सपा-बसपा को बांटने की भाजपा की चाल

उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की 9 सीटें जीतने के बाद सीएम योगी आदित्यनाथ ने समाजवादी पार्टी पर चुटकी लेते हुए कहा कि सपा सिर्फ लेना जानती है, देना नहीं. असल में योगी की इन लाइनों में ही उत्तर प्रदेश के राज्यसभा चुनाव की सारी कहानी छुपी हुई है. गोरखपुर में घुस कर योगी आदित्यनाथ को धूल चटाने और प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव मौर्या के क्षेत्र से उन्हीं को बाहर का रास्ता दिखा देने वाले सपा-बसपा के साथ आने से भाजपा और उसके नेता इस कदर खौफ खाए हुए हैं कि वह इसे तोड़ने के लिए हर दांव आजमा रहे हैं.

उन्हें यह भय है कि जब बसपा द्वारा सपा को सांकेतिक समर्थन से भाजपा अपने तीस साल पुराने गढ़ को नहीं संभाल पाई तो अगर बसपा औऱ सपा खुलकर एक-दूसरे का समर्थन करने लगें औऱ मायावती और अखिलेश यादव एक मंच पर आ जाएं तो फिर भाजपा का दुबारा केंद्र में आने का सपना… सपना बनकर ही रह जाएगा.

23 मार्च को जो राज्यसभा चुनाव के दौरान हुआ, उसे ऐसे समझिए. उत्तर प्रदेश की 10 सीटों में से 8 सीटों पर बीजेपी की जीत पक्की थी, जबकि एक सीट समाजवादी पार्टी के खाते में जाना भी तय था. लेकिन असली लड़ाई 10वीं सीट के लिए थी, जिसपर बीजेपी की ओर से अनिल अग्रवाल तो वहीं बसपा की ओर से भीमराव अंबेडकर मैदान में थे. वोटिंग के दौरान कई विधायकों के क्रॉस वोटिंग की बात सामने आई, जिसका फायदा भाजपा को मिला.

बसपा के अनिल सिंह, सपा के नितिन अग्रवाल और निषाद पार्टी के विजय मिश्रा ने खुले तौर पर बीजेपी का समर्थन किया. नितिन अग्रवाल सपा के बागी नरेश अग्रवाल के बेटे हैं जिन्हें भाजपा ने राज्यसभा में भेजा है.

राज्यसभा चुनाव में 400 विधायकों ने मतदान किया गया. सूबे की 403 सीटों में एक विधायक के निधन और दो विधायकों को जेल में बंद होने के चलते वोट डालने की अनुमति नहीं मिली थी, इसके चलते वो मतदान नहीं कर सके. भीमराव आंबेडकर को बहुजन समाज पार्टी के 17, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के 7-7 और सोहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के एक उम्मीदवार का वोट मिला.

(इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बहुजन समाज पार्टी के मुख्तार अंसारी और समाजवादी पार्टी के फिरोज़ाबाद से आने वाले हरिओम यादव को मतदान में हिस्सा लेने की इजाज़त नहीं दी. हालांकि झारखंड में एक विधायक को जेल में होने के बाद भी राज्य सभा चुनाव में हिस्सा लेने की मंजूरी मिली. अगर ये दोनों अपना अपना वोट डालने आते, तो शायद भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार को जीत नहीं मिलती. क्योंकि अनिल अग्रवाल को भी कुल मिलाकर 33 वोट मिले, लेकिन दूसरी वरीयता के आधार पर उन्हें विजेता घोषित किया गया.

इस पूरे चुनाव में जातिवाद भयंकर रूप से हावी रहा. बसपा के उम्मीदवार को हराने के लिए जो लोग भाजपा से जा मिले, वो सभी सवर्ण विधायक हैं.

इस जीत के बाद भाजपा यह प्रचारित करने की कोशिश कर रही है कि सपा ने बसपा का साथ नहीं दिया इसलिए बसपा का उम्मीदवार हार गया. भाजपा राजनीतिक रूप से यह संदेश भी देने की कोशिश कर रही है कि उसने गोरखपुर और फूलपुर चुनाव का बदला ले लिया है, लेकिन यह भाजपा द्वारा खुद जबरदस्ती अपनी पीठ थपथपाने जैसा है. क्योंकि राज्यसभा चुनाव में सारी चीजें अमूमन पहले से तय होती है और दो-तीन विधायकों को सत्ता का लालच या फिर भय दिखाकर अपने पाले में कर लेना किसी सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत मुश्किल काम नहीं होता है. जबकि लोकसभा चुनाव में फैसला जनता करती है और जनता की अदालत में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है.

बसपा को धोखा देने वाले विधायक ने कहा- क्षत्रिय धर्म का पालन किया

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नई दिल्ली। राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग करने वाले बीएसपी विधायक अनिल कुमार सिंह को मायावती ने पार्टी से सस्पेंड कर दिया है. राज्यसभा चुनाव के दिन अनिल ने खुलकर योगी आदित्यनाथ का समर्थन किया. मायावती द्वारा लिए गए इस कड़े फैसले के बाद अनिल ने कहा है कि उन्होंने बीजेपी को वोट देकर क्षत्रिय धर्म का पालन किया था.

अनिल कुमार सिंह का कहना है कि उन्होंने यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ के कामों से प्रभावित होकर बीजेपी उम्मीदवार को वोट दिया. साथ ही अनिल ने कहा कि उन्होंने वही किया जो उनके चुनाव क्षेत्र के मतदाता चाहते थे. अब सवाल यह है कि उम्मीदवार तो क्षत्रिय था नहीं, न ही भाजपा क्षत्रियों की पार्टी है. फिर आखिर अनिल सिंह किससे क्षत्रिय होने का नाता जोड़ रहा है?? शायद योगी आदित्यनाथ से…. क्योंकि अब बच वही जाते हैं. और योगी आदित्यनाथ ने इसके खिलाफ कोई बयान भी नहीं दिया है. तो आदित्यनाथ जी फिर ये संन्यासी होने का शोर क्यों… भगवा उतारिए और ठाकुर नेता बनकर मैदान में आइए.

   

कर्नाटक में बसपा के सहयोगी जेडीएस को बड़ा झटका

बंगलुरू। कर्नाटक में विपक्षी दल जनता दल (सेक्यूलर) को करारा झटका लगा है. पार्टी के सात विधायकों ने इस्तीफा देकर कांग्रेस का हाथ थाम लिया है. इससे पहले शुक्रवार को जेडीएस के विधायकों ने राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग कर कांग्रेस उम्मीदवार को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी. जेडीएस प्रवक्ता के मुताबिक इन सातों विधायकों के नाम बी जेड जहीर अहमद खान, आर. अखंड श्रीनिवास मूर्ति, एन. चालूवराय स्वामी, इकबाल अंसारी, एच सी बालकृष्ण, रमेश बांदी सिद्धागौड़ा और भीम नाइक ने विधानसभा अध्यक्ष केबी. कोलिवाड को अपना इस्तीफा सौंप दिया है.

जेडीएस ने इन विधायकों को राज्य सभा चुनाव में जारी पार्टी व्हिप का उल्लंघन करने के आरोप में निलंबित कर दिया था. इन लोगों ने ने कांग्रेस के तीसरे प्रत्याशी जी सी चंद्रशेखर को वोट दिया था. विधानसभा अध्यक्ष कोलिवाड ने चार विधायकों के इस्तीफे को स्वीकर करते हुए मीडिया से कहा कि इन लोगों ने खुद पार्टी के व्हिप का उल्लंघन कर इस्तीफा दिया है. बता दें कि शुक्रवार को राज्यसभा चुनावों में सत्ताधारी कांग्रेस ने तीन सीटों पर जीत दर्ज की थी जबकि बीजेपी ने एक सीट पर जीत दर्ज की. कर्नाटक में कुल चार सीटों पर राज्यसभा चुनाव हुए थे. इसमें कांग्रेस की ओर से एल हवुमनथैय्या,सैयद नासिर और जी सी चंद्रशेखर जबकि बीजेपी की तरफ से राजीव चंद्रशेखर संसद पहुंचने में कामयाब रहे हैं.

मायावती की भाजपा को खुली चुनौती

नई दिल्ली। ऐसा काफी लंबे वक्त बात हुआ जब बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने भाजपा को खुली चुनौती दे डाली. पिछले कुछ सालों में भाजपा पर सबसे बड़ा हमला करते हुए मायावती ने जहां भाजपा नेताओं की कलई खोल दी तो अखिलेश यादव के साथ आई नजदीकियों को खुल कर स्वीकारा. राज्यसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद शनिवार को बसपा प्रमुख पूरे तेवर में दिखीं. चुनावों में भाजपा के तिकड़म से भड़की बसपा प्रमुख मायावती ने भाजपा पर एक के बाद एक हमला किया. हम आपको बिना कांट छांट वह बताते हैं, जो मायावती ने कहा.

हमला नंबर-1

मायावती ने कहा कि- बीजेपी को दिन में तारे दिखाने वाले गोरखपुर व फूलपुर लोकसभा उपचुनाव के सनसनीखेज़ व धमाकेदार परिणाम पर से लोगों का ध्यान बांटने के लिये ही बीजेपी ने उत्तर प्रदेश राज्यसभा चुनाव में सरकारी मिशनरी का दुरुपयोग तथा भय व आतंक फैलाकर नौवीं सीट पर धन्नासेठ को अपनी आदत के हिसाब से जिताया, लेकिन इससे इनके दामन पर उपचुनाव के करारी व शर्मनाक हार का धब्बा मिटने वाला नहीं है. हमला नंबर-2

मायावती ने कहा कि राज्यसभा के इस चुनाव में आपसी तालमेल के कारण कांग्रेस पार्टी के 7 और समाजवादी पार्टी के भी 7 विधायकों के वोट देने के लिये इनका दिल से आभार प्रकट. लेकिन राष्ट्रीय लोकदल का वोट बी.एस.पी. को नहीं मिला. बसपा प्रमुख ने उन सभी विधायको का भी अभार जताया जो सरकारी आतंक के आगे नहीं झूके.

हमला नंबर-3

राज्यसभा के चुनाव में बीजेपी के षड़यन्त्रों को धूल चटाई जा सकती थी, यदि सपा मुखिया कुण्डा के राजा भैया, जिसे बीजेपी के लोग ही ’कुण्डा का गुण्डा’ कहकर पुकारते थे जिसको मेरी सरकार ने ठीक लाईन पर लाकर खड़ा कर दिया था, के झूठे व फरेब वाले मकड़जाल में नहीं फंसते.

हमला नंबर- 4

अपने प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने जो सबसे बड़ी घोषणा सपा को लेकर की. उन्होंने साफ-साफ कहा कि राज्यसभा का जो नतीजा आया है उससे सपा व बी.एस.पी. की आयी नज़दीकी में तिलभर भी असर पड़ने वाला नहीं है. बल्कि अब आगे चलकर बीजेपी का यह षड़यन्त्र इनको और भी ज्यादा मंहगा पड़ने वाला है।

हमला नंबर-5

जबसे सपा-बसपा की थोड़ी नजदीकी बऩी है, तबसे बीजेपी वाले इसे तोड़ने के लिए काफी ज्यादा अर्नगल व अमर्यादित बयानबाजी करने लगे हैं जो इनकी बी.एस.पी. व सपा के प्रति हीन, जातिवादी, संकीर्ण, व विद्वेष पूर्ण व सामंती मानसिकता को दर्शाता है,जिसका डट कर मुकाबला किया जायेगा।

हमला नंबर-6

बीजेपी ने सन 1997 व 2002 में बी.एस.पी. के साथ मिलकर गठबन्धन की सरकार उत्तर प्रदेश में बनाई थी तब बी.एस.पी. बहुत अच्छी, लेकिन किसी अन्य पार्टी के साथ तालमेल व आपसी सहयोग करे तो यह पार्टी बहुत बुरी है. इनकी ऐसी दोग़ली मानसिकता व दोहरा मापदण्ड क्यों है?

हमला नंबर-7

जिस सवाल का जवाब सभी ढूंढ़ रहे थे, मायावती ने उस पर भी खुलकर बोला. स्टेट गेस्ट हाउस कांड और अखिलेश यादव के साथ संबंधों पर मायावती ने अपना रुख साफ कर दिया. बसपा प्रमुख ने कहा कि- बी.एस.पी. के खिलाफ अपने अन्ध-विरोध में बीजेपी के नेतागण यह भी भूल गये कि दिनांक 2 जून सन् 1995 को जब लखनऊ में स्टेट गेस्ट हाऊस काण्ड हुआ था तब सपा के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव का राजनीति से दूर-दूर तक का कुछ भी वास्ता नहीं था. ऐसे में फिर उस घृणित व कभी भी ना भुलाये जाने वाले स्टेट गेस्ट हाऊस काण्ड के लिये श्री अखिलेश यादव को क्या जिम्मेदार ठहराना न्यायसंगत व उचित होगा.

हमला नंबर-8

बीजेपी वाले अपनी उस करतूत को जनता के सामने क्यों नहीं बताते हैं कि जिस पुलिस अधिकारी की मौजूदगी व सीधे संरक्षण में तत्कालीन सपा सरकार द्वारा स्टेट गेस्ट हाऊस काण्ड कराया गया था, उसी पुलिस अधिकारी को बीजेपी की श्री योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश का पुलिस प्रमुख अर्थात् डी.जी.पी. बनाया हुआ है. यह सब हमारे लोगों के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने जैसा नहीं तो और क्या है.

हमला नंबर-9

बीजेपी व आर.एस.एस. एण्ड कम्पनी के लोग वास्तव में आज भी पूरे देश में दलितों,पिछड़ों मुस्लिम व अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति उसी हीन, जातिवादी व सामंती मानसिकता के साथ काम कर रहे हैं जैसा कि इनके बुजुर्गो ने सदियों तक यहां किया है, परन्तु अब ये हमारे लोग ज्यादा दिन तक बर्दाश्त करने वाले नहीं है. इसलिए अब बीजेपी एण्ड कम्पनी के लोगों को अपनी ऐसी गंदी, सस्ती व ओछी राजनीति करने से बाज़ आना चाहिये वरना इस बार जनता उन्हें 14 वर्ष के लिये नहीं बल्कि पूरी तरह से आजीवन बनवास पर ही भेज देगी.

हमला नंबर-10

अति दलितों और अति पिछड़ों को अलग आरक्षण देकर राजनैतिक चाल चलने के भाजपा के इरादे पर भी बसपा प्रमुख ने पानी फेर दिया. उन्होंने कहा कि सपा-बसपा की नजदीकी से घबराकर अब बीजेपी के लोग उत्तर प्रदेश के अति-दलितों व अति-पिछड़ों को पूर्व में दिये गये आरक्षण में से कुछ अलग से आरक्षण देने की जो बात शुरु की है इससे हमारी पार्टी को कोई भी ऐतराज़ नहीं है बल्कि यदि इनकी सरकार ऐसा कोई भी कदम उठाती है तो फिर हमारी पार्टी इसका पूरे तहेदिल से स्वागत ही करेगी.

इस पूरे प्रेस कांफ्रेंस की जो सबसे खास बात रही, वह यह है कि इसमें यह साफ हो गया है कि सपा और बसपा 2019 में गठबंधन को लेकर काफी गंभीर हैं. इस पर विशेष तौर पर चर्चा करते हुए बसपा प्रमुख ने कहा कि- बी.एस.पी. व सपा की इस कारगर रणनीति का पूरे देशभर में हर स्तर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है और इसका व्यापक स्वागत भी किया गया है.

भाजपा दलित विरोधी, उसे अम्बेडकर के नाम से चिढ़

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नई दिल्ली। राज्यसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद जहां बीजेपी जश्न मना रही है, वहीं चुनाव में मिली हार के बाद बहुजन समाज पार्टी निराश है. यूपी उपचुनाव के नतीजे आने के बाद बीएसपी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने आरोप लगाया कि बीएसपी के प्रत्याशी को हराने के लिए मुख्तार अंसारी को वोट डालने से रोका गया. उन्होंने कहा कि मुख्तार अंसारी को वोट डालने के लिए कोर्ट ने इजाजत दे दी थी, लेकिन उनको जेल डालकर वोट नहीं डालने दिया गया. सतीश चंद्र मिश्रा ने बीजेपी पर धन और सत्ता के बल पर धांधली का आरोप लगाया है.

बीएसपी के महासचिव सतीश मिश्रा ने बीजेपी को दलित विरोधी बताया. उन्होंने कहा कि हमने भीमराव अंबेडकर को खड़ा किया था, बीजेपी को इस नाम से ही चिढ़ है. यही वजह है कि उसने पार्टी प्रत्याशी को हराने के लिए हर हथकंडा अपनाया.

बीएसपी नेता सतीश चंद्र मिश्रा ने बीजेपी पर गंभीर लगाते हुए कहा कि इन्होंने हमारे विधायक और दूसरे दलों के विधायकों के साथ जोर-जबरदस्ती करके वोट लेने का काम किया गया. इसलिए हम हारे और वो अपने 9वें सदस्य को जीतवाने में कामयाब हुए

आपको बता दें कि यूपी राज्यसभा चुनाव के लिए 10वीं सीट के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी. इस सीट पर बीजेपी के अनिल अग्रवाल और बसपा के भीमराव अंबेडकर के बीच कांटे की टक्कर थी. इस पर बीजेपी ने जीत दर्ज की. गौरतलब है कि पहली वरीयता में बीजेपी के आठ विजयी उम्मीदवारों को 39-39 वोट मिले. सपा की जया बच्चन को 38 वोट मिले. पहली वरीयता की गिनती में दसवीं सीट के लिए बसपा के भीमराव अंबेडकर को 33 वोट मिले और बीजेपी के अनिल अग्रवाल को 22 वोट मिले. इसके बाद ही साफ हो गया था प्रचंड बहुमत वाली बीजेपी की दूसरी वरीयता में जीत तय है.

राज्यसभा चुनाव में वोटों की गिनती दो घंटे देर से शुरू हुई. दरअसल सपा और बसपा ने आरोप लगाया कि सपा के नितिन अग्रवाल और बसपा के अनिल सिंह ने पार्टी को बिना बताए क्रॉस वोटिंग की. लिहाजा उनके वोट अवैध घोषित होने चाहिए. इसके साथ ही सपा के विधायक राजेश यादव ने आरोप लगाया कि विपक्ष के चार बैलट पेपर फाड़े गए हैं. इसके बाद चुनाव आयोग ने फुटेज मंगवाया. जांच के बाद आयोग ने नितिन अग्रवाल और अनिल सिंह के वोट को वैध करार दिया. साथ ही बैलट फाड़ने वाले आरोप को भी खारिज कर दिया.

यूपी के शिक्षकों ने खून से लिखी सीएम योगी को चिट्ठी

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नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश के शामली जनपद में शिक्षकों का विरोध-प्रदर्शन अभी भी जारी है. समान मानदेय और सरकार द्वारा दिए जाने वाले मानदेय बंद करने को लेकर वित्तविहीन शिक्षक पिछले सात दिनों से धरने पर बैठे हैं. शुक्रवार को धरने के दौरान शिक्षकों ने अपने खून से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को चिट्ठी लिखी. साथ ही उन्होंने धमकी भी दी कि यदि उनकी मांगें पूरी नहीं होती हैं तो वे ट्रेन से कटकर जान दे देंगे. शिक्षकों में इस बात को लेकर भी नाराजगी है कि सात दिन से जारी इस विरोध-प्रदर्शन के बाद भी अब तक कोई भी अधिकारी उनके पास नहीं आया है.

शामली जनपद के झिंझाना रोड स्थित किसान इंटर कॉलेज के सामने वित्तविहीन शिक्षकों का धरना-प्रदर्शन जारी है. प्रदर्शन करते हुए शिक्षकों ने शुक्रवार को अपना सिर मुंडवा लिया. वहीं अन्य ने अपने खून से मांगों की पूर्ती को लेकर सीएम योगी को चिट्ठी लिखी.

वित्तविहीन शिक्षकों ने कहा कि अगर उनकी मांग पूरी नहीं हुई तो वह लोग अपना विरोध प्रकट करते हुए विधानसभा का घेराव करेंगे या ट्रेन के नीचे आकर पटरी पर जान दे देंगे. शिक्षकों का आरोप है कि उनके बीच आज तक न तो कोई अधिकारी आया और न ही कोई जनप्रतिनिधि आया है.

उन्होंने कहा कि हमारी मांग मुख्यमंत्री से बराबर काम बराबर मानदेय दिलाए जाने की है. मांग पूरी नहीं होने तक प्रदर्शन जारी रखा जाएगा. इसी के तहत वित्तविहीन शिक्षकों ने बोर्ड परीक्षा ड्यूटी के बाद अब मूल्यांकन कार्य का भी बहिष्कार किया है.

वित्तविहीन शिक्षक संगठन ने बताया कि वे शनिवार दोपहर 12 बजे तक भाजपा के किसी प्रतिनिधि के धरनास्थल पर पहुंचने का इंतजार करेंगे. ऐसा नहीं होने पर विरोध कर रहे शिक्षक खुद भाजपा जिला मुख्यालय जाएंगे और वहां खून से लिखी चिट्ठी भाजपा पदाधिकारियों को सौंपेंगे.

इस राज्य में एक वोट से राज्यसभा चुनाव हारी भाजपा

झारखण्ड। भाजपा के लीगल सेल के संयोजक अजय साहू ने बताया कि दूसरी सीट पर धीरज प्रसाद साहू को 26 वोट मिले, जबकि प्रदीप सोंथालिया को 25 पहले प्राथमिक वोट हासिल हुए. ओरन के अतिरिक्त वोटों के कारण सोंथालिया के खाते में 25.99 वोट हो गए थे. यानी कि वह जीत से 0.1 वोट पीछे थे.

राज्यसभा चुनाव में भले ही 12 सीटें जीत कर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) संसद के उच्च सदन में सबसे बड़ी पार्टी बन गई हो. लेकिन झारखंड में पार्टी का विकास रथ .01 वोट से पीछे रह गया. यह बात अपनी हार मान लेने वाले कांग्रेस उम्मीदवार को भाजपा के विधायक ने बताई थी. आपको बता दें कि शुक्रवार को कुल 17 राज्यों में राज्यसभा के चुनाव हुए थे. 10 में से 33 उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए, जबकि बाकी के सात राज्यों की 26 राज्यसभा सीटों पर मतदान हुआ. इन सीटों में से 12 पर कमल खिला. उत्तर प्रदेश के सभी उम्मदीवारों के हाथ जीत लगी है. अब उच्च सदन में भाजपा के 73 सांसद है, जिससे वह यहां सबसे बड़ी पार्टी बन गई है.

हुआ यूं कि शुक्रवार को भाजपा के समीर ओरन और कांग्रेस के धीरज प्रसाद साहू ने झारखंड की दो राज्यसभा सीटों पर जीत हासिल की. ओरन ने 27 वोटों से आसानी से जीत हासिल की, जबकि भाजपा के अन्य उम्मीदवार प्रदीप कुमार सोंथालिया चुनाव हार गए. चुनाव अधिकारियों ने दो वोटों को अमान्य ठहरा दिया था. ऐसे में चुनाव के जीत के आंकड़े 80 के बजाय 78 पर तय होने थे.

भाजपा के लीगल सेल के संयोजक अजय साहू ने बताया कि दूसरी सीट पर धीरज प्रसाद साहू को 26 वोट मिले, जबकि प्रदीप सोंथालिया को 25 पहले प्राथमिक वोट हासिल हुए. ओरन के अतिरिक्त वोटों के कारण सोंथालिया के खाते में 25.99 वोट हो गए थे. यानी कि वह जीत से .01 वोट पीछे थे. चुनाव में एनडीए खेमा 52 प्राथमिक वोट हासिल करने में कामयाब रहा, जिसमें चार छोटे दलों के विधायक थे. इसके अलावा झारखंड से विकास मोर्च (प्रजातांत्रिक) के विधायक प्रकाश राम भी इनमें शामिल थे.

जेवीएम (पी) के नेता बाबूलाल मरांडी ने इस संबंध में चुनाव अधिकारियों से राम के वोट को रद्द करने की मांग की. सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने वोटिंग के दौरान उसे पोलिंग एजेंट को नहीं दिखाया था. अधिकारी ने जब उनकी मांग को खारिज कर दिया था. जेवीएम (पी) और कांग्रेस इसके बाद चुनाव आयोग के पास पहुंचे, जिसके कारण मतगणना की प्रक्रिया में दो घटे की देरी हुई.

चुनाव अधिकारियों के ऐलान से पहले साहू ने अपनी हार स्वीकार ली थी. उन्होंने कहा, “मुझे हार स्वीकारनी थी. चूंकि उनके दो वोट रद्द हो गए थे.” भाजपा के समर्थक चिल्लाने और नारेबाजी करने लगे थे. भाजपा के विधायक राधा कृष्ण किशोर ने साहू को इसी दौरान बताया कि नतीजा उनके पक्ष में है.

ममता बनर्जी ने लगाई भाजपा और विहिप पर ब्रेक

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हुगली में आयोजित प्रशासनिक बैठक में सांप्रदायिक तनाव के मामलों पर त्वरित कार्रवाई करने और पुलिस को चौकन्ना रहने का निर्देश दिया. वहीं, बीजेपी के राज्य प्रमुख दिलिप घोष ने कहा कि वह रामनवमी के जुलूस में गदा लेकर शामिल होंगे.

रामनवमी को लेकर एक बार फिर ममता सरकार और बीजेपी-वीएचपी (विश्व हिंदू परिषद) आमने-सामने हैं. बीजेपी और वीएचपी का कहना है कि वे हथियार लेकर रामनवमी का जुलूस निकालेंगे. वहीं, पश्चिम बंगाल सरकार का कहना है कि इसकी इजाजत नहीं जाएगी. राज्य सरकार ने रामनवमी उत्सव के दौरान हथियारों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर रोक लगाने की घोषणा कर दी है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मंगलवार (20 मार्च) को रामनवमी के जुलूस में हथियार ले जाने की अनुमति न देने की बात कही थी. हुगली में एक आधिकारिक बैठक को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री ने पुलिस को सतर्कता बढ़ाने और शांति-व्यवस्था बनाए रखने का निर्देश दिया था.

ममता ने प्रशासनिक अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा, ‘सांप्रदायिक घटना को कतई नजरअंदाज न करें. इसका तत्काल संज्ञान लें.’ ममता ने कहा कि पूर्व अनुमति के बाद ही जुलूस निकाला जा सकता है, वह भी बिना हथियार के. दूसरी तरफ, बीजेपी और वीएचपी ने कहा कि वे लंबे समय से चली आ रही परंपरा को निभाएंगे और उस दिन जुलूस जरूर निकालेंगे. देश भर में 25 मार्च को रामनवमी का उत्सव मनाया जाएगा.

भाजपा नेता बोले- हथियार लेकर जुलूस में हों शामिल: बीजेपी के पश्चिम बंगाल अध्यक्ष दिलिप घोष ने ममता सरकार के फैसले का खुलेआम विरोध किया है. हावड़ा में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘रामनवमी के जुलूस में शामिल होने वाले लोग परंपरा के अनुसार अपने साथ हथियार लाएं. मैं ऐसे ही एक जुलूस में गदा लेकर जाऊंगा.’ कोलकाता पुलिस ने जनवरी में रामनवमी के दौरान हथियार पर पाबंदी लगाने की बात कही थी. उस वक्त भी दिलिप घोष ने हथियार के साथ जुलूस में शामिल होने की बात कही थी. दिलचस्प है कि कुछ दिनों पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की पश्चिम बंगाल इकाई ने रामनवमी के जुलूस में हथियार के साथ शामिल न होने की बात कही थी.

हालांकि, कई दक्षिणपंथी संगठनों का कहना है कि रामनवमी में शस्त्र रैली निकलाने की लंबे समय से परंपरा रही है. बता दें कि सीएम ममता भाजपा और आरएसएस पर सांप्रदायिक तनाव पैदा करने का आरोप लगाती रहती हैं. पिछले साल भी रामनवमी के जुलूस में स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी. हालात सामान्य करने के लिए पुलिस और प्रशासन को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी.

डेटा चोरी से सावधान रहना होगा

आसान भाषा में समझिए कि जिसे आप कुछ नहीं मान रहे वो असल में कितना सीरियस मामला है. आपकी शक्ल किस एक्टर से मिलती है, आप अगले जन्म में क्या बनेंगे, आप की पर्सनैलिटी में सबसे शानदार क्या है? इस तरह के फालतू सवालों का जवाब कितना गंभीर होता है ये आप भी जानते हैं, लेकिन टाइमपास करने के फेर में आप क्लिक के बाद क्लिक किए जाते हैं और अपनी राय या जानकारियां उस पार बैठी किसी अनजान पेशेवर कंपनी से साझा कर लेते हैं. हो सकता है कि आपके लिए आपकी राय दो कौड़ी की हो, मगर डाटा कलेक्शन के धंधे में उतरे पेशेवरों के लिए ये आंकड़े हीरे-मोती हैं. फेसबुक इस्तेमाल करनेवाले औसत बुद्धि हिंदुस्तानी की अक्ल कैसे काम करती है ये इन विदेशी कंपनियों को बखूबी पता है और इसीलिए बेतुकी ऐप्लीकेशन्स के ज़रिए प्राइवेसी की दीवारें तोड़कर आसानी से डाटा इकट्ठा कर लेती हैं.

भारत इंटरनेट की दुनिया में अभी नाबालिग है. जो देश इस राह में बहुत पहले आगे बढ़ चुके हैं वहां की सियासत इंटरनेट पर उपलब्ध डाटा के इस्तेमाल के तरीके को भी जानती है, और वहां के लोग भी इस गोरखधंधे को लेकर खूब संवेदनशील हैं. यहां तो हालत ये है कि लोग आधार कार्ड के कथित नफे के सामने नुकसान की बात सुनना भी नहीं चाहते. जिन लोगों ने अमेरिकी टीवी सीरीज़ ‘हाउस ऑफ कार्ड्स’ देखी है, वो जानते हैं कि डाटा का इस्तेमाल चुनाव प्रभावित करने के लिए कैसे किया जाता है. सबसे आपत्तिजनक ये है कि ऐसा किया जाना अवैध है. जनमत को इन तरीकों से प्रभावित करना लोकतंत्र के साथ चीटिंग है. अमेरिका में पहले भी सरकारी स्तर और खुफिया तरीकों से नागरिकों की जानकारी इकट्ठा किया जाने का ज़बरदस्त विरोध होता रहा है. अमेरिकी नागरिकों की जागरुकता अमेरिकी नेताओं को ऐसा करने से रोकती रही है. आतंकवाद के नाम पर लोगों की निजी जानकारी संग्रह करने की योजना और भी खुलकर चलने लगी थी, मगर पढ़े-लिखे अमेरिकियों की जमात को ये आसानी से समझ आ गया कि उन्हें आतंकवाद का डर दिखाकर नेता मनचाहे कानून बना रहे हैं. ये कानून सिर्फ उनकी सत्ता को मज़बूत करने के काम आएंगे. भारत की स्थिति अलग है. इस देश में नेता देवता होते हैं जो कभी कुछ गलत कर ही नहीं सकते. ये स्थिति तब है जब हमारे नेताओं की डिग्री से लेकर पत्नी तक दशकों तक छिपे रह जाते हैं और हम उनके बारे में कभी भी ठीक ठीक पता नहीं कर पाते. ऐसे में सोचिए कि अगर भारतीय चुनावों में कैंब्रिज एनेलिटिका जैसी कंपनियां सक्रिय रही हों तो भला हमें कौन बताएगा और कैसे पता चलेगा.

आज रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वो 2019 के चुनाव में कैंब्रिज एनेलिटिका की सेवाएं लेना चाह रही थी, तो सुरजेवाला ने बीजेपी पर आरोप लगाया कि 2010 के बिहार चुनाव में बीजेपी ने तो इस कंपनी की सेवाएं ली भी हैं. और तो और जेडीयू वाले केसी त्यागी के बेटे अमरीश त्यागी का नाम भी आ रहा है. अमरीश गाज़ियाबाद में एवेलेनो बिज़नेस इंटेलिजेंस चलाते हैं जो एससीएल लंदन का हिस्सा है. एससीएल ही कैंब्रिज एनेलिटिका की पेरेंट कंपनी भी है. अमरीश की कंपनी अपने संबंधों को एससीएल या कैंब्रिज एनेलिटिका से स्वीकारती तो है लेकिन फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म के साथ मिलकर काम करने से इनकार करती है.

दरअसल कैंब्रिज एनिलिटिका एक ब्रिटिश कंपनी है. कंपनी का मालिक है रॉबर्ट मर्सर जो डोनाल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी का दानदाता है. उसकी कंपनी पर इल्जाम है कि 2016 के अमेरिकी चुनाव में उसने ट्रंप की पार्टी को ये समझने में गैर कानूनी ढंग से मदद की , कि अमेरिकी जनता का रुझान क्या है. वहीं ब्रिटेन की जनता को यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलने के लिए भी कंपनी ने उकसाया था. कैंब्रिज एनेलिटिका में काम करनेवाले 28 साल के क्रिस्टोफर विली ने खुलासा किया है कि कंपनी ने 5 करोड़ अमेरिकियों का फेसबुक डाटा एक्सेस करके इस तरह डिज़ाइन किया कि लोगों का ब्रेनवॉश हो और वोटर्स ट्रंप के पक्ष में वोटिंग करने लगें. लोगों को ट्रंप से जुड़े पॉजिटिव विज्ञापन खूब दिखाए गए. फेसबुक कहता रहा है कि वो किसी ऐप्लीकेशन को बहुत कम डाटा एक्सेस करने देता है लेकिन इस बार आरोप है कि फेसबुक ने जानबूझकर कैंब्रिज एनेलिटिका को ज़्यादा डाटा इकट्ठा करने दिया.

असल कहानी शुरू होती है साल 2014 से जब कैंब्रिज विवि में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ एलेक्ज़ेंडर कोगान को कैंब्रिज एनालिटिका ने 8 लाख डॉलर दिए. उन्हें एक ऐसी ऐप्लीकेशन डेवलप करने का काम दिया गया जो फेसबुक यूज़र्स का डाटा निकाल सके. उन्होंने जो ऐप बनाई उसका नाम था दिस इज़ योर डिजिटल लाइफ. 2 लाख 70 हज़ार लोगों ने इस ऐप को डाउनलोड किया वो भी बिना जाने कि जिस ऐप को वो डाटा एक्सेस करने दे रहे हैं वो दरअसल इस डाटा का इस्तेमाल क्या, कहां और किसके लिए करेगी. कोगन ने सारा डाटा कैंब्रिज एनेलिटिका को बेच दिया. कैंब्रिज एनेलिटिका ने इस सारे आंकड़े के आधार पर लोगों की साइकोलॉजिकल प्रोफाइल तैयार कर ली. इसमें उनके रुझान, नापसंदगी , आदतों का सारा चिट्ठा था. आरोप है कि इन्हीं 5 करोड़ प्रोफाइल्स को फोकस करके डोनाल्ड ट्रंप के चुनावी प्रचार अभियान की योजना बनाई गई.

जब कैंब्रिज एनेलिटिका की हरकतें पकड़ में आईं तो उसने एक और खेल खेला. आरोप है कि उसने डोनाल्ड ट्रंप को बचाने के लिए अपने कागज़ातों में ऐसे हेरफेर किया कि पड़ताल में निष्कर्ष कुछ ऐसा निकले कि सारा डाटा रूस की मदद से इकट्ठा किया गया है. मुसीबत में फंसे फेसबुक ने कहा है कि 2015 में ही उन्होंने इस ऐप को हटा दिया था. ऊपर से उसने ये भी कहा कि ऐप को अपना एक्सेस लोगों ने खुद दिया जो एक हद तक सच तो है ही.

अब दुनियाभर में फेसबुक के खिलाफ गुस्सा है और जमकर अभियान चल रहा है. वॉट्सएप के सह संस्थापक ब्रायन एक्टन ने तो ट्विटर पर लिखा भी कि फेसबुक को डिलीट कर दें. वॉट्सएप वही है जिसे फेसबुक ने हाल ही में खरीदा था. अमेरिका और यूरोपीय सांसदों ने तो फेसबुक से जवाब मांगा है और मार्क जुकरबर्ग को पेश होने के लिए कहा है. अमेरिका में उपभोक्ता एवं प्रतिस्पर्धा संघीय व्यापार आयोग भी जांच शुरू करने जा रहा है. वहां भी कांग्रेस जुकरबर्ग को तलब करने वाली है. फिक्र तो इस बात की है कि फेसबुक के सबसे ज़्यादा ग्राहक भारत में हैं. गूगल के साथ फेसबुक मिलकर अब एक ट्रिलियन डॉलर यानि 65 लाख करोड़ रुपए की कंपनी होने जा रही हैं. ये इतना पैसा है कि कई देशों की अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दे. कांग्रेस और भाजपा नेताओं के आरोपों से साफ है कि इन दोनों ही पार्टियों ने फेसबुक और कैंब्रिज एनेलिटिका जैसे एजेंसियों से खुलकर या छिपकर हाथ तो मिलाए हैं. दोनों ही पार्टियां डिजिटल स्पेस पर कब्ज़े के लिए आईटी सेल्स खोलकर सेनाएं तैयार कर रही हैं. ज़ाहिर है, जीतने के लिए नेता उसी मॉडल पर चलने में नहीं हिचकिचाएंगे जिस पर ट्रंप की टीम चली है.

फिलहाल भारत के नेता फेसबुक को बचाते दिख रहे हैं. ऐसा होने के पीछे कई कारण हैं. फेसबुक इतनी भारी भरकम कंपनी बन चुकी है कि सरकारें और पार्टियां उसके भारी दबाव में हैं. ओड़ीशा के साथ फेसबुक ने मिलकर महिलाओं को उद्यमी बनाने की योजना शुरू की है. आंध्र में वो सरकार के साथ डिजिटल फाइबर प्रोजेक्ट चला रही है. केंद्रीय मंत्री किरण रिजीजू तो आपदा प्रबंधन के मामले में फेसबुक के गले में हाथ डाले खड़े हैं. ये कंपनियां समाजसेवा में क्यों उतरती हैं इसे जो आज नहीं समझता वो सिर्फ मूर्ख है. व्यापारी कुछ भी मुफ्त में नहीं देता, यहां तक कि मुफ्त दी जा रही चीज़ भी असल में मुफ्त नहीं होती है. ये सिर्फ भारत की जनता के बीच छवि निर्माण का इन कंपनियां का तरीका है . सरकारों के कामकाज में घुसने की रणनीति है. भारत तो बस एक नया मैदान है. कंपनियां इस खेल को हमेशा खेलती और जीतती रही हैं.

वैसे फेसबुक का खेल खुलते ही उसके शेयरों का नुकसान पहुंचा है. ज़ुकरबर्ग ने शातिराना ढंग से दो हफ्ते पहले ही 11.4 लाख शेयर बेचे थे. पिछले तीन महीने में जुकरबर्ग वॉल स्ट्रीट में सबसे ज़्यादा शेयर बेचनेवाले प्रोमोटर बन गए. दो ही दिनों में 49 लाख डॉलर का नुकसान झेल रही फेसबुक में सबसे ज़्यादा सुरक्षित भी ज़ुकरबर्ग ही रहे. इससे पहले भी फेसबुक सबको इंटरनेट देने के नाम पर इंटरनेट को कंट्रोल करने की साज़िश रच चुका है. दक्षिण कोरिया में तो फेसबुक और इंस्टाग्राम पर 39.6 करोड़ वॉन का जुर्माना लगा है. कंपनी पर ये जुर्माना यूजर्स के लिए सेवाओं की उपलब्धता सीमित करने के लिए लगाया गया है. फेसबुक ने लोगों को मिलनेवाली इंटरनेट स्पीड धीमी कर दी थी.

ये तो मुश्किल है कि लोग फेसबुक से एकाउंट डिलीट करें मगर अब जो हो सकता है वो यही है कि अपना डाटा यूं ही किसी को ना दें. फालतू के गेम्स और ऐप्लीकेशन्स को इस्तेमाल ना करें. ये मासूम सी लगनेवाली ऐप हमारे देश और लोकतंत्र के लिए खतरनाक हैं. इन कंपनियों को ईस्ट इंडिया कंपनी ना बनने दें जिसने हमारे ही देश के राजाओं के साथ हाथ मिलाकर हम पर राज किया.

– नितिन ठाकुर

देश के दलितों और आदिवासी की हालत खराब- सरकारी रिपोर्ट

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नई दिल्ली। भयंकर जाति व्यवस्था से जूझने वाले भारत में दलितों और आदिवासियों की स्थिति काफी खस्ता है. जहां उन्हें सामाजिक तौर पर लगातार प्रताड़ना झेलनी पड़ती है तो वहीं उनकी आर्थिक हालत भी खस्ता है. सरकार ने खुद इस बात को माना भी है.

एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक देश में गरीबी की बात करें तो यहां करीब 27 करोड़ लोग गरीबी में जी रहे हैं. सरकारी शब्दों में कहें तो गरीबी रेखा के नीचे यानि बीपीएल का जीवन जी रहे हैं. तो वहीं अगर अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति की बात करें तो अनुसूचित जनजाति के 45.3 प्रतिशत और अनुसूचित जाति के 31.5 प्रतिशत लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं. बुधवार को संसद में एक सवाल के जवाब में यह जानकारी योजना राज्य मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने दी.

मंत्री ने बताया कि साल 2011-12 के आंकड़े के मुताबिक देश में करीब 27 करोड़ लोग यानि की तकरीबन 22 फीसदी लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जीपन यापन कर रहे हैं. इसमें अनुसूचित जनजाति के 45.3 फीसदी और अनुसूचित जाति के 31.5 फीसदी लोग शामिल हैं.

देश की आजादी के 70 साल बाद इस तरह के आंकड़े चौंकाने वाले हैं, जहां एक बहुत बड़े समाज की आधी आबादी गरीबी में जी रही है. यह तब है जब देश की पहली सरकार से लेकर अब तक की सरकारें गरीबी उन्मूलन के लिए तमाम कानून चला रही है. यह आंकड़ें यह जाहिर करने के लिए काफी है कि देश में गरीबी उन्मूलन और गरीबों की स्थिति सुधारने के नाम पर तमाम सरकारें अलग ही खेल खेलती रही हैं.

तीन क्रांतिकारी और उनका बलिदान

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नई दिल्ली। लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च, 1931 का दिन पिछले अन्य दिनों से अलग था. जेल में हलचल अमूमन पांच बजे के बाद शुरू होती थी. लेकिन 23 मार्च को सारा जेल प्रशासन जागता रहा. और सुबह 4 बजे अचानक हलचल तेज हो गई. अभी क़ैदी सोच ही रहे थे कि माजरा क्या है, कि जेल का नाई बरकत हर कमरे के सामने से फुसफुसाते हुए गुज़रा कि आज रात भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी जाने वाली है.

पूरे जेल में अचानक हलचल मच गई. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को जेल का हर कैदी जानता था. कैदियों के बीच ये तीनों अपनी क्रांति औऱ देश प्रेम के लिए खासे मशहूर थे. जब यह पक्का हो गया कि भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी जाएगी, तो जेल में बंद कैदियों में एक अजब होड़ मच गई. क़ैदियों ने बरकत से मनुहार की कि वो फांसी के बाद भगत सिंह की कोई भी चीज़ जैसे पेन, कंघा या घड़ी उन्हें लाकर दें ताकि वो अपने पोते-पोतियों को बता सकें कि कभी वो भी भगत सिंह के साथ जेल में बंद थे.

बरकत भगत सिंह की कोठरी में गया और वहाँ से उनका पेन और कंघा ले आया. सारे क़ैदियों में होड़ लग गई कि किसका उस पर अधिकार हो. आखिर में ड्रॉ निकाला गया.

अब सब क़ैदी चुप हो चले थे. उनकी निगाहें उनकी कोठरी से गुज़रने वाले रास्ते पर लगी हुई थी. भगत सिंह और उनके साथी फाँसी पर लटकाए जाने के लिए उसी रास्ते से गुज़रने वाले थे.

वॉर्डेन चरत सिंह भगत सिंह के ख़ैरख़्वाह थे और अपनी तरफ़ से जो कुछ बन पड़ता था उनके लिए करते थे. उनकी वजह से ही लाहौर की द्वारकादास लाइब्रेरी से भगत सिंह के लिए किताबें निकल कर जेल के अंदर आ पाती थीं.

भगत सिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने पहुंचे. मेहता ने बाद में लिखा कि ‘भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे.’

उन्होंने मुस्करा कर मेहता का स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाए या नहीं? जब मेहता ने उन्हें किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज़्यादा समय न बचा हो.

मेहता ने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बग़ैर कहा, “सिर्फ़ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इंक़लाब ज़िदाबाद!”

भगत सिंह से मिलने के बाद मेहता राजगुरु से मिलने उनकी कोठरी पहुंचे. राजगुरु के अंतिम शब्द थे, “हम लोग जल्द मिलेंगे.” सुखदेव ने मेहता को याद दिलाया कि वो उनकी मौत के बाद जेलर से वो कैरम बोर्ड ले लें जो उन्होंने उन्हें कुछ महीने पहले दिया था.

थोड़ी देर बाद तीनों क्रांतिकारियों को फांसी की तैयारी के लिए उनकी कोठरियों से बाहर निकाला गया. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने हाथ जोड़े और अपना प्रिय आज़ादी गीत गाने लगे-

कभी वो दिन भी आएगा कि जब आज़ाद हम होंगें ये अपनी ही ज़मीं होगी ये अपना आसमाँ होगा.

फिर इन तीनों का एक-एक करके वज़न लिया गया. सब के वज़न बढ़ गए थे. इन सबसे कहा गया कि अपना आखिरी स्नान करें. फिर उनको काले कपड़े पहनाए गए. लेकिन उनके चेहरे खुले रहने दिए गए.

चरत सिंह ने भगत सिंह के कान में फुसफुसा कर कहा कि वाहे गुरु को याद करो.

भगत सिंह बोले, “पूरी ज़िदगी मैंने ईश्वर को याद नहीं किया. असल में मैंने कई बार ग़रीबों के क्लेश के लिए ईश्वर को कोसा भी है. अगर मैं अब उनसे माफ़ी मांगू तो वो कहेंगे कि इससे बड़ा डरपोक कोई नहीं है. इसका अंत नज़दीक आ रहा है. इसलिए ये माफ़ी मांगने आया है.”

लाहौर ज़िला कांग्रेस के सचिव पिंडी दास सोंधी का घर लाहौर सेंट्रल जेल से बिल्कुल लगा हुआ था. भगत सिंह ने इतनी ज़ोर से ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा लगाया कि उनकी आवाज़ सोंधी के घर तक सुनाई दी.

उनकी आवाज़ सुनते ही जेल के दूसरे क़ैदी भी नारे लगाने लगे. तीनों युवा क्रांतिकारियों के गले में फांसी की रस्सी डाल दी गई. उनके हाथ और पैर बांध दिए गए. तभी जल्लाद ने पूछा, सबसे पहले कौन जाएगा?

सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर लटकने की हामी भरी. जल्लाद ने एक-एक कर रस्सी खींची और उनके पैरों के नीचे लगे तख़्तों को पैर मार कर हटा दिया. काफी देर तक उनके शव तख़्तों से लटकते रहे.

अंत में उन्हें नीचे उतारा गया और वहाँ मौजूद डॉक्टरों लेफ़्टिनेंट कर्नल जेजे नेल्सन और लेफ़्टिनेंट कर्नल एनएस सोधी ने उन्हें मृत घोषित किया.

पहले योजना थी कि इन सबका अंतिम संस्कार जेल के अंदर ही किया जाएगा, लेकिन फिर ये विचार त्यागना पड़ा जब अधिकारियों को आभास हुआ कि जेल से धुआँ उठते देख बाहर खड़ी भीड़ जेल पर हमला कर सकती है.

इसलिए जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई. उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और उस पर बहुत अपमानजनक तरीके से उन शवों को एक सामान की तरह डाल दिया गया.

पहले तय हुआ था कि उनका अंतिम संस्कार रावी के तट पर किया जाएगा, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फैसला लिया गया.

यूपी में महादलित और अतिपिछड़ों को रिझाने के लिए सीएम योगी का प्लॉन

लखनऊ। फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में हार और सपा-बसपा के बीच बढ़ती दोस्ती को सियासी मात देने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने अपनी कमर कस ली है. इसके लिए भाजपा बिहार की नीतीश सरकार की तरह ही यूपी में दलितों को बांटने की राह पर चल सकती है. खबर है कि मुख्यमंत्री योगी महादलितों और अति पिछड़ों को अलग से आरक्षण देने पर विचार कर सकते हैं. विधानसभा के बजट सेशन में कहा कि जरूरत पड़ने पर महादलित और अति पिछड़ों को आरक्षण देने पर विचार किया जा सकता है.

उपचुनाव में बीजेपी के बिगड़े समीकरण के मद्देनजर योगी आदित्यनाथ ने एक बार फिर गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित को साधने की कवायद की है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस कार्ड के जरिए सपा-बसपा की बढ़ती नजदीकियों के चलते एकजुट हो रहे दलित-पिछड़ों के वोटबैंक में सेंधमारी की तैयारी की है. गौरतलब है कि बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लालू यादव के दलित वोटबैंक में इसी फॉर्मूले से सेंध लगाई थी और अपना वोट बैंक तैयार किया था.

जहां से भगत सिंह ने फेंका था बम, वह सीट हो रिजर्व

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नई दिल्ली। भगत सिंह कहा करते थे कि सरकारें गूंगी होती है और उस तक आवाज पहुंचाने के लिए धमाके की जरूरत होती है. भगत सिंह खुद संसद में धमाकार कर अपनी बात पहुंचाई थी. अकाली दल के सांसद प्रेम सिंह चंदूमाजरा ने लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन को पत्र लिखकर स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह की पुण्यतिथि यानि 23 मार्च पर संसद में अवकाश घोषित करने की मांग की है. साथ ही उन्होंने दर्शक दीर्घा की उन 2 सीटों को रिजर्व करने की मांग की है जिनपर चढ़कर 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर ने असेंबली में बम फेंका था.

सांसद ने पत्र में लिखा है कि ब्रिटिश शासन की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर ने सेंट्रल असेंबली (वर्तमान संसद) में बम कांड किया था. सांसद ने कहा कि उस दौर में यह बहुत बड़ा साहसी कदम था. प्रेम सिंह ने कहा कि अगर संसद की दर्शक दीर्घा में शहीदों के लिए 2 सीटें रिजर्व कर दी जाएं, यह न सिर्फ शहीदों को श्रद्धांजलि होगी बल्कि इससे हम अपने सेनानियों को संघर्ष को भी याद करते रहेंगे. उन्होंने लिखा कि जब भी उन सीटों पर लगे पोस्टर देखेंगे तो हमेशा गुलामी और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ दोनों शहीदों के बलिदान को याद करेंगे. अकाली सांसद आज भी इस मुद्दे को सदन में उठाना चाह रहे थे लेकिन हंगामे की वजह से वह अपनी बात नहीं कर सके.

इससे पहले भगत सिंह के जीवन पर शोध करने वाले जेएनयू से रिटायर्ड प्रोफेसर चमन लाल भी सोमनाथ चटर्जी के लोकसभा स्पीकर रहने के दौरान यह मांग उठा चुके हैं. शुक्रवार यानी 23 मार्च को भगत सिंह की पुण्यतिथि है और इस दिन को शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. महज 23 साल की उम्र में 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह फांसी पर झूल गए थे. इनके साथ सुखदेव और राजगुरू को भी लाहौर की सेंट्रल जेल में फांसी दी गई थी.

करन

SC के फैसले के खिलाफ रिव्यू पिटीशन चाहते हैं दलित सांसद

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नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी एक्ट को लेकर दिए गए फैसले ने समाज से लेकर राजनीति में सुगबुगाहट पैदा कर दी है. उच्चतम न्यायालय के नए आदेश के बाद तमाम तरह की आशंकाएं उठाई जा रही है. इस मुद्दे को लेकर भाजपा के दलित सांसदों ने सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत से मुलाकात की. इस दौरान उन्होंने मामले को पीएम मोदी के सामने उठाने और सरकार द्वारा इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटीशन लगानी चाहिए. सूत्रों के अनुसार थावरचंद गहलोत ने सभी दलित सांसदों को भरोसा दिया है कि वो पूरे विषय पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बात करेंगे.

केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने 20 मार्च को सभी पार्टियों के दलित सांसदों को डिनर दिया था, जिसमें थावरचंद गहलोत भी थे. इस डिनर में भी कोर्ट के फैसले से पहले सभी सांसदों ने कहा था कि अगर फैसला उनके पक्ष में नहीं आता हैं तो पूरे मामले को प्रधानमंत्री मोदी के सामने रखकर आगे की रणनीति तय करनी होगी. डिनर में पदोन्नति में आरक्षण जैसे मुद्दों पर भी चर्चा हुई.

दूसरी ओर महाराष्ट्र की राजनीतिक पार्टी और एनडीए के सहयोगी रामदास अठावले ने भी एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अरूण जेटली और अमित शाह से मुलाकात की है. अठावले ने कहा कि दोनों नेताओं ने उनसे कहा कि सभी मामले फर्जी नहीं होते हैं. वहीं कांग्रेस के दलित नेता पीएल पुनिया ने कहा कि बीजेपी सांसदों को डिमांड करने की जरूरत नहीं है. ये उनकी सरकार है. उन्हें रिव्यू पिटीशन फाइल करना चाहिए, लेकिन वे इसके खिलाफ हैं.

बता दें कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के एक मामले में फैसला सुनाते हुए नई गाइडलाइन जारी की है. इसके तहत एफआईआर दर्ज होने के बाद आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी नहीं होगी. इसके पहले आरोपों की डीएसपी स्तर का अधिकारी जांच करेगा. यदि आरोप सही पाए जाते हैं तभी आगे की कार्रवाई होगी. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एके गोयल और यूयू ललित की बेंच ने गाइडलाइन जारी करते हुए कहा कि संसद को यह कानून बनाते समय नहीं यह विचार नहीं आया होगा कि अधिनियम का दुरूपयोग भी हो सकता है. देशभर में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिसमें इस अधिनियम का दुरूपयोग हुआ है. एनसीआरबी 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर में जातिसूचक गाली-गलौच के 11,060 मामलों की शिकायतें सामने आई थी. इनमें से दर्ज हुईं शिकायतों में से सिर्फ 935 ही झूठी पाई गईं. यानि दर्ज हुए मामले में 10 प्रतिशत से कम मामले फर्जी थे.

जल नहीं बचेगा तो कल हम नहीं बचेंगे.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 60 करोड़ लोग जलापूर्ति के संकट से जूझ रहे हैं, देश के सिर्फ 59 जिलों में ही भूमि का पानी पीने के लिए सुरक्षित है. भारत का 54 फीसदी इलाका पानी के भारी संकट से जूझ रहा है. 40 फीसदी भूमि जल का दोहन हर वर्ष शहरीकरण के लिए, जबकि 80 फीसदी भूमि जल का उपयोग घरेलू उपयोग में होता है.

आँकड़े यह भी हैं कि देश के 65 फीसदी खेतों के लिए सिंचाई की सुविधा ही उपलब्ध नहीं है. पानी के बंटवारे को लेकर तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र राज्यों में खबरें आती रहती हैं.तो यह स्थिति है अतुल्य भारत में पानी की. मेरे अमरोहा जिले के पैतृक गाँव से लेकर, कस्बे, शहर में पेयलज की हालत दिन-बे-दिन बदतर होती जा रही है.

गांवों में “स्वच्छ भारत मिशन” की जो योजना शुरू हुई है उसका बड़ा सच है शुष्क शौचालय का, जिनसे मल बस जमीन में जमता है. यह चलन गांवो में लंबे समय से चलता आ रहा है जिसकी बड़ी वजह है 90% गाँवों में पानी की निकासी के उचित इंतजाम न होना, जिस कारण पानी निकालने के झंझट से लोग बचते जा रहे हैं और खुद के लिए गहरी खाई खोदते जा रहे हैं.

जिस कारण सरकारी नलों, घरेलू हैंडपंपो में वही मल-मूत्र का पानी आ रहा है जिससे बड़ी-बड़ी बीमारियां चुपके-चुपके जन्म ले रही हैं. जिनमें डायरिया, टायफाइड, मलेरिया, हेपेटाइटिस व हैजा मुख्य हैं. इनकी तरफ न सरकारों का ध्यान है, न ही इस गंदे पानी को पीने वालों का ध्यान है.

शहर, कस्बों में सबमर्सिबल पम्प का जमाना जोरो पर है, जो बहुत ही घातक साबित हो रहा है. पानी की बेकारी इतनी हो रही है की अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता, जहाँ 50 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है वहाँ 500 लीटर पानी का दोहन हो रहा है जिसका कारण सड़कों पर छिड़काव, गमलों में फालतू पानी, रोजाना घर की धुलाई व नहाने- धोने में तीन गुना अधिक पानी खर्च होना है.

इससे साफ जाहिर है की जिसको पानी मिल रहा है वो बर्बादी पर उतरा है और जिसको नहीं मिल रहा वो बुरी तरह परेशान है. राजस्थान, उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड व पूर्वांचल, महाराष्ट्र जैसी जगह में हालात बद-से-बदतर हो चुके हैं अन्य राज्यों में भी बुरा हाल है. बस यह कह सकते हैं कि सिर्फ उत्तर भारत पानी के मामले में कुछ हद तक सम्पन्न है वरना भारत के अन्य राज्यों व मेट्रो शहरों में पानी मंहगा तो हो ही गया है. नहाने व कपड़े धोने के लिए मिलने वाले पानी की बड़ी समस्या पैदा हो गयी है.

इसके लिए सरकारों से लेकर, भारतीय नागरिकों को भी बेहद सजग होना पड़ेगा वरना वो दिन दूर नहीं जब पानी के लिए जनता तड़पेगी और विश्वयुद्ध-गृहयुद्ध छिड़ने की स्तोथि आएगी.

आरक्षण का इतिहास

दशकों से आरक्षण भारत का सबसे ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है, जिसे लेकर समय-समय पर देश का माहौल उतप्त हो जाता है. ऐसा नहीं कि सिर्फ यह कुछ दशकों से हो रहा है: आधुनिक भारत में ऐसे हालात की सृष्टि भारत के स्वाधीनता संग्राम से ही शुरू होती है. स्वतंत्रता संग्राम को लेकर भावुक होने वाले अधिकांश लोगों को शायद पता नहीं कि भारत में स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत आरक्षण को लेकर होती है. 1885 में अंग्रेज अक्टोवियन ह्युम के नेतृत्व में जिस कांग्रेस की शुरुआत होती है, दरअसल वह भारतीय एलिट वर्ग के लिए छोटी-छोटी सुविधाओं की मांग के लिए थी,जो धीरे-धीरे सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग में बदल गयी. भारतीय एलिट क्लास की मांग पर अंग्रेजों ने 1892 में पब्लिक सर्विस कमीशन की द्वितीय श्रेणी के 941 पदों में 158 पद भारतीयों के लिए आरक्षित किये. एक बार आरक्षण का स्वाद चखने के बाद कांग्रेस ने भारतीयों के लिए पीडब्ल्यूडी,रेलवे, चुंगी आदि विभागों के उच्च पदों पर आरक्षण की मांग उठाना शुरू किया. अंग्रेजों द्वारा इन क्षेत्रों में आरक्षण की मांग ठुकराए जाने के बाद कांग्रेस ने 1900 में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध कड़ी निंदा प्रस्ताव लाया. बहुतों को लग सकता है कि दलितों द्वारा निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए उठाई जा रही मांग, नई परिघटना है. नहीं! तब भारतीयों के लिए रिजर्वेशन की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस ने अंग्रेजों द्वारा स्थापित निजी क्षेत्र की कंपनियों में भी आरक्षण की मांग उठाया था. हिंदुस्तान मिलों के घोषणा पत्रक में उल्लेख किया गया था कि ऑडिटर , वकील, खरीदने-बेचने वाले दलाल आदि भारतीय ही रखे जांय . तब योग्यता का आधार केवल हिन्दुस्तानी होना था, परीक्षा में कम ज्यादा नंबर लाना नहीं . कहा जा सकता कि शासन-प्रशासन , उद्योग-व्यापार में संभ्रांत भारतीयों को आरक्षण दिलाने की मांग को लेकर शुरू हुआ कांग्रेस का ‘आरक्षण बढाओ आन्दोलन’ परवर्तीकाल में स्वाधीनता आन्दोलन का रूप ले लिया .

बहरहाल उच्च वर्ण हिन्दुओं के लिए आरक्षण की शुरुआत अगर 1892 में हुई तो हिन्दुओं की दबी-कुचली जाति शुद्रातिशुद्रों के आरक्षण की शुरुआत 26जुलाई,1902 से कोल्हापुर रियासत से होती है , जिसे देने का श्रेय कुर्मी जाति में जन्मे छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशधर छत्रपति शाहूजी महाराज को जाता है. लेकिन दस्तावेजों में 1892 को भारत में आरक्षण की शुरुआत का वर्ष भले ही चिन्हित किया गया है, वास्तव में इसकी शुरुआत हिंदुत्व के दर्शन के विकास के साथ-साथ वैदिक भारत अर्थात आज से साढ़े तीन हजार पूर्व तब होती है, जब वर्ण-व्यवस्था ने आकार लेना शुरू किया .

यह सच्चाई है कि ईश्वर विश्वासी तमाम संगठित धर्मों का चरम लक्ष्य ,अपने-अपने धर्म के अनुसरणकारियों को मरणोपरांत सुख सुलभ कराना रहा है. सभी धर्मों के प्रवर्तकों ने यह बताने में एक दूसरे से होड़ लगाया है कि परलोक सुख में ही मानव जीवन कि सार्थकता है. मरणोपरांत यह सुख सुलभ हो ,इसके लिए मार्ग सुझाने के लिए ही तमाम धर्म-ग्रंथों की सृष्टि हुई है. इन धर्म ग्रंथों में उन कायदे-कानूनों का ही उल्लेख है, जिनका अनुसरण कर लोग पैराडाइज ,जन्नत ,स्वर्ग का सुख एन्जॉय कर सकते थे . इसके लिए सभी धर्मों ने स्वधर्म पालन का कठोर निर्देश अपने धर्मशास्त्रों में दिया है. जहां तक भारत का सवाल है जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य का उच्च उद्घोष करने वाले हिन्दू धर्म में स्व-धर्म पालन को दृष्टिगत रखते हुए हुए भूरि –भूरि धर्म शास्त्रों का सृजन एवं ‘राज्य’ की उत्पत्ति का सिद्धांत विकसित किया गया . इस विषय में धर्मशास्त्र के आदि प्रणेता मनु का मानना रहा है कि ‘प्राणीमात्र का कल्याण ही स्व-धर्म पालन में है, पर मनुष्य समाज ऐसे प्राणियों से बना है , जिसमें स्वधर्म परायणता दुर्लभ है. इसलिए इन अशुचि, अधर्मपरायण प्राणियों को स्वधर्म-पालन निमित्त बाध्य करने के लिए उन्हें दण्डित करना परमाआवश्यक है.’ इसी उद्देश्य की प्राप्ति के हेतु उन्होंने दंडविधान की व्यवस्था की. मनु के अनुसार दण्ड का सर्जन ईश्वर ने स्वयं किया. इस प्रकार मनु के मतानुसार धर्म और दण्ड दोनों की उत्पत्ति साथ-साथ हुई है और दण्ड का उद्देश्य धर्म संस्थान एवं धर्मरक्षा है. मनु ने धर्म रक्षा हेतु जो दण्डनीति बनाई,वही राजशास्त्र अर्थात राजधर्म के रूप में मान्य हुई.

प्राचीन भारत में राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र उद्देश्य धर्म-संस्थापन बतलाया गया है. इस धरा पर प्रत्येक प्राणी स्वधर्म पालन सम्यक प्रकार करता रहे, जगत में धर्म-संकरता उत्पन्न न होने पाए : बस यही राज्य का एकमात्र कर्तव्य बतलाया गया है. बहरहाल जिसे हिन्दू धर्म शास्त्रों द्वारा स्वधर्म पालन कहा गया है, वह सम्पूर्ण मानव जाति का धर्म न होकर सिर्फ हिन्दू ईश्वर(विराट-पुरुष) के विभिन्न अंगों से जन्मे चार वर्ण के लोगों का धर्म है. स्वधर्म पालन के नाम पर चार वर्णों (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य और शुद्रतिशूद्र) में बंटे सामाजिक समूहों के लिए भिन्न-भिन्न कर्म/पेशे (वृत्तियां) धर्म शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट किये गए. इन पेशे/ कार्यों से विचलन पूरी तरह निषिद्ध रहा. पेशों के विचलन से धर्म-संकरता की सृष्टि होती है इसलिए जिस वर्ण के लिए जो कार्य निर्दिष्ट किये गए , उसे छोड़कर दूसरे वर्णों का पेशा/कर्म अपनाना दंडनीय अपराध रहा. इनमें ब्राह्मण वर्ण के मानव समूहों का धर्म अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, राज्य सञ्चालन में मंत्रणादान;क्षत्रियों का धर्म भूस्वामित्व,शासन-प्रशासन और सैन्य संचालन तो वैश्यों का धर्म पशुपालन,व्यवसाय-वाणिज्य का कार्य सम्पादित करना तय किया गया. स्वधर्म पालन में हिन्दू ईश्वर के जघन्य अंग (पैर) से जन्मे लोगों का धर्म रहा ऊपर के तीन वर्णों की सेवा, वह भी नि:शुल्क!

बहरहाल स्वधर्म पालन के लिए वर्ण-व्यवस्थाधारित राजधर्म लागू होने के फलस्वरूप जिस वर्ण के लिए धर्म-पालन के नाम पर जो कार्य निदिष्ट किये गए , वे पेशे/कर्म उस वर्ण के लिए चिरकाल के लिए आरक्षित होकर रह गए . ऐसे में स्वधर्म पालन करवाने के उद्देश्य से प्रवर्तित वर्ण व्यवस्था मूलतः एक आरक्षण व्यवस्था, जिसे हिन्दू आरक्षण-व्यवस्था कहा जा सकता है, के रूप में क्रियाशील रहने के लिए अभिशप्त हुई. इस हिन्दू आरक्षण में स्वधर्म पालन के नाम पर चौथे वर्ण के अंतर्गत आने वाले शुद्रातिशूद्रों के लिए ब्राह्मण-क्षत्रिय और वैश्यों के लिए आरक्षित पेशे अपनाने का कोई अवसर नहीं रहा. इसलिए साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व शुरू हुई आरक्षणवादी वर्ण-व्यवस्था के चलते दलित , आदिवासी और पिछड़े शक्ति के समस्त स्रोतों (आर्थिक-राजनीति-शैक्षिक- धार्मिक इत्यादि) से हमेशा-हमेशा के लिए बहिष्कृत होने के लिए अभिशप्त हुए. अवश्य ही 6 अक्तूबर,1860 को लागू लार्ड मैकाले की आईपीसी के वजूद में आने से हिन्दू आरक्षण की बंदिशें टूटीं .किन्तु हिन्दू आरक्षण के चलते वे शिक्षा और धन-बल से इतना कमजोर बना दिए गए थे कि आईपीसी द्वारा सुलभ कराये गए अवसरों का सद्व्यहार न कर सके. अवसरों के सद्व्यवहार का अवसर उन्हें डॉ. आंबेडकर के प्रयत्नों से मिला.

बहरहाल वर्ण-व्यवस्था का एक आरक्षण-व्यवस्था में तब्दील होना महज संयोग नहीं रहा. इसे बहुत ही सुपरिकल्पित रूप से आरक्षण व्यवस्था का रूप दिया गया, जिसका सुराग आर्य-पुत्र पंडित नेहरु द्वारा वर्ण व्यवस्था के निर्माण के पीछे चिन्हित कारणों से मिलता है. पंडित नेहरु ने भारत की खोज में निकलते हुए बताया है-‘वर्ण-भेद, जिसका मकसद आर्यों को अनार्यों से जुदा करना था , अब खुद आर्यों पर अपना यह असर लाया कि ज्यों-ज्यों धंधे बढे और इनका आपस में बंटवारा हुआ, त्यों-त्यों नए वर्गों ने वर्ण या जाति की शक्ल अख्तियार कर ली. इस तरह , एक ऐसे जमाने में , जब फतह करने वालों का यह कायदा रहा कि हारे हुए लोगों को या तो गुलाम बना लेते या बिलकुल मिटा देते थे, वर्ण-व्यवस्था ने एक शान्ति वाला हल पेश किया. और धंधों के बंटवारे की जरुरत से इसमें वैश्य बनें , जिनमें किसान ,कारीगर और व्यापारी लोग थे; क्षत्रिय हुए जो हुकूमत करते या युद्ध करते थे; ब्राह्मण बनें जो पुरोहिती करते करते थे, विचारक थे, जिनके हाथ में नीति की बागडोर थी और जिनसे उम्मीद की जाती थी कि वे जाति के आदर्शों की रक्षा करेंगे. इन तीनों वर्णों से नीचे शूद्र थे , जो मजदूरी करते और ऐसे धंधे करते , जिनमें खास जानकारी की जरुरत नहीं होती और जो किसानों से अलग थे. कदीम वाशिंदों से भी बहुत से इन समाजों में मिला लिए गए और उन्हें शूद्रों के साथ इस समाज में सबसे नीचे का दर्जा दिया गया. ‘

वास्तव में आर्यों ने वर्ण-व्यवस्था को जो आरक्षण का रूप दिया, उसे विजेता का धर्म भी कहा जा सकता है. इतिहास के हर काल में साम्राज्यवादी विदेशागतों ने पराधीन बनाये गए मूलनिवासियों के देश की संपदा – संसाधनों को अपने कब्जे में करने और उनको दास/सेवक के रूप में इस्तेमाल करने के लिए तरह-तरह के नियम कानून बनाये. भारत से बाहर के साम्राज्यवादियों ने मुख्यतः शस्त्र आधारित नियम-कायदे बनाकर मूलनिवासियों का शोषण किया. मसलन जिस भारत से दक्षिण अफ्रीका की सर्वाधिक साम्यता है, वहां के विदेशागत गोरों ने बन्दूक की नाल पर पुष्ट कानून के जरिये वहां के मूलनिवासियों को शक्ति के समस्त स्रोतों से बहिष्कृत कर उन्हें शक्तिशून्य दास के रूप में परिणत किया. किन्तु पूरी दुनिया में एकमात्र भारत ऐसा देश रहा, जहाँ हजारों वर्ष भारत आये विदेशागातों ने धर्म-शास्त्रों के जरिये दलित, आदिवासी,पिछड़ों और आधी आबादी को दैविक-गुलाम बनाकर शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार स्थापित किया.

बहरहाल अगर महानतम समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स ने दुनिया के इतिहास को परिभाषित करते हुए यह कहा कि दुनिया का इतिहास संपदा और संसाधनों के बटवारे पर केन्द्रित वर्ग संघर्ष का इतिहास है तो भारत के सम्बन्ध में फुले, कांशीराम इत्यादि ने जातीय संघर्ष का इतिहास बताया. फुले-कांशीराम को भारत का इतिहास जातीय संघर्ष का इतिहास इसलिए बताना पड़ा क्योंकि जिस संपदा-संसाधनों के बंटवारे के कारण मानव सभ्यता के विकास के साथ वर्ग-संघर्ष संगठित होता रहा , सपदा-संसाधनों के बंटवारे का वह सिद्धांत वर्ण-व्यवस्था में निहित रहा. इस वर्ण-व्यवस्था ने दो वर्गों- शक्ति संपन्न विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी वर्ग और बंचित बहुजन समाज – का निर्माण किया. ये दोनों वर्ग देवासुर -संग्राम काल से ही संपदा-संसाधनों पर अपना वर्चस्व बनाने के लिए संघर्षरत रहे. अवश्य ही इसमें विशेषाधिकारयुक्त वर्ग हमेशा से विजयी रहा और आज तो वे 90 प्रतिशत से ज्यादा संपदा-संसाधनों पर कब्ज़ा जमाकर वंचित मूल निवासी वर्ग के समक्ष और कड़ी चुनौती पेश कर दिया है. ऐसे में सवाल पैदा होता कि क्या कभी भारत के बहुजन दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासियों की भांति संपदा-संसाधनों पर अपना वर्चस्व कायम करने में कामयाब हो पाएंगे ?

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)

फिर मेरठ अस्पताल में गए चंद्रशेखर रावण

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bhim armyमेरठ। भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर रावण एक बार फिर से मेरठ अस्पताल में भर्ती हुए थे. रावण को दांत के दर्द के बाद इलाज के लिए 20 मार्च को सहारनपुर जेल से मेरठ मेडिकल कॉलेज लाया गया था. इस दौरान सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त रहे. करीब दो घंटे के इलाज के बाद उसे वापस सहारनपुर जेल भेज गया.

सहारनपुर हिंसा के बाद रासुका में जेल में बंद चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण को दोपहर में सहारनपुर से मेरठ मेडिकल कॉलेज लाया गया. इस दौरान मेडिकल को छावनी में तब्दील कर दिया गया. डॉक्टरों के मुताबिक चंद्रशेखर को दांत में दर्द की शिकायत थी. काफी दिन से सहारनपुर जेल के अस्पताल में इलाज चल रहा था लेकिन बीमारी बढ़ने पर मेरठ रेफर कर दिया गया.

रावण के दांतों के इलाज के लिए मेडिकल में काफी वक्त लगा. दांतों के एक्सरे की सुविधा मेडिकल में नहीं होने के कारण निजी अस्पताल में उसके दांतों को एक्सरे किया गया. उसके बाद दांतों का रूट कैनाल हुआ. दोपहर बाद डॉक्टरों ने उसे सहारनपुर जेल के लिए रवाना कर दिया. इस दौरान कई बार रावण से बात करने की कोशिश की गई लेकिन वह बात करने से बचता रहा. उसने सिर्फ इतना कहा, ‘दांत में दर्द ज्यादा है, आज सिर्फ इलाज कराने दीजिए बात अगली बार करेंगे और दिल खोलकर करेंगे.

महत्वपूर्ण मुद्दों पर 25 मार्च को मायावती ने बुलाई जोन इंचार्ज की बैठक

नई दिल्ली। बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पार्टी के यूपी के सभी जोन इंचार्जों की बैठक बुलाई है. बैठक 25 मार्च को लखनऊ में होगी. खबर है कि इस बैठक में सपा-बसपा गठबंधन पर चर्चा होगी. बसपा के नियम के मुताबिक पार्टी के को-आर्डिनेटरों की बैठक हर महीने की 10 तारीख को लखनऊ में होती है. लेकिन इस बार बैठक को पहले ही 25 मार्च को बुलाया गया है.

 बसपा के राज्यसभा उम्मीदवार को जीताने के लिए भी मायावती पूरा जोर लगा रही हैं. यूपी की 10 सीटों के लिए 23 मार्च को चुनाव होना है. इस चुनाव में बसपा की ओर से भीमराव आम्बेडकर प्रत्याशी हैं. बसपा प्रत्याशी को समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, निषाद पार्टी और रालोद का समर्थन मिलने की उम्मीद है. राज्यसभा चुनाव को देखते हुए सभी जोन कोर्डिनेटर को अपने विधायकों से संपर्क में रहने को कहा गया है. बसपा एक-एक विधायकों पर नजर बनाए हुए है.

 जहां तक सपा से गठबंधन की बात है तो किसी भी स्तर पर गठबंधन करने से पहले पार्टी जमीनी स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं का मूड देख रही है. इसके लिए पार्टी के जोनल को-आर्डिनेटर जिलाध्यक्षों के अलावा कार्यकर्ताओं से भी बात कर रहे हैं. गठबंधन को लेकर किसी भी तरह का फैसला लेने से पहले पार्टी यह भी तय कर लेना चाहती है कि गठबंधन होने की स्थिति में समाजवादी पार्टी का वोट बसपा को ट्रांसफर होगा या नहीं.

चंद्रशेखर रावण की रिहाई के लिए समर्थकों का नोट पर लिखो अभियान

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chandrashekharसहारनपुर। रासुका के तहत बंद भीम आर्मी संस्थापक चंद्रशेखर की रिहाई के लिए उसके समर्थकों ने अलग ही तरीका अपनाया है. बार-बार सरकार से गुहार लगाकर परेशान समर्थक अब नोटों पर रावण की रिहाई की मांग कर रहे हैं. वैसे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की गाइड लाइन के मुताबिक नोटों पर कुछ भी लिखना अपराध है, लेकिन इसके बावजूद ये कार्यकर्ता सौ-सौ के नोटों पर रिहाई के संदेश लिख रहे हैं.

कार्यकर्ताओं की ओर से नोट पर रिहाई संदेश लिखकर बाजारों में चलाए जा रहे हैं. ऐसे ही एक सौ रुपये के नोट पर लिखा है कि एडवोकेट चंद्रशेखर आजाद रावण को रिहा करो. देखा-देखी सभी कार्यकर्ता दस, बीस, पचास और सौ के नोट पर संदेश लिखकर नोटों को आगे बढ़ा रहे हैं, जबकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की ओर से किसी भी नोट पर कुछ लिखने की मनाही है. रावण पिछले काफी वक्त से सहारनपुर जेल में बंद हैं.

Mayawati could be the key to defeating India’s Modi in 2019

Suddenly, less than a fortnight after handsomely conquering political territory in India’s northeast, Indian Prime Minister Narendra Modi can no longer take a win in 2019 for granted. The next general election is now wide open. Modi is still enormously formidable, but he is no longer invincible.

The latest signs come from Uttar Pradesh, India’s most populous and politically significant state. Nine of India’s 15 prime ministers, including Modi, have come from Uttar Pradesh. But this week, Modi’s party sustained a shocking defeat by losing the parliament seat once held by the country’s first prime minister, Jawaharlal Nehru, as well as the seat most recently occupied by the state’s extremist and saffron-clad Hindu monk, Chief Minister Yogi Adityanath.

The parliamentary seats of Gorakhpur and Phulpur fell vacant after their strongmen became the chief minister and the deputy chief minister of the state, respectively, in local elections last year. But political survival compelled old foes — Akhilesh Yadav of the Samajwadi Party and Mayawati of the Bahujan Samaj Party, parties with very distinct social and caste bases — to join hands and take on Modi’s ruling party, the BJP, in these polls.

Their unlikely experiment worked. Suddenly, just like that, new arithmetic dramatically altered the old power equation. Modi did not personally campaign in these polls, but these were prestige battles in the bedrock state of the BJP’s politics. The embarrassment in the party is acute.

Extrapolating from state elections is risky, but here’s what we can forecast: The new fault line of India politics will be caste vs. Hindutva. Caste alliances built by the opposition will challenge the Hindu consolidation of the BJP. If disparate social groups can be brought together as part of a grand coalition (Modi’s personal charisma and the BJP’s election machinery notwithstanding), the outcomes become unpredictable.

But as the opposition gloats over the storming of the BJP’s political citadel, if there is one person that the anti-Modi forces absolutely need on their side if they want a chance at beating Modi, it would be Mayawati. If a caste calculus partially spurred the BJP defeat in the Uttar Pradesh elections, it will likely be such a caste leader as her who holds the key to unlocking more power for the opposition.

Mayawati, or “Behenji” (sister), as the 62-year-old Dalit leader is known, has lately been consigned to the archives of political history. In 2014, her party failed to score a single seat in Uttar Pradesh. By 2017, the four-time chief minister had been out of power in the state for some years. Though she has sometimes been over-romanticized, it’s indisputable that she has politically empowered Dalits, a historically subjugated group pushed to the very bottom of the caste hierarchy.

It is true that many of her decisions have been contentious; she spent millions of dollars to create an alternative iconography with memorials and parks dedicated to Dalit heroes. She has been accused of gross wastefulness and has also been embroiled in corruption cases.

But it is just as true that she has been measured by a harsh double standard dictated by prejudices of caste bias and misogyny. In the plush drawing rooms of Delhi and Bombay, Mayawati has been mocked for how she looks and dresses, for her handbags and for her lack of sophistication. In a country where even posh urban homes still keep a separate kitchen glass for the “impure” Dalit help who mop their toilets and where atrocities against Dalits continue to be a shameful reality, this discourse around Mayawati is unsurprising.

Worst of all, among the grossest comments I have heard about her are endless jokes about how she “looks her caste.” None of this can be dismissed as lighthearted, even if being said casually. Think of the sort of stuff that is said about ordinary African American women in the United States, and you get what I mean. Caste is to India what race is to America. And “Behen” Mayawati is the most enduring symbol of that fissure.

Well, “Behenji,” who has been endlessly scorned for both her caste and gender, is now having the last laugh. The eventful electoral outcomes of Uttar Pradesh prove one thing: With just a nudge and a nod of the head, she can get her loyal base among the Dalits (even during a poor election showing in Uttar Pradesh in 2017, she held to 22 percent of the state’s vote) to transfer their vote to any ally of her choice. It is the reverse that often does not happen. While Mayawati’s ideologically committed caste base follows her lead, other electoral partners have not always managed to transfer their vote base to her candidates.

But after this result in Uttar Pradesh, Mayawati knows that the opposition cannot afford the fragmentation of votes against Modi. The data shows that had Mayawati and Akhilesh combined their vote shares, the BJP would have been defeated. She is critical to that unity, especially in the large swaths of India’s Hindi heartland.

If the opposition doesn’t work hard to keep Mayawati on its side, Modi may well try to lure her to his. Ambition is another word that has often been used disparagingly for Mayawati — as it is for many women in public life. She has never been embarrassed about her ambition; now she may even get to proudly flaunt it in the run-up to 2019. Good for her.

Courtesy www.washingtonpost.com