Written By- Urmilesh
सुबह-सुबह आज ‘बाबू’ की याद आई। मां-पिता के गये वर्षों गुजर गये पर हर दुख-सुख में, कोई काम करते, खेत-खलिहानों की तस्वीरें देखते या उनसे होकर गुजरते, हंसते-बोलते या अपनी तरफ का कोई खास पकवान खाते हुए, वे अक्सर ही याद आते हैं। जब मैं बहुत दुखी होता हूं, तब तो वे जरूर याद आते हैं। ऐसा लगता है, मानो वो सामने खड़े हैं और मैं उनसे अपना दुख ‘शेयर’ कर रहा हूं या दुख को स्वयं ही बुलाने वाली अपनी गलती उनके सामने स्वीकार कर रहा हूं। आज कुछ यूं हुआ कि अपनी एक पूर्व-सहकर्मी की पोस्ट देखी। उन्होंने अपने सेवानिवृत्त पिता की बागवानी और साग-सब्ज़ियों के प्रति गहरे लगाव पर लिखा था। वह पढ़ते हुए मैं अपनी स्मृतियों के बेहद खूबसूरत गलियारे की सैर करने लगा। मैं गांव की उस खंड़ी में जा पहुंचा, जिसे मौसम-बेमौसम मेरे बाबू फूल-पौधों और साग-सब्जियों से भर देते थे।
मेरे बाबू बहुत छोटे और साधारण किसान थे। कम रकबे वाले। संभवतः इसी के चलते उनको खेती से ज्यादा साग-सब्जी और फल-फूल उगाने का शौक पैदा हुआ होगा। खेती से किसी तरह हमारे छोटे से परिवार का काम भर चल जाता था। उन दिनों गांव के बाहर हमारी एक खंड़ी (अहाते के लिए भोजपुरी शब्द) थी। उसमें हमारे बाबू इतनी सब्जियां उगाते थे कि मोहल्ले के कई घरों के लोग खंड़ी से बेहिचक सब्जियां तोड़ ले जाते। किसी को कभी रोका नहीं जाता। सुबह और शाम, वहीं पर पिताजी की ‘बैठकी’ जमती थी। घर से चाह (चाय के लिए भोजपुरी शब्द) बनवाकर ले आने की जिम्मेदारी यदा-कदा मैंने भी निभाई थी। ‘माई’ बड़का लोटा में चाय देतीं और कपड़े में लपेटकर मैं ले जाता ताकि हाथ न जले। हरी सब्जियों के खेत या कहीं भी उगी हुई हरी सब्जियां देखकर आज भी मुझे अपने दिवंगत बाबू तुरंत याद आ जाते हैं।
मेरा जन्म यूपी के गाजीपुर जिले के एक बड़ी आबादी वाले गांव के एक बहुत मामूली और छोटे किसान परिवार में हुआ। हम दो ही भाई थे। हम दोनों अपने पिता जी को शुरू से आखिर तक ‘बाबू’ और माताजी को ‘माई’ कहते थे। मेरे बाबू सरजू सिंह यादव अपने पिता यानी मेरे बाबा(पूर्वांचल में आमतौर पर दादा को बाबा कहा जाता है) राम करन यादव के इकलौते पुत्र थे। बाबा का निधन बहुत कम उम्र में हो गया था। मेरी आजी का निधन भी बहुत जल्दी हो गया। इस तरह मेरे बाबू बचपन में ही ‘टुअर ‘(अनाथ) हो गये। हम दोनों भाइयों ने सिर्फ अपने बाबा-आजी का जिक्र ही सुना, कभी उनकी तस्वीर भी नहीं देखी। उन दिनों गरीब परिवार भला कहां से फोटो खिंचवाते और वो भी क्यों? पिता निरक्षर रहे क्योंकि उन्हें पढ़ने के लिए स्कूल कौन भेजता। जब वह कुछ बड़े हुए तो संयुक्त खेतिहर-परिवार में जमीन-जायदाद में वाजिब हिस्सेदारी भी नहीं मिली। पर उन्होंने उसे मुद्दा नहीं बनाया।
जब उनकी शादी हुई और मेरी मां उनके जीवन में आईं तो पिता के काका जी आदि यानी पूर्व के साझा परिवार वालों ने काफ़ी कहने-सुनने के बाद थोड़ी सी खेतिहर जमीन दी। वैसे साझा परिवार के पास भी ज्यादा ज़मीन-जायदाद नहीं थी। खेती-बाड़ी के अलावा पशुपालन से वे लोग भी किसी तरह जीवन बसर कर रहे थे। पर ले-देकर खाने-पीने का कोई कष्ट नहीं था। कथित बंटवारे और शादी के बाद हमारे बाबू और माई को काफी समय कष्ट में बिताने पड़े। लेकिन दोनों ने कभी छोटे-मोटे कष्टों की परवाह नहीं की। तरह-तरह के काम-धंधे करके जीवन को सहज और सुंदर बनाने में जुटे रहे। मज़े की बात कि ग़रीबी के बावजूद मेरे मां-पिता ने हमारे पूर्व के साझा परिवार वालों की तरह कभी भी दूध-दही नहीं बेचा। खंड़ी से सब्जियां और खेत से खाने-पीने भर अनाज पैदा होता रहा। पिता जब तक स्वस्थ रहें, खंड़ी में आलू, प्याज, टमाटर, बैंगन, नेनुआ, लौकी, तरोई, लतरा, भिंडी और करैला जैसी सब्जियां और समय-समय पर केला और पपीता जैसे फल भी पैदा होते रहे।
अपनी छोटी साधारण गृहस्थी में बाबू और माई को संभवतः उनके जीवन की सबसे बड़ी कामयाबी तब मिली, जब मेरे बड़े भाई केशव प्रसाद ने यूपी बोर्ड से मैट्रिक पास किया। वह भी अच्छे अंकों के साथ। मेरे खानदान ही नहीं, संभवतः गांव में बसे हमारे समूचे समुदाय में मैट्रिक पास करने वाले वह पहले व्यक्ति बने।
गांव के एक बेहद गरीब किसान के लिए यह बड़े सपने का पूरा होना था। मेरे माई-बाबू शुरू से ही खेत बढ़ाने या ईंटे का घर बनाने की बजाय हम दोनों भाइयों को अच्छी शिक्षा दिलाने का सपना बुनते थे। पता नहीं, शिक्षा और अक्षर-ज्ञान से वंचित हमारे खानदान और समूचे समुदाय में मेरे मां-पिता को अपने दोनों बच्चों को शिक्षित बनाने का ज्ञान या विचार कहां से मिला था? एक बार मैंने अपने पिता से यह सवाल पूछा भी। संभवतः तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए अंतिम वर्ष में था। मेरे पिता ने तनिक गर्व के साथ कहा: ‘तोहार बोड़ भाई अब ‘परफेसर’ (लेक्चरर) बन गइलें, तोहरा के ‘जज’ बनावे क मन बा। अब तोहरा के आ तोहरा भैय्या के फैसला करेके बा कि एकरा खातिर का-का पढ़े के परी। इस कइसो होई।’ मैंने मुस्कराते हुए कहा, ‘भैय्या कलक्टर बनावे चाहत बांडन और तू जज कहत बाड़अ। आ, हमार मन कुछ औरिये कहत-आ।’ उन दिनों मैं किसी उच्च शिक्षण संस्थान में अध्यापकी करते हुए सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण के एक कार्यकर्ता के तौर पर जीवन बिताने का सपना बुन रहा था। वह बात कहने के बाद अपने पिता की आंखों में मैंने खुशी और गर्व की चमक देखी। फिर कुछ ही देर बाद देखा, चश्मा उतारकर वो आंखों में छलक पड़े अपने आंसुओं को पोंछ रहे हैं। इस हालत में देख मैं भी रो पड़ा। फिर वो मुझे पुचकारने लगे।
लंबी कहानी है—लेकिन इसका एक सच ये है कि मैं अपने पिता का सपना पूरा नहीं कर सका। ज़ज नहीं बना। पर अब तक अपने पिता के उस सपने में निहित उनके इच्छित मूल्यों को जीने और उन पर अमल करने में जुटा रहा हूं। अन्याय और अत्याचार के हर खूंखार अंधड़ से जूझने और उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने की हरसंभव कोशिश करता आ रहा हूं।
जिन दिनों मेरे पिता का निधन हुआ, मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी के साथ MA और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU ) से M।Phil करने के बाद बेरोजगार था। कई विश्वविद्यालयों/महाविद्यालयों में इंटरव्यू देकर लगभग निराश हो चुका था। एक इंटरव्यू बंगाल के एक विश्वविद्यालय में होना था, तब तक पिता के गुजर जाने की बुरी खबर मिली। मैं उन दिनों दिल्ली की एक सरकारी कॉलोनी के एक छोटे से कर्मचारी क्वार्टर में रहता था। जीवन-यापन के लिए पत्रकारिता (फ्रीलांस) और अनुवाद आदि का काम शुरू कर चुका था। किसी तरह रूपये-पैसे का जुगाड़ कर गांव पहुंचा। भैय्या नजदीक थे, इसलिए वह पहले ही पहुंच चुके थे। आजीवन यह दुख मुझे सालता रहता है कि मैं उनके अंतिम समय तक रोजगार में नहीं रहा और अपनी इच्छानुसार उनकी अच्छी देख-भाल नहीं कर सका।
पंद्रह बीस दिनों बाद गांव से दिल्ली लौटा तो मैंने फिर कभी किसी शिक्षण-संस्थान में लेक्चरशिप के लिए न तो कोई नया आवेदन किया और न ही कहीं इंटरव्यू देने गया। पत्रकारिता में औपचारिक तौर पर दाख़िल होने का फ़ैसला कर लिया था। उन दिनों एक फ्रीलांसर के तौर पर ‘जनसत्ता’, और ‘प्रतिपक्ष’ आदि में खूब लिखता था। पत्रकारिता ही करनी है, इस फैसले के बाद नौकरी की सबसे पहली कोशिश ‘जनसत्ता’ और ‘अमृत प्रभात’ में की थी। दोनों जगह सफल नहीं हुआ। ‘जनसत्ता’ में तो लिखित-परीक्षा लेने के बाद भी नौकरी नहीं मिली। शीर्ष निर्णयकारी-व्यक्ति ने नतीजे के बारे में पूछने पर बस इतना कहा: ‘लिखते रहिए।’ वो तो मैं पहले से ही लिख रहा था।
कुछ ही समय बाद Times of India group के हिंदी अखबार ‘नवभारत टाइम्स’ में नये पत्रकारों की नियुक्ति के लिए लिखित परीक्षाएं हुईं। उन दिनों देश के प्रतिष्ठित पत्रकार राजेंद्र माथुर अखबार के प्रधान संपादक थे। बगैर तैयारी के परीक्षा में बैठ गया। बाद में रिजल्ट आया तो मुझे बताया गया कि जितने लोग (कुछ सौ) परीक्षा में बैठे थे, उनमें सफल अभ्यर्थियों के बीच मेरा दूसरा स्थान है। इस तरह पत्रकारिता की औपचारिक और संस्थागत शुरुआत सन् 1986 के अप्रैल महीने में ‘नवभारत टाइम्स’ के पटना संस्करण से ही हुई। इससे पहले कई छोटे-बड़े अखबारों और साप्ताहिकों के लिए जमकर लिखा या अंशकालिक तौर पर काम भी किया। ‘नवभारत टाइम्स’ में काम करते हुए ही मेरी पहली किताब ‘बिहार का सच’ (सन् 1991) में छपी। उसे अपने दिवंगत पिता को समर्पित किया। मेरे पास और था ही क्या, ‘बाबू’ की स्मृति को अपने पास सहेज कर रखने का।
यह संस्मरण वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश जी ने फादर्स डे के मौके पर अपने पिता को याद करते हुए फेसबुक पर लिखा है। उनके फेसबुक वॉल से साभार प्रकाशित।
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वास्तविक बानगी,
उर्मिलेशजी की भावपूर्ण वाणी में.
….. नायाब…..
Adv.वेदपाल धानोठी (चूरू,राजस्थान)
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