उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की 9 सीटें जीतने के बाद सीएम योगी आदित्यनाथ ने समाजवादी पार्टी पर चुटकी लेते हुए कहा कि सपा सिर्फ लेना जानती है, देना नहीं. असल में योगी की इन लाइनों में ही उत्तर प्रदेश के राज्यसभा चुनाव की सारी कहानी छुपी हुई है. गोरखपुर में घुस कर योगी आदित्यनाथ को धूल चटाने और प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव मौर्या के क्षेत्र से उन्हीं को बाहर का रास्ता दिखा देने वाले सपा-बसपा के साथ आने से भाजपा और उसके नेता इस कदर खौफ खाए हुए हैं कि वह इसे तोड़ने के लिए हर दांव आजमा रहे हैं.
उन्हें यह भय है कि जब बसपा द्वारा सपा को सांकेतिक समर्थन से भाजपा अपने तीस साल पुराने गढ़ को नहीं संभाल पाई तो अगर बसपा औऱ सपा खुलकर एक-दूसरे का समर्थन करने लगें औऱ मायावती और अखिलेश यादव एक मंच पर आ जाएं तो फिर भाजपा का दुबारा केंद्र में आने का सपना… सपना बनकर ही रह जाएगा.
23 मार्च को जो राज्यसभा चुनाव के दौरान हुआ, उसे ऐसे समझिए. उत्तर प्रदेश की 10 सीटों में से 8 सीटों पर बीजेपी की जीत पक्की थी, जबकि एक सीट समाजवादी पार्टी के खाते में जाना भी तय था. लेकिन असली लड़ाई 10वीं सीट के लिए थी, जिसपर बीजेपी की ओर से अनिल अग्रवाल तो वहीं बसपा की ओर से भीमराव अंबेडकर मैदान में थे. वोटिंग के दौरान कई विधायकों के क्रॉस वोटिंग की बात सामने आई, जिसका फायदा भाजपा को मिला.
बसपा के अनिल सिंह, सपा के नितिन अग्रवाल और निषाद पार्टी के विजय मिश्रा ने खुले तौर पर बीजेपी का समर्थन किया. नितिन अग्रवाल सपा के बागी नरेश अग्रवाल के बेटे हैं जिन्हें भाजपा ने राज्यसभा में भेजा है.
राज्यसभा चुनाव में 400 विधायकों ने मतदान किया गया. सूबे की 403 सीटों में एक विधायक के निधन और दो विधायकों को जेल में बंद होने के चलते वोट डालने की अनुमति नहीं मिली थी, इसके चलते वो मतदान नहीं कर सके. भीमराव आंबेडकर को बहुजन समाज पार्टी के 17, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के 7-7 और सोहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के एक उम्मीदवार का वोट मिला.
(इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बहुजन समाज पार्टी के मुख्तार अंसारी और समाजवादी पार्टी के फिरोज़ाबाद से आने वाले हरिओम यादव को मतदान में हिस्सा लेने की इजाज़त नहीं दी. हालांकि झारखंड में एक विधायक को जेल में होने के बाद भी राज्य सभा चुनाव में हिस्सा लेने की मंजूरी मिली. अगर ये दोनों अपना अपना वोट डालने आते, तो शायद भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार को जीत नहीं मिलती. क्योंकि अनिल अग्रवाल को भी कुल मिलाकर 33 वोट मिले, लेकिन दूसरी वरीयता के आधार पर उन्हें विजेता घोषित किया गया.
इस पूरे चुनाव में जातिवाद भयंकर रूप से हावी रहा. बसपा के उम्मीदवार को हराने के लिए जो लोग भाजपा से जा मिले, वो सभी सवर्ण विधायक हैं.
इस जीत के बाद भाजपा यह प्रचारित करने की कोशिश कर रही है कि सपा ने बसपा का साथ नहीं दिया इसलिए बसपा का उम्मीदवार हार गया. भाजपा राजनीतिक रूप से यह संदेश भी देने की कोशिश कर रही है कि उसने गोरखपुर और फूलपुर चुनाव का बदला ले लिया है, लेकिन यह भाजपा द्वारा खुद जबरदस्ती अपनी पीठ थपथपाने जैसा है. क्योंकि राज्यसभा चुनाव में सारी चीजें अमूमन पहले से तय होती है और दो-तीन विधायकों को सत्ता का लालच या फिर भय दिखाकर अपने पाले में कर लेना किसी सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत मुश्किल काम नहीं होता है. जबकि लोकसभा चुनाव में फैसला जनता करती है और जनता की अदालत में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है.