आरक्षण को लेकर बहस के बीच इसका विरोधी पक्ष अक्सर गैर आरक्षित क्षेत्रों में दलितों-बहुजनों की गैरहाजिरी की ओर से आंखे मूंदे रहता है. मीडिया एक ऐसा ही क्षेत्र है, जहां 90 फीसदी से ज्यादा तथाकथित द्विज समुदाय यानि सवर्णों का कब्जा है. जब हम मीडिया में दलितों की भागेदारी की बात करते हैं तो इस पहलू पर हुए शोध बताते हैं कि यह आंकड़ा एक प्रतिशत भी नहीं है. हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा जारी एक सूची इस तथ्य की पुष्टी कर रही है.
असल में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा सितंबर में पत्रकार दीर्घा सलाहकार समिति का गठन किया गया है. इस सूची में 18 पत्रकारों के नाम शामिल हैं, लेकिन जब आप इस सूची में शामिल नामों पर ध्यान देंगे तो आपको मीडिया में फैले जातिवाद का भयावह चेहरा दिख जाएगा. नामों से स्पष्ट हो रहा है कि इस सूची में शामिल तकरीबन सभी सदस्य सवर्ण समाज के हैं. दलित-बहुजन समाज के किसी भी पत्रकार का नाम इस समिति में नहीं दिख रहा है. आश्चर्यजनक तो यह है कि इस सूची में एक भी मुस्लिम पत्रकार का नाम शामिल नहीं है, जबकि भोपाल शहर में मुस्लिम समाज की आबादी 26.28 प्रतिशत हैं. जबकि प्रदेश में दलित, आदिवासी और पिछड़ा समाज भी बड़ी संख्या में है.
इस सूची को मध्य प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष द्वारा वर्ष 2016-17 के लिए जारी किया गया है. हालांकि वहां के स्थानीय मीडिया में इस सूची को लेकर सुगबुगाहट भी तेज हो गई है. कई लोग इसको लेकर सवाल भी उठा रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार अनिल सरवईया ने ‘दलित दस्तक’ से बात करते हुए कहा कि ऐसी कमेटियों में जानबूझ कर एक खास वर्ग के लोगों को ही जगह दी जाती है. भोपाल में मुख्यधारा की मीडिया में आधे दर्जन से ज्यादा मुस्लिम पत्रकार हैं जो बड़े अखबारों में कार्यरत हैं और कई लोग ब्यूरो में भी सक्रिय हैं, जबकि दलित समाज के भी 5-6 पत्रकार हैं, लेकिन जब इस तरह की कमेटी बनती है तो दलित-मुस्लिम समाज के पत्रकारों को शामिल नहीं किया जाता. सवाल यह है कि गैर आरक्षित क्षेत्रों में दलितों-बहुजनों की अनदेखी की क्या वजह है?

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