कोलकाता प्रेसिडेंसी में अध्यापक ने लगाया जातीय शोषण का आरोप

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अनिल पुष्कर कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ाते हैं. पुष्कर पर वहां के छात्रों के भविष्य को संवारने की जिम्मेदारी थी, लेकिन वहां उन्हीं का भविष्य खतरे में पड़ गया है. अनिल पुष्कर का आरोप है कि कोलकाता प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय में चयन के बाद से ही उनके खिलाफ षड्यंत्र रचा जा रहा है. कारण यह रहा कि हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्षा अपने जानकार को नियुक्त कराना चाहती थीं, परन्तु सेलेक्शन बोर्ड द्वारा अनिल पुष्कर का चयन हुआ. आऱोप है कि तब से ही विभाग की अध्यक्ष प्रोफेसर मजूमदार जो सामाजिक विज्ञान फैकल्टी की डीन भी हैं अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर उन्हें परेशान करने लगी.

आखिरकार अनिल और उनके साथ के और असिस्टेंट प्रोफेसर को विश्वविद्यालय की ओर से 21 अप्रैल 2017 को डिस्चार्ज लैटर ‘अनसैटिसफाइड परफार्मेंस’ टिप्पणी के साथ थमा दिया गया. उससे पूर्व उन्हें नियनानुसार कोई नोटिस नहीं दिया गया. स्थिति इससे और स्पष्ट हो जाती है, जब उनकी नियुक्ति को लेकर फर्जी केस भी सामने आया. कोई आधारभूत तथ्य न होने पर वह कोर्ट द्वारा ख़ारिज कर दिया गया. उसके बाद प्रशासन द्वारा SC और OBC शिक्षकों के निष्कासन के में अपनाई गई अलोकतांत्रिक प्रक्रिया कई प्रश्न खड़े करती है.

प्रथम दृष्टया यह जातिवादी मामला है. हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्षा तथा अन्य जातिवादी शिक्षकों द्वारा अनिल पुष्कर पर जातिवादी हमले होते रहे थे. शुरुआती दिनों में जब अनिल ने जॉब ज्वाइन किया तो उन्होंने घर जाने के लिए प्रार्थना पत्र लिखित रूप में दिया, ताकि वह घर जाकर अपना सामान ला सकें. विभाग में छुट्टी देते हुए यह विश्वास दिलाया गया कि अगर वीसी के कुछ कहने पर विभागध्यक्ष देख लेंगी, परन्तु जब वे एक सप्ताह बाद लौटकर आये तो पता चला कि वीसी नाराज इस बात पर थी कि न्यू फैकल्टी छुट्टी पर कैसे चला गया. उसके बाद ऑनलाइन लीव एप्लीकेशन सिखाने के नाम पर उनकी छुट्टियां काट ली गईं, जबकि अन्य लोगों की छुट्टियां मैनेज हो रही थीं.

अनिल कहते हैं कि प्रताड़ना के कई तरीके थे. मसलन विभागीय बैठकों की सूचनाएं नहीं देना. हर वक्त मानसिक रूप से प्रताड़ित करना. विभागीय साप्ताहिक सेमिनारों में भी ज्ञान के वर्चस्व तथा जाति से अनिल को दो-चार होना पड़ा. सवाल न करने देना. उदहारण के लिए एक ‘समकालीन मणिपुरी कविता’ पर एक सेमीनार में विभागाध्यक्षा के लेक्चर के बाद उनके ही आग्रह पर अनिल ने जब टिप्पणी की तो उन्हें आन्दोलनकारी बताते हुए अपमानित किया गया. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. अनिल कहते हैं, ‘मुझे यह अहसास होने लगा था कि अनुसूचित जाति से आने के कारण मेरी प्रतिभा इनके जाति- अभिजात्यपन पर भारी पड़ रही रही थी.’ प्रेसीडेंसी कॉलेज के हिन्दी विभाग के भीतर जाति का सवाल बहुत बड़ा है. अनिल के उच्च शिक्षित होने के बावजूद हिन्दी विभाग का ब्राह्मण समूह उन्हें निचले दर्जे का समझता रहा. अतः ऐसे कई मौके आये जब अनिल प्रताड़ित हुए. अनिल बताते हैं कि ‘हद तो तब हो गयी जब विभागाध्यक्षा द्वारा कहा गया कि दलितों की पैदाइश तो शायद उन नाजायज संबंधों से हुई हैं जब उच्च कुल के पुरूषों द्वारा निचली जाति की महिलाओं के साथ जबरन शारीरिक संबंध कायम किये गये. तब मैं इनकी समझ और सोच पर आश्चर्यचकित था.’

अनिल के अकादमिक क्रेडिट को भी विभाग में नकारा जाने लगा. नैक के समक्ष उनके अकादमिक काम को मानने से इनकार कर दिया गया. अनिल के ऑनलाइन और प्रिंट मिडिया में छपे हुए कई लेखों को उन्होंने यह कहते हुए खारिज किया कि इनमें से एक भी आर्टिकल लिटररी और रिसर्च आर्टिकल नहीं है जबकि उसके ही समक्ष सीनियर शिक्षकों के सामान्य से लेखों को नैक में शामिल किया गया था. इसके साथ ही परीक्षा के समय अनिल पुष्कर द्वारा बनाये गए प्रश्न पत्र को पूरी तरह से बदल देना जो केवल शिक्षक ही नहीं बल्कि विद्यार्थियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ भी है, या उन्हें परेशान करने के नित्य नये तरीके इजाद करना, तथा बच्चों को लिखित शिकायत करनी के लिए मानसिक दबाव बनाना आदि प्रताड़ना की लम्बी फेहरिश्त है.

अनिल कहते हैं, ‘2016 की तमाम घटनाओं के बाद 2017 की जितनी भी कक्षाएं ली हैं, उनमें से अधिकांश के रिकार्डिंग्स मौजूद हैं, जबकि अन्य सीनियर अध्यापकों से पूछा जाना चाहिए कि उनकी कितनी कक्षाओं की रिकार्डिंग मौजूद हैं.’ वे यह भी कहते हैं कि ‘छात्रों में भी यह सन्देश आ चुका था कि विभागाध्यक्ष मेरे खिलाफ कोई साजिश कर रही हैं इसलिए वे अनिल की हर क्लास की रिकार्डिंग करने लगे थे.

विभागध्यक्ष के कारनामे कई हैं. मसलन, कई बार अनिल को बुलाकर कहना कि लेक्चर अच्छा देते हो लेकिन केवल लेक्चर देने से काम नहीं चलेगा तुम नोट्स भी लिखवाओ जबकि छात्रों के पास पहले ही हैण्डराइटिंग में नोट्स मौजूद होते थे. अनिल पुष्कर द्वारा लिए गये असाइनमेंट को खारिज करना और छात्रों को टॉर्चर करने के लिए दुबारा लिखित परीक्षा लेना. या विद्यार्थियों पर दवाब बनाना कि अनिल के खिलाफ शिकायत करें. लेकिन विद्यार्थियों ने अनिल और उनके साथ निष्कासित अन्य शिक्षकों का साथ दिया. विश्वविद्यालय से निष्कासन के बाद छात्र आशंकित और आक्रोश में थे, उन्होंने एकजुट होकर प्रशासन के सामने इस फैसले का विरोध किया, जिसकी ख़बरें अखबारों में दर्ज हैं. अनिल और उनके साथी प्राध्यापक का एक महिला विभागाध्यक्ष द्वारा जाति-उत्पीड़न सवाल खड़ा करता है कि आखिर एक शोषित समूह को दूसरे शोषित समूह का उत्पीड़न करने में आखिर क्या सुख मिलता है. अंततः शोषण की संस्कृति ही पुष्ट होती है.

लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
संपर्क: dimpledu1988@gmail.com

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