दलित साहित्य एक काल-खण्ड है

dalitजब वस्तुपरिस्थियों का सही उद्घाटन न किया गया हो तो वे अपने अति के कारण अस्तित्व में आने को व्याकुल हो जाती हैं. इसे ही समय की अनिवार्यता कहा जाता है. भक्ति काल को किसी ने प्रायोजित नहीं किया था. रीतिकाल को किसी ने प्रायोजित नहीं किया था. वीरगाथा काल की वस्तुपरिस्थियां पहले उत्पन्न हुईं. छायावाद की अपनी परिस्थितियां थीं. शुक्ल युग, द्विवेदी युग, वर्तमान काल अनायास नहीं उत्पन्न हुआ. सबके कारण थे.

ठीक ऐसे ही दलित की अपनी वस्तुस्थितियां थी, किन्तु विद्वान सहित्यकारों ने दलितों (अतिशूद्रों) पर अपनी कलम नहीं चलाई, नहीं तो उनकी कलम गन्दी हो जाती. शूद्रों को कभी मनुष्य का दर्ज नहीं दिया. अधिकतर साहित्यकार ब्राह्मण थे, सवर्ण थे. भला वो दलितों को मनुष्य मानकर उनके दुःख के बारे में क्यों लिखते? उनके कल्याण के लिए ब्राह्मण वर्ग द्वारा तिरस्कार के खिलाफ क्यों लिखते? शूद्र जातियाँ सेवक जातियाँ थीं. आखिर, सेवक किसने बनाया था? आप कहेंगे ईश्वर वेदों में लिख गए हैं. आप कहेंगे शूद्र को प्रभु ब्रह्मा ने अपने पैरों से पैदा किया था. ब्राह्मण को मुख से पैदा हुए किए थे. इस पर भी पेट नहीं भरा तो गीता लिख डाली. फिर भी पेट नहीं भरा. लगा अभी भी नियंत्रण नहीं किया जा सकता है तो मनुस्मृति लिखकर पक्का कर दिया कि शूद्र और स्त्री को शिक्षा दिया ही नहीं जाना चाहिए.

यदि किसी भी तरह ज्ञान आँख-कान-जबान-दिमाग तक आ जाय तो उसी प्रकार का कठोरतम दण्ड का भी प्रावधान कर लिया. खाने के लिए साँवाँ-कोदो, ओढ़ने बिछाने को गंदे-मैले-कुचैले-झिलगहीं कथरी उनके नशीब में ठोक दिया. खेत छीन लिया. अच्छे कपड़े जुट भी जाय तो पहनने नहीं दिया. खटिया पर बैठने नहीं दिया. अपने आने पर उठ जाने को संस्कार बना दिया. स्त्रियों को अपनी मिलकियत समझा. जब चाहा मचला-कुचला, जब चाहा तिरस्कार किया. खेत-खलिहान में वे तुम्हारी रखैल थीं. सेक्स का खुल्लम-खुल्ला खेल खेला. हरवाहिन पर तो आप का पूर्ण अधिकार था. जब चाहते जैसे चाहते इंज्वॉय करते. जो वर्ण संकर पैदा हुए क्या उन्हें अपने पुत्र-पुत्री का अधिकार दिया. नहीं न?

फिर तो बड़ी ज्यादती की आपने. देश आज़ाद हुआ. संविधान बना. आरक्षण मिला. दलित पढ़े-लिखे-समझे. वेद-पुराण-श्रुतियाँ-स्मृतियाँ-गीता-मनुस्मृति पढ़े-समझे. अपनी कहानियां लिखनी शुरू की. कविताएँ लिखी. आत्मकथा लिखी.  आप ने सवाल उठाया कि इसमें शुद्धता नहीं है, कला नहीं है. दलितों ने कहा यह हमारी स्वानुभूति है. यह हमारा भोगा हुआ यथार्थ है. तुम्हारे मानने न मानने से हमारा सच तो नहीं बदल जाता है. जो सत्य है हम अपनी टूटी-फूटी भाषा में लिखेंगे, हमारे लोग पढ़ेंगे, जग पढ़ेगा. तुम्हारा पढ़ना जरूरी नहीं. तुम्हारे मूल्यांकन से हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. जब तुमने ज्यादे दबाव बनाया तब हमने “दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र” लिखा, जिसमें हमने अपने गलीज जिंदगी का सौंदर्य लिखा. तुम्हारी गिरी हरकतों को साहित्य में दर्ज किया.

एक काल-खण्ड को दर्ज़ किया. जैसे तुमने अन्य कालखंडों को मान्यता प्रदान की थी, ठीक वैसे ही दलित साहित्य को समाज ने मान्यता प्रदान कर दी है. बहुत विमर्श हो चुके हैं. अब आप के कहने से यह कालखंड आप की धारा के साहित्य से अलग अस्तित्व ग्रहण करते हुए मुख्य धारा के साहित्य से जुड़ गया है. आप के कहने से कुछ भी होने वाला नहीं है. आप को इस विमर्श में उतरना ही पड़ेगा, तभी आप को अपनी गलतियों से छुटकारा मिलेगा. दलित साहित्य मानव हित का साहित्य है. यह मानव को केंद्र में रखता है. जाति-उन्मूलन करके समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व को स्थापित करना दलित साहित्य का मूल उद्देश्य है.

भूमंडलीकरण के दौर में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध दलित साहित्य हर उन क्रांतिकारियों के साथ है जो पूर्ण ईमानदारी से पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंककर शोषण-विहीन व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं. दलित साहित्य आज ब्रह्मनवाद, सामंतवाद, पूँजीवाद, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, जातिवाद, धर्मवाद और फासीवाद से लड़ता हुआ अपने को विश्व साहित्य के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है और हर उस व्यक्ति, समाज, व्यवस्था का विरोध करता है जो मनुष्य का किसी भी स्तर पर शोषण, अन्याय, छूत-अछूत, ऊँच-नीच का भेद-भाव करते हैं.

मैं कहता हूँ  कि संगठन (बीएसपी) में ब्राह्मण को लिया होता तो कोई बात नहीं, ब्राह्मण के नाम पर गुंडों, माफियाओं और बाहुबलियों को लिया गया है. मेरा इस तरह कहना,  ब्राह्मण के प्रति दुर्व्यवहार नहीं है. मैंने तो यह भी लिखा है कि अपने को (दलितों के नए संगठनों को) बाड़ में मत रखना अर्थात जाति के घेरे में मत रखना. फिर लिखा कि अपना मूल्यांकन करो, अपनी आलोचना भी करो जिससे समता-स्वतंत्रता और बंधुत्व स्थापित हो. हाँ जातिवाद का खुल्लमखुल्ला विरोध है चाहे दलित जातिवाद करे चाहे ब्राह्मण.

मैं ब्राह्मणवाद और जातिवाद का विरोधी हूँ. किसी जाति के व्यक्ति का नहीं. ब्राह्मण और सवर्ण कहने से उसकी जाति की बात करता हूँ उसके व्यक्ति होने पर कोई प्रहार नहीं है. प्रहार है तो जाति के अहम् पर है.

मैं अलगाववाद की बात नहीं करा रहा हूँ. मैं एकलता की बात करता हूँ जिस एकता को ब्राह्मणवाद और जातिवाद ने तोड़ रखा है. जातिवाद की वजह से जो समाज में विभिन्नता है, अलगाववाद है, वैमनष्य है, उसे आप क्यों नहीं देखना चाहते? उसकी रक्षा में आप का मस्तिष्क क्यों सक्रिय हो जाता है?

क्या आप नहीं चाहते कि पूँजीवाद के साथ ब्राह्मणवाद भी ख़त्म हो. ब्राह्मणवाद से मेरा अभिप्राय ऊँच-नीच, छुआ-छूत, गैर-बराबरी की भावना से है. क्या आप नहीं चाहते कि न ब्राहण हों, न ठाकुर हो, न वैश्य हो और न शूद्र-चमार हों. सभी मनुष्य हों. सब का एक मूल्य हो. मैं ऐसा ही समाज चाहता हूँ, जहाँ समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व हो, जहां मनुष्य के द्वारा मनुष्य का किसी भी तरह किसी भी स्तर पर शोषण न हो. यदि यह बुरा है तो मैं बुराई के पक्ष में हूँ.

कौन समानता की बात कर रहा है और कैसे? क्या बिना जातियों को ख़त्म किए बिना समानता लाई जा सकती है. छोड़ने से आप का काम चल सकता है क्योंकि आप सवर्ण हो सकते हैं. आप की समाज में मुफ़्त की इज्जत, पैलगी, बाबू साहब नमस्ते, जय राम बाबू साहब करने वाले अनेक लोग होंगे लेकिन दलितों के पास आज भी पढ़े-लिखे-नौकरीयाफ्ता होने के बाद भी बहुसंख्यक सवर्ण इज्जत देने वाला नहीं है. गाँव छोड़िए, शहर में प्रगतिशील ब्राह्मण-क्षत्रियों के घनिष्ट मित्रों को छोड़ अगल-बगल वाले घृणा करते हैं. आज तक पड़ोसियों ने न चाय पी है न चाय पिलाई है. यहाँ तक कि मोहल्ले में कई सवर्ण हैं जिन्होंने दलित होने के नाते पिछले बीस वर्षों में भी निमंत्रण नहीं दिया, जबकि सवर्ण समाज विकसित हुआ है. सभी सवर्ण ऐसे नहीं हैं. लेकिन जातियों की जो बहुसंखयक मानसिकता है वह दलित होने के नाते घृणा करते हैं.

आरक्षण का विरोध करते है, प्रतिभा का सवाल उठाते रहते हैं. नौकरियों और प्रमोशनों में भेदभाव करते हैं. दलितों से कार्यालयों में अधिक काम लिया जाता है. अनेक सवाल है जिनसे लड़ना पड़ेगा. आप नहीं लड़ोगे तो दलित तो लड़ेगा ही, क्योकि वह भुक्तभोगी है. वह यथार्थ को भोग रहा है. भंगियों की सामाजिक स्थिति ब्राह्मणवाद के चलते सुधर नहीं रही है. वह भंगी का भंगी रह गया है. आज वैज्ञानिक युग में भी वह टट्टी साफ कर रहा है.

यह ईर्ष्या नहीं है. आप हमारे अच्छे मित्र हैं. समझदार हैं. आप को जातिप्रथा उन्मूलन में हमारा साथ देना पड़ेगा. हम एक निर्मल समाज का निर्माण करना चाहते हैं. कृपया हमारा तहेफिल से साथ दें.

साथी, इसी को कहते हैं पूर्वाग्रह. मिलजुलकर जातिप्रथा को तोड़ने के लिए आप तैयार नहीं हो पा रहे हैं. आप ब्राह्मणवाद को तोड़ना नहीं चाहते, यही है सवर्णवाद, यही है जातिवाद, यही है वर्चस्ववाद. सोचो जरा, बिना जाति का समाज कितना सुन्दर लगेगा.

जब सवर्ण साहित्यकार बागों में बहार है, फूलों पर निखार है-लिख रहा था, प्रकृति का गुणगान कर रहा था, राजाओं-महाराजाओं का स्वागत गान रच रहा था, खुशहाली और सुखहाली के गीत, कविता, कहानी, नाटक और ललित निबंध लिख रहा था उसी समय शूद्र तालाब का पानी नहीं पी सकता था, चारपाई पर नहीं बैठ सकता था, सर उठाकर नहीं चल सकता था, खेत नहीं, खलिहान नहीं, बैल नहीं, मकान नहीं, दुकान नहीं, तन पर कपड़ा नहीं, बेगारी करता था, खेत मजदूर भी नहीं बंधुआ मजदूर था, स्त्रियाँ नया कपड़ा नहीं पहन सकती थीं, सुन्दर कपड़ा नहीं पहन सकती थीं, स्तन खुला रखना पड़ता था, किसी पंडित जी या बाबू साहब की हरवाहिन होती थी, बलात्कार उनका हक़ था, देह समर्पण स्त्री की सेवा थी-मजबूरी थी, शिक्षा का अधिकार नहीं था.

बहुत ऐसी न जाने कितनी शूद्रों की हालात थी जिसको इन चाटुकार-भाँट-अन्यायी-दुराचारी साहित्यकारों को दिखाई ही नहीं पड़ता था. क्या सारे के सारे साहित्यकार अंधे थे? किसी साहित्यकार ने क्या इन हालातों पर कलम चलाई? ये सारे सत्य साहित्य के किन पन्नों पर अंकित हैं? रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्याम सुन्दर दास, प्रताप नारायण मिश्र, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, दिनकर, नीरज, माखनलाल चतुर्वेदी इत्यादि नामवर साहित्यकार क्या ब्राह्मणवाद के पोषक नहीं थे? क्या इनकी बुद्धि को लकवा मार गया था?

क्या इस साहित्य को समाज का दर्पण कहा जा सकता है? आज भी साहित्य को समाज का दर्पण कह कर साहित्य की शुरुआत करने वाले क्या वाकिफ़ हो पाए कि सत्य क्या है? इसी आक्रोश में शूद्रों के पढ़े-लिखे वर्ग ने अपने लिखे को दलित साहित्य कहा, और इसे ही भोगा हुआ यथार्थ कहा, इसे ही स्वानुभूति का साहित्य कहा. सहानभूति के साहित्य को दलित ने इंकार तो नहीं किया किन्तु उसे दलित साहित्य से जुड़ने का कड़ा विरोध किया. परानुभूति और सहानुभूति लिखकर सवर्ण दलितों के साहित्य के ऊपर तो लिख सकता है किन्तु दलित साहित्य दलित भोक्ता ही लिखेगा.

निराला और प्रेमचंद ने जहमत उठाई तो हम उन्हें उतनी इज्जत देने के लिए सहर्ष तैयार भी हैं. राहुल सांकृत्यायन एक ऐसे ब्राह्मण जाति से साहित्यकार हुए जिसने सत्य लिखा ही नहीं, समाज बदलने के तरीके भी बताए. उनको नमन.

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