पीएम मोदी से लेकर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक भले ही खुद के दलित हितैषी होने का दावा करते हैं, इनके राज में दलितों पर अत्याचार लगातार बढ़ा है। दलित समाज के लोग सवर्ण समाज के साथ-साथ प्रशासन के अत्याचार का भी शिकार हो रहे हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले के मिलक क्षेत्र में बाबासाहेब के नाम का साइन बोर्ड लगाने को लेकर हुई झड़प में एक दलित युवक की हत्या हो गई। पुलिस पर युवक की हत्या का आरोप लग रहा है। घटना के बाद पुलिस ने आनन-फानन में दलित युवक की हत्या भी कर दी, जिससे तनाव बढ़ गया है।
खबरों के मुताबिक मिलक थाना क्षेत्र के सिलाई बाड़ा गांव में एक जमीन पर दलित समाज लोगों ने खाद बनाने के लिए एक गड्ढा तैयार किया था। कुछ दिन पहले उन्होंने गड्ढा पाटकर उस पर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के नाम की होर्डिंग लगा दी थी और प्रतिमा लगाने की तैयारी शुरू हो गई थी। जिसको लेकर विवाद हो गया। इस मामले में भीम आर्मी प्रमुख और आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद ने पीड़ित के परिवारजनों से मुलाकात की। इस दौरान चंद्रशेखर ने यूपी सरकार और पुलिस पर जमकर हमला बोला। देखिए पूरी रिपोर्ट-
तमिलनाडु के जवाधु पहाड़ी पर बसे आदिवासी समाज के बीच जश्न का माहौल है। इस समाज की 23 साल की बेटी वी. श्रीपति ने सिविल जज की परीक्षा पास कर इतिहास रच दिया है। श्रीपति तमिलनाडु राज्य की पहली आदिवासी महिला जज बनी हैं। श्रीपति की कहानी दुनिया की हर एक युवती के लिए प्रेरणा से भरी है। उन्होंने जिस तरह तमाम बाधाओं और रुढ़ियों को तोड़ते हुए यह सफलता हासिल की है, वह एक मिसाल है। यह जानकर आप हैरान हो सकते हैं कि जब बच्चे के जन्म के बाद औरतें हफ्ते भर तक घरों से नहीं निकलती, श्रीपति बेटी को जन्म देने के दो दिन बाद ही परीक्षा देने पहुंच गई थी।
श्रीपति का जन्म तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई जिले के पुलियूर गांव में हुआ। वह मलयाली जनजाति से आती हैं। उनके पिता कालिदास एक घरेलू नौकर के रूप में काम करते हैं जबकि माँ घरों में काम करती हैं। जहां तमाम लोग महानगरों की अच्छी स्कूली शिक्षा के बावजूद सफल नहीं हो पाते, श्रीपति ने अपनी शुरुआती पढ़ाई तिरुपत्तूर जिले के येलागिरी पहाड़ी के सरकारी स्कूल से पूरी की। फिर उन्होंने तिरुवन्नामलाई के सरकारी लॉ कॉलेज से कानून में स्नातक किया। इसके बाद तमिलनाडु की डॉ. अंबेडकर लॉ यूनिवर्सिटी से मास्टर डिग्री ली।
पढ़ाई के बाद श्रीपति तमिलनाडु के एक जिला अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने लगी। वंचितों को न्याय दिलाने के जुनून से वह जल्दी ही लोकप्रिय हो गई। लेकिन अदालत में अंतिम फैसला जजों के हाथ में होता था। यह देखते हुए उन्होंने सिविल जज बनने की सोची और तैयारी में जुट गई। लेकिन यह सफर इतना आसान नहीं था। सुदूर गांव में रहने के कारण उन्हें कोचिंग, स्टडी मैटेरियल और इंटरनेट जैसी समस्याओं से जूझना पड़ा। तो दूसरी ओर घर की जिम्मेदारी भी थी।
आदिवासी समाज में शादी जल्दी हो जाने के रिवाज के कारण श्रीपति के माता-पिता ने उनकी शादी भी जल्दी कर दी थी। जब श्रीपति की मुख्य लिखित परीक्षा थी, तब वह प्रेग्नेंट थीं। हालांकि उन्हें यह बाधा पार कर ली और पास हुई। लेकिन आगे और संघर्ष था। 27 नवंबर 2023 को श्रीपति ने बेटी को जन्म दिया और उसके दो दिन बाद ही उनका इंटरव्यू था। बावजूद इसके वह इंटरव्यू देने पहुंची और सफल हुई। 13 फरवरी 2024 को श्रीपति को ज्वाइनिंग लेटर मिल चुका है। इस तरह वह न केवल तमिलनाडु की पहली आदिवासी महिला सिविल जज बनीं बल्कि देश की सबसे कम उम्र की जजों में भी उनका नाम शुमार हो गया।
श्रीपति की इस ऐतिहासिक उपलब्धि में उनकी कड़ी मेहनत के साथ-साथ पिता का प्रोत्साहन, माँ से मिला आत्मविश्वास और पति के सहयोग का भी हाथ रहा। इस उपलब्धि के बाद श्रीपति के नाम की चर्चा हर ओर हो रही है। श्रीपति की इस सफलता पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टॉलिन भी उन्हें बधाई देने से खुद को नहीं रोक पाएं। अपने एक इंटरव्यू में श्रीपति ने कहा था कि वह कुछ ऐसा करना चाहती थी, जो कमजोर वर्गों को प्रेरित करे। निश्चित तौर पर श्रीपति की यह सफलता दुनिया भर के वंचितों को प्रेरणा देने वाली है।
एक वक्त था जब मान्वयर कांशीराम जैसे नेता एक नोट और एक वोट की बात करते थे। उस दौर में जनता के पैसे से चुनाव लड़ने पर जोर दिया था। तब लोकतंत्र मजबूत था और सरकारें स्वतंत्र। दौर बदला और बीते एक दशक में राजनीति 360 डिग्री घूम गई। राजनेताओं और बड़े-बड़े उद्योगपतियों के बीच दोस्ती होने लगी। लोकतंत्र कमजोर होने लगा और सरकारों के काम-काज में धन्नासेठों की दखल बढ़ने लगी।
इसी बीच ना खाऊंगा न खाने दूंगा का नारा देने वाले नरेन्द्र मोदी की सरकार साल 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को लेकर आई। इस स्कीम से राजनीतिक दलों को यह सुविधा मिली की उनको मिलने वाले पैसों का सोर्स बताने को वो बाध्य नहीं हैं। इसको आरटीआई से भी बाहर रखा गया। नतीजा यह हुआ कि तमाम पूंजीपति राजनीतिक दलों को सैकड़ों करोड़ रुपये पार्टी फंड में देने लगे। इस व्यवस्था ने जनता और नेताओं के रिश्ते को कमजोर किया और धन्नासेठों और सरकार की दोस्ती बढ़ा दी। चुनावी खर्चे बेहिसाब बढ़ने लगे। जनता से जुड़े नेताओं का चुनाव लड़ना मुश्किल हो गया। इसका सबसे ज्यादा नुकसान कमजोर वर्गों की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों और आम जनता को हुआ। तब मांग उठने लगी कि इलेक्टोरल बाण्ड के जरिये राजनीतिक दलों को कौन धन्नासेठ कितना पैसा देता है, यह जानकारी सामने आनी चाहिए। आठ साल के लंबे इंतजार के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अहम फैसला सुनाते हुए इस व्यवस्था को रद्द कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार की इलेक्टोरल बांड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द किया। इलेक्टोरल बॉन्ड् पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि “जनता का यह अधिकार है कि वह यह जान सके कि सरकार के पास पैसा कहां से आता है और कहां जाता है, चुनावी बॉन्ड सूचना के अधिकार का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा, चुनावी बॉन्ड योजना, अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है।”
कुछ दिन पीछे चलते हैं। हाल ही में बिहार में नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल का साथ छोड़कर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना लिया। शक्ति परीक्षण के दौरान राष्ट्रीय जनता दल के तीन विधायक भाजपा-जदयू के खेमे में बैठे दिखे। आरोप लगा कि इन्हें लालच देकर अपने में मिला लिया गया है। महाराष्ट्र याद है न, रातों रात एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना से तमाम विधायक टूट कर अगल हो गए और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना लिया। पिछले कुछ सालों में भाजपा ने बिहार और महाराष्ट्र के अलावा मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गोवा, हरियाणा और कर्नाटक में जोड़-तोड़ कर सरकार बनाई है। इसी तरह कांग्रेस ने राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के छह विधायकों को तोड़ कर बसपा को जीरो कर दिया था।
राजनीतिक दल चाहे जो दलील दें, ऐसे तमाम मामलों में हजारों करोड़ रुपये का खेल होता है। विधायकों को अपने में मिलाने की कीमत कई सौ करोड़ों में लगाई जाती है। राजनीतिक दलों के पास ये बेहिसाब पैसा इलेक्टोरल बाण्ड के जरिये पहुंचता है। यह वो पैसा है जो बड़े उद्योगपति राजनीतिक दलों को देते हैं और इसके बारे में जानकारी छुपा कर रखी जाती है कि राजनीतिक दलों को किस उद्योग घराने से कितने पैसे मिले। इन पैसों को सार्वजनिक करने की मांग लंबे समय से उठ रही थी।
कोर्ट ने कहा इलेक्टोरल बांड असंवैधानिक है। चुनावी चंदे में पारदर्शिता और जनता के राइट टू इनफार्मेशन अधिकार का हनन है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी बैंकों को तत्काल प्रभाव से इलेक्टोरल बांड ना जारी करने का आदेश दिया। साथ ही स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को आदेश दिया है कि वह 31 मार्च तक आज की तारीख तक जारी किए गए सभी इलेक्टोरल बांड की पूरी जानकारी चुनाव आयोग को दे जिसे चुनाव आयोग 13 अप्रैल तक अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक करेगा।
यह रकम कितनी बड़ी होती है, इसको जानने के लिए यह आंकड़ा देखिए।
2018-19 में इलेक्टोरल बाण्ड के जरिये भाजपा को 1450 करोड़ रुपये और कांग्रेस को 383 करोड़ रुपये मिले थे।
2019-20 में भाजपा को 2555 करोड़ रुपये और कांग्रेस को 318 करोड़ रुपये मिले थे। 2020-21 में भाजपा को 22.38 करोड़ औऱ कांग्रेस को 10.07 करोड़ रुपये मिले थें। 2021-22 में भाजपा को 1032 करोड़ और कांग्रेस को 236 करोड़ रुपये मिले थे। इसी तरह एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म की रिपोर्ट के मुताबिक 2022-23 में भाजपा को 90 फीसदी कॉरपोरेट डोनेशन मिला है।
साफ है कि इलेक्टोरल बॉन्ड ने राजनीति के भीतर भ्रष्टाचार को बेलगाम बढ़ाने का काम किया। इसने राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता को खत्म किया और सत्ताधारी पार्टियों खासकर भाजपा को सीधे लाभ पहुंचाया। साफ है कि इस फैसले के बाद राजनीतिक दलों और धन्नासेठों के बीच का रिश्ता अब जनता के सामने आ जाएगा।
सेना की 4.55 एकड़ जमीन से जड़े मामले में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा और उनकी गिरफ्तारी हो गई है। सोरेन के बाद झारखंड के नए मुख्यमंत्री से लिए चम्पाई सोरेन का नाम सामने आया है। ऐसे में तमाम लोग चम्पाई सोरेन के बारे में जानना चाहते हैं। साधारण कद-काठी, ढ़ीली शर्ट-पैंट और पैरों में चप्पल चंपई सोरेन की पहचान है। 67 साल के चम्पाई झारखंड विधानसभा में सरायकेला सीट से विधायक हैं। आम जनता के बीच लोकप्रिय और उनके हक के लिए लड़ जाने वाले चम्पाई को झारखंड में टाइगर कहा जाता है।
उनकी लोकप्रियता और पार्टी के प्रति ईमानदारी के कायल झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन और कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन भी हैं। यही वजह है कि इस मुश्किल घड़ी में दोनों ने उन पर भरोसा जताया।
चंपई सोरेन ने अपना राजनीतिक सफर साल 1991 में शुरू किया। तब उन्होंने सरायकेला सीट के उपचुनाव में निर्दलीय लड़कर चुनाव जीता और पहली बार विधानसभा पहुंचे। तब से लेकर अब तक साल 2000 के चुनाव के छोड़ दिया जाए तो सरायकेला की जनता ने हर बार उन्हें अपना नेता चुना। 2005 से लेकर अब तक वह लगातार छह बार इस सीट से विधायक रहे हैं।
प्रदेश में जब-जब झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार बनी, वो मंत्री मंडल में शामिल रहे। फिलहाल वह परिवहन और खाद्य एवं आपूर्ति विभाग का काम देख रहे थे। मैट्रिक पास चम्पाई सोरेन झारखंड को बिहार से अलग राज्य बनाने में शिबू सोरेन के साथ लड़े और तब से वह उनके भरोसेमंद हैं। अपने पिता की तरह हेमंत सोरेन भी चम्पाई सोरेन पर भरोसा करते हैं। और अपनी पत्नी कल्पना सोरेन के नाम पर सहमति नहीं बन पाने के बाद हेमंत सोरेन ने चंपई सोरेन पर भरोसा जताया।
हालांकि झारखंड की राजनीति में चम्पाई सोरेन का अपना कद है। वह शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन के विश्वासपात्र तो हैं ही, लेकिन फकीराना अंदाज वाले और जनता की समस्यों को तुरंत हल करने में यकीन करने वाले इस नेता के अनुभव का लाभ भी झारखंड की जनता को निश्चित तौर पर जरूर मिलेगा। हालांकि चंपई सोरेन को झामुमो-कांग्रेस गठबंधन में नेता चुने जाने के बावजूद जिस तरह राज्यपाल द्वारा शपथ ग्रहण के लिए इंतजार कराया गया है, उससे एक नया विवाद हो गया है।
The Ambedkar Association of North America (AANA) US based Ambedkarite Organization, Ohio State Branch has donated Dr. Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches (BAWS) volumes to the University of Cincinnati, Langsum Library at 2911 woodside drive, Cincinnati, Ohio on the occasion of India’s Republic Day on Friday, the 26th January 2024. Total 18 Volumes donated to this University Library. Today was a historical day for AANA and Ohio State Ambedkarite Chapter who are based in the Cincinnati suburb area.
University of Cincinnati (UC) established in 1819, embodies enduring academic excellence, vibrant campus life, and innovative spirit. UC’s campus bustles with over 50,000 students and growing. Nippert Stadium, nestled in the middle of our urban campus, echoes with the passionate roars of Bearcats fans. Beyond campus, UC students and alumni find success in Cincinnati, voted a top destination for new college graduates four years in a row. UC’s integration into the Big 12 Conference unites top-flight academics and world-class athletics, forging a dynamic path for the university, city and region.
Ms Nimisha, Librarian of Langsum Library, University of Cincinnati has received books from AANA Team. Prof. Shaileja Paik has expressed her sincere gratitude to Ambedkar Association of North America for Donating all the printed writings and speeches of our Hero Babasaheb Dr. B.R. Ambedkar. The BAWs books will be available for all students to be accessed in their respective field of studies. As we all know Babasaheb has written extensively on various subjects be it Politics, World Religions, Judiciary, Economics, Sociology, Anthropology, Theology, Human Psychology, Social Justice, Social Reforms, Pedagogies and many more including our Indian Constitution.The university is also coming up with similar academic events in the month of April this year she said.
It’s really a matter of joy for the entire Ambedkarite community that upcoming and future generations of scholars of University of Cincinnati will be benefited by accessing the writings of such an Ocean of Wisdom.
In the past, AANA donated BAWS books to Wayne State University Michigan, University of Georgia, Georgia Institute of Technology , Eastern Mennonite University, University of Delaware, North Park University Chicago, North Western University Pacific University Oregan, Arizona State University and Michigan State University(digital Catalog https://baws.in), and many more in the USA.
AANA is been instrumental to donate books to the local libraries in USA and many books written by Dr Ambedkar are in the circulation. https://aanausa.org/portfolio/book-donation-in-north-america/
Ambedkar association of North America formed in 2008 on the guided principle of Dr. B.R. Ambedkar’s lifelong work and vision to uplift the downtrodden through education. Education provides the suppressed an opportunity to escape their poverty, experience a better quality of life, and have a voice in their communities. AANA also makes it its mission to spread Buddha’s message of peace and kindness to humanity through cultural, educational, social and economic activities among the South Asian Diaspora in North America.
भारत 75वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। इस मौके पर 26 जनवरी से पूर्व संध्या पर परंपरा के मुताबिक राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने देश को संबोधित किया। सुनिए, महामहिम ने क्या कहा
15 जनवरी 1978, समाचार पत्र ‘अमर उजाला’ में एक तस्वीर छपी थी। तस्वीर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के पिता गोकुल ठाकुर की थी। वह किसी की हजामत बना रहे थे। उनका अपने मुख्यमंत्री बेटे के बारे में कहना था कि मेरे लिए वह बेरोजगार है। पैसा नहीं भेजता। और मुझे अपना पुराना रोजगार करने में कोई संकोच नहीं है।
जो व्यक्ति दो बार बिहार का मुख्यमंत्री रहा हो, उसके पिता के बारे में क्या आप ऐसी कल्पना कर सकते हैं। शायद नहीं, लेकिन यह सच था। दरअसल कर्पूरी ठाकुर परिवार के नहीं, बल्कि समाज के नेता थे। वंचितों और शोषितों के नेता थे। मुख्यमंत्री रहते रिक्शा पर चढ़कर चल देने वाले नेता थे। इसीलिए वो जननायक थे।
24 फऱवरी को कर्पूरी ठाकुर की 100वीं जयंती मनाई जा रही है। और भारत सरकार द्वारा कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा ने इस मौके को और खास बना दिया है। हालांकि भारत रत्न की मर्यादा पिछले दिनों में गिरी है, लेकिन मोदी सरकार की इस घोषणा के बाद वंचित समाज में खुशी है। वह भारत के इस सर्वोच्च सम्मान को निश्चित तौर पर काफी पहले डिजर्व करते थे। लेकिन जब देश लोकसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है, और पीएम मोदी 4 फरवरी को बिहार से चुनावी मुहिम शुरू करने वाले है, ऐसे में इस सम्मान के राजनीतिक मायने भी तलाशे जाने लगे हैं।
लेकिन पहले बात जननायक कर्पूरी ठाकुर की। वह बिहार में आरक्षण के जनक रहे हैं। 1977 में दूसरी बार बिहार का सीएम बनने के बाद उन्होंने ओबीसी को सरकारी नौकरी में 26 फीसदी का आरक्षण दिया। जिसके बाद बिहार की सामंती जातियों ने उन्हें सार्वजनिक तौर पर गालियां दी और उनके खिलाफ निम्न स्तर के जातीय नारे गढ़े गए। संभवतः वह भारत के किसी प्रदेश के इकलौते मुख्यमंत्री रहे, जिन्हें पद पर रहते हुए जातीय गालियां दी गई।
हालांकि कर्पूरी डिगे नहीं। उन्होंने मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को लागू किया, जिसके बाद 90 के दशक में पिछड़ों को देश भर में 27 फीसदी आरक्षण मिला। इससे पहले शिक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म कर दिया ताकि वंचित समाज के बच्चे मैट्रिक की परीक्षा को पास कर सकें।
एक बार का दिलचस्प वाकया है कि जब कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे, तब केंद्र और बिहार दोनों जगह जनता पार्टी की सरकार थी। तमाम नेता जनता पार्टी के नेता जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन के मौके पर इकट्ठा हुए। मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर भी आए। तब लोगों ने देखा कि उनका कुर्ता फटा है। चंद्रशेखर अपने अंदाज में दूसरे नेताओं से पैसे इकट्ठा करने लगे ताकि कर्पूरी बाबू नया कुर्ता खरीद सके। लेकिन कर्पूरी भी आखिर जननायक कर्पूरी थे, उन्होंने वह पैसा तो स्वीकार कर लिया लेकिन उसका कुर्ता खरीदने की बजाय उसे मुख्यमंत्री राहत कोष में दान कर दिया। इससे झूठी शान गढ़ने वालों को जोरदार तमाचा लगा। हालांकि भारत में सरकार के हर कदम को राजनीति के रूप में देखने की परंपरा रही है। ऐसे में बिहार के दो बार मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर को 2024 लोकसभा चुनाव के पहले भारत रत्न देने की घोषणा के मायने तलाशे जा रहे हैं। इसलिए भी क्योंकि हाल ही में बिहार ने जातीय जनगणना कर वंचित जातियों की सत्ता में भागेदारी के सवाल को बड़ा बना दिया है। समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर बिहार के नाई जाति से ताल्लुक रखते हैं। बिहार में नाई जाति अति पिछड़ी जाति में आती है। बिहार में ओबीसी 63 प्रतिशत हैं। इसमें अति पिछड़ी जातियां 36 फीसदी हैं। साफ है कि बिहार जो कि अब तक भाजपा के लिए इकलौता अजेय हिन्दीभाषी प्रदेश बना हुआ है, उसने भाजपा और संघ की नींद हराम कर रखी है।
यह फैसला तब हुआ है जब पीएम मोदी 4 फरवरी को बिहार से चुनावी अभियान शुरु करने वाले हैं। और देश के तमाम अखबारों में संपादकीय पन्ने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को याद करते हुए उनके कसीदे पढ़े हैं। खुद को पिछड़े वर्ग का व्यक्ति बताते हुए देश के तकरीबन 52 फीसदी पिछड़ों से फिर से खुद को जोड़ने की कोशिश की है।
जननायक कर्पूरी ठाकुर निश्चित तौर पर काफी पहले भारत रत्न सम्मान डिजर्व करते थे। हालांकि उन्हें अब यह सम्मान मिल चुका है, लेकिन इसे देने की टाइमिंग को देखते हुए इसके पीछे राजनीतिक लाभ लेने की मंशा को झुठलाया नहीं जा सकता
बिहार के झोपड़ी के लाल, सामाजिक न्याय के महानायक, महान समाजवादी, गरीबों के रहनुमा, पूर्व मुख्यमंत्री, जननायक कर्पूरी ठाकुर जी की आज 100 वीं जयंती है। जयंती की पूर्व संध्या पर भारत सरकार की ओर से उन्हें सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान भारत रत्न देने की घोषणा की गई है। ऐसे में इस दिन की महता और बढ़ जाती है। कर्पूरी ठाकुर को जननायक कहा जाता है। 24 जनवरी, 1924 ई. में उनका जन्म बहुजन समाज के एक गरीब पिछड़े नाई परिवार में हुआ था। बहुत ही आर्थिक मुश्किलों के बीच उनकी पढ़ाई हुई और फिर पढ़ाई छोड़कर वे स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। उस समय बिहार स्वाधीनता आंदोलन के साथ अन्य कई तरह के आंदोलनों का केंद्र था। एक तरफ स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में किसानों का मुक्ति संघर्ष चल रहा था, तो दूसरी तरफ सदियों पूर्व खो गई सत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए पिछड़े वर्गों का त्रिवेणी संघ निर्माण का अभियान भी चल रहा था।
1934 ई. में पटना में ही जयप्रकाश नारायण के प्रयासों से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की गई थी और 1939 में इस सूबे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का भी जन्म हो गया था। मान्यवर कर्पूरी जी ने कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन से न जुड़कर समाजवादी समझ वाली आज़ादी की लड़ाई से अपने को जोड़ लिया। उनके राजनैतिक संघर्ष का लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना था।
आजादी के बाद सोशलिस्ट लोग कांग्रेस से अलग हो गए और कर्पूरी जी धीरे -धीरे समाजवादी पार्टी और आंदोलन के प्रमुख नेता बने। 1967 की संयुक्त विधायक दल की सरकार में वह उपमुख्यमंत्री थे। शिक्षा विभाग उनके पास था। उस वक़्त स्कूलों में छात्रों को हर महीने शुल्क देना होता था। इसके कारण गरीब छात्रों को अर्थाभाव में विवश होकर पढ़ाई छोड़ देना होता था। कर्पूरीजी ने फीस ख़त्म कर दी। मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण किसान व मजदूर परिवार के हजारों बच्चों और लड़कियों की बीच में ही पढ़ाई छूट जाती थी और मैट्रिक फेल होने का उपहास वे सारी जिंदगी झेलते रहते थे। कर्पूरीजी का मानना था अंग्रेजी के बिना भी कुछ क्षेत्रों में अच्छा किया जा सकता है। उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता ख़त्म कर दी। इसे बेईमान एवं धूर्त ब्राह्मणवादी लोगों ने इस तरह प्रचारित किया मानो उन्होंने अंग्रेजी की पढ़ाई ही बंद करवा दीं हो। अंग्रेजी की अनिवार्यता ख़त्म होने से शिक्षा का ज्यादा प्रसार हुआ और बहुजन समाज के बच्चे- बच्चियां भारी संख्या में मैट्रिक की परीक्षा पास करने लगे।
मान्यवर कर्पूरी जी 1971 ई में कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री बने तो सीमांत किसानों की जमीन जोतों से मालगुजारी खत्म कर दीं। 1977 में भी जब दूसरी बार वे मुख्यमंत्री हुए तो 1978 ई में पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने संंबंधी मुंगेरीलाल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं। पूरे उत्तर भारत में इसी के साथ सामाजिक न्याय की राजनीति की शुरुआत हुई। इसके कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद तक छोड़ना पड़ा, किन्तु उन्होंने मंडल कमीशन के गठन और शिफारिशों की पृष्ठभूमि तैयार कर दीं।
वे कभी भी सामाजिक न्याय की अपनी लड़ाई से पीछे नहीं हटे और न उन्होंने इसके लिए कोई पश्चाताप किया। उन्होंने कभी भी अपने या अपने परिवार या किसी जाति विशेष के लाभ के लिए काम नहीं किया। अपने कर्तव्य पर अडिग रह कर गरीबों, मजदूर-किसानों, महिलाओं और हाशिये के लोगों को मुख्यधारा में लाना ही उनकी राजनीति का मक़सद था। उनके आरक्षण के फैसले के खिलाफ सवर्ण जातियों के छात्र-युवाओं ने पूरे बिहार में आतंक फैलाना शुरू कर दिया और कालेज -विश्वविद्यालयों को जबरन बंद करने का ऐलान कर दिया। सवर्णों ने एक अपमानजनक नारा दिया – “पिछड़ी जाति कहां से आई,कर्पूरिया की माय बियाई।”“कर्पूरी कर पूरा, गद्दी छोड़कर धर उस्तुरा”।
सवर्णों द्वारा जगह जगह उन्हें अपमानित किया गया, किन्तु गुदड़ी के लाल कर्पूरी जी ने कभी भी प्रतिहिंसा में कोई असंसदीय जबाव नहीं दिया। लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनकी पूर्ण आस्था थी, इसलिए वे पूरी जिंदगी वंचित एवं शोषित समाज के हितों के लिए संघर्ष करते रहे। उनका आकस्मिक निधन 17 फरवरी 1988 ई. में हुआ और बिहार ने अपने अद्वितीय लाल को खो दिया। लाखों लोगों ने उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की।
बिहार में भूमि सुधार आयोग और कॉमन स्कूल सिस्टम के लिए कर्पूरी जी द्वारा गठित आयोग की सिफारिशें ठन्डे बस्ते में धरी-पड़ी हैं। बिहार में अबतक पिछड़े एवं दलित समाज से कई मुख्यमंत्री बने हैं और बने हुए हैं पर किसी ने भी उसे लागू नहीं किया। आजतक किसी भी सरकार द्वारा न उसे लागू करने का प्रयास कर रही है या न उसे लागू करने के लिए कोई पिछड़े वर्ग की पार्टी आंदोलन कर रही है।
तो आइए,हम इन विषम परिस्थितियों में उनके सामाजिक न्याय के आन्दोलन को आगे बढ़ाए, उनके संकल्प को पूरा करें और समतामूलक लोकतांत्रिक-समाजवादी समाज बनाने के लिए संघर्ष करें। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जगदेव प्रसाद के इस पैगाम को हमें भूलना नहीं है –
“सौ में नब्बे शोषित है, शोषितों ने ललकारा है
धन धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है”
जय कर्पूरी! जय भीम!! जय संविधान!!!
लेखक प्रो. विलक्षण बौद्ध, सामाजिक न्याय आंदोलन बिहार, बिहार फुले अम्बेडकर युवा मंच एवं बहुजन स्टूडेंट्स यूनियन, बिहार से जुड़े हैं।
22 जनवरी को अयोध्या में हुए राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा की चर्चा दुनिया भर में है। लेकिन सोशल मीडिया पर जिस तरह अंबेडकरी समाज के एक समूह द्वारा विरोध स्वरूप #22जनवरी_22प्रतिज्ञा की बात कही गई, उसमें सवाल उठता है कि क्या यह टकराव सही है। इस बारे में दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और अंबेडकरवादी नितिन मेश्राम से चर्चा की। लिंक पर जाकर देखिए पूरा वीडियो।
मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच की ताजा वर्ल्ड रिपोर्ट 2024 में भारत के लिए बुरी खबर है। इस रिपोर्ट में मानवाधिकार के मोर्चे पर भारत की नीतियों को लेकर कई गंभीर आरोप लगाए गए हैं। इस रिपोर्ट में भारत सरकार पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव का आरोप लगाया गया है। 740 पन्नों की अपनी ताज़ा रिपोर्ट में संगठन ने मणिपुर में हुए नस्लीय टकराव से लेकर दिल्ली के जंतर मंतर में महिला पहलवानों के विरोध प्रदर्शन और जम्मू-कश्मीर के हालात का ज़िक्र किया है।
ह्यूमन राइट्स वॉच क़रीब 100 देशों में मानवाधिकारों से जुड़ी नीतियों और कार्रवाई पर नज़र रखता है। इसी के आधार पर वो अपनी सालाना विश्व रिपोर्ट तैयार करता है। ताजा रिपोर्ट 11 जनवरी 2024 को जारी की गई है, जिसमें ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि पिछले साल भारत में मानवाधिकारों के दमन और उत्पीड़न की कई घटनाएं हुई हैं। मोदी सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुए संगठन ने कहा है कि- बीते साल सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, विपक्षी नेताओं और सरकार के आलोचकों को गिरफ़्तार किया। इन लोगों पर आतंकवाद समेत राजनीति से प्रेरित आपराधिक आरोप लगाए गए।
रिपोर्ट के अनुसार,- “छापे मारकर, कथित वित्तीय अनियमितता के आरोप और ग़ैर-सरकारी संगठनों को मिल रही आर्थिक मदद के लिए बने फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन क़ानून का इस्तेमाल कर पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, आलोचकों को परेशान किया गया।”
संगठन की एशिया उप निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “भाजपा सरकार की भेदभावपूर्ण और विभाजनकारी नीतियों के कारण अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा बढ़ी है। इससे डर का माहौल बना है, सरकार की आलोचना करने वालों में डर पैदा हुआ है।”
संगठन ने अपने बयान में भारत में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को हिंदू राष्ट्रवादी सरकार कहा है।
बता दें कि वर्तमान मोदी सरकार पर लगातार मानवाधिकारों के हनन का आरोप लगता रहा है। हालांकि मोदी सरकार ऐसी रिपोर्टों को खारिज करती रही है, लेकिन आंखें मूंद लेने से आरोप गलत नहीं हो जाते। ऐसे रिपोर्ट विश्व गुरु का दावा करने वाले भारत की छवि को दुनिया में कमतर तो करते ही हैं।
हाल ही में जगद्गुरु राम भद्राचार्य ने चमार जाति विशेष के खिलाफ विवादास्पद बयान दिया था। उनके मुताबिक राम को नहीं मानने वाला व्यक्ति चमार है। उनके इस बयान पर दलित समाज के लोगों में जमकर विरोध किया था, जिसके बाद राम भद्राचार्य को खेद जताना पड़ा। इस मुद्दे पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. विक्रम ने दलित दस्तक के संपादक अशोक दास के साथ चर्चा करते हुे राम भद्राचार्य को जमकर घेरा और कई सवाल उठाए। देखिए वीडियो-
13 जनवरी 2024 को भारत और भागलपुर-संथाल परगना प्रक्षेत्र के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी, महान क्रान्तिकारी किसान नेता एवं महान मूलनिवासी बहुजन नायक, अमर शहीद तिलकामांझी की 239वां शहादत दिवस है। इस पुनीत अवसर पर हम अपने 35 वर्षीय अमर युवा शहीद के प्रति भारत के सभी नागरिकों एवं विशेष कर मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि और शत-शत नमन अर्पित करते हैं।
यह सर्वविदित है कि उनका जन्म 11 फरवरी 1750 ई में मूलनिवासी संथाल जनजाति में राजमहल के एक गांव में हुआ था। उनके पिता सुन्दर मांझी एवं माता सोमी थे। उन्होंने मात्र 29 वर्ष की आयु में 1779 में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी की 10 वर्षीय कृषि ठेकेदारी की आर्थिक लूट की व्यवस्था लागू करने, फूट डालो- राज करो की नीतियों, आदिवासियों एवं किसानों का किए जा रहे सूदखोरी-महाजनी शोषण और पहाड़िया एवं संथाल जनजातियों के विद्रोहों- आन्दोलनों को कुचलने की दमनकारी नीतियों और कार्यों के खिलाफ मूलनिवासी किसानों को संगठित कर हुल विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। उनके द्वारा शाल पेड़ के छाल में गांठ बांध कर सभी संथाल एवं पहाड़िया के गांवों में भेजा गया था और विद्रोह करने का निमंत्रण दिया गया था। उनके नेतृत्व में आदिवासियों और किसानों में एकता बनीं और संघर्षों का दौर शुरू हुआ था। 1779 ई. से 1784 ई. तक रुक-रुक कर जगह -जगह राजमहल से लेकर खड़गपुर- मुंगेर तक अंग्रेजों की सेना के साथ गुरिल्ला युद्ध का कुशल नेतृत्व तिलकामांझी ने किया था।
1779 ई में ही भागलपुर के प्रथम कलक्टर क्लीबलैंड नियुक्त हुए थे। उनके द्वारा जनजातियों में फूट डालने की नीति के तहत पैसे, अनाज और कपड़े बांटने के कार्य किए जा रहे थे। पहाड़िया जनजाति के लोगों की 1300 सैनिकों की भर्ती 1781ई में की गई थी। उस सैनिक बल का सेनापति जबरा या जोराह (Jowrah)नामक कुख्यात पहाड़िया लूटेरे को बनाया गया था, जो जीवन भर अंग्रेज़ो के वफादार सेनापति बना रहा। ये सैनिक बल तिलकामांझी के जनजाति एवं किसान विद्रोह को कुचलने और दमन करने के लिए लगातार लड़ाई कर रहे थे। तीतापानी के समीप 1782और 1783 में हुए दो युद्धों में अंग्रेजी सेना की बुरी तरह पराजित हुईं।
उस पराजय के बाद कलक्टर आगस्ट्स क्लीवलैंड के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना के साथ 1783 के 30 नवम्बर को पुनः उसी स्थान पर तिलकामांझी के साथ भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में क्लीवलैंड विषाक्त तीर और गुलेल के पत्थर से बुरी तरह घायल हो गए और उसे भागलपुर लाया गया। उन्होंने अपना प्रभार अपने सहायक कलेक्टर चार्ल्स काॅकरेल को सौंप दिया और वे अपनी चिकित्सा के लिए इंग्लैंड वापस लौट गए। किन्तु रास्ते में ही समुद्री जहाज पर 13 जनवरी, 1784 ई. को उनकी मौत हो गई।
उसके बाद सी कैपमैन भागलपुर के कलक्टर नियुक्त हुए, जिन्होंने तिलकामांझी की सेना और जनजाति समाज के विरुद्ध भागलपुर राजमहल के पूरे क्षेत्र में पुलिस आतंक का राज बना दिया। दर्जनों गांवों में आग लगा दी गई, सैकड़ों निर्दोष आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिए गए और पागलों की तरह अंग्रेजी सेना तिलकामांझी की तलाश करने लगीं। तिलकामांझी राजमहल क्षेत्र से निकल कर भागलपुर क्षेत्र में आ गये और अब छापा मारकर युद्ध करने लगे। सुल्तानगंज के समीप के जंगल में 13 जनवरी, 1785 ई. में हुए युद्ध में तिलका मांझी घायल हो गए और उन्हें पकड़ कर भागलपुर लाया गया। यहां कानून और न्याय के तथाकथित सभ्य अंग्रेजी अफसरों ने घोड़े के पैरों में लम्बी रस्सी से बांध कर सड़कों पर घसीटते हुए अधमरा कर तिलकामांझी चौंक पर स्थित बरगद पेड़ पर टांग दिया और मौत की सज़ा दी।
अंग्रेजों ने उन्हें आतंकवादी और राजद्रोही माना, किन्तु भागलपुर -राजमहल क्षेत्र सहित बिहार के लोगों ने उन्हें अपना महान नेता, महान् क्रान्तिकारी योद्धा और शहीद मानकर श्रद्धांजलि अर्पित कीं। उनके सम्मान में शहादत स्थान का नाम तिलकामांझी चौंक रखा गया, उनके नाम पर तिलकामांझी हाट लगाया गया और जहां से वे पकड़े गए थे उस स्थान को तिलकपुर गांव बसा।
उसके लगभग 195 वर्षों के बाद तिलका मांझी चौक पर उनकी मूर्ति 1980 ई में लगाई गई। फिर उसके बाद भागलपुर विश्वविद्यालय तिलकामांझी विश्वविद्यालय बना। उसके बाद 14 अप्रैल, 2002 ई. में तिलका मांझी विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन के सामने उनकी मूर्ति लगाई गई।
किन्तु यह काफी दुखद है कि बिहार और भारत के कुछ इतिहासकारों ने उन्हें ऐतिहासिक पुरुष नहीं मानते हुए इतिहास के पन्नों में ही जगह देने से इंकार कर दिया। भागलपुर में भी एक तीसमार खां इतिहासकार इस पर विवाद पैदा करते रहते हैं। संभवतः इतिहास दृष्टि के अभाव में वे ऐसा करते हैं। तो आइए ,हम अपने प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और महानायक अमर शहीद तिलकामांझी की शहादत दिवस के अवसर पर उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि और शत शत नमन अर्पित करें।
जय तिलका मांझी। जय भीम। जय भारत।
लेखक प्रो. विलक्षण बौद्ध बहुजन स्टूडेंट्स यूनियन एवं बिहार फुले अम्बेडकर युवा मंच और सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार के संरक्षक हैं।
25 अक्टूबर को मेरठ में दलित समाज के इंद्र शेखर की हत्या का मामला सुर्खियों में रहा था। इंद्र शेखर को जिस तरह पहले हाथ-पैर में कील ठोककर, फिर गोली मारकर पेड़ पर लटका दिया गया था, उससे सनसनी फैल गई थी। खासतौर पर आरोपी विजयपाल गुर्जर ने खुद पुलिस को फोन कर हत्या की सूचना दी थी, जिससे समझा जा सकता है कि खास समाज के लोगों मे जातीय दंभ और दलितों के प्रति नफरत कितनी ज्यादा है।
इस हत्याकांड में हुई एफआईआर में विजयपाल के साथ उसके बेटे हर्ष और भाई विजयपाल का भी नाम है। साथ ही हत्या के चश्मदीद इंद्र शेखर के बेटों ने उस दोनों के भी शामिल होने की बात कही थी। बावजूद इसके पुलिस उन्हें बचा रही है और अब तक इन दोनों की गिरफ्तारी नहीं हुई है। इसके खिलाफ मेरठ में 10 जनवरी को दलितों ने महा पंचायत बुलाई है, जिसमें हजारों लोगों के शामिल होने की खबर है। यह महा पंचायत कमिश्नरी चौक मेरठ पर होगा। इद्र शेखर मेरठ के नंगली साधारणपुर गांव का निवासी है। उनकी हत्या 25 अक्टूबर को हुई थी, जबकि 26 अक्टूबर को एफआईआर लिखी गई।
जेल में जातिवाद को लेकर एक चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। आरोप है कि जेल में कुछ खास जातियों से झाड़ू लगाने और सफाई जैसे छोटे काम करवाए जाते हैं। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। मामले का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सहित 11 राज्यों को नोटिस भेज कर जवाब मांगा है। जिन राज्यों को नोटिस भेजा गया है, उसमें उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, ओडिशा, झारखंड, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना शामिल हैं।
महाराष्ट्र के कल्याण में रहने वाली सुकन्या शांता ने इस बारे में एक याचिका दायर की है, जिसमें उन्होंने कैदियों से जातिवाद करने वाली जेल नियमावलियों को रद्द करने की मांग की है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि बंदियों को काम के बंटवारे और उन्हें रखने की जगह में जातिवाद होता है। याचिका दायर करने वाली सुकन्या शांता के वकील एस मुरलीधर ने सुप्रीम कोर्ट में बताया कि कई राज्यों की जेल नियमावलियों में काम का बंटवारा भेदभाव पूर्ण ढंग से होता है। यहां जाति से तय होता है कि किस बंदी को कहां रखा जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट में यह मामला चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच के सामने आया है। हालांकि कोर्ट के सामने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने ऐसी बातों से इंकार किया। लेकिन याचिका कर्ता ने बंगाल, मध्यप्रदेश और केरल का उदाहरण देते हुए अपनी बात साबित की।
याचिकाकर्ता का कहना है कि बंगाल की नियमावली में जाति के अनुसार काम का बंटवारा किया जाता है। यहां खाना बनाने का काम प्रभावशाली जातियां करती है, जबकि झाड़ू लगाने का काम कुछ खास जातियों को दिया जाता है। जाहिर है याचिकाकर्ता का इशारा कमजोर जातियों से है।
बंगाल के नियम 793 का हवाला देते हुए याचिकाकर्ता का कहना था कि नाई ए श्रेणी के होने चाहिए और झाड़ू लगाने का काम मेहतर, हरि, चंडाल जैसी जातियों को देना चाहिए। वहीं मध्य प्रदेश में नियम 36 कहता है कि मेहतर की छोटे पात्र को बड़े ड्रम में खाली करे और उसे साफ करे।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को सुनने के बाद 11 राज्यों सहित केंद्र से चार हफ्ते में जवाब मांगा है। हालांकि इस तरह के आरोप कोई नए नहीं है। और अक्सर जेलों से जातिवाद की खबरें आती रहती है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जेल में दलित समाज के दो विचाराधीन कैदियों को मार कर लटका दिया गया था। इस संदेहास्पद मामले में जांच होने के बाद जांच अधिकारी ने उन्हें जबरन फांसी पर लटकाए जाने की रिपोर्ट दी, बावजूद इसके इस मामले में कोई ठोस कार्रवाई की खबर नहीं है। इसी बीच जेलों में जातिवाद की खबर ने एक बार फिर से जेल के अंदर जातिवाद की परत खोल कर रख दी है। देखना होगा सुप्रीम कोर्ट इस मामले को कितनी गंभीरता से लेता है।
तीन वर्षों के निरंतर मेहनत से भारत के संविधान को काव्य रूप में लिखने वाले एडवोकेट अनिरुद्ध कुमार को बीते दिनों संविधान दिवस (26 नवंबर) के मौके पर सम्मानित किया गया। भारत सरकार के कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल की उपस्थिति में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डॉ. जस्टिस डी.वाई चंद्रचूड़ ने सम्मानित कर अनिरुद्ध कुमार का हौंसला बढ़ाया।
इस मौके पर एडवोकेट अनिरुद्ध ने सुप्रीम कोर्ट के बार एसोसिएशन के प्रेसिडेंट डॉ. आदिश सी अग्रवाल और सेक्रेट्री एडवोकेट रोहित पांडे का आभार जताया। साथ ही अपनी दादी परिणिब्बुत हुब्बा देवी और बड़ी बहन परिणिब्बुत चंद्रकला को याद किया। उन्होंने कहा कि करता हूं मैं अपने गुरुजनों, माता-पिता, परिवार के सभी सदस्यों, अपने टीम के सभी सदस्यों एवं अपने सभी शुभचिंतक परिजनों के प्रेम, आशीर्वाद और सहयोग के प्रति आभारी हूं जिनके कारण आज मुझे यह सम्मान प्राप्त हुआ। बता दें कि संविधान को काव्य के रूप में लिख कर एडवोकेट अनिरुद्ध की कोशिश इसे सरल भाषा में भारत के हर एक नागरिक तक पहुंचाने की है।
लगता है राजनीति समाज को बदलने का आखिरी रास्ता बनती जा रही है। शायद यही वजह है कि समाज बदलने की चाहत लिये अलग-अलग क्षेत्रों के लोग अपनी अच्छी खासी नौकरी छोड़कर राजनीति में उतर रहे हैं। नई जानकारी उत्तर प्रदेश से आ रही है, जहां बहुजन समाज से ताल्लुक रखने वाले मनोज कुमार ने जज की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ कर राजनीति में आने का अपना इरादा जाहिर कर दिया है।
नोएडा सहित तमाम सिविल कोर्ट और एक वक्त में सीबीई के जज रहे मनोज कुमार फिलहाल बिजनौर में पूर्व अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश थे। यहीं से इस्तीफा देकर वह अब राजनीतिक पारी शुरू करने जा रहे हैं। मनोज कुमार ने 17 दिसंबर को एक बड़े कार्यक्रम का ऐलान किया है, जहां बहुजन समाज के तमाम बुद्धिजीवि और दिग्गज मनोज कुमार को समर्थन देने बिजनौर पहुंच रहे हैं।
इसमें पूर्व न्यायाधीश के.जी. बाला कृष्णन सहित पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक, किसान नेता राकेश टिकैत, राजरत्न अंबेडकर, पूर्व सांसद राजकुमार सैनी और दिल्ली सरकार के पूर्व मंत्री और एक्टिविस्ट राजेन्द्र पाल गौतम विशेष तौर पर मौजूद रहेंगे। इस कार्यक्रम को बहुजन मैत्री एवं संविधान जागरूकता महासम्मेलन का नाम दिया गया है। कार्यक्रम बिजनौर जिले के धामपुर के के.एम. इंटर कॉलेज में होगा। कार्यक्रम को 50 से ज्यादा बहुजन समाज के संगठनों ने भी अपना समर्थन दिया है।
दरअसल एक जज का राजनीति में आना एक बड़ा संकेत है। बहुजन समाज से होने के कारण मनोज कुमार के राजनीति में आने को लेकर समाज के लोग काफी उत्साहित हैं। फिलहाल जज साहब ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं, लेकिन चर्चा है कि वह आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़ सकते हैं। 17 दिसंबर को जब पूर्व जज मनोज कुमार राजनीति की अपनी पारी का ऐलान करेंगे, देखना होगा कि वह क्या ऐलान करते हैं। नजर इस पर भी रहेगी कि आखिर न्यायपालिका जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में जज की नौकरी छोड़कर आखिर वह राजनीति में क्यो आए?
तथागत बुद्ध ने कहा था, चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय लोकानुकम्पाय। यानी, हे भिक्खुओं। बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए तथा संसार पर अनुकम्पा करने के लिए चारिका यानी विचरण करो।
तथागत के इसी संदेश को चरितार्थ करते हुए अंतराष्ट्रीय शोध संस्थान के पूर्व अध्यक्ष एवं सारनाथ स्थित धम्मा लर्निंग सेंटर के संस्थापक भंते चंदिमा थेरो ने एक बार फिर से धम्म यात्रा शुरू कर दी है।
सारनाथ से लुम्बिनी की यह यात्रा 29 नवंबर को सारनाथ स्थित धम्मा लर्निंग सेंटर से शुरू हुई। 19 दिनों की यह धम्म यात्रा 17 दिसंबर को तथागत बुद्ध की जन्मभूमि लुम्बिनी पहुंच कर समाप्त होगी। इस बीच यह यात्रा 30 नवंबर को वाराणसी के धौरहरा से सिधौना तक चलेगी। इसके बाद यह यात्रा एक और दो दिसंबर को गाजीपुर, 3 दिसंबर से 6 दिसंबर तक मऊ के अलग-अलग हिस्सों, 7-8 और 9 दिसंबर को गोरखपुर के विभिन्न क्षेत्रों से गुजरेगी।
इसके बाद 10, 11, 12 और 13 दिसंबर को संत कबीर नगर के तमाम गांवों से गुजरते हुए 14 दिसंबर को यह यात्रा सिद्धार्थ नगर पहुंचेगी। 15 दिसंबर को भी यात्रा सिद्धार्थ नगर के अलग-अगल हिस्सों से गुजरते 16 दिसंबर को सिद्धार्थ नगर के कपिलवस्तु पहुंचेगी। इसके बाद 17 दिसंबर को यात्रा तथागत बुद्ध के जन्मस्थान नेपाल के लुम्बिनी पहुंचेगी, जहां इसका समापन होगा।
धम्म चारिका का नेतृत्व कर रहे भंते चंदिमा थेरो ने बताया कि यह यात्रा 350 किलोमीटर लंबी होगी। इस यात्रा में 100 के करीब भंते चल रहे हैं। यह यात्रा हजारों गांवों से गुजरेगी। 19 दिनों की इस यात्रा के बीच 40 स्थानों पर बड़े-बड़े धम्म सभा होगी। बता दें कि साल 2022 में भी भंते चंदिमा के नेतृत्व में सारनाथ से श्रावस्ती तक धम्म चारिका हुई थी।
इससे पहले 26 नवंबर को संविधान दिवस के मौके पर धम्मा लर्निंग सेंटर सारनाथ में महाराजा अशोक एवं बोधिसत्व बाबा साहब डॉ.भीमराव अंबेडकर के प्रतिमा का लोकार्पण किया गया। धम्म विजयी सम्राट अशोक के हाथ में जहां धम्म का चारों दिशाओं में सिंहनाद के प्रतीक चतुर्दिक मुख किये सिंह आकृतियों के साथ धम्म चक्क युक्त दंड है वहीं बाबा साहब के हाथ में दुनिया का सर्वोत्तम संविधान प्रदर्शित है।
दलित और पिछड़े युवाओं के साथ उत्तर प्रदेश में किस तरह अन्याय हो रहा है, यह बुधवार को राजधानी लखनऊ की सड़कों पर साफ दिखा। जब योगी आदित्यनाथ की पुलिस ने दलितों और पिछड़े वर्ग के युवाओं पर जमकर लाठियां भाजी। दरअसल शिक्षक भर्ती घोटाला मामले में बुधवार 29 नवंबर को एक बार फिर से सरकार के खिलाफ हमला बोलते हुए हजारों प्रदर्शनकारियों ने सड़क पर उतर कर प्रदर्शन किया। पिछले 530 दिनों से ज्यादा समय से यह अभ्यर्थी लखनऊ के ईको गार्डेन में अपनी नियुक्ति की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं।
इसी मुद्दे पर इंसाफ मांग रहे हजारों युवाओं ने बुधवार को सुबह चारबाग से विधानसभा तक प्रदर्शन किया। पिछड़े दलितों को न्याय दो के नारे लगाते अभ्यर्थी लगातार विधानसभा की तरफ बढ़ रहे थे। लेकिन इंसाफ देने की बजाय उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ की पुलिस ने हुसैनगंज चौराहे के पास बैरिकेटिंग करके अभ्यर्थियों को रोक दिया। इस दौरान पुलिस की बर्बरता में कई अभ्यर्थी घायल हो गए।
अभ्यर्थियों का कहना था कि 5 जनवरी 2022 को ही मुख्यमंत्री के निर्देश के बाद आरक्षित वर्ग के 6800 अभ्यर्थियों की नियुक्ति के लिए सूची जारी कर दी गयी लेकिन नियुक्ति आजतक नहीं मिल पायी। हमलोग सिर्फ एक माँग कर रहे हैं कि हमारी मुलाकात माननीय मुख्यमंत्री जी से कराई जाए ताकि हमें नियुक्ति मिल सके। माँगें न मानी गयी तो कल सुबह दोबारा विधानसभा का घेराव करने को मजबूर होंगे।
दूसरी ओर हाल ही में इस मामले में उत्तर प्रदेश के हाईकोर्ट में बहस हुई। इस दौरान ओबीसी समाज के वकील सुदीप सेठ ने मामले की सुनवाई करने वाले जस्टिस भाटिया से कहा कि इस भर्ती में ओबीसी वर्ग को 27 प्रतिशत नहीं, बल्कि 3.80 प्रतिशत ही आरक्षण दिया गया है। जबकि अनुसूचित जाति के 21 प्रतिशत की जगह 16.2 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। एडवोकेट सुदीप सेठ ने दावा किया कि शिक्षक भर्ती में 6800 सीटों का नहीं बल्कि 19 हजार सीटों का घोटाला हुआ है। इस पर हाई कोर्ट जज ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि पीड़ितों को नौकरी दीजिए वरना हम फैसला करेंगे।
26 नवंबर को संविधान दिवस के मौके पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा का अनावरण किया गया। दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट के मुख्य गुंबद के ठीक सामने संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा का अनावरण राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने किया। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डॉ. डी. वाई चंद्रचूड़ भी मौजूद थे। जस्टिस चंद्रचूड़ ने ही इसकी पहल की थी, जिसके बाद एक समिति बनी, जिसने सर्वोच्च न्यायालय में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा लगाने को लेकर काफी काम किया। खास बात यह है कि डॉ. आंबेडकर की यह प्रतिमा एक वकील के रूप में लगाई गई है। बाबासाहेब की यह पहली और इकलौती प्रतिमा है जो वकील के रूप में लगाई गई है। देखें वीडियो-
इस दौरान सुप्रीम कोर्ट में हुए कार्यक्रम में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संभा को संबोधित करते हुए सुप्रीम कोर्ट में जजों की भर्ती के लिए आईएएस और आईपीएस की सिविल सेवा परीक्षा की तरह ही परीक्षा आयोजित करने का सुझाव चीफ जस्टिस डी. वाई चंद्रचूड़ को दिया।
मुख्य न्यायधीश जस्टिस डी. वाई चंद्रचूड ने बीते एक साल में सुप्रीम कोर्ट में हुए काम काज के बारे में बताया। इस दौरान एक पोर्टल को भी लांच किया गया। अब शीर्ष न्यायलयों में जजों द्वारा दिये गए फैसले को तमाम अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जाएगा।
कार्यक्रम में अतिथि के तौर पर कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल भी पहुंचे थे। उन्होंने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर द्वारा संविधान निर्माण में दिये गए योगदान की चर्चा की।
इस दौरान हालांकि डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा को आम लोगों के लिए नहीं खोला गया था, लेकिन इसके बावजूद तमाम लोग सुप्रीम कोर्ट के प्रांगण में इस प्रतिमा को देखने पहुंचे। लेकिन उन्हें दूर से ही प्रतिमा को देख कर संतोष करना पड़ा। दलित दस्तक ने जब उनलोगों से सुप्रीम कोर्ट में बाबासाहेब की प्रतिमा के महत्व को लेकर बात की तो तमाम लोगों ने इसे जरूरी कदम बताया।
सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट डॉ. के. एस चौहान से जब सुप्रीम कोर्ट में बाबासाहेब की प्रतिमा, यूपीएससी की तर्ज पर जजों की नियुक्ति के लिए कदम उठाने के राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के बयान और मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी.वाई चंद्रचूड़ के काम को लेकर बात की गई तो उन्होंने इसके बारे में विस्तार से बताया। यह पूछने पर की क्या संविधान पर खतरा है? सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट ने इससे साफ इंकार किया।
हालांकि दूसरी ओर अब इसी बीच राजस्थान हाई कोर्ट परिसर में स्थापित मनु की मूर्ति के हटाने की मांग भी जोर पकड़ने लगी है। बहुजन समाज के तमाम लोगों का कहना है कि एक ओर तो सुप्रीम कोर्ट में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा लगाई जाती है लेकिन वहीं दूसरी ओर राजस्थान हाई कोर्ट में मनु की प्रतिमा लगी है। इसको जल्द से जल्द हटा देना चाहिए।
मोरबी, गुजरात। सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो रही एक तस्वीर ने दलितों के गुस्से को बढ़ा दिया है। इस तस्वीर में एक युवक जो दलित समाज का है, उसकी पीठ पर मौजूद हैवानियत के निशान उस पर ज्यादती की कहानी कह रही है। मामला गुजरात के मोरबी जिले का है। यहां की एक इंटरप्रेन्योर विभूति पटेल उर्फ रानी बा पर दलित युवक ने मारपीट का आरोप लगाया है। युवक का कहना है कि वह रानीबा इंडस्ट्रीज में बकाया अपना पैसा लेने गया था, इस दौरान उसको बेरहमी से पीटा गया। युवक ने यह भी आरोप लगाया कि उसके मुंह में जूता डाल दिया गया और 12 लोगों ने उसे बेल्ट के पट्टे से पीटा। पीड़ित युवक का नाम नीलेश किशोरभाई दलसानिया है।
युवक के बयान के बाद यह घटना सामने आई जिसके बाद आरोपी रानी बा फरार है। इससे साफ पता चलता है कि युवक का आरोप सही है। घटना सामने आने के बाद स्थानीय मोरबी पुलिस ने युवक की शिकायत पर विभूति पटेल समेत छह लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है। मामला ए डिवीजन थान में दर्ज किया गया है। पीड़ित युवक 2 अक्टूबर तक रानीबा इंडस्ट्रीज के निर्यात विभाग में काम कर रहा था।