BBAU में बना रहेगा SC/ST का 50 प्रतिशत आरक्षणः इलाहाबाद हाइकोर्ट

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लखनऊ। बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय (बीबीएयू) में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति  के लिए 50 प्रतिशत का बना रहेगा. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बीबीएयू की पिछड़ा जन कल्याण समिति की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया. हाईकोर्ट के इस फैसले से अनुसूचित जाति के छात्रों को राहत मिली है. हाईकोर्ट ने विश्वविद्यालय प्रशासन को भी आदेश दिया कि भविष्य में ऐसी कोई भी नीति न बनाए जिससे छात्रों को हानि हो. अमित बोस, अभिषेक बोस और निलय गुप्ता याचिकाकर्ता समिति के वकील रहे. गौरतलब है कि बीबीएयू प्रशासन पिछले कई दिनों से विश्वविद्यालय से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले आरक्षण में कटौती करने का प्रयास कर रहा था. जिसका दलित छात्र विरोध कर रहे थे. छात्रों के विरोध करने पर प्रशासन ने उन्हें झूठे आरोप में फंसा कर निष्काषित कर दिया था. इसके अतरिक्त विश्वविद्यालय में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के छात्रों के साथ मार-पीट भी की जा रही थी. इतना अत्याचार होने के बाद बीबीएयू की पिछड़ा जन कल्याण समिति ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में आरक्षण के संबंध याचिका लगाई थी. बीबीएयू के एक छात्र ने कहा कि बीबीएयू में आरक्षण का मामला किसी समुदाय की हार या जीत का मामला नहीं है. यह अनुसूचित जातियों व जनजातियों के प्रतिनिधित्व से जुड़ा हुआ मामला है. चूंकि  विश्वविद्यालय के एक्ट और आर्डिनेंस में एक समुदाय विशेष को आगे बढ़ाने की बात लिखी हुई है, ठीक उसी क्रम में 50 प्रतिशत आरक्षण अनुसूचित जातियों को मिला. लेकिन अभी हमारी लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है. हम अपने पिछड़े भाइयों को उनका हक जो की मनुवादियों ने 50 प्रतिशत आरक्षण लेकर कब्ज़ा किया हुआ है, उसमें से हम ओबीसी भाइयों के 27 प्रतिशत आरक्षण के पक्ष में अपनी आवाज उठाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. उन्होंने ओबीसी छात्रों के बार में कहा कि जनसंख्या के अनुपात में जिसने आपके हक पर कब्ज़ा किया है उन मनुवादियों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करिये. अनुसूचित जातियां सदैव आपके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी थी और खड़ी रहेंगी. ओबीसी भाइयों को सनद रहे की किसने मंडल कमीशन का विरोध किया, और किसके आरक्षण में से आपको 27 प्रतिशत आरक्षण मिला वही लोग आपको आगे करके हमेशा से ओबीसी और अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों को आपस में लड़वाते आए हैं. दलित छात्रों ने अपने ओबीसी भाइयों के साथ सद्भाव और एकता का परिचय देते हुए 50%+27% आरक्षण की बात करते हुए एक दूसरे को मिठाई खिलाकर जश्न मनाया और नारा दिया कि ” 50 हमें मिल गया अब 27 की बारी है. ” बीबीएयू के छात्र गौतम बुद्ध केंद्रीय पुस्तकालय पर एकत्रित होकर दलित और पिछड़ा को साथ लेकर चलने की बात करते हुए माननीय न्यायालय से आये हुई निर्णय का सम्मान करने के साथ ही साथ आपसी एकता पर बल दिए.

चीन में है दुनिया की सबसे बड़ी बुद्ध की प्रतिमा, बनाने में लगे थे 90 साल

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चीन की सबसे पवित्र जगहों में से एक लेशान बुद्ध दुनिया के सबसे ऊंचे बुद्ध की प्रतिमा है. इस प्रतिमा की ऊंचाई 233 फ़ीट है और इसको बनाने में 90 साल लगे हैं. ऐसा माना जाता है कि इस प्रतिमा को साल के पहले दिन देखने से लोगों की सोई किस्मत जाग उठती है. ये प्रतिमा पवित्र Mount Emei पर नक्काश की गयी है. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि एक बौद्ध भिक्षु ने इस विशाल प्रतिमा को अपने हाथों से पहाड़ खोद कर तराशा है. इस विशालकाय बौद्ध प्रतिमा का निर्माण 713 A.D. में शुरू हो चुका था. ये एक चीनी सन्यासी Haitong का आईडिया था. इसके पीछे उसकी धार्मिक आस्था भी जुड़ी थी. उसने सोचा कि तथागत बुद्ध पानी के तेज बहाव को शांत कर देंगे, जिससे नदी में आने-जाने वाली नावों को कोई क्षति नहीं होगी. ये उसने तथागत की महिमा के बारे में सोच कर नहीं किया था, बल्कि उसने सोचा कि मूर्ति बनाने के दौरान जो भी मलबा पहाड़ से कट कर नदी में गिरेगा, उससे नदी की तीव्र धारा शांत हो जाएगी. सरकार ने इस योजना के लिए कोई फंडिंग नहीं की, बल्कि उस सन्यासी की ईमानदारी और वफ़ादारी साबित करने के लिए उसकी आंखें निकलवा दी. फिर भी ये निर्माण उसके शिष्यों द्वारा चलता रहा. अंत में एक लोकल गवर्नर की सहायता से ये 803 A.D. में पूरा हो गया. Dafo के नाम से मशहूर इस प्रतिमा में बुद्ध गंभीर मुद्रा में हैं. प्रतिमा में बुद्ध के हाथ उनके घुटनों पर है और वो टकटकी लगाकर नदी को देखे जा रहे हैं. ऐसा कहा जाता है कि जब बुद्ध की सिखाई बातें लोग भूलने लगेंगे, तब मैत्रेय अवतार में बुद्ध फिर से धरती पर आएंगे. 233 मीटर लम्बी इस प्रतिमा में उनके कंधे 28 मीटर चौड़े हैं और उनकी सबसे छोटी उंगली इतनी बड़ी है कि उसपर एक आदमी आराम से बैठ सकता है. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि उनकी भौहें 18 फीट लम्बी हैं. वहां के एक स्थानीय निवासी ने बताया कि बुद्ध ही पहाड़ हैं और पहाड़ ही बुद्ध हैं. बहुत से छोटी-छोटी धाराएं बुद्ध के बाल, गले, छाती और कानों से निकले हैं. ये प्रतिमा को कटाव और विखंडन से बचाने के लिए बनाए गए हैं. 1200 पुराने इतिहास को संजोने के लिए इस प्रतिमा का निरंतर रख-रखाव किया जाता है. उनके कान के पास एक छत बनाई गई है, जहां जाकर पर्यटक सुहाने नजारों का मजा लेते हैं. इस जगह के बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि ये जगह बुद्ध की इस प्रतिमा बनने के पहले से ही पवित्र थी.

एक ही दलित परिवार की तीन बेटियां एक साथ बनी लेक्चरर

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झुंझुनूं। बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि मैं किसी परिवार की तरक्की को इस तरह आंकता हूं कि उस परिवार में महिलाओं के शिक्षा की स्थिति क्या है. बाबासाहेब के उस सपने को झूंझुनूं के चिड़ावा की बेटियों ने साकार कर दिया है. वार्ड 25 निवासी नायक परिवार की तीन बेटियो ने एक साथ लेक्चरर (व्याख्याता) पद पर चुनी गई है. बेटियों के पिता बाबूलाल नायक खुद नवलगढ़ पंचायत समिति में सहायक लेखाधिकारी हैं. उनकी तीनों बेटियों का प्रथम व्याख्याता पद पर चयन हुआ है. बड़ी बेटी सरिता नायक का राजनीति विज्ञान में व्याख्याता के पद पर चयन हुआ है. वह वर्तमान में भीलवाड़ा में थर्ड ग्रेड शिक्षिका के पद पर हैं. वही दूसरी बेटी संगीता नायक संस्कृत में व्याख्याता बनी हैं जो वर्तमान में धतरवाला गांव में सैकंड ग्रेड शिक्षिका हैं. वहीं तीसरी बेटी सविता नायक का इतिहास व्याख्याता में चयन हुआ है जो फिलहाल अलीपुर गांव में सैकंड ग्रेड में शिक्षिका है. इस तीहरी सफलता से पूरे परिवार में खुशी है. पिता बाबूलाल नायक का कहना है कि बेटियां नियमित पढ़ाई करती रही, जिसके बाद उन्होंने यह सफलता अर्जित की है. उन्होंने कहा कि हर किसी को अपनी बेटियों को आगे बढ़ने में पूरा सहयोग करना चाहिए. गौरतलब है कि बाबूलाल की तीनों बेटियों की शादी हो चुकी है. बावजूद इसके तीनों ने लगातार अपनी पढ़ाई को जारी रखा है और प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रही हैं.

पिंडदान, श्राद्ध और मृत्युभोज ब्राह्मणों का ढोंगी विधान!

मेरे एक मित्र गया में अपने पितरों का पिंडदान करने के बाद कल ब्रह्मभोज देने वाले हैं. मेरे मन में कुछ शंकाए उमड़-घुमड़ रही हैं, उसे आपके समक्ष बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत कर रहा हूं. पिंडदान का विस्तृत वर्णन गरुण पुराण, अग्नि पुराण और वायु पुराण में किया गया है. कुआर(आश्विन) के अंधरिया को कृष्णपक्ष कहते हैं. इसी कृष्णपक्ष में अपने पितरों (मरे हुए पूर्वजों) को तृप्त करने के लिए, मोक्ष दिलाने के लिए और स्वर्ग भेजने के लिए पिंडदान किया जाता है. पिंडदान के लिए “गया” की महिमा अपरम्पार है. इस कार्य के लिए पूरे ब्रह्माण्ड में इससे उत्तम स्थान दूसरा कोई नहीं है! ये मैं नहीं कह रहा हूं बंधुओं, ऐसा शास्त्र कह रहे हैं. मैं तो आपके साथ मिलकर इसपर विचार करना चाहता हूं कि “शवदाह संस्कार से लेकर ब्रह्मभोज के बीच ब्राह्मणों ने कितनी बार मृतक को मोक्ष, स्वर्ग इत्यादि दिला चुके है? फिर भी ब्राह्मण पण्डे आप जैसे यजमानों का पिंड नहीं छोड़ते हैं! पुनः पिंडदान के नाम पर हर साल दान-दक्षिणा लेने का जुगाड़ किये हुए हैं! इस पर एक बार पुनः संक्षिप्त प्रकाश डाल लिया जाय:- मोक्ष – जीते जी भले ही आपने परमपिता परमेश्वर (कृष्णभक्ति) की भक्ति की हो या नहीं, मरते समय गंगाजल पिला देने से, मोक्षदायनी (गंगा, नर्मदा) नदियों में शवदाह करने से या हड्डियों को गंगा में विसर्जित कर देने से ही मोक्ष मिल जाता है. जीवनभर व्यक्ति चाहे जितना कुकर्म और अपराध किया हो, मरते वक्त कृष्ण-कृष्ण/राम-राम का जाप (रटा) करा दीजिए, मोक्ष मिल जाता है. ये मैं नहीं, गीता और अन्य शास्त्र कहते हैं! मोक्ष के बाद आत्मा का मिलन ईश्वर (परमात्मा) से हो जाता है. उस व्यक्ति की आत्मा अब किसी भी योनी में जन्म नहीं लेगी. फिर पिंडदान का औचित्य क्या है? स्वर्ग – किसी का अन्तिम समय आ गया हो, उसके प्राण निकलने वाले हो, तो बछिया अथवा गाय का पूंछ पकड़वा कर ब्राह्मण को दान कर दीजिये; उस व्यक्ति की आत्मा को बैकुंठ(स्वर्ग) निश्चित मिलेगा? यह झूठ नहीं है! शास्त्रों का कथन है. इस लोक में जितना आपने पूर्ण कमाया है, उसी के अनुपात में स्वर्ग सुख भोगेगें – “सूरा-सुंदरी-छप्पन भोग!” अब भला बताइए, जो स्वर्ग चला गया, वहां का आनंद छोड़कर कोई मृतक गया में आंटे का लोंदा खाने आयेगा? पिंडदान में पितरों को यही अर्पित किया जाता है. ये ब्राह्मण क्या बकवास करते हैं? बंधुओं, सोंचो, विचार करो!   नरक – विष्णु पुराण, गरुण पुराण, अग्नि पुराण और वायु पुराण में साफ़ शब्दों में बताया गया है कि पापियों को नरक मिलता है. भईया, जिसको नरक मिल गया, उसे भुगते बिना मृतक किसी अन्य लोक में नहीं जा सकता! नरकवासी आत्मा को बिना समय पूरा किये, पृथ्वीलोक में रिश्तेदारी निभाने की छुट्टी यमराज नहीं देते हैं! कहीं नहीं लौटा तो? अतः वह रक्त, पीव, मल-मूत्र (ये नरकवासियों के भोजन हैं) छोड़कर, गया में पिन्डा खाने नहीं आ सकता! अन्य 84 लाख योनी में जन्म – जिसको स्वर्ग-नरक और मोक्ष नहीं मिला, उनकी आत्मा चौरासी लाख योनियों में बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में घूमती रहती है. जब आत्मा किसी योनी में जन्म ले चुकी हो, अर्थात, आत्मा ने वस्त्र बदल लिया और वह मजे में है. उसे पिंडदान के नाम पर तृप्त करने का ढोंग क्यों रचते हैं? अब आपको इतनी बात न समझ में आये, तो आप दिमागी रूप से ब्राह्मणों के गुलाम हैं या फिर मंदबुद्धि. भूत-प्रेत योनी – जिनकी आकाल मृत्यु होती है (जैसे, किसी दुर्घटना आदि द्वारा) उनकी आत्मा भूत-प्रेत की योनी में चली जाती है. ऐसे मरे लोगों की आत्मा को ऊपर वर्णित किसी लोक या योनी में जगह नहीं दिया जाता. इनकी आत्मा पृथ्वी पर भटकती रहती है. ऐसे आत्मा को भूत-प्रेत योनी से मुक्त और तृप्त करने के लिए ही दसवें दिन दसगात्र किया जाता है. बड़ा फाडू आविष्कार है -दसगात्र! पीपल के पेड़ पर मटकी(घड़ा) टंगवाइये, पानी डलवाईये, वेदी बनवाइए, अंट-संट मन्त्र बचवाईये, ब्राह्मणों को खिलाईये और अंत में ब्राह्मणों के गिराए जूठन पर मृत व्यक्ति के नाम पर पिंडदान कीजिए! प्रेतात्मा को मिल गई शांति, हो गई तृप्ति, पा गई मुक्ति. झंझट समाप्त! बंधुओं, आपने देखा न तेरहवीं तक अस्तित्व विहीन आत्मा को मोक्ष, स्वर्ग, मुक्ति इत्यादि दिलाने के नाम पर ब्राह्मणवादी कितना ढोंग, पाखंड और कर्मकांड करवाते हैं. अपने परिजन को मोक्ष और स्वर्ग दिलाने के लिए सनातनी हिन्दू पुरोहितों को भरपूर दान-दक्षिणा भी देता है. फिर भी ये ढोंगी ब्राह्मण और दान-दक्षिणा के लालच में पितरों की तृप्ति हेतु, पितृपक्ष में पिंडदान का विधान खोजा है. पिंडदान ब्राह्मण धन की लालच के लिए करवाता है. अरे भाई, आत्मा तो अजर- अमर है न? तेरहवीं तक जो कर्मकांड पुरोहित करवाता है, वह सब तो पितरों की आत्मा को मोक्ष, स्वर्ग आदि दिलाने के लिए ही न किया जाता है? नहीं समझे न! भाई, ब्रह्मभोज तक का कर्मकांड ठगी और पिंडदान महाठगी है. सन 1998 से 2002 के बीच मैं चिकित्सा पदाधिकारी के पद पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, फतेहपुर, जिला- गया में पदस्थापित था. पितृपक्ष काल में अतिरिक्त चिकित्सकों की प्रतिनियुक्ति गया शहर में की जाती है, ताकि पितृपक्ष मेले में उमड़ी भीड़ को स्वाथ्य सेवा उपलब्ध कराई जाय और महामारी न फैलने दिया जाय. देश-विदेश से लाखों लोग यहां पिंडदान करने आते हैं. जहाँ तक मुझे याद है दो बार मेरी भी प्रतिनियुक्ति हुई थी. उस समय गया के कई पंडों से बात हो जाया करती थी. कुछ पंडों ने यह राज खोला कि “हमें पितृपक्ष का बेसब्री से इंतजार रहता है. इन 15 दिनों में दान-दक्षिणा में इतना धन मिल जाता है कि हम साल भर बैठकर खाते हैं.” अब आप स्वयं विचार करे! ब्राह्मण इस व्यवस्था को क्यों तोड़ना चाहेगा? आप ध्यान दीजिये, किसी भी कर्मकांड (जन्म से मरण तक) में ब्राह्मणों ने कदम-कदम पर दान लेने का विधान किया है! किसी के पास कोई प्रमाण नहीं है कि आत्मा कहां गई, स्वर्ग मिला या नरक, मोक्ष मिला या प्रेत बना! कोई माई का लाल प्रमाणित नहीं कर सकता? बंधुओं, मृत्यु के बाद कुछ भी शेष नही बचता है? 26 तत्वों से बना जीव 26 तत्त्वों में बदल जाता है. आत्मा नहीं है, स्वर्ग नहीं है, नरक नहीं है. मोक्ष, भूत-प्रेत आदि की अवधारणा बकवास है. जीवों की उत्पत्ति, विकास और विनाश भौतिक, रसायन और जीव विज्ञान के निश्चित नियमों के कारण होता है. यही सच है. पिंडदान, श्राद्ध और मृत्युभोज का आयोजन ढोंग है, इसे न करें. श्राद्ध के चक्कर में कितने कंगाल हो जाते हैं. मैं तो आपसे यह अपील करता हूं कि शवयात्रा में “राम-नाम सत्य है” कहना भी पाखंड है; इसे न बोलें. शवयात्रा में मौन रहें. और यदि बोलना ही है तो समाज को यह सच्चा सन्देश दे “जीना-मरना सत्य है” बोलें. ये कर्मकांड, बहुराष्ट्रीय कंपनी की तरह एक जाति विशेष (ब्राह्मण) द्वारा संगठित रूप से जनता का शोषण अभियान है, जिसमें बिना शारीरिक श्रम किये लाखों ब्राह्मण परिवार अनगिनत कर्मकांडों के नाम पर धनोपार्जन करते हैं. जनता की खून-पसीने की कमाई को दान-दक्षिणा के नाम पर ऐंठकर गुलछरे उड़ाते हैं. ऐसे असंख्य कर्मकांडों का जाल इन्होंने फैला रखा है! ये बड़े चालाक और धूर्त लोग हैं. क्या आपने ब्राह्मण समाज के उंच्च शिक्षित डाक्टर, इंजिनियर, प्रोफ़ेसर, जज, डीएम, इत्यादि को किसी यजमान के घर पुरोहिती करते देखा है? भाई, मैंने तो नहीं देखा है! इसका अर्थ क्या है? इसका मतलब है, ब्राह्मण समाज का सबसे निकम्मा और नाकारा सदस्य ही पुरोहिती के धंधे को अपनाता है. मेरी बात पर विश्वास मत कीजिए? गांव या शहर कहीं भी अपने आस-पास 10-20 पुरोहितों का सर्वेक्षण कर लीजिये और साक्षात्कार ले लीजिए. मित्रों, आप उनके बुने हुए जाल में बुरी तरह उलझे हुए हैं! आप अपने शिक्षित एवं बुद्धिजीवी होने का धर्म नहीं निभा रहे हैं? आस्था और अन्धविश्वास के कारण वाहियात बातों पर भी प्रश्न-चिन्ह लगाने का साहस आप में नही है? जो भी गलत धार्मिक कुरुतियां हैं, उसे ठीक कौन करेगा? आपके पूर्वज? जो मर-खप गए हैं! या वह जो जिन्दा हैं और जिनके पास ज्ञान और विज्ञान का भरपूर भंडार है! जिनके पास तर्क करने की, खंडन करने की और प्रमाणित करने की क्षमता है. वह व्यक्ति आप और हम हैं? अब सोचिये मत, तैयार हो जाइये और समाज को ढोंग, ढकोसला एवं पाखंड से मुक्त कराईए? अब आत्मा की शांति के नाम पर मृत्युभोज और पिंडदान बंद होना चाहिए? दुनिया में परिवर्तन मुर्दे नहीं किया करते! नवीन खोजें और बदलाव वर्तमान पीढ़ी ही करती हैं?

अंधराष्ट्रवाद और भ्रष्टाचार के दौर में शहीद होते जवान!

हर युद्ध,गृहयुद्ध की कीमत जैसे देश काल परिस्थिति निर्विशेष स्त्री को ही चुकानी पड़ती है, उसी तरह दुनिया में कहीं भी युद्ध हो तो उससे आखिरकार हिमालय लहूलुहान होता है. उत्तराखंड के कुमायूं गढ़वाल रेजीमेंट या डोगरा रेजीमेंट,नगा रेजीमेंट या असम राउफल्स सबसे कठिन युद्ध परिस्थितियों का मुकाबला तो करती ही है, गोरखा रेजीमेंट की टुक़ड़ियां अब भी ब्रिटिश सेना में शामिल है. हाल के खाड़ी युद्ध और अफगानिस्तान युद्ध में भी हिमालय जख्मी हुआ है, बाकी युद्ध, गृहयुद्ध का मतलब सौ बेटों की मृत्यु का सामना करने वाली माता गांधारी का शोक है या फिर कुरुक्षेत्र का शाश्वत विधवा विलाप है. हम अपने बेटों को शहीद बनाने पर आमादा क्यों हैं? बंद ताबूत में तिरंगे में लिपटी अनगिनत लाशें हमारी देशभक्ति के लिए इतना अनिवार्य क्यों है? साठ के दशक में हरित क्रांति के बावजूद हालात भुखमरी हुई थी. तबसे लेकर भूख का भूगोल बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ लगातार सीमाओं के आर-पार इस खंडित महादेश का सबसे बड़ा सच है. इस भूख के खिलाफ सही मायने में अभी कोई लड़ाई शुरु हो नहीं पायी है. आम जनता के हकहकूक के लिए कहीं कोई मोर्चा नहीं है. 1971 में भारत-पाक युद्ध के नतीजे से सिर्फ बांग्लादेश आजाद हो गया, ऐसा नहीं है. खुला युद्ध फिर नहीं हुआ, सच है लेकिन हम लगातार पाकिस्तान और चीन के साथ छायायुद्ध लड़ रहे हैं. शहादतों का सिलसिला कभी थमा ही नहीं. उसी युद्ध के नतीजे के तहत समूचा अस्सी के दशक में पूरा देश गृहयुद्ध की आग में जलता रहा और सिखों का नरसंहार के साथ साथ गुजरात नरसंहार तक नरसंहारों का अटूट सिलसिला हमारे अंध राष्ट्रवाद का अखंड युद्धोन्माद है. यही सियासत है और मजहब भी यही है. 1962 में हम चीन से युद्ध हार गये, तब भी हिमालय सबसे ज्यादा लहूलुहान हुआ. उस युद्ध के बाद हमारी समूची उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था बदल गयीं. आम जनता की बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं को नजरअंदाज करते हुए तब से लेकर आज तक हम लगातार युद्धाभ्यास कर रहे हैं. हमने इस युद्धोन्माद की वजह से समूचे देश को परमाणु चूल्हों के हवाले कर दिया है. हमारे बजट में रक्षा और आंतरिक सुरक्षा पर भारी खर्च और राष्ट्रवाद, देशभक्ति की पवित्र संवेदनशील भावनाओं की आड़ में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार हो रहा है. इसी अंध राष्ट्रवाद की लहलहाती फसल कालाधन है जो विदेशी बैंकों में जमा है और किसी अपराधी के किलाफ जांच इसलिए नहीं हो सकती के यह कालाधन रक्षा घोटालों का है. युद्ध परिस्थितियों में आपातकाल के समय अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता नहीं होती है और अंध राष्ट्रवाद में विवेक कहीं खो जाता है. इसलिए रक्षा घोटालों में अब तक किसी को सजा हुई नहीं है. अमेरिका के युद्धों में भी वहां के राजनेता और राष्ट्रनेता अरबों की सौदेबाजी करते रहे हैं. हाल में इसके तमाम खुलासा हुए है कि कैसे निजी और कारपोरेट हित में सिर्फ अमेरिका को नहीं, सिर्फ नाटो को नहीं, पूरी दुनिया को अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने युद्ध के हवाले किया है. मसलन तेल युद्ध का सच अब जगजाहिर है. अमेरिकी राष्ट्रवाद की आड़ में वहां की अर्थव्यवस्था बाकायदा युद्धक अर्थ व्यवस्था है. दुनियाभर में युद्ध और गृहयुद्ध में अमेरिकी हित निर्णायक होते रहे हैं. बाकी दुनिया की तरह इस महादेश के तमाम युद्धों और गृहयुद्धों की जड़ में वही अमेरिकी हित हैं जो सभी पक्षों को युद्ध गृहयुद्ध का जरुरी ईंधन समान भाव से मुहैय्या कराता है और अल कायदा, तालिबान और आइसिस अमेरिकी अवैध संताने हैं. इस महादेश के राष्ट्रनेताओं के कारनामों का खुलासा हो, हमारे कारपोरेट लोकतंत्र में इसकी कोई संभावना नहीं है. हमने उसी अमेरिका के साथ परमाणु संधि करके और फिर रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश का जो रास्ता तैयार कर दिया है, उसकी नियति फिर युद्ध है क्योंकि रक्षा क्षेत्र में निजी, कारर्पोरेट और विदेशी हितों के समरस समावेश से हमारी अर्थव्यवस्था भी अब युद्धक अर्थव्यवस्था बन गई है. गौर कीजिये, भारत में मौजूदा युद्धोन्माद कितना प्रायोजित है. हम पाकिस्तान के प्रति भारत की घृणा या कश्मीर मसले के मजहबी सियासत या सियासती मजहब की चर्चा यहां नहीं कर रहे हैं और यह भी नहीं कह रहे हैं कि इन युद्ध परिस्थितियों का आने वाले चुनावों में राजनीतिक परिणाम किसके हित में निकलेंगे. मसलन यूपी,पंजाब और उत्तराखंड में क्या क्या हो सकता है? मसला यह है कि कार्पोरेट हितों से प्रायोजित इस युद्धोन्माद का मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था से कितना और किस हद तक संबंध है सियासत और मजहब की बातें छोड़ दें तो शायद हम निरपेक्ष विवेक से इस युद्धोन्माद के औचित्य की विवेचना कर सकते हैं कि कैसे उपभोक्ता सामग्री की तरह हमारे शहीद बेटों की शहादत का इतने व्यापक पैमाने पर सुनियोजित विज्ञापन दसों दिशाओं में हो रहा है ताकि हमारे जो बेटे अब तक शहीद न हुए हों, वे शहीद बना दिये जा सकें. हमारा राष्ट्रवाद उसी कारर्पोरेट विज्ञापन अभियान का अभिन्न हिस्सा है. कहने को भारत की तरह पाकिस्तान में लोकतंत्र है और वहां भी चुनाव होते हैं. हम पाकिस्तान को आतंकवादी या फौजी हुकूमत कहने को आजाद हैं. हम कश्मीर मसले पर सीधे पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहरा कर बाकी सारा किस्सा नजरअंदाज कर सकते हैं. चूंकि दो राष्ट्र सिंद्धांत के तहत देश का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र बना लेकिन भारत तो हिंदू राष्ट्र नहीं है, हम यह अब दावे के साथ नहीं कह सकते. राजनीतिक समीकरण बेहद आसान है और राष्ट्रवाद सीमाओं के आर पार उसी भारत विभाजन की विरासत है, जिसे हम जुए की तरह पिछले सात दशकों से ढो रहे हैं और अपनी आजाद जिंदगी की नई शुरुआत कर ही नहीं सके हैं. जितना युद्धोन्माद भारत में है, उससे कम पाकिस्तान में नहीं है. भारत के मुकाबले पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की हालत बेहद संगीन है. उत्पादन में हो न हो, हथियारों की पारमाणविक दौड़ में पाकिस्तान किसके दम पर भारत की बराबरी कर रहा है, उस पर सिलसिलेवार गौर करने की जरुरत है क्योंकि सबसे बड़े उस दुश्मन के हवाले हमने अपनी रक्षा और आंतरिक सुरक्षा दोनों सौंप दिये हैं. सियासत और मजहब से के तंग दायरे से निकलकर इस युद्धोन्माद की युद्धक अर्थव्यवस्था और उसके कारर्पोरेट दांव को समझें और फिर यह विवेचना भी कर लें कि हम अपने बेटों को शहीद बनाने पर आमादा क्यों हैं? सबसे मुश्किल यह है कि इस महादेश में वियतनाम युद्ध विरोधी या इराक अफगानिस्तान युद्ध विरोधी किसी आंदोलन की कोई गुंजाइश नहीं है. हमारे पास बंद ताबूत में तिरंगे में लिपटी अपने बेटों की लाशों के इंतजार के सिवाय फिलहाल कोई दूसरा विकल्प नहीं है और बहुसंख्य जनती उसी शहादत की जमीन पर युद्धोन्माद का यह कारर्पोरेट जश्न मना रहा है.

भगवानों को घूस देना भ्रष्टाचार की असली जड़

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templeभ्रष्टाचार भारत में एक सांस्कृतिक मसला है. भारतीयों को इसमें कुछ भी अजीब नहीं लगता. वे भ्रष्टों को सुधारने की कोशिश नहीं करते, उन्हें सहन करते रहते हैं. भारतीय भ्रष्ट क्यों है, इसे समझने के लिए आइए उनके आचरणों और प्रवृतियों पर एक नजर डालें. पहली बात, भारत में धर्म सौदेबाजी का स्वरूप लिए हुए. भारतीय अपने देवी-देवताओं को तरह का चढ़ावा चढ़ाते हैं और बदले में उनसे खास तरह का इनाम चाहते हैं. ऐसा व्यवहार बताता है कि नाकाबिल लोग अपने लिए पक्षपात की कामना कर रहे है. मंदिर से बाहर दुनिया में ऐसी सौदेबाजी को ”रिश्वत” कहते हैं. अमीर भारतीय मंदिरों में कैश नहीं देता, वह सोने का मुकुट या ऐसे ही आभूषण वगैरह देता है. उसके उपहार गरीबों का पेट नहीं भर सकते, वे तो देवता के लिए ही होते हैं. उसे लगता है कि अगर यह किसी जरूरतमंद व्यक्ति को मिल गया तो बेकार चला जाएगा. जून 2009 में कर्नाटक के एक मंत्री जी जर्नादन रेड्डी ने तिरूपति मंदिर में 45 करोड़ रूपए मूल्य का सोने और हीरे से बना मुकुट दान किया. भारत के मंदिरों में इतना धन इकट्ठा होता है कि व समझ ही नहीं पाते, इसका क्या करें. मंदिरों के तहखानों में अरबों की संपत्ति पड़ी-पड़ी जंग खा रही है. यूरोपीय भारत आए तो उन्होंने स्कूल बनवाए , लेकिन भारतीय यूरोप-अमेरिका जाते हैं तो वे मंदिर बनवाते है. भारतीयों को लगता है कि जब भगवान भी कुछ भला करने के लिए चढ़ावा स्वीकार करते है तो हमारे ऐसा करने में क्या हर्ज है. यही वजह है कि भारतीय इतनी आसानी से भ्रष्टाचार में शामिल हो जाते हैं. भारतीय संस्कृति ऐसे आचरण के लिए गुंजाइश बनाती है. इसमें नैतिक तौर पर कलंक जैसी कोई बात नहीं होती. पूर्णतया भ्रष्ट जयललिता इसलिए सत्ता में वापस लौट आती है. पश्चिम में आप इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते. भ्रष्टाचार को लेकर भारत की नैतिक अस्पष्टता इसके इतिहास में भी झलकती है. इसका इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा है जिनमें शहरो और राज्यों के पहरेदारों ने पैसे खाकर हमलावरों के लिए गेट खोल दिए और सेनापतियों ने रिश्वत लेकर समर्पण कर दिया. भारतीयों के भ्रष्ट चरित्र की वजह से इस महादेश में युद्ध काफी कम में हुए. प्राचीन यूनान और आधुनिक यूरोप के मुकाबले भारतीयों ने काफी कम लड़ाइयां लड़ी है. नादिरशाह को तुर्की में भीषण लड़ाई लड़नी पड़ी. मगर भारत में लड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी. सेनाओं को विदा करने के लिए यहां रिश्वत ही काफी थी. पैसे खर्च करने को तैयार कोई भी हमलावर भारत के राजाओं को सत्ता से बेदखल कर सकता था, भले उनके पास दसियों हजार की फौज क्यों न हो. पलासी की लड़ाई में भी भारतीयों की तरफ से कोई प्रतिरोध नहीं हुआ. क्लाइव ने मीर जाफर की मुट्ठी गर्म कर दी और पूरा बंगाल 3000 लोगों के सामने बिछ गया. सवाल उठता है कि भारत में ऐसी सौदेबाजी की संस्कृति क्यों है, जबकि अन्य सभ्य देशों में यह नहीं है? भारतीयों का इस मान्यता में यकीन नहीं है कि अगर सभी लोग नैतिक आचरण करें तो सबकी उन्नति होगी. उनकी जाति व्यवस्था उन्हें एक-दूसरे से अलग करती है. वे नहीं मानते कि सभी मनुष्य समान है. इसकी परिणति उनके विभाजन और अन्य धर्मो की ओर पलायन में हुई. कई हिंदुओं ने सिख, जैन, बौद्ध आदि के रूप में अपने अलग धर्म बना लिए और बहुत सारे ईसाइयत तथा इस्लाम की ओर चले गए. इस सबका नतीजा यह हुआ कि भारतीयों का एक-दूसरे पर विश्वास नहीं रहा. भारतीय तो यहां कोई रहा ही नहीं. हिंदू , मुस्लिम, ईसाई जितने चाहो ढूंढ लो. भारतीय भूल गए कि 1400 साल पहले वे सब एक ही पंथ के थे. यह विभाजन एक बीमार संस्कृति के रूप में सामने आया. असमानता ने भ्रष्ट समाज को जन्म दिया. नतीजा यह है कि भारत में हर कोई हर किसी के खिलाफ है, सिवाय भगवान के और भी रिश्वतखोर है.

बीबीएयू में सुरक्षित नहीं है दलित छात्र, हुई गला दबाकर मारने की कोशिश!

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लखनऊ. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय(बीबीएयू)  के खेल संयोजक मनोज धधवाल पर एक दलित छात्र ने गला दबाकर जान से मारने का आरोप लगाया है. दलित छात्रों का कहना है कि कुछ दिनों पहले बीबीएयू में गलत तरीके से 8 दलित छात्रों को निष्कासित किए जाने के बाद लगातार प्रदर्शन से बौखलाए खेल संयोजक ने जान से मारने की कोशिश की. घटना के विरोध में और निष्कासन वापस कराने के लिए विश्वविद्यालय के गेट पर आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति और छात्रों ने विशाल धरना प्रदर्शन किया. प्रदर्शन के आगे बीबीएयू प्रशासन ने घुटने टेके और कुलपति के निर्देश पर प्रोफेसर आर.वी. राम ने गेट पर आकर संघर्ष समिति और छात्रों ज्ञापन लिया. कुलपति की तरफ से प्राक्टर रामचन्द्र ने आश्वासन दिया है कि 3-4 दिन में दलित छात्रों को न्याय मिलेगा. उन्होंने संघर्ष समिति से कहा कि निष्कासन वापसी का मामला अन्तिम चरण में और जल्द ही निष्कासन वापसी होगा. आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति ने ऐलान किया कि अगर न्याय नही मिला तो एचआरडी मंत्रालय सहित भाजपा के मंत्रियों का घेराव किया जाएगा और बीबीएयू के छात्र चक्का जाम करेंगे. आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति के संयोजकों ने प्रदर्शन को सम्बोधित करते हुए यह ऐलान किया कि कुलपति द्वारा दिये गये आश्वासन के अनुसार यदि जल्द ही निष्कासन वापस न हुआ तो बीबीएयू विश्वविद्यालय में फिर से बड़ा प्रदर्शन किया जायेगा और जरूरत पड़ी तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय का भी व्यापक घेराव किया जाएगा. गौरतलब है कि बीबीएयू में कुलपति से दो पक्षीय वार्ता के बाद भी अभी तक दलित छात्रों को न्याय नहीं दिया गया, जबकि कुलपति द्वारा आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति को यह आश्वासन दिया गया था कि 20 सितम्बर तक सभी दलित छात्रों का निष्कासन वापस ले लिया जायेगा. सभी निष्कासित दलित छात्रों अजय कुमार, श्रेयात बौद्ध, संदीप शास्त्री, संदीप गौतम, रामेन्द्र नरेश, जय सिंह, अश्वनी रंजन व सुमित कुमार ने भी आंदोलन में भाग लिया.

परिजन के निधन पर दलित का मुंडन करने से नाई ने किया इनकार, केस दर्ज

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naaiमंदसौर। मध्यप्रदेश के मंदसौर में परिजन के निधन पर दलित का मुंडन करने से इनकार करने का मामला सामने आया है. शिकायत के बाद पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज किया. 35 दिन में दलित व सवर्ण के आमने-सामने होने का यह तीसरा मामला है. इससे पहले 15 अगस्त को दलित सरपंच द्वारा लाई नुक्ती नहीं बांटने व दलित समाज की झांकी को आगे नहीं निकलने देने के मामले हो चुके हैं. दलित-सवर्ण विवाद को लेकर प्रदेश के संवेदनशील जिलों में शामिल मंदसौर में हर माह ऐसा एक मामला हो रहा है. जिम्मेदार अधिकारी मामलों में न्याय दिलाने व संभाग में सबसे अधिक सजा दिलाने का दावा कर रहे हैं. माल्याखेरखेड़ा निवासी गोवर्धन ने बताया कि उनके भाई की पत्नी का 19 सितंबर को निधन हो गया था. उसी दिन मुक्तिधाम पर मुंडन कराने की प्रथा है. इसके चलते गांव के ही सलून संचालक भोला नारायण को मुक्तिधाम पर बुलाया. उसने आने से इनकार कर दिया. इस पर दूसरे से मुंडन कराया. अगले दिन जब उससे इसका कारण पूछा तो उसने व उसके बेटे ईश्वर ने दलित समाज का होने के चलते नहीं आने की बात कही और गाली-गलौज की. गोवर्धन की शिकायत पर नाहरगढ़ पुलिस ने 20 सितंबर को केस दर्ज किया. मेघवाल समाज के प्रदेश अध्यक्ष राजेंद्र सूर्यवंशी का कहना है जिले में करीब 15 मामले ऐसे हैं जिनमें दलितों पर अत्याचार हुआ और उन्होंने केस भी दर्ज कराया है. दो मामले इसी माह के हैं जिनकी शिकायत की है.

नहीं चाहिए ऐसा विकास जो सेना के जवानों को शहीद कर दे!

70 वर्ष की आजादी के बाद भी जिस देश की 85 प्रतिशत आबादी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पायी हो और उसमें भी हम जैसी अधिकांश आबादी की जुबान पर यह जुमला “कोई होहिं नृप हमें का हानि” घर कर गया हो तो वह देश या समाज अपना सर उठाकर कैसे चल सकता है? यह हम सब कुछ जागरूक लोगों के समक्ष एक विचारणीय प्रश्न है. हम नट, मुसहर, डोम, मेहतर और बंजारा इत्यादि अति अछूत लोग भी तो इंसान हैं और इस 70 वर्षीय आजाद भारत के नागरिक भी हैं. सबकी तरह हमारे भी मुंह, नाक, आंख, कान, हाथ और पैर हैं. दिल और दिमाग भी है. हमारे भी बाल-बच्चे है और कठिन से कठिन काम कर देने की क्षमता भी हम्ही में है. हां! यह बात अलग है कि तुम्हारे ही घृणित षड्यंत्र की वजह से हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनपढ़ गंवार रहते चले आ रहे हैं और आज भी हमारी किसी को कोई चिंता नहीं है. हम सभी मानवीय अधिकारों से वंचित भी हैं. अगर सछूत शूद्रों से हमें अलग कर दो तो हमारी जनसंख्या भी इतनी नहीं कि हम किसी को चुनाव में जीता-हरा सकें और शायद यही वजह है कि हमारी कोई खबर भी नहीं लेता. हम निसहाय पड़े हुए हैं. लेकिन हमें इस भयानक परिस्थिति में छोड़कर तुम भी तो चैन की सांस नहीं ले पा रहे हो. विकास, विकास, विकास. किसके विकास की बात करते हो? जीडीपी ग्रोथ इतना हो गया. अगले वर्ष उतना हो जाएगा. बुलेट ट्रेन चलने लगेगी. सांसद-विधायकों के वेतन ढाई-तीन लाख हो जाएंगे. चमचमाती सड़कें हो जाएंगी. सैकड़ों की संख्या में स्मार्ट सिटी दिखने लगेंगी. तो बताओ, हमारे जैसे करोड़ों कंगलियों का क्या हो जाएगा? आजादी मिलने के बाद तुम बड़े-बड़े लोगों ने अपनी व्यवस्था कर लिया. जज-कलक्टर तुम्हीं बनोगे. सीओ-बीडीओ तुम्हीं बनोगे और दारोगा-डीएसपी-एसपी तुम्ही बनोगे. क्लर्क और चपरासी भी तुम्हीं बनोगे. मतलब सबकुछ तुम्ही बनोगे और सबकुछ तुम्हें ही चाहिए. बड़ी चिंता है हमारे घर की. हमारे राशन कार्ड की. अब 70 वर्ष की आजादी के बाद हमारे भी बच्चों की पढ़ाई की बात करने लगे हो. छिः छिः शर्म भी नहीं आती. हमारे नाम पर विदेशों से धन लाते हो और उसे भी गटक जाते हो. जो हमारे हित की बात करता है उसे जातिवादी कहते हो और जो हमारे लिये संघर्ष करता है उसे नक्सली कहते हो. नक्सली कहकर हम भूखे-नंगे आदिवासियों को अपनी जमीन से हमें बेदखल करते आ रहे हो और अब सुन रहे हैं आतंकवादी करार देकर हमारे सफाये की योजना भी बना रहे हो. करो जो जी में आए हमारी मेहनत पर गुलछरे उड़ाने वालों. हमारी भी तो कोई सुनेगा. एक बार बाबासाहेब ने सुना तो तुम्हारी हेंकड़ी गुम हो गई और इस बार कोई सुन लिया तो पता नहीं चलेगा कि तुम कहां गुम हो गए. हमारा विकास चाहते हो? झूठ! बिल्कुल झूठ. सब कुछ तो लूट लिया. तुम लिए रहो अपना सब कुछ पढ़े-लिखे योग्य लोग जो हो. हम तो अनपढ़-गंवार अयोग्य और अधम, अछूत, पापी, चंडाल लोग हैं. हम तो जज-कलक्टर नहीं बन सकते. एसपी-डीएसपी भी नहीं बन सकते. क्लर्क बनने के योग्य भी तो नहीं बनाया. चलो! हमारे विकास की भी अब चिंता छोड़ दो. चलो! और कुछ नहीं बना सकते तो हमें केवल चपरासी बना सकते हो तो बना दो. हम नट, मुसहर, मेहतर, डोम, बंजारा, हलखोर इत्यादि ऐसी अत्यंत अछूत जातियों के हर घर से केवल एक चपरासी. हर सरकारी-गैर सरकारी कार्यालयों में चपरासी का पद हमारे लिये सुरक्षित कर दो. देखो! छुआ-छूत का भी कैसे सफाया हो जाता है. योग्यता का बहाना मत बनाना. देखो हम सब कुछ कर लेंगे. जमीन खरीदकर अपना घर बना लेंगे. छह माह में हम साफ-साफ कपड़ा भी बिल्कुल तुम्हारी ही तरह पहनना भी सीख जाएंगे. अपने बच्चों को पढ़ा लेंगे. और इससे घर-घर शिक्षा की लौ भी जल उठेगी. तुमसे दो वर्ष बाद आजाद हुए चीन के समकक्ष भारत भी पूरी तरह मजबूत होकर दुनिया के नक्शे पर उभरेगा. फिर कोई आंख उठाकर भारत की ओर गुर्राने की हिम्मत भी नहीं करेगा. आज तो कोई भी आंखे लाल कर वापस लौट जाने की हिम्मत रखता है. पाकिस्तान तो रोज 56 इंच की छाती को 56 सेंटीमीटर का बनाकर चला जाता है. और हम रटा-रटाया वही जुमला “इसबार नहीं छोड़ेंगे” कह-कहकर टुकुर-टुकुर ताकते रह जाते हैं. तब तक वह दूसरा धमाका भी करके चला जाता है और आंखे भी तरेरने लगता है. कैसी है तुम्हारी खुफिया एजेंसी और कैसे तुम हो कि 20-25 किलोमीटर तुम्हारी सीमा में घुसकर तुम्हारी सैनिक छावनियों को भी धूल में मिलाते रहता है. हमारी बहादुर सेना तुम्हारे आदेश की मोहताज बन हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है. पठानकोट फिर उरी और तुम आंसू के केवल दो बूंद बहाकर दुनियावालों को गोलबंद करने के बहाने अपनी नपुंसकता का परिचय देते रहते हो. हम अछूत पढ़े-लिखे नहीं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम समझदार भी नहीं हैं. देश की यह दुर्गति देख हमें भी दुख होता है. आखिर हमारा भी तो यही देश है. हम भी तो इसी मिट्टी में पले-बढ़े हैं. काश! संकीर्ण जातीय दुर्भावनाओं से ऊपर उठकर हमें भी अपने साथ चलना सिखाया होता तो मुझे लगता है तुम्हें दुनियावालों के सामने हाथ-पैर फैला-फैलाकर भीख मांगने के लिये विवश नहीं होना पड़ता बल्कि दुनियावाले तुम्हारी चौखट पर माथा टेकने को मजबूर होते. बौद्धयुगीन् काल को याद करो. हमारी गौरव-गाथा आज भी दुनियावाले गाते नहीं थकते. लेकिन महात्मा बुद्ध का वह समता, स्वतन्त्रता और भाईचारे का संदेश तुम्हें आज भी मंजूर नहीं. तुम तो उच्च-नीच वर्ण और जातीय व्यवस्था के निर्माणकर्ता और आज भी पोषक बने हुए हो. यह समझते क्यों नहीं कि जबतक हमें नीच समझते रहोगे, दुनियावाले तुम्हें चिढ़ाते रहेंगे और तुम  56 इंच का सीना लेकर भी उनके चौखट पर नाक रगड़ते रहने के लिये मजबूर बने रहोगे.

इतिहास के आइने में दलित-आदिवासी महिलाएं

मेरे दिमाग में कई बार आया कि आदिवासी औरतों के चित्र ही निर्वस्त्र ही क्यों देखने को मिलते हैं…कुछ इलाकों में आज भी आदिवासी औरतें लगभग निर्वस्त्र सी रहती हैं. क्यों?  यह भी सोचा कि शायद धनाभाव इसका कारण रहा हो… कभी यह भी कि कहीं इस प्रकार नंगे बदन रहना उनकी सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा ही न हो… उनकी आदत का हिस्सा भी तो हो सकता है…. किंतु कभी सवर्णों ने इस साजिश के बारे में नहीं सोचा कि आदिवासी महिलाओं को ही नहीं, अपितु अपने परिवार की महिलाओं को भी ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता था. फेसबुक पर आई एक पोस्ट से जाना कि अठारहवीं सदी तक दक्षिणी भारत की किसी विशेष जाति की महिलाओं को वक्ष ढकने का अधिकार नहीं था. यह अधिकार सवर्णों ने छीन रखा था. समय के गुजरने के साथ-साथ यह कुप्रथा संस्कृति का हिस्सा बन गई. ऐसा नहीं था कि तब का समाज इस प्रथा के खिलाफ नहीं था किंतु सामाजिक हालातों के चलते आवाज नहीं उठा पाता था. आर अनुराधा जी ने भी ‘जनसत्ता’ 25 अगस्त, 2012 के अंक में छ्पी खबर को माध्यम बनाकर हाल ही में ‘जनसत्ता’ में ही माध्यम से इस बात को बड़ी ही हैरत के साथ प्रस्तुत किया है कि केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए पचास साल से ज्यादा संघर्ष करना पड़ा. इतिहास बताता है कि सर्वप्रथम केरल के त्रावणकोर इलाके में तन ढकने का अधिकार पाने के लिए विद्रोह के बाद 26, जुलाई 1859 को वहां के महाराजा ने अवर्ण औरतों को शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाजत दी थी. यह अजीब लग सकता है… पर केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में भी महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए 50 साल से ज्यादा का संघर्ष करना पड़ा. इसलिए वहां की महिलाओं के लिए 26 जुलाई का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण है. इसी दिन 1859 में इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खासतौर पर निचली जाति ‘नादर’ की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया था. ‘नादर’ की ही एक उपजाति ‘नादन’ पर ये बंदिशें उतनी नहीं थीं जितनी ‘नादर’ जाति की औरतों पर थीं. उस समय न सिर्फ अवर्ण बल्कि नंबूदिरी ब्राह्मण और क्षत्रिय ‘नायर’ जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे. नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था. वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं. लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था. नादर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था. सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें सब जगह अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी. पहनने पर उन्हें सजा भी दी जाती थी. यहां ध्यान देने की बात है कि एक महारानी जो स्वयं एक औरत थी… कितनी अय्याश रही होगी? एक घटना बताई जाती है कि जब एक निम्न जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी ‘अत्तिंगल’ ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला था. …यह जानकर आपको कैसा लगता है? पुरुष ही औरत का शोषक नहीं, बल्कि महिलाओं के शोषण करवाने में महिलाओं की भी हमेशा से खासी भूमिका रही है. शायद औरतों का ये साज-श्रंगार उसी मानसिकता का प्रमाण है… उनकी इस भूमिका के चलते ही पुरुष पहलवान हो गए. इस माने में महिलाओं के शोषण के मामले में महिलाएं भी उतनी ही दोषी हैं जितने कि पुरुष… औरतें आज तक ये ही नहीं जान पाईं कि उनको जितनी पुरुष की जरूरत है, उससे ज्यादा पुरुष को औरतों की जरूरत है. यही मानसिकता व्यभिचार को जन्म देती है. इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं. 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर ‘नादर’ जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए. बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने और यूरोपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं. धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया. इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कोशिश करती रहीं. यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ. ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले किए जाने लगे. जो भी इस नियम की अवहेलना करती, उसे बीच बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता था. अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते. यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरेआम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ब्लाउज या कंचुकी पहनने से डरने लगें. यह वह समय था कि जब अंग्रेजों के राजकाज का भी असर बढ़ रहा था. 1814 में त्रावणकोर के दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई ‘नादन’ और ‘नादर’ महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं. लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ. उच्च वर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे. आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया. एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश. फलत: ज्यादातर महिलाओं ने कपड़े पहनने शुरू कर दिए. इधर उच्च वर्ण के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया. बताया जाता है कि ‘नादर-ईसाई’ महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा. उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े. तभी वे भीतर जा पाईं. ऐसा होने पर कपड़े पहने जाने के लिए शुरू हुए संघर्ष ने हिंसक रूप ले लिया था. सवर्णों के साथ-साथ, वहां का राजा तक भी औरतों द्वारा कपड़े न पहने जाने की परंपरा निभाने के पक्ष में था. आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची-जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहनी चाहिएं. उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में अर्धनग्न औरतों को ख़ड़ा रखा जाता था. राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृष्यों का भरपूर आनंद लेते थे. राजा भी और गुलाम भी. आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया. कुलीन पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश पारित कर दिया कि किसी भी अवर्ण जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती. अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया. अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और कुलीन पुरुषों के खिलाफ विरोध की ताकत बढ़ गई. सभी जगह महिलाएं जबरन बिना किसी भय के पूरे कपड़ों में घर से बाहर निकलने लगीं. इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है. विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों ने कमजोर जातियों की दुकानों में एकत्र सामान को लूटना शुरू कर दिया. इस तरह राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई. दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया. कहा जाता है कि तब मद्रास के कमिश्नर ने त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अशांति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है. अंग्रेजों और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का ऊपरी हिस्सा वस्त्र से ढक सकती हैं. 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के असामाजिक कानून को बदल दिया गया. आखिर कई स्तरों पर विरोध के चलते त्रावणकोर की महिलाओं ने तो अपने वक्ष ढकने जैसा बुनियादी हक हासिल कर लिया, किंतु आदिवासी इलाकों में निर्वस्त्र रहने का प्रभाव आज भी देखने को मिलता है. अंडमान निकोबार द्वीप समूह की आदिवासी प्रजातियों में तो आज भी लोग निर्वस्त्र रहते हैं. जहां कहीं कपड़े पहनने का रिवाज आ भी गया है तो उनके कपड़ों की बनावट निर्वस्त्र रहने जैसी ही देखने को मिलती है. हमारे देश में, विकृत मानसिकता वालों की भी कमी नही है जो इस खुलासे को अपने स्वार्थ के हेतु निराधार अफवाह फैलाने का कारण मानते हैं. वो उल्टे ऐसे खुलासे करने वालों को ही विकृत मानसिकता वाले लोगों मे शामिल करते हैं… खेद की बात तो ये है कि उनमें ज्यादातर तथाकथित सवर्ण वर्ग की महिलाएं हैं जिन्हें खुद भी उसी प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता था/है.  जिसका शिकार निम्न वर्ग की महिलाओं को होना पड़ता था/है… घर के भीतर ही सही. कुछ लोग इसे समाज में विद्वेष फैलाने की कोशिश मान रहे हैं तो कुछ इसे जागरुकता की संज्ञा से नवाज़ रहे हैं… कुछ लोग इस खुलासे को वोटों की राजनीति से जोड़कर देखते हैं… जो सही भी हो सकता है और नहीं भी. कुछ लोग इस खुलासे को सवर्णों के विरोध में की जा रही साजिश के रूप में देख रहे हैं. कुछ का कहना है कि कल कैसा था…. कल क्या हुआ… इसे लेकर हम आज क्यूं चर्चा करें? उनका तर्क है कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह की आदिवासी प्रजातियों के लोग तो आज भी निर्वस्त्र रहते हैं. अब कोई यह तो बताए कि उनसे उनके वस्त्र किसने छीने… ऐसा कहने वाले लोग ये भूल रहे हैं कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह की आदिवासी प्रजातियों की केवल महिलाएं ही निर्वस्त्र नहीं रहतीं… पुरुष भी निर्वस्त्र रहते हैं. इसे पुरुष–सत्ता का प्रमाण कैसे माना जा सकता है?  दरअसल यह आर्थिक तंगी का परिणाम है… और कुछ नहीं. यह जानकर, क्या आपको नहीं लगता कि सवर्ण जातियों के लोग ही क्यों तमाम वर्गों के पुरुष आदिकाल से ही दिमागी तौर पर स्त्री-देह के प्रति आसक्त रहे हैं… कम–ज्यादा का अंतर हो सकता है… बस. यदि ऐसा न होता तो निम्न जातियों के पुरुष भी निम्न जातियों की औरतों के हिमायत में खड़े नजर आते…. किंतु ऐसा नहीं हुआ. पुरुष की इस प्रकार की मानसिकता ही आज भी औरतों के प्रति घातक बनी हुई है. पुरुष को यूं ही स्त्री विरोधी नहीं माना जाता… पुरुषों की हरकतें हमेशा से ही कुछ ऐसी रही हैं जिनके चलते समूचे समाज को पुरुषवादी सोच का धनी कहा जाता है. इतिहास की इस कड़बाहट को महिलाओं की वर्तमान स्थिति के बल पर नकारा नहीं जाना चाहिए. औरतों की आज जो भी सामाजिक अवस्था है ….वह केवल शिक्षा के प्रचार-प्रसार के चलते राजनीति और सरकारी नौकरियों की भागीदारी के कारण है. यह भी सच बात है कि वर्तमान में शिक्षित अथवा अशिक्षित, दोनों प्रकार की महिलाएं अनेक बार पुरुष पर भारी पड़ रही हैं… खासकर नौकरीशुदा पुरुषों के मामले में…. वो तमाम की तमाम सम्पत्ति को केवल और केवल अपनी पत्नि के नाम ही करते हैं… उसका परिणाम ये होता है कि अंत समय में पति “बेचारा”  बनकर अकेला रह जाता है… बच्चे मम्मी के साथ हो जाते हैं… संपत्ति का मोह जो बना रहता है और कुछ नहीं. पिता जैसे उधार की वस्तु बन जाता है. इसे पुरुष की कमजोरी भी माना जा सकता है. किंतु कुल मिलाकर औरत की सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में कोई खास अंतर नहीं आया है. सामान्य तौर पर आज भी औरत को जैसे पुरुष की सम्पत्ति ही माना जाता है. उसे आज भी सामाजिक सम्मान मिलना किसी सपने से कम नहीं. उसकी सामाजिक मामलों आज भी जैसे साझेदारी नहीं है. खैर! आज जबकि समाज को शिक्षा और विकास की बातों पर ध्यान देना चाहिए. हम ऐसी बातें फैला कर किसी एक वर्ग के पुरुषों की खिलाफत कर रहे हैं… ऐसा नहीं है.  हां! ये ठीक है कि हमें अफवाहें फैलाने के बदले इतिहास को लेकर समाज को शिक्षा और विकास की बातों पर ध्यान देना चाहिए…. किंतु इतिहास को सिरे से नकारना भी बेहतर समाज बनाने की प्रक्रिया के लिए घातक हो सकता है क्योंकि इतिहास हमें आगे का उन्नत मार्ग तलाशने का सबक देता है. – लेखक  लेखन की तमाम विधाओं में माहिर हैं. स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादन के साथ स्वतंत्र लेखन में रत हैं. संपर्क- 9911414511

मौत से जूझ रहा भाजपा का सबसे बड़ा दलित नेता, पार्टी के पास सुध लेने का समय नहीं

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सोनभद्र। दलितों के मुद्दे को लेकर मोदी सरकार हर बार गंभीर होने की बात करती है. हैदराबाद की सभा में मोदी ने दलित हिंसा को लेकर यहां तक कह दिया था कि दलितों की जगह मुझे गोली मार दो. मगर मोदी का यह बयान चुनावी घोषणाओं जैसा जुमला ही साबित हुआ. मोदी की पार्टी के ही दलित नेता आज अस्पताल में जीवन मौत के बीच संघर्ष  कर रहे हैं, मगर उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. भाजपा के पूर्व राज्य मंत्री व सांसद रहे कद्दावर दलित नेता सूबेदार प्रसाद पिछले एक सप्ताह से मोदी के संसदीय क्षेत्र में स्थित एक निजी अस्पताल में अपने जीवन के आखिरी पड़ाव पर जीवन सुरक्षा उपकरणों के सहारे हैं. 85 वर्ष की उम्र के पूर्व मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता सूबेदार प्रसाद अपने सरल स्वभाव को लेकर लोगों के बीच मंत्री जी के नाम से पुकारे जाते हैं. दलित समुदाय से आने वाले सूबेदार प्रसाद उन दिनों जनसंघ में शामिल हुए थे जब बड़ी जाति के लोगों का दबदबा था लेकिन अपनी कर्मठता सरल स्वभाव के चलते उन्होंने न केवल तत्कालीन मिर्जापुर जनपद के दक्षिणी इलाके में रामप्यारे पनिका जैसे धाकड़ आदिवासी नेता के रहते तीन बार विधानसभा का चुनाव जीता और 1969 से लगातार तीन बार विधायक रहे और जनता पार्टी की सरकार में उद्योग मंत्री का पद संभाला. जनसंघ के समर्पित नेता और लोकप्रिय विधायक होने के कारण आपातकाल में इंदिरा सरकार ने उन्हें 19 माह जेल में भी रखा. अपनी लोकप्रियता के चलते सूबेदार प्रसाद ने 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के कद्दावर नेता रामप्यारे पनिका को इतने बड़े अंतर से हराया कि वे अपनी जमानत नहीं बचा सके. सूबेदार प्रसाद के बारे में लोग आज भी बात करते है कि 70 के दशक में वन विभाग द्वारा इलाके के हजारों आदिवासियों किसानो की भूमि को धारा 20 के तहत उनसे जबरिया छिना जा रहा था तब सूबेदार प्रसाद ने ही इसका न केवल प्रबल विरोध किया बल्कि उनकी भूमि को वापस भी दिलाया वरना क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में गरीब आदिवासी व किसान बिना जमीन के हो जाते.

बिहारः जापान की मिहो तनबरा बुद्ध की धरती पर खोलेंगी स्कूल और अस्पताल

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मुजफ्फरपुर। जापान की महिला समाजसेवी मिहो तनबरा भारत-जापान रिश्तों का एक नया अध्याय लिख रही हैं. मुजफ्फरपुर के एक सुदूर गांव चोचहां में मिहो तनबरा 5.5 करोड़ रुपये की लागत से एक इन्टरनेशनल प्लस टू स्कूल खोल रही हैं. 20 सितंबर को उन्होंने खुद अपने हाथों से आधारशिला रखी. मिहो की योजना स्कूल के साथ-साथ एक सुपर स्पेशलिटी अस्पताल खोलने की भी है. जापान की समाजसेवी की इस पहल से गांव के लोग काफी खुश हैं. तथागत बुद्ध के आदर्शों से प्रभावित मिहो जापान से बार-बार वैशाली आती रहती हैं. पेशे से उद्योगपति और स्वभाव से समाजसेवी मिहो बुद्ध के देश के लिए कुछ करना चाहती हैं. अपनी इसी सोच को साकार करने के लिए मिहो मुजफ्फरपुर की संस्था बुद्धा एजुकेशनल फाउन्डेशन के साथ मिलकर फिलहाल एक प्लस टू स्कूल और एक सुपर स्पेशियालिटी अस्पताल खोल रही हैं. स्कूल भवन का निर्माण शुरु हो गया है जिसकी पूरा खर्चा मिहो की संस्था कर रही है. संस्था ने इसके लिए 1.3 करोड़ की राशि का भुगतान भी कर दिया है. मिहो तनबरा ने कहा कि मैं भारत देश की काफी इज्जत करती हूं क्योंकि भारत का इतिहास काफी पुराना है. मैं तथागत बुद्ध, दलाई लामा और मदर टेरेसा की काफी इज्जत करती हूं. भारत के लिए कुछ करने में मैं गर्व महसूस कर रही हूं. भारत एक महान देश है. मेरी दो योजनाएं हैं एक है स्कूल बनाना और दूसरा अस्पताल. गांव में मिहो तनबरा का भव्य स्वागत किया गया जिसमें बुद्धिजीवी महिलाएं और बच्चे भी शामिल हुए. मिहो की संस्था भारतीय कृषि के क्षेत्र में बेहतरी के लिए भी योजना बना रही है.

वैवाहिक रीतियों में सामाजिक बुराइयां

बुन्देलखण्ड क्षेत्र जिसे कहते है वो उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश को मिला के बना हुआ है और एक ऐसा क्षेत्र है जहां पर शादी किसी यज्ञ से कम नहीं होती है. इस क्षेत्र में कन्यादान सबसे बड़ा दान माना जाता है. यहां लड़की का जन्म होना लक्ष्मी का घर आना माना जाता है. अगर पहली संतान लड़की हुए तो घर में शुभ समझा जाता है. पर ये भी जाति व्यवस्था का शिकार है. किसी जाति में लड़की का होना सिर झुकाने के बराबर माना जाता है और मां की अच्छे से देखभाल नहीं होती है. लड़की के पैदा होते ही पूरा परिवार उसकी शादी की चिंता सताने लगती है. उसकी शादी के लिए धन इकट्ठा करने में जुट जाते है. कभी कभी ये देखा गया है कि बाप सब बुराईयां छोड़ देता है बेटी के पैदा होते ही और कुछ बाप ऐसे भी मिलेंगे यहाँ जो बेटी पैदा होते ही उन्हें नींद नहीं आती और नशा करने लग जाते है यह सोंच कर कि एक आर्थिक बोझ हो गया. यानि यहां लड़की को बोझ भी समझा जाता है. ये बोझ कई तरह का होता है. इनमे से एक है लड़के वालों के सामने घुटने टेकने के बराबर, दहेज़ का दंश, रिश्तों का जाल, उल्टा सीधा रिश्तों का जाल (फसन). लड़की का रंग रूप, कद और शिक्षा, आदि. वैसे लड़की अगर रुपवती और गुणवती हो और अगर बाप धनी हो तो धनवती भी बन जाती है और लड़के वाले ऐसे लड़की वालों को खोजते है. अगर लड़की एकलौती बेटी हो तो उस लड़की का कद लोभी लोग और ऊंचा कर देते है, और अगर एकलौती संतान हो तो लोभी लड़के वाले तो उस लड़की को धरती की लक्ष्मी ही मान लेते है और फिर क्या रंग क्या रूप “सब चलता है” वाली सोंच में बदल जाता है. विवाह दो व्यक्तियों का मिलन ही नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन भी होता है. इन दोनों परिवारों के रिस्तेदार, रहन-सहन, खान पान और सुख दुख में साथ बटाना भी पड़ता है. शादी के बाद रिश्ता स्थाई और सत्य बन जाता है. शादी कभी-कभी एक समझौता भी होता है और कभी-कभी बोझ भी बन जाती है. अगर दोनों पक्ष एक दूसरे के लिए अपनापन समझें और दोनों की ओर से सहानुभूति और सहायता की झलक दिखे तो ऐसी शादियां दोनों घरों को स्वर्ग बना देती है. जहां शादियां दो घरों को जोड़ती है वही कुछ बुराईयां भी होती है, दोनों परिवार में खलबली भी मचा देती है. बुन्देलखण्ड में शादी के लिए लड़का वाला लड़की के घर कई बार आता जाता है. कभी मामा-मामी देखेंगे, कभी बुआ-फूफा देखेंगे, फिर लड़के के जीजा-जीजी देखेंगे और अब तो लड़के के दोस्त कहा पीछे है. जितनी बार जायेंगे लड़की वाले को एक से बढ़कर एक स्वागत करना पड़ता है. अगर किसी की सेवा अच्छे नहीं हुए तो रिश्ता तो दूर फिर उस लड़की का अपने किसी रिश्तेदारी में भी नहीं होने देंगे. वैसे अगर लड़का ही अपनी मर्जी से लड़की देखकर शादी करे तो रिश्तेदार और पारिवारिक लोग लड़के का जीना दूभर कर देते है. ये एक सामाजिक बुराई है जिसे लड़की वाले को झेलना पड़ता है. हालांकि, लड़की वाला भी लड़का वाला होता है और लड़की वाला भी किसी लड़की का बाप व रिश्तेदार होता है. लेकिन जब अपनी लड़की की शादी करता है तब उसको याद आता है की वो लड़की वाला है. अगर हर लड़की वाला और हर लड़का वाला ये याद रखे की वो भी ये सब करना चाहता है और नहीं करना चाहता तो सायद ये बात सामाजिक बुराई न लगे. पर जब मैं अपनी बहन बेटी की शादी के लिए दहेज़ देता हु तो उस से कहीं ज्यादा अपने लड़के की शादी में लेना चाहता हुं. या जब मैं दहेज़ देता हु तो मुझे दहेज़ बहुत भारी पड़ता है और जब मैं दहेज़ लेता हूँ तो दहेज़ कम लगता है. बहुत से ऐसे किस्से भी देखे जाते है कि लड़का वाला ये भूल जाता है की वो भी किसी लड़की की शादी करेगा या किया था. सामान्यतः हर शादी में चार मह्त्वपूर्ण रश्में हैं- फलदान या बयाना या छेंकना, तिलकोस्तव, टिका व द्वारचार, खोरवा देना जो लड़की वाला करता है और दो मुख्य रश्में है- गोद भराई या ओली करना और गहनों का चढ़ावा करना जो लड़के वाला लड़की के यहां ही करता है. ये सभी रश्में लेन-देन पर ही टिका होता है. हर बार पैसों को ऐसे गिना जाता है जैसे कोई बैंक केशियर लोन दे रहा हो और लड़का वाला कर्ज ले रहा हो. ये हुई दहेज़ की बात. उस से भी बढ़कर शादी में सामाजिक बुराईयां और भी है – जैसे बरातियों का बन्दूक और आतिशबाजी लाना, बरातियों का स्वागत पैर धुलकर, मंडप के नीचे पयपुजी होना, कलेवा में दूल्हे का नाराज होना, दहेज़ के लिए नोकझोक होना, लड़की की बहन का दूल्हा के जूते चुराना फिर मनमाफिक मांग पूरा न होने पर लड़की वालों का लड़के वालों पर प्रतिक्रिया करना, इत्यादि. और अगर शादी में कोई गुस्सा ना हो तो मानो शादी सफल हुए नहीं. गुस्सा होने वालों में दूल्हा-दुल्हन का जीजा, फूफा और मामा होते है. कुछ वैवाहिक सामाजिक रीतियां जो कुरीतियों बन गयी है कि व्याख्या नीचे करता हूं- बारात में बन्दूक और आतिशबाजी का खतरनाक खेल: यहाँ लड़का वाला ये दिखाने की कोशिश करता है मैं कितना पैसों से और हथियारों से शक्तिशाली हूं. अक्सर सुना जाता है कुछ लोगों की मृत्यु शादी की फायरिंग से हो गयी. आतिशबाजी का खेल तो और खतरनाक दिखता है जो कि ध्वनि प्रदुषण और वायु प्रदुषण दोनों बढ़ाता है. इसका ख्याल नहीं अंजान लोगों को और न ही किसी पर्यावरण विद्वानों को होता है. क्या ये रीति कुरीति नहीं है/ क्या अब इसकी जरुरत बुंदेलखंड के लोगों को है जहाँ शिक्षा का स्तर और महिलायों और बच्चों का स्वास्थ्य ठीक न हो और खाने को तरश जाते हो/ और सबसे बड़ी विडंबना यह कि दोनों पछ के लोग कर्ज भी लेकर ये दिखावा करते है. खर्च और कर्ज का खेल: ये जो खर्च और कर्ज का रिश्ता है बहुत ही पेचीदा बन जाता है उन गरीबों के लिए जो ये सब नहीं कर सकते. कभी-कभी दोनों पछ इसलिए मायुस हो जाते है क्योंकि उन्होंने किसी पड़ोसी के लड़का या लड़की के बराबर खर्च नहीं कर पाए. और कुछ लोग ताना मारते है कि मैंने तो पानी की तरह पैसा बहाया अपनी लड़की या अपने लड़के की शादी में. शादी में जरुरत से ज्यादा खर्च कहां तक कारगर है और ये किनके लिए है. सोचने समझने की बात और इन सब परम्पराओं का हर साल बढ़ता ही नजर आता है. पैर धोकर बरातियों का स्वागत करने की परम्परा: ये स्वागत लड़की के यहां पहुंचने पर बरातियों का किया जाता है. समय परिवर्तन के अनुसार अब ये सिर्फ दूल्हे के सबसे करीबी ५ रिस्तेदारों को ही धोना पड़ता है. ये काम लड़की का बाप या भाई करता है. इस कुरीति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि लड़की होना कितना बड़ा बोझ बन जाता है और शर्म लगता है. ये बात भी नहीं पचती है की लड़का वाला जिसको भेजता है पैर धुलाने के लिए वो किस चरित्र का इंसान है. कही कहीं ये देखने को मिला की पैर धुलाने वाला शराब पी रखी होती है उसको पैर धुलाने में अच्छा लगता है और बहुत सा समय एक आदमी पर लग जाता है. वैसे तो ये एक सामाजिक बुराई है पर फिर भी ये सामाजिक परंपरा को लागू रखना चाहते हो तो लड़की वाले का भी ख्याल रखो, और समझो कि हम भी किसी लड़की का बाप व रिस्तेदार हैं. एक परिवार इस कुरीति को छोड़ेगा तो दूसरे भी उसको अपनाएंगे. और धीरे-धीरे सब ख़त्म हो जायेगा. यहाँ पर लिंग भेद स्पष्ट दिखता है और इससे लड़की भी जब ससुराल जाती है तो उसको बहुत सुनना व देखना पड़ता है. अगर यही स्वागत फूल मालाओं और चन्दन व हल्दी के ठीके से किया जाए तो शायद रीति सुखदायी और सम्मानीय व बराबरी का लगे. अगर इतिहास को देखा जाये तो कही मिलता ही होगा क्यों पैर धुलने की प्रथा चली. ये प्रथा उस समय चली होगी जब लोग पैदल व घोड़े और बैल गाडी से बारात लेके आते होंगे. पैर धुलने से थकान दूर होती है, पैदल बाराती व उनके साथियों की हालत ठीक नहीं होती होगी. जैसे बाल विवाह प्रथा मुगलों और अंग्रेजों से सुन्दर लड़कियों को बचाने के लिए चलायी गयी होगी. लेकिन अब समय के साथ इस प्रथा को बदल देना चाहिए, क्योंकि ये न तो वैज्ञानिक वैध है और न ही सामाजिक प्रासंगिक है. दूल्हा दुल्हन का पैर पूजना (पयपुजी): इनमे सबसे ज्यादा सामाजिक कुरीतियां जो लगती है वो है पैर धुलना और दूल्हा-दुल्हन का पैर पूजना मंडप के नीचे. ये सिर्फ कुछ भाग में ही होता है यूपी और एमपी के इस क्षेत्र में. यहाँ ये समझा जाता है कि शादी के दिन दूल्हा पर राम की छाया उतर आती है और दुल्हन पर सीता की, इसलिए पैर पूजन उचित मानते है. ये सिर्फ हिन्दू परंपरा के अनुसार शादियों पर लागू है. अगर ऐसा है तो हिन्दुयों की हर शादी पर ऐसा ही होना चाहिए, और हर जगह होनी चाहिए जो कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में नहीं होता है. ओडिशा, बिहार, बंगाल में भी नहीं होता तो सिर्फ उ.प्र. व म.प्र. के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में ही क्यों. ये मुझे सामाजिक कुरीति लगती है जो लड़की वालों को नीचा दिखाने के लिए कुछ स्वार्थी और असमाजिक व्यक्ति ने चलायी होगी. इसमें बुजुर्ग महिला व पुरुष दूल्हा दुल्हन कि पूजा करते है पैर छूकर. ये कौन सा सामाजिक अच्छाई है और कौन सी संस्कृति है जहाँ बुजुर्गो को भी अपने से छोटों के पैर छूने होते है. अगर ये परंपरा है तो किसके लिए है? किसलिए है? क्यों है? कहाँ कहाँ है? ये भी हमको देखना चाहिए. अगर पैर पूजना एक परंपरा है तो सिर्फ कुछ लोगों तक ही सिमित रखा जाये. वैसे इसका कोई औचित्य नहीं है समाज में शिवाय लड़की वाले को नीचा दिखाने के. बुजुर्ग जो चाहे जिस उम्र का हो वो दूल्हे के पैर पूजता है सिर्फ इसलिए की लड़की का दादा-दादी, बाबा-बाबी, चाचा-चची, मामा-मामी होते है. इनको सिर्फ झुकना पड़ता है सिर्फ लड़की वाले होने से. पैर पूजने का एक और बुरा प्रभाव पड़ता है लड़की और लड़का का सम्बन्ध खोजने में. इस क्षेत्र के लोग इस बात का ध्यान रखते है कि कौन किसका पैर पूजा हुआ है और अगर लड़का वाला किसी लड़की वाले के किसी भी रिस्तेदार का पैर पूजा हुआ होगा वहाँ अपनी लड़की नहीं देगा और न ही वहाँ से लड़की लेगा. पयपुजी का आर्थिक सम्बन्ध भी होता है. हर लड़की वाला जो पैर पूजता है उसको कुछ रुपये, गहने, कपडे, मिठाई व बर्तन, इत्यादि देना पड़ता है. ये सब एक तरह का दहेज़ होता है जो सिर्फ लड़का वाला ही ले जा सकता है. यहाँ ये समझना होगा की पयपुजी दहेज़ की एक सीढ़ी है जो किसी भी तरीके से जितना ज्यादा ले सको जीस रूप में ले सको ले लो, और लड़की वाला इसे रीति समझकर स्वीकार करता रहता है और देता रहता है. अगर आर्थिक पहलु से देखे तो लड़की वाले का घर खाली हो सकता है और कर्ज में डूब सकता है पर लड़का वाले का घर भरता है और फिर भी उसको दहेज़ कम लगता है. शादी में एक पछ आर्थिक मजबूती को प्राप्त करता है और दूसरी तरफ एक घर आर्थिक बदहाली की तरफ चला जाता है. इसलिए हम पयपुजी को रीति नहीं बल्कि दहेज़ को लेने की कुरीति व चालाकी जानना चाहिए. ये तो शादी के पहले और शादी होने तक का सामाजिक चक्र है. शादी के बाद लड़की वाला कितना दंश झेलता है जैसे बेटी की पहले औलाद की देखरेख लड़की वाला करता है और फिर उसके बाद कुछ उपहार और कुछ नेंग भी भेजना पड़ता है, जो सामाजिक तौर पर लड़की वाले को ही देना होता है. अगर ऐसा नहीं किया तो ससुराल वाले लड़की/ बहु का जीना दूभर कर देते है. पर्दा प्रथा कोई कम बुराई नहीं है ग्रामीण बुन्देलखण्ड में. यह एक हास्यपद और पागलपन लगता है और ऐसी बकवास और बे आधारहीन रीति है जिसका कोई मतलब नहीं बनता है. सोचो जिस लड़की को कई लोग मिलकर देखे हो, बात चीत किये हो, उसको शिर से लेकर पैर तक देखे हों, कि आँख कैसी है, नाक कैसी है, चेहरा गोल व लम्बा है, होंठ कैसे हैं, बाल घुंघराले है या नहीं, पैर सीधे पड़ते है कि नहीं, हाथ व पैर कि उँगलियाँ कैसी हैं यहाँ तक देख कर शादी करते है फिर वही लड़की शादी के बाद उन्ही लोगों को मुंह क्यों नहीं दिखा सकती. ये तो नियत में खोट दिखती है. बेटी और बहु में क्या अंतर है और ये प्रथा किसलिए चली और कब चली थी, और इसका प्रभाव क्या पड़ता है. ये तो बहु बेटियों को मुगलों, अंग्रेजों और गुंडों से बचने कि प्रथा ही रही होगी जो आज भी चल रही है. फिर ग्रामीण महिलायों पर ही क्यों, अनपढ़ और गरीबों कि महिलायों को ही क्यों? ये बुन्देलखण्ड में बहुत ही प्रचलित है यहाँ तक कि लड़की/ बहन पति के सामने अपने बड़े भाई से पर्दा करटी/घूँघट करती है. इस प्रथा का कोई औचित्य नहीं है समाज में और न ही प्रासंगिक है.  कुछ बिना शिर पैर की रीतियों को बंद होना चाहिए, और ऐसा प्रथा चलना चाहिए जिससे दोनों पछों का बराबरी का सम्मान हो. विवाहिता महिलायों को ये अधिकार और स्वतंत्रता होना चाहिए की क्या पहने और क्या नहीं. खोरवा शौंपाना: खोरवा शौंपाना शादी की अंतिम दहेज़ की रशम होती है और इसके बाद ये घोषणा की जाती है की शादी में पूरा कितना दहेज़  मिला  यानी  शादी  कितने  में हुए है. इसी समय हर बारातियों को कुछ धन देके विदाई की जाती है. और लड़की वाला सभी बारातियों से अपनी गलतियों की माफ़ी मांगता है चाहे गलती हुए हो या नहीं. ठीक है ये अपना सामाजिक कर्तब्य है की अपने आये हुए मेहमानों की सेवा और सत्कार करना पर जजमान को भी सम्मान देना मेहमानों का कर्तब्य है. निष्कर्ष: पैर पूजना और पैर धुलना एक वैवाहिक सामाजिक बुराई है और इसको शिक्षित समाज में सामाजिक रीतिरिवाज से चलाना होगा जिससे कि ये सामाजिक रीती एक कुरीति न बन जाये. ये कुरीति हर जगह नहीं है पर बुंदेलखंड के सभी जिलों में सामान्यतः पाया जाता है. एक ऐसा सामाजिक तंत्र बनाना चाहिए जिससे लड़की वाला को रिस्ते में नीचा नहीं देखना पड़ेगा और लड़का वाला को इतना भी ऊँचा नहीं उठाना चाहिए. इन्ही सामाजिक कुरीतियों की वजह से बहुत से रिस्ते बनते बिगड़ते है. लड़की व लड़का का पिता जी समधी कहलाते हैऔर समधी का मतलब होता है (सम =बराबरी) का धारण करने वाले वो चाहे धन दौलत से हो, सामाजिक सम्मान हो या इज्जत में बराबरी. तो फिर लड़की के पिता अपने को छोटा क्यों समझे. इनका कुछ सामाजिक सरोकार हो सकता है पर आज इस रीति का कोई भी औचित्य दिखता नहीं है न ही सामाजिक नजरिये से और न ही आर्थिक और शैक्षिणिक नजरिये से. शिक्षित समाज में इसका कोई भी पहलु सकारात्मक नहीं दीखता है. और भी सामाजिक विज्ञानं के ज्ञाता होंगे जो अपने नजरिये से इसको अपने तरीके से व्याख्या करेंगे. मेरे हिसाब से इस कुरीति को शादी से हटा देना ही अच्छा होगा. जिस तरह जीवन में लड़का लड़की दो पहिए की तरह चलते है उसी तरह समाज में लड़की वाला और लड़का वाला को एक दूसरे की मान सम्मान का ध्यान देना चाहिए ताकि सिविल सोसाइटी की स्थापना की जा सके. ये मेरा अपना नजरिया है सायद किसीको पसंद हो न हो पर मुझे पसंद नहीं है. और मैं इसकी शुरुआत अपनी शादी से करूँगा. एक तरफ लड़की घर की लक्ष्मी है और दूसरी तरफ दहेज़ का दंश लड़की को व लड़की वालों को मानसिक और आर्थिक तनाव देता है जो न ही समाज और न ही सामाजिक प्रक्रिया के लिए अच्छा नहीं है और न ही होगा. लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संस्थान में शोधार्थी हैं. इनसे  sardaprasadk@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

राजस्थानः शहीद की अंतिम विदाई के लिए मुख्यमंत्री के पास टाइम नहीं

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नई दिल्ली। उरी में आंतकी हमले में शहीद हुए निंब सिंह रावत के शव का अंतिम संस्कार उनके पैतृक गांव राजसमंद के राजवा में राजकीय और सैन्य सम्मान के साथ किया गया. शहीद की अंतिम विदाई में जनसैलाब उमड़ा. इस दौरान सीएम या बीजेपी नेता के नहीं पहुंचने को लेकर राजस्थान के शिक्षा मंत्री कालीचरण सर्राफ ने गलतबयानी कर दी. दरअसल, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे या भाजपा की ओर से प्रदेश अध्यक्ष शहीद को श्रद्धांजलि देने नहीं पहुंचे. इसी सवाल पर राजस्थान के शिक्षा मंत्री कालीचरण सर्राफ उखड़ पड़े. सर्राफ से जब इनके नहीं आने का कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री के पास पहले से काफी काम है. उन्होंने कहा, मुख्यमंत्री फ्री नहीं हैं, प्रतिनिधि को भेज दिया. जब ये कहा गया कि कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट श्रद्धांजलि देने गए, तब सर्राफ ने जवाब दिया कि सचिन पायलट के पास अभी काम क्या है, वह फ्री हैं. वह सरकार में नहीं हैं इसलिए उनको तो जाना ही चाहिए. लेकिन हम सरकार में हैं, मुख्य़मंत्री के पास कई काम हैं. उरी में शहीद हुए निंब सिंह रावत 13 महीने बाद ही रिटायर होकर घर आने वाले थे. लेकिन निंब सिंह के 46 वें जन्मदिन पर 20 सितंबर को राजसमंद के राजवा गांव में शहीद का शव आया तो परिवार के सब्र का बांध टूट गया. निंब सिंह की बेटी ने कहा कि वे टूटेगी नहीं, खुद सेना और पुलिस में भर्ती होकर आंतकियो से लोहा लेगी. 14 साल की सबसे बड़ी बेटी दीपिका ने कहा कि उसे गर्व है पिता देश के लिए शहीद हुए, लेकिन वे पिता की मौत का बदला लेने के लिए सेना में भर्ती होगी, हाथ में बंदूक उठाएगी और हमले के लिए जिम्मेदार आंतकियों से बदला लेगी. बेटी ने कहा सरकार मेरे पिता की शहादत के लिए जिम्मेदार आंतकियों का सफाया करे.

राजभर समाज ने शक्ति प्रदर्शन कर बसपा को दिया समर्थन

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mauमऊ। उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनजर पार्टी में गठित तमाम भाईचारा कमेटियां अपने समाज को इकट्ठा करने में जुटी हुई हैं. इसी क्रम में राजभर समाज ने उत्तर प्रदेश के मऊ में एक कार्यक्रम आयोजित कर बहुजन समाज पार्टी के प्रति अपना समर्थन जताया. मऊ के रेलवे मैदान में आयोजित कार्यक्रम में राजभर समाज के लोग हजारों की संख्या में पहुंचे थे. इस दौरान कार्यक्रम के मुख्य अतिथि एवं बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रामअचल राजभर ने कार्यक्रम में मौजूद कार्यकर्ताओं से बहन मायावती जी को फिर से मुख्यमंत्री बनाने का आवाह्न किया. उन्होंने कहा कि पिछड़े समाज का हित बहुजन समाज पार्टी में ही सुरक्षित है. इसी पार्टी ने राजभर समाज को अधिकार और सम्मान दिया है. उनके आवाह्न पर राजभर समाज के कार्यकर्ताओं ने हाथ उठाकर बसपा को समर्थन देने की बात कही. कार्यक्रम के लिए राजभर समाज के 60-70 हजार कार्यकर्ताओं के पहुंचने से उत्साहित रामअचल राजभर ने उनका धन्यवाद जताया. विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव राजभर ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए राजभर समाज के लोगों को चेताया कि भाजपा राजभर समाज और पिछड़ी जाति के अन्य लोगों को उकसाने और बरगलाने का काम कर रही है. इससे सावधान रहने की जरूरत है. उन्होंने राजभर समाज को बहुजन समाज पार्टी और इसकी मुखिया मायावती के समर्थन में खड़े होने का आवाह्न किया. वरिष्ठ राजभर नेता ने रामअचल राजभर के प्रयासों की भी काफी तारीफ की. गौरतलब है कि यह कार्यक्रम बहुजन समाज पार्टी की तरफ से भाईचारा सम्मेलन था. कार्यक्रम का आयोजन बहुजन समाज पार्टी के मऊ जिला ईकाई की ओर से किया गया था. कार्यक्रम में राजभर समाज के प्रमुख व्यक्ति भीम राजभर (पूर्व प्रत्याशी), मिट्ठू राजभर, भारत राजभर, संतोष राजभर और  मऊ जिलाध्यक्ष राजीव राजू, डॉ. रामाशंकर राजभर (पूर्व मंत्री) और कालीचरण राजभर (पूर्व विधायक), रामकिसुन राजभर, डॉ. पंचम राजभर एवं राजेश राजभर भी मौजूद थे. इससे पहले कार्यक्रम में मौजूद सर्वसमाज के बसपा कार्यकर्ताओं ने प्रदेश अध्यक्ष रामअचल राजभर का 40 किलो की माला और चांदी का मुकुट पहनाकर स्वागत किया.

गुजरातः दलित उत्पीड़न के खिलाफ भड़का आक्रोश

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पुष्कर। बढ़ते दलित और महिला अत्याचारों के विरूद्ध सोमवार को अनुसूचित जाति-जनजाति अधिकार मंच ने विरोध प्रदर्शन किया. मंच के बैनर तले दलित समाज ने सरकार और पुलिस को चेताया की यदि दलित और महिला अत्याचार के मामलों में पुलिस चुप्पी साधे हुए रही तो निर्णायक आंदोलन किया जाएगा. इससे पहले अम्बेडकर सर्किल पर सैकड़ो दलित समुदाया के लोग एकत्रित हुए. यहां पर उन्होंने बाबा साहेब अम्बेडकर की प्रतिमा के सामने सरकार और पुलिस की सद्बुद्धि के लिए यज्ञ में आहूतिया दी. इसके बाद मंच के अध्यक्ष छितर मल टेपन के नेतृत्व में तहसील कार्यालय तक एक विरोध रैली के रूप में पहुंचे. रैली में आक्रोशित दलितों ने एसपी और आईजी के नाम की तख्ती गधो के गले में पहनाकर कर व्यवस्था पर कटाक्ष किया. रैली के दौरान दलित समाज ने सरकार और पुलिस के विरूद्ध जमकर नारेबाजी की और सरकार का पुतला जलाकर तहसीलदार प्रदीप कुमार चौमाल को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और राज्यपाल के नाम का ज्ञापन सौंपा. ज्ञापन में आरोप लगाया गया की कानून के रखवाले ही अपराधियों से गठजोड़ किए हुए है. ऐसे एसपी और आईजी को तुरंत प्रभाव से हटाया जाये. मंच के अध्यक्ष छितरमल टेपन ने बताया की प्रदेश में 8 दलितों की हत्या हो चुकी है लेकिन एक भी आरोपी नहीं पकड़े गए है.

शुक्र है मेरे बिजनौर ने खुद को संभाल लिया

मेरे बिजनौर ने ख़ुद को तुरंत संभाल लिया इसके लिए उसे सलाम. वरना साज़िश तो बड़ी थी. बिजनौर का मूल स्वभाव अमन पसंद है, हालांकि बीच-बीच में कुछ लोग माहौल ख़राब करने की कोशिश करते रहते हैं. इस बार भी यही कोशिश हुई. पेदा गांव की घटना में तो तथ्यों से भी खिलवाड़ किया गया. यहां छेड़छाड़ भी मुस्लिम समुदाय की लड़की के साथ की गई और फिर हमला भी मुस्लिम समुदाय पर किया गया. लेकिन शुरुआत में शहर और आसपास यह अफवाह फैलाई गई कि जाटों की लड़की के साथ छेड़छाड़ हुई. इस तरह कुछ नेताओं ने इसे ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ भी साबित करने की कोशिश की. लेकिन उनकी यह कोशिश नाकाम रही. शुक्रवार (16 सितंबर) को कई अख़बारों की वेबसाइट में भी इसे कुछ इसी तरह पेश करने की कोशिश की गई और इस घटना को दो समुदाय के बीच झड़प और संघर्ष का नाम दिया गया. दो समुदाय के बीच संघर्ष या झड़प उसे कहते हैं जिसमें दोनों समुदाय के लोग घायल हों, लेकिन यहां तो सिर्फ़ एक ही समुदाय (मुस्लिम) के लोग मारे गए और घायल हुए. बाकायदा सुनियोजित ढंग से उनके ऊपर हमला किया गया. इसमें कुछ स्थानीय पुलिस वालों की भूमिका भी संदिग्ध रही. वो तो शुक्र मनाइए कि तुरंत एसपी-डीएम के साथ प्रदेश स्तर के आला अधिकारी सक्रिय हो गए और बिजनौर के अमन पसंद लोगों ने भी इसे बहुत तूल नहीं दिया, जिससे बात संभल गई, वरना बिजनौर को भी मुज़फ़्फ़रनगर बनाया जा सकता था. ख़ैर बिजनौर अब शांत है और रोजमर्रा के काम चल रहे हैं. मृतकों को सुरक्षा के बीच सपुर्दे-ख़ाक कर दिया गया है. बिजनौर का माहौल ख़राब करने वालों की साज़िश तो सफल नहीं हुई, लेकिन आगे बहुत संभलकर रहने की ज़रूरत है, क्योंकि गाय के बाद अब छेड़छाड़ को हथियार बनाकर जगह-जगह माहौल ख़राब करने की कोशिश की जाती रहेगी. यूपी चुनाव तक तो यह प्रक्रिया काफी तेज़ रहने वाली है. यूपी के कई शहरों से इस तरह छिटपुट हिंसा और तनाव की ख़बरें कई दिनों से आ भी रही हैं. इस दौरान न केवल सयंम से रहने की ज़रूरत है, बल्कि अफवाह से भी बचने की ज़रूरत है. सोशल मीडिया पर भी ऐसी घटनाओं पर कुछ लिखने से पहले तथ्यों की सही से जांच कर सही तथ्य अन्य लोगों के सामने लाने चाहिए, ताकि अफवाह फैलाने वालों को मुंह तोड़ जवाब मिले और उनकी साज़िश सफल न हो. – लेखक के फेसबुक वॉल से. लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

गुजरातः जिग्नेश मेवानी सहित 200 लोगों को पुलिस ने किया नजरबंद

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gujratअहमदाबाद। उना दलित अत्याचार लड़त समिति के कन्वीनर जिग्नेश मेवानी सहित 200 लोगों को पुलिस ने नजरबंद किया. ये लोग धोलका की जमीन को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. नजरबंदी के दौरान दो महिला बेहोश हो गई. मेडिकल ट्रीटमेंट के लिए जब एंबुलेंस को  बुलाया गया तो एंबुलेंस भी नहीं आई. प्रदर्शनकारियों ने आरोप लगाया कि प्रशासन ने जानबूझ कर एंबुलेंस नहीं भेजी. इस घटना से गुजरात मॉडल का घटिया चेहरा सामने आया है. जमीन की मांग को लेकर 50 दलितों ने दुबारा अहमदाबाद कलेक्टर ऑफिस को घेरा तो पुलिस ने इन्हें भी नजरबंद कर दिया.

पुलिस हिरासत में दलित युवक की मौत, थाना प्रभारी बोला- हां मैंने मारा… कर लो जो करना है

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जांजगीर। दलित युवक की पुलिस चौकी में मौत के बाद बवाल खड़ा गया है. इस मामले को गंभीरता से लेते हुए एसपी अजय यादव ने मुलमुला थाने के थाना प्रभारी उप निरीक्षक जितेन्द्र सिंह राजपूत और दो आरक्षक सुनील धु्रव व दिलहरण मिरी को कर्तव्य के प्रति लापरवाही बरतने के आरोप में निलंबित कर दिया है. आरोप है कि थाना प्रभारी ने जातिगत भेदभाव के आधार पर दलित युवक से मारपीट की. थाना प्रभारी ने युवक को इतना पीटा की उसकी मौत हो गई. मौत की खबर सुनकर जब परिजनों ने विरोध किया तो थाना प्रभारी उन्हें भी धमकी देने लगा और कहा कि हां मैंने मारा… कर लो जो करना है. यह सुन परिजनों और ग्रामीणों आक्रोश फैल गया. मृतक सतीश नोरगे के शव पर चोट के गहरे जख्म पुलिस की बेरहम पिटाई को बयां कर रहा है. लोगों का आक्रोश भी इसी को लेकर बना हुआ है. युवक के शरीर का अधिकांश हिस्सा पिटाई की वजह से सूजा हुआ है. युवक के शरीर पर काले गहरे धब्बे बने हुए है. रविवार की सुबह से ही नरियरा के समीप एनएच पर आक्रोशित लोगों ने चक्काजाम कर दिया गया. गौरतलब है कि नरियरा निवासी सतीष नारंगे (34 साल) गुरूवार 15 सितम्बर की सुबह 11 बजे बिजली समस्या को लेकर नरियरा उपकेन्द्र गया था. इस दौरान वहां पर उपस्थित विभाग के उच्च जाति के कर्मचारियों से विवाद हो गया. विवाद बढ़ता देख विद्युत मण्डल के कर्मचारियों ने मुलमुला थाने को इसकी सूचना दी. मौके पर पहुंची पुलिस दलित युवक को अपने साथ थाने ले आयी. जहां युवक की बेरहमी से पिटाई कर लॉकअप में बंद कर दिया. जिसके बाद उसकी तबियत बिगड़ गयी. तबियत बिगड़ते देख उसे पामगढ़ सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र ले जाया गया जहां डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया. इस घटना की जानकारी मिलते ही परिजन सहित आसपास के लोग बुरी तरह आक्रोशित हो कर पामगढ़ एसडीएम कार्यालय के सामने युवक के शव को रखकर विरोध करने लगे. बढ़ते तनाव की सूचना मिलते ही कलेक्टर एस. भारतीदासन, पुलिस अधीक्षक अजय यादव सहित अन्य बड़े अधिकारी मौके पर पहुंच स्थिति नियंत्रण में करने में लगे हुए थे. परिजनों की मांग है कि मुलमुला थाना प्रभारी सहित पूरे स्टाफ पर हत्या का मामला दर्ज किया जाये. इस संबंध में मिल रही जानकारी की माने तों मृतक युवक को मुलमुला पुलिस गुरूवार की शाम थाने ले गई थी. जबकि किसी भी आरोपी को लॉकअप में 24 घण्टे से ज्यादा पूछताछ के लिए नहीं रखा जा सकता. ऐसे में मुलमुला पुलिस बिना एफआईआर तथा न्यायायिक आदेश के युवक को लॉकअप में रखा जाना पुलिस की कार्य प्रणाली पर सवालिया निशान लगाता है. बहरहाल आलाधिकारी किसी तरह तनाव खत्म करने के प्रयास में जुटे हुए है. नरियरा के दलित युवक की पुलिस की पिटाई से हुई मौत को लेकर गृह ग्राम नरियरा में भी स्थिति तनाव पूर्ण होने की जानकारी आ रही है. नारंगे की मृत्यु की जांच के लिए न्यायिक मजिस्ट्रेट की नियुक्ति की जाएगी. इसे लेकर एसपी अजय यादव ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को पत्र लिखा है. पत्र में बताया गया है नरियरा निवासी मृतक सतीष नारंगे पिता राजाराम को खूंटीघाट नरियरा पावर सब स्टेशन के संचालक की शिकायत पर 17 सितम्बर को थाना मुलमुला लाया गया था. पुलिस अभिरक्षा में उसे स्वास्थ केन्द्र भेजा गया था. स्वास्थ केन्द्र में चिकित्सा अधिकारी द्वारा सतीष नारंगे को मृत घोषित किया गया.

दलित कलाकार खोल रहे हैं एकजुटता का नया मोर्चा

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दलितों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने की मुहिम लिए तमाम दलित कलाकार 15 सितंबर को एक मंच पर आए. इन कलाकारों में शीतल साठे, गिन्नी माही, संजय राजौरा और सुजत अंबेडकर शामिल हैं, जिन्होंने मिलकर दिल्ली के मावलंकर हॉल में एक इवेंट किया. आर्टिकल-14: लड़ाई बराबरी की- स्टैंड अप फॉर इक्वल राइट्स\”” नामक इस इवेंट में इन सभी ने दलितों के हक की आवाज उठाई. कई दलित संगठनों और दलित स्वा‍भिमान संघर्ष के अंतर्गत काम कर रहे कई वर्कर्स एसोसिएशन के लोग भी इसका हिस्सा बने. इसमें जो कलाकार शामिल हुए उनसे मिलिए- शीतल साठे शीतल साठे पुणे, महाराष्ट्र से हैं. दलित अधिकारों के लिए संघर्षरत और लोक गायिका, शीतल साठे ने 17 साल की उम्र से ही संगीत के जरिए दलितों को समाज में बराबरी दिलाने की मुहिम आरंभ कर दी थी. साठे, ”कबीर कला मंच” से ताल्लुक रखती हैं. इसी से उनके पति सचिन माली भी जुड़े हैं. तीन साल पहले 2013 में उन्हें महाराष्ट्र विधानसभा के सामने से तब गिरफ्तार किया गया था जब वे आठ माह की गर्भवती थीं. साठे पर माओवादियों को सपोर्ट करने का आरोप लगता रहा है. इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए वो तीन साल बाद अपने बेटे को लेकर दिल्ली पहुंची थी. सुजत अम्बेडकर सुजत पेशे से ड्रमर हैं. वे बाबासाहेब अम्बेडकर के पोते हैं और दलितों के लिए आवाज उठाते रहे हैं. उन्होंने इस इवेंट का नाम \””आर्टिकल 14\””, भारतीय संविधान के आर्टिकल 14 के नाम पर चुना है. गिन्नी माही गुरकनवाल भारती अब गिन्नी माही के नाम से जानी जाती हैं. ये जालंधर में रहती हैं, दलित हैं और दलितों को केंद्र में रखकर ही गाती हैं. वे संत रविदास और बाबासाहेब अंबेडकर को अपना आइडल मानती हैं. वे भी दलितों के अधि‍कारों की बात करती हैं. गिन्नी सोशल मीडिया पर खासी पसंद की जा रही हैं. उनके गानों में जातिवाद, वित्तीय असामनता, सामाजिक असमानता आदि प्रमुख मुद्दे होते हैं. संजय राजौरा नई दिल्ली में जन्मे संजय राजौरा पेशे से कमेडियन हैं. इससे पहले वे सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में दस साल तक काम कर चुके हैं और इस लाइन के इंजीनियर्स के जीवन पर काफी कॉमेडी करते हैं. इसके अलावा वे राजनीति, धर्म, समाजिक असमानता आदि विषयों पर भी काफी जोक्स सुनाते हैं. क्या है मांग ये सभी कलाकार लंबे समय से दलितों को समाज में एक समान अधि‍कार दिलाने की बात करते रहे हैं. इसके लिए ये अपने संगीत, गायन, लेखन आदि का सहारा लेते हैं. इनमें से कुछ पर सामाजिक असमानता बढ़ाने व माओवादियों को सपोर्ट करने के आरोप भी लगते रहे हैं.