हम बड़े अजीब लोग हैं
हम अधुनातन और पुरातन एक साथ हैं!
हम नयी टेक्नोलॉजी के टीवी को
घर में लाने में
परहेज कभी नहीं करते
लेकिन नयी सोच को
घर में आने से
हमेशा रोकते रहते हैं
विज्ञान के हर नये अविष्कार को
अपनाने की
हमें बड़ी तत्परता रहती है
लेकिन अवैज्ञानिक रिवाजों
हम फिर...
पूरी पृथ्वी को बांधते हैं किसान के पांव
हरियाली से
पहाड़िया चढ़ते हैं उतरते हैं घाटियां
एक एक कोना भर देते हैं मिट्टी का
अन्न से
बीजों को जगाते हैं नींद से
सबका पेट भरने के लिए
मगर सोए रह जाते हैं बीज
उनकी आंखों के
कि उनके सपनों को पोसने वाला कोई...
ये तोड़-फोड़ की राजनीति
ये नफरत की राजनीति
तुम पर शोभा नहीं देती
तुमने तो ठप्पा लगाया है-
राष्ट्रवाद का
फिर ये घिनौने, घटिया, ओछे काम क्यों?
माना तुम सत्ता में आ गये
हमेशा तो नहीं रहोगे
कल कोई और आएगा
फिर वो तोड़ेगा-फोड़ेगा
तुम्हारी बनाई मूर्तियां
या तुम्हारी पसंद की मूर्तियां
इस तरह तो
राष्ट्र का...
जिस जाति अथवा समाज का साहित्य नहीं होता, वह जाति मृत समान ही होती है. वैसे भी हमारे देश में पहले से ही दलितों का लिखा कोई साहित्य नहीं है. वर्ण-व्यवस्था के अनुसार भारत के दलितों को पढ़ने-लिखने का कोई अधिकार ही नहीं था....
आज से बमुश्किल दस साल पहले तक जब लड़कियां दस-बारह साल की हो जाती थी तो उन्हें एक लड़की के तौर पर देखा जाता था. उनके कपड़े और हावभाव को समाज बतौर लड़की देखने लगता था. लेकिन इन कुछ सालों में सब कुछ बदल...