विश्व कप तीरंदाजी प्रतियोगिता में झारखंड की आदिवासी बेटी दीपिका कुमारी ने शानदार प्रदर्शन करते हुए दुनिया में तिरंगा लहरा दिया। तीरंदाज दीपीका ने एक ही दिन में तीन स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया। साथ ही ओलंपिक से पहले भारतीयों के लिए पदक की उम्मीदें बढ़ा दी है। पेरिस में चल रहे विश्व कप स्टेज-थ्री तीरंदाजी के रिकर्व मुकाबले में रविवार को दीपिका ने एक के बाद एक तीन स्वर्ण पदक जीता।
दीपीका ने पहले कोमालिका बारी व अंकिता भक्त के साथ स्वर्ण पदक जीता। फिर कुछ देर बाद मिक्सड डबल्स रिकर्व प्रतियोगिता में अपने पति अतनु दास के साथ शानदार तीरंदाजी करते हुए एक और स्वर्ण पदक अपनी झोली में डाला। खुशियां तब तीन गुणी हो गईं, जब दीपिका ने सिंगल मुकाबले का स्वर्ण पदक भी अपने नाम कर लिया। दीपिका विश्वकप में एक ही दिन में तीन स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली तीरंदाज हैं। यही नहीं, दीपिका जापान ओलंपिक में क्वालीफाई करने वाली भारत की एकमात्र महिला तीरंदाज हैं।
दीपीका ने शानदार प्रदर्शन करते हुए अपने प्रतिद्वंदियों को धूल चला दिया। फाइनल मुकाबले में भारतीय टीम ने मैक्सिको को पांच के मुकाबले एक सेट में हराकर स्वर्ण पदक पर कब्जा जमाया। दीपिका के ज्यादातर तीर एकदम ऑन टारगेट थे। इस टीम में कोमालिका व अंकिता भी थे। ये दोनों टाटा आर्चरी अकादमी की हैं जबकि दीपिका टाटा आर्चरी अकादमी से निकलकर हाल ही में ओएनजीसी से जुड़ी हैं।
मिक्सड डबल्स रिकर्व प्रतियोगिता के फाइनल मुकाबले को दीपिका कुमारी ने अपने पति अतनु दास के साथ मिलकर जीता। भारतीय जोड़ी ने नीदरलैंड के साथ मुकाबले में शानदार प्रदर्शन करते हुए मुकाबला 5-3 से अपने नाम कर लिया। यह खुशी तब तीन गुणी हो गई जब दीपीका सिंगल के फाइनल में रूस की प्रतिद्वंद्वी को 6-0 से रौंदकर एक ही दिन तीसरे स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया।
दीपीका सहित तीरंदाजी टीम के वर्ल्ड कप में गोल्ड मेडल जीतने पर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने बधाई दी। सीएम ने ट्वीट कर कहा है कि अद्भुत! आज तीर-कमान बना रहा कीर्तिमान। हालांकि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा दीपीका को बधाई नहीं देने पर सोशल मीडिया में उनकी खूब आलोचना भी की जा रही है।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने राज्य के गरीब दलित परिवारों को 10-10 लाख रुपये देने की घोषणा की है। यह पैसा दलित सशक्तिकरण स्कीम के तहत बतौर आर्थिक सहायता दिया जाएगा। इस साल इस योजना के तहत सभी 119 विधानसभा सीटों से 100-100 परिवारों का चयन किया जाएगा। योजना के तहत इस साल 1200 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इसके साथ ही सरकार ने गरीब दलितों के सशक्तिकरण के तहत अगले 4 साल में 40 हजार करोड़ रुपये की राशि खर्च करने की योजना बनाने का दावा किया है। यह फैसला रविवार को राज्य के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में हुई दलित सशक्तिकरण स्कीम पर हुई बैठक में लिया गया।
मुख्यमंत्री के मुताबिक इस योजना का लाभ राज्य के कुल 11900 परिवारों को मिलेगा। यह राशि सीधे इन लाभार्थियों के बैंक खाते में भेजी जाएगी। इसके साथ ही इस योजना के रखरखाव पर 20 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। सीएम केसीआर ने जानकारी दी है इस दलित सशक्तिकरण नीति के तहत इस बजट में 1200 करोड़ रुपये आवंटित किए जाएंगे। अगर जरूरत पड़ी तो सरकार 300 करोड़ अतिरिक्त देने को तैयार है। सीएम केसीआर ने इस योजना के तहत ग्रामीण और शहरी इलाकों के दलित परिवारों को अलग-अलग चिह्नित करने की बात कही है। भाजपा ने इस बैठक का बहिष्कार किया।
बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ऐसी नेता हैं, जो आमतौर पर खामोश रहकर जमीन पर काम करना पसंद करती हैं। वह न तो मीडिया में अपने कामों का ढिंढ़ोरा पीटती हैं और न ही बात-बात पर अखबारों और चैनलों के भरोसे रहती है। लेकिन बहनजी जब भी बोलती हैं, देश की सियासत में हलचल मच जाती है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों को लेकर बसपा प्रमुख ने सोमवार 28 जून को बड़ा ऐलान किया है। लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए बसपा मुखिया ने आगामी यूपी विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी के नारे की घोषणा कर दी है। 2022 यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा का नारा होगा- “यूपी को बचाना है, सर्वजन को बचाना है, बसपा को सत्ता में लाना है।”
पार्टी के नारे की घोषणा करने के बाद बहनजी ने हुंकार भरते हुए कहा कि विपक्षी पार्टियां और मीडिया बसपा को कम कर के न आंके। इस दौरान बहनजी ने सपा और भाजपा दोनों पर जमकर हमला बोला। उन्होंने कहा- बीजेपी उसी तौर-तरीके से काम कर रही है, जैसा समाजवादी पार्टी करती थी। इस दौरान उन्होंने ऐलान किया कि बसपा जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव नहीं लड़ेगी। उन्होंने कार्यकर्ताओं से आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुट जाने का ऐलान किया। बहनजी खुद लखनऊ में मौजूद हैं और पार्टी की जमीनी तैयारियों का लगातार जायजा ले रही हैं।
इससे पहले बीते कल 27 जून को बसपा प्रमुख ने साफ किया था कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में वह किसी भी पार्टी से गठबंधन नहीं करेंगी, और बसपा अकेले चुनाव मैदान में आएंगी। उन्होंने मीडिया में बसपा और ओवैसी की पार्टी AIMIM के बीच गठबंधन की अटकलों को सिरे से खारिज किया था और मीडिया को भी चेताया था। उन्होंने बीएसपी के राष्ट्रीय महासचिव व राज्यसभा सांसद सतीश चन्द्र मिश्र को बीएसपी मीडिया सेल का राष्ट्रीय कोओर्डिनेटर बनाने का ऐलान किया था और किसी भी खबर के संबंध में उनसे बात करने की सलाह दी थी। फिलहाल उत्तर प्रदेश के चुनाव के लेकर अपने नारे का ऐलान करने वाली बसपा पहली पार्टी बन गई है। इससे साफ है कि बसपा और उसकी मुखिया मायावती जमीनी तौर पर उत्तर प्रदेश चुनाव की तैयारियों में जुट चुकी है।
कांशीराम के उदय के बाद से बहुजन जिन महानायकों का जन्मदिन जोर-शोर से मनाते हैं, उनमे से एक हैं कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहू जी महाराज। 26 जून 1874 को कोल्हापुर राजमहल में जन्मे शाहू जी छत्रपति शिवाजी के पौत्र तथा आपासाहब घाटगे कागलकर के पुत्र थे। उनके बचपन का नाम यशवंत राव था। तीन वर्ष की उम्र में अपनी माता को खोने वाले यशवंत राव को 17 मार्च 1884 को कोल्हापुर की रानी आनंदी बाई ने गोद लिया तथा उन्हें छत्रपति की उपाधि से विभूषित किया गया। बाद में 2 जुलाई 1894 को उन्होंने कोल्हापुर का शासन अपने हाथों में लिया और 28 साल तक वहां शासन किया। 19-21 अप्रैल,1919 को कानपुर में आयोजित अखिल भारतीय कुर्मी महासभा के 13वें राष्ट्रीय सम्मलेन में ‘राजर्षि’ के ख़िताब से नवाजे जाने वाले शाहूजी की शिक्षा विदेश में हुई तथा जून 1902 में उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से एल.एल.डी की मानद उपाधि प्राप्त हुई थी। यह सम्मान पानेवाले वे पहले भारतीय थे। इसके अतिरिक्त उन्हें जी.सी.एस.आई.,जी.सी.वी.ओ.,एम्.आर.इ.एस की उपाधियाँ भी मिलीं। एक तेंदुए को पलभर में ही खाली हाथ मार गिराने वाले शाहू जी असाधारण रूप से मजबूत थे। उन्हें रोजाना दो पहलवानों से लड़े बिना चैन नहीं आता था।
शाहू जी ने जब कोल्हापुर रियासत की बागडोर अपने हाथों में ली उस समय एक तरफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद तो दूसरी तरफ ब्राह्मणशाही जोर-शोर से क्रियाशील थी। उस समय भारतीय नवजागरण के नायकों के समाज सुधार कार्य तथा अंग्रेजी कानूनों के बावजूद बहुजन समाज वर्ण-व्यवस्था सृष्ट विषमता की चक्की में पिस रहा था। इनमें दलितों की स्थिति जानवरों से भी बदतर थी। शाहूजी ने उनकी दशा में बदलाव लाने के लिए चार स्तरों पर काम करने का मन बनाया। पहला, उनकी शिक्षा की व्यवस्था तथा दूसरा, उनसे सीधा संपर्क करना। तीसरा, प्रशासनिक पदों पर उन्हें नियुक्त करना एवं चौथा उनके हित में कानून बनाकर उनकी हिफाजत करना। अछूतों की शिक्षा के लिए एक ओर जहाँ उन्होंने ढेरों पाठशालाएं खुलवायीं, वहीँ दूसरी ओर अपने प्रचार माध्यमों द्वारा घर-घर जाकर उनको शिक्षा का महत्व समझाया। उन्होंने उनमें शिक्षा के प्रति लगाव पैदा करने के लिए एक ओर जहाँ उनकी फीस माफ़ कर दी, वहीं दूसरी ओर स्कॉलरशिप देने की व्यवस्था कराई। उन्होंने राज्यादेश से अस्पृश्यों को सार्वजनिक स्थलों पर आने-जाने की छूट दी तथा इसका विरोध करने वालों को अपराधी घोषित कर डाला।
दलितों की दशा में बदलाव लाने के लिए उन्होंने दो ऐसी विशेष प्रथाओं का अंत किया जो युगांतरकारी साबित हुईं। पहला,1917 में उन्होंने उस ‘बलूतदारी-प्रथा’ का अंत किया, जिसके तहत एक अछूत को थोड़ी सी जमीन देकर बदले में उससे और उसके परिवार वालों से पूरे गाँव के लिए मुफ्त सेवाएं ली जाती थीं। इसी तरह 1918 में उन्होंने कानून बनाकर राज्य की एक और पुरानी प्रथा ‘वतनदारी’ का अंत किया तथा भूमि सुधार लागू कर महारों को भू-स्वामी बनने का हक़ दिलाया। इस आदेश से महारों की आर्थिक गुलामी काफी हद तक दूर हो गई। दलित हितैषी उसी कोल्हापुर नरेश ने 1920 में मनमाड में दलितों की विशाल सभा में सगर्व घोषणा करते हुए कहा था- ‘मुझे लगता है आंबेडकर के रूप में तुम्हे तुम्हारा मुक्तिदाता मिल गया है। मुझे उम्मीद है वो तुम्हारी गुलामी की बेड़ियाँ काट डालेंगे।’ उन्होंने दलितों के मुक्तिदाता की महज जुबानी प्रशंसा नहीं की बल्कि उनकी अधूरी पड़ी विदेशी शिक्षा पूरी करने तथा दलित-मुक्ति के लिए राजनीति को हथियार बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान किया। काफी हद तक उन्होंने डॉ. आंबेडकर के लिए वही भूमिका अदा किया, जो फ्रेडरिक एंगेल ने कार्ल मार्क्स के लिए किया था। किन्तु वर्ण-व्यवस्था में शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत तबकों के हित में किये गए ढेरों कार्यों के बावजूद इतिहास में उन्हें जिस बात के लिए खासतौर से याद किया जाता है, वह है उनके द्वारा शुरू किया गया आरक्षण का प्रावधान।
शाहूजी महाराज ने चित्तपावन ब्राह्मणों के प्रबल विरोध के बावजूद 26 जुलाई, 1902 को अपने राज्य कोल्हापुर की शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों में दलित-पिछड़ों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया। यह आधुनिक भारत में जाति के आधार मिला पहला आरक्षण था। इस कारण शाहूजी आधुनिक आरक्षण के जनक कहलाये। ढेरों लोग मानते हैं कि परवर्तीकाल में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने शाहूजी द्वारा लागू किये गए आरक्षण का ही विस्तार भारतीय संविधान में किया। लेकिन भारी अफ़सोस की बात है कि जिस आरक्षण की शुरुआत शाहूजी जी ने किया एवं जिसे बाबासाहेब आंबेडकर ने विस्तार दिया, वह आरक्षण आज वर्ग संघर्ष का शिकार होकर सुविधाभोगी वर्ग द्वारा लगभग कागजों की शोभा बनाया जा चुका है और आरक्षण का लाभ उठाने के अपराध में आरक्षित वर्गों को उस दशा में पहुँचाया जा चुका है, जिस दशा में पहुचने पर वंचितों को दुनिया में तमाम जगह शासकों के खिलाफ मुक्ति-संग्राम संगठित करना पड़ा। इसे समझने के लिए लिए जरा मार्क्स के वर्ग संघर्ष का एक बार सिंहावलोकन कर लेना होगा।
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लंबे समय से अलग थलग पड़े कश्मीरी नेताओं से गुरुवार (24 जून) को दिल्ली में मुलाकात की।मोदी सरकार ने पांच अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर की स्वायत्तता को निरस्त करने का फ़ैसला लिया था जिसके बाद से कश्मीरी नेता खुद को हाशिए पर महसूस कर रहे थे। इस बैठक में शामिल चार पूर्व मुख्यमंत्रियों में से तीन को शांति सुनिश्चित करने के नाम पर आठ महीने तक जेल में रखा गया था। इसके अलावा जम्मू और कश्मीर की राजनीति के दस अन्य कद्दावर नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के साथ नज़र आए। ऐसे में कश्मीर को लेकर सख़्त रुख़ अपनाने वाली बीजेपी सरकार की ओर से आयोजित बैठक कश्मीरी नेताओं के लिए नई शुरुआत जैसा है।
जम्मू-कश्मीर की मुख्यधारा की आठ पार्टियों के 14 नेताओं के साथ बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि उनकी सरकार जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की जड़ों को मज़बूत करने के लिए प्रतिबद्ध है। प्रधानमंत्री ने सभी राजनीतिक दलों से परिसीमन की प्रक्रिया में सहयोग करने की अपील की। परिसीमन के बाद वहाँ चुनाव कराने की बात हो रही है। ‘द हिन्दू’ की रिपोर्ट में कहा गया है कि इस बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्जे को बहाल करने की प्रतिबद्धता दोहराई है।
इस बैठक में सभी पार्टियों ने जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्जे का मुद्दा उठाया। अनुच्छेद 370 का भी मुद्दा उठा लेकिन ज़्यादातर पार्टियों ने इस मामले में क़ानूनी लड़ाई लड़ने की बात कही। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं भी दाखिल की गई हैं. यह मामला कोर्ट में विचाराधीन है।
लेकिन अचानक से मोदी सरकार के इस फैसले से ज्यादातर लोगों को हैरानी हो रही है। मोदी सरकार जिन लोगों के वंशवादी राजनीति का चेहरा बताती रही है उनसे ही बातचीत का रास्ता खोल दिया है। ऐसे में सवाल यही है कि मोदी सरकार ने ऐसा क्यों किया है? बीबीसी की रिपोर्ट में कश्मीर टाइम्स की संपादक अनुराधा भसीन के हवाले से कहा गया है कि लद्दाख में चीन के सैन्य अतिक्रमण और पूर्वी सीमा पर भारत के सैन्य महत्वाकांक्षा को देखते हुए पाकिस्तान की चिंता कम करने की अमेरिकी मज़बूरी के चलते, बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबाव की वजह से मोदी सरकार ने यह क़दम उठाया है। यह भी कहा जा रहा है कि क़दम पीछे करने से मोदी सरकार को पाकिस्तान और चीन के संदर्भ में कश्मीर मुद्दे को संभालने के लिए पर्याप्त जगह मिल गई है।
अमित शाह ने कुछ ही महीने पहले कश्मीर के राजनीतिक दलों के गठबंधन को गुपकार गैंग क़रार दिया था। दरअसल गुपकार एक पॉश रिहाइशी इलाका है जहां फ़ारूक़ अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती और अन्य वीआईपी लोगों के आवास हैं। कश्मीर के राजनीतिक दलों के गुपकार गठबंधन चार अगस्त, 2019 को अस्तित्व में आया था। गठबंधन ने संयुक्त तौर पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35-ए के तहत मिले विशेषाधिकार के साथ किसी भी तरह के बदलाव का विरोध करने का संकल्प लिया था।
इसके अगले ही दिन इन नेताओं के साथ हज़ारों दूसरे नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल में बंद कर दिया गया, जम्मू कश्मीर में इंटरनेट और संचार के दूसरे सभी साधनों पर पाबंदी लगा दी गई और पूरे प्रदेश में कर्फ्यू लागू कर दिया गया। अक्टूबर महीने में पाबंदियों में रियायत दी गई और मोदी सरकार ने अब्दुल्लाह और मुफ़्ती परिवारों को दरकिनार करते हुए शांति, समृद्धि और नई लीडरशिप के साथ नए कश्मीर को बनाने के बारे में व्यापक संकेत दिए।
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक बीजेपी समर्थक इस क़दम के समर्थन में नहीं दिखे हैं। इस बैठक को लेकर अप्रसन्न एक कश्मीरी बीजेपी नेता ने गोपनीयता की शर्त पर कहा, “लंबे समय से लाड पाने वाले राजनीतिक और शोषक वर्ग के बंधन से मुक्त कराने के वादे के साथ धारा 370 हटाया गया था। लेकिन ऐसा लग रहा है कि वे फिर से प्रिय बन गए हैं।” जहां तक कश्मीर के नेताओं का सवाल है, उन्हें पता है कि बातचीत के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इस बैठक से इन नेताओं को स्पेस मिली है कि वे अपने क्षेत्रों के बारे में बात कर सकें।” बैठक के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस और गुपकार गठबंधन के प्रमुख डॉ फ़ारूक़ अब्दुल्लाह ने कहा कि भरोसे की बहाली सबसे ज़रूरी है और पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना नई दिल्ली की ओर से इस दिशा में पहला क़दम होगा। तो एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने बैठक के बाद कहा कि चीन और पाकिस्तान से संवाद के लिए वे प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ़ करती हैं। मुफ़्ती ने कहा कि भारत को कश्मीर में शांति के लिए भी पाकिस्तान से बात करनी चाहिए। महबूबा मुफ़्ती ने कहा, ”हमलोग जम्मू-कश्मीर की ज़मीन, नौकरियाँ और खनिज संपदा की भी सुरक्षा चाहते हैं। यहाँ हर तरह के डर का माहौल ख़त्म होना चाहिए। मैं राजनीतिक क़ैदियों को भी रिहा करने की मांग करती हूँ।
पांच अगस्त, 2019 के बाद मान लिया था कि इन लोगों की कश्मीर की राजनीति में कोई भूमिका नहीं है। लेकिन मोदी सरकार की बैठक से इन्हें नया जीवन मिला है। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के साथ बैठक के बाद एक संभावना यह भी जताई जा रही है कि क्या सरकार और कश्मीरी नेताओं के बीच अंदरखाने कोई समझौता हुआ है।
भारत में जातीय अत्याचार की खबरें आम हैं। जाति के कारण देश के किसी न किसी हिस्से में हर रोज जोर जुल्म होता है। हम आप इसे सुनते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। इसी बीच कोई बड़ी घटना होती है, हो-हल्ला होता है और जाति के विनाश की बातें होती है और फिर किसी अगली बड़ी घटना तक जाति उन्मूलन का आंदोलन थम जाता है। लेकिन जाति का कीड़ा भारत के बीमार समाज के अंदर कितना गहरे तक धंसा है, यह कांग्रेस नेता और पंजाब के लुधियाना के सांसद रवनीत सिंह बिट्टू के एक बयान से समझा जा सकता है।
कांग्रेस के इस सांसद ने पंजाब में अकाली दल और बसपा गठबंधन के बाद ऐसी बात कही, जिसने पंजाब और दुनिया भर में मौजूद दलित समाज के लोगों को ठेस पहुंचाई। दरअसल अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के बीच आगामी पंजाब विधानसभा चुनाव को लेकर गठबंधन हुआ है। सीटों के बंटवारे में आनंदपुर साहिब और श्री चमकौर साहिब की सीट बसपा को मिली है। ये दोनों क्षेत्र सिख धर्म के लिए काफी पवित्र माने जाते हैं।
कांग्रेस सांसद रवनीत सिंह बिट्टू ने कहा था कि दोनों दलों के बीच सीटों पर समझौते में श्री आनंदपुर साहिब और श्री चमकौर साहिब की पवित्र सीटें शिरोमणि अकाली दल ने बहुजन समाज पार्टी को दे दी हैं। उनके इस बयान पर पंजाब में बवाल मच गया था। बसपा ने विरोध करते हुए एससी-एसटी एक्ट में मामला दर्ज कराया, मानहानि का मुकदमा भी दर्ज हुआ।
मामला राज्य अनुसूचित जाति आयोग पहुंचा तो सांसद रवनीत सिंह बिट्टू को तलब किया गया। बिट्टू ने सोमवार 21 जून को आयोग के सामने हाजिर होकर अपना पक्ष रखा और कहा कि उनका मकसद दलित समाज के प्रति कोई गलत भावना वाला बयान देने का नहीं था और यदि उनके बयान से किसी को ठेस पहुंची है, तो वह बिना शर्त माफी मांगते हैं। यानी सरकारी तौर पर मामला रफा-दफा हो गया।
हालांकि सरकारी तौर पर मामला भले थम गया हो सवाल यह रह जाता है कि क्या दलितों के साथ सीधे उत्पीड़न को ही दलित उत्पीड़न माना जाना चाहिए। क्या बिट्टू जैसे बीमार सोच वाले लोगों के इस तरह के बयान दलित समाज के मान-सम्मान को चोट नहीं पहुंचाते हैं?? क्या कोई विशेष स्थान भी दलितों के लिए अछूत होना चाहिए?? अगर बिट्टू जैसे तमाम लोगों को ऐसा लगता है तो फिर बेहतर होगा कि भारत सरकार देश भर के दलितों के लिए उनकी जनसंख्या के हिसाब से देश का एक हिस्सा काट कर उन्हें अलग कर दे और अपने पवित्र स्थान अपने पास रखें।
राजनीति में कब, कौन नेता, कैसा दांव चल जाए कहा नहीं जा सकता। खासकर वर्तमान में गठबंधन राजनीति के दौर में गठबंधन में शामिल दलों के बीच शह-मात का खेल चलता रहता है। साल 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रचंड जीत दर्ज करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने अपने सहयोगी दलों को चार सालों तक दबा कर रखा। तो वहीं सहयोगी दल भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं रहें। लेकिन आगामी यूपी चुनाव के करीब आने और भाजपा के खराब प्रदर्शन की आ रही रिपोर्टों को देखते हुए सहयोगी दलों ने भाजपा को आंख दिखाना शुरु कर दिया है। निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद ने तो भाजपा से खुद को उपमुख्यमंत्री घोषित करने की मांग कर दी है।
भाजपा की सहयोगी निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद का दावा है कि प्रदेश में 160 विधानसभा क्षेत्र निषाद बहुल हैं और 70 क्षेत्रों में समुदाय की आबादी 75 हज़ार से ज़्यादा है। ऐसे में उन्हें मुख्यमंत्री न सही, उपमुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाकर चुनाव में जाने से भाजपा को फायदा होगा। संजय निषाद ने हाल ही में गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात में अपनी यह मांग रख दी है।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में निषाद पार्टी का एक विधायक है जबकि संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद संत कबीर नगर से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़कर सांसद बने हैं। निषाद पार्टी की प्रमुख मांग निषाद जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करने की रही है, हालांकि भाजपा सरकार के चार साल पूरा होने के बावजूद पार्टी ने उनकी इस मांग को कोई तवज्जो नहीं दी है। देखना है कि चुनाव घोषित होने से पहले भाजपा क्या निषाद पार्टी की मांगों को मानेगी। गौरतलब है कि निषाद पार्टी ने 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से गठबंधन की घोषणा के बाद आखिरी वक्त में भाजपा का दामन थाम लिया था।
(लेखकः विजय कुमार त्रिशरण) भारत में यूं तो अपनी रियासतें बचाने के लिए तमाम राजा-रजवाड़ों के आपस में लड़ने के किस्से मिलते रहते हैं। तो विदेशी आक्रमणकारियों और भारतीय राजाओं के बीच भी युद्ध आम रहा है। इसमें मुगल से लेकर अंग्रेजों के हमले तक शामिल हैं। लेकिन भारतीय इतिहास में दो ऐसे बड़े युद्ध हुए हैं, जिसने दो बड़े साम्राज्य को खत्म कर दिया है। एक है प्लासी का युद्ध जिसने नवाब सिराजुद्दौला के सल्तनत को खत्म कर दिया तो दूसरा है कोरेगांव का संग्राम जिसने अत्याचारी पेशवाओं के अहंकार को रौंद दिया था। इन दोनों महायुद्धों में एक बात समान थी। वह यह थी कि इस युद्ध में जीतने वाले पक्ष की ओर से भारत के मूलनिवासी जिन्हें अछूत और दलित कहा जाता था, वो लड़े थे। एक बात और समान थी, अछूत मूलनिवासी योद्धाओं ने अपने पराक्रम से विरोधी सेनाओं के कई गुना बड़े फौज को रौंद डाला था। 1 जनवरी 1818 को महार सैनिकों द्वारा पेशवाओं के खिलाफ लड़े गए कोरेगांव के युद्ध के बारे में तो मूलनिवासी समाज जानने लगा है, लेकिन 23 जून 1757 को लड़े गए प्लासी के युद्ध का इतिहास अभी बहुजनों के सामने प्रमुखता से नहीं आ पाया है। लेकिन इसके बारे में जानना जरूरी है।
भारतीय इतिहास की तारीख में प्लासी का युद्ध इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ है। प्लासी का पहला युद्ध 23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे ‘प्लासी’ नामक स्थान में हुआ था। इस युद्ध ने न केवल मुग़ल सल्तनत को जड़ से उखाड़ कर ब्रितानियां हुकूमत की नींव रखी, बल्कि सदियों से ब्राह्मणशाही व्यवस्था की बुनियाद हिला कर रख दी। प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को नबाब सिराजुदौला और लार्ड क्लाइव के बीच लड़ा गया था। इसमें एक ओर मुग़ल नवाब था तो दूसरा ब्रिटिशर्स था। युद्ध के मैदान में लार्ड क्लाइव के पास महज 2200 सैनिक थे जबकि सिराजुदौला की ओर से 50 हज़ार सैनिकों को उतारा गया था। जिसमें 15 हजार घुड़सवार और 35 हजार पैदल सेना थी। तो दूसरी ओर सिराजुदौला के इस विशाल सेना का मुकाबला करने के लिए लार्ड क्लाईव की ओर से तकरीबन दो हजार से 2200 सैनिक थे। जिसमें से आधे के करीब सैनिक युद्ध के लिए गए थे।
23 जून को दोनों सेनाओं के बीच भयंकर भिडंत हुई। इस महज़ दो घंटे के आमने-सामने के सीधे मुकाबले में क्लाइव के मूलनिवासी वीर अछूत सैनिकों ने सिराजुदौला और उसके सेनापति मीर मदन को मौत की नींद सुला कर प्लासी युद्ध को फतह कर लिया। प्लासी की जीत के बाद ब्रिटेन की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल में अपना साम्राज्य स्थापित किया। हालांकि इतिहास की किताबों में यह भी कहा गया है कि लार्ड क्लाइव ने सिराजुद्दौला के लोगों को अपने में मिला लिया था। लेकिन यह युद्ध का एक हिस्सा है और इससे सैनिकों की वीरता कम नहीं होती।
बाबासाहेब डॉ० आंबेडकर ने ‘डॉ बाबासाहेब आंबेडकर रायटिंग एंड स्पीचेज वोल्यूम 12’ में अपने शोध के निष्कर्ष में लिखा है कि “प्लासी का युद्ध जीतने वाले मूल भारतीय सैनिक अछूत समुदाय के थे। वे लोग ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना में भर्ती थे, वे अछूत थे। जिन्होंने क्लाइव के साथ प्लासी का युद्ध लड़ा वे दुसाध थे।
प्रसिद्ध विद्वान प्रो० सीले के मुताबिक “क्लाइव की सेना में एक हिस्सा ब्रिटिश योद्धाओं का जबकि चार हिस्सा स्थानीय भारतीय योद्धाओं का था, जो कि अछूत वर्ग के थे। यानी कि इस युद्ध में हिस्सा लेने वाले 70 फीसदी सैनिक मूलनिवासी दुसाध थे।
ऐसे ही बंगाल के इतिहासकार एस के विश्वास ने लिखा है कि “अगर प्लासी युद्ध में दुसाध अपनी भूमिका ग्रहण नहीं किये होते तो अश्पृश्य बहुजन के भाग्य के आकाश में मुक्ति का सूर्योदय नहीं होता।
प्लासी के युद्ध को बहुजन मुक्ति का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। प्लासी विजय के बाद ही भारत में ब्रिटिश हुकुमत की स्थापना हुई। इसके बाद सदियों से मनुवादी व्यवस्था में गुलाम बना कर रखे गए भारत के मूलनिवासी वर्ग को मानवीय जीवन जीने का अधिकार मिलना शुरू हुआ। उनकी मुक्ति के रास्ते खुलने शुरू हुए। जहाँ मनुवादी व्यवस्था ने मूलनिवासियों को अछूत बना कर पशु से भी बद्तर जीवन जीने को मजबूर कर दिया था, वहां ईस्ट इंडिया कंपनी ने अछूतों को सेना में भर्ती कर नौकरी, शिक्षा और स्वाभिमान की ज़िंदगी देना शुरू किया। इस तरह “सन 1757 में मूलनिवासी दुसाध जाति के लोगों ने जिस मुक्ति संग्राम का आगाज़ किया, उसे 01 जनवरी 1818 को कोरेगांव में महारों ने अंजाम दिया था। ……. हालांकि प्लासी का युद्ध औऱ खासकर कोरेगांव के युद्ध को लेकर तमाम लोग मूलनिवासी समाज की आलोचना करते हैं और कहते हैं कि मूलनिवासी समाज ने भारत के खिलाफ युद्ध किया। बाबासाहेब आंबेडकर ने इसका जवाब दिया है। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि “कुछ लोग अछूतों के अंग्रेजों को जितवाने में सहयोग करने को देशद्रोहिता की संज्ञा दे सकते हैं परन्तु इस मामले में अछूतों की भूमिका बिल्कुल निष्पक्ष थी क्योंकि यह खुद की मुक्ति के लिए स्वयं द्वारा भारत की जीत थी।” दरअसल अछूत सैनिक अपनी सेना की ओर से लड़ रहे थे, जैसे बाद के दिनों में अंग्रेजी शासनकाल के दौरान उच्च वर्ग के तमाम लोग अंग्रेजों की नौकरी कर रहे थे और उनके शासन में मदद कर रहे थे।
इस प्रकार 1757 में मूलनिवासी वीरों द्वारा जीता गया प्लासी युद्ध, 1818 में कोरेगांव के मैदान ए जंग में उतरने वाले योद्धाओं के प्रेरणास्रोत थे। इस प्रकार यह दोनों ही युद्ध अद्वितीय था।
पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में प्लासी युद्ध में लड़े वीर सैनिकों की स्मृति में, एक विजय स्तम्भ बना हुआ है। बहुजनों को इसके संबंध में अभी पर्याप्त जानकारी और जागरूकता नहीं है। परन्तु प्लासी विजय स्तम्भ के प्रति भी कोरेगावं विजय स्तम्भ की भांति अपने पूर्वजों की त्याग, संघर्ष और बहुजन गौरव के प्रतीक के रूप में पहचान स्थापित करने की आवश्यकता है। इसके लिए बहुजनों को प्रति वर्ष 23 जून को नदिया जा कर कृतज्ञता और सम्मान प्रकट करने की परंपरा विकसित करने की तथा विजय दिवस मानाने की आवश्यकता है; इससे मूलनिवासी बहुजन समाज को अपने समाज की मुक्ति के लिए पूर्वजों की वीरता और त्याग से प्रेरणा और उर्जा प्राप्त होगी।
लेखक विजय कुमार त्रिशरण झारखंड में रहते हैं। विभिन्न प्रकाशन समूहों से इनकी किताबें प्रकाशित हो चुकी है।
अम्बेडकरवादी सामाजिक कार्यकर्ता और दिल्ली सरकार में सामाजिक न्याय मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम बौद्ध धर्म को बढ़ाने के लिए लगातार सक्रिय हैं। इसके लिए वो ‘मिशन जय भीम’ नाम से एक संगठन के बैनर तले लगातार इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं। इस संगठन ने साल 2025 तक 10 करोड़ लोगों को बौद्ध धर्म से जोड़ने का लक्ष्य रखा है। इसे ‘मिशन 2025’ का नाम दिया गया है। साथ ही 10 करोड़ भारतीय को अपने पूर्वजों की विरासत में वापस ले जाने का संकल्प लिया गया है। इसके लिए वेबसाइट, ऐप और मिस्ड कॉल नंबर के जरिए पंजीकरण शुरू किया जा चुका है। बौद्ध धर्म ग्रहण करने की प्रक्रिया को आसान बनाते हुए एक मोबाइल नंबर जारी किया गया है। जो लोग बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहते हैं, उनको सिर्फ एक मिस्ड कॉल करना होगा। नंबर है- 8800662528
इस नंबर पर मिस्ड कॉल करने के बाद आपको एक एसएमएस मिलेगा जिसमें रजिस्ट्रेशन फॉर्म का लिंक मिलेगा। लिंक पर क्लिक करके फॉर्म को भरकर आपको अपना पंजीकरण पूरा करना होगा। अगर आपको फार्म भरने में दिक्कत आ रही हो तो आप किसी दूसरे की मदद भी ले सकते हैं। मिशन जय भीम ने घोषणा की है कि वह इस मिशन को और तेजी से आगे बढ़ाएंगे और आने वाले दिनों में एप और वेबसाइट शुरू करने की घोषणा की है।
जून 2021 के तीसरे सप्ताह में अलीगढ़ से गृह जनपद महराजगंज जाना हुआ। समय से पूर्व मानसून आ चुका था और 16 से 20 जून तक मूसलाधार बारिश से सब नदी नाले उफान पर आ गये। धान की नर्सरी और रोपाई वाले सभी खेत तालाब की तरह भर गये। इस साल अच्छी बात ये हुई है कि नालों और छोटी नदियों से पोकलेन मशीनों से गहरी सफाई हुई है जिसके कारण उनकी जल संग्रहण क्षमता बढ़ गयी है और वे सभी बारिश के अतिरिक्त पानी को लेकर तेजी से बहे जा रहे थे। यह एक सकारात्मक कार्य हुआ है क्योंकि किसानों और भूमाफियाओं द्वारा जो अतिक्रमण नदी/नालों के प्रवाह क्षेत्र पर हुआ था उसको कुछ हद तक कम किया जा सका है और बाढ़ से फसलों के नुकसान का खतरा कम हुआ है। उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में स्थित अत्यधिक वर्षा प्राप्त करने वाले अपने गृह जनपद में मेरे अपने गाँव की सीमा पर बहने वाली कुंवरवर्ती नदी/हिरना नाला में हमने पिछले दो दशकों में जल प्रवाह में लगातार कमी आते देखा है। साल भर बहने वाली यह नदी अब गर्मियों में लगभग सूख जाती है। कुंवरवर्ती जैसी छोटी नदियों का संकट बढ़ता जा रहा है अतः इनकी विशेष चिंता करने का समय आ चुका है।
इसी दौरान हमने मध्य प्रदेश और गुजरात राज्यों से होकर बहने वाली अत्यंत महत्वपूर्ण नर्मदा नदी के बारे में एक चिंताजनक खबर पढ़ी। नर्मदा नदी के उद्गम क्षेत्र में मानवीय दखल बढ़ने से जल प्रवाह में लगातार कमी हो रही है। वन क्षेत्रों में कमी और आवासों के निर्माण के कारण अमरकंटक उद्गम स्थल में जल की मात्रा कम होती जा रही है। निवेदिता खांडेकर लिखती हैं, ‘’नर्मदा उद्गम स्थल पर लोगों की बढती आबादी, निर्माण और जंगल ह्रास से नदी के अस्तित्व पर संकट मडराने लगा है। घास के मैदानों के ह्रास और प्रदूषण की वजह से नदी दम तोड़ने लगी है। नर्मदा के उद्गम के पहले तीन किलोमीटर में पांच चेक डैम और बैराज बनाये गए हैं जिससे नदी के कुदरती बहाव पर बुरा असर हुआ है’’। जर्नल ऑफ़ किंग साउद यूनिवर्सिटी के मार्च 2021 अंक में प्रकाशित अध्ययन में नर्मदा नदी के अस्तित्व पर आ रहे खतरों के बारे में विस्तृत वर्णन दिया गया है। किसी भी नदी के कैचमेंट में स्थित जंगल ही नदी को सदानीरा बनाते हैं। नदियों के राईपरियन ज़ोन में स्थित वृक्ष नदी जल की गुणवत्ता और प्रकृति को निर्धारित करते हैं। जंगलों के कटान और बड़े बांधों के निर्माण से नदियों के अस्तित्व और कुदरती स्वरूप पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
केन्या की विश्वविख्यात पर्यावरणविद एवं नोबल पुरस्कार विजेता वांगरी मथाई ने भी अपनी आत्मकथा में 1950 से आगे पचास वर्षों तक के काल में अपने देश की नदियों गुरा, तुचा और चानिया नदियों की जलप्रवाह में कमी होते जाने का उल्लेख किया है। वे चानिया नदी के बारे में बताते हुए लिखती हैं कि, ‘’बचपन में जब वे इस नदी को पार करती थीं यह बहुत चौड़ी थी तथा इसके पानी से शोर उठता था लेकिन अब (2005) यह अन्य नदियों की तरह सिकुड़ चुकी है और शांत होकर बहती है’’। ग्रीन बेल्ट मूवमेंट की चैंपियन वांगरी मथाई स्थानीय वनों में बाहर से लाये गये पेड़ों को हानिकारक बताती हैं। वृक्षों और वनों के महत्व को बताते हुए वे कहती हैं कि किस तरह उनके घर के पास के पहाड़ों में अंजीर के पेड़ों की गहरी जड़ों के पास से कमजोर मिटटी को फाडकर एक छोटी सी पानी की धारा निकलती थी। प्राकृतिक वनों को बचाकर ही हम जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक परिवर्तनों से मानवता को बचा सकते हैं तथा नदियों को विलुप्त होने से बचा सकते हैं।
हिमालय पर्वत से निकलने वाली गंगा जैसी सदानीरा नदी में भी पानी की मात्रा साल दर साल कम होती जा रही है। हजारो की संख्या में छोटी नदियाँ सूख चुकी हैं या बरसाती नाला मात्र रह गयी हैं। पहाड़ों में बढ़ते मानवीय दखल और पक्के निर्माण कार्यों के कारण बादलों के फटने, ग्लेसियरों के टूटकर गिरने की घटनाएँ बढती जा रही हैं। सुन्दरलाल बहुगुणा अपनी पुस्तक ‘धरती की पुकार’ में पहाड़ों के जंगलों और नदियों के प्राकृतिक स्वरूप से किसी भी तरह के छेड़छाड़ को विनाशकारी मानते हैं। वे बार-बार जंगल के उपकारों की याद दिलाते हैं:
जंगल के क्या उपकार?/ मिट्टी पानी और बयार, मिट्टी पानी और बयार/ जीवन के हैं आधार
कैसे बनती है एक नदी
नदी एक नाजुक एवं जटिल संरचना का नाम है। भूगर्भ जल का एक हिस्सा ‘जल प्रवाह प्रणाली’का निर्माण करता है। पृथ्वी की सतहों के बीच जल का संग्रहण करने वाली संरचनाएं जलाशय और बहाव के लिए पाइपलाइन का निर्माण करती हैं। इन्ही जलाशयों में जल का संग्रहित होना ‘ग्राउंड वाटर रिचार्ज’कहलाता है। जमीन के सतह का पानी रिसकर नीचे भूगर्भ जल के भंडार में पहुँचता है।यह पानी दूर तक जमीन के नीचे की प्राकृतिक पाइपलाइन के सहारे धीमी गति से यात्रा करता रहता है और फिर किसी स्थान पर यह पानी पुनः भूतल पर गुरुत्वाकर्षण के माध्यम से प्राकृतिक प्रवाह में परिवर्तित हो जाता है। भूगर्भ जल और सतह पर स्थित जल के प्रवाह में काफी अंतर होता है। जहाँ भूतल पर प्रवाहित जल एक दिन में कई किलोमीटर की दूरी तय करता है वही जमीन के नीचे जल केवल कुछ मीटर तक जा पाता है।
भू-आकृति विज्ञान में अपवाह बेसिन को एक जीवित जीव के रूप में लिया जाता, क्योंकि इसमें सरिता जाल द्वारा जल का संचरण होता रहता है। अतः अपवाह बेसिन की तुलना जीव से की जाती है (सिंह2020:359)। भू-आकृति विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार नदी का अपवाह बेसिन एक भू आकृतिक इकाई है। विलियम मोरिस डेविस (1899) ने नदियों के महत्व को उजागर करते हुए लिखा है, ‘’सामान्य रूप में नदियाँ, किसी पत्ती की नसें होती हैं, व्यापक रूप में समग्र पत्ती होती है’’। देशों के अंदर प्रदेशों, जनपदों के बंटवारे का कार्य नदियों के द्वारा किया जाता है। जीन ब्रून्स (1920) के अनुसार,“नदियाँ धरातल एवं मानव क्रियाकलापों के मध्य कड़ी का कार्य करती हैं, क्योंकि जल किसी राष्ट्र एवं उसके निवासियों की प्रभुत्व सम्पन्न संपत्ति होता है।
यह पोषक तत्व होता है, उर्वरक होता है, यह उर्जा तथा शक्ति होता, यह परिवहन होता है”। वर्षा जल को एकत्र करके विभिन्न मार्गों से अपने क्षेत्र की विभिन्न सरिताओं को पानी पहुंचाने का कार्य जो स्थलीय क्षेत्र करता है उसे वाटरशेड या जलग्रहण क्षेत्र भी कहते हैं। किसी भी प्रमुख सरिता तथा उसकी सहायक सरिताओं के जाल को सामूहिक रूप से अपवाह जाल या ड्रेनेज नेटवर्क कह्ते हैं जिसके अंतर्गत सतत, मौसमी, अस्थायी सभी तरह की नदियाँ सम्मिलित होती है। नदी का उद्गम पहाड़, झील, ताल, कुआं जिस भी स्थान से हो वह अकेले नहीं बहती अपने मार्ग के वाटरशेड से आकर मिलने वाले छोटी नदियों, बरसाती नालों, अदृश्य वाटर चैनल को खुद में समेटकर वह अपनी जलराशि को समृद्ध करती रहती है। ‘नदी को अपने बहाव मार्ग में बरसात के पानी के अतिरिक्त भूजल से भी आदान-प्रदान की प्रक्रियाएं चलती रहती हैं। नदी कही भूजल भंडारों से पानी प्राप्त करती है तो कहीं-कहीं उसके पानी का एक हिस्सा, रिसकर भूजल भण्डारों को मिलता है। नदी, दोनों ही स्थितियों का सामना करते हुए आगे बढ़ती है।
स्याही मुक्ति अभियान
देवरिया जनपद में बिहार राज्य की सीमा पर स्थित ‘स्याही नदी’ अपने नाम और वर्तमान स्थिति के कारण एक अनोखी नदी है। सन1916-17 में अंग्रेजों के जमाने में की गयी चकबंदी में बीस किमी लम्बाई में लगभग 300 मीटर चौड़ाई वाली महानदी स्याही के समस्त प्रवाह क्षेत्र को एक राजस्व ग्राम ‘मोहाल स्याही नदी’ के रूप में दर्ज कर उसके भीतर किसानों के कृषि कार्य हेतु चक आवंटन करना आश्चर्यचकित करने वाली प्रघटना है। नदी के प्रवाह मार्ग को किसानों की कृषि भूमि के रूप में दर्ज होने के कारण इस नदी में सिल्ट, घास और झाड़ियों की सफाई का कार्य करके पुनर्जीवित करना आसान नहीं था। हमने इसके राजस्व रिकार्ड को उर्दू से हिंदी में अनुवाद कराया तथा उसका सम्पूर्ण भू-चित्र तैयार कराया। नदी के दोनों किनारों पर बसे ग्रामीणों की सहमति मिलनी आसन न थी।
लेकिन पिछले कई सालों से अच्छी बरसात न होने के कारण एवं पानी की कमी से उत्पन्न कठिनाईयों का भुक्तभोगी होने के कारण ग्रामीणों का सहयोग मिला जिसने ‘स्याही मुक्ति अभियान को’ आगे बढाने में मदद की। इस नदी के लिए कार्य करने के साथ ही ग्राम प्रधानों, क्षेत्र के प्रबुद्ध जनों और ग्रामीणों को लगातार प्रदेश के अन्य जनपदों में किये गए नदी पुनर्जीवन के कार्यों और सक्सेस स्टोरी के बारे में बताकर प्रोत्साहित किया गया। उदाहरण के तौर पर फतेहपुर की ससुर खदेरी और अम्बेडकर नगर और आजमगढ़ की तमसा नदी को मनरेगा योजना से पुनर्जीवित किये जाने की भी चर्चा की गयी। स्याही नदी देवरिया (उत्तर प्रदेश) और गोपालगंज और सीवान (बिहार) सीमा पर बहती है जिसे लोग ‘महानदी स्याही’ भी कहते हैं। इस नदी के दोनो किनारे राईपरियन ज़ोन और बंधे बड़ी संख्या में पेड़ भी मौजूद हैं। इसमें मुख्य रूप से पीपल बरगद, शीशम, जामुन और गुटेल हैं। स्याही नदी के साथ दो नकारात्मक चीजें जुडी हैं पहली यह कि इस नदी की गहराई बहुत कम है, दूसरे चकबंदी, बाढ़ एवं सिंचाई और राजस्व विभाग की लापरवाही के कारण इसके 20 किमी लम्बे प्रवाह क्षेत्र में लगातार अतिक्रमण होने तथा सिल्ट सफाई न होने के कारण यह नदी सूख चुकी थी। एक दशक से कम बारिश होने से भी नदी के जल भण्डार में कमी आयी है। क्षेत्रीय संगठनों और नागरिकों के प्रयासों के कारण अधिकारियों का ध्यान स्याही नदी की तरफ गया। नदी के कैचमेंट एरिया में स्थित गाँवों में पिछले एक दशक से पेयजल और सिंचाई को लेकर आ रही मुश्किलों के समाधान की तरफ कदम बढ़े। परिणामस्वरूप वर्ष 2020 में मनरेगा योजना के तहत नदी के प्रवाह मार्ग की सफाई और गहराई बढाने का कार्य किया जा रहा है ताकि खोई हुई नदी को एक आकार मिल सके। वर्ष 2019 से 2021 तक लगातार अच्छी बारिश भी नदी को पुनर्जीवित करने में सहयोग मिल रहा है।
उपसंहार
नदियों और प्राकृतिक नालों की जीआइएस मैपिंग कराकर उनका रिकॉर्ड राजस्व विभाग एवं पर्यावरण और वन विभाग के पास रखा जाना चाहिए ताकि लोग नदी के अपवाह क्षेत्र और रिवर बेड पर अतिक्रमण न कर सकें। प्रत्येक वर्ष उनकी पड़ताल और निगरानी करके प्रत्येक तरह के अतिक्रमण रोकना होगा। जल अधिनियम और जल परिषद की गतिविधियों को प्रत्येक जल निकाय तक पहुँच बाढ, सिंचाई और नेशनल और स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट के सहयोग से किया जाना। पुलिस, प्रशासन, सिंचाई और वन विभाग के अधिकारीयों को लगातार ट्रेनिंग देकर जागरूक एवं सचेत करना कि नदियाँ और जल पृथ्वी जीवन के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं इनके स्रोतों की सुरक्षा करना हमारा प्राथमिक दायित्व है। नदियों के निर्माण और प्रवाह सम्बन्धी जानकारियों को विश्वविद्यालयों एवं तकनीकी संस्थानों के भूगोल विभागों और अर्थसाइंस के विभागों से निकाल कर जनता के बीच ले जाने हेतु वृहद कार्यक्रम बनाना जिसमे पोस्ट ग्रेजुएट तथा शोध छात्र गाँवों में जाकर तालाब झील और नदी के महत्व और उनके बीच अंतर्निहित सम्बन्धों को समझाते हुए जल संरक्षण की मुहिम चला सकें। यह समस्त कार्यक्रम भारत सरकार के जलशक्ति मंत्रालय की निगरानी में सम्पूर्ण देश में हो तो इस दिशा में बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।
सन्दर्भ
बहुगुणा, सुन्दरलाल (1996) धरती की पुकार, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
खांडेकर, निवेदिता (2021) नर्मदा के उद्गम से ही शुरू हो रही है नदी को खत्म करने की कोशिश, इन हिंदी।मोंगाबे।कॉम आन 3 फरवरी 2021।
मथाई, वांगरी (2006) अनबोड : ए मेमोयर, एंकर बुक्स, न्यू यॉर्क।
सिंह, सविन्द्र (2020) भू-आकृति विज्ञान,वसुंधरा प्रकाशन गोरखपुर।
सिंह, सविन्द्र (2020) जलवायु विज्ञान, प्रवालिका प्रकाशन, इलाहाबाद।
भारत के उत्तर में और देश की राजधानी दिल्ली से सटे प्रदेश है हरियाणा, जो अपने देसज ठेठ संस्कृति और खेलकूद के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। 2004-2005 से लगातार प्रदेश के खिलाड़ियों ने प्रत्येक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में बेहतर प्रदर्शन किया है और भारत के लिए कई पदक जीते हैं। परन्तु प्रदेश में मौजूदा भाजपा-जजपा गठबंधन सरकार की भेदभाव पूर्ण नीति और नीयत से प्रदेश के दलित बहुजन खिलाड़ियों को नुकसान झेलना पड़ रहा है।
अभी हाल ही में रोहतक जिले के गांव सिसर खास की भारोत्तोलन की अंतरराष्ट्रीय स्तर की दलित बहुजन खिलाड़ी सुनीता देवी के साथ सरकार की अनदेखी और भेदभाव का मामला सामने आया है। सुनीता देवी राज्य स्तर पर कई बार गोल्ड मेडल जीत चुकी हैं।
उन्होंने फरवरी 2019 में राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडल जीता, वहीं फरवरी 2020 में यूरोपियन वर्ल्ड चैम्पियनशिप जो कि थाईलैंड के बैंकॉक में संपन्न हुई थी में भी गोल्ड पदक जीत कर भारत का नाम रोशन किया। परंतु उनकी मौजूदा हालात प्रदेश और केंद्र में भाजपा सरकार की बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, जैसी अनेकों योजनाओं की पोल खोल रही है। अपने छोटे से जीवन में इतने मेडल जीतने वाली दलित बहुजन अंतरराष्ट्रीय महिला खिलाड़ी सुनीता के साथ प्रदेश सरकार भेदभाव कर रही है। उनके पास ना तो ट्रेनिंग के लिए पैसे हैं ना ही अच्छे खाने (डाइट) के लिए पैसे है। जब वो युरोपियन वर्ल्ड चैंपियनशिप खेलने गई तो इसका खर्च उठाने के लिए इनके घर वालों ने ब्याज पर कर्ज लिया और इन्हे उम्मीद थी कि इतनी बड़ी खेल प्रतियोगिता में मेडल जीतने के बाद घर की स्थिति में सुधार आएगा और वो आगे अपने ओलंपिक के सपने के लिए ट्रेंनिंग कर पाएगी, परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ।
वो तब भी जोहड़ किनारे टूटे फूटे मकान में रहती थी जिसमें एक ही कमरे में खाना और सोना सब करना होता है। परिवार ने सुनीता को यूरोपियन वर्ल्ड चैंपियनशिप में भेजने के लिए जो कर्ज लिया था उसे चुकाने के लिए अब सुनीता समेत पूरा परिवार दिहाड़ी करता है। एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की दलित बहुजन खिलाड़ी सुनीता को जब अपनी ट्रेनिंग करनी चाहिए तब वो लोगों के घरों में बर्तन साफ करती हैं। जब सुनीता को बढ़िया डाइट लेनी चाहिए तब उसे लोगों की शादियों में रोटी बनाने का काम करना पड़ता है। जब सुनीता को अपने खेल में सुधार के लिए कौशल सीखना चाहिए तब उसे घर के काम करने पड़ते हैं।
सुनीता जो की पास के ही सरकारी कॉलेज में बी.ए. द्वितीय वर्ष में पढ़ाई करती है, को अपने कॉलेज की तरफ से भी वो मान सम्मान और सहयोग नहीं मिला जो एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी को मिलना चाहिए। ग्राम पंचायत के द्वारा भी सुनीता की अनदेखी की गई, और किसी प्रकार की कोई सहायता या सहयोग नहीं किया गया। अब प्रश्न ये है कि क्या सुनीता एक सवर्ण जाति से होती तो भी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार होता? शायद नहीं।
इसके अलावा क्षेत्र के निर्दलीय विधायक जो लड़कियों को कॉलेज तक सुरक्षित पहुंचाने के लिए परिवहन व लड़कियों के प्रोत्साहन के लिए कई योजनाओं का संचालन कर रहे हैं। परन्तु सुनीता जो एक दलित बहुजन परिवार से संबंध रखती है के लिए कुछ सहयोग नहीं किया,जबकि सुनीता को यूरोपियन वर्ल्ड चैंपियनशिप में गोल्ड पदक जीते 15 महीनों से ज्यादा वक्त हो गया है। अब जब सुनीता की खबर चारों तरफ फैली तब क्षेत्र के विधायक ने सुनीता के घर दस्तक दी और उसे कुछ आर्थिक सहायता के साथ बढ़िया ट्रेनिंग व डाइट की व्यवस्था करने का आश्वासन दिया है।
गांवों में सुनीता जैसी कई दलित बहुजन महिला खिलाड़ी हैं, जिन्हें सरकार की गलत नीयत और भेदभाव पूर्ण नीति का शिकार होना पड़ता है। यदि सरकार साफ नीयत और नीति से सुनीता जैसी विश्वस्तरीय खिलाड़ियों के लिए बढ़िया ट्रेनिंग और अच्छे खाने पीने की व्यवस्था करे तो ये दलित बहुजन महिला खिलाड़ी निश्चित रूप से अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भारत का नाम रोशन करेंगी और हरियाणा को पदक तालिका में अव्वल रखेंगी।
हरियाणा प्रदेश में खेल मंत्री (संदीप सिंह, पूर्व भारतीय हॉकी कप्तान) जो खुद एक खिलाड़ी हैं उन्हे अच्छे से मालूम है कि एक खिलाड़ी किस स्तर पर किस प्रकार की मुसीबतों का सामना करता है और यदि किसी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति बहुत ही ज्यादा खराब हो और खिलाड़ी महिला हो तो कैसी परिस्थितियों से उसे गुजरना पड़ता है। इस बारे में वो अच्छे से समझ सकते हैं,परंतु इस सबके बावजूद ना तो खेल मंत्रालय, ना ही प्रदेश सरकार और ना ही केंद्र सरकार द्वारा कुछ किया जा रहा है और दलित बहुजन खिलाड़ियों का भविष्य अंधकार में धकेला जा रहा है।
सुनीता जैसी अनेकों दलित बहुजन महिला खिलाड़ियों की अनदेखी के पीछे सरकार की संकीर्ण जातिवाद की सोच काम कर रही है और इस प्रकार की सोच को हावी होने से रोकने के लिए दलित बहुजन समाज को एकजुट होना होगा, अपने हितों को ध्यान में रखकर मतदान करना होगा और राजनीति में प्रवेश करके नीति निर्माण में अपना स्थान सुनिश्चित करना होगा क्योंकि जब तक दलित बहुजन समाज खुद मजबूत नहीं होगा और नीति निर्माता नहीं बनेगा, तब तक दलित बहुजन समाज के खिलाड़ियों और महिलाओं के साथ ऐसा भेदभाव होता रहेगा, इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि दलित बहुजन समाज अपने अधिकारों के लिए जागरूक हों और एक शक्ति के रूप में सामने आए ताकि हर क्षेत्र में दलित बहुजनों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। जब तक ये नहीं होगा, तब तक सामंती जातियां अपने हिसाब से दलित बहुजनों के लिए नीतियां बनाते रहेंगे, अपने हिसाब से उनका संचालन करते रहेंगे और उनकी नीतियों से सुनीता जैसी अनेकों दलित बहुजन अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों का भविष्य बर्बाद होता रहेगा।
2019 के लोकसभा चुनाव में हमेशा साथ निभाने और एक-दूसरे की तारीफों के पुल बांधने वाले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी अब आमने-सामने है। जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, दोनों पार्टियों के बीच तल्खी बढ़ती जा रही है। मंगलवार 15 जून को छह बसपा समर्थकों के अखिलेश यादव से मिलने के बाद प्रदेश का राजनीतिक माहौल गरमा गया है।
बसपा के बागी विधायक असलम राइनी ने दावा किया है कि बसपा के बागी विधायक नई पार्टी बनाएंगे। बसपा से निष्कासित लालजी वर्मा नई पार्टी के नेता होंगे। नई पार्टी बनाने के लिए 12 विधायकों की जरूरत है। फिलहाल 11 विधायकों का साथ मिल चुका है। एक और विधायक का साथ मिलते ही नई पार्टी का ऐलान कर दिया जाएगा। इससे पहले बसपा से बगावत करने वाले विधायकों ने मंगलवार (15 जून) की सुबह सपा प्रमुख अखिलेश यादव से मुलाकात के बाद हलचल तेज हो गई है। बसपा विधायकों के सपा में जाने की चर्चा होने लगी थी।
अखिलेश यादव से मिलने जाने वाले विधायकों में असलम राइनी (विधायक, भिनगा-श्रावस्ती) के अलावा मुजतबा सिद्दीकी ( विधायक प्रतापपुर-इलाहाबाद), हाकिम लाल बिंद (विधायक हांडिया-प्रयागराज), हरगोविंद भार्गव (विधायक सिधौली-सीतापुर), असलम अली चौधरी (विधायक, ढोलाना-हापुड़), सुषमा पटेल (विधायक, मुंगरा बादशाहपुर) शामिल हैं।
इसको लेकर बसपा प्रमुख मायावती ने सपा और अखिलेश यादव पर जमकर निशाना साधा। सुश्री मायावती ने एक के बाद पांच ट्विट कर अखिलेश यादव पर हमला बोला। मायावती ने लिखा कि, घृणित जोड़तोड़, द्वेष व जातिवाद आदि की संकीर्ण राजनीति में माहिर समाजवादी पार्टी द्वारा मीडिया के सहारे यह प्रचारित करना कि बीएसपी के कुछ विधायक टूट कर सपा में जा रहे हैं घोर छलावा है।
1. घृणित जोड़तोड़, द्वेष व जातिवाद आदि की संकीर्ण राजनीति में माहिर समाजवादी पार्टी द्वारा मीडिया के सहारे यह प्रचारित करना कि बीएसपी के कुछ विधायक टूट कर सपा में जा रहे हैं घोर छलावा। 1/5
उन्होंने आगे लिखा कि जबकि उन्हें काफी पहले ही सपा व एक उद्योगपति से मिलीभगत के कारण राज्यसभा के चुनाव में एक दलित के बेटे को हराने के आरोप में बीएसपी से निलंबित किया जा चुका है। सपा में अगर इन निलंबित विधायकों के प्रति थोड़ी भी ईमानदार होती तो अब तक इन्हें अधर में नहीं रखती। क्योंकि इनको यह मालूम है कि बीएसपी के यदि इन विधायकों को लिया तो सपा में बगावत व फूट पड़ेगी, जो बीएसपी में आने को आतुर बैठे हैं।
4. जगजाहिर तौर पर सपा का चाल, चरित्र व चेहरा हमेशा ही दलित-विरोधी रहा है, जिसमें थोड़ा भी सुधार के लिए वह कतई तैयार नहीं। इसी कारण सपा सरकार में बीएसपी सरकार के जनहित के कामों को बन्द किया व खासकर भदोई को नया संत रविदास नगर जिला बनाने को भी बदल डाला, जो अति-निन्दनीय।
गौरतलब है कि मायावती ने अपने हाल ही में अपने दो विधायकों राम अचल राजभर और लालजी वर्मा को पिछले हफ्ते पार्टी से निष्कासित कर दिया था। इसी के बाद बागी विधायकों की गतिविधियां अचानकर तेज हो गईं। दोनों के निष्कासन के बाद बसपा ने तेजी से इस्तीफों का भी दौर शुरू हो गया। वाराणसी में बड़ी संख्या में बसपा पदाधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया था।
वह 90 का दशक था। मान्यवर कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी देश भर में तेजी से पैर पसार रही थी। दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में बसपा की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही थी। तभी सन् 1992 में पंजाब में विधानसभा चुनाव हो रहे थे। पंजाब, बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम का होम स्टेट यानी गृह राज्य था। सबकी निगाहे बसपा पर टिक गई थी। पंजाब में सत्ता में रहने वाले राजनैतिक दल परेशान थे, कि जिस कांशीराम ने देश भर में तहलका मचाया हुआ है, वह अपने होम स्टेट क्या करेंगे। इस विधानसभा चुनाव में बसपा ने 105 सीटों पर चुनाव लड़ा और 9 सीटें जीती। उसके 32 उम्मीदवार दूसरे और 40 उम्मीदवार तीसरे नंबर पर थे। और इस चुनाव में बसपा का वोट प्रतिशत था 16.3 प्रतिशत। बहुजन समाज पार्टी के इस शानदार प्रदर्शन से प्रदेश की राजनीति में हंगामा मच गया था।
पंजाब की सियासत में बसपा का कद बढ़ा तो प्रदेश के प्रमुख राजनैतिक दल बसपा से दोस्ती करने को बेचैन हो गए। तब 1996 लोकसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन का हाथ बढ़ाया, और मान्यवर कांशीराम ने इसको स्वीकर कर लिया। अकाली दल और बसपा ने मिलकर यह चुनाव लड़ा और जो नतीजे आएं उसने बसपा के कद को और बढ़ा दिया। प्रदेश की 13 लोकसभा सीटों में से इस गठबंधन ने 11 सीटों पर जीत हासिल कर ली।
बहुजन समाज पंजाब में बसपा की सरकार बनने का सपना देखने लगा। वजह थी प्रदेश की 32 फीसदी दलित आबादी, जिसके बीच बसपा का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। लेकिन बसपा न तो प्रदेश में सरकार बना पाई और न ही वहां सत्ता की चाभी ले पाई, जैसा कि उसने उत्तर प्रदेश में किया था। और वह सपना अब भी सपना बना हुआ है, लेकिन लगता है कि अगले साल पंजाब विधानसभा चुनाव में बसपा प्रदेश की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने जा रही है।
2022 में होने वाले पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए सुखबीर सिंह बादल की अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी ने आपस में गठबंधन कर लिया है। कृषि बिल पर भाजपा के रूख के कारण उससे गठबंधन तोड़ने वाली अकाली दल 25 सालों बाद फिर से सत्ता पाने के लिए बसपा के साथ एक मंच पर आ गई है। गठबंधन के बाद पंजाब की 117 सीटों में से बहुजन समाज पार्टी 20 सीटों पर और अकाली दल बाकी की 97 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
इस गठबंधन के पीछे पंजाब का जातीय समीकरण है। प्रदेश में 33 प्रतिशत दलित वोट ही यह तय करते हैं कि प्रदेश में किसकी सरकार बनेगी। लेकिन पंजाब के दलित समाज का इतिहास है कि वो कभी किसी एक पार्टी के पीछे आंख मूंद कर नहीं चला है। इस समीकरण को समझने के लिए पंजाब को समझना होगा। पंजाब दरअसल तीन हिस्से में बंटा हुआ है। माझा, मालवा और दोआब। इन्हीं इलाकों में प्रदेश के सभी प्रमुख जिले आते हैं।
पंजाब में कुल 57.69 फीसदी सिख, 38.59 फीसदी हिंदू और 1.9 फीसदी मुस्लिम हैं। 22 जिलों में से 18 जिलों में सिख बहुसंख्यक हैं। यहां लगभग दो करोड़ वोटर हैं। जहां तक प्रदेश में 33 फीसदी दलित आबादी का सवाल है तो इस समाज में रविदासी और वाल्मीकि दो बड़े वर्ग हैं। देहात में रहने वाले दलित वोटरों का एक बड़ा हिस्सा डेरों से जुड़ा हुआ है। ऐसे में चुनाव के वक्त ये डेरे अहम भूमिका निभाते हैं। जबकि दोआबा बेल्ट में रहने वाले दलित समाज में ज्यादातर परिवारों के सदस्य NRI हैं। इनका असर फगवाड़ा, जालंधर और लुधियाना के कई हिस्सों में है।
साल 1992 में भले ही प्रदेश का दलित वोटर मजबूती से बसपा के साथ आया था, लेकिन विडंबना यह रही कि यह पूरी तरह से बसपा के पीछे एकजुट नहीं हो पाया। धीरे-धीरे बसपा प्रदेश में उस जनाधार को भी खोती गई, जो 90 के दशक में उसके साथ खड़ा था। 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा सभी 13 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, पर वह कोई सीट नहीं जीत सकी। उसे 2.63 लाख वोट मिले थे। तो वहीं 2019 लोकसभा चुनाव में बसपा पंजाब लोकतांत्रिक पार्टी के साथ गठबंधन कर के चुनाव में उतरी थी और तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में बसपा का वोट एक प्रतिशत बढ़कर 3.5 प्रतिशत तक पहुंचा, लेकिन फिर से उसे कोई सीट नहीं मिली। 2014 में 2.63 लाख वोट से बढ़कर 2019 चुनाव में बसपा को 4.79 लाख वोट मिले।
वहीं दूसरी ओर विधानसभा चुनाव की बात करें तो बीते 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा कुल 111 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। लेकिन उसे सिर्फ डेढ़ प्रतिशत वोट ही मिल सके। बसपा और उसके समर्थकों के लिए बुरी खबर यह रही कि पार्टी किसी सीट पर लड़ाई में भी नहीं रही।
लेकिन शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन के बाद बसपा फिर से प्रदेश की राजनीति में मजबूत वापसी की उम्मीद लगाए है। हालांकि पंजाब चुनाव में इस बार अहम मुद्दा किसान आंदोलन और कृषि कानून रहने की उम्मीद है। लेकिन प्रदेश में जिस तरह से सभी दल दलित वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश में जुटे हैं, उसमें बसपा के निश्चित तौर पर एक मजबूत ताकत बन कर उभरने की उम्मीद है। इस गठबंधन की घोषणा करते हुए सुखबीर सिंह बादल ने प्रदेश में सरकार बनने पर दलित उपमुख्यमंत्री बनाने की बात कही है, उनका यह दांव कितना चलता है, यह चुनावी नतीजे बताएंगे।
हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ साहित्यकार सूरज पाल चौहान नहीं रहें। आज 15 जून को सुबह करीब साढ़े दस बजे उनका परिनिर्वाण हो गया। वह 66 वर्ष के थे। सूरजपाल चौहान पिछले काफी दिनों से बीमार थे और लगातार उनका डायलिसिस हो रहा था। उनके निधन की सूचना से दलित साहित्य के साथ हिन्दी साहित्य की भारी क्षति हुई है। सूरजपाल चौहान की कविताओं और कहानियों ने दलित समाज को जगाने और झकझोरने का काम किया। वह अपनी कविताओं की चंद पंक्तियों के जरिए बड़ी-बड़ी बातें कह देते थे, जिससे बहुजन समाज सोचने को विवश हो जाता था। तो वहीं अपनी कहानियों में वह दलित समाज के मुद्दों को उठाने के साथ दलित समाज के भीतर फैली कुरीतियों और दोहरेपन को भी सामने लाने से नहीं चूकते थे।
(सूरजपाल चौहान के बारे में जानने के लिए ऊपर के वीडियो में उनका इंटरव्यू देखिए)
सूरजपाल चौहान शुरुआती दिनों में हिन्दीवादी संगठनों से जुड़े रहे और उनके मंचों से हिन्दुवादी कविताएं कहते रहें। लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि के संपर्क में आने के बाद वह अंबेडकरवादी हो गए थे और फिर बाबासाहेब और दलित साहित्य से जुड़ गए। इसके बाद उन्होंने दलित साहित्य को काफी सिंचा और दलित साहित्य में बड़ा योगदान दिया। ‘हैरी कब आएगा’ उनकी चर्चित कृति रही। उन्होंने ‘तिरस्कृत’ नाम से अपनी आत्मकथा लिखी। इसके अलावा उनका कविता संग्रह और कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है।
उनका जन्म 20 अप्रैल 1955 में हुआ था। अपने जीवन में काफी संघर्ष करने के बाद वह इस मुकाम पर पहुंचे थे। वह पिछले काफी समय से स्वास्थ्य संबंधी समस्या से जूझ रहे थे। उनकी दोनों किडनियां खराब हो चुकी थी, जिसके बाद पिछले लंबे वक्त से उन्हें लगातार डायलिसिस लेना पड़ता था। बावजूद इसके वह तमाम पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे। सूरजपाल चौहान ‘दलित दस्तक’ के लिए भी लगातार लिखते रहे। उन्होंने दलित दस्तक के लिए तमाम कहानियां और कविताएं लिखी, जिससे यह पत्रिका काफी समृद्ध हुई।
अपने आखिरी वक्त में वह आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर की काफी बातें कर रहे थे। उनके विचार को आगे बढ़ा रहे थे। वह सोशल मीडिया पर लगातार संस्मरण लिख रहे थे। इस दौरान उन्होंने तमाम दलित लेखकों पर भी सवाल उठाएं जिससे दलित साहित्यकारों के बीच उनको लेकर थोड़ी नाराजगी रही। लेकिन हमेशा बेबाक बोलने के लिए मशहूर सूरजपाल चौहान ने इसकी परवाह नहीं की। दलित दस्तक की ओर से सूरजपाल चौहान जी को श्रद्धांजलि। नमन।
चे ग्वेरा (14 जून 1928- शहादत – 9 अक्टूबर 1967)
क्रांतिकारियों की गैलेक्सी के एक चमकते सितारे का नाम अर्नेस्टो चे ग्वेरा है। एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही नसें तन जाती हैं। दिलो-दिमाग उत्तेजना से भर जाता है। हर तरह के अन्याय के खिलाफ लड़ने और न्यायपूर्ण दुनिया बनाने के ख्वाब तैरने लगते हैं। उम्र छोटी हो, लेकिन खूबसूरत हो, यह कल्पना हिलोरे मारने लगती है।
कल्पना करना मुश्किल है, लेकिन यह सच है सिर्फ और सिर्फ 39 साल में शहीद हो जाने वाला एक नौजवान इतना कुछ कर गया जिसे करने के लिए सैकड़ों वर्षों की उम्र नाकाफी लगती है। वह फिदेल कास्त्रो के साथ-साथ कंधे से कंधा मिलाकर क्यूबा में क्रांति करता है, अमेरिकी कठपुतली बातिस्ता का तख्ता पलट देता है। ठीक अमेरिका ( यूएसए) के सटे छोटे से देश में क्रांति की चौकी स्थापित कर देता है, जिसका भय आज भी अमेरिका को सताता रहता है।
एक ऐसा क्रांतिकारी जो आज भी दुनिया के युवाओं का प्रेरणास्रोत है। जिसका जन्म अर्जेंटीना में होता, क्रांति क्यूबा में करता है और वोलोबिया में क्रांति की तैयारी करते अमेरिकी जासूसी एजेंसी सीआईए के हाथों शहीद होता है। कोई अकेला व्यक्ति अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया, तो उसका नाम चे ग्वेरा है। जिसे मारने के लिए अमेरिका ने अपनी सारी ताकत लगा दी। मरने के बाद भी जिसका भूत अमेरिका और उसके पिट्ठू शासकों को सताता रहता है। वे चे ग्वेरा का मारने में सफल हो गए लेकिन उसके क्रांति के सपने को नहीं मार पाए।
दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप की आदिम लोगों का कत्लेआम कर स्पेन ने पहले इन देशों को गुलाम बना लिया। ये देश स्पेन से संघर्ष कर आजाद हो ही रहे थे कि अमेरिका ( USA) ने अपने कठपुतली शासक बैठाकर इन देशों पर नियंत्रण कर लिया। दक्षिण अमेरिका के क्रांतिकारी निरंतर स्पने और बाद में अमेरिका के खिलाफ संघर्ष करते रहे। इन्हीं कांतिकारियों में से दो को आज पूरी दुनिया जानती है। एक का नाम फिदेल क्रास्त्रो और दूसरे का नाम चे ग्वेरा है।
जन्मजात विद्रोही। उनके पिता कहते थे कि मेरे बेटे की रगों में आयरिश विद्रोहियों का खून बहता रहता है। चे के पिता स्पने के खिलाफ पूरे दक्षिण अमेरिका में चल रहे संघर्षों के समर्थक थे। चे को अपने देश और अपने महाद्वीप के लोगों की गरीबी बेचैन कर देती थी। होश संभालते ही उनके दिलो-दिमाग में यह प्रश्न उठता था कि आखिर प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न और कड़ी मेहनत करने वाले मेरे देश और मेरे महाद्वीप के लोग इतने गरीब, लाचार, वेबस और गुलाम क्यों हैं? क्यों और कैसे स्पने और बाद में अमेरिका ने हमारे महाद्वीप पर कब्जा कर लिया और यहां की संपदा को लूटा।
चे ग्वेरा पेशे से डाक्टर थे। बहुत कम उम्र में उन्होंने करीब 3 हजार किताबें पढ़ डाली थीं। पाल्बो नेरूदा और जॉन किट्स उनके प्रिय कवि थे। रूयार्ड किपलिंग उनके पसंदीदा लेखकों में शामिल थे। कार्ल मार्क्स और लेनिन के साथ बुद्ध, अरस्तू और वर्ट्रेड रसेल उनके प्रिय दार्शनिक और चिंतन थे। खुद चे एक अच्छे लेखक थे। वह नियमित डायरी लिखते थे। उन्होंने पूरे लैटिन अमेरिका की अकेले अपनी मोटर साईकिल से य़ात्रा की। इस यात्रा पर आधारित उनकी मोटर साईकिल डायरी है। जो बाद में किताब के रूप में प्रकाशित हुई। जिस पर एक खूबसूरत फिल्म इसी नाम से बनी।
दक्षिण अमेरिका के कई देशों में क्रांतिकारी संघर्षों मे शामिल हुए। बाद में वे कास्त्रो के साथ क्यूबा की क्रांति ( 1959) के नायक बने। जिस क्रांति ने क्यूबा में अमेरिका की कठपुतली बातिस्ता की सरकार को उखाड फेका। क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार में विभिन्न जिम्मेदारियों को संभालते हुए उन्होंने क्यूबी की जनता की जिंदगी में आमूल-चूल परिवर्तन करने में अहम भूमिका निभाई। क्यूबा दुनिया के लिए आदर्श देश बन गया। इस सब में चे ग्वेरा की अहम भूमिका थी।
क्यूबा में अपन कामों को पूरा करने के बाद चे लैटिन अमेरिका के अन्य देशों में क्रांति को अंजाम देने निकल पड़े। वोलोबिया में क्रांतिकारी संघर्ष करते हुए 1967 में वे 39 वर्ष की उम्र में शहीद हुए।
गोली मारने जा रहे सैनिकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि Do not shoot! I am Che Guevara and I am worth more to you alive than dead.”
पंजाब कई संदर्भों में भारत का विलक्षण राज्य है। इसकी सामाजिक संरचना धर्म और जाति के लिहाज से भारत के राष्ट्रीय प्रारुप या अधिकांश राज्यों से बिल्कुल भिन्न है। राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में बहुसंख्यक हिन्दू पंजाब में अल्पसंख्यक हैं। पंजाब में सिख धर्म के मानने वालो की संख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 58 प्रतिशत है जो आश्चर्यजनक रूप से 1961 के 61 प्रतिशत से तीन प्रतिशत कम है। पंजाब में अनुसूचित जाति की संख्या पूरे भारत में प्रतिशत के हिसाब से सर्वाधिक है, 2011 की जनसंख्या के अनुसार पंजाब में अनुसूचित जातियों की कुल संख्या का 32 प्रतिशत थी जिसकी पूरी संभावना है कि 2021 में यह बढ़कर प्रतिशत हो चुकी है। पंजाब में कुल सिखों का कम से कम प्रतिशत हिस्सा अनुसूचित जाति से संबंध रखता है। आज भी अनुसूचित जाति के प्रतिशत लोग गांवों में रहते हैं। पंजाब के तकरीबन 57 गाँव ऐसे हैं जिनमें 100 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग रहते हैं। अगर एक दो उदाहरणों को छोड़ दें तो ऐसा शायद ही किसी और प्रदेश में देखने को मिलेगा।
शहीद भगत सिंह नगर, श्रीमुक्तसर नगर, फरीदकोट, फिरोजपुर तथा जलंधर ऐसे जिले हैं जिनमें अनुसूचित जाति की संख्या 40% या उससे अधिक है। वहीं दूसरी और पंजाब की कुल जमीन का सिर्फ 6% हिस्सा ही अनुसूचित जाति के लोगों के पास है। प्रदेश में अनुसूचित जाति के कुल 2 प्रतिशत लोग ही स्नातक या उससे अधिक पढ़े लिखे हैं। राज्य विधान सभा की 117 सीटो में से 32 सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं हालांकि संवैधानिक प्रावधान के अनुसार कम से कम 39 सीटे अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होनी चाहिए। प्रदेश में अनुसूचित जाति की कमजोर राजनैतिक स्थिति एवं चुने हुए आरक्षित प्रतिनिधियों की अकर्मण्यता, हैसियत एवं उपयोगिता पर यह एक ज़बरदस्त आक्षेप है। संसाधनों के अभाव में कई जगह पर्याप्त संख्या बल होने के बावजूद यहाँ की अनुसूचित जाति की राजनीति के लाचार एवं निर्भर होने पर पूना पैक्ट का दुष्प्रभाव साफ नज़र आता है।
पंजाब में जाट सिख समुदाय राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक रूप से वर्चस्वशाली रहा है। प्रदेश में कभी किसी और समुदाय के पास इतना प्रभाव या शक्ति नहीं रही है। इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि ज्ञानी जैल सिंह (1972-1977) जो बाद में केन्द्रीय गृह मंत्री एवं राष्ट्रपति भी बने, पंजाब के अंतिम गैर सिख जाट मुख्यमंत्री थे। उसके बाद पिछले 43 वर्षों से पंजाब का हर मुख्यमंत्री जाट सिख रहा है। सभी अकाली दलों और कांग्रेस या आम आदमी पार्टी का प्रदेश नेतृत्व हमेशा से जाट सिखों के हाथ में ही रहा है। यही सच्चाई अकाल तख़्त या शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की भी रही है। हालाँकि पंजाब की कुल जनसंख्या में मात्र 20 प्रतिशत के आसपास ही जाट सिख हैं लेकिन उनका रुतबा सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में कही अधिक है। लेकिन भारतीय समाज एवं लोकतंत्र में संख्या का महत्व ही कब रहा है। अमूमन हर मामले में संख्या का प्रभाव विपरीत ही रहा है। शिरोमणि अकाली दल आज इस समुदाय का प्रतिनिधि राजनीतिक दल है, 1966 में हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेश से अलग होने के बाद यह दल छह बार पंजाब में अपनी सरकार बना चुका है। वर्तमान कांग्रेसी सरकार से पहले मार्च 2017 तक प्रकाश सिंह बदल के नेतृत्व में इनकी सरकार चल रही थी, वर्तमान विधानसभा में SAD के 15 विधायक हैं जिन्हें कुल 31% वोट मिले थे।
पंजाब में 1992 के विधानसभा चुनावों में बसपा ने अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन करते हुए 17 प्रतिशत मत, 9 सीटें और मुख्य विपक्षी पार्टी की मान्यता हासिल की थी। फिर 1996 के लोकसभा चुनाव में SAD से लोकसभा गठबंधन में 100 स्ट्राइक
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रेट के साथ अपनी लड़ी तीनों सीटो के साथ 13 में से 11 सीटें जीत ली थी। लेकिन उसके बाद पंजाब में बसपा का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा है। 1997 के विधानसभा चुनावों में बसपा को सिर्फ एक सीट मिली थी और पिछले चार विधानसभा चुनावों (2002, 2007, 2012, 2017) में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई है जबकि बसपा हर बार लगभग सभी सीटो पर अपने प्रत्याशी उतारती रही है। पिछले विधान सभा चुनाव में बसपा को कुल 1 करोड़ 55 लाख वोटों में से 2 लाख 35 हजार वोट प्राप्त हुए थे जो कि सिर्फ कुल वोट का मात्र 1.52 प्रतिशत ही था। ऐसे में बहुजन समाज पार्टी राज्य में अपनी खोई हुई राजनैतिक जमीन को दुबारा से प्राप्त करने की पूरी कोशिश कर रही है। अपनी स्थापना के 12 साल में ही जब 1996 में बसपा ने राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल किया था उसमें पंजाब में बसपा को 1992 प्राप्त मतों (16.3%) का बहुत महत्वपूर्ण योगदान था।
आज जब बसपा राष्ट्रीय स्तर पर अपने उस दर्जे को बनाये रखने की जद्दोजहद कर रही है, लगता है पंजाब एक बार फिर बसपा की इस लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए तैयार हो रहा है। हालांकि जमीनी सच्चाई से दूर बैठे हुए कुछ लोगों को यह लग सकता हैं कि SAD-BSP गठबंधन में बसपा के हिस्से में मात्र 20 सीटें आई हैं और SAD को 97 मिली हैं लेकिन पिछले चुनावों में दोनों दलों के तुलनात्मक प्रदर्शन से यह साफ हो जाता है कि यह समझौता काफी सम्मानजनक एवं राजनैतिक सूझबूझ भरा है BSP और SAD दोनों ही इस समझौते से अपनी राजनीतिक जमीन हासिल कर सकते है।
इस बार जिस तरह की सुदृढ़ तैयारी ऊर्जावान एवं युवा प्रदेश बसपा संगठन की पंजाब में दिख रही है, जिसका प्रदर्शन उसने स्थानीय निकायों के चुनावों में अच्छी सफलता प्राप्त करके दिया है। और केन्द्रीय नेतृत्व ने समय रहते शिरोमणि अकाली दल से अपना गठबंधन घोषित किया है उससे निश्चित ही 1992 के अपने मत प्रतिशत एवं सीटो के मामले में अपने प्रदर्शन को बेहतर करने की संभावना दिख रही है। क्योंकि यह गठबंधन चुनावों से लगभग आठ महीने पहले हुआ हैं इससे संगठन के स्तर पर दोनों दलों को तालमेल बैठाने का पर्याप्त समय भी मिल गया है। प्रदेश की राजनीति में खासतौर पर अनुसूचित जाति की महत्वपूर्ण संख्या को देखते हुए यह चुनावी गठबंधन बसपा को यह दीर्घकालीन मजबूती प्रदान कर सकता है।
अगर सामाजिक संबंधों के सन्दर्भ में अकाली बसपा गठबंधन का आकलन किया जाये तो यह राजनैतिक प्रक्रिया भविष्य के सामाजिक गठबंधन एवं वैचारिक एकता की बुनियाद बन सकती है। दोनों दल जिन सामाजिक समुदायों का राजनीतिक एवं वैचारिक प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं, ये समुदाय पंजाब में पिछले 500 वर्षों के सभी सामाजिक राजनैतिक एवं धार्मिक आंदोलनों एवं क्रांतियों की धुरी रहे हैं। वह चाहे खालसा क्रांति से लेकर आदि धर्मी एवं वर्तमान किसान तक। कांशीराम साहब कहा करते थे कि जाट सिख एक क्रांतिकारी कौम है जिसने इतिहास में कभी भी ब्राह्मण वादी वर्चस्व या उसके सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को स्वीकार नहीं किया।
दोनों समुदाय खेती से जुड़े है और अधिकतर खेतिहर मजदूर जहाँ अनुसूचित जाति वर्ग से आते है वही जाट अधिकतर खेती योग्य जमीन पर मालिकाना हक़ रखते हैं। जाहिर है दोनों समुदायों में आर्थिक संबंधों की वजह से तनाव की स्थिति बन जाना सहज है, लेकिन इस बीच बहुत से अनुसूचित जाति के लोग विदेशों में जाकर अपना कारोबार कर रहे हैं, जिसने लाखों लोगों आर्थिक मजबूती प्रदान की है। वही दूसरी तरफ पिछले तीन दशकों में कृषि के साथ सरकारों के सौतेले व्यवहार, कृषि सहित चारों और बढ़ते निजी-करण का खतरा, बढ़ते एवं पढ़ते परिवार, बिचौलियों की मुनाफाखोरी तथा घटती जमीनों के आकर ने किसानों एवं खेती से जुड़े समुदायों पर ज़बरदस्त दबाव बढाया हैं जिस कारण सैकड़ों जमींदार अपनी जमींदारियों के साथ गुम-नामी के अंधकार में विलीन हो गये और आज भी हो रहे हैं। यह गठबंधन इस तनाव से गुजर रहे दोनों समूहों को राजनीतिक रूप से नजदीक लाकर परम्परागत संबंधों को बराबरी के स्तर पर लाकर ऐतिहासिक शुरुआत कर सकता है।
इस गठबंधन के साथ ही विधानसभा के फरवरी 2022 में होने वाले चुनाव में SAD-BSP सरकार बनाने के प्रमुख दावेदार बन गये हैं। कृषि कानून के खिलाफ चल रहे ऐतिहासिक आन्दोलन के चलते, पंजाब में किसानों, युवाओं एवं व्यापारियों में केंद्र की भाजपा सरकार एवं अपने ढुलमुल रवैये के कारण राज्य की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ जन आक्रोश चरम पर है। ऐसे में पंजाब का चुनाव भारतीय राजनीति में मील का पत्थर साबित हो सकता है न सिर्फ पंजाब के लिए बल्कि आने वाले अप्रैल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए और फिर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भी।
अगले साल 2022 में पंजाब विधानसभा चुनाव में बसपा प्रदेश की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने जा रही है। पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए सुखबीर सिंह बादल की अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी ने आपस में गठबंधन कर लिया है। प्रदेश की राजधानी चंडीगढ़ में सुखबीर सिंह बादल के साथ बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने इसकी घोषणा की। कृषि बिल पर भाजपा के रूख के कारण उससे गठबंधन तोड़ने वाली अकाली दल 25 सालों बाद फिर से सत्ता पाने के लिए बसपा के साथ एक मंच पर आ गई है। गठबंधन के बाद पंजाब की 117 सीटों में से बहुजन समाज पार्टी 20 सीटों पर और अकाली दल बाकी की 97 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
इस गठबंधन के पीछे पंजाब का जातीय समीकरण है। प्रदेश में 33 प्रतिशत दलित वोट ही यह तय करते हैं कि प्रदेश में किसकी सरकार बनेगी। हालांकि विधानसभा चुनाव की बात करें तो बीते 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा कुल 111 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। लेकिन उसे सिर्फ डेढ़ प्रतिशत वोट ही मिल सके। बसपा कोई सीट नहीं जीत सकी थी।
लेकिन शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन के बाद बसपा फिर से प्रदेश की राजनीति में मजबूत वापसी की उम्मीद लगाए है। हालांकि पंजाब चुनाव में इस बार अहम मुद्दा किसान आंदोलन और कृषि कानून रहने की उम्मीद है। लेकिन प्रदेश में जिस तरह से सभी दल दलित वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश में जुटे हैं, उसमें बसपा के निश्चित तौर पर एक मजबूत ताकत बन कर उभरने की उम्मीद है। इस गठबंधन की घोषणा करते हुए सुखबीर सिंह बादल ने प्रदेश में सरकार बनने पर दलित उपमुख्यमंत्री बनाने की बात कही है, उनका यह दांव कितना चलता है, यह चुनावी नतीजे बताएंगे।
पंजाब में बसपा की राजनीति की बात करें तो साल 1992 विधानसभा चुनाव में बसपा ने 105 सीटों पर चुनाव लड़ा और 9 सीटें जीती। उसके 32 उम्मीदवार दूसरे और 40 उम्मीदवार तीसरे नंबर पर थे। और इस चुनाव में बसपा का वोट प्रतिशत था 16.3 प्रतिशत। बहुजन समाज पार्टी के इस शानदार प्रदर्शन से प्रदेश की राजनीति में हंगामा मच गया था। पंजाब में यह अब तक का बसपा का सबसे शानदार प्रदर्शन रहा है।
बहुजन समाज पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर को पार्टी से निष्कासित किए जाने से नाराज कार्यकर्ताओं ने गुरुवार को सामूहिक रूप से पार्टी से इस्तीफा दे दिया। कार्यकर्ताओं ने कहा कि राम अचल राजभर ने पार्टी के लिए निष्ठापूर्वक कार्य किया, लेकिन कुछ लोगों ने साजिश रचकर उन्हें पार्टी से निष्कासित करा दिया है।
बसपा भाईचारा कमेटी के पूर्व मंडल अध्यक्ष राम भवन शर्मा की अध्यक्षता में बसपा कार्यकर्ताओं ने शहर के एक होटल में बैठक की। इस दौरान पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर को पार्टी से निष्कासित करने को लेकर नाराजगी जताई। उन्होंने कहा कि राम अचल राजभर ने बाबा साहेब आंबेडकर व कांशीराम के आदर्शों पर चलकर बसपा को मजबूती प्रदान की, लेकिन साजिश के तहत उन्हें निष्कासित कर दिया गया है।
इससे निष्ठावान कार्यकर्ता आहत हैं। इसके बाद कार्यकर्ताओं ने सामूहिक इस्तीफा देने की घोषणा की। पार्टी से त्यागपत्र देने वालों में चंद्र प्रकाश, रामफेर, राजमणि शर्मा, राहुल शर्मा, विजय शर्मा, सदानंद गौतम, पप्पू राजभर, दीपू शर्मा, कृष्ण कुमार शर्मा, अवधेश कुमार, वीरेंद्र शर्मा, सत्यवान शर्मा, सत्यवान, सुनील वर्मा, धर्मपाल शर्मा, श्याम बिहारी, साधू शर्मा, बलराम शर्मा आदि शामिल रहे।
त्यागपत्र देने वाले कभी सक्रिय भूमिका में नहीं रहे
बसपा जिलाध्यक्ष धर्मदेव प्रियदर्शी ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी सर्वजन समाज की पार्टी है। बसपा ने हमेशा अपने शासनकाल में सबसे अधिक पिछड़ों को सम्मान दिया है। राम भवन शर्मा अभी तत्काल में हुए पंचायत चुनाव में बसपा प्रत्याशी का विरोध किए हैं। इसकी जानकारी कार्यकर्ताओं और प्रत्याशी के माध्यम से लगातार मिलती रही। वह बसपा में कभी भी सक्रिय भूमिका में नहीं रहे। इस प्रकार के व्यक्तित्व का कोई अस्तित्व नहीं है।
(लेखकः बाल गंगाधर बागी)भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी समाज की अहम भूमिका रही है, पूरे देश में लाखों आदिवासियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाया है। भारत की सभ्यता निर्माण से लेकर आज तक के भारत में आदिवासी समाज की जो महती भूमिका रही है उसे इतिहास में उचित स्थान नहीं दिया गया। यह सवाल उन भारतीय इतिहासकारों पर खड़ा होता है जो स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम सेनानी 1857 के विद्रोही मंगल पांडेय को बताते नहीं थकते। जबकि मंगल पांडेय से भी पहले 11 फरवरी 1750 में सुल्तानगंज जिला भागलपुर में जन्में तिलखा माझी सन् 1784 में क्रांति का बिगुल बजा चुके थे। बाबा तिलका मांझी ने ऑगस्टस क्लीवलैंड, ब्रिटिश कमिश्नर [लेफ्टिनेंट] को राजमहल पर गुलेल से जान से मार दिया था। परिणामस्वरूप 1784 में अंग्रेजी सरकार उन्हें पकड़ने के बाद घोड़े की पूंछ में उन्हें बांधकर भागलपुर के अंग्रेजी आवास के चारो तरफ घुमाया गया और अंत में बरगद के पेड़ में टांगकर उन्हें शहीद कर दिया गया। उस वक्त मंगल पांडेय का जन्म भी नहीं हुआ था। लेकिन सवर्ण इतिहासकार आदिवासी शौर्य को नकारते हुये वीडी सावरकर ने पहली बार मंगल पांडेय को आज़ादी का प्रथम स्वंतन्त्रता संग्राम सेनानी घोषित किया। आदिवासी समाज के प्रति इतनी नफरत इनके मन में क्यों है?
आदिवासी शौर्य की बात की जाय तो देश की आज़ादी के लिए 1855 का हूल विद्रोह सर्वविदित है। संताल की हूल क्रांति को आजादी की पहली लड़ाई माना जाता है। 30 जून 1855 को क्रांतिकारी नेता सिदो और कान्हू मुर्मू के आह्वान पर राजमहल के भोगनाडीह में 20 हजार संतालों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह किया था। इस लड़ाई में फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू ने अपने संथाल आदिवासी समुदाय के साथ अंग्रेजी हुकूमत का विरोध किया।
इन्हीं नायकों के ऐतिहासिक शौर्य में उलगुलान धरती आबा शहीद बिरसा मुंडा का नाम इतिहास में अमर है। जिन्होंने अपनी मात्र 25 साल की उम्र में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जो जंग छेड़ी उसने अंग्रेजी सरकार के परखच्चे उड़ा दिए। बिरसा मुंडा का जन्म झारखंड के रांची (खुटी) जिले के उलीहातु गाँव में हुआ था। उनके पिता सुगना पुर्ती (मुंडा) और माता-करमी पुर्ती था। विद्रोही बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा साल्गा गाँव चाईबासा जी.ई.एल. चार्च (गोस्नर एवंजिलकल लुथार) विधालय से हुई। उनके माता पिता बिरसा मुंडा को अच्छी शिक्षा देकर उन्हें आगे बढ़ाना चाहते थे लेकिन स्कूलों की कमी के कारण उनका ईसाई मिशनिरी स्कूलों में दाख़िला कराया। जहाँ दाखिला लेने के लिए ईसाई नाम रखना ज़रूरी था इसीलिए बिरसा का एडमिशन बिरसा डेविड के नाम से हुआ। लेकिन बिरसा को यह बात पसंद नहीं आई इसीलिए उन्होंने अपने नाम से डेविड शब्द हटा दिया।
उस दौर में झारखंड ही नहीं बल्कि पूरे देश में जाति, पाखंड, आडम्बर ज़मींदारी इत्यादि हावी था। जिसके चलते धर्म के ठेकेदारों के द्वारा ज़मींदारी बढ़ने लगी और सवर्ण ज़मींदार जब आदिवासियों की जमीने छीनने लगे तो आदिवासी समाज इस बाबत लामबंद हुआ और यह समय के साथ विद्रोह का रूप लेने लगा। बिरसा मुंडा ने ज़मींदारों की हड़प नीति की मुखालिफ़त करते हुए आदिवासी समाज का नेतृत्व किया।
झारखंड में छोटा नागपुर का नाम बहुत मशहूर है। नागवंश का इतिहास यहाँ से मिलता है। यहाँ के नागा आदिवासी पूरे भारत में बसे हैं। नागपुर शहर इन्हीं के नाम से जाना जाता है, जहाँ बाबा साहब ने 1956 में बौद्ध धम्म की दीक्षा लेते हुये इस ऐतिहासिक तथ्य की तरफ़ इशारा किया था कि “जिन लोगों को यह लगता है कि मैं नागपुर में इसीलिए बौद्ध धम्म ग्रहण कर रहा हूँ क्योंकि यहाँ आरएसएस का मुख्यालय है तो वह लोग गलत सोच रहे हैं बल्कि मैं नागपुर में इसीलिए बौद्ध धम्म की दीक्षा ले रहा हूँ क्योंकि यह धरती हमारे पूर्वज नागों की धरती है।”
अगर कश्मीर का इतिहास उठाकर देखे व उसकी भूगोलिक व राजनीतिक नामावली का जायजा लें तो यह पता चलता है कि वहाँ अनंतनाग नाम से एक जिला है जिसका ज़बरदस्ती नाम बदलकर इस्लामाबाद रखा गया है। उत्तर भारत में एक पर्व मनाया जाता है जिसे नाग पंचमी कहते हैं। इसमें पंचमी शब्द बुद्ध के पंचशील दर्शन को संबोधित करता है। इस दिन लोग अपने घरों में अच्छे पकवान बनाते हैं और पेड़ों पर झूला डालकर झूलते हैं। इस मौके पर महिलाएं कजरी गाती हैं और मौसम से संबंधित लोकरंग में डूबी संवेदनाओं का लोमहर्षक वर्णन करती हैं। और पुरूष कबड्डी व कुश्ती जैसे खेलों का आनन्द लेते हैं।
इसके विपरीत सवर्ण संस्कृति के लोग इसी दिन कपड़े की गुड़िया बनाकर शाम के वक़्त सवर्ण लड़किया कतार बनाकर आती हैं और सवर्ण लड़के हाथ में डंडा लेकर आते हैं और कपड़े की गुड़िया को सवर्ण लड़कियाँ फेंकती हैं जिस को सवर्ण लड़के डंडों से पीटते हैं। उसके बाद लड़कियाँ लड़कों को घर से लाये पकवान खिलाती हैं। यह परम्परा आज भी पूर्वांचल में कुछ जगहों पर है। लेकिन नाग संस्कृति के प्रति सवर्ण समाज के भीतर आज भी नफरत है?
आदिवासी समाज स्वतंत्र संस्कृति का बाहक रहा है इसीलिए उसे किसी का उसके इलाके में जबरन घुसपैठ पसंद नहीं। आदिवासियों का मानना है कि उनके इलाके में कोई भी आये उसका स्वागत है लेकिन वहाँ रहकर अगर उनके जल-जंगल व ज़मीन को छीनने का प्रयास करे तो उन्हें पसंद नहीं। कुछ लोग आदिवासियों के खिलाफ भ्रामक प्रचार करते हैं कि आदिवासी किसी को अपने इलाके में आने नहीं देना चाहते। जबकि यह बात समझने का प्रयास बहुत कम लोग करते हैं अगर किसी के घर में जाकर कोई उसके घर को हड़पने की कोशिश करे तो यह किसी को भी पसन्द नहीं आएगा। फिर यह बात सभी पर लागू होती है न कि सिर्फ आदिवासियों पर। यही वजह थी कि अंग्रेज जब आदिवासी इलाक़ों में घुसपैठ करते हुये झारखंड पहुंचे और वहां आदिवासियों की जमीनों की हड़प नीति अपनाए और धर्म परिवर्तन कराना शुरू किये तो आदिवासी जिस तरह से स्थानीय ज़मींदारों व सामन्तों के खिलाफ मुखर होकर लामबंद हुये थे उससे भी ज़्यादा विद्रोही रुप में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दिया।
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उसका नारा था कि “अबुआ दिशुम अबुआ राज यानि हमारा देश हमारा राज”। यह अब्राहम लिंकन के नारे के ही समान है कि “जनता की सरकार जनता के द्वारा जनता के लिए”। बिरसा के अलख से जगह-जगह आदिवासी एकत्रित व संगठित होने लगे और तीर कमान के विद्रोह से देखते ही देखते पूरे झारखंड से अंग्रेजी सरकार के पैर उखड़ने लगे। इस सेना में आदिवासी पुरुषों के साथ महिलाएं भी कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रही थीं। घबराई अंग्रेजी सरकार ने बिरसा मुंडा को पकड़ने के लिए 500 रुपये का ईनाम रखा। जिसके परिणाम स्वरूप जनवरी 1900 में जब बिरसा उलिहातू के नजदीक डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे, एक आदिवासी की मुखबिरी के कारण अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें चारो तरफ से घेर लिया। अंग्रेजों और आदिवासियों के बीच लड़ाई हुई। औरतें और बच्चों समेत बहुत से लोग मारे गये। अन्त में बिरसा 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये और कई दिनों की यातना देने के बाद उन्हें 9 जून सन 1900 में रांची की जेल में ही जहर देकर मार दिया गया।
महज 25 साल की उम्र में बिरसा मुंडा ने क्रांति का ऐसा ऐतिहासिक बिगुल बजाया जिसने उन्हें करोड़ों लोगों के आदर्श के रूप में स्थापित कर दिया। तीर-कमान, भाला, फरसा, व गुलेल से अंग्रेजी सरकार के तोपों का मुकाबला करने वाला यह नौजवान आदिवासी समाज को यह सीख दे गया कि अपने वजूद की रक्षा के लिए एक चिंगारी भी ज्वाला बन सकती है। हर असमानता के ख़िलाफ़ विद्रोह का नाम बिरसा मुंडा है।
आज भी बिहार, उड़िसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है। इसीलिए उन्हें लोग धरती आबा के नाम से संबोधित करते हैं। बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। जहाँ उनकी प्रतिमा भी लगी है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा भी है। आजादी के बाद से सत्ता में आई सरकारों ने आदिवादी समाज के प्रति जो दोहरा रवैया अपनाया है वह अत्यन्त निराशाजनक है। आदिवासी समाज आज भी अपने ही मुल्क में अपनी ही मिल्कियत से बेदखल किये जा रहे हैं। ऐसे में लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए ऐसी सरकार की ज़रूरत है जिसका आदिवासी समाज अपेक्षित है।
बहुजन समाज में जन्मे ऐसे नायक को मान्यवर कांशीराम अपना आदर्श मानते थे इसीलिए साईकिल से पूरे देश में गाँव-गाँव जाकर बहुजन नायक व नायिकाओं की वीरगाथा।लोगों को सुनाते व समझाते रहे। कहते हैं कि अपने इतिहास को पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचारती करते रहना चाहिए नहीं तो विरोधी उस पर मिट्टी डाल देंगे।
जय भीम- हूल जोहार
इस आलेख के लेखक डॉ. बाल गंगाधर बाग़ी ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएच.डी की डिग्री ली है।
जेएनयू के पूर्व छात्र और ओडिशा के रहने वाले एंटी कॉस्ट एक्टिविस्ट दलित रैपर सुमित समोस ने कमाल कर दिया है। सुमित ने जो किया, दरअसल उससे एक रिकार्ड भी बन गया है। रिकार्ड की बात बाद में, अच्छी खबर यह है कि सुमित समोस ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी जा रहे हैं, जहां वह दक्षिण एशियाई अध्ययन में एमएससी कार्यक्रम में शामिल होंगे। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में सुमित का शोध एंटी कास्ट एक्टिविजम पर केंद्रित होगा। सुमित का कहना है कि यह विषय उनके दिल के करीब है। सुमित इससे पहले जेएनयू में स्पेनिश भाषा और लैटिन अमेरिकी साहित्य में ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री ले चुके हैं। सुमित अक्टूबर में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की राह पकड़ेगे।
दरअसल सुमित का ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में दाखिले के लिए भेजा गया आवेदन जनवरी महीने में स्वीकार कर लिया गया था। लेकिन सुमित के सामने पढ़ाई के पैसे जुटाने की चुनौती थी। दक्षिण ओडिसा के कोरापुट के रहने वाले सुमित के पिता एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं, जबकि उनकी माँ एक एएनएम कार्यकर्ता रही हैं। ऐसे में वह घर से पैसे नहीं ले सकते थे। दिकक्त तब ज्यादा बढ़ गई जब सुमित ने स्कॉलरशिप के लिए आवेदन दिया, लेकिन कुछ तकनीकी दिक्कतों के कारण वह स्कॉलरशिप नहीं पा सकें। और वादा करने के बावजूद ओडिसा सरकार ने तकनीकी दिक्कतों का हवाला देकर हाथ खड़े कर दिये। ऐसे में सुमित के सामने बस एक ही रास्ता था, वह रास्ता था, क्राउड फंडिंग के जरिए पैसे जुटाना।
सुमित ने इस बारे में सुन रखा था सो उन्होंने अपने कुछ दोस्तों की मदद से क्राउड फंडिग के लिए अपील की। और गजब यह हुआ कि सुमित ने सिर्फ 3 घंटे में क्राउड फंडिग के जरिए 38 लाख रुपये जुटा लिए। जो कि निश्चित तौर पर एक रिकार्ड है। हालांकि इस दौरान कई लोगों ने सुमित पर जाति के आधार पर पैसे मांगने का आरोप भी लगाया और उन्हें भला-बुरा भी कहा। लेकिन सुमित के विचारों से ताल्लुक रखने वाला समाज उनकी मदद को आगे आया और दिल खोल कर उनकी मदद की। सुमित का कहना है कि उन्हें यकीन था कि समाज के लोग उनकी मदद करेंगे, लेकिन वो सिर्फ 3 घंटे में 38 लाख रुपये जैसी बड़ी रकम जुटा पाएंगे, उन्हें इसकी उम्मीद नहीं थी।
सुमित अब ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी जाने की तैयारी में हैं। सुमित अपने नाम से ही अपना यू-ट्यूब चैनल भी चलाते हैं, जहां वह अपने लिखी गीतों को रैप के जरिए लोगों तक पहुंचाते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुमित ऑक्सफोर्ड से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद दलित-बहुजन समाज के लिए और बेहतर काम करेंगे।