बलिदान दिवसः ऊधम सिंह ने लिया था जलियांवाला बाग का प्रतिशोध

जलियांवाला बाग हत्याकांड का प्रतिशोध लेने वाले क्रांतिकारी ऊधम सिंह का जन्म 29 दिसम्बर 1899 को सरदार टहल सिंह के घर पर हुआ था. ऊधम सिंह के माता-पिता का देहांत बहुत ही कम अवस्था में हो गया था. जिसके कारण परिवार के अन्य लोगों ने उन पूरा ध्यान नहीं दिया. काफी समय तक भटकने के बाद अपने छोटे भाई के साथ अमृतसर के पुतलीघर में शरण ली जहां एक समाजसेवी संस्था ने उनकी सहायता की.

मात्र 20 वर्ष की अवस्था में ही उन्होनें बैशाखी के पर्व पर अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार को अपनी आंखों से देखा. सभी लोगों के घटनास्थल से चले जाने के बाद वे वहां फिर गये और वहां की मिट्टी को अपने माथे पर लगाकर कांड के खलनायकों से बदला लेने की प्रतिज्ञा की. उन्होनें अमृतसर में एक दुकान भी किराये पर ली. अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे अफ्रीका से अमरीका होते हुए 1923 में इंग्लैंड पहुंच गये. वहीं क्रांतिकारियों से उनका संपर्क हुआ. 1928 में वे भगत सिंह के कहने पर भारत वापस आ गये. लेकिन लाहौर में उन्हें शस्त्र अधिनियिम के उल्लंघन के आरोप में पकड़ लिया गया और चार साल की सजा सुनाई गयी. इसके बाद वे फिर इंग्लैंड चले गये.

13 मार्च 1940 को वह शुभ दिन आ ही गया जब ऊधम सिंह को अपना संकल्प पूरा करने का अवसर मिला. इंग्लैंड की राजधानी लंदन के कैक्स्ट्रन हाल में एक सभा होने वाली थी. इसमें जलियांवाला बाग कांड के दो खलनायक सर माइकेल ओ डायर और भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी आफ स्टेट लार्ड जेटलैंड आने वाले थे. ऊधम सिंह चुपचाप मंच की कुछ दूरी पर बैठ गये और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लग गये. सर माइकेल ओ डायर ने भारत के खिलाफ खूब जहर उगला. जैसे ही उनका भाषण पूरा हुआ ऊधम सिंह ने गोलियां उनके सीने पर उतार दीं. वह वहीं गिर गये. लेकिन किस्मत से दूसरा खलनायक भगदड़ की वजह से बचने में कामयाब हो गया. लेकिन भगदड़ का लाभ उठाकर ऊधम सिंह भगे नहीं अपितु स्वयं ही अपने आप को गिरफ्तार करवा लिया.

न्यायालय में ऊधम सिंह ने सभी आरोपों को स्वीकार करते हुए कहा कि मैं गत 21 वर्षों सें प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था. डायर और जैटलैंड मेरे देश की आत्मा को कुचलना चाहते थे. इसका विरोध करना मेरा कर्तव्य था. न्यायालय के आदेश पर 31 जुलाई 1940 को पेण्टनविला जेल में ऊधम को फांसी दी गयी.

स्वतंत्रता प्राप्ति के 27 साल बाद 16 जुलाई 1974 को उनके भस्मावशेषों को भारत लाया गया तथा पांच दिन बाद हरिद्वार में प्रवाहित किया गया.

-By मत्युंजय दीक्षित 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.