लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ खतरे में…

पांच सितम्बर को गौरी लंकेश जैसी महान पत्रकार की हुई हत्या समाज के लिए निंदनीय है. उनकी हत्या के बाद सोशल मीडिया पर उनके लिए प्रयोग की गयी अभद्र भाषा हमारी सांस्कृति को शोभा नहीं देता. इस अभद्र भाषा का प्रयोग करने वालों पर कार्यवाही होनी चाहिए. भारत में पत्रकारों की हत्या का ये कोई पहला मामला नही है. पत्रकारों की हत्या का सिलसिला 25 मार्च 1931 से शुरू हुआ था जब उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक साम्प्रदायिक हिंसा में गणेश शंकर विद्यार्थी जी की हत्या कर दी गयी थी.

इसके अलावा आजाद भारत में पत्रकारों की हत्याओं के ऐसे कई मामले है जिनमे राजदेव रंजन, हेमंत यादव, संजय पाठक, संदीप कोठरी, जागेन्द्र सिंह, एम.वी.एन. शंकर, तरुण कुमार आचार्य, सांई रेड्डी, राजेश वर्मा, रामचंद्र छत्रपति, थोनाओजम ब्रजमानी सिंह, वी. शैल्वाराज, अधीर राय, एन.ए. लालरुहलु, इरफ़ान हुसैन, शिवानी भटनागर, बक्शी तीरथ सिंह, उमेश डोभाल जैसे महान पत्रकारों की हत्याएं हुई है. यह हत्याएं किसी व्यक्ति की नहीं बल्कि पूरे समाज की हत्या है. मीडिया समाज की आवाज होती है और इस आवाज़ का लगातार गला घोटा जा रहा है. कभी डरा-धमकाकर तो कभी लालच देकर समाज की आवाज़ को निरंतर चुप कराया जाता रहा है.

पत्रकारों की सुरक्षा पर निगरानी रखने वाली प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय संस्था कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने वर्ष 2016 में 42 पन्नों की अपनी विशेष रिपोर्ट में कहा था भारत में रिपोर्टरों को काम के दौरान पूरी सुरक्षा नहीं मिलती है. इसमें कहा गया था कि भारत में 1992 के बाद से 27 ऐसे मामले दर्ज हुए जब पत्रकारों को उनके काम के सिलसिले में क़त्ल किया गया, लेकिन किसी भी मामले में आरोपियों को सजा नहीं हो सकी. इस रिपोर्ट ने भ्रष्टाचार कवर करने वाले पत्रकारों की जान को खतरा बताया क्यूंकि इन 27 में 50 प्रतिशत पत्रकार भ्रष्टाचार सम्बन्धी मामलों पर ख़बरें कवर करते थे.

इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ जर्नलिस्ट (आईएफजे) के अनुसार वर्ष 2016 में विश्वभर में 93 पत्रकारों की हत्या कर दी गयी. वही भारत में पिछले वर्ष करीब पांच पत्रकारो की हत्या की गयी. मीडिया से जुड़े लोगों की हत्या के मामले में विश्वभर में भारत आठवें स्थान पर है. ग्लोबल एडवोकेसी ग्रुप के रिपोर्टर विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने भारत को पत्रकारों के लिए एशिया का सबसे खतरनाक देश बताया था. रिपोर्ट में कहा गया था कि पत्रकारों की हत्या के मामले में भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी आगे है.

आजाद भारत में पत्रकारो की हत्याओं पर एक नजर

चूंकि मैं भी मीडिया के क्षेत्र से हूं वर्तमान में मास कम्युनिकेशन (अंतिम वर्ष) का छात्र हूँ इससे पूर्व मैंने अपने गृह जनपद फर्रुखाबाद में “यूथ इण्डिया” समाचार पत्र में पत्रकार के रूप में कार्य किया जहां भू-माफियाओं के खिलाफ संपादक शरद कटियार के निर्देशन में समाचारों का प्रकाशन करने के बाद धमकियों का सामना कर चुका हूं. हालांकि माता-पिता के मना करने पर कुछ ही समय में मुझे इस अखबार को छोड़ना पड़ा. मुझे नहीं मालूम मेरा यह फैसला सही था या गलत! लेकिन इस अखबार के (यूथ इण्डिया) संपादक शरद कटियार को झूठे मुक़दमे में फंसाकर 19 अगस्त 2017 को गिरफ्तार किया गया है. क्यूंकि वह अपनी धारदार कलम से सफेदपोश भू-माफियाओं एवं गुंडों की असलियत को सामने लाने का कार्य करते रहे है. इससे पूर्व उनपर कई जानलेवा हमले भी हो चुके है. लेकिन आज भी वह इस आन्दोलन से पीछे नहीं हट रहे है.

अगर ऐसा ही रहा तो यकीनन मीडिया का अस्तित्व ही मिट जायेगा. मीडिया का कार्य समाज की बुराईयों से पर्दा उठाना और सच्चाई को सामने लाना है जबकि मीडिया को सफेदपोश अपने इशारो पर नाचने देखना चाहते है. अब वक़्त है कि प्रत्येक नागरिक को मीडिया की स्वतंत्रता एवं सुरक्षा के लिए आवाज़ उठानी चाहिए. झूठी और बिकाऊ पत्रकारिता से समाज को कोई लाभ नहीं है. सरकार को चाहिए कि कलम के कातिलों को कठोर से कठोर सजा दी जाये एवं मीडिया की सुरक्षा एवं स्वतंत्रता के लिए कानून बनाया जाये और अगर ऐसा कर पाना संभव न हो तो लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ “मीडिया” को लोकतंत्र से ही बाहर कर देना चाहिए.

 यह लेख पत्रकारिता के विद्यार्थी मोहम्मद आकिब खान ने लिखा है.

दलित छात्र को बंधुआ मजदूर बना करवाते थे कुत्ते की मालिश

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आगरा। यूपी में शिक्षा व्यवस्था के हालात आए दिन बिगड़ते जा रहे हैं. हर दिन स्कूल, टीचर, पढ़ाई आदि की लचर हालत की घटनाएं सामने आ रही है. यह घटनाएं योगी सरकार की असफलता साबित कर रही है. कभी शिक्षामित्रों पर लाठी बरसाई जा रही है, कभी बेसिक शिक्षा अधिकारी शिक्षकों की सैलरी रोक लेते हैं.

इस तरह की तमाम घटानाओं के बाद अब आगरा के एक स्कूल की घटना सामने आई है. यहां के एक स्कूल में दलित छात्र के शोषण की घटना सामने आई है. 10 में पढ़ने वाले एक छात्र स्कूल अधीक्षक ने उसे आगरा से दूर गाजियाबाद सीनियर अधिकारी के घर भेज दिया. वहां अधिकारी छात्र से शौचालय साफ करवाता था. कुत्तों की मालिश करवाता था.

दरअसल, समाज कल्याण विभाग की सहायता से आश्रम पद्धति पर चलने वाले स्कूल में पढ़ रहे 14 साल के छात्र के मालिश करने के हुनर से खुश होकर स्कूल अधीक्षक ने उसे सीनियर अधिकारी के यहां गाजियाबाद भेज दिया.

पीड़ित छात्र का आरोप है कि उसे फ्लैट पर बंधुआ मजदूर के रूप में शौचालय साफ करना पड़ता था. साहब के कुत्तों की मालिश करनी पड़ती थी. वह करीब सवा महीने बाद किसी तरह वहां से भागकर अपने घर आगरा पहुंचा. पूरे मामले की शिकायत जिलाधिकारी से की गई है. वहीं, आरोपी अधिकारी का कहना है कि उनका गाजियाबाद में तो कोई फ्लैट ही नहीं है.

आगरा के सैंया ब्लॉक के सिंकदरपुर गांव का एक किशोर राजकीय स्वच्छकार आश्रम पद्धति विद्यालय इटौरा में 10वीं कक्षा का छात्र है. पीड़ित छात्र के पिता नाई का काम करते हैं. पीड़ित छात्र का कहना है कि वह मालिश का काम जानता है. छात्र का आरोप है कि स्कूल अधीक्षक खुद अपनी मालिश करवाते रहे और फिर आगरा के जिला समाज कल्याण अधिकारी के गाजियाबाद वाले फ्लैट पर लेकर गए. उसे वहां छोड़कर स्कूल अधीक्षक वापस आगरा लौट आए. पीड़ित छात्र ने बताया है कि गाजियाबाद स्थित अधिकारी के फ्लैट पर उससे घर का पूरा काम करवाया जाता था. यहीं नहीं कुत्तों को नहलाने और उनके बालों में कंघी करने का काम भी उसी से कराया जाता था.

छात्र का आरोप है कि अधिकारी के घर पर उसे पेट भर खाना भी नहीं दिया जाता था. पूरे घर का काम करने के बदले में कोई मेहनताना भी नहीं दिया जाता था. सुबह 6 बजे से लेकर देर रात तक उससे काम कराया जाता था. मौका मिलते ही घर का कचरा फेंकने के बहाने वह फ्लैट से भागकर दिल्ली और फिर वहां से किसी तरह आगरा आ पहुंचा. छात्र ने पूरा घटनाक्रम अपने परिजनों को बताया तो उन्होंने मामले की शिकायत स्कूल प्रशासन और उप निदेशक समाज कल्याण से की, लेकिन दोनों ही जगह से कोई कार्रवाई नहीं हुई.

एक सामाजिक संस्था ‘महफूज’ के नरेश पारस ने उसकी आपबीती सुनी और वह परिजनों के साथ छात्र को लेकर एडीएम सिटी के पास पहुंचे. उन्होंने एक शिकायती पत्र देकर पूरे मामले की जांच की मांग की. एडीएम सिटी केपी सिंह का कहना है कि छात्र के आरोपों की जांच की जा रही है. मामले में तथ्य प्रकाश में आने पर संबंधित अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की जाएगी. छात्र और उसके परिजनों ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और मुख्यमंत्री के जनसुनवाई पोर्टल पर भी अपनी शिकायत दर्ज कराई है.

सोशल मीडिया पर मजाक बनी मोदी की बुलेट ट्रेन

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भारत के प्रधानमंत्री मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे ने गुजरात में बुलेट ट्रेन के लिए नींव रख दी है. पहली बुलेट ट्रेन के अहमदाबाद से मुंबई तक चलाए जाने की बात हो रही है. इस परियोजना की ज़्यादातर फ़ंडिंग जापान से मिलने वाले 17 अरब डॉलर के लोन से होगी. लेकिन सोशल मीडिया पर रेल घटनाओं से जोड़कर बुलेट ट्रेन शुरू करने की कोशिशों पर खूब तंज कसे जा रहे हैं. ट्विटर पर तमाम लोगों ने यह कह कर मोदी सरकार का मजाक उड़ाया है कि पहले जो ट्रेनें चल रही हैं, उन्हें पटरी पर चलाया जाए.

मुस्तफा रजा ने लिखा कि हम गरीबों को तो पहले रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए. बुलेट ट्रेन तो अमीरों के लिए फ्लाइट है.

कांग्रेस नेता शहजाद पूनावाला ने भी ट्वीटर पर लिखा, “वाह मोदी जी कुछ लोगों का वोट इतनी अहमियत रखता है कि उन्हें बुलेट ट्रेन मिलती है! और कुछ लोग पटरियों से ट्रेन उतरने पर रोज मरते हैं लेकिन उनकी जिंदगी की अहमियत नहीं!”

मोदी ले डूबेगा ट्वीटर हैंडल ने प्लेटफॉर्म पर बंदरों का एक फोटो डाला और ट्वीट किया है कि बुलेट ट्रेन की घोषणा के बाद भक्तों का समूह राम मंदिर निर्माण के लिए अयोध्या जाने को तैयार.

दिनेश मिश्रा ने लिखा, ‘पांच साल में ब्याज से ज्यादा आप इवेंट्स और प्रचार में खर्च कर देंगे.’

आकाश सिंह ने लिखा, ‘गुजरात और ट्रेन का नाम साथ में आता है तो मैं डर ही जाता हूं.’

हिमांशु शुक्ला ने तंज कसा कि लगे हाथ दो-चार पटरियां भी सुधरवा दो भाई दामोदर जी. बुलेट ट्रेन पे तो तब बैठेंगे जब जिंदा बचेंगे साहब.

इंडियन मुस्लिम ने ट्वीट किया कि प्लेटिना तो सही से चलायी नहीं जा रही, बुलेट चलाएंगे?

इस बुलेट ट्रेन में तो जन सामान्य जा नहीं सकता क्योंकि इसका किराया किसी लक्जरी बस से कम नहीं और लक्जरी बस में आम आदमी कहां सफर करता है.

आए दिन हो रहे है डिरेलमेंट के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने आज बुलेट ट्रेन की नींव रख दी. अब देखना होगा मोदी जी की बुलेट ट्रेन कितने सालों में तैयार होती है? क्या बुलेट ट्रेन भी भारतीय रेलवे की चाल चलेगी?

मेरठ में नीला सैलाब चाहती हैं मायावती

राज्यसभा से इस्तीफे के बाद देशव्यापी महासम्मेलन शुरू करने जा रहीं बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती खासे उत्साह में हैं. महासम्मेलन का आगाज मायावती पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े शहर मेरठ में 18 सितंबर को करेंगी. अपने इस पहले महासम्मेलन में मायावती नीला सैलाब चाहती हैं. पहली ही रैली में मायावती और बहुजन समाज पार्टी विरोधी दलों को करारा जवाब देने के मूड में हैं.

भीड़ जुटाकर बीएसपी का मकसद विरोधी दलों को बसपा की ताकत का अहसास कराने के साथ खिसकते जानाधार की बात करने वालों को मुहतोड़ जवाब देना भी है. बसपा इसके लिए पूरी तरह तैयार भी है. कार्यक्रम घोषित होने के बाद से ही मेरठ और तमाम अन्य मंडलों के पार्टी पदाधिकारी और कार्यकर्ता दिन रात तैयारियों में जुट गए हैं. मेरठ रैली में मेरठ, सहारनपुर और मुरादाबाद मंडल की 70 विधानसभा सीटों पर फोकस करते हुए रैली होगी.

बीएसपी का मकसद है कि इस रैली में जहां दलित उत्पीड़न के विरोध में इस समाज की भागीदारी बढ़े, वहीं दलित-मुस्लिम एकता का संदेश देने के लिए अल्पसंख्यकों की भी बड़ी मौजूदगी जरूर हो. ऐसा कर मायावती यह संदेश देना चाहती हैं कि बीएसपी के साथ इन तीनों वर्ग के लोग हैं. कार्यक्रम की पूरी तैयारी हो चुकी है. तीन मंडलों के कार्यकर्ताओं को बैठाने के लिए भी अलग से व्यवस्था की गई है. मेरठ, सहानरपुर और मुरादाबाद मंडल के वर्करों के बैठने के लिए तीन अलग-अलग ब्लॉक बनाए जा रहे हैं, ताकि साफ हो सके कि कहां से कितने कार्यकर्ता पहुंचे हैं.

मोदी सरकार ने तीन साल में 126% बढ़ाया उत्पाद शुल्क, इसलिए महंगा बिक रहा है पेट्रोल

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नई दिल्ली। पिछले कुछ दिनों से पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार आलोचनाओं से घिरी हुई है. पेट्रोल-डीजल की कीमतो की दैनिक समीक्षा की मौजूदा नीति भी आलोचनाओं के घेरे में है. केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने बुधवार (13 सितंबर) को मीडिया के इस बाबत पूछे गये सवाल के जवाब में कहा कि दैनिक समीक्षा की नीति जारी रहेगी. पिछले एक महीने में पेट्रोल की कीमत में सात रुपये से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है. मोदी सरकार ने 16 जून से पेट्रोल की कीमतों की दैनिक समीक्षा नीति लागू की है. उससे पहले तक पेट्रोल की कीमतों की पाक्षिक समीझा होती थी. आइए समझते हैं कि आखिर पेट्रोल की कीमतों को लेकर विवाद क्यों है?

गुरुवार (14 सितंबर) को दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 70.39 रुपये प्रति लीटर, कोलकाता में 73.13 रुपये प्रति लीटर, मुंबई में 79.5 रुपये प्रति लीटर और चेन्नई में 72.97 लीटर रही. पेट्रोल की ये कीमत अगस्त 2014 के बाद सर्वाधिक है. भारत में पेट्रोल तब भी महँगा है जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत पिछले कुछ सालों में काफी कम हुई हैं. लेकिन भारतीय ग्राहकों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत कम होने का लाभ नहीं मिल रहा है. नरेंद्र मोदी सरकार का कहना रहा है कि भारत को आधारभूत ढांचे के विकास के लिए पैसा चाहिए इसलिए वो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम होने का लाभ ले रही है. मोदी सरकार ने तेल पर अतिरिक्त टैक्स लगाया है जिसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत कम होने के बावजूद भारत में कीमत कम नहीं हो रही है.

जब अगस्त 2014 में पेट्रोल की कीमत 70 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा थी तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीम 103.86 डॉलर (करीब 6300 रुपये) प्रति बैरल थी. गुरुवार को अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 54.16 डॉलर (3470 रुपये) प्रति बैरल है. यानी तीन साल पहले की तुलना में करीब आधी. कैच न्यूज की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय तेल कंपनियों (इंडियन ऑयल, हिंदुस्तान पेट्रोलियम, भारत पेट्रोलियम) को एक लीटर कच्चा तेल (पिछले साल सितंबर तक) 21.50 रुपये का पड़ता था. सितंबर 2016 में भी अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमत करीब 54 डॉलर प्रति बैरल थी. रिपोर्ट के अनुसार इस्तेमाल लायक बनाने में लगे खर्च और टैक्स इत्यादि जोड़कर एक लीटर कच्चे तेल को करीब 9.34 रुपये खर्च होते हैं. यानी एक लीटर कच्चा तेल इस खर्च के बाद कंपनी को करीब 31 रुपये का पड़ता है. यानी हर लीटर पेट्रोल पर आम जनता कम से कम 40 रुपये अधिक चुका रही है. पेट्रोल की कीमत पर राज्य सरकारों द्वारा लगाया गये टैक्स के कारण हर राज्य में उसकी दर कम-ज्यादा होती है. पेट्रोल-डीजल को केंद्र सरकार अभी वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के तहत नहीं लाई है.

आखिर 31 रुपये का तेल आम जनता को करीब 70 से 79 रुपये प्रति लीटर क्यों बिक रहा है? इसका सीधा जवाब है- मोदी सरकार द्वारा लगाए गए टैक्सों के कारण. मोदी सरकार नवंबर 2014 से अब तक पेट्रोल के उत्पाद शुल्क में 126 प्रतिशत और डीजल के उत्पाद शुल्क में 374 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर चुकी है. वित्त मंत्री अरुण जेटली और पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के बयानों से जाहिर है कि मोदी सरकार हाल-फिलहाल अपनी मौजूदा नीति में बदलाव नहीं करने जा रही. संभव है 2019 के लोक सभा चुनाव से पहले इस पर विचार करे.

साभारः जनसत्ता

मारा गया अमरनाथ यात्रा हमले का मास्टरमाइंड अबु इस्माइल

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श्रीनगर। सुरक्षाबलों ने गुरुवार को श्रीनगर के आरिबुग माच्छुबा में लश्कर कमांडर अबु इस्माइल को मार गिराया है. एनकाउंटर में इस्माइल के साथ एक और आतंकी मारा गया है. दूसरे आतंकी की पहचान अभी नहीं हो सकी है.

अमरनाथ यात्रियों की बस पर हमले के मास्टरमाइंड अबु इस्माइल की तलाश कई दिनों से चल रही थी. बटमालु और आस-पास के इलाकों में मौजूदगी की सूचना पर कई स्थानों पर छापेमारी भी की गई थी. बता दें कि अमरनाथ हमले में सात लोग मारे गए थे. अबु दुजाना के मारे जाने के बाद अबु इस्माइल को लश्कर कमांडर बनाया गया था.

अबु इस्माइल पर 10 लाख रुपए का इनाम था. 24 वर्ष का इस्माइल पाकिस्तान का नागरिक है और दो वर्ष पहले दक्षिण कश्मीर में घुसपैठिए के तौर पर दाखिल हुआ था. अबु इस्माइल कश्मीर में अति सक्रिय हिजबुल मुजाहिद्दीन के कई नेताओं के करीब थे.

पुलिस के डर से 120 दलित परिवारों ने किया पलायन

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एटा। उत्तर प्रदेश के एटा में पुलिस द्वारा दलितों को सताया जा रहा है. जलेसर कोतवाली की पुलिस दलितों को जबरदस्ती उठा कर ले जा रही है. पुलिस की मनमानी और अत्याचार से परेशान दलित समुदाय के लोग पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं. पुलिस के डर से लगभग 120 दलित परिवार अपना घर छोड़ चुके हैं.

13 सितंबर को दलित महिलाए बसपा कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर एसएसपी से न्याय की गुहार की. ठगेलान मोहल्ले की गंगा देवी ने एसएसपी को दिए प्रार्थना पत्र में कहा है कि उसके बेटे संजीव की दुकान है. पुलिस वालो ने संजीव और उसके पिता को झूठे केस में फंसाया. और उन्हें अभी तक गिरफ्तार कर रखा है. गंगा देवी ने आगे कहा कि कई पुलिसकर्मियों ने उसकी दुकान से सामान उधार लिया था. संजीव पुलिस वालों से पैसे मांगता तो पुलिसकर्मी उसे टरका देते थे. फिर एक दिन संजीव को उठा कर ले गए.

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दरअसल, पुलिस संजीव के बार-बार पैसे मांगने से तंग आकर पुलिस ने 15 अगस्त की सुबह पुलिस संजीव और कई लोगों को जबरन उठा लिया. जिसके बाद कोतवाली पर दलित समुदाय के लोगों ने थाने पर विरोध किया. अन्य लोगों को तो पांच-पांच हजार रुपये लेकर छोड़ दिया, लेकिन संजीव को नहीं छोड़ा.

पुलिस के डर से 120 दलित परिवार मोहल्ला ठगेलाल और गोलाकुआं से पलायन कर चुके हैं. पीड़ित परिवार की महिलाओं के साथ मौजूद बसपाइयों ने एसएसपी अखिलेश कुमार चौरसिया से पूरे मामले की निष्पक्ष जांच कराने और पुलिस के भय से पलायन करने वाले दलित परिवारों की मदद करने की मांग की.

स्कूल में आग लगने से 23 छात्रों सहित 25 की मौत

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क्वालालंपुर। मलेशिया की राजधानी क्वालालंपुर के एक इस्लामिक बोर्डिंग स्कूल में आग लगने से 25 लोगों की मौत हो गई. मरने वालों में अधिकतर छात्र थे. घटना की खबर लगते ही फायरफाइटर्स की टीम मौके पर पहुंची और किसी तरह आग पर काबू पाया. फायर और रेस्क्यू डिपार्टमेंट फिलहाल आग लगने की वजहों की जांच कर रहा है.

दारुल कुरान इत्तिफाकियाह नाम के इस्लामिक बोर्डिंग स्कूल में विद्यार्थी कुरान की पढ़ाई करते थे. मलेशिया के आग व राहत बचाव विभाग ने बताया की घटना सुबह लगभग 6 बजे हुई. डिपार्टमेंट के डायरेक्टर किरुदीन द्राहमन के मुताबिक, हादसे में मरने वालों में 23 स्टूडेंट और 2 वॉर्डन शामिल हैं. भी छात्र 13-17 वर्ष के थे.

क्वालालंपुर पुलिस प्रमुख अमर सिंह ने बताया की छात्रों की मौत शायद आग के धुएं के कारण सांस लेने में दिक्कत के कारण हुई. उन्होंने बताया कि, पिछले दो दशकों के दौरान मलेशिया में सबसे खराब आग के हादसों में से एक था. सिंह ने बताया कि वहां केवल एक प्रवेश द्वार जिसमें सभी फंसे हुए थे. कुछ चश्मदीद गवाहों ने बताया कि आग लगने के बाद कुछ बच्चों को उन्होंने मदद के लिए रोते हुए सुना था.

फायर एंड रेस्क्यू विभाग के संचालन के उप निदेशक सुमन जाहिद ने बताया कि हालांकि अभी तक आग के कारणों की पुष्टि नहीं हो सकी है. एक नागरिक ने बताया कि बच्चों के चिल्लाने के बाद वे केवल उन्हें बचाने में कामयाब रहे जो खिड़की से बाहर निकल आए थे.” उन्होंने बताया कि हादसे में उसका एक बेटा भी मर गया.

गोरक्षा की तरह हिंदी रक्षा न करें…

हिंदी दिवस परिपाटी, पाखंड, प्रहसन सब कुछ है- साथ में कुछ लोगों के लिए यह प्रायश्चित भी कि कैसे वे अपनी ही भाषा के साथ धोखा कर रहे हैं. इस प्रायश्चित की सीमा बस यही है कि वे सच्चे दिल से मानते हैं कि हिंदी आत्मीयता की भाषा है, कि हिंदी में काम हो सकता है, कि हिंदी में वे काम करना चाहते हैं, लेकिन अंततः रोटी-रोज़गार और सम्मान तीनों अंग्रेज़ी में हैं.

दरअसल हिंदी की असली मुश्किल यही है. इसका वास्ता उसकी भाषिक क्षमता से नहीं, उसकी राजनैतिक-आर्थिक हैसियत से है. दुनिया में सत्ताएं भाषाओं की हैसियत तय करती हैं. अंग्रेजी अगर दो सौ साल से विश्वभाषा है तो बस इसलिए कि एक दौर में वह इंग्लैंड की भाषा रही और अब अमेरिका की भी भाषा है. जब जर्मनी और फ्रांस की हैसियत बड़ी थी तो जर्मन और फ्रेंच बड़ी भाषाएं थीं- यूरोप के भीतर अब भी इन भाषाओं की सांस्कृतिक हैसियत बड़ी है. यही बात रूसी-चीनी जैसी भाषाओं के बारे में कही जा सकती है. सोवियत संघ के ज़माने में रूसी दुनिया की बड़ी भाषा थी, अब चीनी उभार के दौर में धीरे-धीरे चीनी सीखने पर ज़ोर है.

लेकिन हिंदी की विडंबना इससे कहीं ज़्यादा बड़ी है. भारत की राजनीतिक हैसियत बड़ी होती है तो अंग्रेज़ी की हैसियत में इज़ाफ़ा होता है. क्योंकि चाहे-अनचाहे इस देश में शासन और रोज़गार की भाषा अंग्रेज़ी है. नीतियां अंग्रेज़ी में बनती हैं, फ़ैसले अंग्रेज़ी में लिए जाते हैं, मानक अंग्रेज़ी में तय होते हैं, विकास के मुहावरे भी अंग्रेज़ी में गढ़े जाते हैं. हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाएं दूसरे दर्जे की नागरिक हैं. बेशक, इस विडंबना की एक वजह उस औपनिवेशिक अतीत में है जिसकी वजह से आधुनिक शिक्षा और जीवन के सारे उपकरण हमारे यहां अंग्रेज़ी की मार्फ़त आए हैं- लोकतंत्र भी, विज्ञान भी और समाज और इतिहास की समझ भी. लेकिन दूसरी विडंबना यह है कि जैसे हमने बहुत सारी चीज़ों का उचित देसीकरण किया, उस तरह अंग्रेज़ी की इस विरासत का नहीं किया. अनुसंधान और शोध की अपनी परंपरा हम विकसित नहीं कर पाए, ज्ञान-विज्ञान और मीडिया के भी अपने मुहावरे नहीं बना पाए. भारतीय राष्ट्र राज्य के जटिल भाषिक द्वंद्व में भी सही रास्ता निकाल न पाने की मजबूरी ने अंग्रेज़ी को ताक़त दी. उर्दू और दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ हिंदी का पुल कमज़ोर पड़ता गया. सिर्फ हिंदी नहीं, दूसरी भारतीय भाषाएं भी इस प्रक्रिया की शिकार हुईं.

सवाल है, इससे उबरने का रास्ता क्या है? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है. पहली बात तो यह कि हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं की परस्पर निर्भरता बढ़ानी होगी. इसका एक तरीक़ा स्कूलों में चलने वाला त्रिभाषा फार्मूले के तहत हिंदीभाषी क्षेत्रों में तीसरी भाषा के तौर पर तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मराठी, बांग्ला जैसी क्षेत्रीय भाषाओं की पढ़ाई से निकलता है. इन तमाम स्कूलों में जब दूसरी भाषाओं के लोगों को रोज़गार मिलेगा तो उन भाषाओं के भीतर भी हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ेगी. इस क्रम में हिंदी की परंपरा को भी पहचानना होगा जो सिर्फ संस्कृत से नहीं, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश और उर्दू तक से बनती है. इस लिहाज से तुलसी और कबीर ही नहीं, ग़ालिब और मीर भी हिंदी की ही परंपरा के कवि हैं.

लेकिन यह बस पहला क़दम है. दूसरे क़दम का वास्ता भाषिक नहीं, बड़े सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन से है. धीरे-धीरे हिंदी का मध्यवर्ग अंग्रेज़ी में दाखिल हो चुका है. हिंदी अब दलितों और आदिवासियों की प्रतिनिधि भाषा के रूप में उभर रही है. यह वह समाज है जो नए बनते इंडिया के मुक़ाबले कहीं ज्यादा बड़े, विविध और वास्तविक भारत की नुमाइंदगी करता है. यह समाज जब अपने हक़ और हित की लड़ाई लड़ेगा तो वह अंग्रेज़ी में नहीं, हिंदी में लड़ी जाएगी और उसके साथ बाकी बदलाव लाने होंगे.

वैसे ध्यान रखने की एक बात और है. हिंदी को सबसे ज़्यादा हिंदी प्रेमियों से बचाने की जरूरत है. हिंदी रक्षा का काम कुछ लोग उसी तरह करना चाहते हैं जैसे गोरक्षा का काम करते हैं. वे अचानक हिंदी से तमाम तद्भव, देशज-विदेशज शब्दों को हटाने की मांग करते हैं. कुछ अरसा पहले दीनानाथ बतरा के नेतृत्व में बनी एक कमेटी ने पाठ्य पुस्तकों से ऐसे शब्दों को हटाने की सिफ़ारिश की. यह सबसे ख़तरनाक मांग है. भाषाओं को सबसे ज़्यादा शुद्धतावाद मारता है. मनुष्यों की तरह भाषाएं भी खुली हवा में सांस लेती हैं तो फूलती-फलती हैं. बंद दायरे में वे सड़ने लगती हैं, शब्द मरने लगते हैं. अगर आप हिंदी से फ़ारसी शब्दों को हटाना चाहेंगे तो आपको तुलसी के राम चरित मानस को भी बदलना होगा- वहां भी कई शब्द फ़ारसी के मिलते हैं. इसी तरह अंग्रेज़ी विरोध हिंदी रक्षा का ज़रिया नहीं हो सकता. विरोध अंग्रेज़ी से नहीं, अंग्रेज़ी की विशेषाधिकार वाली हैसियत से है. हम इस हैसियत को बदलना चाहें तो इसके लिए स्वस्थ आंदोलन की जरूरत होगी. जबकि हिंदी दिवस के मौक़े पर बहुत सारे लोग हिंदी को भी अंग्रेज़ी की तरह विशेषाधिकार दिलाना चाहते हैं जिससे दूसरी भाषाएं चौकन्नी हो उठती हैं. यह समझना होगा कि हिंदी की दुनिया बहुत विपुल-विराट है, उसे धीरे-धीरे बोली में बदलने की प्रक्रिया से रोकना होगा. हिंदी को सिर्फ मनोरंजन, राजनीति और कविता-कहानी की भाषा से आगे ले जाकर एक बड़े समुदाय के वैचारिक और जीवंत राष्ट्रीय संवाद की भाषा में बदलने की लड़ाई लंबी होगी.

प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं

साभारः एनडीटीवी

अब JNU-DU नहीं ले सकेंगे विदेशों से चंदा, सरकार ने रद्द किया लाइसेंस

नई दिल्ली। केंद्र सरकार ने सैकड़ों शैक्षणिक संस्थानों की विदेश फंडिंग लेने से रोक दी है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी दिल्ली, आईसीएआर के अलावा सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन सहित सैकड़ों शैक्षणिक संस्थाओं का विदेशी चंदा लेना का लाइसेंस केंद्र सरकार ने रद्द कर दिया है.

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने विदेशी अंशदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए) 2010 के तहत इन संगठनों का पंजीकरण रद्द किया है. लगातार पांच साल तक अपना सालाना रिटर्न सौंपने में विफल रहने के कारण इन शैक्षणिक संस्थानों के खिलाफ यह कदम उठाया गया है.

एफसीआरए के तहत पंजीकरण नहीं होने पर संस्थान विदेशी चंदा नहीं ले सकते हैं. कानून के तहत ऐसे संगठनों के लिए हर साल अपनी आय-व्यय का ब्योरा सौंपना अनिवार्य है. ऐसा नहीं करने वाले संगठनों का पंजीकरण निरस्त कर दिया जाता है.

अन्य जिन संगठनों का एफसीआरए पंजीकरण निरस्त किया गया है उनमें सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन, पंजाब विश्वविद्यालय, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, गार्गी कॉलेज दिल्ली और लेडी इरविन कॉलेज दिल्ली एस्कॉर्ट हर्ट इंस्टीट्यूट एंड रिसर्च सेंटर, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नेहरू युवा केंद्र संगठन, सशस्त्र बल ध्वज दिवस कोष, स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर दिल्ली और एफआइसीसीआई सोसियो इकानामिक डेवलपमेंट फाउंडेशन शामिल हैं।

इन संगठनों के अलावा दून स्कूल ओल्ड ब्याज एसोसिएशन, श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज दिल्ली, डॉ. जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट, डॉ. राममनोहर लोहिया इंटरनेशनल ट्रस्ट को विदेशी चंदा लेने से रोक दिया गया है. सभी का एफसीआरए पंजीकरण निरस्त किया गया है.

जातिवादी गुंडों ने महादलित बच्चे के हैंडपंप छूने पर बच्चे और महिलाओं को पीटा

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छपरा। बिहार के छपरा में जातिवादी गुंडों ने महादलित परिवार के बच्चों और महिलाओं को पीटा. जातिवादी गुंडों ने घटना को अंजाम सिर्फ इसलिए दिया कि महादलित बच्चों ने सरकारी चापाकल (हैंडपंप) को छू दिया था.

दरअसल, 12 सितंबर को सलापतगंज शेखटोली मोहल्ला में रहने वाले महादलित परिवार का बच्चा रंजीत कुमार मोहल्ले में लगे सरकारी चापाकल पर नहाने के लिए गया था. जब पानी चलाकर नहाने लगा तो मोहल्लों के जातिवादी गुंडों ने बच्चे को जातिसूचक गालियां दी और यह कहकर बच्चे को मारकर भगा दिया कि हैंडपंप क्यों छुआ.

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इस घटना का विरोध करने पहुंची बच्चे की मां शोभा, छोटी बहन मालती और बड़ी बहन रावड़ी देवी को भी पीटकर घायल कर दिया. घायल को इलाज के लिए सदर अस्पताल ले जाया गया. परिवार ने इस घटना की शिकायत भगवान बाजार थाना में शिकायत भी दर्ज कराई लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की. पुलिस द्वारा कार्रवाई न होने पर पीड़ित परिवार एसपी कार्यालय पहुंची और घटना की शिकायत की. एसपी कार्यालय ने कार्रवाई का आश्वासन देते हुए कहा कि थाने में जाए निश्चित ही कार्रवाई होगी.

पीड़ित परिवार का कहना है कि घटना के दो दिन बाद तक भी आरोपियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. जातिवादी गुंडे जान से मारने की धमकी दे रहे हैं.

नदी में नाव पलटने से 25 की मौत, दर्जनों लापता

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बागपत। उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के काठा गांव में गुरुवार सुबह यमुना नदी में किसानों और मजदूरों से भरी नाव डूबने से 25 लोगों की मौत हो गई. जबकि दर्जनों लोग अभी लापता हैं जिनकी गोताखोरों के द्वारा तलाश की जा रही है. बताया जा रहा है कि नाव में लगभग 60 यात्री सवार थे.

जिला प्रशासन ने बताया कि हादसे के बाद करीब एक दर्जन लोगों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया है. नाव में करीब 60 यात्री सवार थे. पुलिस और प्रशासनिक अफसर मौके पर हैं. बचाव कार्य में देरी से गुस्साए ग्रामीणों ने द‍िल्ली-सहारनपुर हाइवे जाम कर दिया. जाम खुलवाने पहुंचे एएसपी से हाथापाई हो गई.

ये भी पढ़ेंः रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में आईं मायावती दुर्घटना से गांव काठा में कोहराम मचा हुआ है जबकि प्रशासन की निष्क्रियता से नाराज लोगों ने दिल्ली सहारनपुर हाइवे को जाम कर दिया है. मिली जानकारी के अनुसार बागपत के काठा गांव निवासी अनेक महिला और पुरुष हर रोज नाव द्वारा यमुना पार करके मजदूरी और खेती किसानी के लिए हरियाणा जाते हैं.

मौके पर मौजूद जिलाधिकारी भवानी सिंह ने बताया कि नाव में क्षमता से अधिक करीब 60 यात्री सवार थे. इनमें अधिकांश महिलाएं थीं. नाव जैसे ही बीच नदी में पहुंची, अचानक डूब गई. जिलाधिकारी के अनुसार पुलिस और पीएसी की बचाव दल की टीमों ने अभी तक 25 शव निकाले हैं. जबकि करीब एक दर्जन लोगों को सुरक्षित बाहर निकाला गया है. उन्होंने बताया कि नाव में सवार अधिकांश लोग बागपत से हरियाणा में मजदूरी करने जा रहे थे.

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पुलिस के अनुसार नाव की क्षमता 15 यात्रियों की थी, लेकिन उसमें करीब 60 यात्री सवार थे. उधर, हादसे के बाद मृतक के परिजनों और ग्रामीणों द्वारा हंगामा जारी है. पुलिस लोगों को शांत करने की कोशिश में जुटी है.

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बागपत में हुई नाव दुर्घटना पर गहरा शोक व्यक्त किया है और हादसे की जांच के निर्देश दिए हैं. उन्होंने जिलाधिकारी को मृतकों के परिजनों को हर संभव राहत दिलाने के निर्देश दिए और मुआवदे का ऐलान किया.

अब बाजार में आएंगे 100 रूपए के सिक्के

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मुंबई। केंद्र सरकार जल्द ही 100 रुपये और 5 रुपये का नया सिक्‍का जारी करेगा. तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और दक्षिण भारत के सुपरस्टार रहे डॉ. एमजी रामचंद्रन की जन्‍म शताब्‍दी पर सरकार की तरफ से यह घोषणा की जाएगी. इस बारे में वित्‍त मंत्रालय ने एक अधिसूचना भी जारी की है. फिलहाल चलन में चल रहे 10 रुपये और 5 रुपये के सिक्‍कों से य‍ह सिक्‍का कई मामलों में अलग होगा. सिक्के पर एमजी रामचंद्रन की आकृति होगी और इसके नीचे ‘DR M G Ramachandran Birth Centenary’ भी लिखा होगा.

सरकार की तरफ से जारी किए जाने वाले 100 रुपए सिक्‍के के अगले भाग के बीच में अशोक स्‍तंभ पर शेर का मुख होगा और इसके नीचे देवनागिरी लिपी में ‘सत्‍यमेव जयते’ लिखा होगा. सिक्‍के के ऊपर रुपये का निशान और 100 रुपये का मूल्‍य भी छपा होगा. 100 रुपये का सिक्का चांदी, कॉपर, निकेल और जिंक से मिलकर बना होगा. 35 ग्राम वजन वाले इस सिक्‍के में 50 फीसदी चांदी, 40 फीसदी कॉपर, 5-5 फीसदी निकल और जिंक होगा.

वहीं पांच रुपये के नए सिक्‍के का वजन 6 ग्राम होगा. यह सिक्‍का में 75 फीसदी कॉपर, 20 फीसदी जिंक और 5 फीसदी निकेल से मिलकर बना होगा. फिलहाल 1, 2, 5 और 10 रुपये के सिक्के चलन में हैं. इस सिक्‍के के एक भाग पर अशोक स्तंभ बना होगा. सिक्‍के के दूसरी तरफ अशोक स्तंभ के साथ एक तरफ भारत और INDIA भी लिखा होगा. साथ ही इसके नीचे अंकों में 5 लिखा होगा.

कौन हैं डॉक्‍टर एमजी रामचंद्रन? 17 जनवरी 1917 को श्रीलंका के कैंडी में जन्मे एमजी रामचंद्रन ने ही 1972 में एआईडीएमके की स्थापना की. रामचंद्रन 1977 से 1987 तक तीन बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे. राजनीति में आने से पहले वह दक्षिण भारतीय फिल्मों के बड़े अभिनेता और फिल्म निर्माता थे. रामचंद्रन ही पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता को भी राजनीति में लेकर आए थे. साल 1988 में उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया.

योगी सरकार के खिलाफ गुस्से में किसान

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लखनऊ। यूपी चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने किसानों को लुभाने के लिए उनका कर्ज माफ करने का वादा किया था, लेकिन कुछ इलाकों से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिसमें कर्ज-माफी और किसानों का मजाक बनाया जा रहा है. बहुमत की सरकार बनने के बाद सीएम योगी ने अपनी पहली कैबिनेट बैठक में छोटे किसानों के कर्ज को माफ करने की घोषणा की थी. योगी ने 1 लाख रुपए तक के कर्ज को माफ करने का आदेश भी जारी किया था. लेकिन कर्ज-माफी के नाम पर यूपी के तमाम किसान खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. प्रदेश के अलग-अलग जिलों में कर्ज-माफी के नाम पर किसी का 10 रुपए कर्ज माफ हुआ तो किसी का 20, 30, 50, 100 या 200 रुपए. ऐसा मामला बलरामपुर, लखीमपुर खीरी, हमीरपुर, अंबेडकर नगर, कानपुर देहात समेत अन्य कई जिलों में भी सामने आया है. कड़ी धूप में घंटों इंतजार के बाद जब किसानों को ऋणमाफी प्रमाणपत्र मिले तो उनके चेहरे की हताशा नजर आने लगे. किसान सरकार के इस मजाक से गुस्से में थे. तो वहीं इस कागजी कर्जमाफी पर आला अफसरों ने चुप्पी साध रखी है. प्रभारी मंत्री भी अन्नदाताओं के साथ हुए इस मजाक का संतोषजनक उत्तर नहीं दे पा रहे हैं.

यह पहला मौका नहीं है जब किसानों के साथ इस तरह का मजाक किया गया हो. इससे पहले अखिलेश सरकार में भी राहत के रूप में किसानों को 23 और 28 रुपए के चेक देने का मामला सामने आया था. किसानों को बीजेपी सरकार में राहत की उम्मीद थी, लेकिन ये सरकार भी पिछली सरकारों जैसा ही कर रही है. दोनों सरकार में कोई अंतर नहीं है.”