भारत में चार प्रकार के बौद्ध हैं

पहले, परम्परागत बौद्ध हैं जो अधिकतर लद्दाख, अरुणाचल, सिक्किम, असम, नागालैण्ड, पश्चिम बंगाल आदि प्रांतों में रहते हैं- चकमा, बरुआ, ताईआदि. ये वे बौद्ध हैं जो भारत के बुद्ध धम्म के विपत्तिकाल में स्वयं को बचा सके और बुद्ध धम्म की धरोहर को मुसीबतों में संरक्षित रख सके. इन बौद्धों के पास बुद्ध धम्म की बड़ी अनमोल धरोहरें संरक्षित हैं- गौरवशाली बौद्ध संस्कृति व दुर्लभ ग्रंथ. इनके पास भगवान बुद्ध के वास्तविक चीवर तक संरक्षित हैं, पूरे भी और टुकड़ों में भी, भगवान के द्वारा उपयोग मे ली गई वस्तुएं जैसे पात्र, आसन, नख आदि. अधिकतर पारम्परिक बौद्ध अनुसूचित जनजाति में हैं लेकिन आधुनिक शिक्षा की कमी के कारण जनजाति का लाभ नहीं ले पा रहे हैं . इनके रीति-रिवाज, तीज-त्योहार, पूजा-संस्कार, आस्था-विश्वास सब के केन्द्र में भगवान बुद्ध और बुद्ध धम्म होता है. उनकी नैतिक कथाओं, कहानियों और कहावतों में भी सिर्फ बुद्ध होते हैं. उनके सपनों में भी बुद्ध और उनका धम्म होता है.यानीकि उनकी कल्पना और दैनिक जीवन का ताना बाना भी बुद्धमय होता है. इन बौद्धों की संख्या सिन्धी, सिक्ख, जैन, पारसी, ईसाइयों की तरह अल्पसंख्या में है लेकिन इन समुदायों का राजनैतिक महत्व भी नहीं के बराबर है क्योंकि इनमें राजनैतिक जागरूकता बहुत कम है.हालांकि पूर्वोत्तर राज्यों में इनके मत निर्णायक होते हैं लेकिन इनको शासन व संसाधनों की मुख्यधारा से अलग थलग पटका गया है. यही नहीं इनके साथ तो भारतीयों जैसा व्यवहार ही नहीं किया जाता हैं .ये बहुत मेहनकश, भोले सरल स्वभाव के, ईमानदार व वफादार होते हैं.

दूसरे, वे बौद्ध हैं जो ओशो के अनुयायी या ओशो के विचारों को बहुत पसंद करते हैं. ये घोषित रूप में बौद्ध नहीं हैं लेकिन बौद्धिक स्तर पर तथागत बुद्ध के प्रति उनकी गहरी वैज्ञानिक श्रद्धा है. बुद्ध के प्रति गर्व की भावना है, बुद्ध की खोज विपस्सना ध्यान साधना को जीवन में उतारते है ,बुद्ध और बौद्ध धम्म को भारत का गौरव मानते हैं.

तीसरे, वे बौद्ध हैं जो विपस्सना आचार्य सत्यनारायण गोयनका जी द्वारा दुनिया भर में चलाए जा रहे विपस्सना ध्यान साधना शिविरों में गए हुए हैं. विपस्सना के निष्ठावान ये साधकगण भी घोषित रूप में बौद्ध नहीं हैं लेकिन भगवान बुद्ध के प्रति उनके मन में गहरी श्रद्धा है. सच यह है कि वे बुद्ध व उनके धम्म के परिपूर्ण व सच्चे बौद्ध हैं लेकिन दैनिक जीवन में वे सवर्ण-अवर्ण, हिन्दू मुस्लिम,सिख, ईसाई आदि सब लोग हैं. संसार में बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार कर फिर से बौद्ध शासन लाने में गोयनका जी का महान योगदान है. हालांकि गोयनका जी के देहांत के बाद घालमेल शुरू हो गई है.

चौथे प्रकार के बौद्ध हैं जो बोधिसत्व बाबा साहेब डा. अम्बेडकर के बताए हुए मार्ग पर चलते हुए स्वयं को बौद्ध मानते हैं. उनमें से भी अधिकतर ने धार्मिक अंधविश्वासों व कर्मकांड को भी छोड़ दिया है. ये अनुसूचित जाति के हैं लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में हिन्दू हैं लेकिन अधिकतर निष्ठावान बौद्ध हैं. ये न हिनयान व महायान दोनों शाखाओं का सम्मान करते हैं लेकिन बाबासाहेब ने जो बुद्ध की शिक्षाओं का मानवतावदी व वैज्ञानिक पक्ष सामने लाए थे, उसको मानते है.ये नवयानी है.

इस प्रकार अघोषित रूप से भारत की एक बहुत बड़ी जनसंख्या बौद्ध है अथवा बुद्धानुयायी है.

चारों प्रकार के बौद्ध अनुयायियों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं.

परम्परागत बौद्ध भाषा, बोली,क्षेत्रीयता, रीति रिवाजों में बाकी बौद्धों से अलग हैं ,कौतुहल और अभी भी जिज्ञासा का विषय हैं. उनके साथ शेष बौद्धों की न घनिष्ठ मैत्री है और न सामाजिक धार्मिक सम्पर्क.

ओशो से प्रभावित बुद्ध अनुयायियों के लिए बुद्ध व धम्म एक दार्शनिक चर्चा का विषय भर है. संस्कारिक तल पर कई लोग रूढिवादी व अंधविश्वासी होते हैं. भारत की सामाजिक,साम्प्रदायिक, आर्थिक ,धार्मिक विषमताओं से उनका सरोकार न के बराबर है. बुद्ध प्रेमी-ओशो प्रेमी नामक एक समुदाय-सा है जिनके बीच उनकी गहरी मैत्री है. शेष बुद्धानुरागियों से उनकी मैत्री नहीं के बराबर है.इनमें भी कई देवी देवताओं की आराधना, नृत्य, मनोरंजन आदि के शामिल होने से ओशो ने बताई बुद्ध मूल धारा अब भोथरी हो गई है.

विपस्सना करने वाले ध्यानी बौद्धों के जीवन केन्द्र विपस्सना ज्यादा महत्वपूर्ण है.दस ,बीस दिवसीय,सतिपट्ठान आदि शिविर करने में ज्यादा लगन रहती है. विपस्सना के प्रति उनकी लगन कमाल की है. एक तरह से वे धम्म को व्यवहारिक तल पर जीने का पूरा प्रयास कर रहे हैं. . ये विपस्सी साधक स्वयं को बौद्ध तो घोषित नहीं करते लेकिन घोषित बौद्धों से अधिक निष्ठावान बौद्ध हैं. लेकिन सामाजिक सरोकारों से इनका भी कोई ज्यादा वास्ता नहीं है. खास बात यह भी है कि अधिकतर लोग शरीर व मन के सुख शांति के लिए बुद्ध की खोजी विपस्सना का ध्यान तो करते हैं लेकिन दैनिक जीवन में अपने अपने संप्रदाय धर्म के अंधविश्वासपूर्ण सारे कर्मकांडों ,पूजापाठ आदि में उलझे रहते है ध्यान के प्रति श्रद्धा है लेकिन बुद्ध के प्रति नहीं.घर में तो वही भेरोजी की ही पूजा करते है.

चौथे प्रकार के बौद्ध हैं जो बोधिसत्व बाबासाहेब के प्रभाव में स्वयं को बौद्ध मानते हैं. उनके लिए सामाजिक सुधार व वैज्ञानिक सोच प्राथमिक है, यह समुदाय 14 अक्टूबर 1956 के बाद अस्तित्व में आया है.भारत की सामाजिक राजनैतिक धार्मिक विसंगतियों के निराकरण के लिए यह नवयान सर्वाधिक उत्साही और सक्रिय है .भारत के बौद्धों की जनसंख्या में 13 % पारम्परिक बौद्ध हैं और शेष 87% में नवयानी बौद्ध हैं. भारत को बुद्धमय बनाने का सबसे प्रबल सपना इन्हीं नवयानियों का है. जाति विहीन समाज बनाना उनकी प्राथमिकता है. लेकिन इन नवयानियों में भी चार प्रकार के बौद्ध हैं:

1. पड़े हुए बौद्ध
2. खड़े हुए बौद्ध
3. बढ़े हुए बौद्ध
4. चढ़े हुए बौद्ध

पड़े हुए बौद्ध

पड़े हुए बौद्ध वे हैं जो किसी भी लिहाज से बौद्ध नहीं हैं. बस बाबा साहेब या बुद्ध जयंती के अवसर पर धुम धड़ाका ,समारोह में वेभाषण, ‘नमो बुद्धाय जय भीम’ का जयकारा लगाते हैं. साल के बाकी दिनों में वे उन्हीं संस्कारों में लिप्त रहते हैं जिन संस्कारों से बाबा साहेब ने मुक्त करने का आह्वान किया था.

खड़े हुए बौद्ध

खड़े हुए बौद्ध सबसे ज्यादा मुखर हैं. घर,चर्चा में या बंद पंडालों में हिन्दुत्व, ब्राह्मणवाद, मनुवाद, अंधविश्वास, पाखण्ड आदि की सुबह से शाम निन्दा करना, कर्मकांडों की सर्जरी करना, उपहास करना उनकी प्राथमिकता में है.बुद्ध धम्म के बारे में उनकी जानकारी व रूचि नहीं होती है. उनकी दिनचर्या, संस्कार, आचार में बुद्ध धम्म की छाया भी नहीं है. बस पानी पी पी कर दूसरी जाति,धर्म की आलोचना व स्वयं का महिमामंडन को ही वे अंबेडवाद व बुद्ध धम्म समझते हैं. उन्हें यह तो मालूम है कि मनुस्मृति या रामचरितमानस में कौनसी बातें निन्दनीय हैं लेकिन यह नहीं मालूम कि धम्मपद में कितने पद हैं या बुद्ध और उनका धम्म में क्या लिखा हुआ है. उन्हें विपस्सना या आरएसएस का एजेंडा तो दिखता है,त्रिपिटक की अट्ठकथाओं में भी ब्राह्मणवाद दिखता है, ध्यान,साधना आदि सब कुछ मनुवाद लगता है, उनका सारा सरोकार 22 प्रतिज्ञाओं से है,उनमें भी सिर्फ पहली तीन प्रतिज्ञाओं पर सारा जोर रहता है, शेष प्रतिज्ञाओं का वे स्वयं भी पालन नहीं करते हैं. उन्हें यह तो अच्छे से मालूम है कि गलत क्या है, लेकिन सही क्या इस बात की जानकारी लगभग नहीं ही है या है तो पालन नहीं करते.

ऐसा मुस्लिम ढूढ़ना मुश्किल है जिसे नमाज़ न आती हो, ऐसा सिक्ख ढूँढ़ना मुश्किल है जिसे गुरूग्रंथ साहेब के शबद न याद हों, ऐसा इसाई ढूंढ़ना लगभग नामुमकिन है जिसे बाइबिल के कुछ सानेट न याद हों, ऐसा हिन्दू तो ढूँढ़ना असम्भव है जिसे कोई आरती-चालीसा-स्तुति-भजन न आता हो लेकिन ऐसे कथित बौद्ध लाखों की संख्या में मिल जाएंगे जिन्हें त्रिशरण,पंचशील, बुद्ध वन्दना कुछ नहीं आता लेकिन मंचों पर दावे से अपने को बौद्ध कहते हैं. इन खड़े हुए बौद्धों की सोच क्रान्तिकारी है, तार्किक है. ये ही बौद्ध बाबासाहेब और भगवान बुद्ध की जयंती मनाने के प्रति सर्वाधिक सक्रिय हैं.

बढ़े हुए बौद्ध

बढ़े हुए बौद्ध वे हैं जो निन्दा,आलोचना,सर्जरी ,विवाद से थोड़ा आगे बढ़ कर सच्चे अर्थों में धम्म का व्यवहारिक रूप से पालन कर रहे हैं. उन्हें त्रिशरण,पंचशील,बुद्ध त्रिरत्न वन्दना सुत्तपाठ आता है. जन्मदिन, विवाह, गृहप्रवेश इत्यादि अवसरों पर पूज्य भन्ते या बोधाचार्यों से संस्कार सम्पन्न कराते हैं. पुराने संस्कारों को छोड़ कर उन्होंने बौद्ध संस्कारों को जीवन में आत्मसात करना शुरू कर दिया है. वे सच्चे अर्थों में बुद्धमय भारत बनाने की दिशा में अग्रसर हैं. यह सही है कि सिर्फ निन्दा-आलोचना करते रहने भर से बुद्धमय भारत नहीं बनेगा. सकारात्मक विकल्प पर व्यावहारिक काम करने से भारत बुद्धमय होगा. नवयानी बौद्धों में यह बढ़े हुए बौद्ध ही उम्मीद की मशाल हैं.

चढ़े हुए बौद्ध

चढ़े हुए बौद्ध, इन्हें धम्म के वास्तविक नायक कहिये, जो धम्म के मूल तक पहुँचने का प्रयास कर रहे हैं. ध्यान,साधना,विपस्सना करते हैं, बुद्ध वचनों को मूल रूप में अध्ययन करते हैं, त्रिपिटक में धम्म खंगालते हैं, शून्यागारों में ध्यान करते हैं. उपोसथ धारण करते हैं. धम्म के आध्यात्मिक पक्ष को सर्वोपरि प्राथमिकता देते हैं और सामाजिक सरोकारों में भी सकारात्मक व रचनात्मक योगदान देते हैं. उन्हें धम्म का मर्मज्ञ कहा जा सकता है. सातवीं संगीति भारत में आयोजित करना इन बौद्धों का सपना और महत्वाकांक्षा है. वे इसके लिए प्रयासरत भी हैं. दान भी करते हैं और धम्म का प्रचार भी करते हैं.शेष बौद्धों के मन में यह बात अभी कल्पना में भी नहीं है. भारत को सच्चे अर्थों में बुद्धमय यही बौद्ध बनाएंगे, चढ़े हुए बौद्ध.

बुद्ध के अनुयायियों के ये चार समूह अलग अलग नहीं हैं बल्कि उद्देश्य के लिहाज से चारों एक ही हैं. पड़ा हुआ बौद्ध ही एक दिन खड़ा हुआ बौद्ध बनता है. खड़ा हुआ बौद्ध ही कभी बढ़ा हुआ बौद्ध बनता है और यह बढ़ा हुआ बौद्ध ही एक दिन चढ़ा हुआ बौद्ध बनता है. यह भी सम्भव है कि अभी कोई पड़ा बौद्ध और खड़ा बौद्ध के बीच के दौर से गुजर रहा हो. यह परस्पर निरंतर विकास की प्रक्रिया है. यह विकास स्वयं के प्रयास से भी होता है तथा प्रशिक्षण से भी होता है. जबरन कुछ नहीं होता. स्वैच्छिक विकास बहुत क्रांतिकारी परिणाम देता है.

जो खड़े हुए हैं उन्हें पड़े हुए लोगों पर कटाक्ष नहीं करना है बल्कि याद यह रखना है कि कभी वे स्वयं भी वहीं थे. बढ़े हुए लोगों को खड़े हुए लोगों को बढ़ने के लिए प्रेरित करना है क्योंकि वे धम्म की ओर बढना चाहते है. चढ़े हुए बौद्धों को शेष तीन के प्रति भी मैत्री भाव से बर्ताव करना है. बढ़े और चढ़े हुए बौद्धों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती जाएगी, भारत बुद्धमय होता जाएगा.

भारत तीव्र गति से बुद्धमय होगा लोगों में तर्क विवेक और वैज्ञानिक चेतना निरंतर बढ रही हैं.अब भारत के सभी प्रगतिशील,वैज्ञानिक सोच व मानवतावदी लोगों मैत्री व आपसी समझ बढ़ती जाएगी. क्योंकि बुद्ध वचन हैं कि मैत्री ही सम्पूर्ण धम्म है.
…. भवतु सब्ब मंगल…..

लेखक- डॉ. एम.एल. परिहार

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