मासिक धर्म होने पर दलित छात्रा को परीक्षा कक्ष से बाहर निकाला

तमिलनाडु। तामिलनाडु के कोयंबरटूर जिले से एक हैरान करने वाली खबर आई है। जिले के सेनगुट्टईपलायम में एक दलित छात्रा को इसलिए कक्षा के बाहर बैठकर परीक्षा देनी पड़ी, क्योंकि उसे पीरियड आ गया था। इस मामले में पीड़ित छात्रा के परिजनों ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। पीड़िता के पिता द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत के मुताबिक,  उनकी दोनों बेटियाँ स्वामी चिद्भवानंद मैट्रिक हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ती हैं। बेटियों की परीक्षा थी। इस दौरान छोटी बेटी को पीरियड आ गया, जिसके बाद उसे बाहर बिठा दिया गया।

इस शिकायत के बाद तमिलनाडु पुलिस ने कोयंबटूर जिले में 10 अप्रैल को स्वामी चिद्भवानंद मैट्रिक हायर सेकेंडरी स्कूल के तीन अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दायर किया। जिन पर मुकदमा दर्ज किया गया है, उनमें निजी मैट्रिकुलेशन स्कूल कॉरेस्पोंडेंट, सहायक कॉरेस्पोंडेंट सह-प्रधानाचार्य और कार्यालय सहायक पर एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के तहत मामला दर्ज किया गया है। मामले के तूल पकड़ने के बाद स्कूल प्रबंधन ने प्रिंसिपल को निलंबित कर दिया है।

लड़की के पिता ने बेटियों के साथ जातिवाद का भी आरोप लगाया है। उनका आऱोप है कि “मेरी पत्नी द्वारा स्कूल प्रशासन से शिकायत करने पर स्कूल के कॉरेस्पोंडेंट ने उससे कहा की दलितों के साथ ऐसा ही व्यवहार होगाl” इसके बाद मां ने कक्षा के बाहर बैठी अपनी बेटी का वीडियो बना लिया। स्कूल शिक्षा मंत्री वी सेंथिल बालाजी ने कहा कि कोयंबटूर ग्रामीण पुलिस दुर्घटना की विस्तृत जांच कर रही है।

जोतीराव फुले: भारतीय पुनर्जागरण के असली पुरोधा

भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधा राजा राममोहन राय, देवेन्द्र नाथ टैगोर, विवेकानंद और दयानंद सरस्वती नहीं, बल्कि जोतिराव फुले, शाहू जी, पेरियार, सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे और पंडिता रमाबाई हैं। भारतीय पुनर्जागरण का केंद्र बंगाल नहीं, महाराष्ट्र है। इस पुनर्जागरण की नींव जोतीराव फुले ने डाली थी।
विश्व भर में पुनर्जागरण के केंद्र में तर्क, विवेक और न्याय पर आधारित प्रबुद्ध समाज का निर्माण रहा है। यूरोप में पुनर्जागरण के पुरोधा लोगों ने सामंती श्रेणीक्रम यानी उंच-नीच की ईश्वर निर्मित व्यवस्था को चुनौती दी। भारत में सामंती श्रेणीक्रम वर्ण-जाति के व्यवस्था के रूप में सामने आई थी। इसी का हिस्सा ब्राह्मणवादी पितृसत्ता थी। वर्ण-जाति और पितृसत्ता की रक्षक विचारधारा को ही फुले और डॉ. आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी विचाधारा कहा। फुले और डॉ. आंबेडकर ने भारतीय सामंतवाद को ब्राह्मणवाद कहा। इस ब्राह्मणवाद को आधुनिक युग में सबसे निर्णायक चुनौती जोतीराव फुले ने दी थी।
राजा राममोहन राय, देवेन्द्र नाथ टैगोर, विवेकान्द और दयानन्द सरस्वती जाति व्यवस्था और ब्रह्मणवादी पिृतसत्ता के कुपरिणामों से चाहे जितना दु:खी रहे हों,चाहे जितना आंसू बहाएं और उसे दूर करने के लिए जो भी उपाय सुझाएं, लेकिन इन लोगों ने वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को खत्म करने कोई आह्वान नहीं किया। जो इस देश में पुनर्जागरण का केंद्रीय कार्यभार था। बिना वर्ण-जाति और पितृसत्ता के खात्में के समता आधारित आधुनिक भारत का निर्माण किया ही नहीं जा सकता है और बिना समता के न्याय की स्थापना संभव नहीं है। न्याय और समता की स्थापना जोतीराव फुले के संघर्ष का केंद्रीय बिंदु था।
बंगाली पुनर्जागरण के पुरोधा लोगों के बरक्स जोतीराव फुले, सावित्री बाई फुले, ताराबाई शिन्दे और डॉ. आंबेडकर ने भारतीय सामंतवाद यानी ब्राह्मणवाद की जड़ वर्ण-जाति और पितृसत्ता को अपने संघर्ष का केंद्र बिन्दु बनाया, लेकिन आधुनिक युग में इसे दुश्मन में सबसे पहले जोतीराव फुले ने चिन्हित किया और उसके खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजाया और भारत के आधुनिकीकरण का रास्ता खोला।
महाराष्ट्र के पुनर्जारण की एक बड़ी बिशेषता यह है कि यहां पुरुषों के साथ तीन महान महिला यथा, सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे और पंडिता रमाबाई भी हैं, जिन्होंने ब्राह्मणवाद यानी सामंतवाद को सीधी चुनौती दी और जीवन के सभी क्षेत्रों में स्त्री-पुरूष समता के लिए संघर्ष किया और साथ में वर्ण-जाति व्यवस्था को भी चुनौती दी।
इस तथ्य की ओर भी ध्यान देने जरूरी है कि बंगाली या हिंदी भाषी समाज के पुनर्जागरण के पुरोधा कहे जाने वाले लोग द्विज जातियों के हैं, जबकि महाराष्ट्र के पुनर्जागरण के पुरोधा शूद्र-अतिशूद्र जातियों के हैं या महिलाएं हैं, जिसके अगुवा जोतीराव फुले थे।
भारतीय इतिहास को देखने का द्विजवादी नजरिया ही प्रभावी रहा है। यह बात आधुनिक इतिहास कें संदर्भ में भी लागू होती है। अकारण नहीं है, पुनर्जारण के असली पुरोधा किनारे लगा दिये गये और ब्राह्मणवाद में ही थोड़ा सुधार चाहने वाले पुनर्जागरण के पुरोधा बन बैठे या उन्हें इतिहासकारों ने बना दिया। जब तक हम भारत के बहुजनों की बहुजन-श्रमण परंपरा के असली पुरोधा जोतीराव फुले के साथ अपने को नहीं जोड़ते, तब तक न्यायपूर्ण भारत के निर्माण के वैचारिक औजार नहीं जुटा सकते।

क्या बौद्ध धर्म पर टिप्पणी कर फंस गए हैं अखिलेश यादव!

हम आपको अपना मानते हैं, तब भी जब आप हमारे ग्रंथों को अपना नहीं मानते। फिर भी हम हिन्दू वो लोग हैं, जो आपको स्वीकार करते हैं और गले लगाकर चलते हैं। वक्फ संशोधन बिल पर चर्चा के दौरान संसद में बौद्ध धर्म पर यह टिप्पणी कर अखिलेश यादव बुरी तरह घिर गए हैं। बौद्ध धर्म को लेकर उनके इस बयान के बाद अंबेडकरवादियों में खासा रोष है।

दरअसल अखिलेश यादव वक्फ संशोधन बिल पर चर्चा करने उठे तो अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू की ओर मुखातिब हो गई। किरण रिजिजू बुद्धिस्ट हैं। ऐसे में अखिलेश यादव उनकी धार्मिक पहचान से जोड़ते हुए बौद्ध धर्म पर सवाल उठाने लगे। कहने लगे कि आप हमारे वेदों और पुराणों को नहीं मानते, फिर भी हम आपको गले लगाते हैं।

पीडीए का ढिंढोरा पीटने वाले अखिलेश यादव ने जिन शब्दों का प्रयोग किया, उनके भीतर का कट्टर हिन्दू सामने आ गया। लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या मुस्लिम समाज हिन्दू धर्म ग्रंथों और पुराणों को मानता है? क्या क्रिश्चियन और अन्य धर्मों के लोग हिन्दू धर्म ग्रंथों को मानते हैं? या फिर क्या हिन्दू समाज के लोग मुस्लिमों के धार्मिक ग्रंथों को मानते हैं? जवाब है नहीं।

भारत में हर धर्म के अपने ग्रंथ हैं और उस धर्म के लोग उन्हीं ग्रंथों को मानते हैं। ऐसे में अखिलेश यादव भगवान बुद्ध और बौद्ध धर्म पर टिप्पणी कर आखिर क्या साबित करना चाहते हैं?

अखिलेश यादव फिलहाल पीडीए की राजनीति कर रहे हैं, पीडीए यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक। बीते दिनों में तमाम दलित नेताओं ने अखिलेश यादव की पार्टी को ज्वाइन भी किया। तो लोकसभा चुनाव में उनको दलितों का समर्थन भी मिला। वो दलित समाज जो बाबासाहेब आंबेडकर और तथागत बुद्ध को मानता है। उसी बुद्ध और बौद्ध धर्म पर टिप्पणी करना आने वाले दिनों में अखिलेश यादव को भारी पर सकता है।

बीएचयू में दलित प्रोफेसर को जाति के कारण नहीं बनाया जा रहा है विभागाध्यक्ष, जानिये पूरा मामला

वाराणसी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पीएचडी में दाखिले को लेकर शिवम सोनकर अभी धरने पर बैठे ही थे कि विश्वविद्यालय में जातिवाद का नया मामला सामने आ गया है। खबर है कि दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले सीनियर प्रोफेसर को अंगूठा दिखाते हुए उनसे दो साल जूनियर ब्राह्मण जाति के प्रोफेसर को विभाग का अध्यक्ष बना दिया गया है। इसके बाद दलित समाज के प्रोफेसर के समर्थन में छात्रों ने प्रदर्शन शुरू कर दिया है।

महेश अहिरवार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में प्रोफेसर हैं। विभागाध्यक्ष का पद खाली हुआ तो विश्वविद्यालय द्वारा ही बनाए नियम 25 (4) के अनुसार वरिष्ठता के हिसाब से प्रोफेसर महेश अहिरवार को विभाग का अध्यक्ष चुना जाना चाहिए था। लेकिन युनिवर्सिटी ने अपने ही बनाए नियमों को धत्ता बताते हुए उनसे दो साल जूनियर ब्राह्मण जाति के प्रोफेसर को विभाग का अध्यक्ष बनाने की कोशिश शुरू कर दी। इससे विश्वविद्यालय में हंगामा शुरू हो गया।

प्रोफेसर महेश अहिरवार और विभाग के तमाम छात्र विश्वविद्यालय प्रशासन पर जातिवाद का आरोप लगा रहें हैं तो दूसरी ओर विश्वविद्यालय आंखें मूंदे है। बता दें कि यह तब है जब प्रोफेसर अहिरवार बीएचयू में 29 साल की सेवा कर चुके हैं।

इस घटना को लेकर बीएचयू में पढ़ने वाले बहुजन छात्रों के संगठन ने बीएचयू प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। ओबीसी, एससी, एसटी, अल्पसंख्यक संघर्ष समिति ने एक पत्र लिखकर प्रोफेसर सोनकर के साथ जातिवाद का आरोप लगाते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन पर सवाल उठाया है। अपनी पत्र में संगठन ने विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि-

बीएचयू के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में विश्वविद्यालय के नियम [Statute 25 (4) (2)] के अनुसार वरिष्ठता क्रम में विभागाध्यक्ष के रूप में प्रोफेसर महेश प्रसाद अहिरवार की नियुक्ति किया जाना था किंतु अनुसूचित जाति समुदाय का होने के कारण उन्हें विभागाध्यक्ष के पद पर नियुक्ति से वंचित कर दिया गया।

प्रो अहिरवार की शिक्षक के रूप में 29 साल की सेवा और प्रोफेसर के पद पर 14 साल गुजारने के बावजूद उन्हें उनके विधिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। यह पूरा षड्यंत्र रजिस्टर महोदय अपनी सीनियारिटी बढ़ाने के चक्कर में कर रहे हैं ताकि वह रजिस्टर पद से हटने के बाद महिला महाविद्यालय का प्रिंसिपल बन सकें जबकि सीनियर प्रोफेसर के रूप में उनकी नियुक्ति खुद अधर में लटकी है तथा विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी द्वारा अभी तक अनुमोदन नहीं है। यह पूरी तरह स्पष्ट है कि रजिस्ट्रार महोदय द्वारा अपनी तथाकथित सीनियर प्रोफेसर की सीनियरिटी बढ़ाने तथा अपने गिने-चुने घनिष्ठ मित्रों को इसका अनुचित लाभ दिलाने के लिए सुनियोजित योजना बनाई गई है और प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में विभागाध्यक्ष की नियुक्ति को विवादित बनाया गया है। यह रजिस्ट्रार की कुत्सित और घोर जातिवादी मानसिकता का परिचायक है। इस साजिश का पता चलने पर प्रो. महेश प्रसाद अहिरवार ने जब रेक्टर महोदय के यहां अपनी लिखित आपत्ति दर्ज कराई तो कला संकाय प्रमुख को आगामी आदेश तक के लिए विभागाध्यक्ष बना दिया गया जो पूरी तरह नियमों की अनदेखी है क्योंकि विश्वविद्यालय के नियम (Statute) 25(4) 2 में रोटेशन के आधार पर (बारी-बारी से) वरिष्ठता के क्रम में प्रोफेसर्स को विभागाध्यक्ष बनाने का प्रावधान है न कि संकाय प्रमुख को। इसी तरह की अनियमिताओं और नियम कानूनों की अवहेलना के कारण पिछले तीन सालों में 400 से अधिक मुकदमे विश्वविद्यालय के खिलाफ हाईकोर्ट में दर्ज किए गए हैं जिसमें विश्वविद्यालय प्रशासन मात्र एक साल में ही जनता की गाढ़ी कमाई का एक करोड रुपए से अधिक खर्च कर रहा है। अतः हम विश्वविद्यालय प्रशासन से हमारी मांग है कि प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में विभाग अध्यक्ष की नियुक्ति विश्वविद्यालय के नियम(Statue) 25(4)2 का अनुपालन करते हुए प्रोफेसर महेश प्रसाद अहिरवार की नियुक्ति विभाग अध्यक्ष के रूप में की जाए ठीक उसी तरह जिस प्रकार दर्शनशास्त्र विभाग, शारीरिक शिक्षा विभाग, पाली विभाग तथा विश्वविद्यालय के अन्य विभागों में विभाग अध्यक्षों की नियुक्ति हाल के दिनों में की गई है।

रिजर्व बैंक की स्थापना और अर्थशास्त्री डॉ. आंबेडकर का योगदान

आज एक अप्रैल है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का स्थापना दिवस। वह रिजर्व बैंक जिसकी स्थापना में बाबासाहेब डॉ. आंबडेकर की अहम भूमिका थी। जी हां, बाबासाहेब आंबेडकर ने न सिर्फ भारतीय संविधान को बनाने में अहम भूमिका निभाई, बल्कि रिजर्व बैंक की स्थापना में उनका बेहद अहम योगदान था। डॉ. आंबेडकर ने हिल्टन यंग कमिशन को जो सुझाव दिया था, उसी के आधार पर ही 1 अप्रैल सन् 1935 को रिजर्व बैंक की स्थापना हुई थी।

बाबासाहेब आंबेडकर एक शानदार स्कॉलर थे। उन्होंने 1923 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से अर्थशास्त्र में पीएचडी की थी। उनकी थीसिस का विषय था- The Problem of the Rupee: Its Origin and its Solution.डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखित यह ग्रंथ भारतीय आर्थिक इतिहास और मुद्रा नीति पर केंद्रित है। ऐसे में जब रिजर्व बैंक की स्थापना की बात चली तो हिल्टन यंग कमिशन को इससे काफी मदद मिली। हिल्टन यंग कमीशन को ‘रॉयल कमीशन ऑन इंडियन करेंसी एंड फाइनेंस’ भी कहा जाता है। जब भारत में इस कमीशन को लेकर काम शुरू हुआ, तब कमीशन के सभी सदस्यों के हाथ में बाबासाहेब आंबेडकर की किताब ‘The Problem of the Rupee – Its origin and its Solution’ यानी भारतीय रुपये की समस्या – इसकी उत्पति व समाधान।

कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर 1934 में आरबीआई एक्ट को केंद्रीय विधान सभा में पास किया गया। आरबीआई एक्ट में केंद्रीय बैंक की जरूरत, वर्किंग स्टाइल और उसके आउटलुक को अंबेडकर के उसी कॉन्सेप्ट के आधार पर तैयार किया गया था, जो उन्होंने हिल्टन यंग कमीशन के सामने पेश किया था।

हालांकि, यह अजीब है कि रिजर्व बैंक के गठन में बाबा साहेब के अंबेडकर के योगदान को लेकर कोई आधिकारिक साक्ष्य नहीं है। आरबीआई की आधिकारिक वेबसाइट पर हिल्टन यंग कमीशन का जिक्र है, लेकिन अंबेडकर के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली। हालांकि, कुछ किताबों में इसक जिक्र मिलता है। नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने उन्हें- ’फादर ऑफ माय इकॉनमिक्स’ कहकर सम्मान दिया था।

अमेरिका में बोधगया महाविहार मुक्ति के आंदोलन को समर्थन देने सड़क पर उतरे बुद्धिस्ट

बोधगया के महाबोधि महाविहार की मुक्ति के आंदोलन को समर्थन देने के लिए अमेरिका में बुद्धिस्ट समाज के लोग सड़क पर उतरे। इस प्रदर्शन में भारत सहित बांग्लादेश, श्रीलंका, कंबोडिया और थाईलैंड के भी बुद्धिस्ट भी शामिल हुए।बोधगया महाविहार मुक्ति का आंदोलन भारत से होते हुए अब दुनिया के तमाम देशों में पहुंच चुका है। दुनिया के तमाम हिस्सों में मौजूद अंबेडकरवादी और बौद्ध समाज के लोगों ने भारत में चल रहे इस आंदोलन को अपना समर्थन दिया है। बीते दिनों अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में सैकड़ों की संख्या में लोग इस मुद्दे को समर्थन देने सड़क पर उतरे।

इस प्रदर्शन में अमेरिका के विभिन्न शहरों में रहने वाले अंबेडकरवादी और बौद्ध समाज के लोग पहुंचे। उनकी मांग थी कि बोधगया महाविहार को बौद्ध समाज को सौंपा जाए। इस प्रदर्शन में न सिर्फ भारत बल्कि श्रीलंका, बांग्लादेश, थाईलैंड और कंबोडिया जैसे देशों के बुद्धिस्ट भी पहुंचे थे।

दरअसल बिहार की राजधानी पटना से 120 किलोमीटर दूर गया ज़िले के बोधगया शहर में बीते 12 फरवरी से बौद्ध भिक्खु धरने पर हैं। उनकी मांग है कि बोधगया के महाबोधि महाविहार को पूरी तरह से बौद्ध समाज को सौंपा जाए और बीटी एक्ट यानी बोधगया टेंपल एक्ट, 1949 को ख़त्म किया जाए।

 बता दें कि बोधगया वह स्थान है जहां तथागत बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। दुनिया भर के बौद्ध समाज के लिए यह स्थान तथागत बुद्ध के जीवन से जुड़े चार प्रमुख स्थानों में एक है। लेकिन यहां कि व्यवस्था में ब्राह्मण समाज का खासा हस्तक्षेप है, जिससे इस महाविहार की हिन्दूकरण होने लगा है। इसको लेकर बौद्ध समाज के लोग नाराज हैं और इस महाविहार के प्रबंधन से ब्राह्मण पुजारियों को हटाकर मैनेजमेंट को पूरी तरह से बौद्ध समाज को सौंपने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं।

हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे, तू मुझे अच्छी लगती है.. दलित बेटी पर मुस्लिमों का कहर

हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे, तू मुझे अच्छी लगती है… यह मुजफ्फरनगर के मोहम्मद मोनिस और आरिश के शब्द हैं जिन्होंने नाबालिग दलित लड़की से छेड़छाड़ की और उसके Private Parts को छुआ। जब बच्ची के पिता ने इसका विरोध किया, तो मुस्लिम समुदाय के एक दर्जन गुंडों ने लाठी, चाकुओं और अन्य हथियारों से उसके परिवार पर हमला कर दिया। मासूम बच्ची अपने घर के बाहर खेल रही थी, तभी मोनिस ने उसे पीछे से पकड़ लिया और बदनीयती से उसके छेड़छाड़ करते हुए गलत तरीके से छूने लगा। लड़की ने विरोध किया और किसी तरह अपनी जान बचाकर भाग निकली। उसने पूरी घटना अपने पिता को बताई। जब उसने और उसके पिता ने मोहम्मद मोनिश का विरोध किया, तो 10-12 मुस्लिम लोगों के एक समूह ने “खटीकड़” जैसे जातिसूचक गालियां देते हुए चाकू, लाठियों और अन्य हथियारों से लैस होकर उन पर हमला कर दिया, उनके घर पर पथराव किया। भयानक! यही नहीं, पीड़िता के पिता ने शिकायत से भड़के आरोपियों के साथियों ने पीड़ित परिवार पर गर्म तेल उड़ेल दिया। इस भयावह मामले में दर्ज एफआईआर घटना को बताने के लिए काफी है। नोट- घटना कब की है, दलित दस्तक को इसकी तारीख पता नहीं चल पाई है, लेकिन एफआईआर 20 मार्च को दर्ज हुई है। आप खुद पढ़िये- उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर में दलित बच्ची के साथ छेड़छाड़ का विरोध करने पर मुस्लिमों द्वारा पीड़ित परिवार पर हमले के मामले में दर्ज एफआईआर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर में दलित बच्ची के साथ छेड़छाड़ का विरोध करने पर मुस्लिमों द्वारा पीड़ित परिवार पर हमले के मामले में दर्ज एफआईआर में आरोपियों के नाम सूरज कुमार बौद्ध के

आदिवासियों में गरीबी का आलम, दादी ने पोते को दो सौ रुपये में बेचा

सांकेतिक तस्वीरओडिशा के आदिवासी बहुल मयूरभंज जिले में भूखमरी के कारण एक दादी को अपने पोते को मात्र 200 रुपये में बेच दिया। पोते की उम्र सात साल है। यह सिर्फ़ एक घटना नहीं, बल्कि इस देश की असलियत है। यह कोई पहली घटना नहीं है। 2023 में इसी जिले में एक माँ ने 800 रुपये में अपने नवजात शिशु को बेचा था। लेकिन क्या इस देश की सरकारों को इससे कोई फर्क पड़ता है?

मोदी सरकार ‘विश्वगुरु’ बनने का दावा करती है, लेकिन हकीकत यह है कि हम भुखमरी और गरीबी में फिसलते जा रहे हैं। अगर यह ‘अमृतकाल’ है, तो फिर ‘काल’ कैसा होगा? मोदी सरकार और बीजेपी की राज्य सरकारें आदिवासियों को केवल वोट बैंक और प्रचार सामग्री के रूप में देखती हैं। जब चुनाव आते हैं, तब ‘आदिवासी राष्ट्रपति’, ‘आदिवासी मुख्यमंत्री’, और ‘आदिवासी गौरव दिवस’ जैसे तमाशे किए जाते हैं, लेकिन जब आदिवासी भूख से मरते हैं, अपने बच्चों को बेचने पर मजबूर होते हैं, तब सरकार और संघ के ठेकेदार पूरी तरह चुप्पी साध लेते हैं। यही असली चेहरा है इस सरकार का, जहाँ एक ओर भव्य महाकुंभ, मंदिर, और कॉर्पोरेट महोत्सवों पर खरबों रुपये उड़ाए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर भारत के असली मालिक, आदिवासी समाज, भूख और गरीबी में दम तोड़ रहे हैं।

 

बीजेपी और मोदी सरकार सिर्फ़ पोस्टरबाज़ी में व्यस्त है, ‘सबका साथ, सबका विकास’ का झूठा नारा लगाकर सिर्फ़ अपने पूंजीपति मित्रों को फायदा पहुँचाने में लगी है। आदिवासी इलाकों में राशन की किल्लत, बेरोज़गारी और विस्थापन चरम पर है। क्या यही ‘अमृतकाल’ है? क्या यही ‘नया भारत’ है, जहाँ गरीबों के बच्चे बिक रहे हैं और सरकारें अपने जुमलों में मस्त हैं? अगर इस देश में सरकारों में ज़रा भी इंसानियत बची है, तो आदिवासियों के लिए भूखमरी और विस्थापन खत्म करने की ठोस योजना लागू की जाए। अब भाषण नहीं, जवाब चाहिए, न्याय चाहिए!

दलित समाज के प्रोफेसर विवेक कुमार को मिली दुनिया में ख्याति

नई दिल्ली। भारत के श्रेष्ठ संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सोशल साइंस विभाग में प्रोफेसर, डॉ. विवेक कुमार ने देश का नाम विश्व पटल पर रौशन कर दिया है। समाज विज्ञानियों और वैज्ञानिकों की AD वर्ल्ड रैंकिंग द्वारा वर्तमान वर्ष 2025 की वर्ल्ड रैंकिंग में प्रोफेसर विवेक कुमार को जेएनयू में नंबर वन समाज विज्ञानी माना गया है। जबकि इस रैंकिंग में प्रोफेसर विवेक भारत में 11वें और एशिया में 134वें स्थान पर हैं। उनकी इस उपलब्धि को लेकर देश के तमाम विश्वविद्यालयों में मौजूद उनके विद्यार्थियों ने उन्हें बधाई दी है।

दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले प्रोफेसर विवेक कुमार की इस उपलब्धि पर दलित समाज के भीतर भी काफी गर्व और खुशी की लहर है। प्रो. विवेक कुमार एक विश्व विख्यात प्रोफेसर हैं और अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय सहित जर्मनी, कनाडा, श्रीलंका के विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर रह चुके हैं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ के लालबाग निवासी प्रोफेसर कुमार जेएनयू में सोशल साइंस विभाग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं।

 

प्रो. कुमार की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने जिस जेएनयू से सोशल साइंस विभाग में पढ़ाई की, उसके प्रोफेसर और विभाग के अध्यक्ष भी बने। अपनी इस उपलब्धि पर उनका कहना है कि मेरी यह उपलब्धि यह प्रमाणित करती है कि रिज़र्वेशन वालों के पास भी देश का नाम रौशन करने हेतु मेरिट होती है।

फ्रैंक हुजुर का दुनिया से जाना

नई सदी में हाशिये के समाज में जन्मे किसी लेखक के आकस्मिक तौर पर निधन से बहुसंख्य वंचित वर्गों के बुद्धिजीवी और एक्टिविस्टों को 6 मार्च, 2025 जैसा आघात कब लगा था, मुझे याद नहीं! उस दिन सुबह अपार प्रतिभा और अतुलनीय मेधा के स्वामी फ्रैंक हुजूर के निधन की अविश्वसनीय व हतप्रभ कर देने वाली खबर सुनकर लोगों में जो शोक की लहर दौड़ी, वह शायद इससे पहले नहीं देखी गई, कम से कम हिंदी पट्टी में तो नहीं ही। शोक की ऐसी लहर 2014 में विश्व कवि नामदेव ढसाल के निधनोपरांत महाराष्ट्र में देखी गई थी, तब उनकी शव- यात्रा में शोक व्हिवल 60 हजार से अधिक लोग शामिल हुए थे। 6 मार्च की सुबह 9 बजे से सोशल मीडिया पर फ्रैंक हुजूर की हृदयाघात से निधन की खबर वायरल होने के साथ उनके लिए फेसबुक और ट्विटर पर श्रद्धांजलि का सैलाब उमड़ पड़ा। सामाजिक न्याय और समाजवादी विचारधारा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले फ्रैंक हुजुर के निधन से भारत में विविधता और समावेशन मिशन के लिए अपूरणीय क्षति हुई है, ऐसा अधिकांश लोगों ने लिखा।

ब्रिटिश शैली का सूट, बाएं हाथ में सिगार और दाहिने हाथ में कलम लिए उनकी जो एक युगांतकारी विचारक की छवि निर्मित हुई थी, लोग उसे याद कर रहे थे। उनके चाहने वाले याद कर रहे थे उनकी अद्वितीय लाइफ स्टाइल, मैनरिज्म , सलीके से उठने- बैठने, चलने और मेहमाननवाजी के लखनवी अंदाज के साथ सोशलिस्ट फैक्टर मैगजीन के जरिये बेशुमार युवाओं को समाजवादी पार्टी से जोड़ने और आगे बढ़ाने के अवदानों को। हर कोई यह बताने में होड़ लगा रहा था कि जोश, गतिशीलता और जिन्दादिली से लबरेज अद्वितीय पत्रकार, लेखक, नाटककार और पॉलिटिकल एक्टिविस्ट फ्रैंक का जीवन सोशल जस्टिस और सेकुलरिज्म के लिए समर्पित था। ह्रदय की अतल गहराइयों से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके चाहने वाले उनकी अभिनेत्री पत्नी फर्मिना मुक्ता सिंह और बेटे मार्कोस के भविष्य को लेकर भी चिंता जाहिर कर रहे थे। उनमें हेमिंग्वे, रुश्दी, नायपॉल बनने की संभावना देखने वाले इस बात से नाराज दिखे कि क्यों वह लन्दन छोड़कर इंडिया आ गए और समाजवादी पार्टी पर निर्भर हो गए। उन्हें लन्दन या न्यूयार्क में ही बैठकर लेखन करते रहना चाहिए था।

फ्रैंक हुजूर की प्रोफाइल बायोग्राफी फ्रैंक हुजूर का जन्म 21 सितंबर 1977 को बिहार के बक्सर में हुआ था, जो लेखकों और विचारकों की भूमि के रूप में जाना जाता है। 1980 के दशक की शुरुआत में, जब वह केवल छह महीने के थे, उनकी माँ का निधन हो गया। इसके बाद उनका पालन-पोषण उनके पिता बब्बन सिंह ने किया, जो एक सिविल सर्वेंट (डीएसपी) थे। 1990 के दशक में उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेज से पूरी की और फिर उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली चले गए, जहाँ उन्होंने भारत के प्रतिष्ठित हिंदू कॉलेज में दाखिला लिया। पढ़ाई के दौरान उन्होंने 1990 के दशक के मध्य में ‘हिटलर इन लव विद मैडोना’ नामक एक नाटक लिखा, जो जल्द ही भारत में एक विवादास्पद विषय बन गया। इस नाटक में कट्टर हिंदुत्व की आलोचना और भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न उठाए गए थे, जिसके कारण गृह मंत्रालय ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया! यही उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इस नाटक के कारण उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा और उन्हें गुमनामी में जाना पड़ा। उनकी पत्रिका ‘यूटोपिया’ भी केवल 13 अंकों के बाद बंद हो गई। इस विवाद के बाद, मई 2002 में उन्होंने ‘ब्लड इज़ बर्निंग’ नामक एक और प्रगतिशील नाटक लिखा, जो 2002 के गुजरात दंगों पर आधारित था, लेकिन इसे प्रकाशित नहीं किया गया। कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी के साथ फ्रैंक हुजूरफ्रैंक हुज़ूर ने 2 जुलाई 2002 को आधिकारिक रूप से अपना कलमी नाम ‘फ्रैंक हुज़ूर’ अपना लिया। उन्होंने कहा था, ‘लोग कहते हैं कि मेरी माँ, जिनका निधन तब हो गया था जब मैं छह महीने का था, मुझे हुज़ूर कहकर पुकारती थीं।’ ‘ब्लड इज़ बर्निंग’ नाटक उनके व्यक्तिगत जीवन में भी महत्वपूर्ण साबित हुआ। इस नाटक के निर्माण के दौरान उन्होंने निर्देशक मुक्ता सिंह के साथ काम किया। उनका पेशेवर सहयोग धीरे-धीरे व्यक्तिगत संबंध में बदल गया, लेकिन उनकी शादी जातिगत भेदभाव के कारण विवादों में आ गई। अंततः 9 जुलाई 2002 को उन्होंने सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देते हुए मुक्ता सिंह से प्रेम विवाह किया। विवाह के बाद वे प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार राजेंद्र यादव के पास गए, जिन्होंने उन्हें समर्थन दिया। इस कारण वे हर साल 9 जुलाई को अपनी शादी की वर्षगांठ मनाते थे।

2004-08: इस दौरान उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य में सक्रियता से काम किया। उन्होंने ‘इमरान वर्सेज इमरान: द अनटोल्ड स्टोरी’ नामक एक जीवनी लिखी, जो पाकिस्तानी क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान के जीवन पर आधारित थी’।

2008-12: इस दौरान वे लंदन चले गए और वहाँ के साहित्यिक और कलात्मक परिवेश से जुड़े। लंदन में उन्होंने अपने संस्मरण ‘सोहो’ पर काम किया, जिसमें उनकी वहां की जीवनशैली और अनुभव शामिल हैं। इसी दौरान उन्होंने समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव से मुलाकात की, जिनके साथ उनकी मित्रता हो गई। अखिलेश यादव ने उनकी राजनीतिक क्षमता को पहचानते हुए उन्हें भारत वापस बुलाया।

2014-19: भारत लौटने के बाद, उन्होंने ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ नामक एक मासिक पत्रिका शुरू की, जो समाजवादी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए समर्पित थी। उन्होंने मुलायम सिंह यादव की जीवनी ‘द सोशलिस्ट: मुलायम सिंह यादव’ और अखिलेश यादव की जीवनी ‘टीपू स्टोरी’ लिखी। अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में उन्हें लखनऊ में एक बंगला आवंटित किया गया, जिसे उन्होंने सोशलिस्ट फैक्टर का कार्यालय बना दिया। वहाँ उन्होंने 50 से अधिक बिल्लियों को आश्रय दिया और उन्हें समाजवादी दर्शन का प्रतीक माना। उनकी सबसे प्रिय बिल्ली बोका (अर्जेंटीना के प्रसिद्ध फुटबॉल क्लब बोका जूनियर्स के नाम पर) थी, जिसे वह ‘दिव्य समाजवादी बिल्ली’ कहते थे। बोका की मृत्यु के बाद, उन्होंने उसके लिए एक स्मारक भी बनवाया। 2019 में, जब अखिलेश यादव की सरकार खत्म हुई, तो उन्हें लखनऊ का बंगला खाली करने के लिए मजबूर किया गया। इसके लम्बे अंतराल बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े और राहुल गांधी के साथ सामाजिक न्याय और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों पर काम करने लगे. उन्होंने हमेशा सत्ता को चुनौती दी, समाज में बदलाव लाने का प्रयास किया, और अपने विचारों से कभी समझौता नहीं किया। फ्रैंक हुज़ूर केवल एक लेखक या राजनीतिक विचारक नहीं थे, वे एक साहसी व्यक्ति थे, जिन्होंने हमेशा सवाल उठाए, सत्ता को चुनौती दी और सच्चाई की खोज में लगे रहे!’

फ्रैंक की मौत : राजनीतिक आइसोलेशन से उपजी एंजाइटी का नतीजा बहरहाल फ्रैंक हुजूर के निधन की खबर वायरल होने के बाद सोशल मीडिया पर कलेजे को चीर कर रख देने वाली श्रद्धांजलियों का सैलाब ही नहीं आया। सैलाब उनकी असामयिक मौत को लेकर उठे सवालों का भी आया। उनके चाहने वाले हैरान और परेशान थे कि कैसे 48 साल का एक गबरू जवान मौत के आगोश में चला गया? जवाब जो सामने आया, वह था राजनीतिक नेतृत्व द्वारा घोरतर उपेक्षा! इसे देखते हुए ढेरों लोगों ने लिखा कि फ्रैंक की मौत उन युवाओं के लिए सबक है, जो किसी दल के पीछे अपना भविष्य दांव पर लगा देते हैं। उनके बहुत करीबी रहे मयंक यादव ने लिखा,’ फ्रैंक भाई चल बसे। साथ ही जिनके लिए जीवन खपा दिए, उनकी मानवता भी चल बसी। जाना तो दूर दो शब्द नहीं बयां हो सके। इसलिए जो नए – नए लड़के नेताओं के आगे पीछे की दुनिया को ही अंतिम मानते हैं, उन्हें बता सकूं कि सही में आपका अंत वहीं हो जाता है।’ उनके एक और करीबी अरुण नारायण ने लिखा, ‘समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ फ्रैंक ने जिस मिशन के साथ काम किया, इन पार्टियों के दोनों क्षत्रप- उनकी मौत पर जिस तरह की चुप्पी साधे नजर आये, यह फ्रैंक की मौत से भी ज्यादा भयावह है। (हालांकि राहुल गांधी ने देर से ही सही फ्रैंक की पत्नी को पत्र लिखा और फ्रैंक हुजूर को श्रद्धांजलि दी) फ्रैंक की मौत हर उन पूरावक्ती सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए भी एक सबक है कि वे किसी भी धारा के लिए काम करें, उसके पहले अपनी आर्थिक, वैचारिक जमीन पुख्ता कर लें, क्योंकि जिन पार्टियों के लिए वे ईंट – गारा बनने जा रहे हैं वह वर्षों ऐतिहासिक अयोग्ताओं का शिकार रही है। संभव है वहां सैकड़ों फ्रैंक कुर्बान हो जाएं। इतिहास आने वाले समय का जब भी मूल्यांकन करेगा तो वह इस बात को बहुत शिद्दत से रेखांकित करेगा कि जब हिंदी बहुजन बौद्धिकता का एक बड़ा हिस्सा लगातार फासीवाद की शरण में जा रहा था, बिहार का एक स्वप्नदर्शी श्रमण अपनी ही धारा में उपेक्षित किये जाने के बावजूद समाजवाद की आवाज मुखर करता हुआ रूख्सत हुआ!’

फ्रैंक हुजूर के एक और प्रिय साथी जेनुआइट एक्टिविस्ट विनय भूषण ने इस त्रासदी को खुलकर शब्द देते हुए लिखा, ’उनकी मौत राजनीतिक आइसोलेशन से उपजी एंजाइटी का नतीजा है। ज्ञात हो कि वह समाजवादी पार्टी की माउथ पिस ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ नामक पत्रिका के संस्थापक संपादक थे। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने समाजवादी पार्टी ही नहीं, इससे जुड़ी शख्सियतों पर धारदार कलम चलाई। उन्होंने नेताजी की जीवनी लिखी, अखिलेश यादव जी पर केंद्रित अपनी पत्रिका का विशेषांक निकाला। कई और भी नामी – गिरामी हस्तियों की जीवनी लिखी। सरकार की योजना चाहे कोई भी हो, उसका महिमामंडन किया। पर, फिर भी समर्पित भाव से इतना सब करने के पश्चात् फ्रैंक भाई को दूध से मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया गया। किसी पार्टी के लिए समर्पित भाव से काम करने वाला बुद्धिजीवी तबका ही इस बात को बेहतर तरीके से समझ सकता है कि ऐसी स्थिति में उस लेखक या विचारक के पास अवसाद में जाने और दर्द में तड़पने के सिवा दूसरा बचता ही क्या है। देश और राज्य स्तर की नामचीन संपन्न समाजवादी घरानों में शुमार एक परिवार द्वारा अपने विद्वान कार्यकर्ता को उसके सुर में सुर नहीं मिला पाने के कारण हाशिए पर ढकेल दिया गया। अंत के दिनों में उन्हें अपना घर चलाने के लिए फ्रीलांसिंग करनी पड़ी। उससे ज्यादा पीड़ादायक स्थिति किसी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े शख्सियत के लिए और क्या हो सकती है?

तो क्या फ्रैंक की मौत के पीछे इलाज में नेग्लिजेंसी रही!

लेकिन पॉलिटिकल आइसोलेशन से उपजी एंजाईटी से 48 साल का कोई गबरू जवान तन और मन से तिल – तिल करके टूट तो सकता है, लेकिन उससे उपजे हालात से वह आकस्मिक मौत का शिकार नहीं हो सकता। ऐसे में राजनीतिक उपेक्षा से आगे बढ़कर जब लोग फ्रैंक हुजूर की अविश्वसनीय मौत के कारणों की तह में गए तो उन्हें नजर आई: ‘इलाज में ‘नेग्लिजेंसी!’ इसे लेकर सबसे पहले सवाल उठाये प्रखर बहुजन चिन्तक चंद्रभूषण सिंह यादव, जो कभी फ्रैंक हुजूर की पत्रिका सोशलिस्ट फैक्टर के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर रहे। उनकी मौत पर पूरे देश में सर्वाधिक, संभवतः दर्जन भर से अधिक आलेख लिखने वाले चन्द्रभूषण सिंह यादव ने इलाज में लापरवाही पर गंभीर सवाल उठाते हुए अपने एक पोस्ट में लिखा, ’इस पूरे प्रकरण में जो महत्त्वपूर्ण बात है वह यह कि अस्वस्थ अवस्था में फ्रैंक हुजूर जी को दिल्ली बुलाया क्यों गया? यदि वे दिल्ली पहुँच ही गए तो उन्हें राहुल गांधी से मिलने के बाद प्रॉपर इलाज का इंतजाम क्यों नहीं किया गया? बीमार फ्रैंक हुजूर को देश की सबसे प्राचीन पार्टी कांग्रेस ने मेट्रो के भरोसे क्यों छोड़ दिया? क्या कांग्रेस पार्टी के पास इतनी भी सामर्थ्य नहीं कि वह बहुजन समाज के इतने बड़े थिंक टैंक को किसी ढंग के होटल, गेस्ट हाउस, वेस्टर्न कोर्ट, यूपी भवन आदि जगह पर ठहरा सके? वह बीमार अवस्था में दिल्ली आये तो राहुल गांधी जी का फर्ज नहीं बनता था कि इस अवस्था में उनका ध्यान रखा जाए? उनका इलाज कराया जाय? उन्हें टैक्सी मुहैया कराई जाय? बीमार अवस्था में उनको सुविधा मुहैया कराये? मगर नहीं, उनको तो इस अवस्था में संविधान बचाव कमेटी ने उन्हें अकेला छोड़ दिया, फिर राहुल जी आमजन का क्या ख्याल करेंगे?

दूसरा, जब वह मेट्रो में बेहोश हुए तब एच. एल. दुसाध सर, जो अपने को विद्वान् मानते व कहते हैं , उनसे यह जहमत नहीं हुई कि उन सिम्पटम को सीरियस लेकर रतनलाल जी के यहाँ न जाकर डॉक्टर या हास्पिटल जाते, मगर नहीं पहले उन्हें राहुल जी को जननेता बनाना है, फिर फ्रैंक जैसे लोग बेशक मौत की आगोश में जाते रहें! तीसरा, रतनलाल जी के घर में काफी देर तक दुसाध सर और फ्रैंक हुजूर रहे और वह सब बातों से अवगत होते हुए, सिर्फ डॉक्टर से बात करके अपना फर्ज पूरा कर लिए। मतलब खानापूर्ति कर ली क्योंकि उन्हें बहन जी के खिलाफ अनापशनाप बोलने से फुर्सत मिले तो वह दूसरों को सीरियसली लें!’ फ्रैंक हुजूर के इलाज में बरती गई लापरवाही को उजागर करता चन्द्रभूषण यादव का यह पोस्ट जहाँ कई लोगों ने शेयर किया, वहीं संभवतः उससे प्रेरित होकर कुछ लोगों ने खुली घोषणा कर दिया,‘ फ्रैंक हुजूर की मौत के लिए जिम्मेवार हैं: एच एल दुसाध, प्रो रतनलाल और अनिल जयहिंद!’

लेकिन किसी को निशाने पर न लेने के बावजूद प्रायः अधिकांश का मानना रहा कि यदि फ्रैंक राहुल गांधी से मिलने लखनऊ से दिल्ली नहीं जाते तो यह हादसा नहीं होता। खुद इस घटना से सदमे में आई मेरी पत्नी मेवाती दुसाध कई बार मेरे मुंह पर कह चुकी हैं कि फ्रैंक अगर राहुल गांधी से मिलने नहीं जाते तो यह घटना नहीं होती। बहरहाल राहुल गांधी से जुड़ना और ख़राब तबियत लेकर उनसे मिलने दिल्ली जाना ही अगर फ्रैंक के दुखद अंत का कारण है तो इसके लिए एकल रूप से कोई सर्वाधिक जिम्मेवार है तो सिर्फ और सिर्फ एच एल दुसाध यानी मैं! इसे समझने के लिए थोड़े अतीत में जाना होगा जब मैं फ्रैंक हुजूर के निकट आया।

फ्रैंक हुजूर के सीने में ताउम्र धधकती रही : सामाजिक अन्याय के खिलाफ आग

लेखन की दुनिया से जुड़े होने के बावजूद लेखकों की सभा- संगोष्ठियों में जाने से आज भी परहेज करता हूँ इसलिए बहुत ही कम लेखकों से मेरा परिचय है। संभवतः अपनी इस कमी के कारण फ्रैंक हुजूर का पहली बार नाम 2014 में उनके साहित्यिक आइकॉन राजेन्द्र यादव के निधन के बाद सुना। फेसबुक से चला कि फ्रैंक हुजूर ने ही सबसे पहले राजेन्द्र यादव के निधन की जानकारी दी। उनका यूनिक नाम भी मुझे अलग से आकर्षित किया। उसके बाद उनमें रूचि लेने लगा और ज्यों – ज्यों उनके विषय में जानकारी मिलती गयी त्यों – त्यों उनके प्रति आकर्षण भी बढ़ते गया। अंततः 2015 के जाते- जाते मैने समाजवादी पार्टी से जुड़े भाई चन्द्रभूषण सिंह यादव से निवेदन कर डाला कि वह स्टाइलिश फ्रैंक हुजूर से मिलवा दें और उन्होंने मेरे अनुरोध की रक्षा भी किया! एक दो मुलाकातों के बाद ही हम न सिर्फ एक दूसरे के बहुत निकट आ गए, बल्कि एक दूसरे के मुरीद भी बन गए। कारण दो रहे। एक तो सोच से हम दोनों हिन्दू – धर्म- संस्कृति से पूरी तरह मोहमुक्त: काफी हद तक वेस्टर्नाइज्ड रहे। दूसरे, हम दोनों के दिलों में सामाजिक अन्याय के खिलाफ समान रूप से आग धधकती रही। हमदोनों ही सामाजिक अन्याय-मुक्त भारत निर्माण के आकांक्षी रहे। रुचियों और वैचारिक साम्यता के कारण हममें जो निकटता हुई, वह दिन ब दिन प्रगाढ़ होती गई। कभी एक पल के लिए भी उसमें शिथिलता नहीं आई. हम एक दूसरे से इतना प्रभावित रहे कि 2017 के जुलाई में फ्रैंक हुजूर ने ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ मैगजीन में भारत के सर्वकालिक 100 ग्रेटेस्ट इंडियंस की जो तालिका जारी किया, उसमें मुझे भी जगह देकर आभारी बना दिए। बाद में जीवन के शेष दिनों तक जगह – जगह उल्लेख करने के साथ लोगों से मेरा परिचय कराते हुए कहते रहे,’ दुसाध को मैं दिलीप मंडल के साथ भारत का चोम्स्की या फिर कहें तो कैटलीन जोंस्टन मानता हूँ।‘ मैंने भी उन्हें ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’, जिसका संस्थापक अध्यक्ष मैं खुद हूँ, की ओर से उन्हें 2017 के दिसंबर में चन्द्रभूषण सिंह यादव और डॉ कौलेश्वर प्रियदर्शी के साथ ‘डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ द ईयर’ खिताब से नवाजा। यही नहीं बाद में वह जीवन के शेष दिनों तक ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेवारी निभाते रहे। बाद में सामाजिक अन्याय के खिलाफ धधकती आग ही उनके राहुल गांधी के अभियान से जुड़ने का सबब बनी।

राहुल गांधी से जुड़ने का सबब बनी: फ्रैंक हुजूर में सीने में धधकती सामाजिक अन्याय के खिलाफ आग लोकसभा चुनाव की पृष्ठभूमि में 2023 के 24 – 26 फरवरी तक रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85वें अधिवेशन में सामाजिक न्याय से जुड़े जो कई प्रस्ताव पास हुए, वह औरों की भांति मुझे भी आकर्षित किये। बाद में जब मई, 2023 में कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेत्तृत्व में कर्णाटक चुनाव को सामाजिक न्याय पर केन्द्रित करते हुए भाजपा को गहरी शिकस्त दिया, मुझमें यह विश्वास पनपा कि कांग्रेस अगले लोकसभा को सामजिक न्याय पर केन्द्रित कर सकती है और अगर ऐसा करती है तो मोदी की सत्ता में वापसी मुश्किल हो जायेगी। यह सोच कर ही मैं राहुल गांधी के पक्ष में, जो सामाजिक न्याय को नित नई उंचाई दिए जा रहे थे, धुआंधार कलम चलाना शुरू किया। लोकसभा चुनाव करीब आते-आते मुझे राहुल गांधी में समतामूलक भारत निर्माण की आखिरी उम्मीद नजर आने लगी। ऐसे में उनका हाथ मजबूत करने के लिए सक्रिय रूप से कांग्रेस से जुड़ने का मन बनाने लगा। मैंने अपनी यह ख्वाइश और किसी के सामने नहीं, सिर्फ फ्रैंक हुजूर के समक्ष रखी। उन्होंने मेरी इच्छा का सम्मान करते हुए ऐसे किसी व्यक्ति से मिलवाने का आश्वासन दिया, जिसके जरिये मैं यूपी कांग्रेस नेतृत्व से मिल सकूं। उनका प्रयास रंग लाया और उत्तर प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय के एक बेहद करीबी से उनके ही आवास पर एक बैठक हुई। अजय राय के उस करीबी ने कुछ दिन बाद उनसे मुलाकात का समय स्थिर किया। नियत समय पर मैं फ्रैंक हुजूर के साथ ही अजय राय से मिलने कांग्रेस मुख्यालय गया। उसके बाद दो- तीन बार और कांग्रेस मुख्यालय गया। हर बार फ्रैंक मेरे साथ रहे। किन्तु एकाधिक कारणों से मैं कांग्रेस ज्वाइन करने से पीछे हट गया। इस दरम्यान धीरे – धीरे मेरे अनुरोध पर फ्रैंक भी राहुल गांधी का हाथ मजबूत करने का मन बनाने लगे।

उस समय तक संविधान बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक डॉ. अनिल जयहिंद राहुल गांधी के करीब आ चुके थे, जिनके साथ मिलकर मैं डाइवर्सिटी केन्द्रित कई आयोजन कर चुका था। मैंने उन्हें राहुल गांधी के प्रति फ्रैंक हुजूर के आकर्षण से अवगत कराया। इसके बाद उन्होंने 13 जनवरी, 2024 को राहुल गांधी से बहुजन बुद्धिजीवियों को मिलवाने का जो कार्यक्रम तय किया, उसमें फ्रैंक को भी लाने का निर्देश दिया और 13 जनवरी को 10 जनपथ में मेरे साथ फ्रैंक हुजूर भी पहली बार राहुल गांधी से मिले। उसी दिन शायद पहली बार प्रो रतनलाल और प्रो.सूरज मंडल भी साथ राहुल गांधी से मिले। उस मुलाकात में मैंने कांग्रेस से जुड़ी अपनी पांच किताबें राहुल गांधी को भेंट की थी, जो 2023 में तैयार की गई थीं। भारत जोड़ों न्याय यात्रा के शुरू होने के एक दिन पहले हुई उस मुलाकात के बाद फ्रैंक हुजूर और डॉ. अनिल जयहिंद एक दूसरे के निकट आ गए। उनकी यह निकटता प्रगाढ़ता में तब बदल गई, जब 10 मई, 2024 को लखनऊ में संविधान सम्मेलन आयोजित हुआ। 13 जनवरी, 2024 के बाद 10 मई, 2024 को फिर हम दोनों एक साथ राहुल गांधी के प्रोग्राम में शिरकत किये। लखनऊ के संविधान सम्मलेन के बाद तो फ्रैंक हुजूर डॉ. अनिल जयहिंद के संविधान बचाओ सम्मेलनों की टीम के अभिन्न अंग बन गए। फिर तो वह कई सम्मेलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सेदारी किये और बाद में 28 जनवरी को डॉ जगदीश प्रसाद, अली अनवर, भगीरथ मांझी इत्यादि के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए।

उक्त अवसर पर उनका संबोधन ऐतिहासिक रहा। जिस किसी ने उनका वह संबोधन देखा, वह उनके बात रखने के अंदाज़ और कंटेंट से विस्मित हुए बिना रह सका। उन्होंने अपने छोटे, मगर यादगार संबोधन में कहा था,’ हम यहाँ भारत की सबसे पुरानी पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की छत्रछाया में आशा की एक किरण प्रदान करने के लिए हैं। पार्टी का लगभग 140 वर्षों का समृद्ध इतिहास है। यह मेरे साथ – साथ संविधान और सामाजिक न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों में विश्वास करने वाले सभी लोगों के लिए एक बड़ा सम्मान है। मैं न्याय योद्धा राहुल गांधी जी के कारण आज यहाँ कांग्रेस पार्टी के साथ हूँ। बीजेपी आरएसएस ने उन्हें नीचे गिराने के लिए अरबों रूपये इन्वेस्ट किया है। पर, राहुल गांधी ने हिम्मत नहीं हारी। एक स्थापित मशीनरी के खिलाफ लड़ाई की है और उसे हरा दिया है। मोदी जी और उनकी टीम बुरी तरह असफल रहे और राहुल गांधी जी से हार गए हैं। न्याय योद्धा राहुल गांधी आज नब्बे फ़ीसदी इंडियंस की असली आवाज और उम्मीद बन गए हैं।‘ लखनऊ वाले संविधान सम्मलेन के बाद मैं न तो संविधान श्रृंखला के अन्य किसी आयोजन में शामिल हुआ और न ही पार्टी ज्वाइन किया। पर, मन में यह हसरत जरुर रही कि राहुल गांधी से एक बार फिर मिलकर कांग्रेस के लिए जो योजना मेरे पास है, वह उनके समक्ष रखूं। इसलिए कुछ माह पूर्व मैंने जयहिंद साहब से अनुरोध किया था कि एक बार फिर राहुल जी से मिलवा दें। यह बात उनके जेहन में थी, इसलिए जब 4 मार्च को राहुल गांधी से कुछ लोगों को मिलवाने का प्रोग्राम स्थिर किये तो मुझे भी शामिल होने न्योता दे डाले, क्योंकि उन्हें पता था इस समय मैं दिल्ली में हूँ।

फ्रैंक के साथ मेरे आखिरी साढ़े 6 घंटे 4 मार्च को राहुल गांधी से मिलने का समय 4 बजे निर्दिष्ट हुआ था। इस क्रम में डॉ जयहिंद का निर्देश था कि राहुल जी से मिलने जाने वाले 3 बजे तक प्रेस क्लब आ जाएं। मैं ठीक 3 बजे पटना से आए अमर आजाद के साथ प्रेस क्लब में प्रवेश किया तो फ्रैंक हुजूर पहले से बैठे दिखे। मैं उनके पास पहुँच कर हैण्ड शेक किया। हमलोग शायद कुछेक माह के अंतराल पर पहली बार मिलले थे। किराये के नए मकान में शिफ्ट करने के बाद एक डेढ़ माह पहले वह मुझे अपने घर आने का अनुरोध किये थे पर, समयाभाव के कारण जा न सका था। उस दिन उनके चेहरे पर पहले वाला ग्लेज नहीं दिख रहा था। कारण पूछने पर बताये कि कल कोल्ड लग गई थी। थोड़ी देर बाद भारत विख्यात ह्रदय रोग विशेषज्ञ डॉ. जगदीश प्रसाद भी आ गए और फ्रैंक के बगल में बैठ गए। उन्होंने कहा लगता है आपकी तबियत ठीक नहीं है? फ्रैंक उनको भी जवाब दिए कि कल कोल्ड लग गई थी। तबियत के बारे में पूछने पर और भी कुछ लोगों को यही बताये। बहरहाल पौने चार बजे के करीब हम सब 10 जनपथ के लिए रवाना हुए, जहां 4. 30 बजे राहुल गांधी हम लोगों के बीच आए। 13 जनवरी, 2024 के बाद यह दूसरा अवसर था, जब हम दोनों एक साथ राहुल गांधी से मिलने पहुंचे थे।

मीटिंग हॉल में हम दोनों सबसे अंत में एक दूसरे के आमने सामने बैठे हुए थे। सबकी भांति फ्रैंक भी अपना परिचय देने के बाद डेढ़ दो मिनट अपनी बात रखे और राहुल गांधी सहित सभी मुग्ध भाव से सुनते रहे। उनके बाद आखिर में मुझे अपना परिचय देने का अवसर मिला। साढ़े पांच बजे के बाद मीटिंग ख़त्म हुई। उसके बाद फोटो सेशन शुरू हुआ। फ्रैंक के जीवन की जो आखिरी तस्वीर ली गई, उसमें उनके बाएं राहुल गांधी और दाहिने मैं रहा। उनके साथ फोटी लेते हुए राहुल गांधी के चेहरे से अलग ख़ुशी झलक रही थी। शायद वह उनके व्यक्तित्व से अतिरिक्त रूप से इम्प्रेस हुए थे, जिसकी झलक उनके उस पत्र में भी दिखी, जो उन्होंने उनके निधन के बाद कुछ देर से उनकी जीवन संगिनी मुक्ता जी के नाम लिखा गया था। राहुल गांधी से मुलाकात के बाद जब सभी अपने-अपने ठिकाने के लिए रवाना होने लगे, उन्होंने मुझसे पूछा,’ आप किधर जायेंगे? जब उन्हें पता चला कि मैं प्रो रतनलाल से मिलने हिन्दू कॉलेज जा रहा हूँ, तब उन्होंने कहा, ’हम साथ–साथ चलेंगे। मुझे मॉडल टाउन अपने मित्र के घर जाना है।’ फिर हम दोनों डॉ. जगदीश प्रसाद की गाड़ी में बैठ कर केन्द्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन पहुंचे। प्लेटफार्म पर पहुँचने के साथ ही ट्रेन आ गई। पर, वह विश्वविद्यालय तक के लिए थी। इसे देखकर उन्होंने कहा आप निकल लीजिये, मैं अगली ट्रेन से जाऊंगा। फिर मैंने कहा साथ में चलते हैं, आगे चलकर ट्रेन बदल लीजियेगा और वह मान गए। सीट नहीं मिली थी और हम खड़े होकर यात्रा कर रहे थे। कश्मीरी गेट पहुँचते ही अचानक वह बेहोश होकर पीछे की और गिरने लगे। मैंने उन्हें थाम लिया और बगल वाली सीट पर बिठा दिया। संग- संग एक महिला ने पानी की बोतल बढ़ा दिया। कुल मिलाकर बमुश्किल 45 सेकेण्ड में वह सामान्य हो गए। सामान्य होने के बाद झेंप मिटाने के लिए वह मुस्कुराने लगे। कुछ ही मिनटों में ट्रेन विश्वविद्यालय पहुँच गई। ट्रेन से उतरने के बाद वह कहे,’ आप प्रोफ़ेसर रतनलाल के घर निकलिये, मैं मॉडल टाउन के लिए आगे बढ़ता हूँ।’ मैंने मना करते हुए कहा कि आप मॉडल टाउन न जाकर पहले हिन्दू कॉलेज चलें और प्रोफ़ेसर रतनलाल के घर पर रेस्ट लें। वह मान गए।

मेट्रो से बाहर निकलते समय वह सामान्य तरीके से चल रहे थे, फिर भी मैं उनका हाथ थामे हुए था। ऊपर आकर मैंने ई– रिक्शा बुलाया, पर, उन्होंने पैडल रिक्शा से चलने की इच्छा जताई। रास्ते में एक जगह रिक्शा रोक कर वह एक मेडिकल स्टोर में गए और क्रोसिन के कुछ टेबलेट लिए। उन्हें साँस लेने में कुछ दिक्कत हो रही थी। इसलिए मैंने स्टोर वाले से पूछ कर उनके लिए रोटा हेलर और फोराकोर्ट – 400 कैप्सूल ले लिया। श्वांस कष्ट से बचने के लिए मैं खुद हर समय यह साथ रखता हूँ। बहरहाल 7 बजे के करीब हमदोनो प्रो. रतन के आवास पर पहुंचे। उस समय उन्हें ठण्ड लग रही थी। मैंने उन्हें जब फ्रैंक का हाल बताया, वह संग – संग अपने स्टूडियो वाले कमरे में पड़े मिनी दीवान पर आराम करने के लिए कहे। फ्रैंक कम्बल ओढ़कर रेस्ट लेने लगे। उसके बाद एक डॉक्टर को फोन कर उनकी तबियत का ब्यौरा देकर दवा लिखवाने लगे, पर वह दवा लेने से मना कर दिए। फिर वह उनके लिए काढ़ा बनवाए। कुछ देर रेस्ट लेने के बाद उन्होंने उनसे हॉस्पिटल चलने को कहा, पर उन्होंने इनकार करते हुए मॉडल टाउन जाने की इच्छा जताई। कुछ देर बाद रतनलाल भाप लेने की व्यवस्था कर दिए। यह सब करने के बाद उन्होंने जैसे एक शिक्षक छात्र को आदेश करता है, उसी तरह आदेश देते हुए कहे,’ तुम आज न तो ड्रिंक लोगे और न ही सिगरेट पियोगे!’ इसके बाद उन्हें रेस्ट लेने के लिए छोड़कर हम दोनों कमरे से बाहर आ गए और बीच- बीच में कमरे जा कर उनकी तबियत का जायजा लेते रहे।

इस दरम्यान वह अपने तबियत के बजाय ज्यादा बेचैन मॉडल टाउन अवस्थित अपने मित्र के घर जाने के लिए दिखे। अंततः मॉडल टाउन वाले उनके मित्र 9.30 के करीब अपनी गाड़ी लेकर प्रो. रतनलाल के दरवाजे पर हाजिर हो गए और पांच मिनट के अन्दर उन्हें लेकर चल दिए। जब वे दोनों जाने लगे प्रो. लाल दोनों की जेब से सिगरेट का पैकेट निकाल लिए। इससे पहले मना करने के बावजूद फ्रैंक एक सिगरेट पी चुके थे। इस तरह 3 से लेकर 9.30 बजे तक कुल साढ़े छ: घंटे साथ गुजारने के बाद फ्रैंक हमसे विदा लिए।

पांच मार्च : अपने मित्र के घर पर फ्रैंक अगले दिन 5 मार्च की सुबह 9 बजे के करीब मैंने फ्रैंक का हाल चाल जानने के लिए फोन लगाया तो कहे तबियत तो ठीक है, पर बदन में दर्द है। यह जानकार मुझे अच्छा नहीं लगा कि 3 मार्च को उन्हें ठण्ड लगी और अब तक उनके बदन में दर्द है। कुछ चिंतित होकर मैंने डॉ. अनिल जयहिंद को फ़ोन लगाया और बताया कि फ्रैंक के बदन में अब भी दर्द है। उनका इलाज होना चाहिए। 20 – 25 मिनट बाद ही उनके सहयोगी वेद प्रकाश तंवर का फ़ोन आया। उन्होंने बताया कि बाड़ा हिंदूराव अस्पताल के तीन डॉक्टरों से बात हो चुकी है। उन्हें कहिये जाकर उनसे मिल लें। वे वहां उनका इंतजार करते मिलेंगे। फिर तंवर जी तीनों डॉक्टरों का संपर्क नंबर मुझे सुलभ करा दिए। मैंने वह नंबर जल्द ही 9.57 पर व्हाट्सप कर दिया और अनुरोध किया कि बिना आलस्य किये अस्पताल पहुँच जाएं और उन्होंने जाने के लिए आश्वस्त भी किया। उसके बाद मैं प्रो. रतनलाल से विदा लेकर नवीन शाहदरा पहुँच गया, जहाँ मेरी आने वाली तीन किताबों पर काम चल रहा था। दोपहर डेढ़ दो बजे के आसपास फोन लगाया तो पता चला वह अभी तक अस्पताल नहीं पहुंचे हैं। मैंने पुनः हिंदूराव अस्पताल जाने के लिए अनुरोध किया। जवाब मिला कि देखते हैं। प्रेस से काम निपटाकर मैं शाम 8 बजे किशनगढ़ पहुंचा, जहां ठहरा हुआ था। वहां से 8.15 के करीब उनको फ़ोन लगाया तो पता वह अस्पताल नहीं गए हैं और लखनऊ जाकर इलाज करवाएंगे। अस्पताल न जाने के लिए मैंने उन्हें हलकी सी झिड़की लगायी और पूछा इस स्थिति में लखनऊ कैसे जायेंगे। उन्होंने बताया कि किसी से बात हो चुकी है, बाई रोड उसकी गाड़ी से लखनऊ जायेंगे। मैंने कहा लखनऊ पहुँच कर बिना देर किये डॉक्टर से जरुर मिलिएगा। उन्होंने कहा,’ श्योर’! यही मेरा उनसे आखिरी वार्तालाप रहा।

6 मार्च : और फ्रैंक नहीं रहे 6 मार्च की सुबह पहला फोन डॉ. अनिल जयहिंद का आया। उन्होंने कहा कि 4 मार्च को राहुल गांधी से हमलोगों की जो मीटिंग हुई, उस पर 100 शब्दों में सबसे सुझाव माँगा गया है, जिसे बारह बजे तक लिखकर देना है। आप भी लिख डालिए। उनकी बात सुनने के बाद मैंने फ्रैंक हुजुर की तबियत के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि दो बार उन्हें फोन लगाया, पर, दोनों बार ही उनका फोन स्विच ऑफ़ मिला। उनसे बात पूरी होने के बाद देखा कि प्रो रतनलाल का मिस कॉल पड़ा है। मैंने कॉल बैक किया तो उन्होंने कहा, ’फ्रैंक के विषय में कुछ पता है?’ मैंने कहा, ’नहीं!’ उन्होंने कहा, ’फ्रैंक नहीं रहे!’ सुनकर मैं सन्न रह गया। फिर वह बताये कि 4 मार्च की शाम हिन्दू कॉलेज से जाने के बाद उनके मॉडल टाउन वाले मित्र डॉक्टर के पास चलने का आग्रह करते रहे, पर वह तैयार नहीं हुए। अगले दिन आपने डॉक्टरों का नंबर भेजा, पर, वह हिंदूराव अस्पताल नहीं गए। कल शाम उनसे मिलने उनके दो मित्र आए और देर तक रहे। रात साढ़े बारह बजे के आसपास जब वे दोनों मित्र जाने लगे, उन्हें छोड़ने के लिए उनके मॉडल टाउन वाले मित्र गेट तक गए। उन्हें छोड़कर जब वापस कमरे में आए तो देखे कि फ्रैंक अचेत पड़े हैं। उसके बाद उन्हें किसी तरह लेकर फोर्टिस हॉस्पिटल गए, जहाँ डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उन्होंने आगे बताया, ’आज सुबह जगने के बाद जब फ़ोन खोला तो देखा उनके मित्र का रात दो बजे का मिस्कॉल पड़ा हुआ है। अभी थोड़ी देर पहले जब कॉल बैक किया, तब सारी घटना की जानकारी मिली।

’प्रो. रतनलाल से बात करने के कुछ देर मैं जब थोडा सामान्य हुआ, मैंने फेसबुक खोला तो पाया कि फ्रैंक को श्रद्धांजलि देने का सैलाब आना शुरू हो चुका है। थोड़ी देर उनके विषय में जानने के लिए फोन आने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह शाम तक लगातार जारी रहा। मैं तन और मन से टूट चुका था, इसलिए घर से बाहर नहीं निकला और प्रो. लाल और डॉ जयहिंद से फोन पर संपर्क कर आगे का हालचाल जानता रहा। पता चला उनके पिता बब्बन सिंह आ चुके हैं और बोर्ड ऑफ़ डॉक्टर्स से पोस्टमार्टम का अनुरोध किए हैं। पोस्टमार्टम अगले दिन होगा। बोर्ड ऑफ़ डॉक्टर्स से पोस्टमार्टम के निर्णय का प्रो लाल और डॉ. जयहिंद ने स्वागत किया। मैं अगले दिन 7 मार्च को भी जगजीवन राम अस्पताल नहीं गया, जहाँ पोस्टमार्टम के लिए फ्रैंक का शव पड़ा हुआ था। न जाने का कारण यह था कि शोक से जर्जरित उनके पिता और पत्नी का सामना करने की मुझमे हिम्मत नहीं थी। बहरहाल 6 मार्च की सुबह प्रो रतनलाल से फ्रैंक हुजूर के निधन खबर पाने के बाद से एक पल के लिए भी मेरी आँखे नम नहीं हुईं। नम हुईं तब जब 8 मार्च को वह सुशांत गोल्फ सिटी अवस्थित अपने घर से अनंत यात्रा पर निकले। अपने दामाद राजीव रंजन के विडिओ कॉल के जरिये जब उनकी शव – यात्रा का दृश्य देखा तब दो दिनों से थमे आंसू सैलाब बनकर बह चले। वह सैलाब आज भी पूरी तरह से नहीं थमा है। ये पंक्तियाँ लिखते हुए, कई बार आंसूओं की धारा बही। मैं कुछ अत्याज्य कारण वश उनकी शेष यात्रा में भी शिरकत न कर सका। लखनऊ पहुंचा 11 मार्च को। लखनऊ पहुँचने के बाद उनके पिता; बब्बन सिंह से विडियो कॉल पर लगभग 40 मिनट बात हुई। बातों के दौरान मैंने फ्रैंक से पहली मुलाकात के बाद विकसित हुए संबंधों से लेकर बीते 4 मार्च को गुजारे गए छः घंटों के विषय में विस्तार से जानकारी दिया। मैं भले ही उनसे अनजान था पर, वह नहीं! फ्रैंक के जरिये वह बहुत पहले से मेरे विषय में वाकिफ थे. शायद इसीलिए वह बार – बार दोहराते रहे: फ्रैंक के सपनों को पूरा करना है. अगले दिन अपनी मिसेज के साथ फ्रैंक के आवास पर गया। उनकी तस्वीर पर पुष्प अर्पित कर नम आँखों से उन्हें नमन किया। करीब डेढ़ घंटे रहा,लेकिन मुक्ता जी से मिलने साहस नहीं जुटा पा रहा था पर, चलने के पहले उनके कमरे में गया। वह पत्थर बनी चुपचाप मुझे देख रही थीं। किसी तरह आधे मिनट उनके सामने रहा पर, मुंह से एक शब्द भी नहीं निकले। विदा लेते वक्त फ्रैंक के पिता फिर एक एक बार कहे, ’फ्रैंक का सपना पूरा करना है!’ मैंने उन्हें आश्वस्त किया। कोई और करे या न करे, मैं अपनी और से कोई कसर नहीं छोडूंगा।

फ्रैंक के सपनों को पूरा करने के क्रम में पहला निर्णय लिया हूँ उन पर एक स्मृति ग्रन्थ लाने का जिसका लोकार्पण उनके अगले जन्मदिन: 17 सितम्बर, 2025 को होगा। कोटि – कोटि नमन फ्रैंक। मैं आपके सपनों के सामाजिक अन्याय-मुक्त भारत निर्माण के काम में और शिद्दत के साथ लगूंगा।

विवादों में जगनमोहन रेड्डी, 500 करोड़ के भव्य महल पर उठे सवाल

वाईएसआर कांग्रेस के अध्यक्ष जगन मोहन रेड्डी (फाइल फोटो)

जगन मोहन रेड्डी का भव्य महल, जिसे एक पूरे पहाड़ को समतल कर बनाया गया, राजनीतिक विलासिता और सार्वजनिक संसाधनों के दुरुपयोग का एक स्पष्ट उदाहरण है। 61 एकड़ में फैला यह आधुनिक किला सात आलीशान इमारतों से बना है, जिसमें ऐसी भव्य सुविधाएँ शामिल हैं जिनके बारे में आम नागरिक केवल सपना ही देख सकते हैं। ₹500 करोड़ से अधिक की अनुमानित लागत और ₹15,293 प्रति वर्ग फुट के अत्यधिक निर्माण व्यय के साथ, इस निवास में इटालियन मार्बल फ्लोरिंग, 200 झूमर, 12 समुद्र-दृश्य शयनकक्ष और ₹25 लाख का बाथटब, ₹5 लाख के कमोड जैसे आयातित आइटम शामिल हैं। सेंट्रल एयर कंडीशनिंग से लेकर हाई-एंड फर्निशिंग तक, इस महल का हर कोना असीमित भव्यता की कहानी कहता है, जो एक ऐसे देश में बन रहा है जहाँ लाखों लोग बुनियादी आवश्यकताओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

जगन मोहन रेड्डी का आलीशान महल, जिसे पहाड़ काट कर बनाया गया हैइतनी खुली फिजूलखर्ची के बावजूद, इसके निर्माण पर बनी चुप्पी इस बात को दर्शाती है कि राजनीतिक अभिजात्य वर्ग और सत्ता संरचनाओं के बीच कितना गहरा गठजोड़ है। जगन मोहन रेड्डी और नरेंद्र मोदी-अमित शाह के बीच करीबी संबंधों ने यह सुनिश्चित कर दिया कि इस पर कोई मुख्यधारा की बहस न हो और सभी पर्यावरणीय मंजूरियाँ बिना किसी आपत्ति के दे दी गईं। यह पाखंड तब और उजागर होता है जब मोदी स्वयं एक नया प्रधानमंत्री निवास बनवा रहे हैं, जिसकी लागत विपक्ष के अनुसार तीन गुना अधिक बताई जा रही है।

केंद्र में मोदी के साथ गठबंधन करके गोदी में बैठकर यह सब किया जाता रहा है। यही सुख भोगने के लिए अब चंद्रबाबू नायडू भी गठबंधन में शामिल हो गए हैं। इन नेताओं को विचारधारा और जनता की भावना से कोई सरोकार नहीं है। उनका एकमात्र लक्ष्य सत्ता में बने रहकर अपने लिए ऐशो-आराम और धन-संपत्ति जुटाना है, जबकि आम जनता महँगाई, बेरोजगारी और बुनियादी जरूरतों की कमी से जूझ रही है। यह बढ़ती हुई खाई शासकों और शासितों के बीच के अंतर को दर्शाती है, और जब तक जनता चुप रहती है, तब तक यह राजनीतिक वर्ग अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता रहेगा, खुद को समृद्ध बनाता रहेगा, जबकि आम नागरिक अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष करते रहेंगे।

दलित युवक ने कबड्डी में हरा दिया तो जातिवादी गुंडों ने काट डाली उंगली

सांकेतिक तस्वीर तमिलनाडु में जातिवादी गुंडों ने दलित समाज के एक युवक की उंगली काट दी। जातिवादियों ने यह तब किया जब वह युवक बस से 11वीं की परीक्षा देने जा रहा था। इस दौरान जातिवादी गुंडों ने युवक को बस से खींच लिया और उसकी उंगली काट दी। जागरण में प्रकाशित इस घटना के पीछे की वजह यह रही कि गांव में कबड्डी का मैच था, जिसमें दलित समाज के युवक ने शानदार खेल खेलते हुए हिन्दू समाज के लोगों को हरा दिया था। इसी बात को लेकर हिन्दू समाज के जातिवादी लोगों में खुन्नस थी। घटना तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले की है। पीड़ित युवक देवेन्द्र एक शानदार कबड्डी खिलाड़ी है और इलाके में उसका नाम है। उसके पिता थंगा गणेश दिहाड़ी मजदूर हैं। घटना 10 दिसंबर की है, जब युवक 11वीं की परीक्षा देने के लिए अपने घर से पलायमकोट्टई स्थित अपने स्कूल जा रहा था। रास्ते में तीन लोगों ने बस को रोक लिया और उसे बस से बाहर खिंचकर उसके साथ मारपीट करने लगे। इससे भी उनका मन नहीं भरा तो युवक के बाएं हाथ की उंगलियां काट दी। इस दौरान जातिवादी गुंडों ने युवक के पिता थंगा गणेश के साथ भी मारपीट की। इस घटना में दोनों को गंभीर चोट आई है। इस घटना के बाद पुलिस ने हालांकि तीन नाबालिगों को गिरफ्तार कर लिया है। देवेंद्रन के परिवार का कहना है कि कबड्डी मैच में हार का बदला लेने के लिए हिन्दुओं ने यह किया है। हालांकि इस घटना के दौरान अन्य यात्रियों ने बीच-बचाव किया तो हमलावर भाग निकले। कटी हुई उंगली को लेकर पिता-पुत्र अस्पताल पहुंचे, जहां सर्जरी कर उंगली को वापस जोड़े जाने की सूचना है। लेकिन यह घटना सवाल उठाती है कि क्या हिन्दू समाज के जातिवादी युवकों को दलित समाज के युवक से खेल में हार भी बर्दाश्त नहीं है? इसलिए सालों से दलितों और आदिवासियों को तमाम संसाधनों से दूर रखने का षड्यंत्र मनुवादी व्यवस्था द्वारा किया जाता रहा है।

बिहार विधानसभा में गूंजा बोध गया महाविहार का मामला

पटना। बोध गया महाविहार को ब्राह्मणों से मुक्त कराने का आंदोलन जोर पकड़ता जा रहा है। 7 मार्च को यह मामला बिहार विधानसभा में उठा। बिहार विधानसभा में राष्ट्रीय जनता दल के विधायक सतीश कुमार दास ने BP Act को निरस्त करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने पुरजोर तरीके से न सिर्फ इस मुद्दे को उठाया, बल्कि कई चुभते सवाल भी छोड़ दिये, जिससे हिन्दू धर्म के ठेकेदारों को मिर्ची लग गई है।

मकदूमपुर विधानसभा से विधायक सतीश कुमार ने बौद्ध समाज की मांग को बिहार विधानसभा में उठाते हुए बीटी एक्ट को खत्म करने की वकालत की और आर्टिकल 26 के तहत बौद्धों को धार्मिक स्वतंत्रता देने की वकालत की। इस बीच सतीश कुमार के उस बयान के बाद बिहार विधानसभा में हंगामा मच गया, जब उन्होंने राम मंदिर में भी बौद्धों, मुस्लिमों और जैनों को अधिकार देने की बात कर दी।

बिहार विधानसभा में इस मु्द्दे के उठने के बाद अब बिहार की राजनीति में हलचल मच गई है। राजद विधायक इस मुद्दे पर भाजपा और जदयू को घेरने में जुट गए हैं। आलम यह है कि दुनिया भर से बोधगया महाविहार को पूरी तरह से बौद्धों को सौंपने की उठती मांग का मुद्दा अब नीतीश कुमार और भाजपा के गले की फांस बन गया है। उम्मीद है कि 10 मार्च को दिल्ली में बजट का दूसरा सत्र शुरू होने के बाद यह मुद्दा संसद में भी गूंजेगा।

चमार स्टूडियो पहुंचे राहुल गांधी

मुंबई के धारावी स्थित चमार स्टूडियो में सुधीर राजभर से बात करते लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधीकांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने छह मार्चा को मुंबई के धारावी में चमार स्टूडियो के सुधीर राजभर से मुलाकात की है। इस मुलाकात पर राहुल गांधी ने लिखा-

चमार स्टूडियो के संस्थापक सुधीर राजभर लाखों दलित युवाओं की कहानी को समेटे हुए हैं। वह अत्यंत प्रतिभाशाली हैं, नए विचारों से भरपूर हैं और सफलता के लिए आतुर हैं, लेकिन अपने क्षेत्र के शीर्ष लोगों तक पहुंच की कमी और सीमित अवसरों की चुनौती से जूझते रहे। मगर, अपने समुदाय के कई अन्य लोगों से अलग, सुधीर ने अपना नेटवर्क बनाया। उन्होंने धारावी के कारीगरों की छिपी प्रतिभा को पहचाना और एक ऐसा ब्रांड खड़ा किया, जिसे आज विश्व के सम्मानित फैशन जगत में अपनी पहचान मिली है।

चमार स्टूडियो की सफलता यह साबित करती है कि कैसे पारंपरिक हस्तकला और आधुनिक व्यापार एक साथ आ सकते हैं, जिससे कुशल कारीगरों को भी उस सफलता में भागीदारी मिल सके जिसे वे अपने हाथों से गढ़ते हैं। आज, धारावी में सुधीर और उनकी टीम के साथ काम करते हुए, मैंने समावेशी उत्पादन नेटवर्क की अहमियत को महसूस किया – ऐसे नेटवर्क जो विभिन्न क्षेत्रों में कुशल श्रमिकों को आगे बढ़ाते हैं।मुंबई के धारावी में सुधीर राजभर के चमार स्टूडियो में राहुल गांधी

साथ ही, मुझे यह भी उतना ही महत्वपूर्ण लगा कि सुधीर को अपना ज्ञान और अनुभव दूसरों के साथ भी बांटना चाहिए। इसलिए हमने अपने मित्र रामचेत मोची को सुल्तानपुर से बुलाया ताकि वे सुधीर से मिल सकें और समझ सकें कि डिज़ाइन और इनोवेशन उनके व्यवसाय को कैसे नया रूप दे सकते हैं। मैंने लोकसभा में कहा था कि खुशहाल भारत का निर्माण “समृद्धि और हिस्सेदारी” के मॉडल से ही संभव है। चमार स्टूडियो की सफलता दिखाती है कि यह मॉडल काम करता है – और मैं चाहता हूं कि ऐसा मॉडल पूरे भारत में लागू हो।


कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के एक्स वॉल से

सोशलिस्ट फैक्टर के एडिटर फ्रैंक हुजूर का दिल्ली में निधन

नई दिल्ली। सोशलिस्ट फैक्टर के एडिटर फ्रैंक हुज़ूर हमारे बीच नहीं रहे। कल 5 मार्च की रात दिल्ली में हार्ट अटैक से उनका देहांत हो गया। वह मॉडल टाउन में अपने मित्र के यहाँ रुके थे। अपनी पत्रिका सोशलिस्ट फैक्टर के जरिये उन्होंने अपनी एक अलग पहचाई बनाई थी। फैंक हुजूर समाजवाद के पक्षधर थे। एक लेखक, पत्रकार और सामाजवादी विचारधारा के प्रवक्ता के तौर पर उनको जाना जाता था। उन्होंने लखनऊ में अनेक युवाओ को समाजवाद की तरफ मोड़ा उन्हें आगे बढ़ाने मे मदद की। उनका पहले का नाम सोमेश यादव है।

फ्रैंक हुजूर के अचानक चले जाने से उनके जानने और चाहने वाले हतप्रभ हैं। उनके पार्थिव शरीर को जहांगीरपुरी स्थित बाबू जगजीवन राम अस्पताल की मोर्चरी में रखा गया है। उनके परिजन दिल्ली के लिए चल पड़े हैं।

इमरान खान, मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव पर जीवनियों के अलावा उन्होंने कई किताबें लिखी। सोशलिस्ट फैक्टर मैगजीन भी निकालते थे। सेक्युलरिज्म और सामाजिक न्याय की विचारधारा से उनका गहरा रिश्ता था और बिना रुके इन पर काम करते थे। बिहार के बक्सर में जन्मे फ्रैंक हुजूर मूलतः अंग्रेजी के लेखक और जर्नलिस्ट थे। राँची के सेंट जेवियर्स और दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर फ्रैंक अपनी इंगलिश पोएट्री और ड्रामा (हिटलर इन लव विथ मैडोना) से चर्चित हुए। इसके बाद इन्होंने नाटक ‘ब्लड इज बर्निंग’ और‘ स्टाइल है लालू की जिंदगी’ लिखा। मात्र बीस वर्ष की उम्र में अंग्रेजी मैगजीन ‘यूटोपिया’ के संपादक बनने वाले फ्रैंक ने प्रख्यात क्रिकेटर और पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की राजनीतिक जीवनी ‘इमरान वर्सेस इमरान: दी अनटोल्ड स्टोरी’ भी लिखी है।

उनके जाने के बाद उन्हें याद करने वालों का तांता लग गया है। सुरेन्द्र सिंह चौधरी ने लिखा है- ये अविश्वसनीय है लेकिन सच होते हुए भी नाकाबिले बर्दाश्त है। आप की तो बहुत जरुरत थी अभी देश और समाज को। अत्यंत शालीन, विनम्र और अंग्रेजी साहित्य के विद्वान लेखक एवं पत्रकार के रुप में ख्याति अर्जित कर चुके आपकी जीवन यात्रा इतनी छोटी क्यों? मैं और साथी Badr E Alam तो बहुत बार लखनऊ आपके आवास पर घंटों आपके साथ बैठते रहे, देश,काल, राजनीति और दर्शन पर चर्चाएं अब सब खत्म?

ओडिशा में चंद्रशेखर पर जानलेवा हमला, ABVP पर लगाया आरोप, समर्थकों का बवाल

ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में चंद्रशेखर के काफिले पर हमले में टूटी गाड़ियांआज ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में मेरे जनसभा कार्यक्रम के दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के गुंडों ने संगठित तरीके से जानलेवा हमला किया। लगभग 250 के झुंड में आए इन असामाजिक तत्वों ने कार्यक्रम स्थल पर पथराव किया, हिंसा फैलाई, हमारे कार्यकर्ताओं पर हमला किया और दर्जनों वाहनों को क्षतिग्रस्त कर दिया। यह हमला सिर्फ मुझ पर नहीं, बल्कि लोकतंत्र, संविधान और सामाजिक न्याय की आवाज को कुचलने का एक षड्यंत्र है। यह घटना साफ दर्शाती है कि संघ परिवार के संगठनों को सत्ता का खुला संरक्षण प्राप्त है।

यह वही ताकतें हैं जो बहुजन आंदोलन, दलित-पिछड़े समाज और संवैधानिक अधिकारों के लिए उठने वाली हर आवाज को हिंसा और गुंडागर्दी से दबाने की कोशिश करती हैं। लेकिन हम साफ कर देना चाहते हैं – हम डरने वाले नहीं हैं, हम झुकने वाले नहीं हैं! मैं @CMO_Odisha @DGPOdisha से मांग करता हूँ कि इस हमले के सभी दोषियों को अविलंब गिरफ्तार किया जाए और उनके खिलाफ कठोरतम कानूनी कार्रवाई हो। हमारा संघर्ष संविधान और लोकतंत्र की रक्षा का है, और यह किसी भी कीमत पर जारी रहेगा। जो सोचते हैं कि हम पर हमले कर हमारी आवाज दबा देंगे, वे यह जान लें—हमारे कदम रुके नहीं हैं, रुकेंगे नहीं!


आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद का एक्स पोस्ट

महाबोधि मुक्ति आंदोलन पर चुप्पी से घिरे अठावले, किरेन रिजिजू और दिलीप मंडल

महाबोधि बौद्ध विहार की मुक्ति के लिए अनशन पर बैठे बौद्ध भिक्खुमहाबोधि मुक्ति आंदोलन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर चुप्पी साधे रखना उन लोगों की दोहरी मानसिकता को उजागर करता है, जो केवल अवसरवादिता के आधार पर बौद्ध धर्म का नाम लेते हैं। नरेंद्र मोदी, जो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को बुद्ध की भूमि कहकर गौरव महसूस करते हैं, लेकिन जब बोधगया के मूल अधिकारों की बात आती है, तो मौन साध लेते हैं। रामदास अठावले, जो दलित-बौद्ध राजनीति के नाम पर सत्ता का सुख भोगते हैं, लेकिन इस आंदोलन पर उनकी आवाज सुनाई नहीं देती।

किरेन रिजिजू, जो पूर्वोत्तर के बौद्ध समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इस विषय पर पूरी तरह उदासीन बने हुए हैं। दिलीप मंडल, जो सोशल मीडिया पर बौद्ध विमर्श के बड़े पैरोकार बने फिरते हैं, इस वास्तविक मुद्दे पर कहीं नजर नहीं आते।

दरअसल, ये सभी लोग आरएसएस की मनुवादी मानसिकता से ग्रसित हैं, जिनका बौद्ध धर्म और उसके मूल सिद्धांतों से कोई सरोकार नहीं है। इनका असली उद्देश्य बहुजनों और बौद्ध समाज को छलना और अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना है। संघ और उसकी विचारधारा से जुड़े ये लोग बुद्ध के विचारों के खिलाफ खड़े हैं और बोधगया जैसे पवित्र स्थल को संरक्षित करने की जिम्मेदारी से पीछे हट रहे हैं। इनकी चुप्पी इस बात का प्रमाण है कि ये केवल अपने निजी स्वार्थों और राजनीतिक एजेंडे के लिए बुद्ध का नाम लेते हैं, न कि बौद्ध धर्म और उसके पवित्र स्थलों की रक्षा के लिए।


सोशल एक्टिविस्ट हंसराज मीणा के एक्स पोस्ट से साभार प्रकाशित

“मैं जब अपनी जमीन पर घर बनाने लगा, तो उन्होंने कहा कि चमार-बंसोड़ हमारे बीच नहीं रह सकते”

सीहोर, मध्य प्रदेश। जातिवादी गुंडे अपनी जातीय श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए अक्सर दलितों को निशाना बनाते हैं। मध्य प्रदेश के सीहोर में ऐसा ही मामला सामने आया है, जहां जातिवादी समाज ने एक दलित परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया है। परिवार ने न्याय के लिए जिला कलेक्टर से गुहार लगाई है। मामला सीहोर जिले के बकतरा गांव की है। घटना एक मार्च 2025 की बताई जा रही है।

खबर के मुताबिक दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले राधेश्याम वंशकार अपने मकान का निर्माण करवा रहे थे। इस दौरान उनका गांव के जातिवादी गुंडों से विवाद हो गया। इस विवाद को लेकर राधेश्याम वंशकार पुलिस के पास पहुंच गए। गांव के जातिवादियों को यह बाद अखर गई कि एक दलित आखिर उनके खिलाफ पुलिस में कैसे जा सकता है। बस, उन्होंने अपने ही जैसे जातिवाद में धंसे हुए समाज की बैठक बुलाई और इस परिवार के सामाजिक बहिष्कार का फरमान सुना दिया। गांव के चबूतरे पर बैठकर जाति व्यवस्था को सींचने वाले इन लोगों ने इस परिवार की मदद करने और उससे संबंध रखने पर एक लाख रुपये जुर्माना लगाने का फरमान भी सुना दिया।

पीड़ित राधेश्याम वंशकार का कहना है कि गांव में मेरी एक जमीन है। जब मैं इस पर मकान बनवाने लगा तो वो उखड़ गए। उनका कहना था कि बंसोड़-चमार हमारे बीच नहीं रह सकते। उन्होंने मुझे वहां से दूर जाकर घर बनवाने को कहा। मेरे मना करने पर गोविन्द सेठ और अन्य लोगों ने पहले मेरे साथ मार-पीट की। फिर हमारा हुक्का पानी बंद कर दिया।

इस बहिष्कार के बाद यह परिवार खासा परेशान है। दुकानदारों ने इस परिवार को राशन तक देने से इंकार कर दिया है। इससे यह परिवार बाहर से खाने का जुगाड़ कर किसी तरह अपना गुजारा कर रहा है। बताया जा रहा है कि आरोपी खुद पिछड़े समाज के हैं। बहुजन समाज पार्टी ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए सीहोर के कलेक्टर बाला गुरु से न्याय की गुहार लगाई है। फिलहाल प्रशासन मामले की जांच कर दोषियों पर कार्रवाई करने की बात कह रहा है लेकिन पीड़ित परिवार को अब भी राहत के इंतजार में है।