कांशीरामजी से मेरी पहली मुलाकात 21 अगस्त 1977 को बामसेफ के तात्कालिन केंद्रीय कार्यालय, करोल बाग के रैगरपुरा के मकान में हुई थी. उसके पश्चात उनसे मेरी दूसरी मुलाकात ठीक दस दिन के बाद हुई. यह वह दौर था जब कांशीरामजी को जानने और पहचानने वाले लोग नहीं के बराबर थे. आज मैंने कई लोगों को यह कहते हुए और दम भरते हुए देखा है कि वो कांशीरामजी को बहुत पहले से जानते हैं. अपनी अहमियत बढ़ाने के लिए वो उनसे करीबी होने का दावा भी करते हैं. खैर, यह सार्वभौम सत्य है कि कोई आदमी जब अपने कर्मों से बड़ा हो जाता है और जनता में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती है तो हर कोई उनसे जुड़ कर वाहावाही लूटना चाहता है. मैंने दिल्ली में ऐसे कई लोग देखें जो किसी समय कांशीरामजी को गालियां देते थे, उनपर ताने कसते थे, परंतु जैसे ही राजनीति में उनका कद बढ़ने लगा, वे उनसे मिलने के लिए दौड़ कर पहली कतार में खड़े हो गए.
बामसेफ की सोच और संकल्पना कांशीरामजी ने 6 दिसंबर 1973 को नई दिल्ली के पंचकूईयां रोड पर स्थित बापू भवन में पूना से आए अपने 40 साथियों के सामने रखी (बाद में वो इन्हीं बापू की विचारधारा के खड़े हो गए). इस मौके पर 40 साथियों ने यह प्रण किया था कि अगले पांच वर्ष में वे देश के आधे से अधिक राज्यों में और 100 से अधिक जनपदों में बामसेफ के कार्यालयं की स्थापना करेंगे और कम से कम एक लाख दलित शोषित समाज के कर्मचारियों को बामसेफ के बैनर तले संगठनत करेंगे. इस कठिन कार्य के लिए उन्होंने अपने ऊपर पांच वर्ष की एक समय सीमा भी निश्चित कर दी थी. पांच वर्ष के भीतर बामसेफ द्वारा अपना ध्येय प्राप्त कना असंभव तो नहीं परंतु कठिन अवश्य था. उसी समय उन्होंने यह भी निर्णय लिया ता कि 6 दिसंबर 1978 को दिल्ली में ही वे बामसेफ नामक नए संगठन की घोषणा करेंगे. बामसेफ के तीन दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन जिसका नाम “BIRTH OF BAMSEF” था, 6-8 दिसंबर तक दिल्ली के प्रसिद्ध बोट कल्ब मैदान पर आयोजित किया गया था. विशाल पंडाल और बामसेफ द्वारा निर्मित प्रदर्शनी का दूसरा पंडाल भव्यतम थे. अधिवेशन का प्रवेश द्वार लोगों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र था, जिसे बहुजन समाज के ही उभरते प्रसिद्ध चित्रकार प्रकाश पाटिल ने बनाया था. पाटिल को मैंने ही बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से इस काम के लिए दिल्ली बुलाया था. तब प्रकाश बीएचयू में मास्टर ऑफ फाइन आर्ट की स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे थे. बाद में प्रकाश ने बामसेफ के लिए एक विशाल प्रदर्शनी का निर्माण किया. उन्होंने बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले, नरायणा गुरु और पेरियार के जीवन प्रसिद्ध घटनाओं पर आधारित तमाम चित्र बनाए. इसके साथ ही दलितों पर होने वाले अन्याय-अत्याचार से संबंधित घटनाओं पर भी लगभग 25-30 चित्र बनाए गए, जिसमें बेलची, कफलता, कंझावला, पिपरवाह आदि कई घटनाएं शामिल थी. इस प्रदर्शनी का नाम रखा गया- ”भारत में सामाजिक क्रांति का इतिसाह”. कांशीराम जी इसी प्रदर्शनी को लेकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश आदि में ”आम्बेडकर मेला” का आयोजन कर लोगों को संगठित करने का प्रयास करते रहे. आम्बेडकर मेला देखने के लिए हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती थी. बहुजन समाज के आंदोलन को गति और प्रेरणा देने में इस प्रदर्शनी का बहुत बड़ा योगदान रहा. प्रकाश पाटिल फिलहाल दिल्ली से सटे फरीदाबाद में रहते हैं. बामसेफ के इस तीन दिवसीय अधिवेशन, में रोज हजारों की भीड़ इकट्ठा हो रही थी. इस अधिवेशन को तात्कालीन सांसद खुर्शीद आलम खान, के. कुसुम कृष्णामूर्ति (आंध्र प्रदेश), रामलाल कुरील, एस.डी. सिंह चौरसिया आदि कई नेताओं ने संबोधित किया. दिल्ली में उस समय इतना बड़ा विशाल कार्यक्रम किसी और स्थान पर नहीं हुआ था. परंतु फिर भी समाचार पत्रों ने इस कार्यक्रम का समाचार प्रकाशित नहीं किया. हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि देश की राजधानी में आयोजित इस विशाल कार्यक्रम का समाचार अखबारों ने क्यों नहीं प्रकाशित किया, जबकि साधु-संतों से लेकर बलात्कार के समाचार तक आए दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं.
मैंने कांशीरामजी से कहा कि हम प्रेस कांफ्रेंस करेंगे और पत्रकारों को अधिवेशन की जानकारी देंगे. कांशीरामजी ने मुझे बहुत समझाने का प्रयास किया कि इसका कोई लाभ होने वाला नहीं है. उन्होंने कहा था कि इस देश का मीडिया ब्राह्मणवादी लोगों के हाथ में है और उसका संचालन इस देश के पूंजीपति बनिया लोग करते हैं. इसलिए वे उन्हीं समाचारों को प्रकाशित करेंगे जो उनके हित में हो. क्योंकि देश के दलितों का संगठित होना उनके हित में नहीं हो सकता. लेकिन मैं लगातार उनसे आग्रह करता रहा. अंत में उन्होंने मेरा आग्रह मानकर प्रेस कांफ्रेंस के लिए हामी भर दी. बोट क्लब के निकट ही प्रेस क्लब ऑफ इंडिया है, जहां दिल्ली के पत्रकारों का जमघट हमेशा बना रहता है. मैंने बकायदा प्रेस कांफ्रेंस के आयोजन के लिए क्लब के सेक्रेटरी के पास 500 रुपये का शुल्क अदा किया. प्रेस कांफ्रेंस के लिए शाम को 5.30 का समय निश्चित किया गया था और सभी पत्रकारों को क्लब के माध्यम से निमंत्रण भी भेजा गया था. शाम को ठीक 5 बजे मै और कांशीरामजी प्रेस क्लब पहुंचें. बैठने की व्यवस्था का निरीक्षण किया और पत्रकारों के आने की प्रतीक्षा करने लगे. एक घंटा बीत गया, डेढ़ घंटा बीत गया और सात बज गए लेकिन एक भी पत्रकार नहीं पहुंचा. वैसे तो हर शाम को वहां खाने-पीने और बतकही करने के लिए पत्रकारों का जमघट लगा रहता था लेकिन उस दिन वहां एक भी पत्रकार नहीं पहुंचा था. कांशीरामजी ने मुझसे कहा- ”देखा, मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि अपने समाज के संगठित होने के समाचार कोई भी ब्राह्मणवादी समाचार पत्र नहीं छापेगा, क्योंकि वह उनके हित में नहीं होगा.”
इसके विपरीत एक दूसरा प्रसंग भी है. बात बामसेफ के राष्ट्रीय अधिवेशन की है. बाबासाहेब के धर्मांतरण की 25वीं वर्षगांठ के अवसर पर अक्तूबर 1981 में चंडीगढ़ में आयोजित किया गया था. बामसेफ का उस समय का वह सबसे बड़ा और विशाल अधिवेशन था, जिसका उदघाटन दिवंगत कर्पूरी ठाकुर ने किया था और रामविलास पासवान, जगपाल सिंह (हरिद्वार के तात्कालिन सांसद), जयपाल सिंह कश्यप (तात्कालिन सांसद), एस.डी. सिंह चौरसिया, बौद्ध, ईसाई और मुस्लिम समाज के कुछ प्रमुख धर्मगुरू, रिपब्लिकन पार्टी के नेता और अन्य नेताओं ने बी अधिवेशन को संबोधित
किया. 1978 के नई दिल्ली के हमारे बुरे अनुभव के कारण हमने चंडीगढ़ के अधिवेशन के लिए प्रेस को आमंत्रित न करने का निर्णय लिया था. परंतु अधिवेशन की विसालता को देखते हुए और हमाजारों लोगों का जमघट दखकर चंडीगढ़ के पत्रकारों ने तुरंत पंजाब यूनिट के बामसेफ अध्यक्ष सरदार तेजिन्दर सिंह झल्ली से संपर्क किया और उनसे अनुरोध किया कि वे कांशीरामजी का साक्षात्कार करना चाहते हैं. सबसे पहले इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता ने कांशीरामजी से मुलाकात का आग्रह किया. पहले तो कांशीरामजी ने मना कर दिया परंतु बहुत आग्रह करने पर वे राजी हो गए. जब इंडियन एक्सप्रेस में समाचार प्रकाशित हुआ तब दैनिक ट्रिब्यून सहित अन्य समाचार पत्र वाले कैसे पीछे रहते. दूसरे दिन वह भी आए और कांशीरामजी का इंटरव्यू और कार्यक्रम की खबर दोनों छापा.
अधिवेशन के पश्चात जब हम दिल्ली लौट आए और अधिवेशन की चर्चा करने लगे तब कांशीरामजी ने मुझसे कहा, ”देखा खोब्रागडे, मैं तुमसे पहले ही कह रहा था ना कि जब तक उन्हें उचित लगा, उनके हित में लगा तब तक वे हमारी गतिविधियों को ब्लैकआउट करते रहे परंतु अब जब उन्हें यह एहसास होने लगा है कि अब दलितों की बढ़ती शक्ति की जानकारी उनके अपने आकाओं को देना उनके लिए आवश्यक ह गया है, तब उन्होंने हमारी खबरों का छापना शुरू कर दिया. परंतु हमें सावधान रहना होगा. जब तक उनके हित में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती वे हमारे संगठन के, दलित शोषित समाज के बनते और बढ़ते संगठन के समाचार को ब्लैक आउट करते रहेंगे, परंतु जब वे यह जान जाएंगे कि अब दलितों का संगठन शक्तिशाली होता जा रहा है और उनके लिए समस्या बन सकता है तब वे हमारे समाज को ब्लैकमेल करेंगे. वे ब्लैकआउट और ब्लैकमेल के हथियारों से हमारे आंदोलन को कुचलने का प्रयास करेंगे.”
बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर के पश्चात दलित-शोषित समाज के संगठन की संकल्पना करना, उसकी योजना बनाना और उसे मूर्त रूप देकर अंतिम छोर तक पहुंचाने की सोच और प्रयास अगर किसी ने किया है तो वह कांशीरामजी ने किया. देश के भूगोल और जनसंख्या तथा विभिन्न जातियों का प्रतिशत आदि का उन्हें पूरा ज्ञान था. अगर मैं यह कहूं कि देश में बाबासाहेब के पश्चात संगठन की ऐसी सोच रखनेवाला दूसरा कोई नेता नहीं था तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी. केवल बहुजन समाज में ही नहीं, बल्कि अन्य राजनीतिक दलों में भी ऐसी सोच का एक भी नेता मुझे नजर नहीं आया (आर.एस.एस के अतिरिक्त). समाचार पत्र और पत्रिकाओं का आंदोलन में कितना महत्व और उपयोगिता हो सकती है, यह बाबासाहेब के पश्चात केवल कांशीरामजी ही समझ सके थे. इसीलिए उन्होंने The Oppressed India के अपने पहले ही संपादकीय में 55 दैनिक समाचार पत्र और पत्रिकाएं मिलाकर 100 से अधिक प्रकाशनों की बात कही थी. उनका यह निर्णय और ऐलान तब का था जब बामसेफ की जेब में फुटी कौड़ी बी नहीं थी और पत्रिकाओं को चलाने के लिए प्रशिक्षित पत्रकार भी नहीं थे. उनके इस साहस और सोच की मैं आज भी तारीफ करता हूं. परंतु ऐलान करना और उसको अमलीजामा पहनाना दो अलग बाते हैं. उत्तर प्रदेश ेमं राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति के पश्चात और हजारों, करोड़ों रुपये की उपलब्धि के पश्चात भी वह अपनी योजना के मुताबिक दैनिक समाचार पत्र नहीं चला सके. यह दलित-शोषित समाज के लिए दुर्भाग्य की बात रही. हालांकि उन्होंने इस दिशा में कोशिश तो की परंतु उन्होंने समाचार पत्र और पत्रिकाओं को चलाने के लिए एक भी कार्यकर्ता नहीं मिल सका और उनका 55 दैनिक समाचार पत्रों को चलाने का सपना/एलान अधूरा ही रह गया. संगठन, संस्था और किसी भी आंदोलन को चलाने के लिए मिशनरी कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है. मिशनरी संगठन केवल मिशनरी लोगों के समर्थन के भरोसे ही चल सकता है. यह तो कांशीराम स्वयं ही कहते थे, परंतु बहुजन समाज पार्टी की स्थापना के पश्चात मिशनरी भावना कम होती चली गई.
आज हम प्रजातांत्रिक माहौल में रहते हैं. प्रजातंत्र में विचारों का संघर्ष और युद्ध होता है. जो जितने अधिक से अधिक संख्या में जनमानस को अपने विचारों के साथ जोड़ पाएगा वही अपने ध्येय की प्राप्ति कर सकता है. यह लड़ाई हथियारों की नहीं बल्कि बुद्धि और कलम की है. इस युद्ध में कलम की शक्ति और बुद्धि चार्तुय ही प्रभावी शस्त्र हैं. कांशीरामजी ने कलम की ताकत को
पहचाना तो था परंतु कलम चलानेवालों को दूर कर दिया था. बहुजन समाज के लिए यह बहुत ही दर्दनाक हादसा था, जिसकी क्षति कभी भी पूरी नहीं की जा सकेगी. आर.एस.एस इस बात को अच्छी तरह समझता है, तभी तो आज वह देश पर राज कर रहा है और वह भी निरंकुश शासन चला रहा है. आज बहुजन समाज की कई पत्रिकाएं और साप्ताहित चल रहे हैं. आज हमारे समाज में पत्रकारों की संख्या भी बढ़ रही है. इन प्रयासों को एक निश्चित योजना के तहत जोड़ना जरूरी है. ”दलित दस्तक” की पहल सराहनीय और प्रभावी है. इसका हर अंक एक नए विषय पर परंतु समाज और आंदोलन से संबंधित होता है. दलित दस्तक दलित एवं शोषित समाज का उचित मार्गदर्शन करता रहेगा और कांशीरामजी के मीडिया के सपने को आगे बढ़ाएगा, मेरी ऐसी अपेक्षा है.
लेखक बामसेफ/डीएस4/बसपा के संस्थापक सदस्य हैं. संपर्क- 09970869665

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