी से मिले, तो उनके हाथ में इस पुस्तक की एक प्रति थी। उल्लेखनीय रूप से, वही पुस्तक गांधी की मेज पर भी थी। उनकी बातचीत के दौरान, गांधी ने जिन्ना की ओर इशारा करते हुए पूछा, “क्या आपने पढ़ा है कि डॉ आंबेडकर ने आपके बारे में क्या लिखा है?” अपनी विशिष्ट कानूनी शैली में, जिन्ना ने जवाब दिया, “हाँ, लेकिन क्या आपने पढ़ा है कि आंबेडकर ने आपके बारे में क्या लिखा है?” डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने कहा, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुसलमानों की एक बड़ी संख्या हिंदुओं की ही जाति से संबंधित है। यह भी निर्विवाद है कि सभी मुसलमान एक समान भाषा नहीं बोलते हैं, और कई लोग हिंदुओं की ही भाषा बोलते हैं। दोनों समुदायों में कुछ सामाजिक रीति-रिवाज़ समान हैं, और कुछ धार्मिक संस्कार और प्रथाएँ एक-दूसरे से मिलती-जुलती हैं। हालाँकि, महत्वपूर्ण प्रश्न बना हुआ है: क्या ये समानताएँ इस निष्कर्ष का समर्थन करती हैं कि हिंदू और मुसलमान एक राष्ट्र हैं? क्या इन साझा तत्वों ने उनके बीच एकता और अपनेपन की भावना को बढ़ावा दिया है?”

डॉ. आंबेडकर ने इस बात पर प्रकाश डाला कि मुस्लिम लीग ने शुरू में भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत प्रांतीय स्वायत्तता को लागू करने में भागीदारी हासिल करने की उम्मीद की थी। हालाँकि, यह उम्मीद पूरी नहीं हुई। प्रांतीय स्वायत्तता की शुरुआत के दो साल बाद, 1937 तक, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच तनाव बढ़ गया था। कांग्रेस द्वारा की गई किन कार्रवाइयों ने मुस्लिम लीग को और भड़का दिया? एक प्रमुख कारक मुस्लिम लीग को मुसलमानों के एकमात्र प्रतिनिधि निकाय के रूप में मान्यता देने से कांग्रेस का इनकार था। इसके अतिरिक्त, कांग्रेस ने उन प्रांतों में संयुक्त मंत्रिमंडल बनाने से इनकार कर दिया जहाँ उसका बहुमत था। मुस्लिम लीग की आपत्ति गठबंधन सरकारों के प्रति कांग्रेस के असंगत दृष्टिकोण पर आधारित थी। जिन प्रांतों में कांग्रेस अल्पमत में थी, वहां उसने कांग्रेस के प्रति निष्ठा की शपथ लिए बिना अन्य दलों के साथ गठबंधन सरकारें बनाई थीं। हालांकि, जिन प्रांतों में कांग्रेस के पास बहुमत था, वहां उसने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन बनाने से इनकार कर दिया। इस विरोधाभासी रुख ने मुसलमानों को यह सवाल उठाने पर मजबूर कर दिया कि एक गठबंधन सरकार एक प्रांत में स्वीकार्य और दूसरे में अस्वीकार्य कैसे हो सकती है। कांग्रेस की असंगत नीतियों ने नाराजगी पैदा की, जिससे अंततः उसे मुस्लिम समर्थन हासिल नहीं हुआ और मुस्लिम लीग को अपनी मांगों को मजबूत करने का अवसर मिला। कांग्रेस मुस्लिम लीग की मांगों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी और इसके बजाय अन्य मुस्लिम संगठनों के साथ बातचीत करना पसंद करती थी। हालांकि, डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने इस दृष्टिकोण को दोषपूर्ण माना। उनका मानना था कि कांग्रेस का रुख बाल की खाल निकालने वाला और अव्यवहारिक था, क्योंकि अन्य मुस्लिम संगठनों को मुस्लिम समुदाय से महत्वपूर्ण समर्थन नहीं मिला था।

इस बहिष्कार की नीति ने जिन्ना की मुस्लिम लीग को परेशान कर दिया, जिससे कांग्रेस और मुस्लिम नेतृत्व के बीच दरार और गहरी हो गई। मुस्लिम नेताओं ने अपनी राजनीतिक स्थिति पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। उन्होंने खुद को शासित वर्ग का हिस्सा मानने से इनकार कर दिया, उनका तर्क था कि शासकों और शासितों के बीच बुनियादी अंतर सत्ता में साझेदारी की कमी है। कांग्रेस का सिद्धांत कि सभी समुदायों को इसके प्रति अटूट निष्ठा दिखानी चाहिए, मुसलमानों को हाशिए पर महसूस कराता है, जिससे उन्हें शासित लोगों तक सीमित होने की धारणा मजबूत होती है। ऐतिहासिक रूप से, मुसलमानों ने सदियों तक भारत में एक प्रमुख स्थान रखा था, लेकिन ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ ही उनका पतन शुरू हो गया। शासकों से शासितों का दर्जा पाना पहले से ही अपमानजनक था, लेकिन हिंदुओं के अधीन होने की संभावना ने स्थिति को और भी अस्वीकार्य बना दिया। डॉ. आंबेडकर ने मुस्लिम कट्टरता और उच्च जाति के हिंदुओं के जाति-आधारित अहंकार दोनों की कटु आलोचना की, दृढ़ता से दोनों को अस्वीकार्य कहा । एक विस्तृत अध्याय में, उन्होंने 1930 के दशक के सांप्रदायिक दंगों की जांच की, मुस्लिम लीग की जबरदस्ती और हिंसा की राजनीति की निंदा करते हुए इसे खतरनाक बताया। उन्होंने चेतावनी दी कि हिंदू और मुसलमान दोनों ही विनाशकारी सत्ता संघर्ष में शामिल हो सकते हैं। रक्तपात की बयानबाजी को खारिज करते हुए, उन्होंने शांतिपूर्ण समाधानों की वकालत की, और जोर देकर कहा कि केवल नैतिक मूल्य ही क्रूर बल को सत्य में बदल सकते हैं।

डॉ. आंबेडकर ने मुसलमानों की वैध चिंताओं के प्रति सहानुभूति तो जताई, लेकिन उन्होंने मुस्लिम लीग की आक्रामक रणनीति का समर्थन नहीं किया। उन्होंने शुरू में जिन्ना को एक धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में सराहा था, लेकिन जिन्ना के तर्कवाद से उग्रवाद की ओर जाने से निराश थे। विभाजन पर आंबेडकर का रुख पूरी तरह से व्यावहारिक और भावनात्मक पूर्वाग्रह से रहित था। उन्होंने विभाजन की तुलना सर्जरी से की – कभी-कभी रोगग्रस्त अंग को निकालने के लिए यह सर्जरी जरूरी होती है। उन्होंने तर्क दिया कि अगर मुसलमानों के लिए एक अलग पाकिस्तान जरूरी है, तो पंजाब और बंगाल में गैर-मुसलमानों को भी उनके लिए अलग क्षेत्र बनाकर सुरक्षित किया जाना चाहिए। उनके तार्किक और रणनीतिक दृष्टिकोण ने अंततः विभाजन पर ब्रिटिश नीति को प्रभावित किया। डॉ. आंबेडकर ने कहा कि “मैं श्री गांधी और कांग्रेस से सहमत नहीं हूं जब वे कहते हैं कि भारत एक राष्ट्र है। मैं मुस्लिम लीग से सहमत नहीं हूं जब वे कहते हैं कि हिंदू और मुस्लिम को एक साथ मिलाकर एक राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता। मेरा मानना है कि हम एक राष्ट्र नहीं हैं। लेकिन मेरी पूरी उम्मीद है कि हम एक राष्ट्र हो सकते हैं बशर्ते सामाजिक एकीकरण की उचित प्रक्रिया अपनाई जाए।” जैसा कि कुछ लोग कहते हैं कि डॉ. आंबेडकर पाकिस्तान के समर्थक थे, वास्तव में आंबेडकर ने पाकिस्तान न बनने देने का उपाय भी दिया था। लेकिन मंच पर उस पर चर्चा नहीं होती। मुख्य प्रश्न यह है कि हिंदू और मुसलमानों के बीच सत्ता का बंटवारा और वितरण कैसे हो। इस बिंदु पर न केवल एक दूसरे के प्रति विवाद और अविश्वास जारी रहा बल्कि यह बढ़ता ही गया। ऐसी स्थिति में अंततः देश का विभाजन होना ही था।

Seminar on Dr Ambedkar and the Partition Conundrum, Lessons for Contemporary Indiaहिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र पर आंबेडकर आंबेडकर ने कहा कि हिंदू समाज सीढ़ीनुमा ऊंचाई नीचाई वाली अनेक पदानुक्रमिक परतों में विभाजित है। इन परतों को अलग-अलग सील कर दिया गया है, जिन्हें जाति कहा जाता है। जाति के पदानुक्रम के शीर्ष पर ब्राह्मण हैं जिन्हें शुद्ध माना जाता है जबकि सबसे नीचे अछूत मानी जाने वाली जाति है। उनका स्पर्श या छाया भी उच्च जातियों को अपवित्र करने वाली मानी जाती है। हिंदू समाज में जाति केवल एक प्रथा नहीं है बल्कि इसने एक विशाल संस्था का रूप ले लिया है। पूरा संस्थागत परिवार जातिवाद से भरा हुआ है। जाति को धर्म, दर्शन और संस्कृति की मान्यता है, जो समाज में प्रचलन में आ गई है और स्टेटस-सिंबल में बदल गई है। उच्च और निम्न की अवधारणा भारतीय लोगों के जीवन में समाहित हो गई है। जाति जानने के बाद लोगों का आचरण और व्यवहार जाति पदानुक्रम के अनुसार बदल जाता है। भारत के संविधान ने जाति और धर्म के नाम पर प्रचलित किसी भी गतिविधि को दंडनीय अपराध घोषित किया है जो किसी व्यक्ति की समानता और स्वतंत्रता के खिलाफ है। इसके बावजूद दलितों और कमजोर वर्गों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। अधिकांश संवैधानिक संस्थाएँ इस खाई को पाटने में सफल नहीं हुई हैं, यहाँ तक कि संतोषजनक स्तर तक भी नहीं।

डॉ. आंबेडकर जातियों के उच्च और निम्न दृष्टिकोण की श्रेणीबद्धता की भावना को हिंदुत्व कहते थे। जाति और वर्ण हिंदुत्व का महत्वपूर्ण सार हैं। डॉ. अंबेडकर ‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्धांत की बहुत रोचक व्याख्या करते थे। वे कहते थे कि जाति और वर्ण व्यवस्था फूट डालो और राज करो का सबसे अच्छा उदाहरण है, जिसके निर्माता सनातनी हिंदू हैं, अंग्रेज नहीं। इससे ऊंची जातियों को बिना किसी रोक-टोक के राज करने का मौका मिलता है। इससे उनका वर्चस्व बरकरार रहता है। डॉ. आंबेडकर ने “पाकिस्तान या भारत के विभाजन” के पृष्ठ संख्या 358 में लिखा है कि “यदि हिंदू राज एक तथ्य बन जाता है, तो यह निस्संदेह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी। हिंदू चाहे कुछ भी कहें, यह हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक बड़ा खतरा है। इस कारण यह लोकतंत्र के साथ असंगत है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” डॉ. आंबेडकर ने अपने भाषणों और लेखों खंड 17 भाग II, पृष्ठ संख्या 321 में फिर लिखा है कि “कांग्रेस यह भूल जाती है कि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका चरित्र फासीवादी या नाजी विचारधारा के समान है, जो अपने स्वभाव में पूर्णतः लोकतंत्र-विरोधी है। यदि हिंदुत्व को ढीला छोड़ दिया जाता है तो यह हिंदू बहुमत दूसरे के लिए महाविपत्ति साबित होगा, जो हिंदू धर्म के बाहर हैं अथवा हिंदू धर्म का विरोध करते हैं। “ जाति एक सामाजिक बुराई है। जातिविहीन समाज हमारा संवैधानिक लक्ष्य है। संविधान लागू होने के 75 साल बाद भी समाज के जातिरूपी इस अवांछित बोझ को हम नहीं हटा पाए हैं। संवैधानिक योजना का संचालन ही विफल हो गया है और जाति व्यवस्था समाज के लक्ष्य और मूल्यों को विकृत कर रही है। हमारे राष्ट्र के संस्थापकों ने संविधान सभा में एक स्वर से घोषणा की थी कि हमारा संवैधानिक लक्ष्य जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करना है। अभी भी जाति आधारित भेदभाव बना हुआ है। जातियों के बीच हिंसा होती है। डॉ. आंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में कहा था कि “भारत में जातियाँ हैं। ये जातियाँ राष्ट्र-विरोधी हैं। इसलिए क्योंकि वे सामाजिक जीवन में अलगाव लाती हैं। वे इसलिए भी राष्ट्र-विरोधी हैं क्योंकि वे जाति और जाति के बीच ईर्ष्या और द्वेष पैदा करती हैं। लेकिन अगर हम वास्तव में एक राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सभी कठिनाइयों को दूर करना होगा। भाईचारा तभी एक तथ्य हो सकता है जब एक राष्ट्र हो। भाईचारे के बिना समानता और स्वतंत्रता सिर्फ़ रंग-रोगन से ज़्यादा गहरी नहीं होगी।”

हिंदू राष्ट्र और राष्ट्रवाद भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने में हिंदू राष्ट्रवादियों की राह में सबसे बड़ी बाधा बनने वाले तीन व्यक्तित्व गांधी, नेहरू और आंबेडकर हैं। अगर गांधी हिंदू राष्ट्रवादियों के दिल में चुभने वाले कांटे की तरह हैं, तो नेहरू खंजर की तरह हैं, लेकिन डॉ. आंबेडकर हिंदू राष्ट्रवादियों की छाती में एक सिरे से दूसरे सिरे तक चुभने वाली तलवार की तरह हैं। वर्तमान में हिंदू राष्ट्र की परियोजना को साकार करने में लगे संगठन, संस्थाएं और व्यक्ति डॉ. आंबेडकर के समर्थकों की बड़ी संख्या के कारण उन पर सीधे हमले से बच रहे थे, लेकिन हिंदू राष्ट्र के अपने सपने को पूरी तरह साकार करने के लिए उन्हें आंबेडकर को अपने रास्ते से हटाना होगा, जो हिंदुत्व के विरोधी और संविधान के पर्याय बनकर चीन की महान दीवार की तरह हिंदू राष्ट्र के रास्ते में खड़े हैं। वे केवल गांधी और नेहरू पर हमला करते हैं क्योंकि उनके समर्थक अब बहुत कम रह गए हैं और जो बचे हैं वे हिंदुत्ववादियों के पाले में चले गए हैं। हिंदू राष्ट्रवादी इस सच्चाई से अच्छी तरह वाकिफ हैं। गांधी-नेहरू अलग-अलग मात्रा में और अलग-अलग रूपों में हिंदू राष्ट्र की परियोजना के लिए चुनौतियां हैं, लेकिन जिस व्यक्ति ने हिंदू राष्ट्र की नींव पर सबसे घातक हमला किया है, इसकी रीढ़ को निशाना बनाया है और अपना पूरा जीवन उस हिंदू धर्म को नष्ट करने में लगा दिया है, जिस पर हिंदू राष्ट्र की अवधारणा आधारित है, उस व्यक्ति का नाम है डॉ. आंबेडकर। उन्होंने ब्राह्मण धर्म, सनातन धर्म और हिंदू धर्म को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखा। नेहरू यह समझने में पूरी तरह विफल रहे कि हिंदू धर्म का मूल तत्व जाति व्यवस्था है, गांधी ने यह समझा। लेकिन उन्होंने दोनों तरफ संतुलन बनाए रखने की कोशिश की। गांधी और नेहरू दोनों यह नहीं समझ पाए कि हिंदू धर्म एक धर्म नहीं बल्कि एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसका मुख्य उद्देश्य पिछड़े-दलितों और महिलाओं पर उच्च जाति के हिंदू पुरुषों (द्विज पुरुषों) का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व बनाए रखना है। इसे समझने वाले व्यक्ति का नाम डॉ. आंबेडकर है।

हिंदू राष्ट्रवाद का एक महत्वपूर्ण तत्व मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति नफरत है। लेकिन यह नफरत हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा का केवल सतही हिस्सा है। सच तो यह है कि हिंदू राष्ट्र मुस्लिमों या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों से कहीं ज़्यादा महिलाओं, पिछड़ों और दलितों के लिए ख़तरनाक है, जिन्हें हिंदू धर्म का हिस्सा कहा जाता है। हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए संविधान को पूरी तरह से बदलना जोखिम भरा काम है। क्योंकि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों का एक बड़ा वर्ग संविधान और डॉ. आंबेडकर को एक दूसरे का पर्याय मानता है। वे सड़कों पर उतरकर इसके लिए संघर्ष कर सकते हैं। इसलिए अब वे संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ करके इसे विकृत करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके बाद वे अंततः संविधान और डॉ. आंबेडकर पर हमला करेंगे।

सामाजिक न्याय के चैंपियन अंबेडकर डॉ. आंबेडकर की क्रांतिकारी दृष्टि और जाति-आधारित उत्पीड़न के खिलाफ़ उनकी अटूट लड़ाई ने स्वतंत्र भारत में सामाजिक न्याय की नींव रखी, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि दलितों और अन्य हाशिए के समुदायों के पास समाज में अपना सही स्थान पाने के लिए एक संवैधानिक ढांचा है। डॉ. बी.आर. आंबेडकर कभी भी स्वराज्य आंदोलन के विरोधी नहीं थे। उन्हें भारत की स्वतंत्रता की गहरी चिंता थी, लेकिन उन्होंने कानूनी गारंटी के साथ हाशिए के समुदायों के लिए समान राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिनिधित्व की भी मांग की। उनका प्राथमिक उद्देश्य हिंदू सामाजिक व्यवस्था द्वारा जारी सभी प्रकार की गुलामी और अमानवीय प्रथाओं को मिटाना था। वे राजनीतिक स्वतंत्रता के विरोधी नहीं थे, लेकिन वे ब्रिटिश समर्थक भी नहीं थे। वास्तव में, वे भारत में अछूतों की दयनीय स्थिति के लिए अंग्रेजों को जिम्मेदार मानते थे, क्योंकि वे दमनकारी जाति व्यवस्था को खत्म करने में विफल रहे थे। उस समय, अछूतों द्वारा सामना की जाने वाली आंतरिक गुलामी पर बहुत कम ध्यान दिया गया था। डॉ. अंबेडकर ने बताया कि वे एक क्रूर दुविधा में फंसे हुए थे – या तो सवर्ण हिंदुओं के खिलाफ़ लड़ें या औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ़। दोनों से लड़ने के लिए संसाधनों की कमी के कारण, उन्होंने सबसे पहले सवर्ण हिंदुओं को चुनौती देने का फैसला किया, जिन्होंने लंबे समय से दलितों को उनके बुनियादी मानवाधिकारों से भी वंचित रखा था। उनके विचार में, सबसे बड़ी बुराई उच्च जातियों का शासन, ब्राह्मणवाद का दर्शन और उसकी दमनकारी जाति व्यवस्था थी। उनका संघर्ष केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए नहीं था, बल्कि “दोहरे गुलामों” को आज़ाद करने के लिए था – जो औपनिवेशिक शासन और जातिगत भेदभाव दोनों के तहत उत्पीड़ित थे। वे सामाजिक क्रांति की आवाज़ बन गए, दलित मुक्ति और न्याय के लिए लगातार लड़ते रहे। डॉ. आंबेडकर को जब कभी दो हिन्दू राजाओं महाराजा बड़ौदा और महाराजा कोल्हापुर के छात्रवृत्ति और आर्थिक सहायता से अध्ययन करने के बावजूद उनके द्वारा हिन्दू धर्म के विरुद्ध बोलने और अछूतों की आजादी की माँग के लिए नाशुक्रगुजार कहा गया, कृतघ्न होने का आरोप लगाया गया, तो उनकी तत्क्षण प्रतिक्रिया होती थी कि अंग्रेजों ने विश्वविद्यालय खोलकर ब्रिटिश- भारत के सवर्ण हिन्दुओें को अंग्रेजी शिक्षा दी तथा इंग्लैण्ड में उच्च शिक्षा दिलाई किन्तु अब वही शिक्षित हिन्दू अपने अंग्रेज शासकों से मुक्ति पाने के लिए पूर्ण स्वराज्य की माँग कर रहे हैं। यदि ऐसे कृतघ्न हिन्दू महान देशभक्त कहला सकते हैं तो लाखों अछूत जाति को हजारों सालों की अमानवीय दासता और गुलामी से छुटकारा दिलाने की कोशिश देशभक्ति का श्रेष्ठ कर्म क्यों नहीं हो सकता है ?

डॉ. बी.आर. आंबेडकर भारत के इतिहास में एक महान व्यक्ति बन गए – सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय एकता के चैंपियन। यदि वे चाहते तो अंग्रेजों के समर्थन से तीसरे राष्ट्र की मांग कर सकते थे, लेकिन इसके बजाय उन्होंने भारत की एकता को प्राथमिकता दी। उनके कार्यों ने न केवल राष्ट्र को मजबूत किया बल्कि सांप्रदायिक तनाव के महत्वपूर्ण क्षणों के दौरान महात्मा गांधी के जीवन को बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आधुनिक भारत के संस्थापक वास्तुकारों में से एक के रूप में, डॉ. आंबेडकर एक न्यायविद, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, राजनीतिक विचारक और लोकतंत्र के एक अटूट समर्थक थे। उनका योगदान बहुआयामी था, जो कानून बनाने से लेकर सामाजिक सशक्तिकरण तक फैला हुआ था। उन्होंने शोषितों को जागृत किया, उन्हें अपने मानवाधिकारों, आत्म-सम्मान और आत्मनिर्भरता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने यथास्थितिवादी दृष्टिकोण का दृढ़ता से विरोध किया और हिंदू समाज की गहरी जड़ें जमाए हुए रूढ़िवादी जड़ता को तोड़ने का प्रयास किया। अपने अथक सक्रियता के माध्यम से, उन्होंने भारत के अछूतों की दुर्दशा पर वैश्विक ध्यान आकर्षित किया। डॉ. आंबेडकर का मानना था कि दलितों और पिछड़ों का उत्पीड़न मुख्य रूप से जाति व्यवस्था के कारण था, न कि औपनिवेशिक शासन के कारण। उन्होंने एक बार टिप्पणी की थी कि अंग्रेजों ने नहीं, बल्कि हिंदुओं ने दलितों को गुलाम बनाया, उनसे उनके अधिकार छीने और उन्हें सम्मान से वंचित किया। उन्होंने तर्क दिया कि ब्रिटिश शासकों ने कभी भी अछूत प्रथा का पालन नहीं किया या दलितों पर अमानवीय क्रूरता नहीं की – असली उत्पीड़क तो सवर्ण हिंदू थे, जिन्होंने उन्हें जबरन श्रम, दासता और सामाजिक बहिष्कार के अधीन किया। आंबेडकर के लिए, अछूतों के लिए पहली और सबसे बड़ी लड़ाई सिर्फ ब्रिटिश शासन से आजादी नहीं थी, बल्कि सवर्ण हिंदू वर्चस्व से आजादी थी। डॉ. आंबेडकर एक महान लोकतंत्रवादी और राष्ट्रवादी थे।

स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस ने डॉ. आंबेडकर की कानूनी और बौद्धिक विशेषज्ञता को मान्यता दी और उन्हें संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया। व्यापक विचार-विमर्श के बाद, उन्होंने भारत के संविधान को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, यह सुनिश्चित करते हुए कि सभी नागरिकों के लिए न्याय, समानता और मौलिक अधिकार सुनिश्चित किए गए। डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक रिडल्स इन हिंदूइज्म भाग 4 के अध्याय 22, पृष्ठ संख्या 282 में लोकतंत्र को परिभाषित किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ”जहां समाज दो वर्गों में विभाजित है, शासक और शासित, सरकार शासक वर्ग की सरकार होने के लिए बाध्य है। वे यह भूल जाते हैं कि सरकार अच्छी होगी या बुरी, लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक, यह काफी हद तक साधनों पर निर्भर करता है, विशेष रूप से सिविल सेवा, जिस पर हर जगह सरकार को कानून लागू करने के लिए निर्भर रहना पड़ता है। यह सब उस सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है जिसमें सिविल सेवकों का पालन-पोषण होता है

उन्होंने 25.11.1949 को संविधान सभा में अपने समापन भाषण में कहा कि- “…कोई संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है यदि उसको लागू करने वाले लोग बुरे हो। एक संविधान चाहे जितना बुरा हो वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हो। संविधान पर अमल करना पूर्ण रूप से संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करती है। संविधान केवल राज्य के अंगों जैसे विधायिका ,कार्यपालिका और न्यायपालिका का प्रावधान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर करता है, वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने वाले राजनीतिक दल।”

डॉ. आंबेडकर अंततः इस बात पर जोर देते हैं कि लोगों को केवल राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, बल्कि समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के अंतर्निहित सिद्धांतों के साथ सामाजिक लोकतंत्र के लिए प्रयास करना चाहिए। “राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है एक ऐसी जीवन शैली जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देती है… डॉ. आंबेडकर ने 25.11.1949 को संविधान सभा में आगे कहा कि ”26 जनवरी 1950 को हम अंतर विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हम समान होंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता का बोलबाला होगा। राजनीति में ‘एक व्यक्ति: एक वोट और एक वोट: एक मूल्य का सिद्धांत होगा लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य को हम नकारते रहेंगे । हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को कब तक नकारते रहेंगे ? हम कब तक विरोधाभासों का यह जीवन जीते रहेंगे? यदि हम इसे लंबे समय तक इसे नकारते रहे तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।“

डॉ. आंबेडकर ने प्रांतीयता और क्षेत्रवाद की संकीर्ण धारणाओं की भी कड़ी निंदा की। वे एक कट्टर राष्ट्रवादी थे। उन्होंने लोगों से भारतीयता की भावना को विकसित करने का आह्वान किया और कहा कि- “मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिंदू अथवा मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं। धर्म, जाति, भाषा आदि की प्रतिस्पर्धी निष्ठा के रहते हुए भारतीयता के प्रति निष्ठा पनप नहीं सकती है। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें , भारतीय के अलावा कुछ नहीं। ” आंबेडकर के यह उदगार उनके राष्ट्रीयता और निष्ठा की अभिव्यक्ति है जो बड़े-बड़े राष्ट्रवादियों में भी मिलना कठिन है।

अब मैं निम्नलिखित शब्दों और सुझावों के साथ अपने विचार समाप्त करना चाहूंगा: 1. भारत का संविधान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित है, जो “एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य” के मौलिक लोकतांत्रिक अधिकार को सुनिश्चित करता है। ये सिद्धांत लोकतंत्र की नींव हैं, जो सभी नागरिकों के लिए राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय की गारंटी देते हैं।

2. व्यक्ति की गरिमा लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है। उस सिद्धांत का उल्लंघन हर प्रकार के सामाजिक-आर्थिक भेदभाव से होता है। लोकतंत्र और जाति एक साथ नहीं चल सकते। या तो लोकतंत्र जारी रहेगा या जातिवाद खत्म हो जाएगा। अगर जातिवाद रहेगा तो लोकतंत्र पंगु हो जाएगा। यह अभी भी चल रहा है, क्योंकि सत्ता अभी भी प्रमुख जातियों के हाथों में है। ब्रिटिश उपनिवेशवाद हानिकारक था। हमने 150 वर्षों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समाप्त कर दिया। लेकिन जातिगत भेदभाव और जाति के बड़े साम्राज्य की खाई को हज़ारों सालों में भी नहीं पाटा जा सका। जाति पदानुक्रम सदियों से कायम है, जो जाति उन्मूलन का विरोध कर रहा है। जातिगत उपनिवेशवाद कहीं ज़्यादा भयावह और ख़तरनाक है। जाति-आधारित उत्पीड़न विदेशी शासन की तुलना में कहीं अधिक कपटी और खतरनाक है। डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने जोर देकर कहा कि स्वराज (स्व-शासन) का कोई वास्तविक अर्थ नहीं है जब तक कि जाति का विनाश न हो जाए। धार्मिक अतिवाद के साथ जाति व्यवस्था सामाजिक न्याय के लिए एक बड़ी बाधा बनी हुई है, जो राष्ट्र को अपनी पूर्ण लोकतांत्रिक क्षमता प्राप्त करने से रोकती है।

3. सामाजिक समानता और न्याय के आदर्शों को साकार करने के लिए, भारत के संविधान ने जाति और पंथ-आधारित भेदभाव के शिकार लोगों के लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए विभिन्न उपाय, गारंटी और सुरक्षा उपाय स्थापित किए हैं। एक राष्ट्र के रूप में, हम राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए सामाजिक न्याय की दिशा में प्रयास करते हैं। हालांकि, समान अधिकार सुनिश्चित करने वाले कानूनी प्रावधानों के बावजूद, उनका व्यावहारिक कार्यान्वयन एक चुनौती बना हुआ है। जबकि कानून में समानता मौजूद है, इसे अक्सर वास्तविकता में नकार दिया जाता है, और वास्तविक समानता प्राप्त करने का लक्ष्य अधूरा रह जाता है। हालाँकि जाति की व्यापक रूप से आलोचना की जाती है और सिद्धांत रूप में इसकी निंदा की जाती है, लेकिन यह आज भी समाज में गहराई से समाई हुई है, जो सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं को प्रभावित करती है।

4. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, सभी क्षेत्रों के लोग – चाहे वे जमींदार हों, किसान हों, मजदूर हों या उच्च और निम्न दोनों जातियों के व्यक्ति हों – एक साझा लक्ष्य के लिए एकजुट हुए: स्वतंत्रता। प्रत्येक व्यक्ति ने समर्पण और दृढ़ संकल्प के साथ इस उद्देश्य में योगदान दिया। हालाँकि, जातिवाद को मिटाने के लिए समान सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। ऐसे प्रयास के बिना जातिगत विभाजन कैसे समाप्त हो सकता है? जाति भावनात्मक एकता और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा बनी हुई है। राष्ट्रीय एकता के केवल नारे पर्याप्त नहीं होंगे; सच्चे सामाजिक न्याय और बंधुत्व के लिए जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए ठोस प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है।

5. जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने और सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए, समान-जाति विवाह को हतोत्साहित करने वाले कानूनी उपायों पर विचार किया जाना चाहिए। अंतर-जातीय विवाह को बढ़ावा देने से कठोर जाति की सीमाओं को खत्म करने में मदद मिल सकती है, जिससे धीरे-धीरे समाज एक एकल, एकीकृत पहचान में बदल सकता है। यदि अंतर-जातीय विवाह से पैदा हुए बच्चों को आधिकारिक तौर पर एक एकल, एकीकृत श्रेणी से संबंधित माना जाता है, तो समय के साथ जातिगत विभाजन कम हो जाएगा। अंततः, इससे एक ऐसे समाज का निर्माण हो सकता है जहाँ जाति का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, जिससे वास्तविक समानता और सामंजस्य का मार्ग प्रशस्त होगा।

6. डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अपना पूरा जीवन सामाजिक क्रांति के लिए समर्पित कर दिया, जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न को खत्म करने का प्रयास किया। हालाँकि, इन सामाजिक बुराइयों का बने रहना न केवल आंबेडकर बल्कि संविधान के संस्थापकों के लिए भी सबसे बड़ा अपमान है। जाति-आधारित भेदभाव राष्ट्रीय एकता के लिए एक बड़ी बाधा बना हुआ है, जो हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में निहित समानता और न्याय के सिद्धांतों को कमजोर करता है। जब तक जातिगत पदानुक्रम को खत्म नहीं किया जाता और हर व्यक्ति के साथ सम्मान और गरिमा के साथ व्यवहार नहीं किया जाता, तब तक सच्चा राष्ट्रीय एकीकरण हासिल नहीं किया जा सकता। मैं इस कार्यक्रम में अपने विचार साझा करने का अवसर देने के लिए आयोजकों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।


आई0सी0एस0एस0आर0, नई दिल्ली, मौलाना ए.के. आजाद इंस्टीट्यूट ऑफ एशियन स्टडीज कोलकाता और असम विश्वविद्यालय, सिलचर, अंग्रेजी विभाग द्वारा आयोजित ‘डॉ. आंबेडकर ऑन पार्टिशन कॉनड्रम’ विषय पर 13-14 फरवरी 2025 को आयोजित सेमिनार में  पटना में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी ईं. राजेंद्र प्रसाद द्वारा 14 फरवरी 2025 को “पाकिस्तान, सामाजिक न्याय और लोकतंत्र पर आंबेडकर” विषय पर राजेन्द्र प्रसाद द्वारा अंग्रेजी में दिए गए भाषण का हिंदी अनुवाद।

International ambedkarite organization Demand Buddhist Control Over the Mahabodhi Temple

We, the undersigned, stand in unwavering solidarity with the Buddhist monks and followers protesting in Bodh Gaya to demand the rightful transfer of the Mahabodhi Mahavihara Temple’s administration to the Buddhist community. This sacred site, where Gautama Buddha attained enlightenment, deserves to be managed by those who uphold its spiritual and historical significance. Under the Bodhgaya Temple Act of 1949, the temple’s governing body (BTMC) unfairly places non-Buddhists in the majority, including the chairman’s role. This discriminatory structure denies Buddhists the fundamental right to manage their holiest pilgrimage site—an autonomy granted to every other religious community in India. The current administration’s actions have led to repeated attempts to distort Buddhist history and diminish the temple’s sacred identity. Today, Buddhist monks and leaders have entered the tenth day of a hunger strike to bring attention to this injustice. Their demands are clear and just:

1. Full transfer of Mahabodhi Temple management to Buddhists. 2. Repeal of the Bodhgaya Temple Act of 1949. 3. An end to state interference in Buddhist religious affairs. 4. Justice to the hunger strike monks-Bhante

Despite international support from Buddhist communities in Sri Lanka, Thailand, Laos, Bangladesh, Myanmar, Cambodia, Korea, Vietnam, Japan, China, Nepal, Mongolia, Bhutan, Taiwan, Singapore, USA, Canada, and Mongolia, the Indian government remains silent. The Bihar administration has not only ignored peaceful protests but has also resorted to intimidation and suppression. We call on you to stand with usto demand justice and the rightful return of the Mahabodhi Temple to the Indian Buddhist community. Together, let’s preserve the enduring legacy of Buddha and Emperor Ashoka, and ensure that Bodh Gaya remains a sanctuary of pure Buddhist worship and pilgrimage for all faith.

News Media Reference https://www.rediff.com/news/interview/why-are-hindus-controlling-the-mahabodhi-temple/20170725.htm https://en.themooknayak.com/india/bodh-gayas-burning-question-if-hindu-scriptures-denounced-buddha-why-do-brahmins-control-his-sacred-site https://www.ucanews.com/story-archive/?post_name=/1992/10/21/buddhist-monks-lead-temple-liberation-rally-in-indian-capital&post_id=42148 https://whc.unesco.org/en/list/1056/ https://youtu.be/QJ195fpUb5s?si=78-6qoIssnq2ZFgX

In solidarity

https://chng.it/QWMMcPWZnp

Below undersigned Organization’s Name Buddhist Council of America All India Buddhist Forum Metta Parami monastery Bodhimaggo Mahavihara Dhamma Waves Buddhist seminary Hinayana buddhism trust Sanghakaya foundation Vipassana Educational & Social Trust Indian Buddhist center ( IBC) Great Lakes Buddhist Vihara Midwest Buddhist Center Watpaknam Buddhist Vihara Ambedkarite Buddhist Community of Canada (ABCC) Federation of Ambedkarite and Buddhist Organisations UK Dr Ambedkar Buddhist organisation Birmingham UK Ambedkar Mission Society, Bedford UK Ambedkar Buddhist Association of Texas-ABAT Chetna Association of Canada Ambedkarite International Co-Ordination Society-AICS Ambedkarites International Mission Society-Canada (AIMS) International Bahujan Organization-IBO International Boddhisativa Guru Ravidass Organization Inc-IBGRO Indian Association of Minority Of New Zealand-IAMN Friends For Education International-FFEI Global Bahujan Group-GBG Global NRIs Forum-GNF South Asian Dalit Adivasi Network, Canada-SADAN Ambedkar Times Desh Doaba Ad Dharm Brotherhood USA Bhim International Foundation USA Women Empowerment Sangha Dr Ambedkar Society Germany Europe Ambedkar International Mission, Europe Ambedkar King Study Circle -AKSC Samata Sainik Dal-SSD

बोधगया महाबोधि महाविहार के लिए क्यों हो रहा है दुनिया भर में आंदोलन, जानिये पूरा मामला

बोधगया। बिहार का बोधगया, जहां तथागत बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उसकी मुक्ति के लिए आंदोलन चल रहा है। यह आंदोलन इस महाविहार को ब्राह्मण पंडों से मुक्त कराने के लिए है। आंदोलन करने वाले बौद्ध समाज BT ACT 1949 को रद्द कर महाविहार का पूरा प्रबंधन बौद्ध समाज को सौंपने की मांग कर रहा है। वर्तमान में यहां प्रबंधन में ब्राह्मण और बौद्ध दोनों है। आरोप लगाया जाता है कि यहां ब्राह्मणों द्वारा उन बौद्धों को ही प्रबंधन में रखा जाता है जो उनकी हां में हां मिलाते हैं। इस आंदोलन को दुनिया भर के बौद्ध समाज का समर्थन मिल रहा है। बौद्ध समाज का कहना है कि बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949 (BT Act 1949) पूर्ण रूप से असंवैधानिक है और इसे रद्द किया जाना चाहिए।

उनका कहना है कि यह बौद्ध समुदाय के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। महाबोधि मंदिर का प्रबंधन पूरी तरह से बौद्ध समुदाय को सौंपा जाए। इस बारे में मिशन जय भीम के संस्थापन और बौद्ध धम्म को बढ़ाने के लिए काम करने वाले दिल्ली सरकार के पूर्व मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम ने इस पूरे मामले को ठीक से समझाया। देखिए यह वीडियो- 

यूपी में PCS अधिकारियों की पदोन्नति रोके जाने पर योगी सरकार पर उठते सवाल

उत्तर प्रदेश में OBC/SC/ST वर्ग के अधिकारियों के साथ हो रहे भेदभाव ने योगी सरकार की असली मानसिकता को उजागर कर दिया है। BJP शासित राज्यों में बहुजन समाज के अधिकारियों की तरक्की में लगातार रोड़े अटकाए जा रहे हैं, और इसकी ताजा मिसाल 2008 बैच के PCS अधिकारियों की IAS में पदोन्नति को जानबूझकर रोके जाने के रूप में सामने आई है।

यह महज संयोग नहीं कि इस बैच के सभी 14 अधिकारी बैकलॉग भर्ती के तहत OBC/SC/ST वर्ग से आते हैं, और सरकार ने उनकी फाइलों को धूल चाटने के लिए छोड़ दिया है। यह सीधा-सीधा जातिवादी भेदभाव है। मुख्य सचिव UPSC की DPC मीटिंग में शामिल होने से महाकुंभ का बहाना बनाकर बचते हैं, लेकिन अगले ही दिन दिल्ली के पास एक निजी मेडिसिटी के उद्घाटन में शामिल होने का वक्त निकाल लेते हैं। आखिर यह दोहरा रवैया क्यों? क्या OBC/SC/ST वर्ग के अधिकारियों का हक छीनने की यह सोची-समझी साजिश नहीं है?

अगर योगी सरकार खुद को निष्पक्ष और सख्त प्रशासन देने वाली सरकार कहती है, तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को इस मामले में तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिए। मुख्य सचिव से जवाब मांगा जाए कि आखिर इन अधिकारियों की फाइलें जानबूझकर क्यों रोकी जा रही हैं? बहुजन समाज के सामाजिक न्याय और अधिकारों के साथ यह अन्याय बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हम यूपी सरकार से माँग करते हैं कि इन अधिकारियों की IAS में पदोन्नति प्रक्रिया में हो रही देरी को तत्काल समाप्त किया जाए और उन्हें उनका हक दिया जाए।


आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष और नगीना लोकसभा सांसद चंद्रशेखर आजाद के एक्स पोस्ट से साभार

राहुल गांधी के आरोपों पर बसपा सुप्रीमों का करारा जवाब

अब तक बसपा पर सीधा हमला करने से बचने वाली कांग्रेस पार्टी अब खुलकर बसपा के खिलाफ उतर गई है। कांग्रेस नेता और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने अपने रायबरेली यात्रा के दौरान यह कह कर सीधे बसपा प्रमुख मायावती पर निशाना साधा कि आखिर बसपा पर ठीक से चुनाव क्यों नहीं लड़ती है? राहुल गांधी के इस आरोप के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने भी राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी पर पटलवार किया है।

राहुल गांधी के सवाल उठाने के दूसरे ही दिन बहनजी ने राहुल गांधी को नसीहत दे डाली और कांग्रेस को भाजपा की बी टीम कह कर नई बहस शुरू कर दी है। बहनजी ने सोशल मीडिया एक्स पर किये अपने पोस्ट में दिल्ली चुनाव का हवाला देते हुए कहा न सिर्फ कांग्रेस पर सवाल उठाया बल्कि राहुल गांधी को भी आईना दिखाया। उन्होंने लिखा-

कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस बार बीजेपी की B टीम बनकर चुनाव लड़ा, यह आम चर्चा है, जिसके कारण यहाँ बीजेपी सत्ता में आ गई है। वरना इस चुनाव में कांग्रेस का इतना बुरा हाल नहीं होता कि यह पार्टी अपने ज्यादातर उम्मीदवारों की जमानत भी न बचा पाए। अतः इस पार्टी के सर्वेसर्वा श्री राहुल गांधी को सलाह है कि किसी भी मामले में दूसरों पर व ख़ासकर बीएसपी की प्रमुख पर उंगली उठाने से पहले अपने गिरेबान में भी जरूर झांक कर देखना चाहिए। उनके लिए यह बेहतर होगा।

 

इससे पहले बीते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ने के लिए बसपा पर सवाल उठाने वाले राहुल गांधी के बयान पर पलटवार करते हुए बसपा प्रमुख ने कहा था कि बीएसपी ने यूपी व अन्य राज्यों में जब भी कांग्रेस जैसी जातिवादी पार्टियों के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा है तब हमारा बेस वोट उन्हें ट्रांस्फर हुआ है लेकिन वे पार्टियाँ अपना बेस वोट बीएसपी को ट्रांस्फर नहीं करा पायी हैं। ऐसे में बीएसपी को हमेशा घाटे में ही रहना पड़ा है।

साफ है कि सामाजिक न्याय के एजेंडे पर कांग्रेस बसपा पर हमलावर है, तो बसपा ने भी कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। देखना होगा कि इस आर-पार की लड़ाई में दलित वोटों को अपने पाले में खिंचने की कोशिश में कांग्रेस सफल होती है या नहीं। कहीं ऐसा न हो कि बसपा और उसकी राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती पर सीधा हमला बोलने के कारण कांग्रेस का दांव उल्टा न पर जाए।

स्नेहा कुशवाहा मामले में पुलिस की चुप्पी से उठते सवाल

प्रधानंत्री नरेन्द्र मोदी ने बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ का नारा दिया तो जनता को यकीन हो गया कि अब प्रशासन उनकी बेटियों की हिफाजत करेगा। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में अपनी बेटी की संदेहास्पद मौत के बाद एक परिवार बीते 18 दिनों से न्याय की गुहार लगा रहा है और प्रशासन ने आंख और कान मूंद रखा है। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के रामेश्वर गर्ल्स हॉस्टल में रहकर जेईई की तैयारी करने वाली स्नेहा कुशवाहा की एक फरवरी को संदिग्ध मौत हो गई। 17 साल की स्नेहा बिहार के सासाराम के नगर थाना के तकिया मोहल्ले की रहने वाली थी। वह इंटर की छात्रा थी। एक फरवरी को स्नेहा भेलूपुर थाना क्षेत्र स्थित रामेश्वरम गर्ल्स हॉस्टल के अपने कमरे में फंदे से लटकी हुई पाई गई।

यह पूरे परिवार के लिए चौंका देने वाली घटना थी। क्योंकि 31 जनवरी की देर रात तक स्नेहा की उसकी मां से बातचीत होती रही। सब कुछ सामान्य था। फिर ऐसा क्या हो गया कि सुबह में खिड़की के ग्रिल से उसकी लाश लटकती हुई मिली। यह सवाल पूरे परिवार को खा रहा है जिसका जवाब यह परिवार पुलिस से तलाश रहा है। लेकिन जवाब देना तो दूर, इस मामले में वाराणसी पुलिस ही सवालों के घेरे में है। पिता सुनील सिंह कुशवाहा ने मीडिया से बातचीत में तमाम सवाल उठाए। उनका कहना है कि-

बेटी की मृत्यु की सूचना मिलने पर वे लोग वाराणसी पहुंचे तब तक उसकी बेटी का शव पोस्टमार्टम हाउस के अंदर चला गया था। वे लोग जब पोस्टमार्टम से पहले अपनी बेटी के लाश को देखना चाह रहे थे तो उन्हें देखने नहीं दिया गया। पोस्टमार्टम के उपरांत प्लास्टिक में लपेटकर स्नेहा का शव उन्हें सौंपा गया। इतना ही नहीं, वह शव को घर लाना चाहते थे। लेकिन वाराणसी में ही दाह संस्कार करने के लिए पुलिस ने उन पर दबाव बनाया। अंतत: उन्हें बनारस के मणिकर्णिका घाट पर अपनी बेटी की अंत्येष्टि करनी पड़ी।

परिजनों को हॉस्टल के संचालक पर शक है कि उसी ने कुछ गड़बड़ी की है।

स्नेहा की संदिग्ध मौत को लेकर कुशवाहा समाज सहित तमाम लोग बिहार से लेकर दिल्ली तक सड़कों पर हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में स्नेहा को न्याय दिलाने के लिए प्रदर्शन और कैंडल मार्च किया जा रहा है। कुशवाहा बुद्धिजीवी मंच के अध्यक्ष देवेन्द्र भारती ने पुलिस पर किसी के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया है।

कुशवाहा समाज द्वारा 16 फरवरी को दिल्ली के उत्तर प्रदेश भवन का घेराव किया गया। तो 17 फरवरी को कुशवाहा समाज ने इस मामले में राष्ट्रपति, पीएमओ, गृह मंत्रालय व उत्तर प्रदेश के राज्यपाल, मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशक को एक ज्ञापन दिया। इसमें मांग की गई है कि-

  1. एफ आई आर में पॉक्सो के प्रावधान को तुरंत शामिल किया जाए।
  2. इस घटना की गहन जांच के लिए तत्काल सी बी आई को सौप कर अपराधी को न्याय के कटघरे में लाया जाए।
  3. पोस्टमार्टम रिपोर्ट पीड़िता के परिवार को सौपा जाए और डॉक्टर पर कर्रवाई की जाए।
  4. पीड़िता के शव को सही तरीके से नहीं सौपने और उसके साथ किये गए अपमान जनक व्यवहार व गुंडागर्दी करने वाली पुलिस कर्मियों को तुरंत प्रभाव से बर्खास्त किया जाए।
  5. पीड़िता के परिवार को दो करोड़ रूपये की आर्थिक सहयता दी जाए
  6. गर्ल्स हॉस्टल में सुरक्षा के नियमों को सख़्ती सेलागूकिया जाए

स्नेहा कुशवाहा के पिता से मिलने पहुंचे उपेन्द्र कुशवाहाअब गेंद सरकार के पाले में है जो फिलहाल महाकुंभ में व्यस्त है। लेकिन प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में इस तरह की घटना कई सवाल खड़े करती है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि घटना को रोकना अगर पुलिस के वश में नहीं था तो इसका पर्दाफाश करना और दोषियों को सजा देना तो उसके हाथ में है। फिर आखिर चारो ओर चुप्पी क्यों है?

आजकल बहुजन मूवमेंट के नेतृत्व के खिलाफ बोलने का फैशन चल पड़ा है- आकाश आनंद

आजकल बहुजन मूवमेंट के नेतृत्व के खिलाफ बोलने का फैशन चल पड़ा है। कुछ दिनों पहले कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी जी ने कुछ यूट्यूबर्स से मुलाक़ात में मान्यवर साहेब श्री कांशीराम जी के योगदान पर सवाल उठाया था। फिर केंद्रीय गृहमंत्री ने संसद में बाबा साहेब पर अशोभनीय टिप्पणी की।

असल में भाजपा, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे दल वोटों के लिए बहुजन मिशन को गुमराह करने में जुटे हैं। खासकर कांग्रेस सुनियोजित तरीके से हमला कर रही है। इनके नेता और समर्थक हमारे आदर्शों और नेतृत्व पर बार बार गैरजरूरी बयान बाजी कर रहे हैं। जबकि सभी जानते हैं बाबा साहेब और उनके बाद मान्यवर साहेब ने हमेशा कांग्रेस के षड्यंत्रों को करारा जवाब दिया है।

साथियों देश खतरनाक राजनीतिक दौर से गुजर रहा है। इस वक्त जो अपनी विचारधारा और अपने गुरुओं के बताए रास्ते पर टिका रहा वही अपने समाज का भला करेगा। बहुजन मूवमेंट के खिलाफ साजिश कर रहें हैं। जिसे लेकर हमें सतर्क रहना होगा। परम आदरणीय बहन जी ने भी कल ही कहा है, “राजनीतिक व चुनावी स्वार्थ के लिए कांग्रेस ’जय बापू, जय भीम, जय मण्डल, जय संविधान’ आदि के नाम पर चाहे जितने भी कार्यक्रम क्यों न कर ले, बाबा साहेब के अनुयाई इनके किसी बहकावे में आने वाले नहीं हैं।”

मान्यवर कांशीराम साहेब ने नौकरी छोड़कर शहर शहर घूमकर सामाजिक परिवर्तन की जो अलख जगाई है उसे भूला पाना नामुमकिन है। परम आदरणीय बहन जी के नेतृत्व में सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति के बसपा का शासनकाल ख़ुद में शासन प्रशासन और अनुशासन की मिसाल है। हमें दुश्मनों की साजिश का शिकार नहीं होना बल्कि संगठित होकर बहुजनों के आत्म-सम्मान एवं स्वाभिमान के मानवतावादी संघर्ष को आगे बढ़ना है।


बहुजन समाज पार्टी के नेशनल को-आर्डिनेटर आकाश आनंद के यह विचार उनके एक्स पोस्ट से लिये गए हैं। 

राहुल गांधी का सामाजिक न्याय

प्रयागराज के महाकुंभ यात्रा में हो रहे हृदय विदारक हादसों तथा हथकड़िया और बेडि़यां पहने अवैध भारतीयों का अमेरिका से निर्वासन जैसी खबरों के मध्य कांग्रेस से संगठन में हो रहा क्रांतिकारी बदलाव भी इस समय चर्चा का विषय बना हुआ है। भाजपा की भांति ही सवर्णों की पार्टी कही जाने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के सांगठनिक ढाँचे में जिस तरह सामाजिक अन्याय की शिकार जातियों के नेताओं को फिट किया जा रहा है, उससे राजनीतिक विश्लेषक हैरान व परेशान हैं। सांगठनिक बदलाव करते हुए कांग्रेस पार्टी ने 14 फरवरी को संगठन के भीतर जिन 11 लोगों की नियुक्ति की है उसमें चार ओबीसी, दो दलित, एक आदिवासी और एक अल्प संख्यक समुदाय से है। जबकि तीन अपर कास्ट के लोग हैं, जिनमें रजनी पाटिल , मीनाक्षी नटराजन और कॄष्ण अल्लावरु का नाम है। भूपेश बघेल, गिरिश चोड़नकर, हरीश चौधरी और अजय कुमार लल्लू ओबीसी समाज से जबकि,  बीके हरि प्रसाद और के. राजू दलित और सप्तगिरि आदिवासी समाज से हैं। अल्पसंख्यक समुदाय से सैयद नसीर हुसैन को शामिल किया गया है।

 इन ग्यारह में 2 राज्यों के महासचिव, जबकि 9 विभिन्न राज्यों के प्रभारी बने हैं। इससे  पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने पूर्व केंद्रीय मंत्री और दलित समुदाय से आने वाले भक्त चरन दास को ओडिशा का और ओबीसी समुदाय के कम चर्चित चेहरे हर्षवर्द्धन सकपाल को महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमिटी का अध्यक्ष नियुक्त कर चौकाया था।

कांग्रेस के सांगठनिक ढाँचे में सामाजिक न्याय की अभिव्यक्ति

बहरहाल विस्मयकर होने के बावजूद यह बद्लाव प्रत्याशित था। राहुल गांधी जिस शिद्दत से पिछले साल- डेढ़ साल से संविधान, सामाजिक न्याय, जाति जनगणना, आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा खत्म करने, जितनी आबादी- उतना हक की बात उठा रहे थे, उससे लोगों को लगता रहा कि देर- सवेर पार्टी के सांगठनिक ढाँचे में भी इसका प्रतिबिम्बन हो सकता है, जो देर से ही सही पर, होता दिख रहा है। अब इस बहुचर्चित बदलाव को तमाम राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस के सांगठनिक ढाँचे में सामाजिक न्याय की अभिव्यक्ति के रुप में देख रख रहे हैं। दरअसल जो बदलाव दिख रहा है, उसकी जड़ें फरवरी 2023 में रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85वें अधिवेशन में निहित हैं। उसी अधिवेशन में कांग्रेस ने अपना सवर्णवादी चेहरा बदलने का उपक्रम चलाया था।

 लोकसभा चुनाव 2024 की पृष्ठभूमि में 24 से 26 फरवरी तक आयोजित रायपुर अधिवेशन में पहली बार कांग्रेस ने सामाजिक न्याय का पिटारा खोलकर दुनियां को चौकाया था। उसमें सामाजिक न्याय से जुड़े हुए ऐसे कई क्रांतिकारी प्रस्ताव पास हुए थे, जिनकी प्रत्याशा सामाजिक न्यायवादी दलों तक से नहीं की जा सकती। आज राहुल गांधी अगर सामाजिक न्याय का मुद्दा उठाने में सबको पीछे छोड़ दिए हैं, तो उसकी जमीन रायपुर अधिवेशन में ही तैयार हुई  थी। वहाँ सामाजिक न्याय से जुड़े प्रस्तावों का ही विस्तार राहुल गांधी के आज के संबोधनों में दिख रहा है। बहरहाल रायपुर में सामाजिक न्याय से जुड़े जो विविध प्रस्ताव पास हुए थे, उनमें से एक यह था कि कांग्रेस पार्टी ब्लॉक, जिला, राज्य से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर वर्किंग कमेटी में 50 प्रतिशत स्थान दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक समुदाय और महिलाओं के लिये सुनिश्चित करेगी। लोग तभी से उम्मीद करने लगे थे कि कांग्रेस संगठन में जल्द ही दलित बहुजन चेहरों की पर्यप्त झलक दिखनी शुरु हो जायेगी।

इस बीच रायपुर से निकले सामाजिक न्याय के प्रस्ताव को राहुल गांधी नई- नई ऊँचाई दिए जा रहे थे, पर संगठन की शक्ल ज्यों की त्यों रही, जिससे लोगों में बेचैनी व निराशा बढ़ती जा रही थी। इस बात का इल्म राहुल गांधी को भी हो चला था। ऐसे में मौका माहौल देखकर उन्होंने संगठन में छोटे- मोटे बद्लाव नहीं, एक क्रांतिकारी परिवर्तन की घोषणा कर दी, जिसके लिये दिन चुना 30 जनवरी का। यह दिन महात्मा गांधी के शहादत दिवस का दिन है।

गांधी के शहादत दिवस पर दिल्ली में दलित इंफ्लूएंसरों को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि हमने दलितों, पिछड़ों, अति पिछड़ों का विश्वास बरकरार रखा होता तो आरएसएस कभी सत्ता में नहीं आ पाता… इंदिरा जी के समय पूरा भरोसा बरकरार था। दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक सब जानते थे कि इंदिरा जी उनके लिए लड़ेंगी। लेकिन 1990 के बाद विश्वास में कमी आई है। इस वास्तविकता को कांग्रेस को स्वीकार करना पड़ेगा। पिछले 10- 15 सालों कांग्रेस ने जिस प्रकार आपके हितों की रक्षा करनी थी, नहीं कर पाई। उन्होंने अपने संबोधन में यह भी याद दिलाया कि मौजूदा ढाँचे में दलित और पिछड़ों की समस्याएं हल नहीं होने वाली हैं, क्योंकि बीजेपी और आरएसएस ने पूरे सिस्टम को नियंत्रण में ले लिया है। दलित और पिछड़े वर्गों के लिए दूसरी आजादी आने वाली है, जिसमें सिर्फ राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए नही लड़ना है, बल्कि संस्थाओं और कार्पोरेट जगत में हिस्सेदारी लेनी होगी। अंत में उन्होंने कहा था कि हम अपनी पार्टी में आंतरिक क्रांति लाएंगे जिससे संगठन में दलित, पिछड़ों और वंचितों को शामिल किया जा सके। राहुल गांधी ने पार्टी में आंतरिक क्रांति लाने की जो घोषणा की थी उसी के परिणामस्वरुप पार्टी संगठन में यह बद्लाव दिखा है। राहुल गांधी की आंतरिक क्रांति की योजना के तहत सिर्फ पार्टी में पहले से शामिल वर्ग के नेताओं को ही संगठन में उचित स्थान नहीं दिया जा रहा है। बल्कि दलित, आदिवासी, पिछड़े और  अल्पसंख्यक समुदाय की प्रतिभाओं को पार्टी में शामिल भी किया जा रहा है, जिसका बड़ा दृष्टांत 28  जनवरी को स्थापित हुआ। उस दिन कांग्रेस के साथ जुड़ीं थीं डॉ जगदीश प्रसाद, फ्रैंक हुजूर, अली अनवर, निशांत आनंद, भगीरथ मांझी जैसी विशिष्ट प्रतिभाएं। इनके कांग्रेस से जुड़ने से देश के वंचितों के बीच बड़ा सन्देश गया, जो जाना ही था।

अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर न्याययोद्धा राहुल गांधी के साथ जाने का निर्णय लेने वाले पद्मश्री डॉक्टर जगदीश प्रसाद को आजाद भारत में पहला दलित स्वास्थ्य महानिदेशक बनने का गौरव प्राप्त है।  डॉक्टर प्रसाद की छवि गरीब – वंचितों के मसीहा की रही है। इसी तरह भगीरथ मांझी मुसहर समाज में जन्मे उस पर्वत पुरुष दशरथ  मंझी की संतान हैं, जिन पर पूरे बिहार के गर्व का अंत नहीं है। लेकिन राहुल गांधी की ‘आंतरिक क्रांति’ की योजना के तहत दलित – पिछड़े समाज के जिन लोगों को कांग्रेस से जोड़ा गया है, उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण नाम है डॉक्टर अनिल जयहिंद यादव का।

राहुल गांधी के मिशन मैन के रुप में राजनीतिक विश्लेषकों और एक्टिविस्टों के मध्य पहचान बनाने वाले डॉ. अनिल जयहिंद यादव नेताजी के करीबी रहे एक फौजी ऑफिसर की ऐसी काबिल संतान हैं, जो वर्षों पहले डॉक्टरी पेशे को छोड़कर सामाजिक न्याय की लड़ाई में कूद गए और मंडल मसीहा बीपी मंडल और शरद यदव जैसे लोगों की निकटता जय करने में सफल रहे। शरद यादव को अपना राजनीतिक गुरु मानने वाले डॉ. जयहिंद कई ऐतिहासिक महत्व की किताबों का लेखन- अनुवाद करने के साथ सामाजिक न्याय की लड़ाई में लगातार सक्रिय रहे और जब मोदी – राज में संविधान पर संकट आया, वह ‘संविधान बचाओ संघर्ष समिति’ के बैनर तले संविधान की रक्षा में मुस्तैद हो गए। बाद में जब उन्होंने राहुल गांधी में सामाजिक न्याय के प्रति अभूतपूर्व समर्पण और संविधान बचाने का संकल्प देखा, वह उनके साथ हो लिए।

सांसद – विधायक बनने की महत्वाकांक्षा से पूरी तरह निर्लिप्त रहने वाले डॉ. जयहिंद ने परदे के पीछे रहकर कांग्रेस के लिए काम करने का मन बनाया। राहुल गांधी ने अगर भारत जोड़ों यात्रा और भारत जोड़ों न्याय यात्रा के जरिए लाखों लोगों से संवाद बनाया तो उनके सामाजिक अन्याय के शिकार तबकों के लेखक- पत्रकार और एक्टिविस्टों से निकटता बनाने का जरिया बने संविधान सम्मेलनों के शिल्पकार डॉ. अनिल जयहिंद। उनके संयोजकत्व में पंचकुला, लखनऊ,  इलाहाबाद, नागपुर, रांची, कोल्हापुर, पटना, दिल्ली इत्यादि में आयोजित संविधान केंद्रित सम्मेलनों ने वंचित वर्गों के इनफ्लुएंसरों को कांग्रेस से जुड़ने में चमत्कार ही घटित कर दिया। उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस की सदस्यता लेने के बाद वह राहुल गांधी की आंतरिक क्रांति को अंजाम तक पहुँचाने में  और बडी़ भूमिका ग्रहण करेंगे।


(लेखक बहुजन डायवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। सम्पर्क : 9654816191)

विवादित टिपप्णी पर बसपा सुप्रीमों ने फटकारा, उदित राज ने दी सफाई

नई दिल्ली। बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष और यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती पर विवादित टिप्पणी देकर फंसे उदित राज ने विवाद बढ़ता देख सफाई दी है। बसपा के नेशनल को-आर्डिनेटर आकाश आनंद द्वारा यूपी पुलिस से उदित राज की गिरफ्तारी की मांग के बाद आकाश आनंद को टैग करते हुए उदित राज ने सफाई का एक लंबा-चौड़ा पोस्ट लिखा है। सोशल मीडिया एक्स पर पूर्व भाजपाई और वर्तमान कांग्रेस नेता ने अपने स्पष्टीकरण में लिखा है कि-

सबसे पहले मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि मेरे बयान को कांग्रेस से न जोड़ा जाए। 16 फ़रवरी को लखनऊ के सहकारिता भवन में प्रथम दलित, ओबीसी, माइनॉरिटीज़ और आदिवासी परिसंघ का सम्मेलन हुआ, जिसकी अध्यक्षता जस्टिस सभाजीत यादव ने की। मैं मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित था। सम्मेलन के बाद कल प्रेस वार्ता किया जिसके कारण गला घोटने की बात का विवाद पैदा हुआ। जस्टिस सभाजीत यादव भी वार्ता में थे।

मायावती जी ने 4 दशक से झूठ, दुष्प्रचार और कांग्रेस को दलित विरोधी बताकर लोगों को भ्रमित किया। डॉ. अंबेडकर को ढाल बनाकर कांग्रेस का गला काटा और सत्ता का सुख लूटा। करोड़ों बहुजन कार्यकर्ताओं ने भूखे, प्यासे रहकर आंदोलन को सृजित किया। इनके चंदे, परिश्रम और बलिदान का गला घोटा। बीएसपी ने कभी RSS के खिलाफ मोर्चा नहीं खोला। आज भी कुछ न कुछ कारण और बहाना बनाकर कांग्रेस को ही निशाना बनाती रहती हैं ताकि दलित जुड़े न। बहुजन आंदोलन का गला काटने वाले को घर बैठाने का समय आ गया है।

 कांग्रेस की उदारता रही कि 4 दशक से अंबेडकर और दलित विरोधी आरोप पर आरोप बीएसपी लगाती रही और ख़ुद खत्म होती रही और बचाव भी नहीं किया गया। सम्मेलन और प्रेस वार्ता दलित, ओबीसी, माइनॉरिटीज और आदिवासी परिसंघ की ओर से आयोजित किया गया। बीजेपी के शह पर फिर से कांग्रेस के ऊपर हमला बोलकर दिखा दिया कि बीएसपी बीजेपी की बी टीम है। कृपया कांग्रेस को इस विवाद में न घसीटें। हम बहुजन आंदोलन बचाने के लिए कटिबद्ध हैं, चाहे जो कुर्बानी देना पड़े।

उदित राज ऐसा व्यक्ति है जो किसी से कभी न झूठ बोला और न कोई बेईमानी किया। सिद्धांत से कभी समझौता नहीं किया और न करूँगा।

हालांकि उदित राज द्वारा की गई टिप्पणी पर आकाश आनंद के जबरदस्त विरोध के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने भी इस मामले में बहुजन समाज को आगाह किया। बिना उदित राज का नाम लिये बहनजी ने कहा,

कुछ दलबदलू अवसरवादी व स्वार्थी दलित लोग अपने आक़ाओं को खुश करने के लिए जो अनर्गल बयानबाजी आदि करते रहते हैं उनसे भी बहुजन समाज को सावधान रहने व उन्हें गंभीरता से नहीं लेने की जरूरत है क्योंकि वे सामाजिक परिवर्तन व आर्थिक मुक्तिमूवमेन्ट से अनभिज्ञ व अपरिचित हैं।

साफ है कि यह विवाद अभी थमता हुआ नहीं दिख रहा है। आकाश आनंद के हमले, बहनजी के बयान और उदित राज की सफाई के बाद अब सबकी नजरें कांग्रेस पर टिकी है। उदित राज के स्पष्टीकरण से यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि उन्हें कांग्रेस पार्टी की ओर से कुछ न कुछ तो कहा ही गया है। लेकिन देखना यह होगा कि कांग्रेस इस मामले में क्या रुख लेती है।