पांच सितम्बर को गौरी लंकेश जैसी महान पत्रकार की हुई हत्या समाज के लिए निंदनीय है. उनकी हत्या के बाद सोशल मीडिया पर उनके लिए प्रयोग की गयी अभद्र भाषा हमारी सांस्कृति को शोभा नहीं देता. इस अभद्र भाषा का प्रयोग करने वालों पर कार्यवाही होनी चाहिए. भारत में पत्रकारों की हत्या का ये कोई पहला मामला नही है. पत्रकारों की हत्या का सिलसिला 25 मार्च 1931 से शुरू हुआ था जब उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक साम्प्रदायिक हिंसा में गणेश शंकर विद्यार्थी जी की हत्या कर दी गयी थी.
इसके अलावा आजाद भारत में पत्रकारों की हत्याओं के ऐसे कई मामले है जिनमे राजदेव रंजन, हेमंत यादव, संजय पाठक, संदीप कोठरी, जागेन्द्र सिंह, एम.वी.एन. शंकर, तरुण कुमार आचार्य, सांई रेड्डी, राजेश वर्मा, रामचंद्र छत्रपति, थोनाओजम ब्रजमानी सिंह, वी. शैल्वाराज, अधीर राय, एन.ए. लालरुहलु, इरफ़ान हुसैन, शिवानी भटनागर, बक्शी तीरथ सिंह, उमेश डोभाल जैसे महान पत्रकारों की हत्याएं हुई है. यह हत्याएं किसी व्यक्ति की नहीं बल्कि पूरे समाज की हत्या है. मीडिया समाज की आवाज होती है और इस आवाज़ का लगातार गला घोटा जा रहा है. कभी डरा-धमकाकर तो कभी लालच देकर समाज की आवाज़ को निरंतर चुप कराया जाता रहा है.
पत्रकारों की सुरक्षा पर निगरानी रखने वाली प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय संस्था कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने वर्ष 2016 में 42 पन्नों की अपनी विशेष रिपोर्ट में कहा था भारत में रिपोर्टरों को काम के दौरान पूरी सुरक्षा नहीं मिलती है. इसमें कहा गया था कि भारत में 1992 के बाद से 27 ऐसे मामले दर्ज हुए जब पत्रकारों को उनके काम के सिलसिले में क़त्ल किया गया, लेकिन किसी भी मामले में आरोपियों को सजा नहीं हो सकी. इस रिपोर्ट ने भ्रष्टाचार कवर करने वाले पत्रकारों की जान को खतरा बताया क्यूंकि इन 27 में 50 प्रतिशत पत्रकार भ्रष्टाचार सम्बन्धी मामलों पर ख़बरें कवर करते थे.
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ जर्नलिस्ट (आईएफजे) के अनुसार वर्ष 2016 में विश्वभर में 93 पत्रकारों की हत्या कर दी गयी. वही भारत में पिछले वर्ष करीब पांच पत्रकारो की हत्या की गयी. मीडिया से जुड़े लोगों की हत्या के मामले में विश्वभर में भारत आठवें स्थान पर है. ग्लोबल एडवोकेसी ग्रुप के रिपोर्टर विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने भारत को पत्रकारों के लिए एशिया का सबसे खतरनाक देश बताया था. रिपोर्ट में कहा गया था कि पत्रकारों की हत्या के मामले में भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी आगे है.
आजाद भारत में पत्रकारो की हत्याओं पर एक नजर
चूंकि मैं भी मीडिया के क्षेत्र से हूं वर्तमान में मास कम्युनिकेशन (अंतिम वर्ष) का छात्र हूँ इससे पूर्व मैंने अपने गृह जनपद फर्रुखाबाद में “यूथ इण्डिया” समाचार पत्र में पत्रकार के रूप में कार्य किया जहां भू-माफियाओं के खिलाफ संपादक शरद कटियार के निर्देशन में समाचारों का प्रकाशन करने के बाद धमकियों का सामना कर चुका हूं. हालांकि माता-पिता के मना करने पर कुछ ही समय में मुझे इस अखबार को छोड़ना पड़ा. मुझे नहीं मालूम मेरा यह फैसला सही था या गलत! लेकिन इस अखबार के (यूथ इण्डिया) संपादक शरद कटियार को झूठे मुक़दमे में फंसाकर 19 अगस्त 2017 को गिरफ्तार किया गया है. क्यूंकि वह अपनी धारदार कलम से सफेदपोश भू-माफियाओं एवं गुंडों की असलियत को सामने लाने का कार्य करते रहे है. इससे पूर्व उनपर कई जानलेवा हमले भी हो चुके है. लेकिन आज भी वह इस आन्दोलन से पीछे नहीं हट रहे है.
अगर ऐसा ही रहा तो यकीनन मीडिया का अस्तित्व ही मिट जायेगा. मीडिया का कार्य समाज की बुराईयों से पर्दा उठाना और सच्चाई को सामने लाना है जबकि मीडिया को सफेदपोश अपने इशारो पर नाचने देखना चाहते है. अब वक़्त है कि प्रत्येक नागरिक को मीडिया की स्वतंत्रता एवं सुरक्षा के लिए आवाज़ उठानी चाहिए. झूठी और बिकाऊ पत्रकारिता से समाज को कोई लाभ नहीं है. सरकार को चाहिए कि कलम के कातिलों को कठोर से कठोर सजा दी जाये एवं मीडिया की सुरक्षा एवं स्वतंत्रता के लिए कानून बनाया जाये और अगर ऐसा कर पाना संभव न हो तो लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ “मीडिया” को लोकतंत्र से ही बाहर कर देना चाहिए.
यह लेख पत्रकारिता के विद्यार्थी मोहम्मद आकिब खान ने लिखा है.

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