सरकारी योजनाओं से गरीबी उन्मूलन संभव नहीं

आजादी के बाद से ही गरीबों की दशा सुधारने के लिए सरकार कल्याणकारी योजनाएं चलाती रही है. आज स्वतंत्रता के 71 साल बीत जाने के बाद भी गरीबों की दशा नहीं सुधरी है, बल्कि गरीबी बढ़ी ही है. इसके पीछे कारण यह है कि एक तो सरकारी योजनाओं की पहुंच पात्र जरूरतमंदों तक शत-प्रतिशत नहीं है, दूसरा  इन योजनाओं के मॉडल में गरीबी उन्मूलन का मंत्र नहीं है. गरीबों के लिए ये वेलफेयर योजनाएं पेन किलर की तरह हैं, जो दर्द से कुछ पल के लिए राहत देती हैं, लेकिन दर्द का स्थाई इलाज नहीं करती हैं. इस बात की तस्दीक कोसी क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जानने के लिए किया गया कोसी प्रतिष्ठान का ग्राउंड सर्वे भी करता है. कोसी क्षेत्र के किसानों के जीवन, उनके सामाजिक-आर्थिक हालात, उनकी खेती-किसानी की स्थिति, कृषि पैदावार, पशुपालन, शिक्षा व स्वास्थ्य, लोगों को मिल रही सरकारी सुविधाएं और यहां की लोक कलाओं की दशा को समझने के लिए कोसी प्रतिष्ठान के इस सर्वेक्षण में सरकारी योजनाओं पर आए नतीजे में उपरोक्त दोनों बातें पुष्ट हुई हैं.
दरअसल, देश के अन्य हिस्सों की तरह कोसी क्षेत्र में भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), अंत्योदय, वृद्धा पेंशन, मनरेगा, इंदिरा आवास (अब इसका नाम प्रधानमंत्री आवास हो गया है), मिड-डे मील, किसान क्रेडिट कार्ड जैसी सरकारी योजनाएं चल रही हैं और 2014 में नई सरकार आने के बाद जनधन खाता, शौचालय, गैस कनेक्शन देने के लिए उज्ज्वला जैसी योजनाएं शुरू हुई हैं. कुल मिलाकर इस वक्त गरीबों के लिए 10 से अधिक सरकारी योजनाएं चल रही हैं, जिसमें पीडीएस के तहत राशन का अनाज, अंत्योदय के तहत मुफ्त अनाज, प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मुफ्त घर, मनरेगा के तहत साल में सौ दिन रोजगार, पक्का शौचालय के लिए बारह हजार रुपये मदद, मुफ्त गैस कनेक्शन के लिए उज्ज्वला स्कीम, रियायती बिजली, सामाजिक पेंशन, जनधन खाता, द्वार तक पक्की सड़क, खेती-पशुपालन व व्यवसाय के लिए रियायती कर्ज और किसान क्रेडिट कार्ड व फसल बीमा जैसी योजनाएं शामिल हैं, लेकिन इनकी पहुंच पात्र लाभार्थी तक पर्याप्त नहीं है. कोसी प्रतिष्ठान के दो गांव- कालिकापुर और लक्ष्मीनियां के 811 परिवार के सैंपल के आधार पर सरकारी सुविधाओं और उनकी पहुंच पर किए गए सर्वे के नतीजे चौंकाने वाले आए हैं.
इन दोनों गांव में दस सबसे गरीब परिवार जिनकी सालाना आय 18 से 40 हजार रुपये के बीच है, उन्हें राशन का अनाज नहीं मिल रहा है और 15 अमीर परिवार जिनकी सालाना आय चार से नौ लाख के बीच है, उन्हें राशन का अनाज मिल रहा है. कुछेक जमींदार परिवार ऐसे भी हैं जिन्हें अंत्योदय योजना के तहत मुफ्त राशन मिल रहा है. दोनों गांव में 88.40 प्रतिशत परिवार राशन का अनाज ले रहे हैं. मात्र 28.11 फीसदी परिवार ही गैस चूल्हा का प्रयोग कर रहे हैं. पक्का शौचालय केवल 30.45 फीसदी परिवार के पास है, जबकि लक्ष्मीनियां पंचायत पूर्ण ओडीएफ मुक्त घोषित है. ये दोनों गांव इसी पंचायत में आते हैं. शौचालय के लिए केवल 16.40 फीसदी लोगों को ही सरकारी योजना के तहत पैसे मिले हैं. शौचालय के लिए सरकारी मदद पाने के लिए 35.26 फीसदी लोगों को कमीशन देना पड़ा है. प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ केवल 37.23 प्रतिशत परिवार को ही मिला है. मनरेगा का फायदा केवल 22.19 फीसदी लोगों को ही मिल रहा है. पक्की सड़क 29.46 फीसदी परिवार के दरवाजे तक है. सरकारी कर्ज में से कृषि कर्ज का लाभ केवल 1.84 फीसदी परिवारों ने लिया, पशुपालन के लिए कर्ज लेने वाले केवल 0.24 प्रतिशत हैं तो व्यवसाय के लिए किसी ने भी कर्ज नहीं लिया है.
सामाजिक पेंशन, किसान क्रेडिट कार्ड व फसल बीमा पर सर्वे चुप है. हां, जनधन खाता 87.05 फीसदी के पास है और बिजली का प्रयोग 94.57 फीसदी लोग कर रहे हैं. ये आंकड़े बता रहे हैं कि सुशासन बाबू मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दावों के विपरीत सरकारी योजनाओं की पहुंच की स्थिति दयनीय है. केवल जनधन व बिजली को छोड़ दिया जाय तो अन्य किसी भी सरकारी योजनाओं की पहुंच संतोषजनक नहीं है.
यूं तो कहने के लिए यह हालत दो गांवों की है, लेकिन समग्रता में देखा जाय तो यही हालत पंचायत की है, अंचल की है, जिला की है, राज्य की है और देश की है. आपको जानकर हैरानी होगी कि बिहार सरकार के अपने आंकड़े के मुताबिक करीब 60 से 65 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं. 2010 में बिहार सरकार ने डाटा जारी किया था कि 1.40 करोड़ परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं. हर परिवार में औसत चार लोग भी मान लें तो लगभग साढ़े पांच से छह करोड़ लोग बीपीएल में हैं, जबकि जनसंख्या दस करोड़ है. यानी बिहार की आधी से अधिक आबादी गरीब. विश्व बैंक के मुताबिक भी समूचे देश के 29 राज्यों में से बिहार सबसे कम आय वाला राज्य है. विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2005 से साल दर साल बिहार में गरीबों की संख्या में वृद्धि हुई है. रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक भी बिहार देश का सबसे निर्धन राज्य है. बिहार के 41. 4 फीसदी लोग बीपीएल श्रेणी में हैं. ध्यान देने वाली बात है कि 2005 से सुशासन बाबू नीतीश कुमार लगातार बिहार में विकास होने का दावा कर रहे हैं. इस दावे के बावजूद हर साल करीब 44 लाख लोग गरीबी के चलते जीविका के लिए बिहार से पलायन कर रहे हैं. बड़ा सवाल है आखिर कई सरकारी योजनाओं व सुविधाओं के बावजूद बिहार क्यों गरीबी से बाहर नहीं आ रहा है, यहां क्यों लगातार गरीबों की संख्या बढ़ रही है? इसका मतलब है कि इन सरकारी योजनाओं में खामियां हैं, वे गरीबी दूर करने के अपने मकसद में सफल नहीं हो पा रही हैं, या यूं कहें कि इन सरकारी योजनाओं के बूते गरीबी दूर करना संभव ही नहीं है, क्योंकि इनमें गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने की अवधारणा ही नहीं है. यह जरूर कहा जा सकता है कि ये सरकारी योजनाएं लोगों को गरीब बनाए रखने के लिए हैं. सपाट शब्दों में कहें तो मनरेगा, पीडीएस, अंत्योदय, सामाजिक पेंशन, पीएम आवास जैसी तमाम वेल्फेयर स्कीमें लोगों को गरीब बनाए रखने का सरकारी प्रपंच मात्र है और यह देशभर में किया जा रहा है. इस प्रपंच को उदाहरण से समझा जा सकता है. प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत एक पात्र को घर बनाने के लिए सवा लाख रुपये की सहायता दी जाती है. भ्रष्टाचार का हिस्सा कटने के बाद लाभार्थी को करीब एक लाख रुपये मिलता है. इतने कम पैसे में कैसा घर बनेगा और कितने दिन टिकेगा, सहज अनुमान लगाया जा सकता है. लेकिन सरकारी आंकड़े में दर्ज हो जाएगा कि अमुक व्यक्ति को आवास मिल गया.
देश में गरीबों के नाम पर सरकारी योजनाओं का प्रपंच पहली पंचवर्षीय योजना से चल रहा है. आठवीं पंचवर्षीय योजना तक सरकार के प्रशासनिक व्यय के बाद आम बजट का सबसे अधिक हिस्सा गरीबी उन्मूलन के नाम से सामाजिक योजनाओं पर खर्च किया गया. 90 के दशक के बाद नवउदारवादी आर्थिक नीति अपनाने के पश्चात सरकार योजनाओं पर खर्च कम करने के उपायों पर चर्चा जरूर की, लेकिन वोट बैंक दरकने के डर से व्यापक पैमाने पर बजट घटाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी. अभी 71 साल पर नजर डालें तो गरीबी उन्मूलन के लिए पचास से अधिक नामों से योजनाएं चलाई गर्इं, इसके लिए लाखों करोड़ रुपये खर्च किए गए, तीन लाख करोड़ रुपये से ज्यादा तो केवल मनरेगा पर खर्च किया जा चुका है. हर पंचवर्षीय योजना में गरीबी उन्मूलन का बजट बढ़ता गया है. आज के रुपये के मूल्य के हिसाब से देखें तो अब तक औसतन 70 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा गरीबी उन्मूलन पर खर्च किया जा चुका है, लेकिन गरीबी नहीं हटी, गरीबी कम भी नहीं हुई. हां, शहर में 32 रुपये और गांव में 26 रुपये रोजाना खर्चने वाले को अमीर ठहरा कर आंकड़ों में गरीबी कम करने की बेशर्मी जरूर दिखाई गई.
किसी की नीयत ही नहीं
दरअसल किसी भी सरकार की मंशा ही नहीं है कि गरीबी हटे? सबकी इच्छा इस नासूर को बनाए रखने की है. वजह भी है. गरीब नहीं रहेंगे तो योजनाएं किसके लिए बनेंगी, भ्रष्टाचार की मलाई कैसे मिलेगी, वोट बैंक कैसे तैयार होगा? गरीबों के नाम पर चल रही योजनाओं में किस कदर भ्रष्टाचार है, यह किसी छिपा नहीं है. एक रुपये में 15 से 20 पैसे ही पात्र लाभार्थी को मिल पाते हैं. लोगों ने कोसी बाढ़ के बाद सरकारी मुआवजे में भ्रष्टाचार का दैत्य चेहरा देखा है. आपको पता है कि संविधान का लक्ष्य ही लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है, जिसमें सरकार का दायित्व है कि वह हर जनता को रोटी, रोजी, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय और सूचना उपलब्ध करवाए, लेकिन 68 साल के गणतंत्र में सरकारें संविधान के लक्ष्य हासिल करने में विफल रही हैं. सरकारों ने केवल जनकल्याण के नाम पर खैराती सुविधाओं की डुगडुगी थाम रखी है. आज जनकल्याण के नाम पर जितनी भी सरकारी योजनाएं हैं, उनमें गरीबी दूर करने की दृष्टि नहीं है, उनमें गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने का सूत्र नहीं है, बल्कि यह कहने में हर्ज नहीं कि ये तमाम योजनाएं गरीबों को गरीब बनाए रखने के लिए ही हैं. देश में गरीबी बनाए रखने की सरकारी साजिश में सभी सरकारें शामिल हैं. बिहार ही नहीं देश के सभी राज्यों में गरीबी की दारूण स्थिति है.
देश के बड़े हिस्से में गरीब भूख, कुपोषण व बीमारी का सामना कर रहे हैं. उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, रोजगार, न्याय नसीब नहीं हो रहे हैं. बड़ा सवाल है कि एक राज्य की दशा सुधारने के लिए एक सरकार को कितना वक्त चाहिए? 10 साल, 15 साल, 20 साल या 30 साल? हमारे देश में किसी एक दल की सरकार को 34 साल तक का वक्त मिला है. किसी एक नेता को 10 से 23 साल तक शासन का वक्त मिला है, लेकिन गरीबों की दशा नहीं सुधरी है. ज्योति बसु, करुणानिधि, पवन चामलिंग, माणिक सरकार, लालू यादव, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, शीला दीक्षित, तरुण गोगोई, चंद्रबाबू नायडू, प्रकाश सिंह बादल, मुलायम सिंह यादव, मायावती, जयललिता, एनटी रामाराव जैसे नेता 10 से 23 साल तक मुख्यमंत्री रहे हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि देश के सभी बड़े नेता को पर्याप्त समय तक शासन का अवसर मिला है और सभी प्रमुख राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों को भरपूर समय तक सत्ता मिली है. सभी प्रमुख राजनीतिक विचारधारा-वामपंथ, समाजवादी, मध्यमार्ग, मिश्रित पूंजीवादी, राष्ट्रवादी-दक्षिणपंथ को साबित करने का समय मिला है. लेकिन आजादी के 71 साल बाद आज कोई भी ऐसा राज्य नहीं है, जहां गरीबी नहीं है और वहां पीडीएस-अंत्योदय-मनरेगा जैसे पेटभरू कार्यक्रम नहीं चल रहे हैं, भूख से मौतें नहीं हो रही हैं व लोग सतत गरीबी के दरिद्रता चक्र में नहीं फंसे हुए हैं. मजेदार यह है कि आजादी से लेकर अब तक के हर चुनाव में गरीबी दूर करने का वादा रहा है, लेकिन गरीबी दूर नहीं हो सकी है. विश्व बैंक की 2015 में आई गरीबी मापने की नई विधि मोडिफाइड मिक्स्ड रिफरेंस पीरियड के मुताबिक भी भारत में अमेरिका के बराबर की आबादी करीब 27 करोड़ बीपीएल श्रेणी में हैं. विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक मई 2016 में 27 करोड़ लोग भारत में गरीबी रेखा के नीचे थे. एशियन विकास बैंक के मुताबिक भारत में 22 फीसदी आबादी निहायत गरीब है, जबकि भूटान में 8.2 फीसदी व श्रीलंका में 4.1 फीसदी आबादी गरीब हैं. सरकार के नवीनतम आंकड़े के मुताबिक भी करीब 20 फीसदी यानी लगभग 26 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं. आजादी के बाद देश ने जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह व नरेंद्र मोदी जैसे दूरदर्शी-विशेषज्ञ नेता-विचारक को भी देखा है. इसके बावजूद गरीबी कम नहीं हो पाई. इसलिए यह कहने में गुरेज नहीं कि गरीबी उन्मूलन के नाम पर चलाई गईं सरकारी योजनाएं फेल रहीं, हमारी नीतियां विफल रहीं, हमारी राजनीति विफल रही, हमारे नेता विफल रहे. आगे उम्मीद भी नहीं दिखाई देती, क्योंकि इन्हीं में से अधिकांश दल व चेहरे देश व राज्यों के सत्ता परिदृश्य में रहेंगे.
क्या है विकल्प
संविधान निर्माता और अर्थशास्त्री डा. भीमराव अंबेडकर ने गरीबी उन्मूलन के लिए आमदनी के स्थायी स्रोत के निर्माण की अवधारणा रखी थी. इसके लिए उन्होंने ‘स्टेट सोशलिज्म’ का सिद्धांत दिया था, जिसमें राज्य द्वारा हर परिवार को बिना भेदभाव स्थाई आजीविका उपलब्ध कराने की बात है. यह संभव है, लेकिन अब तक किसी सरकार ने व नेता ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है. स्टेट सोशलिज्म का लक्ष्य ही बिना भेदभाव सभी नागरिकों का सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक उत्थान कर उनको आत्मनिर्भर बनाना है. मौजूदा व्यवस्था में भी अगर सभी सरकारी वेल्फेयर योजनाओं को मिलकर केवल रोजगार सृजन योजना ही चलाई जाय तो भी कुछेक साल में गरीबी उन्मूलन हो जाएगा. लेकिन सच पूछिए तो सरकारों की रुचि खैरात बांटने में है, जनता को परजीवी बना कर रखने में है, उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में नहीं है.
शंभू भद्रा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.