नैक्डोर का गठन किस उद्देश्य से हुआ? कब हुआ?
– नैक्डोर जैसे संगठन की जरूरत दलितों को हमेशा से थी. यह इसलिए जरूरी थी कि सामाजिक स्तर पर दलित संगठनों का और दलितों का कोई भी एक ऐसा व्यापक राष्ट्रीय मंच नहीं था, जो उनकी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक चिंताओं को मजबूती के साथ रख सके. तो एक राष्ट्रीय मंच का अभाव ही नैक्डोर के बनने की सबसे बड़ी वजह थी. हमने सन् 2000 में ही इसके बारे में सोचा था लेकिन किन्हीं कारणों की वजह से यह टल गया. फिर दिसंबर 2001 में 8-10 दिसंबर तक दिल्ली में देश के दलित संगठनों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ. इसका नाम ही था, नेशनल कांफ्रेंस ऑफ दलित आर्गेनाइजेशन. यही ‘नैक्डोर’ बना. इस तरह 10 दिसंबर 2001 को नैक्डोर की स्थापना हुई.
तब आप क्या कर रहे थे?
– मैं तो भारत सरकार में नौकरी कर रहा था. मैं मिनिस्ट्री ऑफ पावर में सेंट्रल एक्जीक्यूटिव अथॉरिटी में था. इंडियन इंजीनियरिंग सर्विस में था मैं. अगर मुझे ठीक याद है तो मैं उस वक्त डिप्टी डायरेक्टर था.
आप अच्छे पद पर थे. फिर वो क्या चीज थी कि आपने नौकरी छोड़ कर दूसरी राह ली.
– 1977 में मैने दसवीं पास की थी. और तब से मैं सामाजिक और दलित आंदोलन का हिस्सा था. लेकिन बीच में पढ़ाई के सिलसिले में मैं चार साल (अगस्त 1996 से 25 दिसंबर 1999) देश से बाहर था तो उस दौरान बहुत सारी चीजें हो गई थी. तब तक उदित राज जी खड़े हो गए थे. तब तक एनसीडीएचआर (NCDHR) हो गया था. वो काफी गरमा-गरमी और गहमा-गहमी का दौर था. उस वक्त मैं अंतरराष्ट्रीय गहमा-गहमी में शामिल था. आपको याद होगा कि सन 1998 में क्वालालंपुर, मलेशिया में प्रथम दलित विश्व सम्मेलन हुआ था. तो मैं उस प्रक्रिया में शामिल था. वहां मान्यवर कांशीराम थे, रामविलास पासवान थे, फूलन देवी थीं, कांग्रेस के चिंता मोहन थे, कमला प्रसाद सिन्हा थीं. ये सब लोग थे. देश का कोई भी ऐसा गंभीर दलित कार्यकर्ता नहीं था जो वहां मौजूद नहीं था. हां, एनजीओ वाले वहां पर नहीं थे. सबके सब लोग अपने पैसे से कार्यक्रम में पहुंचे थे. मैं मानता हूं कि उस कार्यक्रम के आयोजन में मेरा भी कुछ हिस्सा था. तो 1998 में मैने स्ट्रेटेजी फॉर दलित डेवलपमेंट पर अपना पावर प्वाइंट प्रेजेंनटेशन दिया था. और मैं मानता हूं कि हमारी ये उम्मीद थी कि वो प्रथम दलित विश्व सम्मेलन देश के दलितों के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. हालांकि वैसा नहीं हो पाया. तभी मुझे लगा कि जब मैं भारत वापस जाऊंगा तो उस सम्मेलन की जो खामियां थी, उनको दूर करने के लिए भारत में एक सम्मेलन करुंगा.
वो क्या वजह थी कि विश्व भर से तमाम लोग अपने पैसे से क्वालालंपुर पहुंचे थे.
– जिस तरह से दुनिया में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव आ रहा है, तो दलितों का चिंतित होना या दलितों को उसके बारे में विचार करना बड़ा स्वभाविक है. आपको पता होगा कि उस वक्त के आर नारायणन भारत के राष्ट्रपति थे. तो लोगों को लग रहा था कि कुछ चीजें हम बदल सकते हैं. क्योंकि के आर नारायणन को उपराष्ट्रपति बनाने के लिए भी बड़ी लंबी लड़ाई हुई थी, जिसमें हमलोगों ने भी अपनी भूमिका अदा की थी. मैं भी उसमें व्यक्तिगत तौर पर शामिल था. तो लोगों को लग रहा था कि हमें कुछ करना चाहिए. और ये वो दौर भी था कि जब उत्तर प्रदेश में एक संयुक्त सरकार बसपा की बन चुकी थी. तो थोड़ा सा उभार था. तो ये एक बड़ा कारण था.
नैक्डोर की स्थापना से लेकर अब तक का सफर कैसा रहा है?
– मैं तो इस सफर से बहुत खुश हूं. और मुझे लगता है कि हमने जो सोचा था वह अक्षरशः साबित हो रहा है. हमारा आंकलन यह था कि जो दलितों के राजनैतिक दल हैं, वो सामाजिक मुद्दों को हाशिये पर छोड़ देंगे. दलितों के आर्थिक मुद्दे को हाशिये पर छोड़ देंगे. यानि वो अपनी पहचान मजबूत करने के क्रम में दलितों के सामाजिक, आर्थिक एवं अन्य मुद्दों पर उतना काम नहीं कर पाएंगे जितना वो करना चाहते थे. उसकी वजह यह है कि देश की राजनीति में जो भारत की नौकरशाही का स्टील फ्रेम है. उस स्टील फ्रेम में दलित बड़े मार्जनालाइज हैं. तो अगर देश के दलितों के हाथ में राजनीतिक सत्ता आ भी जाए तो दलितों की जिंदगी में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आ सकता.
क्यों?
– पहली बात तो यह है कि सरकारें जो काम कर सकती हैं… जैसे- मायावती जी ने ठेकेदारी में 23 प्रतिशत रिजर्वेशन किया. अब दलितों में ठेकेदारी नहीं है. तो अगर वो नीतियां ले भी आएंगी तो उसका फायदा कौन उठाएगा? क्योंकि क्या हमारा समाज स्टेट को इस्तेमाल करने के लिए तैयार है? मुझे लगता है कि दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक खासतौर पर जो मुसलिम समुदाय है वह स्टेट द्वारा मुहैया कराए गए मौके को इस्तेमाल करने में फिलहाल उतने सक्षम नहीं हैं. यही वजह है कि सरकार चाहे बहनजी बनाए या कोई और बनाए, फायदा गैर दलितों को ज्यादा होगा. लेकिन ये बात जरूर है कि दलित कुढ़ता रहेगा. इसलिए वह बहनजी से कुढ़ता रहा कि उसे फायदा नहीं मिला.
लेकिन यूपी सरकार में पहली बार कोई दलित आईजी बना. कई लोग निगमों के अध्यक्ष बने. यह सब मायावती की सरकार में ही हुआ? यह फायदा तो सरकार को ही हुआ ना.
– ये सांकेतिक फायदे हैं, इससे जमीनी हकीकत नहीं बदलती. ये देखने के लिए बड़ी अच्छी चीजें हैं लेकिन अगर उत्तर प्रदेश में दलित समाज का एक व्यक्ति आईजी बन गया तो क्या वो कोई ऐसी व्यवस्था कायम कर पाएं कि दलितों पर अत्याचार बंद हो जाए या फिर थानों में दलितों के मामलों की सुनवाई ज्यादा होनी शुरू हो गई.
नैक्डोर के अब तक के सफर में दिक्कतें क्या आई?
– एक दिक्कत तो यह थी कि नैक्डोर जो है वह बहुत विपरीत परिस्थितियों में काम कर रहा था. क्योंकि आप भारत में दलित होते हुए जब एक बड़े राष्ट्रीय मंच पर काम करते हैं, तो दलित होने के नाते जो अन्य लोग हैं, खासतौर पर जो राजनीति में हैं और जिनकी समझ बड़ी नहीं है, उनको लगता था कि नैक्डोर एक प्रतिद्वंदी है. कई जगह पर बहुजन समाज पार्टी के जमीनी पदाधिकारियों के साथ हमारी तकरार होती थी. क्योंकि वो लोग हमारी मुहिम को समझ नहीं पा रहे थे. उनको लगता था कि नैक्डोर एक राजनीतिक पार्टी बनेगा. हमारे तमाम बात कहने के बावजूद वो यकीन नहीं करते थे क्योंकि उन्होंने कभी नहीं देखा था कि दलितों का कोई सामाजिक संगठन बड़े पैमाने पर मोबलाइजेशन करता है जैसा कि नैक्डोर ने किया. यह एक बड़ी कठिनाई थी. दूसरी कठिनाई थी कि नैक्डोर ने नागरिक संगठनों के ढ़ाचों को भी थोड़ा एडॉप्ट किया था. थोड़ा एनजीओ का स्टाइल भी लिया था. क्योंकि उनकी कुछ अच्छाइयां भी थी. तो अब जब हमने राष्ट्रीय मंच पर एनजीओ के तौर पर काम करना शुरू किया तो जो स्थापित एनजीओ वाले थे उनलोगों को बड़ी दिक्कत हुई. ‘किसी’ (नाम नहीं बताते हैं) ने कहा कि आपने नैक्डोर बना लिया, अब हम डोनर (दान देने वाले) को क्या जवाब देंगे. डोनर कहेगा कि ये भी है, वो भी है. क्योंकि क्या हुआ कि सन् 2002 में ‘द हिंदू’ में नैक्डोर के बारे में बड़ी स्टोरी छपी थी, जिसको डॉ. मीना राधाकृष्णन ने लिखा था. हो सकता है उसके बाद बहुत सारे डोनर ने पूछा होगा कि भाई ये दलितों का नया प्लेटफार्म क्या है, ये नैक्डोर क्या है. तो जिन लोगों को डोनर दोनों हाथों से पैसा देते थे, उनलोगों को परेशानी तो हुई होगी कि भाई ये क्या हो गया.
जब भी किसी संस्था या संगठन कि बात होती है तो देखा जाता है कि यह एक-दो लोगों के हाथ में ही है, नैक्डोर कैसे अलग है उनसे?
– देखिए, नैक्डोर में इस वक्त 90 लीडर हैं जो पूरे संगठन के ढ़ांचे को चलाते हैं. मैं तो केवल एक पब्लिक फेस (चेहरा) हूं. बाकी ढ़ांचा तो दूसरे लोगों के हाथ में है. और आप देखिए कि मैं दिल्ली में बैठा हूं और लोग अपने आप आएंगे. लोग अपने आप इसलिए नहीं आएंगे क्योंकि लोग आना चाहते हैं बल्कि वो जो 90 लीडर हैं वो उसकी वजह हैं. इस दस साल के भीतर नैक्डोर ने करीब-करीब एक हजार लीडर खड़ा किया है. 2004 में हमने दस मुद्दे तय किये थे, उनमें से आठ मुद्दों को हम हल कर चुके हैं. नौवे में भी हम काफी प्रगति कर चुके हैं. एक ‘राइट टू फूड’ बचा है, वो भी दिसंबर तक हल हो जाएगा. तो इस तरह सभी दस मुद्दे हल हो जाएंगे. हमारा जो तीसरा राष्ट्र्रीय सम्मेलन होने वाला है, उसमें हम आगे के दस साल के मुद्दे तय करेंगे कि हमें क्या करना है.
क्या कोई चुनाव की प्रक्रिया है?
– अभी जो नैक्डोर का तीसरा राष्ट्रीय सम्मेलन शुरू हुआ है. ये प्रक्रिया पिछले साल 13 अक्तूबर को ही शुरू हो गई थी. हमारे यहां हर पांच साल पर चुनाव होता है. इसमें आम सहमति से संस्था का अध्यक्ष चुना जाता है. अभी स्टेट की कार्यकारिणी बननी शुरू हो गई है. सारे राज्यों में मीटिंग हो चुकी है. पिछले 13 अक्टूबर 2011 से लेकर 7 दिसंबर 2012 तक यह प्रक्रिया चलेगी. 7 दिसंबर 2012 को नई कार्यकारिणी का गठन होगा.
फिलहाल नैक्डोर के साथ कितने संगठन जुड़े हैं.
– अभी तक हमारे पास तकरीबन 1493 संगठन हैं और हम उम्मीद करते हैं कि इस साल हम दो हजार संगठन की संख्या पार कर जाएंगे.
देश के किन क्षेत्रों में नैक्डोर का ज्यादा प्रभाव रहा है?
– हमारा प्रभाव उत्तर भारत और हिन्दी क्षेत्रों में ज्यादा है. लेकिन आंध्र प्रदेश सहित उड़िसा, तामिलनाडु, कर्नाटक और केरल में भी में भी हमारी मौजूदगी है. जहां दलितों की समस्याएं ज्यादा है, वहां हमारी मौजूदगी ज्यादा है. यानि जो देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक मानस को बदलता है, वहां हमारी उपस्थिति ज्यादा है.
जब नैक्डोर का तीसरा राष्ट्रीय सम्मेलन होने जा रहा है तो अगर आपसे नैक्डोर की उपलब्धियां गिनाने को कहा जाए तो आप कौन-कौन सी उपलब्धि गिनाएंगे.
– बहुत गिना सकते हैं. वैसे एक ही बता देता हूं कि सीआईआई प्राइवेट सेक्टर में रिजर्वेशन के मुद्दे पर हमने प्राइवेट सेक्टर को डिपली इंगेज किया और उनके साथ एमओयू (Memorandum of understanding) साइन किया. उसको हम पब्लिक के सामने सम्मेलन में रखेंगे. उसमें कोई और संगठन शामिल नहीं है.
क्या आप प्राइवेट सेक्टर में रिजर्वेशन की बात का समर्थन करते हैं.
– हां, मैं रिजर्वेशन इन प्राइवेट सेक्टर मांगता हूं.
उदित राज भी इसके लिए लड़ रहे हैं, तो क्या आप दोनों साथ मिलकर काम कर रहे हैं.
– नहीं हम साथ मिलकर काम नहीं कर रहे.
मुद्दा एक है, आप और उदित राज दोनों इसके लिए संघर्ष कर रहे हैं, तो क्या साथ मिलकर लड़ने से ताकत नहीं बढ़ेगी. इसका ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ेगा? साथ नहीं आने की क्या वजह है.
– देखिए, मुझे लगता है वह पुराना संगठन है हमसे. और उदित राज जी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. कर्मचारियों को उन्होंने संगठित किया है. हमारे साथ सवाल यह है कि उदित राज अब केवल सामाजिक संगठन वाले व्यक्ति नहीं है. अब उनकी एक पोलिटिकल पार्टी है. अगर हमें पोलिटिकल एलाइंस (गठबंधन) करना होगा तो हम किसी छोटी पार्टी के साथ एलाइंस नहीं करेंगे, बड़ी पार्टी के साथ एलाइंस करेंगे. लेकिन नैक्डोर का दृष्टिकोण यह है कि हम गैर पार्टी प्लेटफार्म हैं. यानि कि हम पार्टी निरपेक्ष राष्ट्रीय मंच हैं. और मैं बताना चाहूंगा कि निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए केवल उदित राज नहीं लड़ रहे हैं. रामविलास पासवान भी बात करते हैं. बहन मायावती भी कह रही हैं. सब कह रहे हैं.
लेकिन आप दिल्ली में बैठे हैं. इतना बड़ा काम कर हैं, आपसे दो हजार के करीब संगठन जुड़े हैं, तो कहीं न कहीं वो पोलिटिकल टच तो होता ही हैं ना?
– मैं यह कह सकता हूं कि नैक्डोर की अपनी राजनीति है. लेकिन हम पॉलिटिकल पार्टी न्यूट्रल हैं. कोई भी दलित संगठन बिना राजनीतिक समझ के, बिना राजनीतिक विचारधारा के अगर रहेगा तो दलित आंदोलन को आगे नहीं बढ़ा सकेगा. यह बहुत जरूरी है. क्योंकि इस समाज की कोई भी मांग होगी, उसे राजनीतिक नजरिये से देखा ही जाएगा. ये बाबासाहेब डा. अंबेडकर ने कहा था.
आपने संगठन की बात कही कि जब नैक्डोर आया तब ‘द हिंदू’ में इसकी स्टोरी हुई तो बाकी संगठनों के लोगों को दिक्कत हुई. तो ये जो दलित हित के लिए काम करने का दावा करने वाले संगठन हैं, उनमें आपस में कैसी प्रतिद्वंदिता है.
– मुझे इस बारे में बहुत ज्यादा अनुभव नहीं है कि प्रतिद्वंदिता है या नहीं. जहां तक नैक्डोर की बात है तो हमारा मानना है कि राष्ट्रीय मंच होने के नाते हमें सभी संगठनों को साथ लेकर चलना है. चाहे वो एनसीडीएचआर हो, चाहे डाइनेमिक एक्शन ग्रुप हो या फिर अन्य.
आप अपने आप को राष्ट्रीय मंच मानते हैं. आपने अभी एनसीडीएचआर का जिक्र किया तो क्या एनसीडीएचआर नैक्डोर से जुड़ा हुआ है.
– मैं तो यह कह सकता हूं कि अभी उनकी जो रैली हुई थी हमलोग उनके मंच पर थे. और भी जो कार्यक्रम होते हैं, हमलोग साथ मिलकर काम करते हैं.
लेकिन मंच पर साथ होना और जुड़ना दोनों अलग-अलग चीजें होती हैं.
– देखिए, एनसीडीएचआर मतलब नेशनल कैंपेन फॉर दलित ह्यूमन राइट. यानि वो कैंपेन है. और मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि सेंटर फॉर अल्टरनेटिव मीडिया जिसने नैक्डोर को क्रिएट किया, वो भी नैशनल कैंपेन फॉर दलित ह्यूमन राइट के फाउंडर लोगों में से है. ये शायद लोगों को नहीं पता. तो ऐसा नहीं है कि हमलोगों का सहयोग नहीं है या फिर हम साथ में काम नहीं करते हैं. जिनेवा तक में भी जाकर हमलोग साथ काम करते हैं. लेकिन यह है कि वो हमारे मेंबर नहीं हैं.
नैक्डोर के फाउंडर कौन-कौन हैं?
– नैक्डोर के 189 आर्गेनाइजेशन हैं जो फाउंडर हैं. उनमें वालजी भाई पटेल हैं, नैक्डोर के फाउंडर कांफ्रेंस के वक्त कल्पना सरोज भी आई थीं. गुजरात के देवेन वाणवी थे, हरियाणा के राकेश बहादुर थे. उड़िसा की पुष्पा थीं. शेर सिंह थे जो अभी जम्मू-कश्मीर में हैं. ऐसे बहुत सारे लोग थे.
दलित संगठनों पर आरोप लगते रहे हैं कि इनके बीच पैसे को लेकर खिंचतान होती रहती है?
– अगर आप ईमानदार नहीं है, प्रोफेशनल नहीं हैं, तो खिंचतान तो होगी ही. ज्यादातर दलित संगठनों में टूट-फूट पैसे को लेकर होती है. क्योंकि एजेंडे से ज्यादा पैसा महत्वपूर्ण हो जाता है. एक वक्त हम अपने एक वरिष्ठ साथी को जिन्होंने जेएनयू से डाक्टरेट किया था, उन्हें पांच हजार रुपये नहीं दे पाते थे. आज हमारे यहां प्रोग्राम ऑफिसर की सैलरी बीस हजार रुपये है.
सरकारें तमाम मोर्चे पर दलितों का हक मारती रही हैं, नैक्डोर ने इस विषय में क्या किया है?
– मैं आपको बताना चाहता हूं कि सन् 2000 में नैक्डोर पहला संगठन था जिसने भारत सरकार के आर्थिक खातों को खोजना शुरू किया. हमने बजट को खंगालना शुरू किया, डेवलपमेंट प्लॉनिंग के बजट पर ध्यान दिया. यह रिकार्ड है कि इस बारे में हमने भारत सरकार के प्रधानमंत्री को लिखा. इस बारे में हमने डिप्टी चेयरमैन को पहला मेमोरेंडम 2001 में दिया. दसवीं पंचवर्षीय योजना के संबंध में अटल बिहारी वाजपेयी जी को हमारे बयान के ऊपर सफाई देनी पड़ी. तो हम तो सरकार को बहुत क्लोजली मॉनिटर करते हैं. अभी हम युवा मामलों के मंत्री जितेंद्र सिहं से मिले थे और उनसे पूछा था कि यूथ पॉलिसी में हमारे लिए क्या स्पेस है. दलित उद्यमियों से खरीद के मामले में जो 4 प्रतिशत का रिजर्वेशन मिला है, उसमें हमारा भी योगदान है.
आप विदेशी मंचों से भी अपनी बात रखते रहे हैं. आप किन-किन मंचों पर गए हैं. उसका क्या प्रभाव पड़ता है?
– मैं ‘ग्लोबल कॉल एक्शन अगेंस्ट पावरटी बोर्ड’ का मेंबर हूं. मैं मानता हूं कि दुनिया के स्तर पर दलितों जैसे जो सामाजिक तबके हैं, उन तबके की बातों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने में मैने काफी मशक्कत की है. और मुझे लगता है कि उस मशक्कत के काफी परिणाम भी निकले हैं. सन् 2008 में यूएन जनरल एसेंबली में सेक्रेट्री जनरल ने मुझको आमंत्रित किया था. वहां मैने दलित और मुस्लिम दो ही तबकों की बात की. मुझे लगता है कि उसका एक असर यह पड़ा कि जो बात हम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कर रहे थे, आज यूएन का पूरा का पूरा सिस्टम जो है वह मान रहा है कि अगर भारत ने दलित, आदिवासी और मुस्लिम के प्रॉब्लम को दूर नहीं किया तो दुनिया की प्रॉब्लम को आप हल नहीं कर सकते. ये फर्क पड़ा. और यूएन की पूरी की पूरी एजेंसी सोशल एक्सक्लूजन की बात कर रही हैं. जब हम हमारे तीसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में जाएंगे तो हम उम्मीद कते हैं कि 6 दिसंबर को बाबासाहेब के परिनिर्वाण के दिन यूएन के सारे लोग नैक्डोर के मंच पर होंगे. यूएन की रेजिडेंट को-आर्डिनेटर लिजा गार्डे हमारे मंच पर होंगी. यूनिसेफ की चीफ हमारे मंच पर होंगी. यूएन मिलेनियन की ग्लोबल चीफ हमारे मंच पर होंगी. और वहां से हमलोग एक कॉल करने वाले हैं कि दलित और गैर दलित के बीच जो विकास की खाई है, उसे पाटा जाए.
अभी नैक्डोर के कौन-कौन से कार्यक्रम चल रहे हैं, कहां-कहां?
– अभी हमारे 11 बड़े-बड़े कार्यक्रम चल रहे हैं जैसे बिहार के ग्यारह जिलों के 14 ब्लॉक में हम ‘मनरेगा’ को लेकर सक्रिय हैं. बुंदेलखंड के मध्य प्रदेश के तीन जिलों में, उत्तर प्रदेश के पांच जिलों में हम बुंदेलखंड शिक्षा अभियान चला रहे हैं. क्योंकि यहां महिलाओं की असाक्षरता दर 75 से 93 फीसदी है. जो अनपढ़ हैं वो दलित-आदिवासी महिलाएं हैं. हमने वहां महिला शिक्षा अधिकार यात्रा की थी. भारत में यह पहली बार हुआ है कि महिलाओं का जत्था शिक्षा के क्षेत्र में बात करने के लिए बाहर निकला है. हमलोग भारत में दलित और आदिवासियों की पोषण की समस्या पर काम कर रहे हैं. इसको लेकर हमने ग्लोबल अलाइंस फॉर इंप्रूव न्यूट्रिशन के साथ मिल कर देश के पांच राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और दिल्ली के 20 जिलों में काम शुरु किया है. देश में दलित महिलाएं कैसे दलित आंदोलन की कमान संभाल सके उसको लेकर हम यूके की ‘करुणा फाउंडेशन’ के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. आने वाले पांच साल में एक हजार महिला लीडर खड़ी करने का उद्देश्य है.
दलित व्यपारियों का एक संगठन है ‘डिक्की’ (Dalit Indian Chamber of Commerce & Industry), इसके सामने आने से सोसाइटी को क्या फायदा है और इसको आप कितना महत्वपूर्ण मानते हैं?
– डिक्की भारत के दलितों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण संगठन है. वह भारत के दलित इतिहास में मिल का पत्थर है. मुझे लगता है कि यह दलितों की राइजिंग एंबिसन है, उसको रिफ्लेक्ट करता है. मैं उनके जज्बे को सलाम करता हूं. वो दलितों को इस बात का विश्वास दिलाता है कि हम केवल लुटे-पिटे लोग नहीं हैं. हमें मौका मिलेगा, हमारे में दम है, हम आगे जा सकते हैं. और मुझे लगता है कि इंडस्ट्री, बिजनेस और कॉमर्स में आगे दलितों का भविष्य बड़ा उज्जवल है. आने वाले समय मंह इस देश की इकोनॉमी के बड़े हिस्से पर दलितों के प्रभाव को कोई रोक नहीं सकता.
डिक्की के मंच से कई बार कहा जाता रहा है कि हमें रिजर्वेशन की जरूरत नहीं है. आप इसको कैसे देखते हैं?
– मुझे लगता है कि हमलगों को रिटोरिक एंड रियालिटि में फर्क करना चाहिए. जब वे लोग बात करते हैं तो जरूरी नहीं कि वे जैसा कह रहे हैं उनकी मंशा वैसी ही हो. लेकिन क्यों नहीं चाहिए रिजर्वेशन उनको. वो तो मांग रहे हैं रिजर्वेशन. चार पर्सेंट का रिजर्वेशन तो उन्हीं की मांग थी. मिल रहा है उन्हें रिजर्वेशन. मुझे लगता है कि वह जॉब के सेंस में रिजर्वेशन की बात कहते हैं.
यानि वो कह रहे हैं कि उन्हें सरकारी नौकरियों में तो रिजर्वेशन नहीं चाहिए लेकिन बिजनेस में चाहिए. अब ये कैसी बात हुई?
– देखिए, उनलोगों को रोजगार नहीं चाहिए. वो रोजगार देने वाले हैं. तो जिनको निजी क्षेत्र में रोजगार चाहिए वो मांगेंगे, मांग रहे हैं.
लेकिन वो तो सोसाइटी हैं ना? जब आप मंच से ऐसा कहते हैं तो फर्क तो पड़ता है?
– अगर उनको इंडस्ट्री की लाइन में सरवाइव करना है तो उनको इंडस्ट्री के सुर में अपना सुर मिलाना पड़ेगा. मैं यह मानता हूं कि वह दलितों की अच्छी आवाज हैं, लेकिन वह दलितों की पूरी आवाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते. जहां तक सार्वजनिक मंच से उनके कहने की बात है तो इससे फर्क तो पड़ता है लेकिन सरकारें इतनी नासमझ नहीं हैं कि वह मॉस बेस की बात नहीं समझती. तो मॉस बेस और मनी बेस में बहुत फर्क होता है.
नैक्डोर को लेकर पिछले दिनों विवाद भी हुआ था, कुछ लोगों ने आरोप लगाया था कि यह एक-दो लोगों का संगठन है.
– ये सब तो हर संगठन में चलता रहता है. अब ये तो यहां काम करने वाले लोग बताएंगे कि एक-दो लोगों का संगठन है या कितने लोगों का संगठन है. कई बार कुछ लोगों को लगता है कि जब वो हां कहें, तो संगठन हां कहें, जब वो ना कहें तो संगठन ना कहे. वो परफार्म न भी करें तो भी वो चाहते हैं कि समाज उनको सपोर्ट करता रहे. देखिए साब….। ईमानदारी का तकाजा यह है कि जो व्यक्ति संगठन में परफर्म नहीं कर सकता, उसको संगठन से बाहर जाना होगा, चाहे वो अशोक भारती क्यों न हो. क्योंकि ये समाज बड़ी मुश्किल से नैक्डोर के लिए साधन देता है. इस संगठन का निर्वाचित अध्यक्ष होने के नाते मेरी जिम्मेदारी यह है कि काम नहीं करने वाला व्यक्ति समाज के पैसे का इस्तेमाल न करे. तो नॉन परफर्मेंस वालों को तो जाना पड़ेगा. नैक्डोर में चमचों के लिए जगह नहीं है. यहां काम करने वालों की जरूरत है. कोई व्यक्ति मेरे करीब है, उसकी वजह से वो संगठन में रहेगा, यह जरूरी नहीं है.
नैक्डोर के चेयरमैन से बहुत बातें हो गईं, अशोक भारती कैसा शख्स है?
– (हंसते हैं) मैं कविताएं लिखता हूं, लेख लिखता हूं, अपने विचारों को रखता हूं. वक्त मिलने पर परिवार के साथ वक्त गुजारता हूं. मेरा अपने व्यक्तिगत दोस्तों का दायरा है. उनके साथ जिंदगी जीता हूं. वैसे कम वक्त मिलता हूं.
कितने महत्वकांक्षी हैं आप?
– मैं सोचता हूं कि महत्वावकांक्षा और अभिलाषाएं दो अलग चीज हैं. एंबिसन तो बहुत हैं, महत्वकांक्षा नहीं है. मुझे लगता है कि अगर हम सिविल सोसाइटी के लेवल पर देखें तो बाबासाहेब की कृपा से मैं उस जगह पर पहुंच गया जहां सिविल सोसाइटी के किसी व्यक्ति को पहुंचने में बहुत टाइम लगेगा. 2008 में मैं जनरल असेंबली में भाषण दे आया हूं. इससे ज्यादा तो सिविल सोसाइटी में कोई कुछ नहीं कर सकता. लेकिन मैं यह जरूर चाहता हूं कि दलितों के ऐसे इंस्टीट्यूशन खड़े हो जाएं कि दलितों को किसी का मोहताज ना होना पड़े. जैसे कि अभी हमारा पॉलिसी एनालिसीस का कोई मैकानिजम नहीं है. बहुत सारे ऐसे एजेंडे हैं जो एक्सिस्ट नहीं करते. इसे आप मेरी महत्वकांक्षा भी कह सकते हैं कि दलित समाज को लाखों लिडर्स की जरूरत है. अब किसी को तो लाखों-लाख नेता पैदा करने के लिए तो काम करना पड़ेगा. मेरा मानना है कि एक मायावती और एक कांशीराम जी ज्यादा नहीं हैं. और लोगों को खड़ा होना पड़ेगा और इसके लिए काम करना होगा. नैक्डोर इस दिशा में काम कर रहा है. हमने कई जगहों पर लोगों को आइडेंटिफाई (चिन्हित) किया है.
बचपन कहां बीता, पैदाइश कहां हुई है आपकी?
– मेरी पैदाइश जामा मस्जिद दिल्ली की है. 26 मई 1960 को मैं पैदा हुआ. दो साल का था तो मेरे माता-पिता जामा मस्जिद से उजड़ गए थे. वहां से यमुना पार के जंगलों में जिसे सीलमपुर गांव कहते हैं, वहां चले गए. वहां से मैने प्राइमरी की पढ़ाई की. वहीं से मीडिल स्कूल पढ़ा. फिर हम वहां से उजड़ कर कालकाजी चले गए. वहां से मैने नवीं-दसवी पास की. बीच में एक साल फेल भी हुआ. एक बार फिर यमुना पार आ गए. यहां से ग्यारवीं-बारहवीं की. असल में परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत बुरी थी. कर्जा हो जाता था और घर बिक जाता था. फिर हम दूसरी जगह चले जाते थे. हर बार प्लॉट का साइज छोटा होता जाता था. मेरी सारी एजूकेशन सरकारी स्कूल की है. एक साल पोलिटिकल साइंस आनर्स हिंदू कॉलेज से किया. फिर इंजीनियरिंग कॉलेज से बीई (इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग) किया. वहां मैं यूनियन का जनरल सेक्रेट्री था. बाबासाहेब द्वारा शुरू की गई नेशनल ओवरसीज स्कॉलरशिप लेकर एम.टेक (मैन्युफेक्चरिंग मैनेजमेंट) किया, यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ आस्ट्रेलिया से.
सामाजिक जीवन में कब आएं, क्या वजह रही, तब क्या कर रहे थे?
– 1977 में मैं सामाजिक जीवन में आया. तब मैं दसवीं में पढ़ता था. मेरे जो बड़े भाई थे मनोहर लाल वही सामाजिक जीवन में लेकर आएं. वह लेफ्ट से जुड़े लोगों के संपर्क में थे. उनके साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करते थे. एम के रैना के साथ काम करते थे. दिल्ली में आईएनए में जो दिल्ली हॉट है, जया जेटली के साथ उसके संस्थापकों में से एक थे. तो भाई हमें अपने साथ कार्यक्रमों में लेकर जाते थे, तो हमलोग भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे.
आपने कहां-कहां नौकरी की?
– मैने 1946 में बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग किया. उसके बाद मैने एक जगह आठ महीने तक नौकरी की. फिर मैने इंजीनियरिंग कॉलेज में लेक्चररशिप की. फिर मैने गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया में सरकारी नौकरी बतौर असिस्टेंट एक्जीक्यूटिव इंजीनियर ज्वॉइन कर लिया. वहां मैने देखा कि जो विदेशों के ट्रिप जाते थे, उसमें दलितों को दरकिनार रखा जाता था. मैने तय किया कि यहां नहीं रहेंगे. फिर मेरा इंजीनियरिंग सर्विस में सेलेक्शन हो गया. मुझे ऐसी नौकरी चाहिए थी जहां रहकर मैं अपने मुद्दों के लिए काम कर सकूं. वहां से रिजाइन देकर फिर यहां आ गया.
आपकी शादी कब हुई, किससे.
मेरी पत्नी का नाम अनिता गुजराती है. वो ब्राह्मण परिवार से हैं. अब साथ मिलकर संगठन में काम करती हैं. फरवरी 94 में हमने कोर्ट में शादी की. वो सामाजिक आंदोलनों में एक्टिव थीं. मेरे बहनोई (वरिष्ठ लेखिका अनिता भारती के पति राजीव सिंह) के घर पर हमारी पहली मुलाकात हुई थी. उन्होंने कहा कि अगर आप इंट्रेस्टेड हैं तो बताएं, बात की जाए. लेकिन उनके घर वाले नहीं माने. शुरू में परिवार में जो तनाव रहते हैं वो तो हुए ही, लेकिन फिर बाद में सब ठीक-ठाक हो गया. ब्राह्मण लोग थोड़े से झुक जाते हैं. वो समझ जाते हैं कि तार को ज्यादा खिंचोगे तो टूट जाएगा. इस क्लॉस की यह खासियत है कि यह तार को टूटने नहीं देते हैं. तभी तो वो रुलिंग क्लास हैं.
भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
– भविष्य की योजना नैक्डोर को लेकर ही है. मेरी कोशिश है कि नैक्डोर कैसे एक मजबूत इंस्टीट्यूट के तौर पर खड़ा हो जाए. और इसका कोई रिसर्च इंस्टीट्यूट बन जाए. नौजवानों का संगठन बन जाए. अभी हमने बीफेयर जॉब.कॉम कर के एक वेबसाइट शुरू की है, जिसे हम प्राइवेट सेक्टर में इंगेज करेंगे. कुछ और आइडिया भी दिमाग में है. उसको लेकर काम कर रहे हैं. यानि हम एक ऐसा सांगठनिक और इंस्टीट्यूशनल ढ़ांचा बनाना चाहते हैं ताकि दलितों को दूसरों का मोहताज न रहना पड़े. वह अपने आप अपने पांव पर खड़ा हो सके. क्योंकि बाबासाहेब हमेशा कहते थे कि दलितों को अपनी ताकत पर भरोसा करना चाहिए. मुझे लगता है कि हमारी इतनी बड़ी आबादी है, हमलोग बहुत अच्छे तरीके से अपने समाज का उत्थान कर सकते हैं. लेकिन इन सब के लिए हर क्षेत्र में नई लिडरशिप चाहिए. हमारे आंदोलनों की कमी यह है कि ये टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे है. इसे समेकित रूप में चलाने की जरूरत है.
अवार्ड कौन-कौन से मिले हैं?
– जब मैं दसवीं में था तो पहली बार ‘माओ के बाद का चीन’ विषय पर क्रिएटिव राइटिंग का द्वितीय अवार्ड मिला था. पिछले दिनों हरियाणा के लोगों ने मुझे दलित रत्न अवार्ड दिया. अभी हाल में ‘केर मिलेनियम’ अवार्ड मिला है. यह करीब सात लाख रुपये का होता है. यह तीसरा अवार्ड है जो उन्होंने दिया है. दूसरा अवार्ड उन्होंने लग्जमबर्ग के प्राइम मिनिस्टर को दिया था. उसके बाद मुझे दिया. मुझे बहुत खुशी हुई. इन सबसे बड़ी बात यह है कि जनता में जो पहचान है, वह सबसे बड़ा है.
खुद को कैसे याद रखा जाना चाहते हैं?
एक लड़ाकू, सामाजिक, प्रतिबद्ध दलित कार्यकर्ता के तौर पर.
अभी हाल ही में बिहार के मोतिहारी जिले में एक घटना घटी, जिसमें एक ब्राह्मण वकील ने एक दलित महिला जज को काफी कुछ कहा. महिला जज ने विरोध किया, शिकायत कर केस दर्ज कराया लेकिन इस मामले में वकील का कुछ नहीं हुआ. तो इससे एक यह बात भी पता चलती है कि आज के वक्त में भी दलित समाज के लोग चाहें कितनी भी ऊंचाई पर चले जाए, दिक्कतें बरकरार रहती हैं. अशोक भारती जब इन जगहों पर जाता है तो कैसे निपटता है.
– केवल एक ही रास्ता है, लड़ाई। थक कर बैठ जाना हल नहीं हो सकता. आत्महत्या कर लेना हल नहीं हो सकता. एक ही बात है कि लड़ाई हम कैसे करते हैं. लड़ाई ही हमारा अंतिम हथियार है और इस हथियार में हमारा बुद्धि कौशल, हमारी सामाजिक चेतना, हमारा सामाजिक संगठन, हमारी प्रतिबद्धता ये सब हमारे हथियार हैं. जैसा कि बाबसाहेब कहते थे कि लड़ाई हमारे लिए इंटरटेनिंग का जरिया भी है. तो दलित होने के नाते अगर हम लड़ाई को इन्जवाय करेंगे तो फिर हमें कोई हरा नहीं सकता. हमें खुशी होती है कि हम अपने समाज के लिए लड़ रहे हैं.
दलित समाज में ही एक और लड़ाई शुरू हो गई है. एक जो शब्द है ‘दलित’. इसको लेकर कई लोगों का मानना है कि यह गलत है इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए?
– देखिए जिन लोगों की दलित आंदोलन के प्रति समझ नहीं है वो तो विरोध करेंगे ही. वह ‘दलित’ शब्द को ब्राह्मणवादी और मनुवादी नजरिये से देखते हैं. इस नजरिए से ‘दलित’ शब्द को देखने वालों के लिए दलित का मतलब है- लुटा, पीटा, लाचार, बेकार. लेकिन ये दलित नहीं है. दलित का मतलब है वो व्यक्ति, जिसको समाज में असमानताओं का बोध है. असमानता पर आधारित उत्पीड़न और शोषण का बोध है. और वो व्यक्ति, उस असमानता, उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई के मैदान में टिका हुआ है. तो दलित कोई मजलूम या मजबूर इंसान नहीं है, दलित एक योद्धा है. अगर वो अपने आप को योद्धा नहीं मानतें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं, वो ना मानें. दलितों में कायरों की कमी थोड़े ही है. किसी भी समाज में कायरों की बहुत संख्या है.
आपने इतनी व्यस्तताओं के बावजूद हमें वक्त दिया, बात की, आपका धन्यवाद।
धन्यवाद अशोक जी…..।
इस इंटरव्यूह पर अशोक भारती तक अपनी प्रतिक्रिया पहुंचाने के लिए आप उन्हें 09810418008 पर फोन कर सकते हैं। दलितमत तक अपनी प्रतिक्रिया पहुंचाने के लिए आप संपादक अशोक दास को 09711666056 पर फोन कर सकते हैं।
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अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-अंबेडकरवादी पत्रकारिता के प्रमुख चेहरा हैं। जब हिन्दी पट्टी में अंबेडकरवादी मूल्यों की पत्रकारिता दम तोड़ने लगी थी, अशोक ने 2012 में मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ शुरू कर सामाजिक न्याय की पत्रकारिता को नई धार दी। उनके काम को देखते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने साल 2020 में उन्हें हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया। जहां उन्होंने Caste and Media विषय पर अपनी बात रखी। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास की पत्रकारिता को लेकर DW (Germany) सहित The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week और Hindustan Times आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
IIMC दिल्ली से 2006 में पत्रकारिता करने के बाद अशोक दास ने अपनी पत्रकारिता शुरू की। वह लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में रहे। 2010-2015 तक उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
‘दलित दस्तक’ एक मासिक पत्रिका के साथ वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल एवं प्रकाशन (दास पब्लिकेशन) है। उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
Ashok Das (Ashok Kumar) is a prominent face of Dalit-Ambedkarite journalism. When journalism based on Ambedkarite values was beginning to die down in the Hindi belt, Ashok gave a new edge to social justice journalism by starting ‘Dalit Dastak’ in 2012. Harvard University invited him as a speaker at the Harvard India Conference in the year 2020.Where he spoke on the topic of Caste and Media. India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of 50 Dalits, Remaking India in april 2021 issue. Features regarding Ashok Das’s journalism have been published in media organizations like DW (Germany), The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week and Hindustan Times etc.
Ashok Das started his journalism career after doing journalism from IIMC Delhi in 2006. He worked in prestigious media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4Media and Deshonnati. From 2010-2015 he covered various ministries and the Indian Parliament. He has been awarded the Prabhash Joshi Journalism Award. On January 31, 2020, on the completion of 100 years of the first paper ‘Mooknayak’ published by Dr. Ambedkar, Ashok Das and Dalit Dastak organized a grand event in Delhi where Dr. Ambedkar was remembered as a journalist. This gave a new edge to Ambedkarite journalism in India.
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