देश में फिलहाल चारो ओर गुजरात चुनाव की चर्चा है। अखबारों और टेलिविजन में हर दिन गुजरात चुनाव की खबरें दिख रही है। इस बीच 27 नवंबर को जिग्नेश मेवाणी ने चुनाव लड़ने की घोषणा कर के गुजरात चुनाव को नया मोड़ दे दिया है। मेवाणी बनासकांठा जिले के वडगांव सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में हैं। यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है।
इस सीट पर कांग्रेस के मनीभाई वाघेला विधायक हैं। लेकिन मेवाणी के चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद कांग्रेस ने इस सीट पर अपना प्रत्याशी नहीं उतारने की घोषणा की है और मेवाणी को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देने को कहा है। आम आदमी पार्टी भी जिग्नेश मेवाणी के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतार रही है। हालांकि बहुजन समाज पार्टी और भाजपा का उम्मीदवार मेवाणी के खिलाफ चुनाव मैदान में हैं।
मेवाणी के चुनाव मैदान में उतरने के बाद गुजरात में राजनीति गरमा गई है। मेवाणी को घेरने के लिए विपक्षी दलों ने तमाम कोशिश शुरू कर दी है। इसी का नतीजा तब देखने को मिला जब तकरीबन एक साल पुराने मामले में अचानक जिग्नेश मेवाणी के खिलाफ 28 नवंबर को गैर जमानती वारंट जारी कर दिया गया। अहमदाबाद की एक अदालत ने जिग्नेश मेवाणी के खिलाफ यह वारंट जारी किया है। जिस मामले में मेवाणी के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया गया है, वह जनवरी महीने का है।
11 जनवरी को वाइब्रेंट गुजरात शिखर सम्मेलन के खिलाफ एक ‘रेल रोको’ विरोध प्रदर्शन के दौरान अहमदाबाद रेलवे स्टेशन पर राजधानी एक्सप्रेस को काफी देर तक रोकने के आरोप में मेवाणी और उनके समर्थकों को गिरफ्तार किया गया था। जनवरी में एक विरोध प्रदर्शन के दौरान दिल्ली जा रही राजधानी एक्सप्रेस को रोकने को लेकर उनके खिलाफ एक मामला दर्ज था। इस मामले की सुनवाई के लिए पेश नहीं होने को लेकर अदालत ने उनके खिलाफ यह वारंट जारी किया है। उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 143 (गैरकानूनी सभा करने), 147 (दंगा) और भारतीय रेल अधिनियम की संबंधित धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है।
हालांकि मेवाणी के वकील शमशाद पठान ने अपने मुवक्किल को पेशी से छूट दिये जाने की मांग को लेकर अदालत में आवेदन दिया था। पठान ने इस आधार पर छूट की मांग की थी कि उनका मुवक्किल वडगाम विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर नामांकन पत्र भरने में व्यस्त था, हालांकि मजिस्ट्रेट ने इस पर विचार करने से मना कर दिया और वारंट जारी कर दिया।
खैर, अदालतों का अपना काम है और हम उस पर टिप्पणी नहीं कर रहे हैं लेकिन यहां महाराष्ट्र के राज ठाकरे के मामलों को याद करना होगा। बात 2008 की है। मनसे के निर्माण के बाद अपनी राजनीति चमकाने के लिए राज ठाकरे के कार्यकर्ताओं ने मुंबई में एक प्रतियोगी परीक्षा देने गए उत्तर भारतीयों को जमकर पीटा। बिहार के कई हिस्सों में उनके खिलाफ कोर्ट में मुकदमें दायर किए गए, लेकिन राज ठाकरे एक बार भी बिहार के किसी अदालत में हाजिर नहीं हुए, आज वो मामला सारे लोग भूल चुके हैं। लेकिन मेवाणी को राहत नहीं मिल सकी।
खैर, अब फिर से आते हैं गुजरात चुनाव पर। जिस जिग्नेश मेवाणी को एक साल पहले पूरे गुजरात के लोग भी नहीं जानते थे, आखिरकार गुजरात चुनाव में वो इतना महत्वपूर्ण होकर क्यों उभर गए हैं? असल में गुजरात में युवा दलित नेता के तौर पर उभरे जिग्नेश पेशे से वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। मेवाणी राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच के संयोजक भी हैं। ऊना में गोरक्षा के नाम पर दलितों की पिटाई के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन का जिग्नेश ने नेतृत्व किया था। ‘आज़ादी कूच आंदोलन’ में जिग्नेश ने 20 हज़ार दलितों को एक साथ मरे जानवर न उठाने और मैला न ढोने की शपथ दिलाई थी। इस आंदोलन में दलित-मुस्लिम एकता भी दिखाई दी थी।
मेवाणी इसी दलित-मुस्लिम एकता को अपने पक्ष में आगामी विधानसभा चुनाव में भी बनाए रखना चाहते हैं। मेवाणी के इसी गठजोड़ के चलते कांग्रेस उनसे समझौता करने को तैयार हो गई। जहां तक गुजरात में दलितों के दखल की बात है तो राज्य में दलितों का वोट प्रतिशत क़रीब सात फ़ीसदी है। राज्य की कुल आबादी लगभग 6 करोड़ 38 लाख है, जिनमें दलित 35 लाख 92 हज़ार के क़रीब हैं।
अब सवाल उठता है कि गुजरात के दलितों के बीच जिग्नेश मेवाणी की कितनी पकड़ है। इसके लिए बोरतवाड़ा का उदाहरण लिया जा सकता है जहां से लौटने के बाद बीबीसी की संवाददाता प्रियंका दूबे ने बीबीसी के लिए एक रिपोर्ट लिखी है।
बोरतवाड़ा को अनुसूचित जाति/जनजाति के तहत आरक्षित सीट घोषित किया गया। गांव में आरक्षित सीट पर हुए इस पहले पंचायत चुनाव को 12 वोटों से जीत कर महेश ने अप्रैल 2017 में सरपंच का कार्यभार संभाला। पर दो महीने के भीतर ही गांव की पंचायत कमेटी उनके ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव ले आई। वजह महेश का दलित होना है। एक दलित होने के कारण पंचायत कमेटी के सदस्य उन्हें पसंद नहीं करते। महेश का कहना है कि उन्हें गांव के 3200 आम लोगों ने वोट देकर सरपंच चुना लेकिन पंचायत कमेटी के पांच ठाकुर उन्हें यानि महेश को और पंचायत को काम नहीं करने देते.”
महेश जिग्नेश मेवाणी को अपना नेता मानते हैं। उनका साफ कहना है कि हम उसी को वोट देंगे जो गुजरात के दलितों के लिए जिग्नेश की 12 मांगों को मानेगा. अगर मांगें नहीं मानी गईं तो नोटा दबा देंगे. यानि इसमें कोई शक नहीं है कि गुजरात में दलितों के साथ खड़े होकर जिग्नेश मेवाणी ने उनके बीच अपनी जगह बनाई है। हां, कितनी जगह बना पाए हैं, इस सवाल का जवाब 182 विधानसभा सीटों वाले गुजरात में 9 और 14 दिसंबर को चुनाव के बाद 18 दिसंबर को रिजल्ट के बाद मिलेगा।

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।