संक्रामक बीमारियों से लैस भारत में कोरोना के खतरे की हकीकत

क्या सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर समूहों को भी कोरोना वायरस से उतना ही खतरा है, जितना कि अन्य बीमारियों और भुखमरी से, जिसकी अब आहट सुनाई देने लगी है। या, इन वर्गों में इस खतरे को महसूस करने के स्तर में गुणात्मक भिन्नता है?

बहुत ज़िम्मेदारी के साथ भी इतनी बात तो कही ही जा सकती है कि भारत समेत दूसरे गरीब व विकासशील देशों के मेहनतकश और विभिन्न तबके को कोरोना वायरस से बहुत कम ख़तरा महसूस होगा। टी. बी., डायरिया, न्यूमोनिया जैसी घातक बीमारियों से ग्रस्त इस क़ौम को वह बीमारी कितनी खतरनाक लग सकती है, 80 फीसदी मामलों में शरीर में जिसके कोई लक्षण ही नहीं दिखते, जिसके 95 प्रतिशत मरीज स्वत: ठीक हो जाते हैं! जिसमें  संक्रमित व्यक्ति के मृत्यु का जोखिम (infection fatality rate ) 0·39–1·33 प्रतिशत के बीच है। हालांकि विश्व स्वास्थ संगठन ने इसकी मृत्यु दर 3.4 होने का अनुमान जताया है, लेकिन जैसे-जैसे संक्रमण की संख्या बढ रही है, उसके अनुपात में मृत्यु की दर नहीं बढ रही, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कोविड की औसत मृत्यु दर और कम होगी।

कोविड से मौत का शिकार होने वालों में अधिकांश बहुत बुज़ुर्ग लोग हैं, उनमें भी अधिकांश वे जो हृदय-रोग, कैंसर, किडनी, हाइपरटेंशन आदि ‘अभिजात’ बीमारियों के बुरी तरह पीड़ित लोग थे। भारत, पाकिस्तान,  बांग्लादेश, इंडोनेशिया, नाइजीरिया व दक्षिण अफ्रीका व अन्य देशों के ग़रीबों के लिए सबसे घातक टी.बी. का संक्रमण है। यह कोरोना की तुलना में बहुत घातक है।

विश्व में हर साल लगभग 1 करोड लोगों को टी.बी. के लक्षण उभरते हैं,  जिसे हम सामान्य भाषा में “टी.बी. हो जाना” कहते हैं। इन एक करोड़ लोगों में से लगभग 15 लाख लोगों की हर साल मौत होती है।

जिन अन्य संक्रामक बीमारियों से दुनिया के गरीब लोग सबसे अधिक मरते हैं, उनका आधिकारिक आंकड़ा इस प्रकार है- डायरिया से हर साल लगभग 10 लाख, न्यूमोनिया से 8 लाख, मलेरिया से 4 लाख, हेपेटाइटिस-सी से 3.99 लाख और हैजा से लगभग 1.43 लाख लोग मरते हैं। इनके अतिरिक्त और भी कई जानलेवा संक्रामक बीमारियाँ हैं, जिनमें से अनेक अभी भी ला-इलाज़ हैं।

इसे समझने के लिए लेख के साथ प्रकाशित चार्ट में कुछ प्रमुख बीमारियों से संबंधित आंकड़े देखें। चार्ट में दर्शाये गई ‘मृत्यु दर’ का अर्थ है कुल संक्रमित रोगियों (रिपोर्टेड और अनरिर्पोटेड सम्मिलत) में से मरने वालों का प्रतिशत। अभी तक के शोधों के अनुसार कोविड की मृत्यु दर 0·39 से 1·33 प्रतिशत के बीच है, जबकि टीबी में अगर पूर्ण इलाज न मिले तो इसकी मृत्यु की दर 60 प्रतिशत है। चार्ट में उल्लिखित ‘संक्रमण फैलने की दर’ का अर्थ है कि किसी बीमारी से संक्रमित एक व्यक्ति/जीव कितने अन्य व्यक्तियों को संक्रमित करता है। कोरोना वायरस से संक्रमित एक व्यक्ति औसतन 1.7 से लेकर 2.4 व्यक्तियों तक को संक्रमित कर देता है। जबकि टीवी का एक मरीज 10 अन्य व्यक्तियों को संक्रमित करता है। चार्ट में इन रोगों से हर साल मरने वालों की औसत संख्या भी दी गई है। अधिकांश पैमानों में कोविड की घातकता गरीब और निम्न मध्यमवर्ग को होने वाली अन्य बीमारियों से कम हैं।

कुछ संक्रामक बीमारियों का वैश्विक आंकड़ा

बीमारी मृत्यु दर (case fatality rate) संक्रमण फैलने की दर
basic reproductive ratio
हर वर्ष मरने वालों का औसत (लगभग)
yearly fatalities rate, Rounded
संक्रमण का वाहक
primary mode of transmission
रोग-जनक
pathogen type
कोविड : 19 0·39–1·33%(अद्यतन अध्ययनों के अनुसार) 1.7- 2.4

(अद्यतन अध्ययनों के अनुसार)

चार महीने में दो लाख

(लॉक डाउन के बावजूद)

थूक की बूंदों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क में आने/ हवा में उडने वाले अतिसूक्ष्म कणों के संक्रमण के अभी तक प्रमाण नहीं वायरस
टीबी (इलाज नहीं होने पर) 60% 10 15 लाख प्रति वर्ष हवा में उडने वाले सूक्ष्म बूंदों से, जो बहुत समय तक बरकार रहती हैं बैक्टीरिया
मौसमी इन्फ्लूएंजा (फ्लू) 0.10% 2.5 2.90 लाख से 6.5 लाख  प्रति वर्ष हवा में उडने वाले सूक्ष्म बूंदों से, जो बहुत समय तक बरकार रहती हैं वायरस
न्यूमोनिया 8 लाख प्रति वर्ष
मलेरिया 0.50% 80 4 लाख प्रति वर्ष मच्छर काटने से परजीवी
हेपेटाइटिस-सी 3.99 लाख प्रति वर्ष
हैजा (इलाज नहीं होने पर) 50% 2.13 1.43 लाख प्रति वर्ष मल-कण से बैक्टीरिया
रैबीज 100% 1.6 55 हजार प्रति वर्ष कुत्ते के काटने से वायरस
टायफ़ायड 20% 2.8 1.61 लख प्रति वर्ष मल-कण से बैक्टीरिया

अब भारत के आंकडों पर नजर डालें। अकेले भारत में हर साल 25 लाख से अधिक लोगों को टी.बी. होती है, जिनमें से हर साल पांच लाख लोगों की मौत हो जाती है। टी.बी. से मौतों के मामले में भारत विश्व में पहले स्थान पर है।

भारत में न्यूमोनिया से हर साल 1.27 लाख लोग मरते हैं, जिनमें सबसे अधिक बच्चे होते हैं। न्यूमोनियो से मरने वालों में विश्व में भारत का नंबर दूसरा है। पहले नंबर पर नाइजीरिया है। भारत में हर साल मलेरिया से लगभग 2 लाख लोग मरते हैं, जिनमें ज्यादातर आदिवासी होते हैं। इस रोग के मरने वालों में ज्यादातर युवा होते हैं। भारत में हर साल एक लाख से अधिक बच्चे डायरिया से मर जाते हैं। इसी तरह हैजा से भी यहां हर साल हजारों लोग मरते हैं।

इतना ही नहीं, अनेक गरीब और विकासशील देशों की तरह भारत सरकार का रिकार्ड भी इन बीमारियों की रिर्पोटिंग करने के मामलें में बहुत खराब रहा है। अनेक ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें भारत द्वारा विश्व स्वास्थ संगठन को भेजे गए बीमारियों के आंकडे वास्तविक संख्या से कई सौ गुणा कम थे। वर्ष 2015 में भारत ने विश्व बैंक को बताया कि उस साल यहां सिर्फ 561 लोग मलेरिया से मारे गए, जबकि वास्तविकता थी कि यहां हर साल यहां लगभग 2 लाख युवा व अधेड आदिवासी मलेरिया से मर रहे थे। भारत सरकार के इस गैरजिम्मेवाराना और शर्मनाक व्यवहार को अल-जरीरा के अपनी रिपोर्ट में उजागर किया था। इसी प्रकार हैजा के मामलों को बहुत कम करके रिपोर्ट करने पर आपत्ति जताते हुए एक शोध-पत्र विश्व स्वास्थ संगठन के बुलेटिन में प्रकाशित हुआ था, जिसमें शोधकर्ताओं ने पाया था कि भारत द्वारा हैजे के मामले की गई रिर्पोटिंग न सिर्फ अधूरी है, बल्कि घटनाओं का आँकड़ा रखने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तरीके भी गलत हैं।

दरअसल, सारा खेल आँकड़ों का ही है। कोरोना वायरस को लेकर जो वैश्विक हड़बड़ी और अफरातफरी फैली है, उसका कारण विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा रीयल-टाइम में कोरोना से संबंधित आंकडों को संकलित करना व उसे जारी करना है। अन्यथा, कोरोना से होने वाली ‘संभावित’ मौतों का आंकडा भी इन संक्रामक बीमारियों से हर रोज हो रही ‘वास्तविक’ मौतों की बराबरी नहीं कर सकता। यह एक दीगर अनुसंधान का विषय है कि कॉरोना को लेकर आखिर पूरी दुनिया में ऐसी अफरा तफरी कैसे बनी, कैसे और क्यों यह ख़बरें इतनी तेजी से प्रसारित हुईं। इसके तार एक ओर दुनिया के स्वास्थ बाजार के किंगपिन बिल गेट्स द्वारा संपोषित आंकड़ों के संधान और वैक्सीन निर्माण में लगी दर्जनों विशालकाय संस्थाओं से जुड़े हैं। दूसरी ओर मध्यम वर्ग के असुरक्षित और जिंदा रहने को अंतिम मूल्य मानने वाले मनोविज्ञान और पिछले वर्षों में विश्वव्यापी हुई इंटरनेट जनित जनसूचना-क्रांति ने इसे गति प्रदान की है।

अन्यथा, अनेक संपन्न देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी इसे बड़ी बीमारी मानने से इंकार कर चुके हैं। उनकी स्वास्थ्य विभागों द्वारा जारी मृत्यु के आंकड़े भी बताते हैं कि इन महीनों की औसत मृत्यु दर में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है। लेकिन उनके देश की जनता की मांग थी कि लॉक डाउन किया जाए। उन्हें उनके घरों में बंद कर दिया जाए, ताकि वे और उनके बच्चे सुरक्षित रहें।

भारत में ताली और थाली तो समृद्ध देशों की नकल में माहिर प्रधानमंत्री ने बाद में बजवाई। यूरोप में तो यह फरवरी से ही बज रही है। लोग अपनी खिड़कियों- बालकनियों में आकर बाइबल पढ़ रहे हैं, प्रार्थनाएं कर रहे हैं और राष्ट्रगान गा रहे हैं।

आखिर, ऐसा क्यों है कि लोग खुद अपनी आजादी त्याग रहे हैं?

आर्थिक समृद्धि, तकनीक के विकास और नवउदारवादी मूल्यों ने अमेरिका व यूरोप के अधिकांश देशों में व्यक्तिवाद को चरम अवस्था में पहुंचा दिया है। अति-सुरक्षित जीवन ने उन्हें वास्तव में भीतरी असुरक्षा से भर दिया है। वे जानते हैं कि उनका न कोई सगा है, न कोई समाज। और यह सिर्फ अमेरिका और यूरोप में ही नहीं हुआ है। भारत समेत विभिन्न विकासशील देशों में भी उन्हीं परिस्थितियों ने जिस नए मध्यम वर्ग को बनाया है, उसकी भी यही हालत है।

कोरोना की भयवहता पर उंगली उठाकर लोगों की कटू आलोचना झेलने वाले इटली के दार्शनिक प्रोफेसर जियोर्जियो अगाम्बेन के शब्दों में कहें तो यह एक ऐसा समाज बन गया है, जिसका एक मात्र मूल्य जिंदा रहना रह गया है। प्रोफेसर अगाम्बेनम कहते हैं, आज हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं, जो तथाकथित ‘सुरक्षा के कारणों’ से अपनी आजादी को कुर्बान कर रहा है और खुद को संभवत: हमेशा के लिए भय और असुरक्षा की स्थिति में रहने की सजा देने जा रहा है।

दुनिया में हर दिन 4100 से अधिक लोगों के टीबी से तड़प-तड़प कर मरने खबर होती है, जो हम तक नहीं पहुंचती। दुनिया में 180 करोड़ लोग, यानी दुनिया की एक चौथाई आबादी,  टी.बी.के बैक्टेरिया ‘माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस’ की साइलेंट कैरियर हैं। विश्व स्वास्थ संगठन की रिपोर्ट बताती है दुनिया में हर सेकेंड एक नए व्यक्ति को टीबी का संक्रमण हो रहा है। टीबी से मरने वाला हर आदमी मरने से पहले 10 लोगों को यह बीमारी दे चुका होता है। टीबी भी कोरोना की ही तरह, संक्रमित व्यक्ति की खांसी, छींक यहां तक हवा में उडती थूक की बूंदों से फैलता है।

इसी तरह दुनिया में डायरिया से हर रोज 2700 लोग, न्यूमोनिया से 2100 लोग, मलेरिया से 1 हजार , हेपेटाइटिस-सी 1 हजार और हैजा से लगभग 450 लोग मरते हैं। और, जिसे हम सामान्य फ्लू मान कर अक्सर फूंक में उड़ा देने वाला समझते हैं, उस मौसमी इन्फ्लूएंजा (फ्लू) से दुनिया में हर रोज 850 से 1800 लोग मर जाते हैं। मौसमी फ्लू दुनिया में कहीं न कहीं हमेशा बना रहता है, जिस साल यह जोर मारता आता है, उस साल इससे मरने वालों की संख्या बढ जाती है। अन्य वायरस जनित बीमारियों की ही तरह आज तक फ्लू की प्रमाणिक दवा नहीं बन सकी है। इसके लिए जो वैकसीन बना है, वह भी सिर्फ एक मौसम में काम करता है, क्योंकि अगले मौसम में यह वायरस रूप बदल कर आता है, जिससे उस वैकसीन का प्रभाव जाता रहता है।

जिस अमेरिका में पिछले चार महीने में लगभग एक लाख लोगों की कोविड से मृत्यु होने की दुखद खबरें हमें मिल रही हैं, उसी अमेरिका में हर वर्ष सर्दियों के चार महीनों में इंफ्लुएंजा से हजारों लोगों की मौत होती रही है। कहा जाता है कि 2017-18 की सदियों में वहां 80 हजार लोगों की मौत फ्लू के वायरस से हो गई थी लेकिन उस समय हमें इसकी रीयल-टाइम पर खबर नहीं दी गई थी। इतना ही नहीं, अभी जो कोविड से मौतों के आंकडे सामने आ रहे रहे हैं, उसमें ‘इंफ्लूएंजा जैसी बीमारियों’, हृदय आघात आदि को भी जोड दिया जा रहा है।

कुछ और आंकडे देखें; संक्रामक और गैर-संक्रामक बीमारियों से कुल मिलाकर आज दुनिया में हर साल लगभग 5.9 करोड लोगों की मौत होती है। यानी प्रति दिन लगभग 1 लाख 62 हजार लोग इन बीमारियों से मर जाते हैं। जबकि इनमें अधिकांशतः ऐसी बीमारियाँ हैं, जिनका इलाज संभव है।

दुनिया में हर साल 1.79 करोड़ लोग हृदय संबंधी बीमारियों से, फेफड़ों के कैंसर से 17 लाख, और मधुमेह (Diabetes) से 16 लाख लोग मर जाते हैं। सबसे तेजी से मनोरोगियों की संख्या बढ़ रही है। दुनिया में 2000 से 2016 के बीच मनोभ्रंश (Dementia) के रोगियों की संख्या दोगुनी बढ़कर 50 लाख हो गई जो हर साल बढ़ रही है। 2014 में यह मौतें के मामले में दुनिया की 14 वीं सबसे बड़ी बीमारी थी, लेकिन आज यह पांचवीं सबसे बड़ी बीमारी है। ये वे बीमारियां हैं, जिन्हें मैंने ऊपर “अभिजात” कहा है। ये संक्रामक नहीं हैं, बल्कि गलत जीवन-शैली के कारण होती हैं। ज्यादातर शारीरिक श्रम न करने वाले खाए-पीए-अघाए लोग तथा कुछ मामलों में बुज़ुर्ग लोग इनका शिकार होते हैं।

इनमें से कुछ संक्रामक बीमारियाँ दशकों से और कुछ तो सदियों-सहस्त्राब्दियों से चली आ रही हैं, लेकिन इन्हें रोकने के लिए कभी इस प्रकार के लॉकडाउन का सहारा नहीं लिया गया। लॉकडाउन का अर्थ है आने वाले वर्षों में समाज में भुखमरी से करोड़ों ग़रीब लोगों की मौत और कुटिल राजनेताओं द्वारा नागरिक स्वतंत्रता का हरण।

मनुष्यता इन बीमारियों के साथ रहना, इनसे लड़ना जानती है। वह इन लड़ाइयों के लिए नए-नए औजार भी विकसित करती रही है, और दुनिया का कारवां चलता रहा है। जरूरत अगर किसी चीज की है तो वह है स्वास्थ्य सेवाओं के समाजवादीकरण की, जो जनता को उसकी लड़ाई में मदद करे, न कि उसे क़ैद कर  सरकारों और कंपनियों के रहमो-करम पर छोड़ दे।


प्रमोद रंजन लंबे समय तक ‘फारवर्ड प्रेस’ हिन्दी के संपादक रहे हैं।  ‘साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष’, ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, ‘महिषासुर : मिथक व परंपराएं’ और ‘शिमला-डायरी’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। वह इन दिनों असम विश्वविद्यालय के रवींद्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज में प्राध्यापक हैं। उनसे संपर्क-+919811884495, janvikalp@gmail.com पर कर सकते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.