एक किस्सा सुनाता हूं, जो पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह सुनाते थे। अपने राज में जब उन्होंने संसद के सेंट्रल हॉल में संविधान निर्माता डॉक्टर अंबेडकर की तस्वीर लगानी चाही तो विरोध शुरु हो गया। ये दलील दी गई कि दीवार पर जगह नहीं है। वीपी सिंह का जवाब था कि दिल में जगह बनाओ तो दीवार में भी जगह बन जाएगी। वीपी के दिल में अंबेडकर के लिए जगह थी तो उन्होंने दीवार में भी जगह बना दी और आजादी के 43 साल बाद संसद के सेंट्रल हॉल में अंबेडकर की तस्वीर लगी। उन्हें भारत रत्न भी तभी मिला।
आज जो लोग अंबेडकर के नाम की दुहाई दे रहे हैं, जिनकी जुबान पर अंबेडकर का नाम रहता है, क्या उनके दिल में भी अंबेडकर हैं? अगर होते तो ऊना में दलितों की खाल नहीं उधेड़ दी जाती। कोई रोहित वेमुला आत्महत्या करने को विवश नहीं होता और दलितों के आरक्षण पर ही सवाल नहीं उठाया जाता, जैसा हो रहा है।
आज अंबेडकर की दीक्षा भूमि हिंदुत्व का गौरव केंद्र बन गया है, जबकि ये हम सब हिंदुओं के लिए लज्जा की बात होनी चाहिए थी कि जिसने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी, जिसने देश का संविधान बनाया, जिसने आधुनिक भारत को एक सभ्य कायदे कानून की पवित्र पुस्तक दी, वो बाबा साहेब अंबेडकर जीवन के 65वें साल में, अपनी मृत्यु से 7 महीने पहले अगर अपमान, अवज्ञा और अनादर में हिन्दू धर्म छोड़ने को मजबूर हो तो हमें बार बार अपने अंदर झांकने की जरूरत है कि कमी कहां रह गई। वो कमी आज भी है, लेकिन हमारे भाषणवीर सिर्फ बोलते हैं, कुछ करने का इरादा नहीं दिखता। अंबेडकर राजनीति के शोरूम में सजा कर रख दिए गए हैं एक दलित नेता के रूप में।

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