आप कहां के रहने वाले, शिक्षा-दीक्षा कहां हुई?
यूपी में एक जिला है सीतापुर, वहीं का रहने वाला हूं. प्राइमरी शिक्षा यहीं सरकारी स्कूल में हुई. एमसएसी एग्रीकल्चर कालेज कानपुर से किया. फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी से एलएलबी किया और अभी इंडियन लॉ स्कूल, दिल्ली से एलएलएम कर रहा हूं. अभी भी स्टूडेंट हूं.
राजस्व सेवा में आने के इतने सालों के बाद भी पढ़ाई जारी रखने का जज्बा कैसे बना रहा?
ये बाबा साहब की प्रेरणा है. बाबा साहब कहा करते थे कि हमें अंतिम सांस तक विद्यार्थी बने रहना चाहिए. सीखने की लालसा कम नहीं होनी चाहिए. नौकरी करना तो जीवन यापनकरने का साधन है, लेकिन ज्ञान अर्जित करना तो आदमी के स्वभाव में है. शौक है, पढ़ाई में मन लगा रहता है.
भारतीय राजस्व में कब आएं, कहां-कहां रहें?
राजस्व सेवा में आने के पहले दो साल तक बैक में प्रोबेसनरी अधिकारी था. 84-86 तक. उसके बाद राजस्व सेवा में आया, नागपुर, बड़ोदा, अहमदाबाद, मुंबई आदि शहरों में रहा. दिल्ली में रेलवे मंत्रालय में डिप्टेशन पर रहा और अब वापस राजस्व सेवा में हूं.
‘धम्म‘’ कब अपनाया, उसको अपनाने की वजह क्या रही?
मेरे ऊपर बाबा साहब का बहुत असर रह और अभी भी है. मैं उनको अपना मोटिवेटर भी मानता हूं. आईकॉन तो वो पूरे समाज हैं. जब मैं बाबा साहब की जीवनी पढ़ रहा था तो उसमें जिक्र आता है कि उन्होंने बौद्ध धर्म को क्यों अंगीकार किया. तो इसमे यह आया कि बौद्ध धर्म पूर्णतः एक वैज्ञानिक धर्म है. इसमें कहीं भी अंधविश्वास की जगह नहीं है. भगवान बुद्ध ने वही सिखाया जो उन्होंने खुद अपने अनुभवों की कसौटी पर कसा. वही किया जो कहा, और वही कहा जो किया. भगवान बुद्ध को ‘ यथाकारी तथावादी- यथावादी तथाकारी’ कहा जाता है. तो जब मैंने भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के बारे में पढ़ना शुरू किया. तो सब विचार करने के बाद में बाबा साहब का जो तर्क पढ़ा कि बौद्ध धर्म पूर्णतः भारतीय है. यहीं पैदा हुआ, यहीं फला-फूला. यहीं से दुनिया में फैला. आज जब दुनिया भारत की ओर आदर से देखती है वो बौद्ध धर्म के कारण है. आज आधी दुनिया जो भारत को अपना गुरु मानती है, वह बौद्ध धर्म के कारण है. चाहे वो चीन हो, जापान हो, चाहे वियतनाम हो, कोरिया हो, भूटान हो, वहां के लोग भारत की ओर आदर की दृष्टि से देखते हैं तो भगवान बुद्ध के कारण. फिर मैंने तमाम धर्मों का अध्ययन भी किया तो मैने पाया कि बौद्ध धर्म है जो पूर्णतः वैज्ञानिक है. जो भी आदमी जीवन में सुख और शांति चाहता है उसे शील, समाधि और प्रज्ञा के मार्ग पर चलना पड़ेगा. ये सब सोच कर मैं बौद्ध धर्म की ओर झुका और वैसे यह कह लिजिए कि परिवार का भी एक प्रभाव था.
हालांकि मेरे मां-बाप खुद को बौद्ध नहीं कहते थे लेकिन उनके जीवन-यापन का जो तरीका था वो बौद्ध धर्म की शिक्षाओं के जैसा ही था. तो मुझे लगता है कि हमारे पूर्वज भी बौद्ध ही रहे होंगे. भगवान बुद्ध की शिक्षाएं जीवन जीने की कला सिखाती है और सच पूछा जाए तो भगवान बुद्ध ने कोई संप्रदाय तो खड़ा नहीं किया था. क्योंकि उनकी शिक्षाएं सबके लिए थी. इसलिए ही भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को सार्वजनीन कहा जाता है, सार्वजनिक कहा जाता है (सबके लिए) और सार्वकालिक कहा जाता है क्योंकि यह जितना भगवान बुद्ध के समय प्रासंगिक थी, उतनी ही आज है. उतना ही आगे भी रहेंगी. तो इन सब चीजों ने मुझे बहुत प्रभावित किया. इसको देखकर मुझे लगा कि यही वह मार्ग है, जिसपर चलकर जीवन को सुखमय और शांति से जिया जा सकता है.
बौद्ध धर्म के ऊपर आपकी चार किताबें आ चुकी हैं, इनको लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?
प्रेरणा तो यह रही कि सबसे पहले 1997 में मैं बिपस्सना के एक शिविर में गया, नागपुर में. उसमें अनुभव के स्तर पर बौद्ध धर्म को जानने का मौका मिला. मुझे यह इतना अच्छा लगा कि बाद में भी छुट्टी लेकर मैं चार बार इस शिविर में गया. फिर मेरे पूरे परिवार ने इसमें हिस्सा लिया और इससे पूरा परिवार धर्म के रास्ते पर आया. बिपस्सना से लौटने के बाद मैने उसके अनुभवों को ‘बिपस्ना फॉर हैप्पी लाइफ’ शीर्षक से टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा. इसे काफी सराहा गया. तमाम प्रतिक्रियाएं आईं. लोगों ने कहा आपको लिखना चाहिए. उसी वक्त जब मैं लोगों से मिलता था तो मैं महसूस करता था कि लोगों को भगवान बुद्ध के बारे में आस्था तो बहुत है लेकिन जो चीजें जीवन में उतारनी चाहिए उसके बारे में पता नहीं है. साथ ही कोई ऐसी किताब नहीं थी जो उनको सारी बातों को एक जगह मुहैया करा सके.
एक आम आदमी, जो अपने जीवन-यापन मे व्यस्त है और उसके पास इतना वक्त नहीं है कि वह ‘त्रिपिटिक’ पढ़ सके या फिर धर्म की गहराईयों में गोता लगा सके, उसे क्या दिया जाए कि वह अपने रोजमर्रा के काम को करते हुए बुद्ध की शिक्षाओं को अपने जीवन में उतार सके. मुझे कम शब्दों में और जनभाषा में एक पुस्तक का अभाव दिखा. यह सोचते हुए मैने एक संक्षिप्त रुप में भगवान बुद्ध के संक्षिप्त जीवन, उनकी दिनचर्या, आम बौद्ध उपासक के बारे में कि उसे क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए. वह कैसे अपना जीवन जिए और त्यौहार आदि को कैसे मनाएं तो इन सब चीजों को ध्यान में रखते हुए यह किताब लिखी. ‘भगवान बुद्धः धम्म सार व धम्म चर्या’ नाम से यह किताब 2002 में आई थी. यह इतनी चर्चित हुई कि फिर इसका अनुवाद गुजराती, तेलुगू, तमिल और मराठी में हुआ. अभी कुछ दोस्तों ने इसका पंजाबी अनुवाद किया है. यह छपने जा रहा है. उड़िया भाषा में अनुवाद हो रहा है. श्रीलंका से प्रस्ताव आया है कि वह अपने यहां भी इसका अनुवाद करना चाहते हैं. इसी के अंग्रेजी संस्करण की मांग नेपाल, जापान आदि कई जगहों पर है.
किताब लिखने के दौरान आप कहां-कहां गए. लेखन का यह क्रम कितने दिनों तक चला?
मैं ज्यादातर जगहों पर गया. बोधगया गया, श्रावस्ती गया, सारनाथ, कुशीनगर, अजंता-एलोरा, अमरावती आदि कई जगहों पर गया. लुम्बिनी नहीं जा पाया जहां भगवान बुद्ध की जन्मस्थली है. तो एक दोस्त को भेजा, जो फोटो लेकर आएं. जापान भी गया हूं. यूरोप, अमेरिका कई जगहों पर गया और जानकारियां लेता रहा. इस दौरान तमाम लोगों से मिलता रहा. खासकर बौद्ध भिक्खुओं से मिलना और उनसे परामर्श करना चलता रहा. मेरी प्राथमिकता कम शब्दों में और जनभाषा में अधिक से अधिक जानकारी देने की थी ताकि लोग इसे जीवन में उतार सके. इसमें तकरीबन ढ़ाई साल लगे.
इस्लाम और ईसाई धर्म ने बौद्ध धर्म को कितना नुकसान पहुंचाया. क्योंकि गुप्तकाल के दौरान बौद्ध धर्म यूनान, अफगानिस्तान और कई अरब देशों में फैल गया था लेकिन अब वो वहां नहीं है.?
ऐसा है कि ईसाई धर्म और इस्लाम तो बाद में आएं. सबसे बड़ा जो नुकसान हुआ वह तब हुआ. जब पुष्यमित्र सुंग ने सम्राट ब्रहद्रथ, (सम्राट अशोक के पोते) जो अंतिम बुद्धिस्ट राजाथे कि हत्या कर दी. इसके पीछे कहानी यह है कि पुष्यमित्र सुंग, सुंग वंश का था. वह भारतीय तो था नहीं. वह एक अच्छा सैनिक था. बौद्ध धर्म के दुश्मनों ने उसको इस बात के लिए तैयार किया कि अगर वो ब्रहद्रथ कि हत्या कर दे तो वह लोग उसे राजा बना देंगे. एक षड्यंत्र के तहत उसे सेनापति के पद तक पहुंचाया गया और एक दिन ब्रहद्रथ जब सलामी ले रहे थे तो उसने उनकी हत्या कर दी. वह राजा बन गया. फिर वैदिक धर्म के प्रचार के लिए उसने अश्वमेध यज्ञ किया. हालांकि इसमे ज्यादा लोग शरीक नहीं हुए. तब इनलोगों ने बौद्ध धर्म के आचार्यों और विद्वानों की चुन-चुन कर हत्या कर दी. अब जब बौद्ध धर्म को सिखाने वाले नहीं रहे तो यह कालांतर में फैलता कैसे? हालांकि कुछ लोग जान बचाकर भागने मेंकामयाब रहे और वो तिब्बत, जापान और चीन आदि जगहों पर चले गए. एक और चाल चली गई. जन मानस में भगवान बुद्ध इतना व्याप्त थे कि अगर उनके खिलाफ कुछ भी कहा जाता तो लोग विद्रोह कर देते. इससे निपटने के लिए एक चाल के तहत भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया गया. साथ ही उनके बारे में झूठा प्रचार किया गया कि वो लोगों को सही शिक्षा नहीं देते थे. यहां तक कहा गया कि कोई बौद्ध विद्वान रास्ते में दिख जाए तो सामने से हट जाना चाहिए. कभी भी बौद्ध विद्वान को अपने घर में नहीं बुलाना चाहिए. तो इस तरह की कई कहानियां गढ़ी गईं, भ्रांतियां फैलाई गई. जबकि वास्तव में बुद्ध बहुत व्याप्त थे. हर आदमी में बुद्ध के गुण मौजूद हैं और कोई भी बुद्ध बन सकता है.
यहां एक और विरोधाभाष दिखता है कि भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार तो घोषित कर दिया गया लेकिन आप देख लिजिए कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर अरुणाचल तक किसी भी मंदिर में बुद्ध की मूर्ति नहीं लगाई गई. अगर ईमानदारी से भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया होता तो हर मंदिर में उनकी मूर्ति होती. तो वास्तव मे यह बौद्ध धर्म को अपने में सोखने की चाल थी. दूसरा, ऐसे शास्त्रों की रचना की गई जो बुद्ध के विरोध में थे. इसमे यह लिखा गया कि मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक गुरु कृपा और भगवान की कृपा ना हो. इससे लोगों में यह बात फैलने लगी कि हमारा मोक्ष तब तक नहीं होगा जब तक कि कोई तथास्तु न कह दे. उनको यह सरल मार्ग लगा जिसमें उन्हें खुद कुछ नहीं करना होता था. जैसे बुद्ध कहते थे कि व्याभिचार, नशा, हिंसा आदि न करो, झूठ न बोलों. लेकिन नए ग्रंथों में लिखा गया कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. अगर भगवान कृपा कर देगा तो सब माफ हो जाएगा. ऐसी कहांनिया और ऐसी कविताएं लिखी गई कि जिसमें कहा गया कि किसी ने सारी जिंदगी पाप किया और भगवान की कृपा से वह तर गया. तो लोगों को यह लगने लगा कि यह सरल मार्ग है. दिन भर चाहे जो भी करो, शाम को भगवान का नाम ले लो तो सब माफ है. ऐसे में वो क्यों शील, समाधि और प्रज्ञा का मार्ग अपनाएं, जो लंबा भी है और जरा कठिन भी.
आपने कहा कि हर आदमी में ‘बुद्ध’ के अंकुर मौजूद हैं, तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि बुद्ध धर्म से ज्यादा एक थ्योरी है?
थ्योरी भी है और प्रैक्टिकल भी है. आप यह कह सकते हैं कि बुद्ध की जो शिक्षाएं हैं वो जीवन जीने की कला सिखाती है. वह कहते हैं कि एक सीधा सा रास्ता है. इस रास्ते पर जो भी चलेगा वह वहां पहुंचेगा, जहां मैं पहुंचा हूं. इसको ऐसे देखिए कि भगवान बुद्ध के पास उनके दर्शन करने हर रोज एक व्यक्ति आता था. भगवान बुद्ध ने उससे पूछा कि तुम रोज क्यों आते हो. व्यक्ति ने कहा कि भगवान आपके दर्शन करने से मुझे लाभ मिलता है. तो भगवान बुद्ध ने उससे कहा कि मेरे दर्शन करने से तुम्हे कोई लाभ नहीं होगा. तुम धम्म के रास्ते पर चलो क्योंकि जो धम्म को देखता है वह बुद्ध को देखता है. भगवान बुद्ध के जीवन की एक और घटना है. वह श्रावस्ती में रुके हुए थे. एक नवयुवक रोज वहां आता था. एक दिन वह जल्दी आ गया. उसने उनसे अकेले में बात करनी चाही. भगवान बुद्ध ने पूछा कि बोलो बेटा. उसने कहा कि भगवन मुझे कुछ शंकाएं हैं. मैं देखता हूं कि यहां जो लोग रोज आपका प्रवचन सुनने आते हैं वह तीन तरह के लोग हैं. एक तो आपके जैसे हैं जो पूर्ण तरीके से मुक्त हो गए हैं और उनके अंदर कोई विकार नहीं है. वो बुद्धत्व तक पहुंच गए हैं. दूसरे वो लोग हैं जो बुद्धत्व तक तो नहीं पहुंचे हैं लेकिन उनमें काफी गुण आ गए हैं. उनके अंदर का अध्यात्म झलकता है. लेकिन काफी लोग ऐसे भी हैं, जिनमें से मैं भी एक हूं, जो आपकी बातें तो सुनते हैं लेकिन उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता है. फिर उसने कहा कि भगवन आप तो महाकारुणिक हैं, तथागत हैं, आप सब पर एक साथ कृपा करके ‘तथास्तु’ कह कर सबको एक साथ क्यों नहीं तार देते हैं. भगवान बुद्ध मुस्कुराएं. उनकी एक अनूठी शैली थी कि प्रश्न पूछने वाली मनःस्थिति जानकर जवाब देने के पहले प्रतिप्रश्न करते थे. उन्होंने युवक से पूछा कि तुम कहां के रहने वाले हो. उसने उत्तर दिया कि श्रावस्ती का. बुद्ध ने कहा कि लेकिन तुम्हारी बातें और नैन-नक्श से तो तुम कहीं और के रहने वाले लगते हो. युवक ने कहा कि आप ठीक कह रहे हैं. वाकई में मैं मगध का रहने वाला हूं और यहां व्यापार करने के लिए बस गया हूं. भगवान बुद्ध- फिर तो श्रावस्ती से मगध जाने वाले तमाम लोग तुमसे रास्ता पूछा करते होंगे. तुम उन्हें बताते हो या नहीं बताते. युवक- बताता हूं भगवन. भगवान बुद्ध- तो क्या सभी मगध पहुंच जाते हैं? युवक ने कहा, भगवन मैने तो सिर्फ रास्ता बताया है. लेकिन जब तक वो जाएंगे नहीं, तब तक पहुंचेंगे कैसे. फिर भगवान बुद्ध ने कहा कि मैं तथागत हूं, इस बुद्धत्व के रास्ते पर चला हूं इसलिए जो लोग मेरे पास आते हैं मैं केवल उन्हें रास्ता बता सकता हूं कि यह बुद्धत्व तक पहुंचने का रास्ता है. इस पर चलोगे तो बुद्धत्व तक पहुंचेगें. तो ऐसे ही जो लोग इस रास्ते पर चले ही न, वह कैसे पहुंचेगा. तो आपने जो थ्योरी की बात करी तो वह भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जब तक आप थ्योरी जानेंगे नहीं, उसपर चलेंगे कैसे. जैसे भगवान बुद्ध ने कहा कि हिंसा मत करो. तो जब आप अपने भीतर उतरेंगे तो देख पाएंगे कि हिंसा तब तक नहीं हो सकती है जब तक आपका क्रोध नहीं जागे. ऐसे ही आप तब तक चोरी नहीं कर सकते जब तक आपके अंदर लालच न आएं.
भगवान बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध भिक्खुओं में मतभेद के कारण दो टुकड़े हो गए. क्या इससे भी धम्म के प्रचार-प्रसार पर कोई फर्क पड़ा क्या?
प्रचार-प्रसार में थोड़ा फर्क यह पड़ा कि भगवान बुद्ध यह कहते थे कि हर आदमी अपना स्वयं मालिक है और उसे स्वयं से ही निर्वाण प्राप्त करना होता हैं. जो लोग भगवान बुद्ध की असली शिक्षा को मानने वाले थे, उनको ‘थेरवादी’ कहा गया, इनको ‘हिनयानी’ भी कहते हैं लेकिन कुछ लोगों का मानना था कि ध्यान के साथ में पूजा-अर्चना भी जरूरी है तो जिन लोगों ने भगवान की मूर्ति लगाकर पूजा-अर्चना करना शुरू कर दिया उन्हें ‘महायान’ कहा गया. तिब्बत और चीन में महायान फैला. लेकिन मैं इसे क्षति इसलिए नहीं कहूंगा क्योंकि बाद में इसमें ‘तंत्रयान’ भी जुड़ गया, इसमें तंत्र-मंत्र जुड़ गए. लेकिन इस तीनों में जो फर्क है वह ऊपरी है. क्योंकि तीनो बुद्ध को अपना गुरु मानते हैं. तीनों शील,समाधि और प्रज्ञा को मानते हैं. तीनों चार आर्य सत्यों को मानते हैं. तीनों आर्य आसांगिक मार्ग को मानते हैं.
धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों में क्या ईसाई और बौद्ध धर्म को लेकर कोई ऊहा-पोह की स्थिति रहती है?
जो पढ़े लिखे हैं, उनमें कोई ऊहापोह नहीं है. क्योंकि बाबा साहेब ने ईसाई धर्म का अध्ययन किया. इस्लाम का अध्ययन किया, सिक्ख धर्म का भी अध्ययन किया. उन्होंने 1936 में घोषणा कर दी थी कि मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ तो यह मेरे बस की बात नहीं थी लेकिन मैं हिंदू धर्म में मरुंगा नहीं यह मेरे बस की बात है. मगर धर्म परिवर्तन किया 1956 में. तो 20 साल तक उन्होंने धर्मों के बारे में बहुत गहन अध्ययन किया और बाबा साहेब इस नतीजे पर पहुंचे कि बौद्ध धर्म भारत में ही जन्मा, भारत में ही पनपा और यहीं फैला तो अगर हम ईसाई बनेंगे तो हमारे सर येरुशलम की ओर झुकेंगे. अगर हम इस्लाम कबूल हैं तो हमारे सर मक्का-मदिना की ओर झुकेंगे जबकि अगर हम बौद्ध धर्म में जाएंगे तो वह पूरी तरीके से भारतीय है और भारतीय संस्कृति में ही पैदा हुआ है और जो हमारे पूर्वज हैं वो बौद्ध थे. एक समय सम्राट अशोक के शासनकाल में तो पूरा भारत ही बौद्ध था. तो बाबा साहेब यह मानते थे कि बौद्ध धर्म अपनाने का मतलब है कि हम अपने पुराने धर्म में ही वापस जा रहे हैं, किसी नए धर्म में नहीं जा रहे हैं. तो जो भी डा. अंबेडकर के अनुयायी हैं उनकी पहली पसंद बौद्ध धर्म ही होगी.
लेकिन जैसा आपने कहा कि सम्राट अशोक के समय में पूरा भारत बौद्ध था (आनंद जी मुझे टोकते हैं, पूरा तो नहीं लेकिन ज्यादातर हिस्सा) लेकिन सवाल उठता है कि फिर बौद्ध धर्म अचानक इतना सिमट क्यों गया और हिंदुज्म इतना हावी कैसे हो गया. इसको कैसे साबित करेंगे. क्योंकि यह सवाल तमाम जगहों पर उठते हैं?
ये सवाल उठते तो हैं लेकिन आप देखिए कि ब्रहद्रथ के वक्त में कत्लेआम हुआ. बौद्ध भिक्खुओं को चुन-चुन कर मारा गया. फिर बाद में कई ऐसे ग्रंथ लिखे गए जिसमें भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार कहा गया. कई ऐसे गंथ्रों की रचना की गई जो सीधे बौद्ध धर्म के खिलाफ जाते थे. ऐसे में जब बौद्ध धर्म के प्रचारक नहीं रहे तो कालांतर में भौतिक स्तर पर वह धीरे-धीरे कम हुआ लेकिन बौद्ध धर्म की जो स्पिरिट थी, वह कभी भी भारत से लुप्त नहीं हुई. तो बुद्ध के जो तत्व थे, वैदिक धर्म ने उसे कई रूपों में अपने अंदर सोख लिया. जैसे यज्ञों के दौरान हिंसा बंद हो गई. दूसरा कारण यह रहा कि जो बौद्ध धर्म के प्रचारक होते थे वो एक विशेष पोशाक में रहते थे. जब मुस्लिम शासकों के हमले हुए तो उन्हें गुमराह किया गया कि बौद्ध प्रचारक सेना के लोग हैं. अलाउद्दीन खिलजी और बख्तियार खिलजी के वक्त में उनको चुन-चुन कर मारा गया. नालंदा विश्वविद्यालय को आग लगा दी गई. बौद्ध मानकों को लेकर भ्रांतिया फैलाई गई जैसे कहा गया कि पीपल के पेड़ के पास भी मत जाओ क्योंकि उस पर राक्षस रहता है. जबकि सत्य यह है कि यह बोद्धिवृक्ष है. उसका मान इसलिए है कि क्योंकि बुद्ध ने उसके नीचे ज्ञान पाया था.
बौद्ध धर्म दलितों के धर्म के रूप में प्रचलित होता जा रहा है, यह स्थिति कितनी विचित्र है?
यह स्थिति सही नहीं है. मैं तो कहूंगा कि जो भगवान बुद्ध के विरोधी हैं वो ऐसी कहानियां गढ़ रहे हैं. क्योंकि देखिए भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारनाथ में जाकर जिन पांच लोगों को दीक्षा दी उनमें कोई दलित नहीं था. पांच में से तीन ब्राह्मण थे. उसके बाद भगवान बुद्ध ने यश और उसके जिन 54 साथियों को दीक्षा दिया वह सभी व्यपारी थें. उरुवेला काश्यप और उसके 500 शिष्य, गया काश्यप और उसके 300 शिष्य औऱ नदी काश्यप और उसके 200 शिष्य और फिर ऐसे ही अनेक शिष्यों को दीक्षा दिया वो सब वैदिक धर्म को मानने वाले थे. राजा बिंबसार क्षत्रिय था. उसके बाद शाक्यों को दिया था. सम्राट अशोक जिसने बौद्ध धर्म को अपने समय में राजधर्म बनाया और श्रीलंका सहित कई देशों में फैलाया वह भी क्षत्रिय थे. अभी की बात करें तो महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन, जिन्होंने भगवान बुद्ध के बारे में इतना कुछ लिखा और खुद भिक्षु बने, वो ब्राह्मण थे. डीडी कौशांबी ब्राह्मण थे. अभी बिपस्सना के माध्यम से भगवान बुद्ध की शिक्षाएं पूरी दुनिया में फैला रहे हैं परमपूज्य सत्यनारायण गोयनका जी, वो दलित तो नहीं है. फिर जी टीवी के जो मालिक हैं सुभाष चंद्रा वो भी बिपस्सना साधक हैं. वो दलित नहीं हैं. बाबा साहेब ने 1956 में इसे जिस तरह फैलाया या यह कह सकते हैं कि इसे पुनर्जीवन दिया और इसमे जान डाली. तो इसको आधार बनाकर कुछ वेस्टेड इंट्रेस्ट वाले कह रहे हैं कि यह दलितों का धर्म है लेकिन भगवान बुद्ध कि शिक्षा सार्वजनिन है, सार्वकालिक है, सबके लिए है. आप कभी बिपस्सना शिविर में जाकर देखिए उसमें अमेरिका, जापान सहित कई देशों के लोग आते हैं. उसमें क्रिश्चियन पादरी और मौलवी भी आते हैं, ब्राह्मण भी आते हैं. तो यह जो कहानियां फैलाई जाती है कि बौद्ध धर्म दलितों का धर्म है वह झूठी कहानियां हैं. यह जरूर है कि बाबा साहेब अंबेडकर का और ओशो का जो कंक्लूजन (conclusion) है वह यह है कि आज के जो भी दलित हैं वो पूर्व के बौद्ध हैं और इसलिए उन्हें बौद्ध धर्म में वापस जाना चाहिए. जापान में तो दलित नहीं है. श्रीलंका में थाईलैंड और वर्मा तीनों में जहां बौद्ध धर्म राजधर्म है, वहां भी दलित नहीं है. आज अमेरिका और यूरोप में जहां बौद्ध धर्म बहुत तेजी से फैलने वाला धर्म है, वहां तो दलित नहीं है तो यह सब गलत प्रचार है कि बौद्ध धर्म दलितों का धर्म है.
वर्तमान में भारत में बौद्ध धर्म के सामने किस तरह की चुनौतियां है?
बौद्ध धर्म की जो सबसे बड़ी चुनौती है, वह है भिक्खुओं की कमीं, उनका ना होना. दूसरी यह है कि कोई धर्म तभी फैलता है, जब उसके प्रचारक हों. आज बौद्ध धर्म के पास प्रचारकों की कमी है. गृहस्थों मे ऐसे प्रचारक बहुत कम हैं जिनको पूरी तरह संस्कार आते हों. बौद्धाचार्य भी संख्या में कम है. क्योंकि आम आदमी को जीवन में जन्मदिन, शादी-ब्याह जैसे कई संस्कार करने होते हैं तो संस्कार करवाने वाले लोग हमारे पास नहीं है. यह सबसे बड़ी चुनौती है कि हम कैसे बौद्धाचार्य या फिर ऐसे लोग तैयार करें जो विनय, शील और संपदा में कायदे से दीक्षित हों और उनको सारे संस्कार आते हों. दूसरी चुनौती यह है कि लोग बौद्ध धर्म में आ तो गए हैं लेकिन पुराने रीति-रिवाज को छोड़ नहीं पाएं है. इससे अधकचरे वाली स्थिति है कि इधर भी हैं औऱ उधर भी. तीसरी चुनौती यह है कि बौद्ध धर्म और भगवान बुद्ध के उपदेशों का तब तक फायदा नहीं होगा, जब तक आप उसे जीवन में ना उतारें.
बौद्ध धर्म अपना लेने के बाद भी यह देखने में आता है कि लोग उपजाति जैसी बातों को छोड़ नहीं पाएं हैं. शादी-ब्याह के मामलों में यह दिखता भी है. तब लोग अपनी उपजाति (जो पूर्व धर्म में थी) का ही वर ढूढ़ते हैं?
वो गलत है. ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि यह बौद्ध धर्म के बुनियादी दीक्षा के ही खिलाफ है. जब आप बौद्ध बन गए तो जाति या उपजाति का मतलब ही नहीं बचता, आप सिर्फ बौद्ध हैं. ऐसा शायद लोग इस वजह से करते हैं कि शिड्यूल क़ॉस्ट से धर्म परिवर्तन करने वालों को आरक्षण का लाभ मिलता रहता है. सच यह भी है कि ईसाई धर्म में जाति का कोई चलन नहीं है, इस्लाम में जाति नहीं है. विदेशो में ऐसा ही है लेकिन भारत में इन धर्मों में भी जाति है. तो इस बारे में भारत में एक विशेष स्थिति है कि समाज में जाति इतने गहरे तक पैठी है. एक संत ने भारत के बारे में कहा भी है कि ‘पात-पात में जात है, डाल-डाल में जात.’ कहावत है जात न पूछो साधु की, लेकिन यहां तो साधु-संतों की भी जाति पूछी जाती है. लेकिन यह गलत है. मैं लोगों से अपील करूंगा कि एक बार जब आप बौद्ध धर्म में आ गए हैं तो जाति के रोग को वहीं छोड़ दीजिए जहां से आएं हैं.
ग्रेटर नोएडा में स्थित गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में ‘बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन’ नाम से एक पाठ्यक्रम की शुरुआत की गई है. बौद्ध धर्म के दर्शन को समझने के लिए यह कितना मददगार होगा?
मुझे लगता है बहुत मददगार होगा. क्योंकि भारतीय संविधान का जो आर्टिकल 51 (सी) है उसके मुताबिक सभी की एक फंडामेंटल ड्यूटी बनती है कि Development a scientific temper के लिए काम करें. और भगवान बुद्ध की सारी शिक्षाएं ही वैज्ञानिक हैं. तो उस सेंटर ये यह होगा कि वहां पर एक फोकस्ड (focused) रिसर्च होगी कि पूर्व में क्या-क्या कारण रहे जिससे बौद्ध धर्म का इतना नुकसान हुआ. जो इतना साहित्य था जैसे सम्राट अशोक के समय में 84 हजार बौद्ध स्तूप थे, तो 84 हजार बौद्ध स्तूप कैसे नष्ट हुए. यह किसने नष्ट किया. जो पूरा त्रिपिटिक था वह कैसे जला, भगवान बुद्ध ने जो बात बार-बार कहा कि यह मेरा अंतिम जन्म है और मेरा कोई पुनर्जन्म नहीं होगा तो फिर किस तरह भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित किया गया. कैसे तमाम ग्रंथों में उनके बारे में अनाप-शनाप लिखा गया. भ्रांतियां फैलाई गई. तो यह सेंटर होने से तमाम बातें सामनें आएंगी ऐसा मेरा मानना है.
इस पाठ्यक्रम के बारे में आप क्या सुझाव देंगे?
देखिए, जब सुझाव मांगा जाएगा तो मैं देखूंगा कि कैसे क्या करना है लेकिन अभी कुछ कहना ठीक नहीं होगा. खासकर मीडिया के माध्यम से कुछ भी कहना उचित नहीं है.
आपके भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
अभी तो मैं डा. अंबेडकर पर एक किताब लिख रहा हूं. साथ में तमाम समाचार पत्रों में कोई न कोई आर्टिकल लिखते ही रहता हूं. ऑल इंडिया रेडियो में बीच-बीच में जाकर बोलता रहता हूं. तो नौकरी में पूरा वक्त देते हुए शनिवार और रविवार को जो छुट्टियां होती हैं, उनमें जो भी वक्त बचता है. उसमें सामाजिक विषयों के बारे में लिखता रहता हूं. मैं बाबा साहेब पर जो किताब लिख रहा हूं उसका विषय यह है कि आज के वक्त में बाबा साहेब की क्या प्रासंगिकता है और उनके जीवन-दर्शन को अपने अंदर उतारकर लोग कैसे आगे बढ़ सकते हैं. आज भी गांवों और पिछड़े इलाकों में लोगों को बाबा साहेब के जीवन के बारे में बहुत कम मालूम है. जैसे बाबा साहब क्या सोचते थे, उनका सपना क्या था, उनका जीवन-दर्शन क्या था, औरों से क्या अपेक्षा करते थे, इसके बारे में लोगों को कम जानकारी है. इसी के बारे में लिख रहा हूं.
दलित संतों को लेकर तमाम तरह कि किवदंतियां गढ़ी गई हैं, जिनमें उन्हें आखिरकार ब्राह्मण साबित करने की कोशिश की गई है. तो मुख्य धारा में उनका जो इतिहास बताया जाता है, वह कितना सच है?
संत रविदास के बारे में ओशो रजनीश की एक किताब भी है और एक कैसेट भी है जिसमें उन्होंने संत रविदास की महानता का जिक्र किया है. इसमे बताया गया है कि वह इतने महान थे कि मीरा बाई, झाली बाई (राजस्थान की राजकुमारी) सहित कितनी राजकुमारियों एवं राजकुमारों ने संत रविदास को अपना गुरु माना. मीरा ने साफ कहा है कि रविदास के रूप में मुझे मेरा गुरु मिल गया. तो वह ऐसा तभी कह सकती हैं जब उन्हें संत रविदास में ज्ञान और ध्यान की कोई अलख दिखी होरविदास ने शास्त्रार्थ में काशी के पंडितों को कई बार परास्त किया. इस तरह की कहानियां सिर्फ इस सत्य को झुठलाने के लिए गढ़ा जाता है कि दलित जाति का कोई व्यक्ति कोई संत भी इतना महान हो सकता है. अध्यात्म की इतनी ऊंचाईयों को छू सकता है. आपकी बात सही है. काफी लोगों ने कहानियां गढ़ी है. जो लोग ऐसी कहानियां गढ़ते हैं, वह उनकी हीनता को दिखाता है. सच्चाई मानने की बजाए वो कहानियां गढ़ देते हैं कि वो पूर्व जन्म के ब्राह्मण थे. ये सब अनुसंधान करने वालों के लिए ज्वलंत और महत्वपूर्ण प्रश्न है.
वर्तमान में भारत और विश्वस्तर पर बौद्ध धर्म की स्थिति क्या है और भविष्य में इसकी क्या संभावनाएं हैं?
मुझे बौद्ध धर्म का भविष्य बहुत उज्जवल दिखाई देता है. यह भूमंडलीकरण का दौर है. कम्यूनिकेशन और इंफारमेशन टेक्नोलॉजी में जो तेजी आई है उसकी वजह से पूरी दुनिया एक ग्लोबल विलेज बन कर रह गई है. आप दिल्ली में नास्ता करके लंदन में डिनर कर सकते हैं. संभावना उज्जवल है. ग्रंथ इंटरनेट पर हैं. ज्यों-ज्यों ग्लोबलाइजेशन बढ़ेगा, गरीब-अमीर की खाई बढ़ेगी. राबर्ट मर्टन (socialist) का कहना है कि हर कोई आगे बढ़ना चाहता है. नहीं पहुंचने पर वह frustrated हो जाता है. जब-जब ऐसा होगा शांति की तलाश बढ़ेगी. तो ज्यों-ज्यों भूमंडलीकरण बढ़ेगा, लोग बुद्ध की तरफ खिचेंगे. पश्चिम में यही हो रहा है. प्रसिद्ध निर्देशक रिचर्ड गेरे, प्रोड्यूसर टीना टर्नर और फुबालर राबर्ट वैगियों बौद्ध धर्म की ओर आ चुके हैं.
सर आपने इतना अधिक वक्त दिया. आपका धन्यवाद
धन्यवाद अशोक जी।।
इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए एवं आनंद श्रीकृष्ण से संपर्क करने के लिए आप उन्हें anand622009@hotmail.com पर मेल कर सकते हैं. दलित मत से संपर्क करने के लिए आप 09711666056 पर फोन कर सकते हैं या फिर ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.
अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.