- शशि शेखर
हाल ही में कार्ल मार्क्स का जन्मदिन था। अपनी जवानी पूंजीपतियों की मजूरी-हजूरी में बीता देने के बाद, आज भारत के मजदूर अपने घर खाली हाथ लौट रहे हैं। रेल की पटरियों के किनारे 1000 किलोमीटर दूर के सफर पर पैदल चल रहे मजदूर। अपने “देस” लौटने के लिए सूरत में पुलिस से भिडते मजदूर। आखिर, कार्ल मार्क्स को उनके जन्मदिन पर इससे अधिक गिफ्ट ये मजदूर क्या दे सकते थे?
लेकिन, यही वक्त है, जब तमाम येचुरियों, करातों, राजाओं, अंजानों को बंगाल की खाडी में जल समाधि ले लेनी चाहिए। और कन्हैयाओं, रावणों, मेवानियों के सीने की जांच होनी चाहिए। वाकई, उनके सीने में दौडता लहू “लाल” है?
ये देश गुजरात की एक यूनिवर्सिटी कैंटीन में समोसे के दाम बढने पर ऐसा आन्दोलन कर देता था, जिसकी आंच पूरे देश में फैलती है। और फिर “लौह महिला” और “दुर्गा” की उपाधि से नवाजी गई तत्कालीन निरंकुश हो चली प्रधानमंत्री को उनकी हैसियत बता देती है। ये देश एक यूटोपियन टाइप संस्था “जनलोकपाल” की मांग को ले कर 10 साल पुरानी कांग्रेस सरकार को मुंह के बल खडा कर देता है। पेट्रोल की कीमत में मामूली बढत हो या पीएफ ब्याज दर में 1 फीसदी की कमी, कामरेड गुरुदास दासगुप्ता अकेले संसद से सडक तक हिला कर रख देते थे और सरकार को मजबूरन पीछे हटना पडता था। इस वजह से ही, कभी यूपीए-1 की सरकार को रोलबैक सरकार भी कहते थे।
लेकिन, आज।।।।आज तुम कहां हो कामरेड?
देश में 14 करोड सिर्फ प्रवासी मजदूर इस वक्त अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं। नौकरी छूटी, परिवार से दूर, कोई बचत नहीं। सरकारें ऐसे सलूक कर रही है, जैसे मजदूर सर्कस का जानवर हो। स्टेट का रिंग मास्टर चाबुक चलाता है, वापस नहीं लेंगे। केन्द्र का चाबुक चलता है, वापस भेजेंगे। रेलवे कहती है, टिकट का पैसा दो। विपक्ष कहता है, हम देंगे पैसा। स्टेट कहता है, पहले पैसे दे कर आओ, हम रीइमबर्स कर देंगे। मीडिया कहता है, पैसा लिया ही नहीं। मजदूरों का “सेवक” खामोश है। और तुम कामरेड, जाने किस “स्व-मैथुन” में रत चरम सुख प्राप्ति का इंतजार कर रहे हो?
जानता हूं, तुम्हें इस बात का इंतजार है कि क्रांति खुद चल कर ए के गोपालन भवन/अजय भवन पर दस्तक देगी। तब तुम उस क्रांति को अपने झोले में भर-भर कर रामलीला मैदान/गान्धी मैदान पहुंचोगे और पूछोगे हिन्दुस्तान की हुकूमत से कि आपने तो पूंजीपतियों से कहा था, पैसा न काटना, नौकरी से न निकालना, क्यों नहीं मानी उन पूंजीपतियों ने आपकी बात?
तो कामरेड, पिछले 70 सालों से तुम्हारा “क्रांति” के दस्तक देने का इंतजार इस बार भी इंतजार ही रह गया। क्योंकि, इस बार क्रांति सचमुच तुम्हारे दरवाजे से हो कर गुजर गई और तुम अपने “चरम-सुख” प्राप्ति में लीन रह गए। तुम्हारे पास मौका था, उन लाखों मजदूरों को रास्ते में रोक लेने का और वापस उन अट्टालिकाओं के सामने खडा कर देने का, जिनकी नींव में इन मजदूरों का खून-पसीना लगा है। तुम जाते उनके पास, सूरत से मुंबई तक, दिल्ली से पंजाब तक, कुनूर से चेन्नई तक और दो-दो हाथ कर आते उन पूंजिपतियों से, जिन्होंने सालों इन मजदूरों की बदौलत देश-विदेश में अपनी ऐशगाहों का इंतजाम किया हैं और आज एक झटका लगते ही इनसे पल्ला झाड रहे हैं। अरे, और कुछ नहीं तो जो घर आ गए, उनके घर जाते और कहते कि मजदूर भाइयों, डरना मत, हम लडेंगे साथी, जीतेंगे साथी। लेकिन, तुम मौका चूक गए।
मार्क्स बाबा,
मैं जानता हूं, आज आप अपने भारतीय चेलों से जरूर दुखी होंगे। इसलिए, मैं आपको हैप्पी बर्थडे नहीं बोलूंगा। हो सके तो, मेरी तरफ से आप भी इन्हें बोल देना, डूब मरो वामपंथियों।।।
- लेखक शशि शेखर पत्रकारिता से जुड़े हैं।

दलित दस्तक (Dalit Dastak) एक मासिक पत्रिका, YouTube चैनल, वेबसाइट, न्यूज ऐप और प्रकाशन संस्थान (Das Publication) है। दलित दस्तक साल 2012 से लगातार संचार के तमाम माध्यमों के जरिए हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज उठा रहा है। इसके संपादक और प्रकाशक अशोक दास (Editor & Publisher Ashok Das) हैं, जो अमरीका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में वक्ता के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दलित दस्तक पत्रिका इस लिंक से सब्सक्राइब कर सकते हैं। Bahujanbooks.com नाम की इस संस्था की अपनी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुकिंग कर घर मंगवाया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को ट्विटर पर फॉलो करिए फेसबुक पेज को लाइक करिए। आपके पास भी समाज की कोई खबर है तो हमें ईमेल (dalitdastak@gmail.com) करिए।
