जरूरी है हिन्दू धर्म का लोकतांत्रिकरण

सर्वविदित है कि हिन्दू धर्म पर एक कुलीन वर्ग का कब्ज़ा है। चंद मुट्ठी भर कुलीन वर्ग के लोग हजारों बरसों से हिन्दुओं के सभी संस्थानों और लाखों मंदिरों पर चौकड़ी मार के बैठे हैं। किसान, दस्तकार, मज़दूर, आदिवासी के लिए इनके दरवाज़े आदिकाल से बंद हैं। इन सभी कमेरे वर्गों को मंदिर में जाने और दान देने का अधिकार तो है, लेकिन धर्म की सत्ता पर, शंकराचार्य या मठाधीश बनने पर, धर्म की आय और प्रबंध के मामले में ये लोग इक्कीसवीं सदी में भी अछूत और बहिष्कृत हैं। अक्सर मंदिरों के गर्भगृह में भी इनका प्रवेश वर्जित ही रहता है।

आज कल पूरा विश्व कोविद-19 की महामारी से जूझ रहा है। दिल्ली में कई गुरूद्वारे हैं। चलिए, उनमें से हम एक का ज़िक्र करते हैं। नाम है गुरुद्वारा बंगला साहिब। यह गुरुद्वारा प्रतिदिन चालीस हज़ार भूखे जरूरतमंद लोगों को भोजन मुहैया करा रहा है। इस भोजन पैकेट में रोटी, चावल, दाल, सब्जी, परसादा (सूजी का हलवा) होता है। राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल के डॉक्टरों और नर्सों को जब उनके मोहल्ले वालों ने उनके घरों से गाली गलोच करके भग़ा दिया, तब इसी गुरूद्वारे ने उनको पनाह दी। दिल्ली पुलिस ने इनके कामों की सराहना करते हुए अपनी 50 मोटर साइकिलों पर सवार हो कर इस गुरूद्वारे की सायरन बजाते हुए परिक्रमा की और सल्यूट किया। यहाँ तक कि देश के प्रधान सेवक नरेन्द्र मोदी ने ट्वीट करते हुए कहा कि, “हमारे गुरूद्वारे लोगों की सेवा करने में असाधारण काम कर रहे हैं। उनकी करुणा प्रशंसनीय है।” और यह बात केवल गुरुद्वारा बंगला साहिब तक ही सीमित नहीं है। देश के हजारों गुरुद्वारों में ऐसी ही व्यवस्था चल रही है। मानव जाति पर आई विपदा में वे अपना अद्वितीय योगदान दे रहे हैं।

जो सेवा कार्य सिखों के गुरुद्वारों से हो रहा है, क्या वैसा कुछ हिन्दू के मंदिरों द्वारा हो रहा है? याद रखिये कि गुरुद्वारों के लंगर भोजन का लाभ ले रहे लोगों में 99% गैर-सिख हैं। क्या हिन्दू मंदिरों से हिन्दुओं के लिए भी कुछ मिल रहा है? शायद इक्का-दुक्का जगह हो, लेकिन आम तौर पर मंदिरों के किवाड़ बंद हैं। कोविद-19 की महामारी के खिलाफ जंग में हमारे मंदिर आम तौर पर नदारद और गायब हैं। वो लोग जो इन मंदिरों और संस्थानों को अपने नागपाश में ज़कडे और पकड़े हुए हैं, इस त्रासदी में वो ढूँढने पर भी नज़र नहीं आते।

क्या हिन्दू मंदिरों में संसाधनों की कमी है? क्या मंदिरों के पास धन नहीं है? एक समाचार के अनुसार केरल के श्री पदमनाभास्वामी मंदिर के पास एक लाख छियासठ हज़ार एक सौ अट्ठासी करोड़ रूपए (166188 करोड़ रूपए) की कीमत का सोना है। तिरुपति बालाजी मंदिर की वार्षिक आय 650 करोड़ रूपए है, शिरडी के साईं बाबा मंदिर की वार्षिक आय 360 करोड़ रूपए है, वैष्णो देवी मंदिर की वार्षिक आय 500 करोड़ रूपए है। इसके अलावा देश में 12 लाख मंदिरों में सैंकड़ों ऐसे हैं जिनके भण्डार में करोड़ों रूपए हैं। आज जब हिन्दू गरीब, दलित, पिछड़ा, आदिवासी बीमारी, भूख और गरीबी से मर रहा है तो क्या यह पैसा उनके काम आ रहा है? शिरडी के साईं बाबा की जो जानकारी मेरे पास है उसके अनुसार बाबा फ़कीर थे। दो जोड़ी कपड़े थे, सर पर भी फटा-पुराना कपड़ा बांधते थे। दिन भर जो उनके मुरीद उनको भेंट करते थे, रात सोने से पहले बाबा सब जरूरत मंदों में बाँट देते थे। उनका फरमान था कि रात सोने से पहले भण्डार में अन्न का एक भी दाना नहीं होना चाहिए। रात को सोते समय बिलकुल फक्कड़ होना है। यदि आज आप शिरडी जाएँ तो वहां बाबा सिर पर सोने का मुकुट पायेंगे, मंदिर की दीवारों और खम्बों पर सोने का पत्र चढ़ा है, गुम्बद पर सोने का पत्र चढ़ा है। बाबा के फलसफे, विचार और सोच की सरे आम धज्जियाँ उड़ाईं जा रही हैं।

2017-18 की एक रिपोर्ट के अनुसार गुजरात के द्वारकाधीश मंदिर की वार्षिक आय 12 करोड़, 94 लाख, 21 हज़ार, 454 रूपए थी। इसके अलावा 691 ग्राम सोना दान में प्राप्त हुआ, 49 किलो 982 ग्राम चाँदी दान में प्राप्त हुई। अब जानिये कि इसका खर्च कैसे हुआ? 83% धन पुजारियों के पास गया। 15% भाग मंदिर के रख-रखाव व्यवस्थापन वाली देवस्थान समिति को मिला और 2% चैरिटी कमिश्नर की कचहरी में जमा हुआ। (स्त्रोत: गुजरात समाचार पेपर 8 अप्रैल 2018 पेज नंबर 5 पर)। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट जो 16 नवम्बर 2016 को प्रकाशित हुई, उसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि यदि केवल दस मंदिर की जमा पूँजी लोक कल्याण में लगा दी जाय तो भारत की गरीबी, सदा-सदा के लिए दूर हो जाएगी। यानी भारत एक गरीब लोगों का अमीर देश है। भारत की गरीबी कृत्रिम है, मानव निर्मित है। यदि मंदिरों में जमा धन का सदुपयोग हो जाए तो गरीबों की, किसान, दस्तकार, मजदूर, आदिवासी की गरीबी तत्काल ख़त्म हो जायेगी। भारत एक समृद्ध, सशक्त और खुशहाल देश बन जाएगा।

फिर ऐसा क्यों नहीं होता? क्या यह संभव है? यदि हाँ तो कैसे? इस सब का इलाज़ हिन्दू धर्म के लोकतांत्रिकरण में है! चलिए हम फिर से सिख धर्म और गुरुद्वारों पर आते हैं। 1920 तक यानी सौ बरस पहले तक सिख धर्म में भी यही कुछ होता था जैसा हिन्दू धर्म में होता है। 12 अक्टूबर 1920 को सिखों के पिछड़े वर्ग का एक संगठन “ खालसा बिरादरी’ ने जलियांवाला बाग़, अमृतसर में एक दीवान (धार्मिक सभा) बुलाया जिसमें खालसा कॉलेज के छात्रों और अध्यापकों ने भी हिस्सा लिया। वहां से ये सब लोग (संगत) स्वर्ण मंदिर गयी। स्वर्ण मंदिर में इन्होने कढा परसाद और अरदास अर्पण किया जिसे वहां उपस्थित पुरोहितों ने अस्वीकार कर दिया क्योंकि भेंट करने वाले अछूत थे।

वहीँ पवित्र पुस्तक गुरु ग्रन्थ साहिब से वह स्तोत्र दिखाया गया जो परसाद और अरदास का समर्थन करता था। आखिर कार पुरोहितों को झुकना पड़ा। उसी वक़्त संगत अकाल तख़्त गयी, जहाँ इन्हें देख वहां के पुरोहित भाग खड़े हुए और संगत ने अपना जत्थेदार अकाल तख़्त पर नियुक्त कर दिया। उसके बाद एक एक गुरुद्वारा को महंतों, पुजारियों, मठाधीशों से कब्ज़ा छुड़ाने की मुहिम शुरू हो गयी। मुहीम अहिंसक थी लेकिन कब्ज़ादारों ने कहीं कहीं झगड़ा भी किया। तरन तारण में दो अकालियों की हत्या गयी। 20 फ़रवरी 1921 को ननकाना साहिब में 200 सिख स्वयं सेवकों की हत्या महंत नारायण दास द्वारा भाड़े के हत्यारों द्वारा करा दी गयी। लेकिन अंततः मुट्ठी भर स्वार्थी तत्वों द्वारा गुरुद्वारों का कब्ज़ा छुड़ा लिया गया।

आज शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति तमाम गुरुद्वारों को अपने नियंत्रण में रखती है। सभी सिख पुरुष और महिलाओं को मतदाताओं के रूप में ‘सिख गुरुद्वारा एक्ट 1925’ के अंतर्गत पंजीकृत किया जाता है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति को सिखों की संसद भी कहा जाता है। जो भी दान आता है उसके खर्चे पर इस समिति द्वारा नियंत्रण किया जाता है। एक रूपया भी किसी व्यक्ति की जेब में नहीं जाता। अनेकों शिक्षण संस्थानों, मेडिकल कॉलेज, हॉस्पिटल और चैरिटेबल ट्रस्ट इसके द्वारा संचालित होते हैं। गुरुद्वारों का लंगर भी चलता है। आज एक आम सिख की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्थिति एक आम हिन्दू से कहीं बेहतर है तो उसके पीछे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति द्वारा संचालित संस्थानों का भी योगदान है। यह सब सिख धर्म के लोकतांत्रिकरण का परिणाम है।

हमारे देश के अनेकों बुद्धिजीवियों का मानना है कि जिस दिन हिन्दू धर्म का भी लोकतांत्रिकरण हो जाएगा, तब जो गरीब, किसान, मजदूर, आदिवासी हिन्दू हैं उनकी भी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक स्थिति में जबरदस्त सुधार आ जायेगा। आईये हम सभी हिन्दू धर्म के लोकतांत्रिकरण के लिए काम करें और हिन्दू मंदिर व संस्थानों से कुलीन तंत्र का कब्ज़ा हटा कर लोकतान्त्रिक व्यवस्था कायम करें। जय हिन्द!

– लेखक अनिल जयहिंद एक स्वतंत्र लेखक और सोशल एक्टिविस्ट हैं। ये उनके निजी विचार हैं।

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