कैट-2017: 9 अगस्त से 20 सितंबर तक कर सकेंगे आवेदन

नई दिल्ली: भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) सहित शीर्ष MBA संस्थानों में दाखिले के लिए होने वाले कॉमन ऐडमिशन टेस्ट (कैट) का नोटिफिकेशन जारी कर दिया गया है. आवेदन प्रक्रिया 9 अगस्त से शुरू होगी. इस बार यह परीक्षा 26 नवंबर को आयोजित की जाएगी. यह जानकारी इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, लखनऊ (IIM-L) ने नोटिफिकेशन जारी कर दी है.

महत्वपूर्ण तारीखें 9 अगस्त : कैट-2017 का रजिस्ट्रेशन शुरू होगा 20 सितंबर : रजिस्ट्रेशन बंद होगा 18 अक्टूबर : परीक्षार्थ‍ियों का एडमिट कार्ड जारी किया जाएगा 26 नवंबर: कैट-2017 परीक्षा आयोजित होगी

ज़ारी नोटिफिकेशन के अनुसार अभ्यर्थी कैट-2017 की वेबसाइट पर 9 अगस्त से 20 सितंबर तक आवेदन कर सकेंगे, जबकि 26 नवंबर को यह परीक्षा देशभर के 140 शहरों में आयोजित की जाएगी. मीडियो रिपोर्ट के अनुसार यह टेस्ट 180 मिनट का होगा. यह सुचित कर दें कि कैट में आने वाले स्कोर के आधार पर ही देश के 20 आईआईएम और 100 बिजनेस स्कूल्स में दाखिला मिलता है.

बहनजी की हर बैठक में पहुंचेंगे ढाई लाख कार्यकर्ता

नई दिल्ली। भाजपा के खिलाफ संघर्ष का ऐलान कर चुकीं बहनजी 18 सितंबर से सड़कपर उतरने जा रही हैं. तय कार्यक्रम के मुताबिक बहनजी जी हर दो मंडल को मिलाकर एक बैठक लेंगी. खबर यह है कि हर बैठक में कम से कम ढाई लाख कार्यकर्ता शामिल होंगे. इस बैठक को सफल बनाने में लगी बसपा की टीम ने यह तय किया है कि कार्यकर्ता सम्मेलन में हर विधानसभा से पांच हजार लोग पहुंचें. बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने 4 अगस्त को दिल्ली में फिर एक बैठक बुलाई है, जिसमें रणनीति पर चर्चा होगी.

पार्टी की अध्यक्ष की ओर से छेड़ी गई इस मुहिम को लेकर पार्टी के तमाम छोटे-बड़े नेता कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं. 18 सितंबर को मेरठ में होने वाले पहले सम्मेलन के लिए ज्यादा दबाव है. पार्टी के नेता इसे रिकार्ड सम्मेलन के रूप में दर्ज कराना चाहते हैं. यहां पर सहारनपुर और मेरठ मंडल के नौ जिलों की रैली होगी. सभी जिलों के 44 सीटों से कार्यकर्ता पहुचेंगे. सम्मेलन को सफल बनाने का जिम्मा 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के प्रत्याशी रहे नेताओं को दिया गया है. यही रैली लोकसभा चुनाव 2019 और विधानसभा चुनाव 2024 के लिए प्रत्याशी चयन का भी आधार होगा.

बसपा की एक बड़ी कोशिश दलित और पिछड़े वोटों को एकजुट बनाए रखने की भी है. इस रैली के जरिए बसपा यह भी साबित कर देना चाहती है कि दलित वोट पार्टी के साथ मजबूती से खड़ा है. आंकड़ों को देखें तो हर जिले में तीन से लेकर सात तक विधानसभा क्षेत्र हैं. सभी दो-दो मंडलो में कम से कम चालीस के आसपास विधानसभा क्षेत्र हैं. इसलिए बीएसपी की तरफ से जिलों में संदेश दे दिया गया है कि रैली में कम से कम ढाई लाख कार्यकर्ता पहुंचने चाहिए.

सेना ने लिखी पीएम को चिट्ठी- देशद्रोह नहीं है असहमति, मुस्लिमों-दलितों पर हमले ठीक नहीं

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नई दिल्ली। देश में आए दिन हो रहे अत्याचारो के खिलाफ सेना के पूर्व अफसरों ने अपनी आवाज बुलंद की है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्रियों के नाम सेना के दिग्गज अफसरों ने एक खुला खत लिखा है. इसके जरिए अफसरों ने देशभर में हुई लिंचिंग की वारदातों के खिलाफ आवाज बुलंद की है और मुसलमानों और दलितों पर हो रहे हमलों की आलोचना की है. 114 पूर्व अफसरों ने इस खत पर दस्तखत कर “Not In My Name” कैम्पेन का भी समर्थन किया है. वहीं खत में यह भी लिखा गया है कि असहमति रखना या मतभेद होने को देशद्रोह करार नहीं दिया जा सकता. रिपोर्ट्स के मुताबिक खत में लिखा गया है, “असहमत होना देशद्रोह नहीं होता बल्कि यह लोकतंत्र का सार होता है. हम इस मुद्दे से आंख नहीं मूंद सकते. हमारे लिए उदार और धर्मनिरपेक्ष उसूलों के लिए नहीं बोलना, देश पर अपकार करने जैसा होगा. हमारी विवधता ही हमारी ताकत है.”

इसके अलावा सैन्य अधिकारियों ने और भी कई बाते कही हैं. खत में लिखा गया है कि आज जो हो रहा है वह सुरक्षा बलों के उसूलों और देश के संविधान के खिलाफ वार करता है. चिट्ठी में लिखा गया है, “हम हिंदुत्व के ठेकेदारों की हिंसा के गवाह नहीं बन सकते. हम मुस्लिमों और दलितों के खिलाफ हो रही हिंसा की कड़ी निंदा करते हैं.” खत में आगे लिखा गया है, हम ‘Not In My Name’ कैम्पेन के साथ हैं जो हजारों लोगों को डर और नफरत के खिलाफ लड़ाई में एकजुट करता है. गलत के खिलाफ हम हमेशा खड़े थे और रहेंगे.

 

भारत का बदलता परिदृश्य: विज्ञान बनाम संस्कृति

भारत में इंजीनियरिंग मैनेजमेंट मेडिसिन या तकनीक की अकेली पढाई पूरी कौम और संस्कृति के लिए कितनी घातक हो सकती है ये साफ नजर आ रहा है. इस श्रेणी के भारतीय युवाओं में समाज, सँस्कृति, साहित्य, इतिहास, धर्म की अकादमिक समझ लगभग शून्य बना दी गयी है. ये तकनीक के “बाबू” देश के लिए बड़ा खतरा बन गए हैं.

अकेली तकनीक,साइंस, मैनेजमेंट या मेडिसिन पढ़ने वालों से कभी बात करो तो पता चलता है कि ये व्हाट्सएप के प्रोपेगण्डा के कितने आसान शिकार हैं. इनमे से अधिकांश लोगों को इतिहास, समाज, सँस्कृति आदि की कोई समझ नहीं है, ये कल्पना भी नहीं कर पाते कि जैसे मेडिसिन या तकनीक की पढ़ाई की अपनी गहराई या ऊंचाई है उसी तरह साहित्य, दर्शन, राजनीति और सामाजिक विमर्श की भी अपनी गहराइयाँ और ऊंचाइयां होती हैं.

ये तकनीक, मेडिसिन, मैनेजमेंट या साइंस के “बाबू” एक खतरनाक और आत्मघाती फौज में बदल गए हैं. दुर्भाग्य की बात ये भी है कि ये लोग सांप्रदायिक, धार्मिक और जातीय दुष्प्रचार के सबसे आसान शिकार हैं. आजकल के बाबाओं और अध्यात्म के मदारियों की गुलामी में इन बाबुओं की पूरी पीढ़ी बुरी तरह फस चुकी है. ये ही अप्रवासी भारतीयों की उस फ़ौज के निर्माता हैं जो विदेश से भारतीय संप्रदायवाद को पैसा और समर्थन भेजते हैं या यूरोप अमेरिका में पोलिटिकल या कोर्पोरेट लाबिंग करते हैं.

भारत मे समाज विज्ञान और मानविकी (ह्यूमेनिटीज) के विषयों की जैसी उपेक्षा और हत्या की गई है वह भयानक तथ्य है. ठीक मिडिल ईस्ट और अरब अफ्रीका के जैसी हालत है, आगे ये हालत और बिगड़ने वाली है. विज्ञान तकनीक मेडिसिन आदि को यांत्रिक ढंग से सीखकर कुछ सवालों के जवाब देने इन्हें आ जाते हैं, कुछ बीमारियों का इलाज करना, कुछ प्रबंधकीय समस्याओं को सुलझा लेना या “यूरोपीय या अमेरिकी” प्रेस्क्रिप्शन पर खड़े मोडल्स को चला लेना इनकी कुल जमा विशेषज्ञता है. ये असल में अच्छे आज्ञापालक हैं जो तकनीकी आज्ञाओं का पालन करके कुछ काम कर लेते हैं.

ये स्वयं अपनी इंजीनियरिंग मेडिसिन या मेनेजमेंट में कितना नवाचार या शोध कर रहे हैं ये जगजाहिर बात है, उस मामले में ये फिसड्डी थे आज भी हैं क्योंकि इनमे क्रिटिकल थिंकिंग की कोई ट्रेनिंग ही नहीं है, ये सिर्फ अपने कुवें के मेंढक बने रहते हैं, जैसे ही यूरोप अमेरिका से कोई नई तकनीक पैदा होकर आती है वैसे ही ये उसका सबसे सस्ता या देसी संस्करण बनाने में लग जाते हैं. इसी से ये खुद को “वैज्ञानिक” भी सिद्ध करवा लेते हैं. फिर आगे बढ़कर इस विज्ञान को वेद उपनिषदों में खोजकर दिखाने वाले बाबाओं के चरण भी दबाने पहुँच जाते हैं. इन अधकचरे तकनीक के बाबुओं की भीड़ से घिरे हुए बाबाजी फिर दुनिया भर में हल्ला मचा देते हैं.

ये बाबू और बाबा समाज में रूतबा रखते हैं, चूँकि इनके पास पैसा होता है कारें होती हैं और कारपोरेट की लूट के ये सीधे हिस्सेदार हैं इसलिए लोग इन्हें समझदार समझते हैं. भारत जैसे गरीब अनपढ़ और अन्धविश्वासी समाज में ज्ञानी और बुद्धिमान वही समझा जाता है जिसके पास पैसा हो बड़ा बंगला या कार हो. ये तकनीक के बाबू इसपर खरे उतरते हैं. इसीलिये ये दुष्प्रचार के सबसे आसान शिकार और उपकरण बन गये हैं.

इनकी अपनी पढाई पर भी गौर किया जाए विज्ञान विषयों की शार्टकट और ट्रिक सीखते हुए ये इंजीनियरिंग मेनेजमेंट या मेडिसिन की पढाई में प्रवेश करते हैं. ऊपर से धन कमाने की मशीन बन चुके कोचिंग संस्थान इन्हें इंसान भी नहीं रहने देते. जिस विज्ञान की ये ढपली बजाते हैं उस विज्ञान और तकनीक को भी एकदम भक्तिभाव से घोट पीसकर चबा जाते हैं कोई क्रिटिकल थिंकिंग नहीं की जाती. कोचिंग या तैयारी के दौरान पैसा खर्च करके बिलकुल रट्टा घोटा मारकर जैसे ये कालेज में घुसते हैं वसे ही बाहर निकलते हैं और पैसा कमाने की मशीन बन जाते हैं, तब ये भीड़ यथास्थिति बनाये रखना चाहती है ताकि इनके माता पिता ने अपनी क्षमता से बाहर जाकर भले बुरे ढंग से कमाते हुए इनपर जो खर्च किया है वह इस समाज से वसूल किया जा सके. ये अर्थशास्त्र भारत के भविष्य पर भारी पड़ रहा है. इसके कारण ये धनाड्य लेकिन अनपढ़ पीढी भारत में सामाजिक बदलाव या क्रान्ति की सबसे बड़ी दुश्मन बनकर उभर रही है.

ऐसी यथास्थितिवादी और सुविधाभोगी ‘कुपढ़’ भीड़ को हांकना धर्म, सम्प्रदायाद और राष्ट्रवाद के लिए बहुत आसान है. वे बड़े पैमाने पर हांके जा रहे हैं. इन लोगों पता ही नहीं कि वे अपने और अपनी ही अगली पीढ़ियों की कब्र खोद रहे हैं.

इस “तकनीक की बाबू” पीढ़ी से अब इतना बड़ा खतरा पैदा हो चुका है जिसका कोई हिसाब नहीं. ये पीढी चलताऊ राष्ट्रवाद, अध्यात्म, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और अतीत पर गर्व इत्यादि के बुखार में सबसे आसानी से फसती है और जहर फैलाने को तैयार हो जाती है. ये पीढी भारत के सभ्य और समर्थ होने की दिशा में एक बड़ी बाधा बनकर उभर रही है. इस पीढी को या अगली पीढी को अगर मानविकी विषयों, साहित्य, काव्य, इतिहास दर्शन आदि की थोड़ी समझ नहीं दी गयी तो ये सामूहिक आत्मघात के लिए बेहतरीन बारूद बन जायेंगे जिसे कोई भी सनकी तानाशाह या धर्मांध सत्ता आसानी से जब तब सुलगाती रहेगी.

लेखक पीएचडी स्कॉलर हैं.

गैर-आदिवासियों ने किया आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा

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रायगढ़। रमन सरकार छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की जमीन हड़पने से बाज नहीं आ रही है. आदवासियों को मिलने वाली सुविधाओं पर सरकार और सरकारी कर्मचारी ऐसा पेंच फंसाते है कि आदिवासी उन सुविधाओं का लाभ ही न उठा पाए. ऐसा ही एक मामला छत्तीसगढ़ के रायगढ़ से सामने आया है. जहां आदिवासियों की जमीनों पर गैर आदिवासियों ने कब्जा कर रखा है.

प्राप्त जानकारी के मुताबिक तहसीलों से आदिवासियों की जमीन वापस करने के लिए हुए आदेश के बाद भी 320 प्रकरणों के 992 एकड़ जमीन में गैर आदिवासियों का कब्जा है. अभी तक उक्त जमीन में राजस्व विभाग के अधिकारी मूल आदिवासियों को कब्जा नहीं दिला पाए हैं. इसके कारण मूल आदिवासी तहसील से हुए आदेश की प्रति लेकर कार्यालय के चक्कर काटने को मजबूर हो रहा है, लेकिन अधिकारी इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं.

सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार जिले के 6 अनुविभाग में 3813 प्रकरण आए हैं जिसके अनुसार 1196 प्रकरण में आदिवासियों के पक्ष में निर्णय हुआ है जिसके अनुसार 2675 एकड़ जमीन वापस मूल आदिवासियों के नाम पर रिकार्ड संधारण करते हुए मौके पर कब्जा दिलाने का प्रावधान है.

इसी कड़ी में राजस्व विभाग ने महज 873 प्रकरण में 1682 एकड़ जमीन में मूल आदिवासियों को कब्जा दिला पाई है. शेष 320 प्रकरण में 992 एकड़ जमीन में आज भी गैर आदिवासियों का कब्जा है. जबकि इसमें तहसील से खाली करने के मूल आदिवासी को जमीन वापस दिलाने के लिए आदेश हो चुका है.

इसमें से कई तो ऐसे प्रकरण है जिनको निर्णय हुए करीब लंबे समय बीत गए हैं और मूल आदिवासी अपनी जीविकोपार्जन के लिए उक्त जमीन पर कृषि कार्य करने के लिए कब्जा करना चाह रहा है, लेकिन राजस्व विभाग के अधिकारियों द्वारा कब्जा दिलाने की कार्रवाई न करने के कारण वह रोज कार्यालयों के चक्कर काटने को मजबूर है.

कब्जा वापस दिलाने के लिए शेष प्रकरण पर गौर किया जाए तो दो अनुविभाग धरमजयगढ़ और घरघोड़ा का ही है. इसमें घरघोड़ा में 305 प्रकरण और धरमजयगढ़ में 15 प्रकरण लंबित है जिसमें गैर आदिवासियों से जमीन लेकर आदिवासियों को जमीन वापस दिलाना है.

जिले में इसलिए नहीं होती है कार्रवाई – आदिवासी जमीन गैर आदिवासियों द्वारा लिए जाने के बाद कई मामलों में उक्त जमीन में निर्माण कार्य कर लिया गया है. ऐसे में जब मूल आदिवासी को जमीन वापस दिलाने की बात सामने आ रही है तो विभाग के अधिकारी निर्माण कार्य को लेकर पीछे हटते हुए नजर आ रहे हैं. जिसका खामियाजा मूल आदिवासी को भुगतना पड़ रहा है.

36 सौ प्रकरण का हुआ है निराकरण- जिले के 6 अनुविभाग में कुल 3833 प्रकरण दर्ज किया गया था जिसमें से कुल 3619 प्रकरण का निराकरण किया गया है. इसमें से आदिवासियों के पक्ष में 1196 प्रकरण में निर्णय लिया गया है तो वहीं शेष 2406 प्रकरण में दूसरे पक्ष में निर्णय हुआ है. बताया जाात है कि कई में आदिवासी ने खरीदी किया है तो कई में नियमों का पालन किया गया है.

खेलमंत्री चेतन चौहान की विधानसभा में दलित गांव से बड़ा भेदभाव

अमरोहा। दलितों को परेशान करने के लिए सरकार अलग-अलग तरीके ढूढ़तीं रहती है. कभी दलितों से छुत-पात किया जाता है तो कभी उन्हें सरकारी सुविधाओं से वंचित करने के मामले सामने आते हैं. ताजा घटना उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले की है जहां प्रशासन का कई सालों से किया भेदभाव संज्ञान में आया है. बता दें की अमरोहा जिले में कुल चार विधानसभा हैं जो क्रमश: हसनपुर, धनौरा, अमरोहा व नौगांवा है.

असल में मामला यह है की मुबारकपुर कलां नाम के एक गांव का है जोकि हसनपुर विधानसभा मुख्यालय, तहसील हसनपुर से मात्र 200 मीटर दूर झकड़ी रोड पर बसा है पर इसे राजनीति और भेदभाव के कारण 40 किलोमीटर दूर नौगांवा विधानसभा में डाल दिया गया है. बता दें 3000 हजार से अधिक जनसंख्या वाले मुबारकपुर कला गांव में सभी ग्रामवासी दलित वर्ग से आते हैं. यह गांव आस पास के कई किलोमीटर के गावों में दलित आबादी में पहले स्थान पर है पर विकास के नाम पर यहां आजादी के 70 वर्षों में कुछ नहीं हुआ. दलित बहुल्य होने के कारण इस गांव से भेदभाव बड़े पैमाने पर जारी है. यह गांव हसनपुर विधानसभा से एकदम सटा हुआ है जिस कारण गांव के लोग इसे हसनपुर नगर पालिका में शामिल करने की मांग वर्षों से कर रहे हैं. उन्हें उम्मीद थी कि इससे गांव का विकास हो सकता है. लेकिन प्रशासन के नुमाईंदों ने इस गांव के साथ इतना बड़ा मजाक किया कि उसे सुनकर हर कोई चौक रहा है.

असल में हसनपुर से चालीस किमी दूर स्थित नौगांवा सादात कस्बे के नाम पर कुछ नेताओं ने अधिकारियों से सांठ-गांठ करके विधानसभा सीट में अपनी मर्जी से गांवो को जुड़वा दिया है, जिसके लिए परिसीमन में पूरी कोताही बरती गयी. हसनपुर विधानसभा सीट से मात्र 200 मीटर दूरी होने के बाद भी गांव को नौगांवा सादात में जबरदस्ती जोड़ दिया गया. पहले से भेदभाव के शिकार दलितों के इस गांव के लोगों को परेशान करने का एक यह निराला ढंग खोजा गया.

सरकारी सुविधाओॆ के मामले में इस गांव का बुरा हाल है. गांव में टूटी सड़कें, जलभराव, बिजली, पानी की समस्याऐं गांव की बदहाली को हर ओर से बयां कर रहीं हैं. पर गांव के गरीब दलित हर बार चुनाव में वोट मांगने वालों द्वारा ठगे जाते रहे हैं. इस बार नौगांवा विधानसभा सीट से उत्तर प्रदेश के खेल मंत्री चेतन चौहान विधायक हैं जो भारत के मशहूर क्रिकेटर भी रहे हैं पर गांव से मंत्री जी की दूरी पहले विधायको की तरह ही है. न सड़के बनी है न ढंग की बिजली है और कोई परेशानी हो तो गांववालो को 40 किमी दूर शिकायत करने जाना पड़ता है. इसलिए गांव वालो की सबसे पहली पहली मांग गांव को हसनपुर विधानसभा से जोड़ने की हैं जिससे उन्हें उपेक्षा और भेदभाव से मुक्ति मिल सके.

लोकसभा में घिरी मोदी सरकार- बजरंग दल, गौरक्षकों को उकसाने का लगा आरोप

नई दिल्ली। संसद में विपक्ष की ओर से बीजेपी को कई मुद्दों पर घेरा गया जिनमें गौरक्षा और हिंदू रक्षा के नाम पर बनाये गये संगठनो की आलोचना भी प्रमुख रूप से रही. उच्च सदन राज्यसभा में जहां गुजरात में कांग्रेस विधायकों की खरीद-फरोख्त का मुद्दा उठा, वहीं लोकसभा में नेता विपक्ष मल्लिकार्जुल खड़गे ने गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा का मुद्दा उठाया. खड़गे ने केंद्र की भाजपा सरकार पर आरोप लगाया कि वह देश की आबो-हवा बिगाड़ना चाहती है और भय का माहौल बनाना चाहती है. खड़गे ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही भाषणों में गौरक्षा के नाम पर हिंसा को बर्दाश्त नहीं करने की बात करते हों लेकिन असल में उनकी सरकार के मंत्री, सांसद और उनकी पार्टी के विधायक और अन्य नेता ही गौरक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा हत्या को प्रोत्साहित करते हैं. उन्होंने कहा कि आज पूरे देश में भय और आतंक का माहौल है. भीड़ द्वारा हत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है.

नेता विपक्ष ने कहा कि मोदी सरकार परोक्ष रूप से विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी), बजरंग दल और गौरक्षकों की मदद कर रही है. उन्होंने कहा कि भाजपा शासित राज्य खासकर झारखंड और मध्य प्रदेश मॉब लिंचिंग सेन्टर बन चुके हैं. खड़गे ने अपने भाषण में सहारनपुर और नई दिल्ली से पलवल के बीच चलती ट्रेन में जुनैद की भीड़ द्वारा पीट- पीटकर की गई हत्या का भी जिक्र किया.

खड़गे ने पीएम मोदी पर हमला करते हुए कहा कि आप एक्शन की बात करते हैं लेकिन क्या आप बता सकते हैं कि आपने इन बहशी तथाकथित गौरक्षकों पर क्या कार्रवाई की है. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री ने जिस दिन हिंसक भीड़ द्वारा हत्या की आलोचना की और कार्रवाई की बात कही, उसी दिन ऐसी घटनाएं फिर घटीं. खड़गे ने कहा कि पीएम ने इस मामले में शीघ्र और कठोर कार्रवाई की बात कही थी लेकिन कुछ नहीं हुआ. उन्होंने सीधे-सीधे प्रधानमंत्री से पूछा, आप सदन को बताएं कि इस संबंध में आप ने क्या कदम उठाए हैं. इतने सवालो के बाद भी प्रधानमंत्री द्वारा किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं दी गयी.

शपथ लेते ही सीएम नीतीश के पैर में गिरे बीजेपी के मंत्री

पटना। बीजेपी की गोद में बैठने के बाद नीतीश का जलवा खूब उभर रहा है चूकिं सीएम नीतीश कुमार की कैबिनेट का विस्तार हो गया है. कुल 26 विधायकों ने मंत्री पद की शपथ ली. जब मंत्री शपथ ले रहे थे तो लोगों की नजर बिहार बीजेपी विधायक राणा रंधीर सिंह पर टिक गई. जैसे ही राणा रंधीर सिंह ने मंत्री पद की शपथ ली उन्होंने दंडवत होकर नीतीश के पैर छू लिये.

शपथ ग्रहण समारोह के बाद राणा रंधीर सिंह मंच से नीच उतरे और सभी का अभिवादन करने लगे, इस दौरान जब नीतीश कुमार उनके सामने आए तो उन्होंने सीएम का पैर छूकर आशीर्वाद लिया. हालांकि सीएम इस दौरान उन्हें ऐसा करने से रोकते रहे. इसके बाद मंत्री राणा रंधीर सिंह हाथ मिलाकर और पैर छूकर लोगों से मिलने रहे. राणा रंधीर सिंह पूर्वी चंपारण के मधुबन सीट से विधायक बने हैं. राणा रणधीर सिंह राजपूत जाति से आते हैं और बीजेपी कोटे से मंत्री बने हैं. राणा रंधीर सिंह पूर्व सांसद सीताराम सिंह के बेटे हैं.

बता दें कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शनिवार 29 जुलाई को को अपना मंत्रिमंडल विस्तार किया. राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी ने शनिवार को 26 विधायकों को मंत्री पद और गोपानीयता की शपथ दिलाई. नीतीश मंत्रिमंडल में भारतीय जनता पार्टी कोटे से 11, जनता दल से 14 और लोक जनशक्ति पार्टी से एक विधायक को जगह दी गई है.

बसपा में शामिल हुए पूर्व सांसद, अरविंद होंगे सलेमपुर से प्रत्याशी

देवरिया। बहुजन समाज पार्टी जोन इंचार्ज घनश्याम चंद्र खरवार ने रविवार (30 जुलाई) को कहा कि योगी सरकार विकास के मुद्दे पर फेल हैं. गाय और गंगा के अलावा कोई काम नहीं हो रहा है. कानून व्यवस्था बदतर हालात में है. वह रविवार को जिला पंचायत के सभागार में देवरिया-कुशीनगर के पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं की बैठक को संबोधित कर रहे थे.

बहुजन समाज पार्टी ने जिले में बड़ी राजनीतिक उलट फेर करते हुए सपा के पूर्व सांसद हरिवंश सहाय के बेटे अरविंद सहाय को सलेमपुर से लोकसभा का प्रत्याशी घोषित कर दिया है. रविवार बसपा के जोन इंचार्ज घनश्यामचंद्र खरवार ने जिला पंचायत सभागार में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक में इसकी घोषणा की.

बैठक शुरू होते ही जोन इंचार्ज घनश्यामचंद्र खरवार ने पूर्व सांसद हरिवंश सहाय व उनके बेटे अरविंद सहाय के बसपा में शामिल होने की घोषणा की. इन दोनों के अलावा विभिन्न दलों के करीब दर्जन भर अन्य नेता भी बसपा में शामिल हुए हैं. हरिवंश सहाय 1996 में सपा के टिकट पर सलेमपुर से सांसद चुने गए थे.

2014 में भी सपा ने इन्हें टिकट दिया था, लेकिन चुनाव हार गए. बसपा में शामिल होने के बाद पूर्व सांसद ने कहाकि अब मेरी उम्र 82 वर्ष हो चुकी है. ज्यादा भागदौड़ नहीं कर सकता, ऐसे में बेटे के लिए प्रचार करूंगा. उन्होंने भविष्य में कोई चुनाव लड़ने की संभावना से भी इंकार किया. सपा छोड़े जाने की बात कहा कि वे पार्टी नेतृत्व से नाराज होकर नहीं बल्कि परिस्थितिवश यह निर्णय ले रहे हैं.

खरवार ने  कहा कि दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों का उत्पीड़न बढ़ गया है. प्रदेश की जनता मायावती के मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल की सराहना कर रही है. डॉ. मदन राम ने कहा कि प्रदेश में अराजकता का माहौल है. भगवाधारी लोग कानून को हाथ में ले रहे हैं. पूर्व मंत्री कल्पनाथ ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में धांधली 2017 के चुनाव में सामने आई. कार्यकर्ता अब जागरूक हो गए हैं। भाजपा की मंशा को कामयाब नहीं होने देंगे. इस अवसर पर जोन इंचार्ज घनश्याम चंद्र खरवार के अलावा मुख्य जोन इंचार्ज दिनेश चंद्रा,जोन इंचार्ज कल्पनाथ बाबू, डा. मदनराम, रामसूरत चौधरी, सुरेश कुमार गौतम व जिलाध्यक्ष ईं अंबरीश कुमार मौजूद रहे.

बसपा से सलेमपुर के लोकसभा प्रत्याशी बनाए गए अरविंद सहाय(43) भाटपाररानी की कुकुरघांटी ग्राम पंचायत से निर्विरोध क्षेत्र पंचायत सदस्य रह चुके हैं. दर्शनशास्त्र से एमए करने के बाद इन्होंने एमएड व पीएचडी की उपाधि हासिल की. वर्तमान में ये चौधरी चरण सिंह महाविद्यालय बरईपार पाण्डेय के कार्यवाहक प्राचार्य हैं. 2001 में ये समाजवादी युवजनसभा के जिला महासचिव भी रह चुके हैं.

दलितों-आदिवासियों के घर खाना खाने वाले नेताओं ने वहां क्या देखा?

रीवा। मैं हाल ही में मध्य प्रदेश के अपने 3 दिन के कार्यक्रम से लौटा हूं. इन तीन दिनों में मैंने मध्यप्रदेश के सीमवर्ती जिले रीवा का एक छोर से दूसरे छोर तक दलितों और आदिवासियों के साथ गुज़ारा. जन सम्मान पार्टी का मुखिया होने के नाते मैंने रीवा के त्योंथर ज़िले के कोरांव गांव में पिछले पंद्रह दिन से चल रहे अनशन में 20 जुलाई को हिस्सा लिया, और गांव में एक बड़ी जनसभा को सम्बोधित भी किया. इसी गांव में मैंने साथियों के साथ खाना भी खाया. लेकिन, यहां खाना सार्वजनिक भोज के तौर पर था, इसलिए साथियों ने बाज़ार में सैंकड़ों के हिसाब से मिलने वाली प्लेटों का इस्तेमाल किया था और यह मैदान में था, इसलिए साथियों के घर का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सका.

लेकिन, रीवा ज़िले की गूढ़ तहसील के शिवपुरवा-मझियार में मैंने करीब 40 नेताओं के साथ रणनीतिक चर्चा की और यहां साथियों ने साथी राजेश प्रजापति के यहां मेरे भोजन की व्यवस्था की थी. मेरे साथ जन सम्मान पार्टी के अन्य नेताओं सहित पार्टी के मध्यप्रदेश अध्यक्ष छोटू आदिवासी भी थे. जब में साथियों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में होता हूं, तो मेरा सिद्धांत है कि मैं खाना उन्होंने साथ और किसी ना किसी साथी के घर पर ही खाना खाता हूं, और इसलिए साथी भी अपनी तरफ़ से सर्वश्रेष्ठ भोजन का इंतज़ाम करते हैं. ऐसा ही शिवपुरवा-मझियार में हुआ.

लेकिन बात खाने की ना होकर कुछ और है, जिसपर मैं आपका और देश के उन बड़े नेताओं का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, जो यदा-कदा दलितों और आदिवासियों के यहा भी भोजन करने चले जाते हैं और उनके साथ देश का मीडिया भी भारी मात्रा में रहता है और उनके भोजन और इससे सम्बंधित ख़बरें विस्तार से चैनल और अख़बारों में प्रभावी स्थान भी पाते हैं.

लेकिन, आज तक ना तो नेताओं ने और ना ही मीडिया ने उन दलितों और आदिवासियों के उन बर्तनों पर चर्चा की जिसमें उन्होंने खाना खाया होगा. मैंने दलितों और आदिवासियों के घरों में जब भी खाना खाया है, मैंने पाया कि उनके पास इतने भी बर्तन, थाली, कटोरियां, प्लेट और ग्लास नहीं होते कि वह दो-तीन लोगों को खाना खिला सकें. जब मैंने अपने साथी राजेश प्रजापति के यहां खाना खाया तो वहां भी कई घरों से बर्तन मंगाए गए. लेकिन, थालियां नहीं थीं, बल्कि हमारे सामने खाना जिनमें परोसा गया, वह परातें थीं और हरेक का साइज़, गहराई अलग-अलग थी. ऐसा ही उन कटोरियों का साथ था, जिनमें हमें सब्ज़ी परोसी गई थी.

ग्रामीण क्षेत्रों में यही हमारे प्रत्येक दलित, आदिवासी और पिछड़े की कहानी है. यही वह कहानी है जिसे हरेक व्यक्ति, नेता से लेकर पत्रकार तक सब छुपा रहे हैं. उम्मीद है कि अगली बार जब कोई बड़ा नेता हमारे समाज के लोगों यहां खाना खाने का कर्मकांड करने जाएगा, तो हमारे समाज की साधनहीनता के दर्शन केवल करेगा ही नहीं, बल्कि उसके लिए समाज से सार्वजनिक माफ़ी भी मांगेगा.

यह लेख अशोक भारती ने लिखा है.

भूप सिंह की याद में मनाया जाता है ‘सफाई कर्मचारी दिवस’

31 जुलाई देश भर में “सफाई कर्मचारी दिवस” के रूप में मनाया जाता है. इस दिन दिल्ली, नागपुर और शिमला नगरपालिका में सफाई कर्मचारियों को छुट्टी होती है. इस दिन सफाई कर्मचारी इकठ्ठा हो कर अपनी समस्यायों पर विचार-विमर्श करते हैं और अपनी मांगें सामूहिक रूप से उठाते हैं.

सफाई कर्मचारी दिवस का इतिहास यह है कि 29 जुलाई, 1957 को दिल्ली म्युंसिपल कमेटी के सफाई कर्मचारियों ने अपने वेतन तथा कुछ काम संबंधी सुविधायों की मांग को लेकर हड़ताल शुरू की थी. उसी दिन केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों की फेडरेशन ने भी हड़ताल करने की चेतावनी दी थी. पंडित नेहरु उस समय भारत के प्रधानमंत्री थे. उन्होंने केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों तथा सभी हड़ताल करने वालों को कड़े शब्दों में चेतावनी दी कि उनकी हड़ताल को सख्ती से दबा दिया जायेगा.

30 जुलाई को नई दिल्ली सफाई कर्मचारियों की हड़ताल शुरू हो गई. नगरपालिका ने हड़ताल को तोड़ने के लिए बाहर से लोगों को भर्ती करके काम चलाने की कोशिश की. उधर सफाई कर्मचारियों ने एक तरफ तो कूड़ा ले जाने वाली गाड़ियों को नए भर्ती हुए कर्मचारियों को काम करने के लिए जाने से रोका और दूसरी ओर काम करने वालों से जाति के नाम पर अपील की कि वे उनके संघर्ष को सफल बनायें. हुमायूं रोड, काका नगर, निजामुद्दीन आदि के करीब हड़ताली तथा नए भर्ती सफाई कर्मचारियों की झडपें भी हुईं.

31 जुलाई को दोपहर तीन बजे के करीब भंगी कालोनी रीडिंग रोड से नए भर्ती किये गए कर्मचारियों को लॉरियों में ले जाने की कोशिश की गयी. सफाई कर्मचारियों ने इसे रोकने की कोशिश की. पुलिस की सहायता से एक लॉरी निकाल ली गई. परंतु जब दूसरी लॉरी निकाली जाने लगी तो हड़ताल करने वाले कर्मचारियों ने ज्यादा जोर से इस का विरोध किया. पुलिस ने टिमलू नाम के एक कर्मचारी को बुरी तरह से पीटना शुरू किया. उस पर भीड़ उत्तेजित हो गई और किसी ने पुलिस पर पत्थर फेंके. उस समय मौके पर मौजूद डिप्टी एस.पी. ने भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दे दिया. बस्ती के लोगों का कहना है कि पुलिस ने बस्ती के अन्दर आ कर लोगों को मारा और गोलियां चलायीं. गोली चलाने के पहले न तो कोई लाठी चार्ज किया गया और न ही आंसू गैस ही छोड़ी गयी. कितनी गोलियां चलाई गईं पता नहीं. पुलिस का कहना था कि 13 गोलियां चलायी गईं.

इस गोली कांड में भूप सिंह नाम का एक नवयुवक मारा गया जो कि सफाई कर्मचारी तो नहीं था परन्तु वहां पर मेहमानी में आया हुआ था. जो नगरपालिका सफाई कर्चारियों की 30 जुलाई तक कोई भी मांग मानने को तैयार नहीं थी, हड़ताल शुरू होने के बाद मानने को तैयार हो गयी. हड़ताल के दौरान पुलिस द्वारा गोली चलाये जाने और एक आदमी की मौत हो जाने के कारण सफाई कर्मचारियों में गुस्सा और जोश बढ़ा जो भयानक रूप ले सकता था. बहुत से लोगों ने हमदर्दी जताई और आहिस्ता-आहिस्ता लोग इस घटना को भूलने लगे.

भंगी कालोनी में रहने वाले कर्मचारी नौकरी खो जाने के डर से किसी भी गैर कांग्रेसी राजनीतिक पार्टी को नजदीक नहीं आने देते थे. उधर कर्मचारी इस घटना को भुलाना भी नहीं चाहते थे. वे गोली का शिकार हुए नौजवान भूप सिंह की मौत को अधिक महत्व देते थे, उस की मौत के कारणों को या शासकों के रवैये को नहीं. उनकी भावनायों को ध्यान में रखते हुए इस बस्ती में रहने वाले नेताओं ने भूपसिंह की बर्सी मनाने की प्रथा शुरू कर दी. 1957 के बाद हर वर्ष पंचकुईआं रोड स्थित भंगी कालोनी में “भूप सिंह शहीदी दिवस” मनाया जाने लगा और भूप सिंह को इस आन्दोलन का हीरो बनाया जाने लगा. भूप सिंह की बड़ी सी तस्वीर वाल्मीकि मंदिर से जुड़े कमरे में लगायी गई. इस मीटिंग में हर वर्ष भूप सिंह को श्रदांजलि पेश की जाती है.

बाबासाहेब अम्बेडकर की बड़ी इच्छा थी कि समूचे भारत के सफाई कर्मचारियों को एक मंच पर इकठ्ठा किया जाए. उनकी एक देशव्यापी संस्था बनाई जाये जो उनके उत्थान और प्रगति के लिए संघर्ष करे और उन्हें गंदे पेशे तथा गुलामी से निकाल सके. उन्होंने 1942 से 1946 तक जब वे वाईसराय की एग्जीक्यूटिव कोंसिल के श्रम सदस्य थे, वे उनकी राष्ट्रीय स्तर पर ट्रेड यूनियन बनाना चाहते थे ताकि वे अपने अधिकारों के लिए संगठित तौर पर लड़ सकें. उन्होंने सफाई मजदूरों की समस्याओं के अध्ययन के लिए एक समिति भी बनायीं थी. दरअसलबाबा साहेब भंगियों से झाड़ू छुड़वाना चाहते थे और इसी लिए उन्होंने “भंगी झाड़ू छोडो” का नारा भी दिया था.

सफाई कर्मचारियों पर सब से अधिक प्रभाव गांधी जी, कांग्रेस और हिन्दू राजनेताओं और धार्मिक नेताओं का रहा है. उन्होंने एक ओर तो सफाई कर्मचारियों को बाबासाहेब के स्वतंत्र आन्दोलन से दूर रखा और दूसरी ओर उन्हें अनपढ़, पिछड़ा, निर्धन और असंगठित रखने का प्रयास किया है ताकि वे सदा के लिए हिन्दुयों पर निर्भर रहें, असंगठित रहें और पखाना साफ करने और कूड़ा ढोने का काम करते रहें. दूसरी ओर उनकी संस्थाओं को स्वंतत्र और मज़बूत बनने से रोका. उनकी लगाम हमेशा कांग्रेसी हिन्दुओं के हाथ में रही है.

सफाई कर्मचारियों में हमेशा से संगठन का अभाव रहा है क्योंकि वाल्मीकि या सुपच के नाम से समूचे भारत के सफाई कर्मचारियों को एक मंच पर इकट्ठा नहीं किया जा सकता है. ऐसा करने से उन में जातिगत टकराव का भय रहता है. अतः सफाई कर्मचारियों को बतौर “सफाई कर्मचारी” संगठित करना ज़रूरी है. इसी उद्देश्य से “अम्बेडकर मिशन सोसाइटी” जिस की स्थापना श्रीभगवान दास जी ने की थी, ने 1964 में यह तय किया कि “मजदूर दिवस” की तरह दिल्ली में भी “सफाई कर्मचारी दिवस” मनाया जायेगा ताकि उस दिन सफाई कर्मचारी अपनी समस्याओं और मांगों पर विचार विमर्श कर सकें और उन्हें संगठित रूप से उठा सकें. धीरे-धीरे भारत के अन्य शहरों में भी 31 जुलाई को स्वीपर-डे अथवा सफाई कर्मचारी दिवस के नाम से मनाया जाने लगा. दिल्ली के बाद नागपुर पहला शहर है जहां पर 1978 के बाद से बाकायदा हर वर्ष स्वीपर-डे पब्लिक जलसे के तौर पर मनाया जाता है. इस दिन वहां पर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने, दुर्घटनाओं तथा अपनी सेवाकाल के दौरान मरने वाले सफाई कर्मचारियों को श्रदांजलि पेश की जाती है और अन्य समस्याओं के समाधान के लिए विचार विमर्श किया जाता है. प्रस्ताव पास करके सरकार को भेजे जाते हैं और सफाई कर्मचारियों की उन्नति और प्रगति के लिए प्रोग्राम बनाये जाते हैं.

भगवान दास जी ने अपनी पुस्तक “सफाई कर्मचारी दिवस 31, जुलाई” में “सफाई कर्मचारी दिवस कैसे मनाएं?” में इसे सार्थक रूप से मनाने पर चर्चा में कहा है कि इसे बाल दिवस, शिक्षक दिवस और मजदूर दिवस की तरह मनाया जाना चाहिए. उन्होंने आगे कहा है कि इस दिन जलसे में उनकी व्यवसायिक, आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्था और शिक्षा आदि समस्याओं पर चर्चा करना उचित होगा. शिक्षा के प्रसार खास करके लड़कियों तथा महिलायों की शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए. शिक्षा में सहायता के ज़रूरतमंद छात्र-छात्राओं को पुरुस्कार, संगीत तथा चित्रकारी, मूर्ति कला तथा खेलों को प्रोत्साहन देने तथा छोटे परिवार, स्वास्थ्य और नशा उन्मूलन पर जोर दिया जाना चाहिए. इस जलसे में मंत्रियों और बाहरी नेतायों को नहीं बुलाया जाना चाहिए. बाबा साहेब तथा अन्य महापुरुषों के जीवन संघर्ष आदि से लोगों को परिचित कराया जाना चाहिए ताकि उन्हें इस से प्रेरणा मिले और उनमें साहस एवं उत्साह बढ़े और वे खुद आगे की ओर बढ़ने की कोशिश करें.

वास्तव में सफाई कर्मचारी दिवस को कर्मचारियों में संगठन-जागृति, शिक्षा और उत्थान के लिए पूरी तरह से उपयोगी त्यौहार के रूप में मनाया जाना चाहिए क्योंकि वे ही सब से अधिक शोषित, घृणित और पिछड़ा मजदूर वर्ग है. -एस. आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

सवर्ण ने किया टॅार्चर तो दलित ने कर ली खुदकशी

बरेली। दलितों के उत्पीड़न मामले में यूपी का नम्बर सबसे ऊपर आता है यहां कभी दलित महिलाओं से बलात्कार की घटनाऐं सामने आती हैं तो कभी दलितों को चोरी के इल्जाम में जबरदस्ती फसांया जाता है. ताजा मामला बरेली के बिथरी चैनपुर के नरियावल का है जहां शनिवार शाम को एक युवक ने फंदा लगाकर जान दे दी. आरोप है कि नरियावल बाजार में तीन दिन पहले सराफा दुकान में चोरी के बाद दुकानदार चोरी का इल्जाम लगाकर उसे उठा ले गया. फिर शुक्रवार रात और शनिवार सुबह कमरे में बंद कर मारा गया. अपने ऊपर झूठे इल्जाम और टॉर्चर से तंग आकर दलित युवक ने दोपहर में घर में फंदा लगाकर खुदकशी कर ली.

युवक की पत्नी की तरफ से रात में सर्राफ और उसके साथियों के खिलाफ पति को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में रिपोर्ट दर्ज करा दी गई. खुदकशी करने वाला वीरपाल उर्फ ऋषिपाल (34) पुत्र मंगलीराम मूल रूप से पीलीभीत में बिलसंडा के गांव खजुरिया का निवासी था. लगभग 15 वर्षों से नरियावल में रहकर मजदूरी करता था.

बता दें की नरियावल में तीन दिन पहले जवाहरलाल की अनूप ज्वैलर्स नाम की दुकान में चौकीदार को बंधक बनाकर चोरी हुई थी. अज्ञात बदमाशों के खिलाफ इसकी रिपोर्ट थाने में दर्ज है. वीरपाल की पत्नी पूनम का आरोप है कि ज्वैलर्स दुकानदार उनके पति पर आरोप लगाकर शुक्रवार शाम को जबरन उसे घर से उठा ले गए थे जहां उस युवक की बुरी तरह पिटाई कर देर रात छोड़ा. पर इतने पर भी दंबगो का मन नहीं माना सुबह फिर से घर से उठा ले गए. शनिवार दोपहर लगभग ढाई-तीन बजे वीरपाल घर लौटा तो चेहरे और पीठ पर चोटों के निशान मिले. पत्नी, बच्चों ने पूछा तो किसी से कुछ नहीं बोला. शाम करीब साढ़े चार बजे घर पर पत्नी की साड़ी से फंदा बनाकर लटक गया. काफी देर तक बाहर न आने पर पत्नी भीतर पहुंची तो वीरपाल लटका मिला.

 

अब दलित लड़कियों के लिए हर राज्य में खुलेंगे 5 बोर्डिंग स्कूल

ऩई दिल्ली। भारत में दलित लड़कियां शिक्षा के मामले में बहुत पीछे हैं यह बात किसी से छुपी नहीं है. इसी को देखते हुए केंद्र सरकार ने एक जरूरी कदम उठाया है जिसके तहत सरकार हर राज्य में दलित लड़कियों के लिए 5 बोर्डिंग स्कूल खोलने पर विचार कर रही है.

यह कदम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के तहत लिया जा रहा है. खबर है कि शुरूआत में केंद्र सरकार इन बोर्डिंग का खर्चा उठायेगी तो वहीं तीन साल बाद इन स्कूलों की फंडिंग राज्य सरकार को ही करनी होगी. बता दें की सामाजिक न्याय मंत्रालय के प्रस्ताव के मुताबिक, सरकार उन ब्लॉकों में दलित लड़कियों के लिए बोर्डिंग स्कूल खोलेगी, जो शिक्षा के मामले में काफी पिछड़े हुए हैं. शिक्षा के स्तर को बढ़ावा देने के लिए लक्ष्य को लेकर शैक्षिक रूप से पिछड़े और सामाजिक रूप से कमजोर समुदायों, खासकर उनकी बच्चियों के लिए यह प्रस्ताव काफी लाभप्रद होगा, जिससे उनकी शिक्षा की स्थिति में बड़ा सुधार होगा.

इस नए प्रस्ताव के अनुसार उन राज्यों के पांच जिलों में पांच स्कूल खोले जाएंगे जहां अनुसूचित जाति की संख्या काफी है. आपको बता दें कि स्कूल में छठी से 12वीं कक्षा तक मुफ्त शिक्षा दी जाएगी. इस नए प्रस्ताव के मुताबिक 70 फीसदी सीट SC छात्राओं के लिए आरक्षित रखी जाएंगी और बाकी के 30 फीसदी में अन्य कैटिगरीज जैसे जनरल और OBC को एडमिशन मिलेगा. बता दें की इन बोर्डिंग स्कूलों में दाखिले केवल उन लड़कियों के लिए खुले होंगे जिनके माता-पिता की वार्षिक आय 2.50 लाख रुपये से कम है.

बलिदान दिवसः ऊधम सिंह ने लिया था जलियांवाला बाग का प्रतिशोध

जलियांवाला बाग हत्याकांड का प्रतिशोध लेने वाले क्रांतिकारी ऊधम सिंह का जन्म 29 दिसम्बर 1899 को सरदार टहल सिंह के घर पर हुआ था. ऊधम सिंह के माता-पिता का देहांत बहुत ही कम अवस्था में हो गया था. जिसके कारण परिवार के अन्य लोगों ने उन पूरा ध्यान नहीं दिया. काफी समय तक भटकने के बाद अपने छोटे भाई के साथ अमृतसर के पुतलीघर में शरण ली जहां एक समाजसेवी संस्था ने उनकी सहायता की.

मात्र 20 वर्ष की अवस्था में ही उन्होनें बैशाखी के पर्व पर अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार को अपनी आंखों से देखा. सभी लोगों के घटनास्थल से चले जाने के बाद वे वहां फिर गये और वहां की मिट्टी को अपने माथे पर लगाकर कांड के खलनायकों से बदला लेने की प्रतिज्ञा की. उन्होनें अमृतसर में एक दुकान भी किराये पर ली. अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे अफ्रीका से अमरीका होते हुए 1923 में इंग्लैंड पहुंच गये. वहीं क्रांतिकारियों से उनका संपर्क हुआ. 1928 में वे भगत सिंह के कहने पर भारत वापस आ गये. लेकिन लाहौर में उन्हें शस्त्र अधिनियिम के उल्लंघन के आरोप में पकड़ लिया गया और चार साल की सजा सुनाई गयी. इसके बाद वे फिर इंग्लैंड चले गये.

13 मार्च 1940 को वह शुभ दिन आ ही गया जब ऊधम सिंह को अपना संकल्प पूरा करने का अवसर मिला. इंग्लैंड की राजधानी लंदन के कैक्स्ट्रन हाल में एक सभा होने वाली थी. इसमें जलियांवाला बाग कांड के दो खलनायक सर माइकेल ओ डायर और भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी आफ स्टेट लार्ड जेटलैंड आने वाले थे. ऊधम सिंह चुपचाप मंच की कुछ दूरी पर बैठ गये और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लग गये. सर माइकेल ओ डायर ने भारत के खिलाफ खूब जहर उगला. जैसे ही उनका भाषण पूरा हुआ ऊधम सिंह ने गोलियां उनके सीने पर उतार दीं. वह वहीं गिर गये. लेकिन किस्मत से दूसरा खलनायक भगदड़ की वजह से बचने में कामयाब हो गया. लेकिन भगदड़ का लाभ उठाकर ऊधम सिंह भगे नहीं अपितु स्वयं ही अपने आप को गिरफ्तार करवा लिया.

न्यायालय में ऊधम सिंह ने सभी आरोपों को स्वीकार करते हुए कहा कि मैं गत 21 वर्षों सें प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था. डायर और जैटलैंड मेरे देश की आत्मा को कुचलना चाहते थे. इसका विरोध करना मेरा कर्तव्य था. न्यायालय के आदेश पर 31 जुलाई 1940 को पेण्टनविला जेल में ऊधम को फांसी दी गयी.

स्वतंत्रता प्राप्ति के 27 साल बाद 16 जुलाई 1974 को उनके भस्मावशेषों को भारत लाया गया तथा पांच दिन बाद हरिद्वार में प्रवाहित किया गया.

-By मत्युंजय दीक्षित 

9 गुना बढ़े टमाटर के दाम, बाढ़ और बारिश के कारण और बढ़ सकते है रेट

नई दिल्ली। सप्लाई में कमी की वजह से टमाटर के दाम देश के 17 अहम शहरों में 90 रुपये के निशान को पार कर चुके हैं. इन शहरों में दिल्ली, कोलकाता, इंदौर और तिरुवनंतपुरम जैसी मेट्रो सिटी भी हैं. बारिश और बाढ़ की वजह से टमाटर के दामों में फिलहाल राहत के आसार नजर नहीं आ रहे हैं. वहीं यह स्थिति अगस्त के आखिर तक बनी रह सकती है.

ऐसी भी रिपोर्ट हैं कि प्याज की देश की सबसे बड़ी थोक मार्केट लसलगांव में भी प्याज के दाम तेजी से बढ़ रहे हैं. बताया जा रहा है कि लसलगांव मार्केट में सिर्फ दो हफ्तों में प्याज के दाम दोगुने से ज्यादा हो चुके हैं. शुक्रवार को प्याज के दाम पिछले 19 महीने के सबसे ऊंचे दाम पर थे. स्थानीय मार्केट की कमिटी के एक मेंबर ने बताया कि फिलहाल ताजा स्टॉक मौजूद नहीं है. फिलहाल जो प्याज आ रही है वह स्टोरेज से आ रही है. किसान भी अपना ज्यादातर स्टॉक बेच चुके हैं.

दिल्ली में टमाटर के दाम 92 रुपये प्रति किलो हैं. तीन महीने पहले यह दाम 26 रुपये प्रति किलो थे, जबकि एक साल पहले इन्हीं दिनों में 48 रुपये प्रति किलो थे. वहीं प्याज को लेकर सूत्रों ने बताया कि लसलगांव में प्याज 25,000 क्विंटल प्रतिदिन आती थी, जबकि अब सिर्फ 12,000 क्विंटल ही आ रही है. इस वजह से प्याज के दाम में बढ़ोतरी हुई है.