मायावती का योगी से सवाल- दुकानों पर नाम लिखवाने से क्या मिलावट खत्म होगी?

लखनऊ। बसपा अध्यक्ष मायावती ने योगी सरकार के दुकानों पर नेम प्लेट वाले फैसले पर आपत्ति जताई। X पर लिखा- यूपी सरकार द्वारा होटल, रेस्तरां, ढाबों के मालिक, मैनेजर का नाम-पता के साथ ही कैमरा लगाना अनिवार्य करने की घोषणा, कावंड़ यात्रा के दौरान की कार्रवाई की तरह ही फिर से काफी चर्चाओं में है। यह सब खाद्य सुरक्षा हेतु कम और जनता का ध्यान बांटने की चुनावी राजनीति है।

मायावती ने योगी सरकार से पूछा- वैसे तो खासकर खाद्य पदार्थों में मिलावट आदि को लेकर पहले से ही काफी सख्त कानून मौजूद हैं। फिर भी सरकारी लापरवाही/मिलीभगत से मिलावट का बाजार हर तरफ गर्म है। किन्तु अब दुकानों पर लोगों के नाम जबरदस्ती लिखवा देने आदि से क्या मिलावट का काला धंधा खत्म हो जाएगा?

मायावती ने तिरुपति मंदिर के प्रसाद का मुद्दा भी उठाया

बसपा सुप्रीमों ने कहा- वैसे भी तिरुपति मन्दिर में ’प्रसादम’ के लड्डू में चर्बी की मिलावट की खबरों ने देश भर में लोगों को काफी दुखी कर रखा है। इसको लेकर भी राजनीति जारी है। धर्म की आड़ में राजनीति के बाद अब लोगों की आस्था से ऐसे घृणित खिलवाड़ का असली दोषी कौन? यह चिन्तन जरूरी।

योगी ने दिए थे आदेश

उत्तर प्रदेश में सभी खाने-पीने की दुकान, ढाबे, होटल और रेस्टॉरेंट्स पर अब मालिक और मैनेजर का नाम लिखना अनिवार्य कर दिया गया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खान-पान की वस्तुओं में मानव अपशिष्ट/गंदी चीजों की मिलावट करने वालों के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई के निर्देश दिए हैं। हाल ही में सामने आई विभिन्न घटनाओं के मद्देनजर यह आदेश जारी किया गया है।

मुख्यमंत्री योगी ने स्पष्ट किया कि जूस, दाल और रोटी जैसी खान-पान की वस्तुओं में मानव अपशिष्ट मिलाना वीभत्स, यह सब स्वीकार नहीं है। मुख्यमंत्री के निर्देश के अनुसार ऐसे ढाबों/रेस्टोरेंट आदि खान-पान के प्रतिष्ठानों की सघन जांच होगी। हर कर्मचारी का पुलिस वेरिफिकेशन किया जाएगा। खान-पान की चीज़ों की शुद्धता-पवित्रता सुनिश्चित करने के लिए खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम में आवश्यक संशोधन के निर्देश। दिए। इसके पश्चात यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने इसके जवाब में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उपरोक्त सवाल पूछा।

कांग्रेस और भाजपा आरक्षण काे खत्म करने में लगी हुई हैं: मायावती

जींद। “कांग्रेस और भाजपा आरक्षण को खत्म करने में लगी हुईं हैं। आरक्षण को बचाना है तो इन दोनों पार्टियों को वोट नहीं देना।” बसपा अध्यक्ष मायावती  ने यह बातें हरियाणा में कही। जींद के उचाना में बुधवार को पूर्व उपप्रधानमंत्री देवीलाल की 111वीं जयंती पर इनेलो ने रैली की। रैली में पूर्व सीएम मायावती और इनेलो सुप्रीमो व पूर्व सीएम ओमप्रकाश चौटाला पहुंचे।

इनेलो की इस रैली में भीड़ उमड़ी। जिससे जींद-पटियाला हाईवे पर लंबा जाम लगा। हरियाणा में इस बार बसपा और इनेलो का गठबंधन है। 90 सदस्यों वाली विधानसभा में इनेलो 53 और बसपा 37 सीटों पर चुनाव लड़ रही है।

हरियाणा में अभी भी कोटा सीटें खालीं

रैली में मायावती ने कहा कि हरियाणा में अभी भी कोटा सीटें खाली हैं। ये सरकारें कोटा पूरा क्यों नहीं करती, ताकि ये लोग इसे भूल जाएं और इनकी नौकरियों को सामान्य को दे सकें। इन वर्गों के मसीहा भीमराव अंबेडकर को भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया गया था। उन्हें ये सम्मान पहले ही दिया जाना चाहिए था, इसके लिए कांग्रेस कसूरवार है। इससे इनकी मानसिकता साफ झलकती है।

मायावती ने कहा कि हरियाणा में भी विरोधी पार्टियों की सरकारों में दलित, आदिवासियों, मुस्लिम, मजदूरों व किसानों का पूर्ण रूप से विकास व उत्थान नहीं हो सका। सरकारों की गलत नीतियों को और अजमाने की जरूरत नहीं है। आरक्षण काे कांग्रेस और भाजपा कमजोर करने व खत्म करने में लगी हुई हैं।

अभय चौटाला होंगे मुख्यमंत्री

उत्तर प्रदेश की पूर्व सीएम मायावती ने कहा- सरकार बनने पर गठबंधन की ओर से अभय चौटाला को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। एक डिप्टी सीएम बीएसपी की ओर से, एक डिप्टी सीएम अन्य पिछड़े वर्ग समाज से बनाया जाएगा। ये डिप्टी सीएम कौन होंगे, इसका फैसला नतीजा आने के बाद लिया जाएगा।

किसानों को हमने कई सुविधाएं दीं

मायावती ने कहा कि किसानों को हमने कई सुविधाएं दीं। यूपी में हमने अपने समय में गन्ने का रेट इतना दिया कि आज तक किसी ने नहीं दिया। फसलों का उचित दाम सही समय पर हमने दिया। उत्तर प्रदेश में पहले भर्तियों में रिश्वत चलती थी, लेकिन मैने कहा कि रिश्वत नहीं चलेगी। इससे पश्चिमी यूपी में अन्य समाज के लोग भर्ती हुए, एससी, एसटी के लोग भर्ती हुए और बड़े पैमाने पर पश्चिमी यूपी से जाट भी भर्ती किए गए।

उत्तर प्रदेश में हमने बेहतरीन सरकार दी है। हरियाणा के पिछड़े वर्गों में ऐसे ही विकास चाहते हैं तो आप लोगों को भी उत्तर प्रदेश की तरह ही सरकार बनानी होगी। उन्होंने कहा कि केंद्र की गलत आर्थिक नीतियों के कारण बेरोजगारी व महंगाई काफी बढ़ रही है। इस मामले में हमारी पार्टी केंद्र व राज्य सरकारों से हर स्तर पर ऐसी नीति बनाने की मांग करती आ रही है, ताकि पिछड़े वर्ग का विकास हो सके। सत्ता में आ जाने के बाद ये पार्टियां गरीब की समस्याओं को दूर करने के लिए काम नहीं करती, जबकि धन्ना सेठों के लिए नीतियां बनाती हैं।

राष्ट्रीय शोक घोषित नहीं किया

कांशीराम के देहांत के बाद कांग्रेस सरकार ने एक दिन का भी राष्ट्रीय शोक घोषित नहीं किया था। महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण की बात कही गई है, उसमें एससी व एसटी में अलग से कोई भी आरक्षण नहीं दिया गया। जो नए कानून बने हैं, उस पर भी केंद्र व राज्य की सरकारें सही में अमल नहीं कर पा रही हैं। इससे एससी/एसटी का शोषण करने वालों का मनोबल बढ़ रहा है।

कांग्रेस व बीजेपी कंपनी को वोट नहीं देना

मायावती बोलीं- अपना आरक्षण बचाना है तो कांग्रेस व बीजेपी कंपनी को वोट नहीं देना है। जो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर बोलने के लिए तैयार नहीं हैं। आपको इस चुनाव में विरोधी पार्टियों को सत्ता में आने से रोकना है, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पक्ष में है। आपको वोट बीएसपी व इनेलो को ही देना है। ताकि सत्ता में आकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कुछ अंकुश लगाया जा सके। गठबंधन की सरकार बनती है तो इसे लागू नहीं होने देंगे।

अभय चौटाला बोले- सरकार बनने पर पेंशन बढ़ाएंगे

अभय चौटाला ने कहा कि 35 साल पहले चौधरी देवीलाल ने 100 रुपए पेंशन बढ़ाई थी, वे 100 रुपए आज के 10 हजार के बराबर है। इस रीत को ओमप्रकाश चौटाला ने बढ़ाया था। 

इस पेंशन को हम आगे बढ़ाने का काम करेंगे। 2 लाख से ज्यादा सरकारी पद खाली पड़े हैं। गांवों से लोग विदेश चले गए, हम हर गांव से पढ़े लिखे को नौकरी देने का काम करेंगे। जब तक युवक को नौकरी नहीं लग जाएगी, तब तक उसे 2100 रुपए का बेरोजगार भत्ता दिया जाएगा।

कर्नाटक कांग्रेस कार्यालय के बाहर प्रदर्शन कर रही महिला बोली-“गुंडे हड़पना चाहते है जमीन; दलित हूं, इसलिए कोई नहीं कर रहा मदद”

बेंगलुरु। कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु निवासी दलित महिला चेतना कुमारी पी पिछले 22 दिनों से उत्पीड़न और दुर्व्यहार के खिलाफ कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस कमेटी (केपीसीसी) कार्यालय के सामने विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। चेतना का दावा है कि उसे और उसके बच्चों को सवर्ण गौड़ा समुदाय के लोगों द्वारा डराया-धमकाया जा रहा है। दलित दस्तक को चेतना ने बताया कि उनकी शहर के देवसंद्रा इलाके में रम्मया हॉस्पिटल के पास पुश्तैनी जमीन है। मेरे पिता ने इस जमीन को 60 साल पहले खरीदा था। अब यह पॉश कॉमर्शियल इलाका है और मेरी जमीन की कीमत करीब 20 करोड़ है। इस जमीन को गौड़ा समाज के कुछ लोग जबरन कब्जा करना चाहते है। इसको लेकर आरोपी उसके परिवार को लगातार परेशान कर रहे हैं।

चेतना का आरोप, उप मुख्यमंत्री के करीबी है आरोपी

चेतना का कहना है कि पुलिस, नौकरशाहों और राजनेताओं से मदद के लिए कई अपीलों के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई। आरोपियों की सिस्टम में गहरी पैठ के कारण उसकी शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। आरोपी आए दिन उसके साथ गुंडागर्दी करते है और धमकाते है। पुलिस भी उनसे मिली हुई है।
चेतना ने आरोप लगाया कि कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी. के. शिवकुमार उत्पीड़न में शामिल अपने समुदाय के सदस्यों को बचा रहे है। आरोपियों का बैंगलोर के कुख्यात डॉन कोथवाल रामचंद्र के साथ पुराना संबंध है। शिवकुमार भी उसी आपराधिक नेटवर्क से जुड़े थे। चेतना ने कहा- ” जमीन छोड़ने के लिए  लगातार धमकियां दी जा रही हैं। अगर मुझे या मेरे बच्चों को कुछ भी होता है, तो डी. के. शिवकुमार 100 प्रतिशत जिम्मेदार होंगे।”

पीछे नहीं हटूंगी, लडूंगी

चेतना ने पीछे हटने से इनकार किया हैं। धमकी के बावजूद अपनी जमीन नहीं छोड़ने की कसम खाई हैं। उन्होंने कहा- “मैं दलित हो सकती हूँ, लेकिन मैं मूर्ख नहीं हूँ। मुझे अपने अधिकार पता हैं और मैं चुप नहीं रहूँगी।”

केपीसीसी कार्यालय के बाहर बनाती है प्रेरक वीडियो

हर दिन, केपीसीसी कार्यालय के बाहर बैठकर चेतना कुमारी वीडियो रिकॉर्ड करती हैं, जिसमें वे सरकार से न्याय करने का आग्रह करती हैं। अपने समुदाय से सच्चाई की लड़ाई में उनका साथ देने की अपील करती हैं। चेतना ने यह भी कहा कि शिक्षित लोग उत्पीड़न के खिलाफ चुप क्यों रहते हैं? हमें पीटा जा सकता है।  यहाँ तक मार भी जा सकता है, लेकिन हमें आवाज उठानी चाहिए।

दलित ही अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए

चेतना ने दलित समुदाय से एकजुट होने, लड़ने और अपने अधिकारों का दावा करने की अपील की है।उन्होंने कहा- “वह दलित ही थे जो अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए। अब समय आ गया है कि हम जातीय उत्पीड़न के खिलाफ भी ऐसा ही करें। 5,000 साल पुरानी जातीय मानसिकता पर काबू पाना आसान नहीं होगा। हमारा दुश्मन जिद्दी है और उससे लड़ने के लिए हमें दोगुना जिद्दी होना होगा।”

UPSC अभ्यर्थी दीपक मीणा की मौत के मामले में नया मोड़, विकास दिव्यकीर्ती के कोचिंग की सफाई

नई दिल्ली। यूपीएससी और सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी कर रहे आदिवासी छात्र दीपक मीणा की संदिग्ध मौत मामले में विकास दिव्यकीर्ति के दृष्टि आईएएस कोचिंग संस्थान ने लिखित सफाई जारी की है। दृष्टि ने इस मामले में संस्थान की किसी भी तरीके की जिम्मेदारी और भूमिका से इंकार किया है। दूसरी ओर, दिल्ली युनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर और आदिवासी समाज के डॉ. जितेन्द्र मीणा ने इस मामले में दृष्टि प्रबंधन की लापरवाही को लेकर निशाना साधा है।

 जानिए क्या था मामला

दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में एक सुनसान जगह पर झाडि़यों में यूपीएससी की मुख्य परीक्षा देने की तैयारी में जुटे दीपक मीणा का शव पेड़ से लटका मिला था। पुलिस को घटनास्थल से कोई सुसाइड नोट नहीं मिला है। बताया जा रहा है कि वह गत 11 सितंबर से गायब था। परिवारवालों ने 14 सितंबर को इस संबंध में मुखर्जी नगर थाने में शिकायत दर्ज कराई थी। 10 दिन बाद 22 सितम्बर को दीपक का शव मिला था। इस मामले में परिजनों एवं दलित नेताओं व एक्टिविस्टों ने हत्या की आशंका जताते हुए दिल्ली पुलिस से मामले की जांच की मांग की है। छात्र दीपक मीणा की संदिग्ध मौत के मामले में यूपीएससी की तैयारी कर रहे छात्रों ने मंगलवार शाम को नेहरू विहार से मुखर्जी नगर के बत्रा सिनेमा तक कैण्डल मार्च निकाला।

इस संबंध में दिल्ली युनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर जितेन्द्र मीणा के दृष्णि कोचिंग की लापरवाही पर सवाल उठाने के बाद दृष्टि कोचिंग ने सफाई दी है। विकास दिव्यकीर्ति के संस्थान दृष्टि कोचिंग ने एक बयान जारी कर लिखा-
  • हम सिविल सेवा परीक्षा के अभ्यर्थी दीपक कुमार मीणा के असामयिक निधन पर विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिये हम इस प्रसंग से जुड़े प्रमुख तख्य प्रकाशित करना चाहते हैं जो कि निलिखित हैं।
  • दीपक कुमार मीणा मुख्य परीक्षा 2024 की तैयारी के लिये 10 जुलाई 2024 से हमारे साथ जुड़े थे।
  • 10 सितंबर तक लाइब्रेरी में आकर पढ़ाई कर रहे थे। उन्होंने तैयारी के लिये बहुत प्रभावशाली नोट्स बनाए थे। जुलाई और अगस्त में उन्होंने कई टेस्ट दिये थे। उन्हें प्रत्येक टेस्ट में अच्छे अंक मिले थे। पहला प्रयास होने के बावजूद उनकी तैयारी काफी अच्छी चाल रही थी। बहुत संभावना थी कि उनका चयन पहले ही प्रयास में हो जाएगा। उन्हें भी खुद पर इतना भरोसा था।
  • 11 सितंबर की सुबह वे अपने पीजी के साथियों के साथ लाइब्रेरी नहीं आए। दोस्तों ने पूछा तो उन्होंने कहा कि बाद में आएंगे, लेकिन उसके बाद से उनसे कोई संपर्क नहीं हुआ।
  • 13 सितंबर को दीपक के रूममेट ने हमारी टीम को बताया कि दीपक 1 तारीख से पीजी नहीं लौटे और फोन भी नहीं उठा रहे हैं। सूचना मिलते ही हमारी टीम कोऑर्डिनेटर ने दीपक के नंबर पर कई बार फोन किया, लेकिन फोन नहीं उठा। इसके तुरंत बाद हमारी टीम द्वारा दीपक के परिवार को सूचना दी गई। वे भी इस बात से परेशान थे कि दो दिनों से दीपक से संपर्क नहीं हो पा रहा है।
  • अगले दिन (14 सितंबर को दीपक के परिवार जन दिल्ली आए और उनके द्वारा पुलिस में गुमशुदगी की शिकायत दर्ज कराई गई। इस समय तक दीपक का फोन स्विच ऑफ हो चुका था।
  • 14 सितंबर में इस मामले की जाँच दिल्ली पुलिस के हाथ में है। 15 सितंबर को दीपक के परिवार की उपस्थिति में हमारी टीम ने पुलिस की लाइब्रेरी की सीसीटीवी फुटेज उपलब्ध कराई। दीपक के मित्रों व परिचितों से भी पूछताछ की गई। आस-पास के कई अन्य स्थानों से अधिकारियों ने फुटेज एकत्रित की, पर सभी प्रवासों के बाद भी कोई ठोस सुराग नहीं मिला।
  • आखिरी उम्मीद यह थी कि 20 सितंबर की शुरू होने वाली मुख्य परीक्षा में शामिल होने के लिये दीपक अपने परीक्षा केंद्र पर पहुंचेगे। पुलिस की टीम और परिवार के सदस्य वहाँ मौजूद थे पर दीपक वहाँ नहीं पहुँचे। उसके बाद पुलिस टीम ने उनके फोन की आखिरी लोकेशन के आधार पर नजदीकी इलाकों में खोज की तो मुखर्जी नगर से सटे दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रावास के अंदर झाडि़यों में उनका शव मिला।
  • दीपक कुमार मीणा ने कभी भी किसी तरह के तनाव या दबाव की शिकायत अपने मेटर्स से नहीं की। उनके मेंटर्स और मित्रों की राय में दीपक अंतर्मुखी विद्यार्थी थे। किसी के साथ उनका विवाद वा झगड़ा होने की संभावना नहीं के बराबर थी।

दृष्टि की सफाई पर उठे सवाल

इस मामले में आवाज उठाने वाले एक्टिविस्ट व प्रोफेसर जितेंद्र मीणा ने दलित दस्तक से कहा कि, दृष्टि आईएएस प्रबंधन अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहता है। दृष्टि प्रबंधन ने ही छात्र दीपक मीणा को मेंटरशिप के लिए दिल्ली बुलाया था। यह संस्थान की जिम्मेदारी थी कि अगर छात्र क्लास व लाइब्रेरी में कई दिनों से नहीं आ रहा था तो इसकी जांच करता। समय रहते पुलिस को छात्र की गुमशुदगी की सूचना देता। पूरे मामले में संस्थान द्वारा ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। संस्थान की भूमिका की भी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतजार

इस मामले की जांच में जुटी पुलिस ने बताया कि जिस जगह पर दीपक शव मिला है, वह दीपक के इंस्टीट्यूट की लाइब्रेरी से कुछ ही दूरी पर है। पुलिस ने शनिवार को पोस्टमॉर्टम के बाद शव परिजनों को सौंप दिया था। वहीं विसरा जांच के लिए प्रयोगशाला भेजा गया है। अभी तक पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं आई है। रिपोर्ट आने के बाद मौत के सही कारणों का पता चल सकेगा।

पढ़ाई में होशियार था दीपक

मृतक छात्र के पिता चंदूलाल ने बताया कि दीपक ने यूपीएससी का ऑनलाइन कोर्स लेकर जयपुर में रहकर इसी साल प्री एग्जाम पास किया था। इंस्टीट्यूट ने मेंस की तैयारी के लिए दिल्ली बुलाया था। दीपक जुलाई महीने से दिल्ली स्थित मुखर्जी नगर में पीजी में रहकर कोचिंग में पढ़ाई कर रहा था।

पूना पैकट: दलितों से छिना पृथक निर्वाचन का अधिकार

भारतीय हिन्दू समाज में जाति को आधारशिला माना गया है. इस में श्रेणीबद्ध असमानता के ढांचे में अछूत सबसे निचले स्तर पर हैं, जिन्हें 1935 तक सरकारी तौर पर ‘डिप्रेस्ड क्लासेज’ कहा जाता था. गांधीजी ने उन्हें ‘हरिजन’ के नाम से पुरस्कृत किया था, जिसे अधिकतर अछूतों ने स्वीकार नहीं किया था. अब उन्होंने अपने लिए ‘दलित’ नाम स्वयं चुना है जो उनकी पददलित स्थिति का परिचायक है. वर्तमान में वे भारत की कुल आबादी का लगभग छठा भाग (16.20 %) तथा कुल हिन्दू आबादी का पांचवा भाग (20.13 %) हैं. अछूत सदियों से हिन्दू समाज में सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व शैक्षिक अधिकारों से वंचित रहे हैं और काफी हद तक आज भी हैं. दलित कई प्रकार की वंचनाओं एवं निर्योग्यताओं को झेलते रहे हैं. उनका हिन्दू समाज एवं राजनीति में बराबरी का दर्जा पाने के संघर्ष का एक लम्बा इतिहास रहा है. जब श्री. ई. एस. मान्टेग्यु, सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया, ने पार्लियामेंट में 1917 में यह महत्वपूर्ण घोषणा की कि ‘”अंग्रेजी सरकार का अंतिम लक्ष्य भारत को डोमिनियन स्टेट्स देना है तो दलितों ने बम्बई में दो मीटिंगें कर के अपना मांग पत्र वाइसराय तथा भारत भ्रमण पर भारत आये सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया को दिया. परिणामस्वरूप निम्न जातियों को विभिन्न प्रान्तों में अपनी समस्यायों को 1919 के भारतीय संवैधानिक सुधारों के पूर्व भ्रमण कर रहे कमिशन को पेश करने का मौका मिला. तदोपरांत विभिन्न कमिशनों, कांफ्रेंसों एवं कौंसिलों का एक लम्बा एवं जटिल सिलसिला चला. सन 1918 में मान्टेग्यु चैमस्फोर्ड रिपोर्ट के बाद 1924 में मद्दीमान कमेटी रिपोर्ट आई जिसमें कौंसलों में डिप्रेस्ड क्लासेज के अति अल्प प्रतिनिधित्व और उसे बढ़ाने के उपायों के बारे में बात कही गयी. साईमन कमीशन (1928) ने स्वीकार किया कि डिप्रेस्ड क्लासेज को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए. सन 1930 से 1932 एक लन्दन में तीन गोलमेज़ कान्फ्रेंसें हुईं जिन में अन्य अल्पसंख्यकों के साथ साथ दलितों के भी भारत के भावी संविधान के निर्माण में अपना मत देने के अधिकार को मान्यता मिली. यह एक ऐतिहासिक एवं निर्णयकारी परिघटना थी. इन गोलमेज़ कांफ्रेंसों में डॉ. बी. आर. आंबेडकर तथा राव बहादुर आर. श्रीनिवासन द्वारा दलितों के प्रभावकारी प्रतिनिधित्व एवं ज़ोरदार प्रस्तुति के कारण 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषित ‘प्रधानमंत्री अवार्ड’ में दलितों को पृथक निर्वाचन का स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकार मिला. इस अवार्ड से दलितों को आरक्षित सीटों पर पृथक निर्वाचन द्वारा अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार मिला और साथ ही सामान्य जाति के निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्णों को चुनने हेतु दो वोट का अधिकार भी प्राप्त हुआ. इस प्रकार भारत के इतिहास में अछूतों को पहली वार राजनीतिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हुआ जो उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता था.
उक्त अवार्ड द्वारा दलितों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट,1919 में अल्प संख्यकों के रूप में मिली मान्यता के आधार पर अन्य अल्पसंख्यकों – मुसलमानों, सिक्खों, ऐंग्लो इंडियनज तथा कुछ अन्य के साथ साथ पृथक निर्वाचन के रूप में प्रांतीय विधायिकाएं एवं केन्द्रीय एसेम्बली हेतु अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार मिला तथा उन सभी के लिए सीटों की संख्य निश्चित की गयी. इसमें अछूतों के लिए 78 सीटें विशेष निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में आरक्षित की गईं. गाँधी जी ने उक्त अवार्ड की घोषणा होने पर यरवदा (पूना) जेल में 18 अगस्त, 1932 को दलितों को मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी. गाँधी जी का मत था कि इससे अछूत हिन्दू समाज से अलग हो जायेंगे जिससे हिन्दू समाज व हिन्दू धर्म विघटित हो जायेगा. यह ज्ञातव्य है कि उन्होंने मुसलमानों, सिक्खों व ऐंग्लो- इंडियनज को मिले उसी अधिकार का कोई विरोध नहीं किया था. गाँधी जी ने इस अंदेशे को लेकर 18 अगस्त, 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री, रेम्ज़े मैकडोनाल्ड को एक पत्र भेज कर दलितों को दिए गए पृथक निर्वाचन के अधिकार को समाप्त करके संयुक्त मताधिकार की व्यवस्था करने तथा हिन्दू समाज को विघटन से बचाने की अपील की. इसके उत्तर में ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने अपने पत्र दिनांकित 8 सितम्बर, 1932 में अंकित किया.” ब्रिटिश सरकार की योजना के अंतर्गत दलित वर्ग हिन्दू समाज के अंग बने रहेंगे और वे हिन्दू निर्वाचन के लिए समान रूप से मतदान करेंगे, परन्तु ऐसी व्यवस्था प्रथम 20 वर्षों तक रहेगी तथा हिन्दू समाज का अंग रहते हुए उनके लिए सीमित संख्या में विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे ताकि उनके अधिकारों और हितों की रक्षा हो सके. वर्तमान स्थिति में ऐसा करना नितांत आवश्यक हो गया है. जहाँ जहाँ विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे वहां वहां सामान्य हिन्दुओं के निर्वाचन क्षेत्रों में दलित वर्गों को मत देने से वंचित नहीं किया जायेगा. इस प्रकार दलितों के लिए दो मतों का अधिकार होगा – एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र के अपने सदस्य के लिए और दूसरा हिन्दू समाज के सामान्य सदस्य के लिए. हम ने जानबूझकर जिसे आप ने अछूतों के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन कहा है, उसके विपरीत फैसला दिया है. दलित वर्ग के मतदाता सामान्य अथवा हिन्दू निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्ण उम्मीदवार को मत दे सकेंगे तथा सवर्ण हिन्दू मतदाता दलित वर्ग के उम्मीदवार वार को उसके निर्वाचन क्षेत्र में मतदान कर सकेंगे. इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता को सुरक्षित रखा गया है.“ कुछ अन्य तर्क देने के बाद उन्होंने गाँधी जी से आमरण अनशन छोड़ने का आग्रह किया था. परन्तु गाँधी जी ने प्रत्युत्तर में आमरण अनशन को अपना पुनीत धर्म मानते हुए कहा कि दलित वर्गों को केवल दोहरे मतदान का अधिकार देने से उन्हें तथा हिन्दू समाज को छिन्न – भिन्न होने से नहीं रोका जा सकता. उन्होंने आगे कहा, ” मेरी समझ में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करना हिन्दू धर्म को बर्बाद करने का इंजेक्शन लगाना है. इस से दलित वर्गों का कोई लाभ नहीं होगा.” गांधीजी ने इसी प्रकार के तर्क दूसरी और तीसरी गोल मेज़ कांफ्रेंस में भी दिए थे जिसके प्रत्युत्तर में डॉ. आंबेडकर ने गाँधी जी के दलितों के भी अकेले प्रतिनिधि और उनके शुभ चिन्तक होने के दावे को नकारते हुए उनसे दलितों के राजनीतिक अधिकारों का विरोध न करने का अनुरोध किया था. उन्होंने यह भी कहा था कि फिलहाल दलित केवल स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकारों की ही मांग कर रहे हैं न कि हिन्दुओं से अलग हो अलग देश बनाने की. परन्तु गाँधी जी का सवर्ण हिन्दुओं के हित को सुरक्षित रखने और अछूतों को हिन्दू समाज का गुलाम बनाये रखने का स्वार्थ था. यही कारण था कि उन्होंने सभी तथ्यों व तर्कों को नकारते हुए 20 सितम्बर, 1932 को अछूतों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरुद्ध आमरण अनशन शुरू कर दिया. यह एक विकट स्थिति थी. एक तरफ गाँधी जी के पक्ष में एक विशाल शक्तिशाली हिन्दू समुदाय था, दूसरी तरफ डॉ. अंबेडकर और अछूत समाज. अंततः भारी दबाव एवं अछूतों के संभव नरसंहार के भय तथा गाँधी जी की जान बचाने के उद्देश्य से डॉ. आंबेडकर तथा उनके साथियों को दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार की बलि देनी पड़ी और सवर्ण हिन्दुओं से 24 सितम्बर, 1932 को तथाकथित पूना पैक्ट करना पड़ा. इस प्रकार अछूतों को गाँधी जी की जिद्द के कारण अपनी राजनैतिक आज़ादी के अधिकार को खोना पड़ा. यद्यपि पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए ‘प्रधान मंत्री अवार्ड’ में सुरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 78 से 151 हो गयी परन्तु संयुक्त निर्वाचन के कारण उनसे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार छिन्न गया जिसका दुष्परिणाम आज तक दलित समाज झेल रहा है. पूना पैकट के प्रावधानों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट, 1935 में शामिल करके सन 1937 में प्रथम चुनाव संपन्न हुआ जिसमें गाँधी जी के दलित प्रतिनिधियों को कांग्रेस द्वारा कोई भी दखल न देने के दिए गए आश्वासन के बावजूद कांग्रेस ने 151 में से 78 सीटें हथिया लीं क्योंकि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली में दलित पुनः सवर्ण वोटों पर निर्भर हो गए थे . गाँधी जी और कांग्रेस के इस छल से खिन्न होकर डॉ. आंबेडकर ने कहा था, ” पूना पैकट में दलितों के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है.” प्रधान मंत्री अवार्ड के माध्यम से अछूतों को  पृथक निर्वाचन के रूप में अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने और दोहरे वोट के अधिकार से सवर्ण हिन्दुओं की भी दलितों पर निर्भरता से दलितों का स्वंतत्र राजनीतिक अस्तित्व सुरक्षित रह सकता था. पूना पैक्ट करने की विवशता ने दलितों को फिर से सवर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना दिया. इस व्यवस्था से आरक्षित सीटों पर जो सांसद या विधायक चुने जाते हैं. वे वास्तव में दलितों द्वारा न चुने जा कर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों एवं सवर्णों द्वारा चुने जाते हैं, जिन्हें उन का गुलाम/ बंधुआ बन कर रहना पड़ता है. सभी राजनीतिक पार्टियाँ गुलाम मानसिकता वाले ऐसे प्रतिनिधियों पर कड़ा नियंत्रण रखती हैं और पार्टी लाइन से हट कर किसी भी दलित मुद्दे को उठाने या उस पर बोलने की इजाजत नहीं देतीं. यही कारण है कि लोकसभा तथा विधान सभायों में दलित प्रतिनिधियों कि स्थिति महाभारत के भीष्म पितामह जैसी रहती है जिस ने यह पूछने पर कि ” जब कौरवों के दरबार में द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था तो आप क्यों नहीं बोले?” इस पर उन का उत्तर था, ” मैंने कौरवों का नमक खाया है.” (भगवान दास) वास्तव में प्रधान मंत्री अवार्ड से दलितों को स्वतंत्र राजनीतिक अधिकार प्राप्त हुए थे जिससे वे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए सक्षम हो गए थे और वे उनकी आवाज़ बन सकते थे. इस के साथ ही दोहरे वोट के अधिकार के कारण सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में सवर्ण हिन्दू भी उन पर निर्भर रहते और दलितों को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं करते. इस से हिन्दू समाज में एक नया समीकरण बन सकता था जो दलित मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करता. परन्तु गाँधी जी ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के विघटित होने की झूठी दुहाई दे कर तथा आमरण अनशन का अनैतिक हथकंडा अपना कर दलितों की राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन कर लिया जिस कारण दलित सवर्णों के फिर से राजनीतिक गुलाम बन गए. वास्तव में गाँधी जी की चाल काफी हद तक राजनीतिक भी थी जो कि बाद में उनके एक अवसर पर सरदार पटेल को कही गयी इस बात से भी स्पष्ट है: “अछूतों के अलग मताधिकार के परिणामों से मैं भयभीत हो उठता हूँ. दूसरे वर्गों के लिए अलग निर्वाचन अधिकार के बावजूद भी मेरे पास उनसे सौदा करने की गुंजाइश रहेगी परन्तु मेरे पास अछूतों से सौदा करने का कोई साधन नहीं रहेगा. वे नहीं जानते कि पृथक निर्वाचन हिन्दुओं को इतना बाँट देगा कि उसका अंजाम खून खराबा होगा. अछूत गुंडे मुसलमान गुंडों से मिल जायेंगे और हिन्दुओं को मारेंगे. क्या अंग्रेजी सरकार को इस का कोई अंदाज़ा नहीं है? मैं ऐसा नहीं सोचता.” (महादेव देसाई, डायरी, पृष्ठ 301, प्रथम खंड). गाँधी जी के इस सत्य कथन से आप गाँधी जी द्वारा अछूतों को पूना पैक्ट करने के लिए बाध्य करने के असली उद्देश्य का अंदाज़ा लगा सकते हैं. दलितों की संयुक्त मताधिकार व्यवस्था के कारण सवर्ण हिन्दुओं पर निर्भरता के फलस्वरूप दलितों की कोई भी राजनैतिक पार्टी पनप नहीं पा रही है चाहे वह डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ही क्यों न हो. इसी कारण डॉ. आंबेडकर को भी दो वार चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा क्योंकि आरक्षित सीटों पर सवर्ण वोट ही निर्णायक होता है. इसी कारण सवर्ण पार्टियाँ ही अधिकतर आरक्षित सीटें जीतती हैं. पूना पैक्ट के इन्हीं दुष्परिणामों के कारण ही डॉ. आंबेडकर ने संविधान में राजनीतिक आरक्षण को केवल 10 वर्ष तक ही जारी रखने की बात कही थी. परन्तु विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इसे दलितों के हित में नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए अब तक लगातार 10-10 वर्ष तक बढ़ाती चली आ रही हैं क्योंकि इस से उन्हें अपने मनपसंद और गुलाम दलित सांसद और विधायक चुनने की सुविधा रहती है. सवर्ण हिन्दू राजनीतिक पार्टियाँ दलित नेताओं को खरीद लेती हैं और दलित पार्टियाँ कमज़ोर हो कर टूट जाती हैं. यही कारण है की उत्तर भारत में तथाकथित दलितों की कही जाने वाली बहुजन समाज पार्टी भी ब्राह्मणों और बनियों के पीछे घूम रही है और ” हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है” जैसे नारों को स्वीकार करने के लिए बाध्य है. अब तो उसका रूपान्तरण  बहुजन से सर्वजन में हो गया है. इन परिस्थितियों के कारण दलितों का बहुत अहित हुआ है वे राजनीतिक तौर पर सवर्णों के गुलाम बन कर रह गए हैं. अतः इस सन्दर्भ में पूना पैक्ट के औचित्य की समीक्षा करना समीचीन होगा. क्या दलितों को पृथक निर्वाचन की मांग पुनः उठाने के बारे में सोचना चाहिए ? यद्यपि पूना पैक्ट की शर्तों में छुआ-छूत को समाप्त करने, सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने तथा दलितों की शिक्षा के लिए बजट का प्रावधान करने की बात थी परन्तु आजादी के 75 वर्ष बाद भी उनके क्रियान्वयन की स्थिति दयनीय ही है. डॉ. आंबेडकर ने अपने इन अंदेशों को पूना पैक्ट के अनुमोदन हेतु बुलाई गयी 25 सितम्बर, 1932 को बम्बई में सवर्ण हिन्दुओं की बहुत बड़ी मीटिंग में व्यक्त करते हुए कहा था, “हमारी एक ही चिंता है. क्या हिन्दुओं की भावी पीढ़ियां इस समझौते का अनुपालन करेंगी? ” इस पर सभी सवर्ण हिन्दुओं ने एक स्वर में कहा था, ” हाँ, हम करेंगे.” डॉ. आंबेडकर ने यह भी कहा था, “हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश हिन्दू सम्प्रदाय एक संघटित समूह नहीं है बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों की फेडरेशन है. मैं आशा और विश्वास करता हूँ कि आप अपनी तरफ से इस अभिलेख को पवित्र मानेंगे तथा एक सम्मानजनक भावना से काम करेंगे.” क्या आज सवर्ण हिन्दुओं को अपने पूर्वजों द्वारा दलितों के साथ किए  गए. इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने के बारे में थोड़ा  बहुत आत्म चिंतन नहीं करना चाहिए. यदि वे इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने में अपना अहित देखते हैं तो क्या उन्हें दलितों के पृथक निर्वाचन का राजनीतिक अधिकार लौटा नहीं देना चाहिए? अब क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में अलग मताधिकार के बहाल होने की संभावना नहीं है, अतः दलितों को अपनी राजनीति को जाति की राजनीति से बाहर निकाल कर मुद्दों की राजनीति को अपनाना चाहिए। इसके साथ ही केवल जाति के आधार पर किसी को वोट देने की बजाए उस व्यक्ति के दलित वर्ग हित में किए गए कार्यों को सामने रख कर ही वोट देना चाहिए। दलितों को व्यक्ति पूजा से भी मुक्त होना होगा जिसके बारे में बाबासाहेब ने पूरी तरह से सचेत किया था। दलितों को राजनीतिक अलगाव की जगह लोकतान्त्रिक, धर्मननिरपेक्ष एवं प्रगतिशील ताकतों से साथ हाथ मिलाना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि दलितों की मुक्ति में ही सब की मुक्ति है।
लेखक-एस. आर. दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट

बौद्ध दर्शन पर व्याख्यान: आर्य सत्य, अनात्मवाद, प्रतीत्यसमुत्पाद, और अष्टांगक पर चर्चा

लखनऊ। “द बेसिक कांसेप्ट ऑफ अर्ली बुद्धिस्ट फिलासफी एंड थ्री रोल्स इन वियतनामी कल्चर ट्रेडिशन” पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम का नेतृत्व डॉ. रजनी श्रीवास्तव ने किया।

तान ने अपने व्याख्यान का शीर्षक “द बेसिक कांसेप्ट ऑफ अर्ली बुद्धिस्ट फिलासफी एंड थ्री रोल्स इन वियतनामी कल्चर ट्रेडिशन” रखा। उन्होंने बौद्ध दर्शन की मूलभूत अवधारणाओं जैसे चार आर्य सत्य, अनात्मवाद, प्रतीत्यसमुत्पाद, और अष्टांगक मार्ग पर गहन चर्चा की। उनका मुख्य फोकस यह था कि ये अवधारणाएँ किस प्रकार वियतनामी संस्कृति को प्रभावित करती हैं।

तान ने बताया कि बौद्ध दर्शन की ये अवधारणाएँ वियतनामी शैक्षिक, सांस्कृतिक, और पर्यावरणीय प्रथाओं में कैसे समाहित हैं। उन्होंने अपने देश की सांस्कृतिक विविधता को बताया कि किस प्रकार बौद्ध धर्म ने वियतनामी जीवन शैली को आकार दिया है।

प्रोफेसरों ने साझा किए विचार

संगोष्ठी में डॉ. रजनी श्रीवास्तव ने तान के व्याख्यान का सारांश प्रस्तुत किया और उसकी महत्ता को बताया । इसके अलावा विभाग के अन्य शिक्षक डॉ. राजेन्द्र वर्मा और डॉ. प्रशांत शुक्ला भी उपस्थित रहे, जिन्होंने इस ज्ञानवर्धक सेमिनार में अपनी विशेषज्ञता साझा की। इसके साथ ही उन्होंने वियतनाम की शैक्षिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरणीय प्रथाओं की भी चर्चा की।

सेमिनार के कोऑर्डिनेटर विभाग की शोध छात्रा निशी कुमारी रही। सेमिनार के सफलता पूर्वक समापन में विभाग के अन्य शोध छात्रों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कुमारी शैलजा के बहाने दलित नेताओं पर बहनजी का बड़ा बयान

लखनऊ। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अध्यक्ष मायावती ने कांग्रेस व बीजेपी पर दलित नेताओं की उपेक्षा करने का आरोप लगाया है। दलित समाज की हरियाणा की कांग्रेस नेता कुमारी सैलजा का जिक्र करते हुए बहनजी ने उनको बाबासाहेब अम्बेडकर की दुहाई दी।

भाजपा और कांग्रेस पर निशाना साधते हुए बहनजी ने एक्स पर लिखा कि, कांग्रेस और जातिवादी पार्टियों बुरे समय में दलितों को याद करती हैं और जब अच्छे दिन आ जाते हैं तो उन पर ध्यान नहीं देती हैं।उल्लेखनीय है कि बसपा के राष्ट्रीय समन्वयक आकाश आनंद बीजेपी से पहले कुमारी सैलजा को बसपा ज्वॉइन करने का ऑफर दे चुके हैं।

बसपा अध्यक्ष ने सोमवार को सोशल मीडिया एक्स पर कांग्रेस सहित अन्य सभी दलों पर निशाना साधा। उन्होंने कांग्रेस और राहुल गांधी को दलित और संविधान विरोधी बताया है।

एक्स पर बयान जारी कर बहनजी ने कहा कि देश में अभी तक के हुए राजनीतिक घटनाक्रमों से यह साबित होता है कि खासकर कांग्रेस व अन्य जातिवादी पार्टियों को अपने बुरे दिनों में तो कुछ समय के लिए दलितों को मुख्यमंत्री व संगठन आदि के प्रमुख स्थानों पर रखने की जरूर याद आती है। लेकिन ये पार्टियां, अपने अच्छे दिनों में फिर इनको अधिकांशतः दरकिनार ही कर देती हैं। इनके स्थान पर फिर उन पदों पर जातिवादी लोगों को ही रखा जाता है जैसा कि अभी हरियाणा प्रदेश में भी देखने के लिए मिल रहा है।

उन्होंने कहा कि ऐसे अपमानित हो रहे दलित नेताओं को अपने मसीहा बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर से प्रेरणा लेकर इन्हें खुद ही ऐसी पार्टियों से अलग हो जाना चाहिए। अपने समाज को फिर ऐसी पार्टियों से दूर रखने के लिए उन्हें आगे भी आना चाहिए। परमपूज्य बाबा साहेब डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने देश के कमजोर वर्गों के आत्म-सम्मान व स्वाभिमान की वजह से अपने केन्द्रीय कानून मन्त्री पद से इस्तीफा भी दे दिया था।

बहनजी ने कहा कि इसी से प्रेरित होकर मैंने भी जिला सहारनपुर के दलित उत्पीड़न के मामले में संसद में ना बोलने देने की स्थिति में मैंने इनके सम्मान व स्वाभिमान में अपने राज्यसभा सांसद पद से इस्तीफा भी दे दिया था। ऐसे में दलितों को बाबा साहेब के पद-चिन्हों पर चलने की ही सलाह है।

UPSC की तैयारी कर रहे आदिवासी छात्र की संदिग्ध मौत से हंगामा, बहुजनों ने की जांच की मांग

राजधानी दिल्ली के मुखर्जी नगर इलाके में यूपीएससी और सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी कर रहे एक छात्र का शव झाड़ियों में पेड़ से लटका हुआ मिला। पुलिस को घटनास्थल से कोई सुसाइड नोट नहीं मिला है। पुलिस इसको आत्महत्या बता रही है, जबकि एससी-एसटी समाज के नेताओं और बुद्धिजीवियों ने हत्या की आशंका जताई है। मृतक छात्र की शिनाख्त राजस्थान के दौसा दीपक कुमार मीणा के रूप में हुई है। वह यूपीएससी का प्री एग्जाम पास करने के बाद दिल्ली में मेंस की तैयारी कर रहा था।

बताया जा रहा है कि वह गत 11 सितंबर से गायब था। परिवारवालों ने 14 सितंबर को इस संबंध में मुखर्जी नगर थाने में शिकायत दर्ज कराई थी। परिजन, दलित नेता व एक्टिविस्ट ने हत्या की आशंका जताई है। वहीं दिल्ली पुलिस ने मामले की गहन व निष्पक्ष जांच की मांग की है।

गत शुक्रवार को पुलिस को जंगल में एक युवक के फांसी लगाए जाने की सूचना मिली थी, पुलिस तुरंत वहां पहुंची।

लाइब्रेरी से कुछ दूरी पर पेड़ से लटका मिला शव

इस मामले की जांच में जुटी पुलिस ने बताया कि जिस जगह पर दीपक शव मिला है, वह दीपक के इंस्टीट्यूट की लाइब्रेरी से कुछ ही दूरी पर है। पुलिस का कहना है कि शुरुआती जांच में खुदकुशी की बात सामने आई है। पुलिस ने शनिवार को पोस्टमॉर्टम के बाद शव परिजनों को सौंप दिया है। हालांकि, पुलिस सभी पहलुओं से मामले की जांच कर रही है।

मृतक छात्र के पिता चंदूलाल ने बताया कि दीपक ने यूपीएससी का ऑनलाइन कोर्स लेकर जयपुर में रहकर इसी साल प्री एग्जाम पास किया था। इंस्टीट्यूट ने मेंस की तैयारी के लिए दिल्ली बुलाया था। दीपक जुलाई महीने से दिल्ली स्थित मुखर्जी नगर में पीजी में रहकर कोचिंग में पढ़ाई कर रहा था।

दलित नेताओं व एक्टिविस्ट ने की निष्पक्ष जांच की मांग

सांसद चंद्रशेखर आजाद ने एक्स पोस्ट में दीपक को आदरांजलि देते हुए दिल्ली पुलिस से मामले की गहन जांच की मांग की है। इसीप्रकार दलित-आदिवासी एक्टिविस्ट हंसराज मीना ने एक्स पोस्ट में लिखा- राजस्थान के दौसा जिले के 21 वर्षीय दीपक कुमार मीणा का शव 10 दिनों बाद संदिग्ध परिस्थितियों में झाडि़यों में मिला हैं। दीपक के परिवार को उनकी मौत पर संदेह है और वे इसे हत्या मान रहे हैं, क्योंकि दीपक का मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य ठीक था। हम प्रशासन से इस मामले की गहन जांच और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग करते हैं।

बुद्ध काल में जाति और जातिगत पेशा, एक पड़ताल

आज जिन जातियों को जो नाम हैं, क्या वह वह नाम उन्हें जाति व्यवस्था के जन्म के बाद ही मिला है, ऐसा नहीं है, इस बारे में एक जरूरी भ्रम जरूर दूर कर लेना चाहिए-संदर्भ बुद्ध को खीर खिलाने वाली सुजाता की जाति क्या थी?
कुछ एक दिनों पहले मैं बोध गया महाबोधि बिहार और बुद्ध को खीर खिलाने वाली सुजाता के गांव गया था। मैंने एक फेसबुक पोस्ट में लिखा कि सुजाता ग्वालन थीं। इसके बाद तो तरह की प्रतिक्रियाएं आईं। एक तो यह की जब बुद्ध के समय में जाति व्यवस्था पैदा ही नहीं हुई थी, तो वह कहां से यादव हो गईं। दूसरा यह कि वह यादव ही थीं, आज के यादव लोग उन्हें अपनी जाति की नहीं मानते हैं। मैं सुजाता को यादव नहीं कहा था, ग्वालन कहा था।
यह सही है कि बुद्ध के समय में जाति व्यवस्था पैदा नहीं हुई थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अलग-अलग पेशे करने वाले समूह नहीं पैदा हुए और उनका कोई नाम नहीं था। बुद्ध के समय में (करीब आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व) समय श्रम विभाजन एक हद तक उच्चत्तर अवस्था में था। एक काम करने वाले समूहों सामने आ गए थे, कुछ आ रहे थे। दस्तकारों, कारीगरों और अन्य कौशल विशेष से संपन्न समूह पैदा हो चुके थे या हो रहे थे। जैसे मिट्टी के बर्तना बनाने वाले, लोहे की चीजें बनाने वाले, धातुओं से आभूषण बनाने वाले, पशु-पालन और दूध-दही का कारोबार करने वाले, चमड़े का काम करने वाले, कपड़ा बनाने, सिलने वाले, लकड़ी की चीजें बनाने वाले, व्यापार-कारोबार करने वाले, ज्ञान-विज्ञान और दर्शन की दुनिया में काम करने वाले, गीत-संगीत और संस्कृति के अन्य विधाओं का पेशा करने वाले और यौद्धाओं आदि समूह पैदा हो गए थे। इसके अलावा श्रमिकों के समूह भी अस्तित्व में आ गए थे।
अलग-अलग काम करने वाले समूहों के नाम भी थे। चूंकि ज्ञान-विज्ञान और कौशल, दस्ताकारी और कारीगरी आदि दूसरी पीढ़ी को स्थानंतारण अनुभव संगत ज्ञान के आधार पर ही हो रहा था, इसलिए एक समूह को अपने परिवार की दूसरी पीढ़ी को सौंपना सहज था। मतलब माता-पिता अपने बेटे-बेटियों को आसानी से सौंप सकते थे। सारी बातों का लब्बोलुआब यह है कि जाति व्यवस्था के पैदा होने और उसे लौह सांचे में ढाल देने से पहले भी अलग-अलग पेशा करने वालों समूहों का अलग-अलग नाम था। जैसे लोहार तब भी था, बढ़ई तब भी था,मछुवारा (मल्लाह) तब भी थे, कुम्हार तब भी थे, सोनार तब भी थे, ग्वाला तब भी थे, कसाई तब भी थे यहां तक ब्राह्मण संज्ञा भी बुद्ध के काल में मिलती है। बहुत सारे पेशे और उनसे जुड़े बहुत सारे नाम।
उनमें से बहुत सारे नाम वैसे के वैसे, या कुछ बदले हुए रूप में या पूरी तरह बदले हुए रूप में आज भी मौजूद हैं। पेशेगत समूहों के नामों में दो तरह से परिवर्तन आया पहला भाषा के बदलने से परिवर्तन। जैसे पालि में वह नाम कुछ अलग तरह से उच्चारित होता है, तो प्राकृत में थोड़ा अलग, अपभ्रंश में अलग और संस्कृत के जन्म के बाद भी कुछ बदलाव। तमिल में कुछ अलग, इसके साथ हिंदी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, मराठी, तेलगू, कन्नड़, संथाल, गोंंडी आदि में अलग। लेकिन सबका संबंध पेशे से जुड़ा हुआ था। अभी हाल तक जातियों के नामों में परिवर्तन होता रहा है, अभी भी हो रहा है,जबकि मूल चीज वैसे-की-वैसे है। जैसे ग्वाला,अहीर,यादव, सिंह यादव की एक यात्रा है। धोबी-कन्नौजिया, अनेकों अनेक।
जाति व्यवस्था के जन्म और उसके लौह सांचे में ढल जाने के बाद निम्न तरह के बुनियादी परिवर्तन आए-
1- जाति व्यवस्था के जन्म और लौह सांचे में ढलने से पहले एक पेशे के लोग दूसरा पेशा अपना सकते थे, दूसरे पेश में जाने के बाद उनकी पहचान उस पेशे से जुड़ जाती। जैसे कुम्हार, लोहार का पेशा अपना सकता था, फिर उसे कुम्हार नहीं लोहार कहा जाता। इसी तरह धोबी, लोहार का पेशा अपना सकता था, उसे उसकी पहचान धोबी की नहीं,लोहार की होती। यहां तक कि ज्ञान-विज्ञान की दुनिया में काम करने वालों में लोहार, धोबी और बढ़ई का पेशा करने वाला शामिल हो सकता था। तब उसकी पहचान वही हो जाती। लेकिन वर्ण-जाति व्यवस्था के लौह सांचे में ढाल देने के बाद एक पेशे को छोड़कर दूसरे पेशे में जाना नामुमकिन बन गया या बना दिया गया। ऐसा करना दंड का भागी होना था। मतलब जन्म आधारित बना दिया।
2- बुद्ध के काल में किसी पेशे को हेय समझना, नीचा काम समझना अभी शुरू ही हुआ था, लेकिन उसका मुख्य आधार किसी पेशे से होने वाली आय और उससे वाला मान-सम्मान ही था। जैसे बुद्ध काल में भी ज्ञान-विज्ञान के पेशे में, धर्म-दर्शन के पेशे में या योद्धा के पेशे में लगे हुए लोगों का ज्यादा सम्मान था और चूंकि एक पेशे से दूसरे में जाने की संभावना थी, इस वजह से किसी समूह के व्यक्ति को हमेशा-हमेशा के लिए नीच और ऊंच नहीं ठहराया जा सकता था।
जाति व्यवस्था के लौह सांचे ने जातियों के ऊंच-नीच का श्रेणीक्रम पूरी तरह पक्का कर दिया। हालांकि उसका आधार पेशे से जुड़ा रहा। बुद्ध काल में दास प्रथा किसी न किसी रूप में थी, दासों को हेय और नीचा समझा जाता था।
3- जाति व्यवस्था के जन्म और उसके लौह सांचे ने एक जाति की लड़की-लड़के के दूसरी जाति के लड़के-लड़की से शादी को प्रतिबंधित कर दिया, उसे भी जातियों के लोह साचें में कस दिया।
निष्कर्ष रूप में यह कहना है कि यदि बुद्ध काल में किसी किसी समूह को मल्लाह-केवट कह रहे हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम कह रहे हैं कि उस समय जाति व्यवस्था पैदा हो गई थी। इसी तरह यदि किसी समूह को ग्वाला कहा जा रहा है, तो भी उसका मतलब जाति व्यवस्था उस समय थी, यह नहीं कहा जा रहा है। आज की तारीख में भी जो कुछ ऐसी जातियां हैं,उनके जो पेशे हैं, वे पेशे बुद्ध काल में पैदा हो चुके थे, उस पेशे को करने वाले समूह की पहचान उसके पेशे से होती थी। हां यहां यह भी स्पष्ट कर लेना जरूरी है कि अलग-अलग पेशा करने वाले समूह ही थी, उन्नत पूंजीवादी समाज की तरह अलग-अलग व्यक्ति नहीं। पेशे समूहगत ही थे।

IIM इंदौर में एससी-एसटी वर्ग से फैकल्टी के सभी पद खाली!

नई दिल्ली। भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) इंदौर और तिरुचिरापल्ली में वंचित समुदायों से फैकल्टी सदस्यों की भर्ती में बड़ी कमी है। ओबीसी, एससी और एसटी श्रेणियों के लिए आरक्षित पद खाली पड़े हैं, जो इन संस्थानों के सकारात्मक कार्यवाहियों की अनुपालना पर सवाल उठाते हैं। एक आरटीआई जवाब के माध्यम से मिली जानकारी से पता चलता है कि आईआईएम इंदौर में एससी और एसटी केटेगरी में कोई भी अध्यापक नहीं है जबकि सामान्य वर्ग के सभी पद भरे जा चुके हैं.

ऑल इंडिया ओबीसी स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एआईओबीसीएसए) के अध्यक्ष किरण कुमार गौड़ द्वारा मांगी गई आरटीआई पर आईआईएम इंदौर से जवाब प्राप्त किया गया जिसके अनुसार, सस्थान में 150 फैकल्टी पदों में से कई आरक्षित श्रेणी के पद खाली हैं:

  • ओबीसी पद: केवल 2 सहायक प्रोफेसर नियुक्त किए गए हैं.
  • एससी और एसटी पद: न तो अनुसूचित जाति (एससी) और न ही अनुसूचित जनजाति (एसटी) से कोई फैकल्टी सदस्य नियुक्त किया गया है.
  • ईडब्ल्यूएस: केवल 1 सहायक प्रोफेसर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) से नियुक्त किया गया है.

दलित दस्तक से किरण कुमार गौड़ ने बताया कि कुल 150 फैकल्टी पदों में से 106 जनरल कैटेगरी के उम्मीदवारों द्वारा भरे गए हैं, जिससे 41 पद खाली रह गए हैं. एससी और एसटी की पूरी अनुपस्थिति और ओबीसी की कम संख्या विविधता और समावेशन पर गंभीर प्रश्न उठाते हैं.

आईआईएम तिरुचिरापल्ली की स्थिति भी चिंताजनक है। वहां 83.33% ओबीसी, 86.66% एससी, और 100% एसटी फैकल्टी पद खाली हैं, जबकि सभी जनरल कैटेगरी पद भरे गए हैं. यह भर्ती प्रक्रिया में एक व्यापक प्रणालीगत समस्या को दर्शाता है, जहां वंचित समुदायों को फैकल्टी पदों से बाहर रखा गया है.

इन खुलासों पर विभिन्न नागरिक समाज समूहों और छात्र संगठनों ने कड़ी आलोचना की है, जो कहते हैं कि यह न केवल सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों की शैक्षणिक आकांक्षाओं को भी कमजोर करता है.

एआईओबीसीएसए के अध्यक्ष किरण कुमार गौड़ ने कहा, “यह संविधान के प्रावधानों का बड़ा उल्लंघन है, आईआईएम जैसे संस्थान समावेशन और समान अवसर के प्रतीक होने चाहिए, लेकिन ये आंकड़े एक भेदभाव और जातिगत असमानता की कठोर वास्तविकता को दर्शाते हैं.”

भर्ती में नहीं होती रोस्टर की पालना

गौड़ ने आगे बताया कि चिंता की बात है कि आईआईएम जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में भर्ती प्रक्रिया में रोस्टर की पालना नहीं की जा रही है. इसके साथ ही सवर्ण, दलित, आदिवासी व पिछड़े शिक्षकों की नियुक्ति के आंकड़ों को भी छिपाया जा रहा है.

आलोचकों का कहना है कि सीटों की उपलब्धता और ओबीसी, एससी और एसटी श्रेणियों के उम्मीदवारों की योग्यता के बावजूद, इन समूहों से शिक्षकों की नियुक्ति करने में अनिच्छा जाति-आधारित भेदभाव के गहरे मुद्दों को दर्शाती है.

संकाय प्रतिनिधित्व में विविधता की कमी के दूरगामी निहितार्थ हैं, न केवल सामाजिक न्याय के लिए बल्कि भारत के प्रमुख प्रबंधन संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता और विविध दृष्टिकोणों के प्रतिनिधित्व के लिए भी ये ट्रेंड उचित नहीं है. सामाजिक-आर्थिक विभाजन को पाटने के उद्देश्य से सकारात्मक कार्रवाई नीतियों के साथ, शिक्षा जगत में हाशिए के समुदायों का निरंतर कम प्रतिनिधित्व तत्काल सुधारों की आवश्यकता पर जोर देता है.

रिजर्वेशन पर ताना मिला तो बन गये टॉपर डॉक्टर, बना डाला अपना हॉस्पीटल, जानिये आनंद स्वरूप की शानदार कहानी

मशहूर हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉ. आनंद स्वरूपलखनऊ। डॉ. आनंद स्वरूप अपने परिवार के पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने पढ़ाई की और उच्च शिक्षा हासिल कर डॉक्टर बनें। लेकिन उनका सफर आसान नहीं रहा। उन्हें आरक्षण को लेकर ताने मिले। एक बार उन्होंने सोचा कि सब छोड़ कर पिता के साथ किसानी की जाए, लेकिन फिर उन्होंने जातिवादियों को मुंह-तोड़ जवाब देने की ठानी। और पढ़ाई में इतने रमें कि टॉपर बन गए। तमाम जगह नौकरी करने के बाद उन्होंने लखनऊ को अपना ठिकाना बनाया और फिलहाल अपना हॉस्पीटल चला रहे हैं। HLC Multispeciality surgical hospital lucknow

डॉ. आनंद स्वरूप हड्डी रोग विशेषज्ञ और सर्जन हैं। जिस स्पाइन सर्जरी में बड़े-बड़े डॉक्टर हाथ डालने से डरते हैं, डॉ. आनंद स्वरूप विशेषज्ञ हैं। आम तौर पर जिस गठिया रोग को लोग असाध्य मानते हैं या फिर आपरेशन ही एकमात्र विकल्प मानते हैं, डॉ. स्वरुप ने नया इलाज खोजा है। वो बिना आपरेशन के गठिया का इलाज करते हैं। उनका दावा है कि जो तमाम लोग घुटने को बदलना ही गठिया का एकमात्र इलाज मानते हैं, उनमें से साठ फीसदी लोगों को वह बिना घुटना बदले ही ठीक करने का दावा करते हैं। दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने लखनऊ में उनका विस्तार से इंटरव्यू लिया। यू-ट्यूब पर वह लिंक देखें-

बीजेपी विधायक का बड़ा बयान, दे दी पद से इस्तीफा देने की धमकी

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के गुघाल मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में जनमंच सभागार में ‘एक शाम संविधान निर्माता के नाम’ कार्यक्रम हुआ। कार्यक्रम का शुभारंभ यूपी सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री अनिल कुमार ने संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर के चित्र के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित कर व रिबन काटकर किया।

कार्यक्रम में मेला चेयरमैन मनोज प्रजापति, पार्षद राजूसिंह और मोहर सिंह ने डॉ. भीमराव अंबेडकर के बताए रास्ते पर चलने की अपील की। उन्होंने शिक्षा और समाज की एकता व जागरूकता पर बल दिया। वहीं आरक्षण पर चर्चा की। इस दौरान मुख्य अतिथि एवं प्रदेश सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री अनिल कुमार ने कहा- “डॉ.अंबेडकर ने राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया। आज डॉ. अंबेडकर के संविधान से ही देश चल रहा है। दबे-कुचले समाज के जो लोग आगे बढे़ हैं, उन्हें जो सम्मान मिला है, वो डॉ. अंबेडकर के कारण ही मिला है।”

 

मंत्री डॉ. अनिल ने डॉ. अंबेडकर के साथ चौ. चरण सिंह को भी याद करते हुए कहा कि चौ. चरण सिंह ने भी सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी है। जमींदारी खत्म करने का काम चौ. चरण सिंह ने ही किया था। उन्होंने कार्यक्रम के लिए पार्षद राजू सिंह व मोहर सिंह दोनों की प्रशंसा की। महापौर डॉ. अजय कुमार ने कहा- “आरक्षण कोई भीख या उपहार नहीं है, वह व्यवस्था का अंग है। उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज की महिला यदि आज देश की राष्ट्रपति है तो वह संविधान की विशेषता के कारण ही है।”

विधायक देवेंद्र निम ने भी महापौर की बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि संविधान की आत्मा को बदल नहीं सकता। यदि आरक्षण से छेड़छाड़ हुई तो सबसे पहला व्यक्ति मैं होऊंगा, जो अपने पद से इस्तीफा देकर आपके साथ खड़ा मिलेगा। विधायक राजीव गुंबर ने कहा-बाबा साहेब ने संविधान के रूप में देश को आत्मा दी है। उन्होंने कहा कि उनकी शिक्षित होने की सीख को मानकर हम पढे़ और आगे बढे़। इसके अलावा डॉ.महेश चंद्रा, सतीश गौतम आदि ने भी डॉ.अंबेडकर के सिद्धांतों को अपनाने पर बल दिया।

वह पत्रकार, जिसके कैंसर से जंग हार जाने पर पूरा मीडिया जगत कर रहा है याद

रवि प्रकाश के साथ बात करते अविनाश दास

(लेखक- अविनास दास) जनवरी, 2021 में रवि मुंबई आये थे। रांची में डॉक्टरों को कुछ शक़ हुआ, तो उन्हें टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल रेफ़र किया था। जब मालूम पड़ा कि रवि को आख़िरी स्टेज का लंग कैंसर है, उस वक़्त मैं उनके साथ था। ज़ाहिर है, हमारे पैरों के नीचे की ज़मीन ग़ायब हो चुकी थी। रवि रोने लगे। लेकिन उसके बाद से मैंने कभी रवि को रोते नहीं देखा। उसी दिन उन्होंने तय कर लिया था कि अगर उनके पास कम से कम छह महीने हैं, तो इन छह महीनों में क्या क्या करना है और अधिकतम साल भर है, तो साल भर में क्या क्या करना है। वह बचे हुए जीवन को जीने के लिए इस रफ़्तार में दौड़े कि मौत को उन तक पहुंचने में लगभग चार साल लग गये। डॉक्टरों की दी हुई समय सीमा से बहुत ज़्यादा जी कर गये। इसकी वजह उनकी जिजीविषा के अलावा और कुछ नहीं थी।

हम नब्बे के दशक के आख़िरी सालों में एक दूसरे से जुड़े। प्रभात ख़बर में काम करते हुए जब हरिवंश जी ने मुझे चंद्रशेखर रचनावली के संपादन के लिए दिल्ली भेजा और इस काम के लिए मुझे कोई सहयोगी साथ रखने को कहा, तो मैं रवि को अपने साथ ले गया। उसके बाद रवि ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। प्रभात ख़बर के देवघर संस्करण का पहला संपादक मैं था और मेरे बाद रवि को हरिवंश जी ने मेरी जगह भेजा। रवि जागरण और भास्कर समूह का अहम हिस्सा रहे। आख़िरी वर्षों में बीबीसी से जुड़े और इस मीडिया ग्रुप ने उनकी बीमारी ज़ाहिर होने के बाद जिस तरह से उनका साथ दिया, वह अद्भुत है, अनुकरणीय है।

 

रवि कीमो के लिए थोड़े थोड़े महीनों पर जब भी मुंबई आते, हमारी मुलाक़ात होती थी। वह हमेशा मुस्कुराते हुए और उत्साह से भरे हुए नज़र आते थे। जैसे कैंसर ने उन्हें कोई अलौकिक ऊर्जा दे दी हो। बचे हुए जीवन को वह बादशाह की तरह जीना चाहते थे और जी रहे थे। उन्होंने इस दरम्यान के हर पल को अपने कैमरे में क़ैद किया। “कैंसर वाला कैमरा” की प्रदर्शनी शृंखलाएं आयोजित की और उससे होने वाली आमदनी का बड़ा हिस्सा दूसरे कैंसर पीड़ितों की मदद के लिए दान में दिया।

यह देखना भी कमाल था कि इस बीच उनकी पत्नी संगीता एक बेहद घरेलू महिला से किस तरह जुझारू महिला के रूप में सामने आयीं। यह जो तस्वीर है, संगीता जी ने ही ली थी – जब मैं दो साल पहले परेल के पास तारदेव में उनसे मिलने  गया था।

मुझे परसों उनके बेटे प्रतीक ने कॉल किया और कहा कि पापा की तबीयत बिगड़ रही है और अब शायद ही संभले। उसने मुझसे साफ़-साफ़ शब्दों में कहा कि सच बताऊं अंकल तो अब कुछ घंटे ही हैं। उसकी आवाज़ में ज़रा सी भी थरथराहट नहीं थी। आज भी जब मैं हॉस्पिटल पहुंचा, तो उससे पूछा कि सब ठीक है न – उसने बड़े ही संयत स्वर में कहा, “ही पास्ड अवे!” कब? दस मिनट पहले। प्रतीक अभी अभी आईआईटी दिल्ली से पढ़ कर निकला है और जीवन संघर्ष के नये दौर से मुख़ातिब है। उसे देख कर लगता है कि अब कोई भी झंझावात उसके आगे मामूली चीज़ होगी। वह अचानक से बहुत बड़ा हो गया है। हम सबसे भी बड़ा।

कल रवि का पार्थिव शरीर रांची पहुंचेगा। मैं भी साथ जा रहा हूं। वहां प्रेस क्लब में उन्हें दर्शनार्थ रखा जाएगा। मैंने रवि के साथ बहुत सारी यात्राएं की हैं। यह आख़िरी यात्रा भी मेरे हिस्से में लिखी थी।


फिल्म निर्देशक अविनाश दास के सोशल मीडिया एकाउंट एक्स से साभार।

बौद्ध पर्यटन स्थलों को लेकर बड़ी खबर, बुद्धिस्टों ने की यह मांग

लखनऊ। भदन्ताचार्य बुद्धत्त पालि संवर्धन प्रतिष्ठान (बालाघाट, मध्यप्रदेश) की ओर से देश के विभिन्न शैक्षणिक व सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर पालि पखवाड़ा महोत्सव के तहत विविध कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे है। इसीक्रम में लखनऊ स्थित अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान परिसर में शनिवार को विचार संगोष्ठी आयोजित हुई।
इस दौरान वक्ताओं ने पालि भाषा-साहित्य एवं बौद्ध पर्यटन के विकास की सम्भावनाएं विषय पर अपने विचार साझा किए। संगोष्ठी के मुख्य वक्ता भंते सुभीत ने कहा-बौद्ध धम्म के प्रचार-प्रसार के लिए सरकारों से ज्यादा समाज की जिम्मेदारी है। समाज जब तक जागरूक नहीं होगा। धम्म का प्रचार-प्रसार कर पाना मुश्किल है।
वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी डॉ. राजेश चंद्रा ने कहा कि बौद्ध धम्म का प्रचार-प्रसार तब शुरू होगा, जब हम अपने बच्चों को पाली भाषा एवं साहित्य की शिक्षा देंगे। केंद्रीय संस्कृति विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर डॉ. प्रफुल्ल गणपाल ने कहा कि भगवान बुद्ध की शिक्षा मानव कल्याण पर केंद्रित थी। विश्व शांति व कल्याण को प्राप्त करने का मार्ग विपश्यना है।
 
अध्यक्षीय भाषण में केंद्रीय संस्कृति विश्वविद्यालय के सहायक निदेशक प्रो. गुरुचरण नेगी ने कहा कि जब भारत में बौद्ध धम्म का प्रभाव घटने लगा तो श्रीलंका और तिब्बत में इसका प्रभाव बढने लगा। धीरे-धीरे बौद्ध धम्म विश्व के दूसरे देशों में फैल गया। अब भारत के लोग फिर से बौद्ध धम्म की ओर लौट रहे है।
पाली भाषा के शोध छात्र भीमराव अम्बेडकर ने कहा-हमारे देश के नेता विदेश जाते हैं तो वहां बोलते हैं कि हम बुद्ध के देश से आए है, लेकिन जब वापस आते है तो देश में बौद्ध धम्म के विकास के लिए कुछ नहीं करते। हमारे समाज को इसके लिए जागरूक होना होगा।
डॉ. आर.के. सिंह ने कहा कि अब वक्त आ गया है कि हम पाली भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने व राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने के अभियान को फिर से शुरू करें। संगोष्ठी में सुजाता अम्बेडकर, सिद्धार्थ कुमार, तथागत कुमार ने भी विचार व्यक्त किए। इस दौरान चेतना कुमारी, नेहा बौद्ध, सुमन कुमार सहित बड़ी संख्या में लोग उपस्थित रहे।

नवादा घटना पर बिफरे दलित नेता, कहा- “बिहार में जंगलराज”

नई दिल्ली। नवादा जिले के कृष्णा नगर गांव की सरकारी जमीन पर बसे अनुसूचित जाति के मजदूर, मुसहर व मोची परिवारों के 80 से ज्यादा घर जलाने की घटना को लेकर दलित नेताओं ने बिहार सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। बसपा अध्यक्ष मायावती सहित तमाम दलित नेताओं ने प्रदेश सरकार की जमकर आलोचना की है। वहीं आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की है।
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने ट्वीट में कहा-“बिहार के नवादा में दबंगों द्वारा गरीब दलितों के काफी घरों को जलाकर राख करके उनका जीवन उजाड़ देने की घटना अति-दुखद व गंभीर। सरकार दोषियों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई करने के साथ ही पीड़ितों को पुनः बसाने की व्यवस्था के लिए पूरी आर्थिक मदद भी करें।”
वहीं आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर ने इस घटना को जंगलराज का जीता-जागता उदाहरण कहा है। इसके साथ ही उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से पीड़ितों की आर्थिक मदद और मामले की न्यायिक जांच की मांग की है।
नवादा में हुई इस घटना के बाद सियासत भी तेज हो गई है। पूर्व उपमुख्यमंत्री और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने नीतीश सरकार पर निशाना साधा।
उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘महा जंगलराज! महा दानवराज! महा राक्षसराज!’ नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के राज में बिहार में आग ही आग। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बेफिक्र है। सहयोगी दल बेखबर! गरीब जले, मरे-इन्हें क्या? दलितों पर अत्याचार बर्दाश्त नहीं होगा।”
इधर, केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने घटना की निंदा करते हुए मुख्यमत्री नीतीश कुमार से पीड़ितों को आर्थिक मदद देने व मामले की न्यायिक जांच की मांग की है. उन्होंने एक्स पर लिखा, “मामले की न्यायिक जांच की भी मांग करता हूं ताकि भविष्य में कोई भी ऐसी घटना करने की हिमाकत भी न करे। पीड़ित परिजनों के प्रति मेरी और मेरे पार्टी की गहरी संवेदना है, मैं जल्द ही घटनास्थल का दौरा कर परिजनों से मुलाकात करूंगा।”

बिहार के नवादा कांड का सच!

18 सितंबर की रात में बिहार में नवादा जिले के कृष्णा नगर गांव में बिहार सरकारी जमीन पर बसे हुए अनुसूचित जाति के मजदूर एवं गरीब मुसहर और मोची (चमार) जाति के लगभग 80 -100 परिवार के घरों में आग लगा दी गई और मारपीट करते हुए फायरिंग की गईं। इस दुखद, अपराधिक और निंदनीय घटना में सरगना नंदू पासवान सहित 50-60 लोग शामिल होने की बातें सामने आई हैं जिसमें अन्य भूमि माफियाओं एवं गुंडों के द्वारा रचे गए षडयंत्र शामिल हैं।

दरअसल पीड़ित गरीब मजदूर मुसहर और चमार लोग गत 25-30 से वर्षों से अधिक उस जमीन पर बसे हुए हैं। वहां उन्हें सरकारी सुविधाओं का भी लाभ मिलता रहा है।

अब वह जमीन काफी महंगी कई करोड़ हो चुकी है और उस पर स्थानीय भूमि माफिया एवं गुंडों द्वारा जबरन कब्जा करने की साज़िश लगभग 10 वर्षों से की जा रही हैं। यह कहा जा रहा है कि उन लोगों ने उस इलाके के एक अनुपस्थित किसी जमींदार से कुछ कागजात बनवाकर अपना दावा सरकारी आफिस में दायर किया है जिसमें नंदू पासवान सहित कई यादव और अन्य लोग शामिल हैं। कहा जा रहा है कि अधिकारियों की उदासीनता और भ्रष्टाचार के कारण स्थानीय सरकारी आफिस में यह विवाद अभी भी लंबित है।

इससे प्रतीत होता है कि यह मामला जाति विद्वेष, जाति संघर्ष और हिंसा का नहीं है , बल्कि भूमि माफियाओं और गुंडों द्वारा उस जमीन पर कब्जा करने का है। इस उद्देश्य के लिए ही कल शाम उन घरों आग लगा दी गई जिससे बड़ी संख्या में पालतू जानवर जल कर मर गए हैं और चल अचल संपत्ति का जलने से भारी नुकसान हुआ है।

दरअसल मुख्य मामला उस जमीन पर से वर्षों से बसे पीड़ित लोगों को भगाना है और जमीन पर कब्जा करना है। इसलिए ही वे गुंडे लोग करीब 50-60 की संख्या में लाठी, ठंडे, गोली–बंदूक और पेट्रोल के गैलन से लैस लोग थे, जिन्होंने गोली भी चलाकर दहशत फैलाई और घरों में आग लगाने में पेट्रोल का दुरुपयोग किया गया है।

अब यह मामला पूरा राजनीतिक रंग ले चुका है और  प्रशासन ने त्वरित कार्रवाई करते हुए 15 लोगों को गिरफ्तार किया है। किन्तु स्थानीय प्रशासन एवं पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता स्पष्ट दिखाई दे रही है और उनका भूमि माफिया एवं गुंडों के साथ गठजोड़ साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा है है ।

इस अमानवीय और अपराधिक घटना पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं भी सामने आई हैं। विपक्ष के लोग बिहार में असली जगल-राज आ जाने की बात कर रहे हैं। प्रतिपक्ष के माननीय नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने वर्तमान शासन को महाजंगल राज कहा है। उनकी ही पार्टी के प्रवक्ता प्रो मनोज झा ने बिहार के एनडीए शासन को दैत्य और राक्षस राज कहा है।

माननीय केन्द्रीय मंत्री जीतन राम मांझी ने आरोप लगाया है कि हमलावर पासवानों (दुसाधों) को कुछ स्थानीय यादवों ने कांड करने के लिए भड़काया। मांझी जी ने जांच से पहले ही यह मान लिया है कि सभी हमलावर पासवान जाति के थे और उन्हें यादव जाति के लोगों ने भड़काया था। मांझी जी के इस बयान पर लालू यादव ने नाराजगी जताई है। दरअसल ये श्रीमान मांझी जी इस घटना के लिए जाति आधारित विद्वेष, हिंसा और दबंगई को मुख्य कारण मान रहे हैं जो बिल्कुल गलत है। हम जानते हैं कि सभी अपराधी किसी न किसी जाति से ही आते हैं, इसलिए किसी अपराधिक घटना के लिए किसी जाति विशेष को टारगेट करना सही नहीं है।

पुलिस और सिविल प्रशासन द्वारा इस दुखद अमानवीय एवं अपराधिक घटना की जांच की जा रही है। हमें आशा करनी चाहिए जल्दी ही अन्य सभी तथ्यों की जानकारी  अवश्य मिलेगी।

हमारी मांगें हैं –

  1. इस घटना शामिल सभी अपराधियों, षड्यंत्रकारी भूमि माफियाओं एवं गुंडों को जल्द से गिरफ्तार कर फास्ट ट्रैक कोर्ट से जल्द से जल्द सजा दिलाई जाए।
  2. सभी पीड़ित परिवारों के लिए सरकार यथाशीघ्र जमीन का कागजात एवं पर्चा देते हुए उस पर 10-10 लाख रुपए की राशि के पक्के घरों का निर्माण करवाए।
  3. सरकार सभी पीड़ित परिवारों को अविलंब 1-1 लाख रुपए और राहत सामग्री मुहैया कराएं।

झारखंड में भाजपा का नया गेम, निशाने पर आदिवासी और मुस्लिम

झारखंड राज्य चुनाव की दहलीज पर खड़ा है। यहां नवम्बर में विधानसभा के चुनाव है। ऐसे में भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए तमाम हथकंडे अपनाना शुरू कर दिया है। इसके लिए अपने बयानों से तमाम दिग्गज नेता जमकर प्रोपेगेंडा फैलाने में जुटे हैं। इसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत निशिकांत दुबे, बाबूलाल मरांडी व अमित शाह शामिल हैं। कहीं न कहीं यह केंद्रीय सत्ता द्वारा धार्मिक उन्माद फैलाकर सत्ता हथियाने की रणनीति है। हालांकि प्रदेश में अब तक बीजेपी सरना धर्म-क्रिस्तान, आदिवासी पुरुष बनाम आदिवासी महिला व सरना को सनातन बताने में नाकाम रही। भाजपा आदिवासियों को हिन्दू बताने में जब फेल हो गई तो अब आदिवासी बनाम मुसलमान करने में लगी है ताकि चुनावों में इसका फायदा  उठाया सके।
लेकिन सवाल है कि आदिवासियों को जनगणना में आदिवासी चिन्हित करने से घबराने वाली, फूट डालो-शासन करो वाली सरकार आदिवासियों का क्या भला सोच पाएगी। बांग्लादेश के मुसलमानों के संबंध में आदिवासियों के बीच ‘अफवाह’ फैला कर भाजपा इसका राजनैतिक लाभ लेने की मुहिम में जुट गई है।
भाजपा और उसके नेताओं का कहना है कि बांग्लादेशी संथाल परगना में घुसकर आदिवासी महिलाओं के साथ शादी कर प्रदेश में रच-बस रहे हैं। भाजपा वाले कह रहे हैं कि बांग्लादेशी आदिवासी आबादी को खतरा पहुंचा रहे है, जोकि सरासर झूठ है। भाजपा स्टेट बॉर्डर के पास की जगहों के एक दो मामलों को लेकर यह जो किस्से गढ़कर झूठ फैला रहे हैं। यह गलत और निराधार है। ये मूलवासी मुस्लिम आबादी है। उसे ही जबरन बांग्लादेशी बताया जा रहा है।
अगर झारखंड की भागौलिक सीमा को देखें तो साफ है कि भाजपा नेता गलतबयानी कर रहे हैं। क्योंकि झारखंड प्रदेश कहीं से भी वह बांग्लादेश के साथ बॉर्डर शेयर नहीं करती है। झारखंड पूरी तरह से बिहार, उत्तरप्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के साथ बॉर्डर शेयर करता है। ऐसे तो बीजेपी के लोग नेपाल की आबादी को भी घुसपैठिए कहकर हल्ला मचा सकते थे। लेकिन इससे उनको कोई चुनावी फायदा नहीं होता। इसलिए उन्होंने तर्क दिया कि पश्चिम बंगाल पार करके बांग्लादेशी मुसलमान संथाली महिलाओं से शादी करने आ रहे हैं। यह तर्क असत्य है। हम आदिवासी महिलाएं भाजपा व आरएसएस की आदिवासी विरोधी, मानवता विरोधी इन बातों का पुरजोर खंडन वा विरोध दर्ज     करती हैं।

झारखंड की डेमोग्राफी का हल्ला

सवाल उठता है कि बीजेपी और दूसरी पार्टियों के लोग कहां थे जब देश के सबसे बड़े कल कारखाने और खदानें यहां खोल कर आदिवासी को उजाड़ा गया और उन्हें विकास की ‘बलि’ चढ़ाया गया। स्थानीय जनता को नॉन स्किल बता कर पूरे देश भर से स्किल जनता को यहां लाकर बसाया गया। उस समय सरकारों का डेमोग्राफी शब्द से परिचय था या नहीं। बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, ओडिशा की जनता जब यहां बस रही थी। उस समय ‘डेमोग्राफी चेंज थ्योरी’ का ध्यान क्यों नहीं रखा गया।
सच तो यह है कि 5जी शेड्यूल एरिया के तहत यह आदिवासी बहुल प्रदेश, गैर आदिवासी बहुल प्रदेश में वर्षों पहले बदला जा चुका है। बृहत झारखंड की मांग वा उसके क्षेत्र विस्तार को भी देखें तो यह क्षेत्र 2000 में झारखंड निर्माण के समय से ही छला गया है। राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति को कमतर करने के लिए झारखंड को बिहार से अलग कर दिया गया। इसमें बंगाल, मध्यप्रदेश, बिहार, ओडिशा, उत्तरप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाके शामिल नहीं किए गए। सीएनटी-एसपीटी एक्ट को हर बार भाजपाइयों ने कमजोर करने की कोशिश की। विलकिंसन रूल की अनदेखी की गई।
पेसा एक्ट (पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल एरिया) की अनदेखी की गई। आदिवासी जमीन पर मालिकाना हक आदिवासी समाज के पास सामूहिक तौर से रहा है। बाद में यह कमोबेश आदिवासी पुरुष के ही पास रहा है। फिर ऐसे में आदिवासी महिला के साथ शादी कर जमीन हड़पने का जो मनगढंत किस्सा भाजपाई गढ़ रहे हैं वो पूरी तरह बेबुनियाद है। आदिवासी पुरुषों के मन में भी आदिवासी महिला को अपनी संपत्ति समझने का चश्मा भी पुरुषवादी, पितृसतात्मक ब्रह्मणवादियों ने आदिवासी पुरुषों को दिया है। भाजपा अतार्किक बहस लाकर झारखंडी जनता के जायज सवाल गायब कर रही है। मानव तस्करी के सवाल, संसाधनों में बराबरी के बंटवारे का सवाल आदि गायब कर आदिवासी बनाम मुस्लिम की लड़ाई को तेज किया जा रहा।
आदिवासी महिलाओं के प्रति भी जो टिप्पणियां आ रही हैं। वह नकाबिले बर्दाश्त हैं। बांग्लादेशी मुस्लिम आदिवासी महिला से शादी कर, महिला और जमीन दोनों आदिवासियों से छीन रहे हैं। कुछ लोग अपनी इस बहसबाजी में महिलाओं के नामों की लिस्ट जारी कर बातें कर रहे हैं। यह बिल्कुल बेतुकी और नाजायज बात है। वहीं आदिवासी महिला की निजता और उसकी अस्मिता पर हमला है। आदिवासी महिला की कोई एजेंसी ही नहीं। ऐसी भी बात प्रस्तुत की जा रही है। हम विभिन्न आदिवासी संगठन इस बात पर कड़ा ऐतराज जाहिर करते हैं और इनपर कार्यवाही करने की मांग करते हैं। आदिवासी महिलाएं आपके लिए मोहरे नहीं बनेंगी। हम पूरे आदिवासी समाज की ओर से भाजपा और उनके नेताओं के बयानों के लिए सार्वजनिक लिखित माफी मांगने की अपील करते हैं।
लेखिका नीतिशा खलखो झारखंड के धनबाद में बी.एस.के कॉलेज, मैथन में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

बिहार के नवादा में महा दलितों पर टूटा कहर, फायरिंग की, 80 घर जला डालें

बिहार के नवादा जिले के एक गांव में महा दलित परिवार के 80 घरों को जला कर राख कर दिया गया। घटना बुधवार देर रात की है। जब जातिवादी गुंडे फायरिंग करते हुए महा दलित टोले में पहुंचे और घरों को आग लगाना शुरू कर दिया। घटना नवादा जिले के मुफस्सिल थाना क्षेत्र के ननौरा के पास स्थित कृष्णा नगर दलित बस्ती की है।

घटना के पीछे भूमि विवाद बताया जा रहा है। दरअसल कृष्णा नगर दलित बस्ती में दलित परिवार का कब्जा था। दूसरा पक्ष इस पर कब्जा करना चाहता था। इसको लेकर दोनों पक्षों में विवाद चल रहा था। यह मामला डीएम कोर्ट में चल रहा था। इसी झड़प में बुधवार की शाम दूसरे पक्ष ने अचानक हमला कर दिया। कृष्णा नगर के लोगों ने मीडिया को जो बताया, उसके मुताबिक हमला करने वाले करीब 100 लोग थे। उन्होंने पहले फायरिंग कर डर का माहौल बनाया गया, लोगों को घरों से निकल कर भाग जाने को कहा और फिर पेट्रोल छिड़क कर घरों को आग लगा दिया गया। पीड़ितों का कहना है कि पुलिस को घटना की सूचना देने पर पुलिस एक से डेढ़ घंटे बाद पहुंची। मौके पर एसपी और डीएम भी पहुंचे।

हालांकि इस मामले में जो सूचना सामने आ रही है, उसके मुताबिक जिन लोगों के घर जले वो रविदास समाज और मुसहर समाज के लोग थे, जबकि आग लगाने वाले आरोपियों में पासवान समाज और यादव समाज के लोग भी शामिल थे। आरोपियों को लेकर आरोप है कि उनको सत्ता से संरक्षण प्राप्त है।

घटना सामने आने के बाद विपक्ष ने नीतीश सरकार पर जमकर निशाना साधा है। तेजस्वी यादव से लेकर केंद्र में नेता विपक्ष और कांग्रेस नेता राहुल गाँधी सहित तमाम नेताओं ने जदयू-भाजपा सरकार पर जमकर निशाना साधा है। तो वहीं बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इस मामले में सरकार को घेरते हुए पीड़ितों के लिए इंसाफ की मांग की है।

एक देश – एक चुनाव को कैबिनेट की मंजूरी, अब होगा सियासी दंगल

देश में एक देश एक चुनाव को आज 18 सितंबर को मोदी कैबिनेट से मंजूरी मिल गई। वन नेशन वन इलेक्शन के लिए एक कमेटी बनाई गई थी जिसके चेयरमैन पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद थे। इस समिति ने 191 दिनों के रिसर्च और तमाम बैठकों के बाद 14 मार्च 2024 को 18,626 पेज वाली अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी थी।
इस रिपोर्ट में जो सुझाव दिये गए हैं उसके मुताबिक लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का जिक्र है। साथ ही लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव को एक साथ होने के बाद 100 दिन के भीतर स्थानीय निकाय चुनाव भी हो जाने चाहिए। इससे निश्चित टाइम फ्रेम में सभी स्तर के चुनाव संपन्न कराए जा सकेंगे। खबर है कि केंद्र सरकार इसे शीतकालीन सत्र में संसद में लाएगी। हालांकि, ये संविधान संशोधन वाला बिल है और इसके लिए राज्यों की सहमति भी जरूरी है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा लगातार वन नेशन – वन इलेक्शन की वकालत करती रही है। अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान सरकार ने समिति का गठन 2 सितंबर 2023 को हुआ था। इस पर फैसला लेने से पहले स्वीडन, बेल्जियम, जर्मनी, जापान, फिलीपींस, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों की स्टडी की गई। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी समिति में 8 सदस्य थे। इसमें पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, एक वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे, तीन नेता जिसमें भाजपा नेता और गृहमंत्री  अमित शाह, कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी, डीपीए पार्टी गुलाम नबी आजाद, 15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डॉ. सुभाष कश्यप और पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त संजय कोठारी शामिल हैं।
तीसरी बार शपथ लेने के बाद स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का जिक्र किया था। उन्होंने जोर देकर कहा था कि लगातार चुनाव देश के विकास को धीमा कर रहे थे।

कमिटी की सिफारिशें-

  • पहले चरण में लोकसभा के साथ सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव हों।
  • दूसरे फेज में 100 दिनों के भीतर लोकल बॉडी के इलेक्शन कराए जा सकते हैं
  • पूरे देश मे सभी चुनावों के लिए एक ही मतदाता सूची होनी चाहि
  • सभी के लिए वोटर आई कार्ड भी एक ही जैसा होना चाहिए।
  • सभी राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल अगले लोकसभा चुनाव यानी 2029 तक बढ़ाया जाए।
  • हंग असेंबली (किसी को बहुमत नहीं), नो कॉन्फिडेंस मोशन होने पर बाकी 5 साल के कार्यकाल के लिए नए सिरे से चुनाव कराए जा सकते हैं।
  • पैनल ने एक साथ चुनाव कराने के लिए उपकरणों, जनशक्ति और सुरक्षा बलों की एडवांस प्लानिंग की सिफारिश की है।

भारतः केन्द्रीय मंत्रालय-विभागों में OBC, SC व ST के डेढ़ लाख पद खाली!

बहुजन नेताओं और एक्टिविस्ट ने सरकार को घेरा

नई दिल्ली। भाजपा नित केन्द्र सरकार और देश के न्यायिक संस्थान ‘आरक्षण व्यवस्था’ पर चौतरफा हमला कर शिक्षा व रोजगार में पिछड़े दलित और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व खत्म करने पर आमादा है। इन सब के बीच एक ताजा रिपोर्ट में यह सामने आया है कि भारत सरकार के केन्द्रीय मंत्रालयों व विभागों में पिछड़े दलित और आदिवासियों के 1 लाख 51 हजार से ज्यादा पद खाली है। बैकलॉग के इन पदों को भरा नहीं जा रहा है। रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद बहुजन नेताओं और एक्टिविस्ट ने सरकार के खिलाफा मोर्चा खोल दिया है।

बैकलॉग के लिए सड़क से संसद तक लड़ाई

सांसद चंद्रशेखर आजाद ने कहा कि पिछड़ा वर्ग के कल्याण के लिए बनी संसदीय समिति (2023-24) द्वारा लोकसभा में पेश रिपोर्ट में भारत सरकार के द्वारा 72 विभागों में पोस्टेड अधिकारी और कर्मचारियों के विवरण से ये खुलासा हुआ है कि केवल केंद्र सरकार के विभागों में ही वर्ग के 1,51,000 ( एक लाख 51 हजार) से ज्यादा पदों का बैकलॉग खाली पड़ा है। सरकार से मांग करता हूं कि तत्काल “विशेष भर्ती” अभियान द्वारा पद निकालकर बैकलॉग पूरा किया जाए। बैकलॉग भर्ती के लिए संसद से लेकर सड़क तक आवाज बुलंद करके इसको पूरा कराके ही दम लूंगा।

समिति ने फरवरी में संसद में पेश की थी रिपोर्ट

पिछड़े वर्ग कल्याण संसदीय समिति अध्यक्ष सांसद टीआर बालू ने गत 8 फरवरी 2024 को संसद के दोनों सदनों में रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि केंद्र सरकार के अधीन पदों और सेवाओं में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े समुदायों को अखिल भारतीय स्तर पर खुली प्रतियोगिता के माध्यम से सीधी भर्ती पर क्रमशः 15, 7.5 और 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया जाता है। इसके अनुसार 72 केन्द्रीय मंत्रालयों व विभागों में पिछड़े, दलित व आदिवासियों के लिए आरक्षित पदों में ओबीसी के 1 लाख 30 हजार 215, एसटी के 14 हजार 62 व दलितों के 6 हजार 960 पद रिक्त है। यह बैकलॉग रिक्तियां अभी तक भरी नहीं गई हैं।

बैक लॉग भरे केन्द्र सरकार

दलित दस्तक से नैकडोर संस्थापक सदस्य अशोक भारती ने कहा- “भारत बंद के दौरान हमारी संस्था ने ओबीसी, एससी व एसटी के केन्द्र व राज्यों में खाली पड़े बैकलॉग पदों को भरने की मांग की थी। हालांकि केन्द्र सरकार ने इस मामले में अब तक कोई पुख्ता कार्रवाई नहीं की है।”

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विक्रम हरिजन ने कहा- “सरकार को बैकलॉग रिक्त पदों पर प्राथमिकता से भर्ती करनी चाहिए। देखा गया है कि ‘नॉट फाउंड सुइटेबल’ बताकर जानबूझकर आरक्षित पदों को खाली रखा जाता है, जिन्हें बाद में सामान्य पदों में बदल दिया जाता है।

कार्मिक मंत्री का संसद में जवाब

तात्कालिक कार्मिक राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने गत 24 जुलाई 2024 को संसद में एक लिखित उत्तर में कहा था कि रिक्तियों का होना और उनका भरा जाना तथा बैकलॉग आरक्षित रिक्तियां एक सतत प्रक्रिया है। सभी केन्द्रीय सरकारी मंत्रालयों और विभागों को बैकलॉग आरक्षित रिक्तियों की पहचान करने और उन्हें विशेष भर्ती अभियान के माध्यम से भरने के लिए एक आंतरिक समिति बनाने के निर्देश दिए गए है।

10 लाख पद खाली!

केंद्रीय मंत्री सिंह ने बताया कि केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में 9.79 लाख से अधिक पद खाली हैं। इसमें सबसे ज्यादा 2.93 लाख पद रेलवे में खाली हैं। विभिन्न विभागों में खाली पड़े इन पदों को भरने की योजना पर काम किया जा रहा है।