पूरी पृथ्वी को बांधते हैं किसान के पांव
हरियाली से
पहाड़िया चढ़ते हैं उतरते हैं घाटियां
एक एक कोना भर देते हैं मिट्टी का
अन्न से
बीजों को जगाते हैं नींद से
सबका पेट भरने के लिए
मगर सोए रह जाते हैं बीज
उनकी आंखों के
कि उनके सपनों को पोसने वाला कोई नहीं
कोई नहीं जो चलाए हल बंजर होती आंखों में
फसल उगाने के लिए
कि सूखे चटकते खेतों में
भटक रहे हैं किसान
पानी की जगह
सरकारी आंकड़े पी रहे हैं किसान
अपना सब बेच
बीज-खाद खरीद रहे हैं किसान
फसलों को
अपने आंसुओं से सींच रहे हैं किसान
आंकड़ों की काली स्याही में
तड़प रहे हैं किसान
इज्जत की खातिर
कुएं में कूद रहे हैं किसान
नीम की बाजुओं से लिपट
दम तोड़ रहे हैं किसान
अपने ही खेतों में दफ्न हो रहे हैं किसान
अपनी हड्डियों को खाद में बदल रहे हैं किसान
मगर अब संभल रहे हैं किसान
झूठे वादों की पोल खोल रहे हैं किसान
अब एकजुट हो रहे हैं किसान
आत्महत्याओं के बोझ को अपने सरों से उतार
अधिकारों के लिए बढ़ रहे हैं किसान
कि उनके कदमों को रोकना तुम्हारे बस का नहीं
खेत की मिट्टी में उगे हैं उनके पांव
कि सूरज ने अपने अलाव में पकाया है उन्हें
वे आ रहे हैं तुम्हारे शहर की तरफ
तारकोल से चिपकी सड़क पर चलते हुए
अपने बुझते चूल्हों का दर्द लिए
तुम्हारे कानों आंखों नाकों में भरे
तारकोल को निकालने के लिए
संजीव कौशल
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