महाराष्ट्र में क्यों नाराज़ हैं मराठा?

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन फिर से आग पकड़ने लगा है. आशंका है कि सरकार ने जल्द कदम नहीं उठाए तो हालात और बिगड़ सकते हैं. राज्य में अगले साल चुनाव होने हैं, ऐसे में सरकार की मुश्किल ये है कि वह सरकारी नौकरियों और कॉलेजों में मराठों को 16 फीसदी आरक्षण दिए जाने की मांग को सीधे-सीधे नहीं मान सकती.

इस पहले राज्य की पिछली कांग्रेस सरकार ने मराठों को आरक्षण से जुड़ा बिल विधानसभा में पास कर दिया था, लेकिन कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी, कोर्ट ने पिछडा वर्ग आयोग से मराठा समाज की आर्थिक-सामाजिक स्थिति पर रिपोर्ट मांगी है, जिसके बाद ही मराठा आरक्षण पर कोई फैसला संभव है.

देवेंद्र फडणवीस सरकार की मुश्किल ये भी है कि सुप्रीम कोर्ट की तरफ से निर्धारित पचास फीसदी की सीमारेखा के पार जाकर राज्य में मराठों को आरक्षण देना संभव नहीं और अगर सरकार ने ओबीसी के लिए तय 27 फीसदी कोटे में ही मराठों को शामिल करती हैं, तो राज्य में एक अलग ओबीसी आंदोलन शुरू हो जाएगा. ओबीसी और दलित दोनों ही वर्ग आरक्षण में किसी तरह के बदलाव के खिलाफ है.

ऐसे में सरकार मराठा समाज को मनाने के लिए उनके एजुकेशन फीस आधी करने, एजुकेशन लोन पर ब्याज दरें आधी करने और हॉस्टल सुविधाएं बढ़ाने का आश्वासन दे रहे हैं. हालांकि मराठा समाज अगले साल होने वाले चुनाव को देखते हुए सरकार को झुकाने में की कोशिश में है.

दरअसल राज्य में मराठों की आबादी 28 से 33 फीसदी तक मानी जाती है. मराठा समाज परंपरागत रूप से खेतिहर रहा है और उनका कहना है कि पिछले कई सालों से लगातार पड़ रहे सूखे और खेती में नुकसान के कारण वे बरबादी की कगार पर पहुंच गए हैं. उनका दावा है कि आत्महत्या करने वाले किसानों में सबसे ज्यादा संख्या मराठों की है, इसलिए उन्हें भी आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए. राज्य सरकार ने हाल ही में 72 हजार पदों पर बहाली का विज्ञापन निकाला है और मराठा इसमें आरक्षण की मांग कर रहे हैं.

मराठा समाज की दूसरी सबसे बड़ी मांग शिक्षा में आरक्षण की है. दरअसल महाराष्ट्र में जिला स्तर पर ही इंजीनियरिंग और मेडिकल के कई कॉलेज खुल गए हैं और मराठा समाज में इनमें दाखिले के लिए आरक्षण और फीस माफी चाहते हैं. इन इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने की फीस अभी काफी ज्यादा है. आंदोलन कर रहे मराठों का कहना है कि उन्हें बच्चों की पढ़ाई के लिए खेत गिरवी रखकर लोन लेना पड़ता है. इसके अलावा डोनेशन के लिए साहूकारों से कर्ज लेना पड़ जाता है. खेती में नुकसान, फसलों के दाम में कमी और ब्याज के बढ़ते बढ़ते फंदे के कारण कई किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाते हैं.

इस मराठा आरक्षण आंदोलन के पीछे राजनीतिक कारणों को भी खारिज नहीं किया जा सकता है. लंबे समय बाद राज्य में पिछले चार साल से देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हैं. मनोहर जोशी के बाद सीएम पद संभालने वाले फडणवीस राज्य के दूसरे ब्राह्मण नेता हैं. ऐसे में शरद पवार, अशोक चव्हाण, नारायण राणे और पृथ्वीराज चव्हान जैसे नेताओं वाले मराठा समाज को सीएम पोस्ट से ये दूरी अखरती भी है.

राज्य की सियासत में मराठों में बड़ी ताकत के रूप देखा जाता है. यहां विधानसभा की कुल 288 सीटों में से 80 पर मराठा वोट ही निर्णायक माना जाता है. हालांकि बीजेपी को भी पता है कि ज्यादातर मराठा उसे वोट नहीं देते. वे या तो एनसीपी, कांग्रेस के साथ हैं या फिर शिवेसना के साथ. ऐसे में बीजेपी आरक्षण जैसे सवाल पर उनकी सारी बातें मानकर ओबीसी और दलित को नाराज़ करने की मूड में नहीं. राज्य की आबादी में ओबीसी 52% हिस्से का दावा करता है, तो वहीं दलित खुद को 7 से 12 प्रतिशत तक बताते हैं. जाहिर है राजनीतिक तौर पर मराठों के साथ पूरी तरह खड़ा होना बीजेपी को अपने लिए मुफीद नहीं दिखता.

हालांकि महाराष्ट्र में आरक्षण और खासतौर से शिक्षा में आरक्षण का मुद्दा बड़ा पेचीदा है. यहां करीब 75 फीसदी सीटें अलग-अलग आरक्षण के नाम पर राज्य के मूल निवासी बच्चों के लिए रिजर्व होती हैं. इनमें मूल एससी/एसटी और ओबीसी भी शामिल होते है. इसके अलावा ज्यादातर निजी संस्थाओं में 15 फीसदी सीट मैनेजमेंट और एनआरआई कोटे की होती है. जाहिर है इनसे अलग किसी और वर्ग को आरक्षण दे पाना राज्य सरकार के लिए काफी मुश्किल लगता है. इसके लिए पहले से ही आरक्षण कोटे में ही मराठों को एडजस्ट करना होगा, जिस पर फिर नया राजनीतिक बवाल होगा.

संदीप सोनवलकर

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