अब बाहर से समर्थन नहीं, सरकार में शामिल होगी बसपा!

 साल 2018 में राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी का प्रदर्शन शानदार रहा था। बसपा ने प्रदेश के छह सीटों पर जीत दर्ज की थी। तब बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दिया था। लेकिन सत्ता के लालच में बसपा के सभी छह विधायकों ने खुद को कांग्रेस में विलय कर लिया था और इस तरह छह सीटों जीतने के कुछ महीने बाद ही बसपा की राजस्थान में जीरो सीट हो गई थी। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती का कहना है कि अब बसपा बाहर से समर्थन देने की बजाय सरकार में शामिल होगी यानी अब पार्टी के विधायक सरकार में मंत्री बनेंगे।

राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और तेलंगाना जैसे चार महत्वूपर्ण राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर बहनजी ने 25 जुलाई को समीक्षा बैठक के दौरान यह फैसला किया। इन राज्यों में विधानसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर बहनजी ने प्रदेश के प्रमुख नेताओं के साथ बैठक बुलाई थी। इस बैठक में बसपा सुप्रीमो ने कहा कि “बी.एस.पी कई राज्यों में बैलेन्स ऑफ पावर बनकर जरूर उभरी है, किन्तु बी.एस.पी विरोधी जातिवादी तत्व सरकार बनाने के अपने लोभ में साम, दाम, दण्ड, भेद आदि अनेकों घिनौने हथकण्डे अपना कर बी.एस.पी. के विधायकों को तोड़ लेते हैं। जिससे जनता के साथ विश्वासघात करके घोर स्वार्थी जनविरोधी तत्व सत्ता पर काबिज हो जाते हैं। ऐसा बार-बार होने से बी.एस.पी मूवमेंट को भी काफी आधात पहुंचता है। अतः आगे इन विधानसभा आम चुनाव के बाद बैलेन्स ऑफ पावर बनने पर लोगों की चाहत के हिसाब से सरकार में शामिल होने पर विचार किया जाएगा।”

बहनजी ने आगे कहा कि हालांकि बसपा ने उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में चार बार अपनी सरकार बनाई है और बाबासाहेब आंबेडकर और मान्यवर कांशीराम के सपनों को जमीन पर उतारने का शानदार काम किया है। लेकिन दूसरे राज्यों में भी बैलेन्स ऑफ पावर बनकर सरकार में शामिल होकर करोड़ों गरीबों, शोषितों और उपेक्षितों के हित व कल्याण के लिए काम किया जा सकता है। साथ ही उन पर होने वाले जुल्म-ज्यादती व अन्याय-अत्याचार आदि को रोकने का काम भी किया जा सकता है।

बहनजी कि इस नई घोषणा और रणनीति का बसपा समर्थकों और पार्टी के नेताओं ने स्वागत किया है। और इसे जरूरी और साकारात्मक फैसला बताया जा रहा है। दरअसल बहुजन समाज पार्टी का प्रदर्शन कई राज्यों में काफी बेहतर होता रहा है। इसमे छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं। बसपा का दक्षिण में भी जनाधार है और पार्टी यहां भी सीटें जीतने में सफल रही है। लेकिन अपनी अब तक की नीति के कारण बहुजन समाज पार्टी कहीं भी सरकार में शामिल होने की बजाय बाहर से समर्थन देती रही है, जिससे उसके विधायकों में असंतोष रहता है। लेकिन चार राज्यों के चुनाव के पहले बसपा सुप्रीमों द्वारा लिये गए इस नए राजनैतिक फैसले से निश्चित तौर पर बसपा के प्रत्याशियों और कार्यकर्ताओं में जोश बढ़ जाएगा।

इंफाल का उनका घर मैतेइयों ने जला दिया है

(10 मई,  2022) मणिपुर से रोज हिंसा और आगजनी की खबरें आ रही हैं। मेरी एक मित्र का घर पूर्वी इंफाल में था। मणिपुर पुलिस बल में कार्यरत रहे उनके पति का निधन कई वर्ष पहले हो चुका है। वे स्वयं चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़ी पेशेवर हैं तथा अपने दो बच्चों-एक बेटा और एक बेटी- को पालते हुए स्वाभिमानपूर्वक जीवन जीती रही हैं।

आखिर उस इंफाल शहर में एक अकेली मां को क्या भय हो सकता है, जिसके बीचोबीच स्त्री सशक्तिकरण का अनूठा प्रतीक ‘इमा कैथल’ शान से देर शाम तक इठलाता रहता है। ‘इमा कैथल’ मणिपुरी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- मदर्स मार्केट। माता बाजार या कहें, अम्मा का बाजार। यह एक ऐसा बाजार है, जिसे सिर्फ महिलाएं चलाती हैं। इसे लगभग पांच सौ साल पहले 16वीं शताब्‍दी में महिलाओं द्वारा कुछ छोटी दुकानों के साथ शुरु किया गया था। आज यह एशिया का सबसे बड़ा और सबसे प्रभावशाली महिला बाजार है।
इस बाजार की खास बात यह है कि यहां दुकानदार केवल और केवल महिलाएं ही हो सकती हैं। उनमें भी वही, जो शादी शुदा हों।
उस विशाल बाजार कॉम्लेक्स में लगभग 5000 महिलाएं दुकानदारी करती हैं। इन दुकानों में मछलियों, सब्जियों, मसालों, फलों से लेकर स्थानीय चाट तक न जाने कितनी तरह की चीजें मिलती हैं। पूर्वोत्तर भारत में महिलाएं मछली से लेकर सूअर तक मांस बेचते हुए दिखती हैं। बल्कि मांस की दुकानों को चलाते हुए शायद ही कोई पुरुष दिखाता है। वे ही इन्हें बिक्री के दौरान काटती भी हैं, जो मुझे जैसे उत्तर भारतीय को शुरु में अजूबा लगा था।

मणिपुर पर संसद में हंगामा, विपक्ष ने दिखाए तेवर, मोदी गायब

2019 में जब हम पहली बार इंफाल में मिले थे। उन्होंने अपनी कामचलताऊ हिंदी में मुझे इस बाजार का इतिहास बताया था। मणिपुर में पुराने समय में लुलुप-काबा यानी बंधुवा मजदूरी की प्रथा थी। इसके तहत पुरुषों को खेती करने और युद्ध लड़ने के लिए दूर भेज दिया जाता था। ऐसे में महिलाएं ही घर चलाती थी। खेतों में काम करती थी और बोए गए अनाज बेचती थीं। इस करण उन्होंने एक ऐसा बाजार निर्मित किया जहां केवल महिलाएं ही सामान बेचें। ब्रिटिश हुकूमत ने जब मणिपुर में जबरन आर्थिक सुधार लागू करने की कोशिश की तो इमा कैथल की इन साहसी महिलाओं ने उसका खुलकर विरोध किया। इन महिलाओं ने एक आंदोलन शुरू किया जिसे नुपी लेन, यानी ‘औरतों की जंग’ कहा गया। नुपी लें के तहत महिलाओं ने अंग्रेजों की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लगातार विरोध-प्रदर्शन किए। माताओं का यह आंदोलन दूसरे विश्वयुद्ध तक चलता रहा।
मेरी मित्र कहना था कि इंफाल आने वाले पर्यटकों के लिए शायद इमा कैथल सिर्फ का कौतुहल की चीज हो। लेकिन हम मणिपुरियों के लिए यह मातृशक्ति का पर्याय है। उन्होंने बताया था कि आज भी यह बाजार सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर चर्चा के लिए जाना जाता है। स्थानीय लोग मणिपुर राजनीतिक-सामजिक मिजाज समझने और उनपर चर्चा के लिए भी यहां आते हैं।
हालांकि मेरी मित्र राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं रखतीं। उन्होंने स्वयं भी इसे स्पष्ट किया था कि बच्चों को अच्छी परवरिश दे सकूं उन्हें अच्छी शिक्षा दिला दूं और अपनी जिंदगी में पीछे छूट गई खुशियों में कुछ को कुछ क्षण के लिए ही जी लूं, इतना ही मेरे लिए काफी है।
3 मई को उन्हें खबर मिली कि उनकी कॉलोनी पर हमला होने वाला है। इससे पहले कि लोग कुछ सोच पाते, मैतेइयियों का एक समूह उनकी कॉलोनी में पहुंचा। उनमें सिर्फ युवक नहीं थे, बल्कि अधेड़ और किशोर उम्र की बच्चे भी शामिल थे। उनके पास अत्याधुनिक हथियार थे, वे दरवाजों को पीट रहे थे तथा जो भी कुकी दिख रहा था, उस पर हमला कर रहे थे। वे वहां से किसी तरह भागीं। उनके परिवार के साथ दर्जनों अन्य परिवार जान बचाने के लिए किसी तरह पूर्वी इंफाल के नागा बहुल इलाके में पहुंचे और स्थानीय लोगों की मौन-सहमति से लोडस्टार पब्लिक स्कूल में छिप गए। नागाओं पर उन्हें भरोसा था। उस स्कूल का परिसर बहुत विशाल था, जिसमें उस समय अनेक वाहनों को सुरक्षा की दृष्टि से रखा गया था।
उन्होंने चार लोंगों की हत्या होते अपने आंखों से देखा। वे सभी कूकी थे। वे वहां कुछ दिन रहीं। हर दिन वहां भी मैतेइियों का हमले की आशंका फिजा में तैरती रहती। उतने सारे लोग दम साधे वहां रहते ताकि बाहर आने जाने वालों को उनकी मौजूदगी का आभास न हों। कुछ दिन बाद सुरक्षा-बलों के ट्रकों में उन्हें वहां से निकाला गया और राहत-शिविर में पहुंचाया गया। वे अब अपनी किशोर उम्र की बेटी और जवान हो रहे बेटे साथ दिल्ली में रोजी-रोटी के संघर्ष में लगी हैं।
इंफाल का उनका घर मैतेइयों ने जला दिया है। आज सुबह जब वे फोन पर उन घटनाओं के बारे में बता रहीं थीं, ताे मैं उनके स्वर में असायहता से भरा कंपन महसूस कर सकता था।
15 मई, 2023
इन दिनों असम के जिस कस्बे में रहता हूं, वहां से मणिपुर का प्रवेश द्वार, जिसे माओ गेट कहा जाता है, महज चार घंटे का रास्ता है।
मणिपुर से मेरा रिश्ता पुराना रहा है। किशोरावस्था में पहली बार एनसीएसी द्वारा आयोजित एक ट्रैकिंग कार्यक्रम में गया था। उन दिनों पटना में रहता था। उसके बाद दिल्ली में रहते हुए पूर्वोत्तरी राज्यों की यात्रा कार से की थी और उस समय भी मणिपुर में कई दिन रहा था। अब तो खैर, यह इतना करीब है कि सुबह नाश्ता घर में और लंच इंफाल में किया जा सकता है। पहले रास्ते बहुत खराब थे, अब कोलकात्ता से थाईलैंड तक के लिए एक प्रशस्त के हाईवे बन रहा है,जिसके रास्ते में मेरा यह कस्बा और मणिपुर भी आता है। उसके बाद हाईवे मोरेह बार्डर से म्यमार में प्रवेश करेगा और थाईलैंड की राजधानी बैंकाक तक जाएगा। मौजूदा केंद्र सरकार की कोशिश है कि पूर्वोत्तर को हाईवे से पाट दिया जाए। उनकी नजर में यही एकमात्र विकास है, जिससे पूर्वोत्तर के आदिवासियों को कथित मुख्य धारा में शामिल किया जा सकता है।
जब से मणिपुर में हिंसा शुरु हुई है, वहां की जमीनी हालत समझने की कोशिश कर रहा हूं। इस संबंध में मेरी मणिपुर में तीन परिचितों से बीच-बीच में बातचीत होती रही है। तीनों महिलाएं हैं, जिनमें से दो कूकी और एक मैतेई हैं।
हिंसा के पहले सप्ताह में ही दोनों कूकी महिलाओं को अपने परिवार के साथ मणिपुर छोड़कर भागना पड़ा है। इनमें से एक हिंसा के बाद अब अपनी किशोर उम्र की बेटी और जवान हो रहे बेटे साथ दिल्ली में रोजी-रोटी के संघर्ष में लगी हैं। दूसरी कूकी महिला चूरचांदपुर की हैं। उन्होंने गुवाहाटी में बसे अपने संबंधियों के घर शरण ले रखी है। तीसरी महिला, जो मैतेई हैं; इंफाल की रहने वाली हैं, उन्हें घर नहीं छोड़ना पड़ा है, लेकिन वे भी वहां भय के साये में जी रही हैं।
दोनों कूकी महिलाएं अक्सर मेरे व्हाट्स एप वहां हो रही क्रूर घटनाओं के वीडियो, फोटोग्राफ आदि भेजती रहती हैं तथा कूकी लोगों के बीच गाए जा रहे संघर्ष के गीतों, उनकी मार्मिक अपीलें आदि भेजती रहती हैं। मणिपुर में इंटरनेट पर प्रतिबंध है, ये वीडियो और अपीलें उनतक पता नहीं कैसे पहुंचती हैं। शायद मणिपुर से लगातार पलायन कर रहे कूकी लोग अपने साथ इन्हें लेकर आते हों।
उनके द्वारा दी सूचनाओं में मुख्य तौर पर मैतेइयों की क्रूरता और अत्याचारों का जिक्र होता है। वे जब किसी संगठन द्वारा वितरित पंपलेट या खबरों के लिंक आदि भेजती हैं तो उसमें कुछ राजनीतिक बातें भी होती हैं। मसलन, इनमें कहा गया होता है कि मैतेइयों के हिंसा करने वाले संगठनों को मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह और भाजपा से राज्य सभा सांसद, महाराजा सनाजाओबा लीशेम्बा का वरदहस्त प्राप्त है। कुछ पंपलेटों में यह भी बताया गया होता है कि किस प्रकार भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर भारत की सांप्रदायिक राजनीति को इस पहाड़ी राज्य में पहुंचाया है।
लेकिन मैतेई समुदाय से आने वाली महिला ऐसी कोई तस्वीर, वीडियो आदि नहीं भेजतीं और इस बारे में पूछने पर प्राय: सवालों से बचना चाहती हैं। आज जब मैंने उनसे कूकी लड़कियों पर मैतेइयों के अत्याचार बारे में पूछा तो उन्होंने छूटते ही कहा कि वे एक स्त्री होने नाते शर्मिंदा हैं।
मैंने उन्हें कहा कि मेरे पास कूकियों पर मैतेइयों के अत्याचार की कई कथाएं और वीडियो हैं। अगर उनके पास कूकियों द्वारा मैतेइयों पर किए गए अत्याचार के प्रमाण स्वरूप कुछ वीडियो-तस्वीरें आदि हों तो मुझे भेजें ताकि मैं अपने एक लेख में उनका भी जिक्र कर सकूं। पहले तो उन्होंने शंका जताई कि कहीं उन वीडियो के शेयर करने पर उनका नाम तो बाहर नहीं आएगा। मैंने जब उन्हें इस बारे में आश्वस्त किया तो उन्होंने कहा कि वे थोड़ी देर में इस बारे में बताएगीं। उन्होंने इस बीच शायद किसी से बात की और मुझे व्हाट्सएप किया कि उन वीडियोज को “किसी बाहरी के साथ शेयर करने की इजाजत नहीं है।” इस बारे में पूछने पर यह रोक किसने लगाई है, उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया।
यह रोक उनके मैतेई समुदाय की ओर से भी हो सकती है। पिछले दिनों कई मैतेई लोगों और संगठनों पर झूठी खबरें, वीडियो फैलाने के आरोप में मुकदमे दर्ज हुए हैं।
मणिपुर की हालत को समझने के लिए मैंने मणिपुर के कुछ प्रमुख राजनेताओं और समाजकर्मियों से भी बात की है। उनसे जो सूचनाएं और विश्लेषण मुझे प्राप्त हुए, वे सभी उतनी ही हैं, जितने अखबारों में प्रकाशित हो चुकी हैं। पत्रकारिता के अपने अनुभव जानता हूं कि इन लोगों की बातचीत में उन्हीं बातों दुहराव होता है, जिसे सब पहले से जानते हैं। ऐसे मामलों में राजनेताओं की दिलचस्पी प्राय: अपना नाम प्रकाशित करवाने में, अपने आधार-क्षेत्र को इस माध्यम से अपनी पक्षधरता बताने में होती है। लेकिन हिंदी में लिखे जा रहे मेरे लेख से उनका वांछित पूरा नहीं हो सकता।
उपरोक्त महिलाएं मणिपुर की मेरी विभिन्न यात्राओं के दौरान मित्र बनीं थीं। राजनीति और समाजकर्म से उनका दूर–दूर तक नाता नहीं है। मुझे लगता है कि विभिन्न पैमानों में साधारण लगने वाली इन असाधरण महिलाओं से बातचीत ने मुझे जमीनी स्तर पर दोनों समुदायों की भावनाओं, प्रतिक्रियाओं और कार्रवाइयों में किस प्रकार का अंतर है, इसे समझने में बहुत मदद की है। …. 

प्रख्यात दलित कार्यकर्ता मिलिंद मकवाना की अमेरिका मे मौत

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पिछले दिनों कैलिफोर्निया असेंबली में जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने वाले विधेयक के विरोधी एक प्रमुख भारतीय-अमेरिकी दलित कार्यकर्ता की क्यूपर्टिनो में सिटी काउंसिल की बहस के दौरान दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गयी। मिलिंद मकवाना 18 जुलाई को हुई इस बैठक में एसबी403 के खिलाफ अपनी बात रख रहे थे और उसी दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा। एसबी403 कैलिफोर्निया राज्य में जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने वाला विधेयक है जिसे राज्य की सीनेट ने मई में मंजूरी दी थी। कैलिफोर्निया पहला अमेरिकी राज्य है जिसने भेदभाव-विरोधी कानूनों में जाति को संरक्षित श्रेणी के रूप में जोड़ा है।

क्यूपर्टिनो के कार्यकर्ता मिलिंद मकवाना ने दिनभर विभिन्न बैठकों और सिटी काउंसिल की बहस में भाग लिया। उन्होंने विधेयक के खिलाफ अपनी बात रखी की और कहा कि यह विधेयक दलित विरोधी है। बहस के कुछ ही देर बाद वह बेहोश हो गए।

‘मिलिंद सभी समुदायों के बीच आपसी सद्भाव चाहते थे’ हिंदू स्वयंसेवक संघ (एचएसएस) द्वारा जारी एक बयान में मिलिंद की पत्नी पूर्वी मकवाना ने कहा, “मिलिंद की साफ धारणा थी कि दलित और बहुजन भी हिंदू हैं। वह वंचित समुदायों के लिए न्याय के प्रति जुनूनी थे और साथ ही, सभी समुदायों के बीच आपसी विश्वास और सद्भाव चाहते थे।”

पूर्वी ने कहा, ”अपने पूरे जीवन में वह धर्म के लिए खड़े रहे। मैं, समुदाय से आग्रह करती हूं वह न्याय, सामंजस्य और धर्म के मिलिंद के सपने को समर्थन दें और आगे बढ़ाएं।”

मिलिंद, सेवा इंटरनेशनल यूएसए के सक्रिय कार्यकर्ता थे। एक सेवा स्वयंसेवक के रूप में, मिलिंद ने वर्ष 2015 में तमिलनाडु में भारी बाढ़ आने पर राहत कार्यों में हिस्सा लिया था। वह ‘आंबेडकर-फुले नेटवर्क ऑफ अमेरिकन दलित्स एंड बहुजन्स’ (एपीएनएडीबी) के भी सदस्य थे।

मणिपुर को लेकर लंबी चुप्पी के पीछे यह है भाजपा की साजिश!

लेखक- बिलक्षण रविदास। मणिपुर में हो रही हिंसा पर लंबी चुप्पी के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तब जुबान खोली, जब दो महिलाओं के साथ हैवानियत हुई और सरकार की थू-थू होने लगी। इसके बाद अब बीजेपी के दो सांसद और सरकार के मंत्रियों अनुराग ठाकुर और स्मृति ईरानी ने प्रेस कॉन्फ्रेन्स में मणिपुर में महिलाओं के साथ की गई हिंसा, बलात्कार और हत्या को लेकर अपनी पार्टी का बचाव करने सामने आ गए। उनका कहना था कि मणिपुर के साथ-साथ राजस्थान और बंगाल में भी महिलाओं के साथ बलात्कार और निर्वस्त्र करने की घटनाएं हुई हैं। लेकिन सभी पार्टियों द्वारा बातें केवल मणिपुर की जा रही हैं। ऐसा कहकर दोनों मंत्रियों ने अपने प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा दिए गए बयान को ही दुहराया है।

यह सच है कि भारत के सभी राज्यों में महिलाओं के साथ बलात्कार और हिंसा की घटनाएं होती रहती हैं। ऐसी अपराधिक घटनाओं के जिम्मेदार अपराधियों पर शीघ्र ही कार्रवाई की जाती रही हैं और अपराधियों को गिरफ्तार कर सजा भी दी जाती रही हैं। ऐसी घटनाओं में राज्य सरकार या किसी पार्टी विशेष द्वारा संरक्षण देने की भूमिका नहीं रही हैं।

लेकिन मणिपुर में महिलाओं के साथ हुई बर्बरता अलग किस्म की हैं जिसमें अपराधियों के साथ भाजपा की केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार और पुलिस प्रशासन की संलिप्तता उजागर हो चुकी हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो पीड़िता के द्वारा एफआईआर दर्ज कराते ही अपराधियों की गिरफ्तारी हो गई होती। न कि एक महीने बाद फिर से एफआईआर दर्ज की जाती और न 77 दिनों बाद सोशल मीडिया पर ऐसी घटनाओं से सम्बंधित वीडियो वायरल होने के बाद अपराधियों की गिरफ्तारी की कार्रवाई की जाती।  महिलाओं के प्रति भाजपा का क्या आचरण रहा है ये बातें पहलवान महिलाओं के साथ हो रही घटनाएं, राम-रहीम की सारी परिघटनाएं, गुजरात, यूपी, मध्य प्रदेश आदि राज्यों की एक दर्जन से ज्यादा ही घटनाएं गवाह हैं।

दरअसल मणिपुर में प्राकृतिक खनिजों पर कब्जा करने और पूंजीपति मित्रों को बेचने के लिए वोट पाना और सत्ता सरकार में बने रहना आवश्यक है। इस लक्ष्य को पाने के लिए संविधान के अनुच्छेद 371 का बंटाधार करना जरूरी कदम है। इसके लिए गैर-जनजाति समुदाय मैतेई को जनजाति सूची में शामिल करने का षड्यंत्रकारी कानूनी कार्रवाई की गई।

इस समुदाय को जनजाति में शामिल कर अपना वोट बैंक बनाने की कोशिश गई है जिसके विरोध में वहां की जनजातियां संघर्ष कर रही हैं। इसलिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के निर्देशन में मणिपुर में सामुदायिक दंगे गत 78 दिनों से जारी हैं, जिसमें अपार जन धन की हानि होती जा रही हैं। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसलिए ही मोदी जी एवं उनके उपर्युक्त दोनों मंत्रियों ने 76 दिन तक चुप्पी साधे रखी। यह भाजपा की सबसे निंदनीय और राष्ट्र विरोधी घृणित कार्य है, जिसे इतिहास में काला अध्याय के रूप में लोग जानेंगे।


नोट- लेखक भागलपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर पद से रिटायर्ड हैं। यह लेखक के अपने निजी विचार है। संस्थान का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है।

लंदन से फ्रांस और फ्रांस से लंदन तक सतेन्द्र सिंह ने तैर कर पार किया 72 किमी का इंग्लिश चैनल

बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को अपना आदर्श मानने वाले दिव्यांग तैराक सतेन्द्र सिंह ने एक और कारनामा कर दिखाया है। सतेन्द्र इन दिनों लंदन में हैं, जहां उन्होंने लंदन से फ्रांस और फ्रांस से लंदन तक 72 किमी की इंग्लिश चैनल टू वे मैराथन रिले तैराकी को सफलता पूर्वक पूरा कर इतिहास रच दिया है।

इस रिले तैराकी में छह दिव्यांग तैराक थे, जिसका नेतृत्व सेतन्द्र सिंह ने किया। सतेन्द्र ने अपनी टीम के साथ 18 जुलाई को यूके में डोबर समु्द्रतट से तैराकी शुरू की थी और टीम ने 19 जुलाई को तैराकी पूरी की। यह पूरी रिले तैराकी 31 घंटे और 29 मिनट में 72 किलोमीटर की दूरी तय करने के साथ पूरी हुई।

सतेन्द्र सिंह ने जिस तरह इस टीम का सफलता पूर्वक नेतृत्व किया, उसकी हर ओर चर्चा हो रही है। सतेन्द्र के साथ इस टीम में शामिल अन्य दिव्यांग तैराकों में नागपुर के जयंत जयप्रकाश दुबले, असम से एलविस अली हजारिका, बंगाल से रिमो शाह, तेलंगाना से सिवाकुमार और तमिलनाडु से स्नेहन शामिल थे। सतेन्द्र मध्य प्रदेश के भिंड के रहने वाले हैं। वह इंदौर में वाणिज्यकर विभाग में जॉब करते हैं।

सतेन्द्र और उनकी टीम ने लंदन के Dover से फ्रांस के Wassant तक जिस इंग्लिश चैनल को तैरकर पार किया, उसे विश्व में जितने भी चैनल हैं, उनका राजा कहा जाता है। इसका तापमान सबसे ठंडा रहता है। सतेन्द्र सिंह की टीम जब इंग्लिश चैनल में तैर रही थी, उस वक्त समुद्र में तेज ठंडी हवाएं और लहरें चल रही थी। समुद्र के पानी का तापमान 14 डिग्री सेल्सियस था।

इस उपलब्धि पर ‘दलित दस्तक’ से फोन पर बात करते हुए सतेन्द्र सिंह ने कहा कि, जीवन में कभी हार नहीं मानना चाहिए और निराश नहीं होना चाहिए। दिव्यांग युवाओं को सहानुभूति की नहीं, बल्कि सम्मान और प्रोत्साहन की जरूरत है। मेरा मानना है कि मेरे जैसा कोई भी व्यक्ति हो, अगर वह सफलता का संकल्प ले और मेहनत करे तो वह जीवन में मुझसे भी आगे बढ़ सकता है।

इस मैराथन तैराकी की एक और बड़ी उपलब्धि यह है कि सतेन्द्र सिंह के नेतृत्व में यह पहली एशियाई टीम है, जिसने ठंडे नार्थ चैनल को पार किया है। सतेन्द्र और उनके साथियों ने यह साबित कर दिया है कि इरादा मजबूत हो तो कोई भी मंजिल हासिल की जा सकती है।

निष्पक्ष सुनवाई के लिए गैर सवर्ण और गैर ओबीसी जज की अपील करने पर 10 लाख का जुर्माना कितना सही?

ओबीसी आरक्षण से जुड़े एक मामले की सुनवाई से सवर्ण समाज के और ओबीसी समाज के जज को नहीं रखने संबंधित याचिका दायर करने वाले लोकेन्द्र गुर्जर पर अदालत ने 10 लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया है। दरअसल मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में ओबीसी आरक्षण से संबंधित एक मामला चल रहा है। यह मामला लोकेश गुर्जर Vs मध्यप्रदेश सरकार के बीच चल रहा है। इसी मामले में लोकेश गुर्जर ने इस मामले की सुनवाई से सवर्ण समाज के और ओबीसी समाज के जजों को अलग रखने की मांग थी। यानी लोकेश की मांग थी कि मामले की सुनवाई एससी-एसटी समाज के जजों से कराई जाए। लोकेश की यही मांग माननीय जजों को नागवार गुजरी।

न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने 17 जुलाई को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश से सामने आई इस अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह अदालत को डराने का प्रयास था। साथ ही याचिका कर्ता लोकेन्द्र गुर्जर पर दस लाख रुपये का जुर्माना भी लगाने का आदेश सुना दिया।

शीर्ष न्यायालय के जजों के जुर्माने वाले फैसले को लेकर मामता तूल पकड़ गया है। कई लोग इसे न्यायपालिका का मनमानापन बता रहे हैं और जुर्माने की आलोचना कर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने इस मुद्दे को ट्विटर पर उठाया है और इसके खिलाफ मुहिम शुरू कर दी है। दिलीप मंडल का तर्क है कि-

संविधान के मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में एक अपील आती है कि ओबीसी आरक्षण से जुड़े केस में, चूँकि ओबीसी और सवर्ण पार्टी यानी पक्ष हैं, इसलिए मामले की सुनवाई निष्पक्ष बेंच करे, जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के जज हों। गौर करें कि याचिकाकर्ता लोकेंद्र सिंह गुर्जर ओबीसी हैं, पर ओबीसी जज नहीं माँग रहे हैं। निष्पक्ष बेंच की माँग कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के अधिकार में ये तो था कि इस याचिका को ख़ारिज कर देता, लेकिन कोर्ट ने याचिकाकर्ता लोकेंद्र गुर्जर पर ₹10 लाख का जुर्माना लगाया है ताकि लोग आगे से कभी न्यायपालिका के जातिवाद पर बात न करें। कोर्ट भय को हथियार बना रहा है।

दिलीप मंडल ने प्रशांत भूषण द्वारा अदालत की अवमानना की याद दिलाते हुए कहा कि इसी कोर्ट ने प्रशांत भूषण पर सिर्फ़ ₹1 का जुर्माना लगाया था, जबकि प्रशांत बाहर बयानबाज़ी कर रहे थे। लोकेन्द्र पर जुर्माना ग़लत बात है और हम इस मामले में चीफ़ जस्टिस और सरकार से तत्काल हस्तक्षेप की माँग करते हैं। ये जुर्माना हटाया जाए।

वरिष्ठ पत्रकार का यह भी कहना है कि ये मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। उनकी मांग है कि इस आदेश को देने वाले सुप्रीम कोर्ट के दोनों जजों को हटाने की कार्यवाही शुरू की जाए।

इस मामले के सामने आने के बाद इसके पक्ष और विरोध में सोशल मीडिया पर जंग तेज हो गई है। तमाम लोग, जिसमें ज्यादातर सवर्ण समाज के लोग हैं, उनका कहना है कि अदालत के मामलों में जातिवाद की बात नहीं करनी चाहिए। उन्होंने इस मामले में याचिकाकर्ता लोकेन्द्र गुर्जर पर हुई कार्रवाई को सही बताया है। जबकि तमाम लोग लोकेन्द्र की मांग का समर्थन कर रहे हैं। उनका कहना है कि जब न्यायालय में एक ही जाति के लोगों का जमावड़ा लगा है, और मामला जाति से ही जुड़ा हो, ऐसे में लोकेन्द्र की मांग गलत नहीं है। तमाम लोगों ने कोलेजियम सिस्टम को लेकर भी अदालत पर सवाल उठाया है।

कई जाने-माने एक्टिविस्ट भी लोकेश के पक्ष में सामने आए हैं। लंदन युनिवर्सिटी से पोलिटिकल साइंस में पीएचडी कर रहे अरविंद कुमार का कहना है कि यह जुर्माना दस लाख लोगों से एक-एक रुपये लेकर भरा जाना चाहिए। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के वकील नीतिश मेश्राम ने ट्विट करते हुए कहा है कि वो उन तमाम मामलों की लिस्ट दे सकते हैं, जिसमें जातिवाद होता है।

मैं आपको एक घटना की याद दिलाता हूं। साल 2022 का मामला है। रिपोर्ट बीबीसी में प्रकाशित हुई थी। हुआ यह था कि केरल में कोझीकोड के सेशन कोर्ट के जज एस कृष्ण कुमार की अदालत में एक मामला आया था। जिसमें सीवी कुट्टन नाम के व्यक्ति पर 42 साल की दलित महिला के यौन उत्पीड़न का आरोप था। इस पर सुनवाई करते हुए जज एस कृष्ण कुमार ने आरोपी को जमानत दे दी थी। अपने फै़सले में जज ने कहा था, ”यह मानना विश्वास से बिल्कुल परे है कि अभियुक्त ने यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि पीड़िता दलित है, उन्हें छुआ होगा।” राजस्थान की भंवरी देवी का मामला याद है न। भंवरी देवी का गैंग रेप हुआ था। लंबे समय तक मामला चला। राजस्थान हाईकोर्ट ने दोषियों को सजा सुना दी। लेकिन मामले में लगातार जज बदलने लगे। फिर सुनवाई हुई और नवंबर, 1995 में अभियुक्तों को बलात्कार के आरोपों से बरी कर दिया गया। उन्हें मामूली अपराधों में दोषी करार दिया गया और वे महज नौ महीने की सजा पाकर जेल से छूट गए थे। जजों ने कहा था कि अगड़ी जाति का कोई पुरुष किसी पिछड़ी जाति की महिला का रेप नहीं कर सकता क्योंकि वह ‘अशुद्ध’ होती है। सोचिए जरा, जिस न्यायपालिका में इस सोच के जज भी बैठते हों, वहां जाति से जुड़े मसले पर पूर्वाग्रह से बचने की मांग करने के लिए मामले से जुड़े जाति पक्ष के जजों को अलग रखना क्या सचमुच में कोई इतना बड़ा गुनाह है कि उसके लिए 10 लाख का जुर्माना लगा दिया जाए?

फर्जी प्रमाण पत्र से नौकरी मामले में छत्तीसगढ़ सरकार के खिलाफ SC-ST युवाओं का नग्न प्रदर्शन

कहते हैं शर्म का एक पर्दा होता है। इंसानों में उस पर्दे का काम हमारे कपड़े करते हैं। लेकिन जब शर्म का वो पर्दा मजबूरी में हटाना पर जाए, आप सोच सकते हैं कि किसी इंसान की हालत क्या होती होगी। किस मजबूरी में वो ऐसा करता होगा। आज छत्तीसगढ़ में युवाओं ने बीच सड़क पर अपने कपड़े उतार दिए।

छत्तीसगढ़ में 267 फर्जी जाति प्रमाण पत्र के जरिये एससी-एसटी युवाओं के हिस्से की नौकरी खा जाने वाले सवर्णों के खिलाफ चुप्पी साधे कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार को जगाने के लिए एससी-एसटी युवाओं ने नग्न प्रदर्शन कर विरोध दर्ज कराया।

छत्तीसगढ़ में आज विधानसभा सत्र शुरु हुआ है। जब VVIP विधानसभा जा रहे थे, उसी समय दर्जन भर नौजवान पूरी तरह से नग्न हो कर सड़कों पर आ गए। इन नौजवानों की माँग थी कि फ़र्ज़ी आरक्षण प्रमाण पत्र के आधार पर नौकरी कर रहे लोगों पर कार्रवाई की जाए।

यह पूरा मामला तब का है जब छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुआ था। तब से अब तक फर्जी जाति प्रमाण पत्र के साहारे आरक्षण, नौकरी एवं राजनीतिक लाभ लेने की तमाम शिकायतें सामने आई है। इन शिकायतों के आधार पर प्रदेश सरकार ने उच्च स्तरीय जांच समिति का गठन किया था। इस जांच में समिति को कुल 758 शिकायते मिली जिसमें से 659 मामलों में जांच की गई। इसमें 267 ऐसे मामले सामने आए, जिसमें सवर्ण समाज के लोग फर्जी जाति प्रमाण पत्र के सहारे आरक्षण से नौकरी एवं राजनैतिक लाभ ले रहे थे। चौंकाने वाली बात यह रही कि इसमें सरपंच और पार्षद से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और उनके बेटे का नाम भी सामने आया था। इसके बाद सामान्य प्रशासन विभाग ने फर्जी लोगों को तत्काल नौकरी से बर्खास्त करने के आदेश दे दिए गए। लेकिन इस आदेश के तीन साल होने के बावजूद अब तक ऐसा हो नहीं पाया है।

साल 2020 में सामने आए इस मामले में छत्तीसगढ़ सरकार और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल द्वारा अब तक कार्रवाई नहीं होने से नाराज एससी-एसटी वर्ग के युवाओं ने 19 जून से आमरण अनशन किया था। लेकिन सरकार ने उनकी एक न सुनी।

 जब भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने थे तो बहुजन समाज के लोगों ने दिल्ली में उनका सम्मान किया था। कहा गया था कि वो बहुजनों के हितों की रक्षा करेंगे। लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है। छत्तीसगढ़ के युवा लाज छोड़कर कपड़े उतार कर मैदान में आ गए हैं। और इतिहास गवाह है कि जब युवा मैदान में आता है तो बड़े-बड़े नेताओं को मैदान छोड़ना पड़ता है। छत्तीसगढ़ में जल्दी ही चुनाव है।

बेंगलुरु से बड़ी खबर, विपक्षी गठबंधन का ना नाम होगा INDIA

बेंगलुरु में विपक्ष की दो दिवसीय बैठक

बेंगलुरु में जुटे 26 राजनीतिक दलों ने अपनी दो दिन की बैठक के बाद नए गठबंधन की घोषणा कर दी है। नए गठबंधन का नाम Indian National Democratic Inclusive Alliance यानी INDIA होगा। शुरुआती तौर पर देखें तो विपक्ष की इस दो दिवसीय बैठक की यह बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी।

साफ है कि भारतीय जनता पार्टी को रोकने के लिए इस बार विपक्ष ने पूरा जोर लगा दिया है। बंगलुरु में विपक्ष की दो दिवसिय बैठक में नेताओं का महाजुटान हुआ है। इस बैठक में 26 राजनीतिक दल जुटे।  जब नेताओं का इतना बड़ा जमावड़ा लगा हो तो  बैठक के दूसरे दिन से उनके अलग-अलग सुर सुनाई देने लगते हैं। लेकिन इस बार विपक्ष एक सुर में बोल रहा है। और वह है देश में महंगाई, बेरोजगारी को बढ़ा देने वाली एक समाज को दूसरे समाज का दुश्मन बना देने वाली भारतीय जनता पार्टी को रोकना।बेंगलुरु में विपक्ष की दो दिवसीय बैठक

इस बैठक में लालू से लेकर ममता, सपा नेता अखिलेश यादव से लेकर आप के अरविंद केजरीवाल सहित देश के अलग-अलग हिस्सों से दिग्गज जुटे हैं। सबने एक सुर से इस बैठक और एकजुटता को जरूरी बताया। ममता बनर्जी ने कहा कि यह बैठक बहुत जरूरी है। जबकि लालू यादव ने इस मौके पर कहा कि हम लोग देश के लिए जुटे हैं। जबकि केजरीवाल का कहना था कि जनता ने नरेन्द्र मोदी को 10 सालों का मौका दिया, लेकिन वह हर क्षेत्र में फेल रहे हैं।

साफ है कि विपक्षी खेमे ने अपना पूरा जोर लगा दिया है। दिल्ली में सत्ता के गलियारे में तमाम लोग डरे हुए हैं। जो मीडिया सत्ता के साथ मिलकर गाल बजाती थी, वह भी बदलाव की आहट देखने लगी है। कुल मिलाकर विपक्ष की गोलबंदी देश में उन तमाम लोगों को यह मैसेज देने में सफल होती हुई दिख रही है कि अगर आप बदलाव चाहते हैं तो यह मुमकिन है। विपक्ष 2024 में केंद्र में बदलाव के लिए साथ आ चुका है, देखना है, जनता उसके साथ कितना आती है।

 

अमेरिका में 14 अक्टूबर को होगा बाबासाहेब की 12 फीट ऊंची प्रतिमा का अनावरण, अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर ने तय की तारीख

अमेरिका से बड़ी खबर आई है। अमेरिका में अंबेडकरवादियों के संगठन अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर (AIC) ने अपने बड़े प्रोजेक्ट के उदघाटन की तारीख तय कर दी है। वाशिंगटन डीसी स्थित एआईसी के मुख्यालय पर बाबासाहेब की 12 फीट की प्रतिमा का अनावरण 14 अक्टूबर 2023 को किया जाएगा। यह मौका इसलिए ऐतिहासिक है क्योंकि भारत के बाहर पहली बार बाबासाहेब आंबेडकर की इतनी बड़ी प्रतिमा लगाई जा रही है। ऐसा कर अमेरिकी अंबेडकरवादियों ने इतिहास रच दिया है। एआईसी के अध्यक्ष राम कुमार जी ने इसकी घोषणा की। उन्होंने लिखा-

Jai Bheem! AIC is installing the statue of Babasaheb Dr. B.R. Ambedkar at it’s headquarters in Maryland. Ceremony of “Unveiling of the Statue” will happen on 14th October, 2023. It is the tallest statue of Babasaheb outside India. Please plan to attend and be part of this historic day in the global Ambedkarite movement. Please click the following link for details. RSVP is required to attend and help us in planning the event. उन्होंने इस दौरान एआईसी की वेबसाइट का लिंक भी साझा किया है, जिसमें तमाम जानकारियां हैं।

https://www.eventbrite.com/e/unveiling-of-the-largest-statue-of-dr-br-ambedkar-in-north-america-tickets-669020828307 इस खबर के सामने आते ही दुनिया भर से बधाईयों का तांता शुरू हो गया। जेएनयू के प्रोफेसर और अंबेडकर चेयर के प्रमुख प्रो. विवेक कुमार ने बधाई देते हुए लिखा-

Historic, unbelievable, a great achievement beyond imagination. Amidst onslaught from every sides you people have shown the world ‘do whatever you can’ we are are not going to stop. In spite of your pain and agony, in spite of hurdles of every kind you have set a positive agenda. This achievement should be celebrated and shared by every conscious- Ambedkarite- Buddhist, Bahujans, followers of Guru Ravidas , and upholders of social justice. Congratulations 👏 to the team AIC and their supporters. Prof Vivek Kumar HOD and Ambedkar Chair Professor, JNU

दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने इसे शानदार खबर बताते हुए एआईसी की पूरी टीम को बधाई दी है। एआईसी के सभी सदस्यों को बधाई देते हुए उन्होंने इसे गौरवान्वित करने वाला पल बताया। उन्होंने कहा कि इस मुहिम में सहयोग करने वाले हर एक साथी बधाई के पात्र हैं। गौरतलब है कि दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने साल 2020 में अपने अमेरिका दौरे के दौरान इस सेंटर को देखा था और इसकी योजनाओं के बारे में संस्थान के सदस्यों से बात की थी। दिल्ली से जब बाबासाहेब का स्टैच्यू अमेरिका गया था, उस प्रक्रिया में भी अशोक दास शामिल थे। दलित दस्तक के यू-ट्यूब चैनल पर इससे जुड़ी खबरें साझा की गई थी। उसका लिंक ये रहा-
     

मोदी के लिए मुश्किल भरा होगा मानसून सत्र, कांग्रेस ने बनाई ये खास रणनीति

20 जुलाई से संसद का मानसून सत्र शुरू होने वाला है। नया संसद बनने के बाद यह पहली बार है, जब संसद का सत्र चलेगा। इस बीच कांग्रेस पार्टी ने मोदी सरकार को घेरने के लिए खास रणनीति बना ली है। दरअसल मोदी सरकार कई मोर्चे पर विपक्ष के निशाने पर है। मणिपुर, रेलवे की सुरक्षा और महंगाई सहित तमाम मुद्दे ऐसे हैं, जिस पर कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार को घेरने की तैयारी कर रही है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और महासचिव जयराम रमेश ने 15 जुलाई को प्रेस कांफ्रेंस कर उन तमाम मुद्दों की जानकारी दी, जिस पर वह सरकार को घेरने के लिए तैयार है। देखिए वीडियो-

मणिपुर मुद्दे पर मोदी सरकार की विदेशों में भारी बेइज्जती

भारत के मणिपुर राज्य में पिछले दो महीनों से जारी हिंसा की गूंज भले ही दिल्ली में बैठे सत्ताधारियों तक नहीं पहुंच रही हो, दुनिया में इसके कारण भारत की भारी फजीहत हो रही है। इसके बाद कांग्रेस पार्टी ने सदन में इस मुद्दे पर चर्चा की मांग कर दी है और सरकार को घेरा है।

दरअसल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के फ्रांस दौरे के बीच, यूरोपीय संसद ने मणिपुर हिंसा पर एक प्रस्ताव पारित किया है। प्रस्ताव में कहा गया है कि यूरोपीय संघ भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख सदस्यों द्वारा की गई राष्ट्रवादी बयानबाजी की कड़े शब्दों में निंदा करता है। हालांकि भारत सरकार ने इस पर पलटवार करते हुए इसे आंतरिक मामला बताया है।

मणिपुर हिंसा का जिक्र फ्रांस के स्ट्रासबर्ग में चल रहे पूर्ण सत्र के दौरान तब हुआ जब मानव अधिकारों, लोकतंत्र एवं कानून के शासन के उल्लंघन के मामलों पर बहस हो रही थी। इस दौरान मणिपुर में जातीय झड़पों पर भी चर्चा हुई। मणिपुर हिंसा पर बहस को संसद के एजेंडे में बहस शुरू होने के दो दिन पहले ही शामिल किया गया था। मणिपुर की स्थिति पर एक प्रस्ताव ब्रसेल्स स्थित यूरोपीय संघ की संसद में रखा गया था।

लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस चिंता को समझने की बजाय भारत के विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने कहा कि ईयू में संबंधित सांसदों को स्पष्ट कर दिया गया है कि यह पूरी तरह से भारत का आंतरिक मामला है।

दूसरी ओर इस पूरे मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार घिरती जा रही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पीएम मोदी पर तंज कसते हुए कहा कि मणिपुर के मुद्दे पर यूरोपियन संसद तक चर्चा हो गई, लेकिन मोदी ने एक शब्द नहीं कहा। तो वहीं कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस मुद्दे पर सदन में प्रधानमंत्री की मौजूदगी में चर्चा कराए जाने की मांग की है।

मणिपुर में 3 मई से कुकी और मैतेई समुदाय के बीच हिंसा जारी है, जिसमें काफी जाने जा चुकी है। पिछले दिनों राहुल गांधी के मणिपुर दौरे के बाद से यह मुद्दा सुर्खियों में आया था और इस पर बहस तेज हो गई थी। जिसके बाद 12 जुलाई को यूरोपीय संसद ने इस पर बहस के बाद 13 जुलाई को मणिपुर पर एक प्रस्ताव पारित करते हुए भारत सरकार से हिंसा को रोकने और धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए तुरंत कार्रवाई करने का आवाह्न किया।

अब भारत सरकार भले ही इसे आंतरिक मामला कह कर अंतरराष्ट्रीय फजीहत से किनारा करना चाह रही है, लेकिन जिस तरह से मणिपुर में हिंसा को रोकने में सरकार उदासीन दिखी, वह बड़े सवाल खड़े करता है।

पटना विश्वविद्यालय में एससी-एसटी के साथ धोखा

31 अक्टूबर 2009 को पटना विश्वविद्यालय में पूर्व बैकलॉग की गणना के आधार पर प्रशाखा पदाधिकारी के पद के लिए 9 सीट निर्धारण किया गया था। ज्ञापन संख्या था 1577. पूरे पटना विश्वविद्यालय में प्रशाखा पदाधिकारी के 11 पद हैं और उस दौरान 10 पद खाली थे। पटना यूनिवर्सिटी की ओर से जारी ज्ञापन के मुताबिक एससी-एसटी को 9 पदों पर पद्दोन्नति का प्रस्ताव आया। इसमें एससी के लिए पांच और एसटी के लिए 4 पद सुरक्षित किये गए। लेकिन एससी-एसटी के कर्मचारियों को प्रशाखा पदाधिकारी के पद पर पद्दोन्नत नहीं कर असिस्टेंट से स्पेशल असिस्टेंट यानी सहायक से विशेष सहायक बना दिया गया। जबकि यह पद होता ही नहीं है।

इसके 14 साल बाद 11 मई 2023 को पटना विश्वविद्यालय ने ज्ञापन संख्या- 492 के जरिये प्रशाखा पदाधिकारी के छह सीटों पर प्रोमोशन कर दिया गया है। इसमें तीन एससी-एसटी को जबकि तीन जनरल को दे दिया गया है। जिसके खिलाफ अनुसूचित जाति- जनजाति के कर्मचारियों ने आवाज उठाई है। आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों ने पदोन्नति के इस मामले में दो गंभीर आरोप लगाते हुए पटना विश्वविद्यालय के कुलसचिव और कुलपति से न्याय की गुहार लगाई है।

 एससी-एसटी वर्ग के कर्मचारियों का आरोप है कि जब साल 2009 में प्रशाखा पदाधिकारी पद के लिए बैकलॉग गणना के आधार पर एससी-एसटी के लिए 9 सीटें खाली थी तो साल 2023 में घटकर वह पांच सीटों पर कैसे सिमट गया? नए आदेश में एससी-एसटी के लिए पांच और जनरल की सीटें 5 कैसे हो गई?

इसका विरोध करते हुए एससी-एसटी वर्ग के कर्मचारियों ने पटना विश्वविद्यालय के कुलसचिव और कुलपति को ज्ञापन सौंपा है। एससी-एसटी कर्मियों की मांग है कि 11 मई 2023 को ज्ञापन संख्या- 492 के आलोक में पटना विश्वविद्यालय मुख्यालय में प्रशाखा पदाधिकारी के पद पर की गई प्रोन्नति को रद्द किया जाए।

इस मामले में एक दूसरा पहलू यह भी था कि बैकलॉग की गणना के आधार पर साल 2009 में हुई पद्दोन्नति का मामला हाई कोर्ट में चल रहा है। इसे आश्चर्य की बात कहे या पटना युनिवर्सिटी प्रशासन का दुस्साहस कहें कि यह सब तब किया गया जबकि उच्च शिक्षा निदेशक रेखा कुमारी ने मई 2023 को एक पत्र जारी कर पटना विश्वविद्यालय के कुलसचिव को कहा था कि चूंकि पद्दोन्नति का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, इसलिए इस बारे में किसी तरह का दखल न दिया जाए।

ऐसे में यह पूरा मामला पटना विश्वविद्यालय प्रशासन पर कई गंभीर सवाल खड़े करता है। सवाल यह भी है कि पटना विश्वविद्यालय के कुलसचिव को जनरल वर्ग के कर्मियों को लाभ पहुंचाने और एससी-एसटी के पदोन्नति के सवाल की अनदेखी करने की इतनी क्या जल्दी थी। क्या उन पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मामला दर्ज नहीं होना चाहिए।

फर्जी जाति प्रमाणपत्र से नौकरी लेने वाले सवर्णों के खिलाफ आमरण अनशन पर बहुजन युवा

एससी-एससी के फर्जी जाति प्रमाण के सहारे नौकरी कर रहे सवर्ण समाज के युवाओं के खिलाफ आरक्षित वर्ग के युवाओं ने मोर्चा खोल दिया है। साल 2020 में सामने आए इस मामले में छत्तीसगढ़ सरकार और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल द्वारा अब तक कार्रवाई नहीं होने से नाराज एससी-एसटी वर्ग के युवा आमरण अनशन पर बैठ गए हैं। उनका आरोप है कि फर्जी जाति प्रमाण पत्र मामले में बर्खास्तगी का आदेश जारी होने के बावजूद अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

कांग्रेस की सत्ता वाले छत्तीसगढ़ राज्य में फर्जी जाति प्रमाण पत्र का मामला एक बार फिर गरमाया हुआ है। इसके खिलाफ नई राजधानी स्थित धरना स्थल पर आरक्षित वर्ग के युवा पिछले 4 दिनों से अनिश्चितकालीन आमरण अनशन पर हैं। दरसल यह पूरा मामला तब का है जब छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुआ था। तब से अब तक फर्जी जाति प्रमाण पत्र के साहारे आरक्षण, नौकरी एवं राजनीतिक लाभ लेने की तमाम शिकायतें सामने आई है। इन शिकायतों के आधार पर प्रदेश सरकार ने उच्च स्तरीय जांच समिति का गठन किया था। इस जांच में समिति को कुल 758 शिकायते मिली जिसमें से 659 मामलों में जांच की गई। इन 659 मामलों में 267 ऐसे मामले सामने आए, जिसमें सवर्ण समाज के लोगों ने फर्जी जाति प्रमाण पत्र के सहारे आरक्षण से नौकरी एवं राजनैतिक लाभ ले रहे थे। चौंकाने वाली बात यह रही कि इसमें सरपंच और पार्षद से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और उनके बेटे का नाम भी सामने आया था।

इसके बाद सामान्य प्रशासन विभाग के पत्र 7-16/2020/ 25.11.2020 के जरिये फर्जी लोगों को तत्काल नौकरी से बर्खास्त करने के आदेश दे दिए गए। लेकिन इस आदेश के तीन साल होने के बावजूद अब तक ऐसा हो नहीं पाया है।

जिसको लेकर एससी-एसटी वर्ग के युवाओं ने मोर्चा खोल दिया है। विनय कौशल के नेतृत्व में मनीष गायकवाड़, हरेश बंजारे, आशीष टंडन, लव कुमार सतनामी, रोशन जांगड़े 19 जून से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे हैं। इस आंदोलन को समर्थन देने के लिए दलित-आदिवासी युवाओं का हुजूम सामने आ गया है।

आंदोलन करने वाले युवाओं का कहना है कि हमारे अधिकारों पर सेंधमारी करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई एवं उन्हे तत्काल प्रभाव से बर्खास्त किया जाए। इस मामले में साफ दिख रहा है कि छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार फर्जी जाति प्रमाण पत्र धारकों का संरक्षण कर रही है। यही वजह है कि कांग्रेस की सरकार तीन साल बाद भी अपराधियों पर कोई भी कार्यवाही नहीं कर पाई है। और तो और फर्जी जाति प्रमाण पत्र के आधार पर नौकरी करने वाले लोगों को प्रमोशन का इनाम भी दे रही है। इस मामले में खुद को पिछड़ों का मसीहा बताने वाले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से लेकर दलित समाज से आने वाले कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और मोहब्बत की दुकान खोलने निकले कांग्रेस के बड़े नेता राहुल गांधी, सभी खामोश हैं। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि छत्तीसगढ़ विधानसभा में बैठे तमाम राजनीतिक दलों के आरक्षित विधायक भी इस मुद्दों पर चुप्पी साधे हुए हैं।

वर्जन :- फर्जी जाति प्रमाण पत्र के सहारे नौकरी करने वालों के खिलाफ आमरण अनशन का आज चौथा दिन है। सत्ता में बैठे हुए लोग फर्जी जाति प्रमाण पत्र धारकों को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं जो हमारे संवैधानिक अधिकारों की हत्या में मददगार साबित हो रहे हैं। विनय कौशल आंदोलनकारी

हमारे लिए चिंता इस बात की भी है कि छत्तीसगढ़ विधानसभा में तमाम आरक्षित जनप्रतिनिधि इन मुद्दों पर चुप्पी साधे हुए हैं लेकिन जब चुनाव का समय आता है तब तमाम आरक्षित जनप्रतिनिधियों को आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र ही नजर आता है लेकिन आज आरक्षित वर्ग के अधिकारों के साथ हो रहे डकैती हकमारी, लूटमारी पर वह लोग कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। उच्च स्तरीय जाति प्रमाण पत्र छानबीन समिति बनाकर उनके ही रिपोर्ट को आधार मानते हुए शासन एवं प्रशासन कार्रवाई करने से डर रही है। आरक्षित वर्ग के हित में कुठाराघात करने के लिए सत्ता पक्ष एवं विपक्ष सब मिले हुए हैं। हमारे मुद्दे राजनीतिक विपक्ष के लिए भी कारगर साबित नहीं होते हैं। हमें अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है। धनंजय बरमाल सोशल एक्टिविस्ट एवं दलित चिंतक अब होही न्याय कहकर सत्ता में आने वाली कांग्रेस की सरकार खुद कटघरे में है, तीन वर्ष बीत गए फर्जी जाति प्रमाण पत्र धारकों को तत्काल बर्खास्त कर कार्यवाही करने के आदेश को आज दिनांक तक पालन में नही लाया जा सका है। कार्यवाही करने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के हाथ पैर क्यों फूल रहे हैं? सरकारी आदेश का पालन नहीं हो रहा हमारे हक-अधिकारों पर सेंधमारी हुई है हम 4दिनों से भूखे है अनिश्चित कालीन धरना दे रहे है इस सरकार में वाकई न्याय होता है तो मुख्यमंत्री जी साबित करे जो दोषी लोग है उन्हे तत्काल बर्खास्त कर कानूनी कार्यवाही करे। मनीष गायकवाड़ आंदोलनकारी

श्रीनगर में हुई थी चौथी बौद्ध संगिति, शानदार है यहां का हरवन बौद्ध विहार

श्रीनगर स्थित हरवन बौद्ध स्तूप श्रीनगर स्थित शालीमार गार्डन जो डल झील के किनारे पर बनी हुई है, वहां से तीन किलोमीटर की दूरी पर दाहिने तरफ पहाड़ी की तलहटी में हरवन स्तूप और चैत्य स्थित है। यहीं पर सम्राट कनिष्क के शासनकाल में 78 ईस्वी में चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया था। इस संगीति में संपूर्ण बुद्ध वाणी का संगायन और अनुमोदन किया गया था। इस संगीति के दौरान संपूर्ण बुद्ध वाणी को तांबे की प्लेटों पर खुदवा दिया गया था और उन प्लेटों को एक सुरक्षित स्थान पर रखवा दिया गया था जिससे बुद्ध वाणी दीर्घकाल तक सुरक्षित रहे। इन प्लेटों को अभी तक ढूंढने में सफलता नहीं मिली है। हाल ही में बौद्ध धम्म पर काम करने वाले स्कॉलर आनंद ने यहां का दौरा भी किया था। उन्होंने दलित दस्तक से यहां की तस्वीरें साझा की है।

श्रीनगर स्थित हरवन बौद्ध स्तूप बौद्ध स्कॉलर आनंद

हरवन बौद्ध विहार में श्रीनगर मंडल के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से जो जानकारी का बोर्ड लगाया गया है, उसके मुताबिक, हरवन का कल्हण की राजतरंगिणी में वर्णित षड् र्हदवन के साथ तादात्म्य किया गया है। ऐसा अनुमान है क कनिष्क के शासन काल में चतुर्थ बौद्ध परिषद का आयोजन इसी स्थान पर हुआ था। यह भी माना जाता है कि कनिष्क (78 ईसवी) के समकालीन प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु नागार्जुन यहीं निवास करते थे। पहाड़ी के ऊपर की ओर बिखरे पुरावशेषों के अतिरिक्त अन्य उत्खनित भग्नावशेष ऊपरी और निचली दो स्तरों पर अवस्थित हैं। निचले स्तर के भग्नावशेषों में सम्मिलित हैं- अगढ़ित पत्थरों से बने चार कक्ष जो कि एक गलियारे द्वारा अलग किये गये हैं, जिनके पूर्व नें सीढ़ियां हैं, अगढ़ित पत्थरों से बने एक आयताकार प्रांगण में उत्तराभिमुख स्तूप का त्रयात्मक आधार और रोड़ी से बनी चारदीवारी है जो कि संभवतः एक मठ का भाग रहा होगा।

श्रीनगर स्थित हरवन बौद्ध स्तूप पर पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा दी गई जानकारी ऊपरी स्तर में एक प्रांगण है, जिसके मध्य अगढ़ित पत्थरों से निर्मित एक अर्धवृत्तकक्षीय संरचना है। इस कक्ष का प्रांगण ढली हुई तथा सादी टाइलो्ं से बना है जो कि अब मिट्टी से ढक दिया गया है। टाइलों पर टेढ़ी नक्काशी, वनस्पति, जीव जन्तु, मेष युद्ध, दूध पिलाती गाय, हिरण का पीछा कर तीर छोड़ता धनुर्धारी घुड़सवार, नृत्यांगना, छज्जे में बैठे वार्तालाप करते स्त्री-पुरुष इत्यादि अंकित हैं जो कश्मीर एवं मध्य एशिया की असाधारण कला को दर्शाते हैं। ऐसा अनुमान है कि इन वस्तुओं का निर्माण ईसवी सन् की प्रारंभिक शताब्दियों में किया गया था।

भीम आर्मी स्थापना दिवस पर चंद्रशेखर आजाद 21 जुलाई को जंतर-मंतर पर करेंगे प्रदर्शन

28 जून को खुद पर हुए हमले के बाद भीम आर्मी चीफ और आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद रावण पहले एक जुलाई को राजस्थान के भरतपुर में गरजे। और अब एक नए जंग की तैयारी में हैं। चंद्रशेखर आजाद ने अपने समर्थकों से 21 जुलाई को दिल्ली के जंतर-मंतर पर आने की अपील की है। इसका ऐलान उन्होंने बुधवार 12 जुलाई की शाम को फेसबुक लाइव होकर किया।

चंद्रशेखर ने कहा कि आप जानते हैं कि 28 को क्या हुआ। लेकिन अब हजारों चंद्रशेखर हैं। देश के कोने-कोने में हैं। चंद्रशेखर ने कहा कि वो मनुवादियों की आंखों में चुभते हैं। उनका बस चले तो चंद्रशेखर के छोटे-छोटे टुकड़े कर दें। भीम आर्मी चीफ ने कहा कि लेकिन मैं अकेला नहीं हूं; जिनको ऐसी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। जिन्होंने भी समाज के लिए काम किया, उन्हें यह झेलना ही पड़ता है।

अपने करीब 25 मिनट के फेसबुक लाइव में चंद्रशेखर आजाद का जज्बा साफ दिखा। उन्होंने कहा कि मेरे आंदोलन के कुछ लोगों की दीवारें हिलेंगी। लेकिन मैं उनकी गोलियों से डरकर नहीं रुकूंगा। मैं चंद्रशेखर आजाद हूं। मैं आजाद पैदा हुआ हूं, आजाद जीयूंगा और आजाद मरूंगा।

अपने ऊपर चली गोली को चंद्रशेखर ने एक संदेश बताया। तमाम नेताओं का जिक्र किया और कहा कि मुझे डर नहीं है। इसके बाद आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद मुद्दे पर आएं, और समाज से सम्मान को बचाने की अपील कर डाली। चंद्रशेखर ने कहा कि बहुजन समाज को लगातार लूटा गया है। उन्होंने ऐलान किया कि यह लड़ाई कमेरा बनाम लुटेरा की है।

अपने संबोधन में भीम आर्मी प्रमुख ने मनुवादियों पर जमकर निशाना साधा और उन्हें सीधी चुनौती दी। उन्होंने कहा कि वो मेरे खून से होली खेलना चाहते हैं। लेकिन मैं उनका पहला शिकार हो सकता हूं, आखिरी नहीं। चंद्रशेखर ने कहा कि यह मूंछ की लड़ाई है। और आपका भाई, आपका खून, आपका इंतजार करेगा।

अब देखना होगा कि भीम आर्मी चीफ और आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद की इस अपील का क्या असर होगा। हालांकि यहां एक बात और ध्यान देने वाली है। चंद्रशेखर आजाद समर्थकों और समाज के लोगों का आवाह्न अपनी पार्टी के बैनर तले नहीं कर रहे, बल्कि भीम आर्मी की स्थापना दिवस पर बुला रहे हैं। तो क्या राजनीतिक गोलबंदी से इतर मनुवादियों के अत्याचार से लड़ने के लिए बनी भीम आर्मी के बैनर तले समर्थकों का आवाह्न कर चंद्रशेखर अपने ऊपर हमला करने वालों को मुंहतोड़ जवाब देना चाहते हैं? और इसी बहाने अपनी राजनीतिक ताकत भी दिखाना चाहते हैं।

चंद्रशेखर की इस अपील का कितना असर होगा, और उसका चंद्रशेखर आजाद सहित दलितों की राजनीति पर क्या असर होगा, यह तो 21 जुलाई को जुटने वाली समर्थकों की भीड़ से ही तय हो पाएगा।

राष्ट्रपति ने उच्च शिक्षण संस्थानों से एससी-एसटी के ड्रॉप आउट का मुद्दा उठाया

उच्च शिक्षा के जरिये ही युवा प्रतिकुल परिस्थितियों के कुचक्र से बाहर आ सकते हैं। उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों को सुरक्षित और संवेदनशील वातावरण मिले। शिक्षकों और संस्थानों के प्रमुखों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विद्यार्थी तनाव मुक्त होकर अध्ययन का आनंद ले सकें।

यह बातें भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कही है। पिछले दिनों जजों के सामने जेलों में बंद एसटी-एसटी के लोगों के लिए आवाज उठा चुकी भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू नेअब देश के विभिन्न टॉप विश्वविद्यालयों से एससी-एसटी के विद्यार्थियों के ड्रॉप आउट का मुद्दा उठाया है। अपने वक्तव्य में ओडिसा के छोटे से गांव से निकल कर शहर जाकर अध्ययन शिक्षा ग्रहण करने के अनुभव को साझा किया।

केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2019 में, दो वर्षों के आंकड़ों के आधार पर एक विश्लेषण किया गया था। जिसमें यह बात सामने आई है कि इस दौरान लगभग 2500 विद्यार्थियों ने IITs में अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। उन विद्यार्थियों में लगभग आधे विद्यार्थी आरक्षित वर्गों से आए थे। आप खुद सुनिये राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने क्या कहा-

पसमांदा मुसलमान ही तो भाजपा का मारा है

भारतीय जनता पार्टी पसमांदा की राजनीति खुलकर कर रही है। वह सिद्धांत वह नारा कि भाजपा किसी जाति और मजहब के आधार पर राजनीति नहीं करती, कहां चला गया? भाजपा करती  है लेकिन  मानती भी नहीं या कोई जवाब भी  नहीं देती। विपक्ष जब तक जवाब माँगे तब तक कोई नया मुद्दा पैदा हो जाता है – जैसे समान नागरिक संहिता के कारण बेरोजगारी और महंगाई को लोग भूल जाएँगे । दूसरे दल तो स्पष्टीकरण भी देते फिरते हैं। उत्तर प्रदेश के हाल के स्थानीय चुनावों  में भाजपा को मुस्लिम बाहुल्य इलाके में कुछ सफलता मिली है, उससे उत्साहित होकर  पसमांदा मुसलमानों की बात कर रही है। कुल 395 मुस्लिम उम्मीदवारों को भी टिकट दिया था। जिसमें से 61 प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की है। इस तरह से 15% ने सफलता प्राप्त किया है। क्या वही लोकसभा के चुनावों में भी होगा, यह जरूरी नहीं है। अब  यह देखना होगा कि पसमांदा मुस्लिम को कौन ज्यादा क्षति पहुंचा रहा है। पसमांदा मुसलमान की सामाजिक और बौद्धिक पूंजी नहीं के बराबर है  जैसे हिंदुओं में दलितों और पिछड़ों की है। सवर्ण मुसलमान की बौद्धिक और सामाजिक पूंजी सवर्ण हिंदू जैसी है। इनके पिछड़ने का मूल कारण यही है। इन्हें वे सरकारी लाभ न मिल सके जो दलितों- आदिवासियों को मिले।

        मॉब लिंचिंग किसकी होती है। पसमांदा मुसलमान ही पशु का व्यापार करता है और गौ रक्षक का प्रकोप इन्हीं पर तो पड़ता है। कथित सवर्ण मुसलमान  अगर बीफ के कारोबार में हैं तो वे शहरों में थोक विक्रेता हैं, जहां कोई असुरक्षा की स्थिति नहीं होती।  अशरफ़ मुसलमान  स्लॉटर हाउस के मालिक मिल जाएंगे। बड़े स्लाटर हाउस वैश्य समाज के नियंत्रण में हैं। ये पसमांदा मुस्लिम हैं जिन्हें गांव–गांव और गली–कूचे में जाना पड़ता है और पशुओं को जमा करके गाड़ियों में लाद कर बेचते हैं। रास्ते में अगर गौरक्षक के हत्थे चढ़े तो उनके प्रकोप का शिकार बन जाते हैं। फर्जी  पुलिस केस दर्ज होता है और उगाही तथा लाठी-डंडे के शिकार होते ही हैं ।

                  अगर  पसमांदा मुसलमानों से बीजेपी को प्यार है तो पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश  के विधानसभा चुनावों में एक भी मुसलमान को  टिकट क्यों नहीं दिया? आबादी के अनुसार देखा जाए तो करीब 60 टिकट देना चाहिए था। क्या इसका कोई जवाब है? 2019 के  लोकसभा के चुनावों में  भी एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। इसके अतिरिक्त सशक्तिकरण के तमाम और आयाम हैं, वहां भी तो कुछ नहीं किया। कितने चीफ सेक्रेटरी, डीजी पुलिस, बोर्ड के चैयरमैन और अन्य कल्याणकारी पदों जैसे  प्रोफेसर,  कुलपति, सलाहकार आदि पर तैनात किया?  ऐसी बात नहीं है कि योग्य उम्मीदवारों की कमी हो। यही स्थिति दलितों और पिछड़ों की भी है। करीब 1000 यूनिवर्सिटी हैं उसमें  से कुछ में तो इन्हें वीसी बनाया जा सकता है।

बीजेपी के नेता खुले आम मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की बात करते हैं और कौन अधिक प्रभावित होता है सिवाय पसमांदा के। चूड़ी बेचने वाले कौन है? ठेले पर सब्जी कौन बेचते  हैं? इनके साथ मार–पीट भी होती है। बीजेपी के कुछ सक्रिय कार्यकर्ताओं ने सार्वजनिक आवाहन किया कि इनसे सब्जी मत खरीदो और सारे आर्थिक संबंध  खत्म कर दो। इससे पसमांदा ही अधिक प्रभावित होता है।

2014 के बाद से बहुत सारे अधिकार और सुविधाएं खत्म की जा चुकी हैं। मौलाना आजाद स्कॉलरशिप उच्च शिक्षा के लिए मिलती थी , उसे  सामाजिक न्याय  एवं अधिकारिता मंत्रालय ने खत्म कर दिया। जहां-जहां निजीकरण हुआ वहां पसमांदा मुसलमानों और दलितों-पिछड़ों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। नफरत इतनी बढ़ गई है कि मुसलमान, जो मिली–जुली आबादी में रहते थे, बेचकर अपने समुदाय में जा बसे। 2014 के बाद से भारत में तेजी से मिली–जुली आबादी में फासला बढ़ गया और लगातार बढ़ता ही जा रहा है। सवर्ण मुसलमान मिली–जुली अमीर बस्ती में आराम से रह रहे हैं। जिस बकरे को काटना होता है उसको खिला कर मोटा ताजा किया जाता है। सत्ता हासिल करने के लिए अब 9 वर्ष बाद पसमांदा मुसलमान याद आ रहे हैं। मुसलमानों में ऊंच-नीच और पिछड़ा और सवर्ण पाया जाता है । जिस देश का प्रमुख रीति–रिवाज जैसा होता है उसका असर अल्पसंख्यक पर भी पड़ता है। इस्लाम में जाति नहीं है लेकिन भारत के मुसलमान हिंदू समाज से प्रभावित हैं या यूं कहा जाए कि ये धर्मांतरित हुए हैं। मान लेते हैं बीजेपी को इनसे मुहब्बत हो भी गई है तो अभी क्या बिगड़ा है। तो फिर शुरू कर दें इनका उत्थान। लाखों पद सरकार में खाली हैं इनको मौका दें सेवा करने का । राज्य सभा और विधान परिषद में भेजें। विधान सभा और लोक सभा के चुनावों में टिकट दिया जाए। मंत्रि–परिषद में शामिल किया जाए। संविधान की धारा 341 में इन्हें शामिल किया जाए ताकि आरक्षण का लाभ मिल सके । इस तरह से तमाम अवसर हैं जहां इनको भागीदारी दी जा सकती है। बोलने से नहीं बल्कि करने से ही इनका सशक्तिकरण हो सकेगा।

बाबासाहेब के चरणों में: डॉ. अम्बेडकर से मुलाकात

मेरे पिता को अखबार पढ़ने का बहुत शौक था. जब 43-44 साल की छोटी सी उम्र में ही उनकी आंखों की रोशनी कम होने लगी तो मुझे रोजाना शाम को उनके लिए एक पेपर पढ़ना पड़ता था। जब उनकी मृत्यु हुई तब मैं लगभग सोलह वर्ष का था। जब वे बहुत छोटे थे तब वे डॉ. अम्बेडकर के बारे में बहुत प्यार से बात करते थे, जिसे हमारे सर्कल में कई लोग ‘उम्मीदकर’ कहकर पुकारते थे। वे महाराष्ट्रीयन नामों की रचना और उत्पत्ति के बारे में बहुत कम जानते थे। लेकिन हमारे लिए ‘उम्मीदकर’ का मतलब गलत उच्चारण वाले नाम से कहीं अधिक था। इसका मतलब था “आशा का अग्रदूत’ – ‘उम्मीद लाने वाला’। मेरे पिता की मृत्यु के लगभग दो महीने बाद डॉ. अंबेडकर, तत्कालीन वाइसराय कार्यकारी परिषद में लेबर सदस्य, कुछ आधिकारिक काम के सिलसिले में शिमला आए। कई लोगों ने उनसे उनके आधिकारिक आवास पर मुलाकात की।  मैं भी उनमें से एक था। रंगून के कार्यकारी अभियंता श्री रंगास्वामी लिंगासन के साथ, जो केंद्रीय लोक निर्माण विभाग के तहत अस्थायी रूप से कार्यरत थे, मैंने डॉ. अंबेडकर से मुलाकात की। श्री लिंगासन ने मुझे अंदर ले जाना पसंद नहीं किया क्योंकि वह डर रहे थे कि कहीं डॉक्टर साहब नाराज न हो जाएं। मैं उस बंगले के बाहर बैठ गया, जिसे रात भर सफेदी करके सुसज्जित किया गया था। डॉ. अंबेडकर के निजी सहायक के रूप में काम करने वाले एक युवा श्री बार्कर ने मुझे कुछ समय इंतजार करने के लिए कहा। श्री मैसी, वैयक्तिक सहायक, बहुत खुश नहीं थे लेकिन उन्होंने अनुमति देने से सीधे इनकार नहीं किया। इन सज्जनों में से श्री लिंगसन की मद्रास में कार्यकारी अभियंता के रूप में तैनाती के दौरान अकाल मृत्यु हो गई। बोर्कर की हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गई। श्री मैसी सेवानिवृत्त होकर करनाल में रहते हैं।

मैं सी.पी.डब्ल्यू.डी. में कार्यरत था। और श्रम विभाग के अंतर्गत स्थानांतरित होने का इच्छुक था। मैं बंगले के बाहर सात घंटे तक बैठकर इंतजार करता रहा और फिर देर शाम मिस्टर बार्कर ने मुझे अंदर बुलाया। वह हमारे समुदाय के सबसे महान व्यक्ति, हमारे नेता, हमारे गुरु और मार्गदर्शक के साथ मेरी पहली मुलाकात थी। मैंने कुछ मिनटों तक बात की और उन्होंने मुझसे मेरे माता-पिता और शिक्षा के बारे में पूछा और मैं तब क्या कर रहा था। वह खान बहादुर मुश्ताक अहमद गुरमानी के घर जाने के लिए तैयार हो रहे थे जहां उन्हें रात के खाने के लिए आमंत्रित किया गया था। यह एक संक्षिप्त साक्षात्कार था लेकिन ‘नेता’, ‘उम्मीदकर’ से मिलकर मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं थी। अगर मेरे पिता जीवित होते तो मैं रात भर अपनी यात्रा के बारे में बात करता रहता। लेकिन उन्हें मरे हुए डेढ़ महीने से ज्यादा हो गया था। इस छोटे से साक्षात्कार में देखने और समझने के अलावा सीखने को कुछ नहीं था।

फिर, मैं 1945 में बर्मा मोर्चे से लौटने के बाद बंबई में उनसे मिला, जहां मैंने आर.ए.एफ. के साथ एक राडार इकाई पर काम किया था। मैं अन्य लोगों, अधिकतर राजनीतिक नेताओं के साथ उनसे मिलने जाता रहा था, लेकिन अपना मुंह बंद और कान खुले रखता था। आख़िरकार, 1953 में श्री शिव दयाल सिंह चौरसिया मुझे डॉ. अंबेडकर के पास ले गए। श्री चौरसिया ने मेरा परिचय एक ऐसे युवा व्यक्ति के रूप में कराया जो पढ़ने का बहुत शौकीन था और हमारी समस्याओं के प्रति एक गंभीर छात्र था। दयालु और साहसी शब्द लेकिन वे एक बौद्धिक दिग्गज को कैसे प्रभावित कर सकते थे। वह ऊँचे पैरों वाली कुर्सी पर, जो `26 अलीपुर रोड’ की एक विशेषता है, सिकुड़कर बैठे हुए, अपने हाथ में कुछ नोट कर रहे थे। वह अपनी कलम से नोट्स लेना पसंद करते थे और ऐसा करने में उन्हें आनंद आता था। उन्होंने ऐसा आभास दिया कि उन्हें हमारा आना पसंद नहीं आया और उन्होंने युवा पीढ़ी को डांटना शुरू कर दिया।

‘देखिए, मैं यहां लगातार तेरह घंटे काम करता हूं। आजकल के युवा अपना समय बेतहाशा खिताब की होड़ में बर्बाद करते हैं। इसके बाद हिंदी में नवयुवकों के विरुद्ध कटाक्ष किया गया। `कोना में खड़ा  हो कर  बीड़ी पीता है। शाम को छोकरी को बाजू में ले कर सिनेमा जाता है।”उसमें एक बिंदु और एक अकाट्य आरोप था। हमारी उम्र के कई युवा किसी और के श्रम का फल भोगने के अलावा कुछ नहीं करते। श्री चौरसिया ने उस असहमति नोट के बारे में कुछ बताया जो उन्होंने पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट पर लिखने का प्रस्ताव रखा था। उन्होंने श्री चौरसिया को डांटा, “मैं आपके अध्यक्ष काका कालेलकर को जानता हूं। मैं जानता हूं कि आप लोग क्या करने में सक्षम हैं…”

एक बार फिर, हम आयोग की इस रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए मिले, और बातचीत किसी अन्य विषय पर चली गई, जिसका सीधा संबंध पिछड़ा वर्ग आयोग से नहीं था।

यह हमारे रिश्ते के एक नए चरण की शुरुआत थी।’ मैं अक्सर उनसे मिलने जाता था, अपनी सेवाएँ देता था और उन समस्याओं पर चर्चा करने का अवसर चुराता था जो मेरे मन को परेशान करती थीं।

  मैं पुरातत्व पर एक किताब पढ़ रहा था। उन्होंने अपनी रुचि दिखाई और मेरे हाथ से पुस्तक छीनते हुए मुझसे प्रश्न किया, “आप पुरातत्व का अध्ययन क्यों कर रहे हैं?”

‘मानवविज्ञान और समाजशास्त्र को बेहतर ढंग से समझने के लिए’, मैंने उत्तर दिया। “मैंने पुरातत्व नहीं पढ़ा”, उन्होंने हस्तक्षेप किया। ‘सच है सर, लेकिन मुझे मानवविज्ञान और समाजशास्त्र पर किसी भी किताब के पहले तीन अध्यायों को समझने में कुछ कठिनाई महसूस होती है। इसके अलावा, सर, मुझे किसी शिक्षक के मार्गदर्शन में इन विषयों का अध्ययन करने का अवसर नहीं मिला है। इसके साथ ही किताब ख़त्म हो गयी और वह अपने आप में खो गए। कोई पांच दिन बाद उसने वह किताब लौटा दी।

मैंने हिम्मत जुटाकर उनकी लाइब्रेरी में झाँकने की इजाज़त माँगी। उन्होंने मुझसे पहले ही कहा था कि पुस्तकों को विषयानुसार व्यवस्थित करके इस प्रकार व्यवस्थित करूँ कि उन्हें आवश्यक पुस्तकों की खोज में अधिक समय न लगाना पड़े। इस पुस्तकालय में विविध विषयों पर 14000 पुस्तकें थीं। लेकिन साथ ही उन्हें ये भी पसंद नहीं था कि कोई उनकी लाइब्रेरी में ताक-झांक करे। उन्होंने कहा, ”मेरी पत्नी मेरी किताबों को लेकर बहुत संजीदा है।” वह ईर्ष्यापूर्वक अपनी पुस्तकों की रक्षा करते थे। वह उधार ले सकते थे और उधार लेते भी थे लेकिन उधार देने को तैयार नहीं थे। मैं पुस्तकों के प्रति उनके प्रेम को जानता था और यह भी कि दिल्ली में पुस्तकालयों को बाबा साहेब से पुस्तकें वापस लेने में कितनी कठिनाई होती थी। मुझे आसानी से रोका नहीं जा सकता था, इसलिए उन्होंने एक कहानी सुनाना शुरू किया। “देखो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। एक पादरी था जो बच्चों के लिए संडे स्कूल चलाता था। प्रार्थना सभा समाप्त होने के बाद, उसने इन बच्चों को चाय और नाश्ते के साथ मनोरंजन किया। एक दिन उनमें से एक बच्चा चुपचाप खाने की मेज से गायब हो गया। बिशप इस बच्चे की तलाश में गया और उसे बिशप की किताबों वाली अलमारी के पास खड़ा पाया। भूख और प्यार से, वह एक चित्र वाली किताब में से झाँक रहा था। बिशप को अपने पीछे खड़ा देखकर, बच्चे ने अपना सिर घुमाया और पूछा, “क्या यह आपकी किताब है? “हाँ, मेरे बेटे” बिशप ने उत्तर दिया। “क्या मैं इसे उधार ले सकता हूँ? बिशप ने बच्चे से किताब छीन ली, वापस अलमारी में रख दी और जल्दी से दरवाज़ा बंद कर दिया। ‘यह पुस्तकालय इसी तरह बनाया गया है मेरे बेटे,” उन्होंने कहा और बच्चे को वापस खाने की मेज पर ले गए।  हम हँसते-हँसते हँसते रहे और अनुरोध हँसी में डूब गया।”

भगवान दास

बहनजी की इस नई चाल से चंद्रशेखर को झटका!

भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद पर हमले के बाद उनसे मिलने वालों का जिस तरह तांता लगा रहा, उससे बसपा चौकन्नी हो गई है। युवा चेहरे के रूप में जिस तरह चंद्रशेखर आजाद को दलितों के बीच स्वीकारा जा रहा है, उसने बसपा पर एक मजबूत युवा चेहरे को सामने लाने का दबाव बना दिया है। शायद यही वजह है कि इस बार महीनों बाद बहुजन समाज पार्टी की बैठक दिल्ली में हुई। और नजारा भी बदला सा रहा।

आम तौर पर बैठक के दौरान बसपा सुप्रीमों मायावती ऊपर कुर्सी पर बैठती हैं, जबकि अन्य नेता सामने कुर्सी पर बैठते हैं। लेकिन इस बार बहनजी के साथ मंच पर नेशनल को-आर्डिनेटर आकाश आनंद और उनके पिता आनंद कुमार भी बैठे। आकाश को बसपा सुप्रीमों ने हाल ही में चार चुनावी राज्यो की जिम्मेदारी भी दी है। यानी कि अब तक बहनजी तमाम जिम्मेदारियां देकर आकाश आनंद के कद को धीरे-धीरे बढ़ाती रही हैं, लेकिन पहली बार आकाश को अपने बगल में बैठाकर बहनजी ने साफ कर दिया है कि पार्टी में नंबर दो आकाश ही होंगे।

तो साथ ही चंद्रशेखर के काट के रूप में युवा चेहरे के तौर पर आकाश को सामने खड़ा कर भी बहनजी ने दलित समाज को संदेश देने की कोशिश की है। हालांकि आकाश आनंद के सामने चंद्रशेखर के रूप में एक मजबूत चुनौती है। क्योंकि चंद्रशेखर आजाद ने जहां अपने संघर्ष के बूते अपनी पार्टी बनाई है, तो वहीं आकाश को अपने बुआ की विरासत मिल रही है। ऐसे में आकाश आनंद के सामने खुद को साबित करने की चुनौती बनी हुई है। देखना होगा कि जब दोनों चुनाव में जनता के बीच जाते हैं तो जनता किसे अपना नेता चुनती है। क्योंकि कोई चाहे किसे भी उत्तराधिकारी घोषित कर दे, लोकतंत्र में नेता तो जनता ही चुनती है।

कांशीराम की राह पर आर. एस प्रवीण

कांशीराम के एक वोट एक नोट की तरकीब को कौन नहीं जानता। अपने इसी आईडिया से उन्होंने भारतीय राजनीति की काया पलट कर दी थी। कांशीराम की इसी तरकीब को अपनाया है आईपीएस की नौकरी छोड़कर बहुजन समाज पार्टी तेलंगाना की बागडोर संभालने वाले आर. एस. प्रवीण ने। तेलंगाना में चुनाव नजदीक है और आर. एस. प्रवीण ने कुमुरामभीम- आसिफाबाद क्षेत्र के सिरपुर निर्वाचन क्षेत्र से अगला विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। चुनाव लड़ने की घोषणा और क्षेत्र के चुनाव के बाद अब आर.एस. प्रवीण लोगों से एक नोट- एक वोट की अपील कर रहे हैं।

 दरअसल तेलंगाना चुनाव में बहुजन समाज पार्टी सबको जोरदार टक्कर दे रही है। चाहे सत्ता में बैठे हुए के. चंद्रशेखर राव हों, कांग्रेस हो या फिर भाजपा, सभी के लिए बसपा मजबूत चुनौती पेश कर रही है। खास तौर पर जब से बहुजन समाज पार्टी ने प्रदेश में पार्टी की कमान पूर्व आईपीएस अधिकारी आर.एस.प्रवीण को दी है, तब से बसपा तेजी से मजबूत हुई है।

इससे डरे केसीआर ने दलितों के लिए पहले दलित बंधु योजना की घोषणा की, फिर चुनाव से पहले 125 फीट की बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर की प्रतिमा का अनावरण कर दिया। हालांकि आर.एस प्रवीण इसे महज चुनावी स्टंट मानते हैं और दलितों-बहुजनों के अधिकारों की बात कर रहे हैं। आर.एस. प्रवीण ने बहुजनों के अधिकार की बात करते हुए बहुजन राज्याधिकार यात्रा निकाली। जिसके तहत वह गांव-गांव में घूम रहे हैं और बहुजन समाज को सत्ता हासिल करने के लिए कह रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी अब तक कई बड़ी रैलियां भी कर चुकी है और उसमें जुट रही भीड़ ने सबको चौंका दिया है।

यही वजह है कि मुख्यमंत्री के.सी.आर तमाम योजनाओं के जरिए दलितों को आर्थिक लाभ देने की बात कर रहे हैं। के.सी.आर का कहना है कि दलित इंपावरमेंट स्कीम के तहत प्रदेश के सभी 11,900 परिवारों को दस-दस लाख रुपये देने की घोषणा की है। जबकि आर.एस. प्रवीण इसे चुनावी स्टंट बता चुके हैं। उनका आरोप है कि केसीआर अपने कुछ दलित कार्यकर्ताओं को इस योजना का लाभ देकर बाकी को बाद में योजना का लाभ देने का लालच दे रहे हैं। लेकिन चुनाव बाद क्या होता है, सबको पता है।

जहां तक तेलंगाना में दलितों की बात है तो सरकारी रिकार्ड के मुताबिक तेलंगाना में दलित समाज के 7 लाख 79 हजार 902 लोग खेती करते हैं। जिनके पास 13 लाख 58 हजार एकड़ खेती की जमीन है। तो वहीं प्रदेश में दलित समाज का तकरीबन 17 प्रतिशत वोट है। बहुजन राज्याधिकार यात्रा के जरिये बसपा तेजी से लोगों के बीच पहुंच रही है। तो वहीं इसमें एससी-एसटी सोशल वेलफेयर स्कूल के सेक्रेटी रहने के दौरान आर. एस. प्रवीण ने जिन लाखों बच्चों की जिंदगी बदली थी, उनका और उनके परिवार का समर्थन भी उन्हें मिल रहा है। कुछ मिलाकर तेलंगाना चुनाव में बहुजन समाज पार्टी अपनी मजबूत उपस्थिति से सबको चौंका सकती है।