बंगाल में फिर से दीदी

Written By- राजेश कुमार

 कोरोना की दूसरी खतरनाक लहर में संपन्न हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने बाजी मार ली है और 2011 के बाद से लगातार तीसरी बार प्रदेश में सत्ता पर काबिज होने में सफल हुई है। हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने 2019 लोकसभा चुनावों में भारी हार का सामना किया था, तब से (मई,2019 से लेकर मई,2021 तक) ममता और उनके चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर ने जबरदस्त मेहनत करते हुए मतदाताओं को भरोसा दिलाया कि ममता ही बंगाल के मुख्यमंत्री पद के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प है और इसी भरोसे के सहारे वो इस चुनाव में जबरदस्त वापसी करने में सफल हुए।

पश्चिम बंगाल में 1977 से 2011 तक लगातार 34 वर्षो तक लेफ्ट ने शासन किया, 2011 में जब तृणमूल कांग्रेस ने पहली बार विधानसभा चुनाव जीता और  सत्ता पर काबिज हुई तो इस जीत की भूमिका कई वर्षों पूर्व में बनना शुरू हुई थी। सर्वप्रथम वर्ष 2008 में पश्चिम बंगाल में संपन्न हुए पंचायत चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने जीत दर्ज की, उसके बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनावों में भी तृणमूल कांग्रेस ने लेफ्ट को भारी पराजय का सामना करवाया और अंततः 2011 विधानसभा चुनावों में लेफ्ट को सत्ता से बाहर कर दिया। बिल्कुल इसी पैटर्न पर भाजपा चल रही थी। वह 2008 व 2009  की तरह 2018 के पंचायत व 2019 के लोकसभा चुनावों में भारी जीत हासिल करने में कामयाब रही थी और इसी आधार पर कुछ राजनीतिक व चुनावी विश्लेषकों का मानना था कि बंगाल 2011 के इतिहास को दोहराएगा और भाजपा  तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर पाने में सफल हो पाएगी, परन्तु ममता बनर्जी की कड़ी मेहनत ने इसे होने नहीं दिया, भाजपा व अन्य चुनावी राजनीतिक विश्लेषकों को जिन्हें लगता था कि पंचायत और लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा विधानसभा चुनाव भी जीतने में सफल हो पाएगी, वो सब ग़लत साबित हुए हैं।

 ममता बनर्जी की जीत में उनके चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर की सबसे अहम भूमिका रही है, उन्होंने न केवल ममता दीदी को चुनाव जीतने में सहयोग किया है बल्कि चुनाव से  पांच महीने पहले कही बात कि भाजपा दो डिजिट पार नहीं करेगी, को भी सच साबित किया है। यहां प्रशांत के लिए दोहरी चुनौती थी, परन्तु वो इस चुनौती को भेद पाने में कामयाब रहे है। प्रशांत किशोर के अलावा भी कुछ महत्वपूर्ण बिंदु ऐसे है जिन्होंने ममता के चुनाव जीतने में अहम भूमिका निभाई है, उनका जिक्र इस प्रकार है –

मजबूत नेतृत्व और साफ छवि- ममता हमेशा से जुझारू व मजबूत नेता रही हैं, इस चुनाव में भी उन्होंने व्हील चेयर पर होने के बावजूद सक्रिय भूमिका निभाई और हर जगह संघर्ष करते हुए नजर आई। इसके आलावा उनकी साफ छवि ने भी मतदाताओं को उनकी तरफ आकर्षित किया है, क्योंकि ममता सरकार में भ्रष्टाचार के सारे आरोप उनके मंत्रियों या विधायको के सिर पर रहें है और ऐसे लगभग सभी खराब और नकारत्मक छवि वाले लोगों को या तो पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया या फिर वो खुद पार्टी छोड़ कर चले गए । उनके जाने के बाद तृणमूल कांग्रेस एक बार फिर साफ सुथरी हो गई और ममता की साफ छवि का आकर्षण मतदाताओं को अपनी तरफ खींच पाने में सफल हुआ। महिला नेतृत्व होने की वजह से महिलाओं के वोट को तृणमूल कांग्रेस अपनी तरफ कर पाने में सफल रही है, क्यूंकि दूसरी विरोधी पार्टी के पास महिला नेतृत्व का अभाव था।

सरकारी योजनाओं की आम जन तक पहुंच- लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद से लेकर पिछले दो वर्षो में ममता सरकार ने लगातार अनेक कार्यक्रम चलाए जिनसे सरकारी योजनाओं की आम जन तक पहुंच को सुनिश्चित किया जा सका, इनमें सबसे प्रमुख था, “ममता के बोलो”-  इसमें एक फोन नंबर दिया गया और कोई भी व्यक्ति अपनी बात सीधा ममता को बता सकता था और हर व्यक्ति की बात को ममता की टीम द्वारा सुना गया और आम जन की हर समस्या को दूर करने का पूर्ण प्रयास किया, इसका मतदाताओं पर बहुत साकारात्मक प्रभाव पड़ा ।

बाहरी व अंदरूनी का प्रभाव- ममता ने इसको मुद्दा बनाया और बंगाली लोगों को ये समझा पाने में कामयाब रही कि मैं आपकी आपनी हूं और भाजपा वाले बाहरी है, इसलिए आप अपनों के लिए मतदान करें ना की बाहरी के लिए। इस सिलसिले में ममता की पार्टी ने कई नारे जैसे बंगाल की बेटी, बंगाल का सम्मान, बंगाली बनाम गैर बंगाली आदि दिया, जिनका ममता बनर्जी को पूरा फायदा मिला है।

सोशल इंजीनियरिंग- तृणमूल कांग्रेस लोकसभा चुनावों में जिन क्षेत्रों में हारी थी, बात चाहे जंगल महल क्षेत्र की करें या कूचबिहार की, वहां पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मतदाता ज्यादा संख्या में हैं। इसलिए विधानसभा चुनावों में ममता ने इन जातियों का खास ख्याल रखा, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बंगाल में 68 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है परन्तु तृणमूल कांग्रेस ने 79 सीटों पर अनुसूचित जाति के लोगों को चुनाव लड़वाया, वहीं अनुसूचित जनजाति की 16 सीटें आरक्षित है परन्तु तृणमूल कांग्रेस की तरफ से 17 सीटों पर अनुसूचित जनजाति के लोग चुनाव लड़े।

 दूसरा उत्तरी बंगाल में (कूचबिहार, दार्जलिंग आदि क्षेत्र) एक महत्वपूर्ण अनुसूचित जाति है ‘राजवंशी’, उन्हें ये आश्वाशन दिया गया कि तृणमूल कांग्रेस की सरकार बनने पर उनके मुख्य देवता के जन्मदिन पर प्रदेश में सरकारी अवकाश घोषित किया जाएगा। उनकी भाषा को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया जाएगा, उनकी जाति के नाम से एक नई पुलिस फोर्स बनाई जाएगी। इन आश्वासनों ने भी इस समुदाय को जो की लोकसभा चुनावों में भाजपा के पक्ष में गया था को वापिस तृणमूल कांग्रेस की तरफ लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ममता ने अनुसूचित जातियों को फिर से विश्वास दिलवाया की वो ही उनकी सच्ची हितैषी हैं और अपने पक्ष में मतदान करवाने में सफल हो पाई।

तृणमूल कांग्रेस ध्रुवीकरण की राजनीति से दूर रही और पूरे चुनावों के दौरान उसने समग्र मतदाताओं पर ध्यान दिया, ममता ने हिन्दू – मुस्लिम, छोटे लोग – भद्र लोग, शहरी – ग्रामीण आदि कोई अंतर नहीं किया और सभी वर्गों पर पूरा ध्यान दिया जिसका फायदा ममता की पार्टी को मिला, क्यूंकि इस से हर समुदाय का कुछ ना कुछ वोट ममता के पक्ष में आया, वहीं दूसरी तरफ भाजपा ने मुस्लिम वोट, जो कि प्रदेश में 30 प्रतिशत के आसपास हैं को पार्टी से अलग थलग रखा, और केवल 70 प्रतिशत मतदाताओं के सहारे चुनाव लड़ रही थी वहीं दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस का ध्यान पूरे 100 प्रतिशत मतदाताओं पर था, और इसी का नतीजा है कि तृणमूल कांग्रेस लगातार तीसरी बार प्रदेश में सरकार बनाने में सफल हो पाई है।

भाजपा बनाम भाजपा का फायदा भी ममता को मिला है, क्यूंकि भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर गए लोगों को पार्टी में अहम स्थान दिए और उन्हे चुनाव भी लड़वाए। इससे भाजपा का पुराना मतदाता नाराज़ हुआ क्यूंकि उस क्षेत्र में उनकी लड़ाई उसी व्यक्ति से थी परन्तु अब वो व्यक्ति भाजपा का उम्मीदवार हो गया था, जैसे बहुत से स्थानों पर मतदाताओं ने साफ साफ बोला कि वो तृणमूल कांग्रेस के इसी नेता के खिलाफ थे उनकी लड़ाई इसी के खिलाफ थी परन्तु अब वो भाजपा में आ गया है तो हम कैसे उसे वोट दे, हमारी लड़ाई आज भी उसी के खिलाफ है, इस प्रकार ऐसे लोगों ने भाजपा से नाराज होकर ममता के पक्ष में मतदान किया है।

और भी अन्य कई कारण है जिनकी सहायता से ममता चुनाव जीतने में सफल हो पाईं है इनमें सबसे महत्वपूर्ण है उनका साधारण व्यक्तित्व और उनकी कड़ी मेहनत।


लेखक राजेश कुमार दिल्ली विवि के पूर्व छात्र हैं।

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