उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में 34 वर्षीय सुमित्रा देवी, जो की नौ माह की गर्भवती थी, को रोहित कुमार और उसकी मां मंजू देवी ने 15 अक्टूबर को डंडों और लात-घूंसों से पीट-पीट कर अधमरा कर दिया और अस्पताल में सुमित्रा को मृत घोषित कर दिया.
इस जघन्य अपराध की वजह भी जानने लायक है, वजह है सुमित्रा ने तथाकथित उच्च जाति के घर के कूड़ेदान को छू दिया था. सुमित्रा के हत्यारों के खिलाफ शिकायत दर्ज हो चुकी है और शायद सज़ा भी मिल जाएगी, पर दलितों को मनुष्य कब मानना शुरू करेगा ये मनुवादी समाज?
कब तक दलित समाज रोजी रोटी के लिए इन हत्यारों पर निर्भर रहेगा? और कब तक दलित समाज के पढ़े लिखे लोग अभिजात्यवाद के नशे में डूबकर ‘दलित ब्राह्मण’ बनते रहेंगे? दिक्कत दरअसल एक तरफ़ा नहीं है, ब्राह्मणवादी तो हैं ही शोषक पर अपने खुद के अच्छे ओहदों पर पहुंच चुके लोग भी नीचे देखना तक नहीं चाहते.
इसका एक दूसरा पक्ष यह भी है कि बहुजन की जो अवधारणा अभी पूरी तरह से बनी भी नहीं थी वह टूटने लगी है. हाल ही की कई घटनाओं को इस संदर्भ में उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है. सोशल मीडिया पर यादवों द्वारा दलितों को गालियां देना आम हो गया है. इसके अतिरिक्त खुद दलित जातियां भी आपस में विभाजित हैं, नाई, धोबी खुद को चमारों से ऊपर मानते हैं तो चमार भंगियों से अपने को ऊपर समझते हैं. जब आपस में ही इतनी ऊंच-नीच है तब तथाकथित उच्च वर्ग को क्या कहा जाए?
इन अत्याचारों के खिलाफ़ एकजुटता बहुत ज़रूरी है. पहले हमें अपनी मानसिकता को आवश्यक रूप से बदलना होगा, इसके साथ ही ‘दलित ब्राह्मणवाद’ की आभासी दुनिया से बाहर निकलना होगा और अंत में, बाबासाहेब के ‘पे बैक टू सोसाइटी’ को आपनाकर हमें न केवल दलित समाज को बल्कि सम्पूर्ण बहुजन समाज को सशक्त बनाना होगा. तभी समतामूलक समाज का निर्माण संभव है.
यह लेख पूजा रानी का है. लेखिका महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पी-एच.डी शोधार्थी हैं

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