राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पर विवाद, 68 कलाकारों ने अवॉर्ड लेने से किया इनकार

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नई दिल्ली। नेशनल अवॉर्ड सेरेमनी आज 3 मई को दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित है. इसके लिए सभी विजेता एक दिन पहले ही दिल्ली पहुंच चुके हैं. लेकिन दिल्ली पहुंचने के बाद मिली एक खबर ने इन विजेताओं को परेशान कर दिया है, जिसके बाद आधे से ज्यादा कलाकारों ने अवार्ड लेने से इंकार कर दिया.

असल में सभी कई विजेता इस बात से नाराज हैं कि इवेंट में 140 विजेताओं में से सिर्फ 11 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हाथों सम्मान मिलेगा. बाकी को केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी के हाथों अवॉर्ड दिया जाएगा. नाराज विजाताओं ने इवेंट के बहिष्कार की धमकी दी है. उनका कहना है कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है. इस साल किया गया बदलाव उन्हें मंजूर नहीं है. कलाकारों का कहना था कि, “हमें बताया गया था कि हमेशा कि तरह इस बार भी राष्ट्रपति के हाथों सम्मान‍ मिलेगा. लेकिन रिहर्सल में पता चला कि इस बार ऐसा नहीं होगा. यह हमारे लिए अपमान जैसा है. हमने इसके खिलाफ आवाज उठाई है.”

इस बारे में सरकार का अपना तर्क है. प्रेसिडेंट के प्रेस सेक्रेटरी अशोक मलिक का कहना है कि जब सौ से ज्यादा विजेता हों तो ऐसे में राष्ट्रपति का सभी को पर्सनली अवॉर्ड दे पाना संभव नहीं है. हालांकि यह भी खबर है कि विजेताओं की नाराजगी के बाद केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने विजेताओं से मुलाकात की और बताया कि राष्ट्रपति ने इवेंट के लिए उन्हें मात्र एक घंटे का वक्त दिया है. ऐसे में वक्त की पाबंदी के चलते वो सभी को अवॉर्ड नहीं दे सकते हैं. इसी के चलते अवॉर्ड वितरण के लिए अन्य मंत्रियों की मदद ली जा रही है. स्मृति ईरानी ने मीटिंग में सभी को भरोसा दिया कि उन्होंने राष्ट्रपति के दफ्तर को सूचना भेजी है.

अभी तक तो कार्यक्रम तय है, उसके मुताबिक समारोह के लिए राष्ट्रपति करीब 5.30 बजे विज्ञान भवन पहुंचेंगे. तब तक स्मृति ईरानी और राज्यवर्धन सिंह राठौर कई सारे अवॉर्ड्स दे चुके होंगे. अंत में सभी अवॉर्ड्स के वितरण के बाद राष्ट्रपति इन 45 लोगों के विजेताओं के ग्रुप के साथ फोटो खिंचवाएंगे. हालांकि कलाकारों के बहिष्कार की धमकी के बाद देखना है कि कार्यक्रम में कोई फेरबदल होता है या नहीं.

  करन कुमार

अमित शाह और मोदी को खुली चुनौती देने के मूड में वसुंधरा राजे

विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच जारी रस्साकशी सबके लिए कौतुहल का विषय बन गई है. भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व प्रदेशअध्यक्ष के खाली पड़े पद पर अपना उम्मीदवार बैठाना चाहता है, जबकि सीएम वसुंधरा राजे इस पद पर अपना करीबी चाहती हैं.

हाल तक यह रस्सा-कस्सी प्रदेशाध्यक्ष के पद तक सीमित दिखाई दे रहा था, लेकिन केंद्र सरकार का प्रदेश के मुख्य सचिव एनसी गोयल को सेवा विस्तार देने से इंकार करने के बाद मामला गंभीर हो गया है. विगत 16 अप्रैल को अशोक परनामी के इस्तीफे के बाद से ही भाजपा प्रदेश अध्यक्ष का पद खाली है. लोकसभा की दो और विधानसभा की एक सीट के लिए जनवरी में हुए उपचुनावों में पार्टी की करारी हार के बाद परनामी की छुट्टी कर दी गई थी.

18 अप्रैल को अशोक परनामी के इस्तीफे के बाद केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम तय माना जा रहा था. पार्टी के कई नेताओं ने तो सोशल मीडिया पर शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष बनने की बधाई तक दे डाली. लेकिन इस घटनाक्रम के बाद वसुंधरा खेमे की ओर से आई प्रतिक्रियाओं ने पार्टी को मुश्लिम में डाल दिया. जाहिर है इस खेमे के लोग वही बोल रहे थे जो तो वसुंधरा चाहती थीं.

ऐसे समय में जब भाजपा में मोदी-शाह की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता है तब प्रदेश अध्यक्ष पद पर हो रही कशमकश अप्रत्याशित है. दरअसल, वसुंधरा की राजनीति करने की अपनी शैली है. एकदम रजवाड़ों की मानिंद. ना-नुकुर करने और ऑर्डर देने वालों को वे पसंद नहीं करतीं. वर्तमान में वसुंधरा सत्ता में तो हैं ही, लेकिन संगठन पर भी वे अपनी पकड़ रखना चाहती हैं.

यह बात सबको पता है कि अशोक परनामी वसुंधरा राजे की मर्जी से प्रदेश के अध्यक्ष बने थे. चूंकि अब चुनाव नजदीक हैं इसलिए वसुंधरा ऐसा प्रदेशाध्यक्ष नहीं चाहतीं जो उनके वर्चस्व में बंटवारा कर ले. वे कोई ऐसे नेता को भी इस पद पर नहीं चाहती हैं कि जो उन्हें भविष्य में चुनौती दे सके.

मामला तब और पेंचिदा हो गया जब पार्टी महासचिव रामलाल और वी. सतीश की मौजूदगी में अमित शाह और वसुंधरा राजे की 26 अप्रैल को हुई मैराथन बैठक में भी कोई नतीजा नहीं निकल पाया. वसुंधरा राजस्थान में अपनी पसंद का अध्यक्ष चाहती हैं जिसके पार्टी नेतृत्व फिलहाल तैयार नहीं है. लेकिन यही केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे की बात नहीं मानता तो वो खुल कर विरोध में उतर सकती हैं. इस बीच, केंद्र सरकार का वसुंधरा की इच्छा के बावजूद तत्कालीन मुख्य सचिव एनसी गोयल को सेवा विस्तार देने से इंकार करना इस ओर संकेत है कि पार्टी नेतृत्व फिलहाल आत्मसमर्पण के मूड में नहीं है.

102 नॉट आउट देखने का मूड है तो यह रिव्यू पढ़कर जाएं

भारतीय सिनेमा एक बेहतरीन दौर से गुजर रहा है। आज के वक्त में ऐसी फिल्में बन रही है, जैसा एक दशक पहले किसी ने सोचा भी नहीं था. परंपरागत फिल्मों से दूर अक्टूबर और हिचकी जैसी फिल्में झंडा गाड़ रही है तो न्यूटन को ऑस्कर तक में नामांकन मिल चुका है.

निर्देशक उमेश शुक्ला की ‘102 नॉट आउट’ उसी तरह की फिल्म है. सौम्य जोशी के लिखे गुजराती लोकप्रिय नाटक पर आधारित यह फिल्म बुजुर्गों के एकाकीपन की त्रासदी को दर्शाती है. फिल्म में ऋषि कपूर ने 75 साल के बाबूलाल वखारिया का किरदार निभाया है. यह किरदार घड़ी की सुइयों के हिसाब से चलने वाला सनकी बूढ़ा है. उसकी नीरस जिंदगी में डॉक्टर से मिलने के अलावा अगर कोई खुशी और उत्तेजना का कारण है तो वह है उसका एनआरआई बेटा और उसका परिवार. हालांकि, अपने बेटे और उसके परिवार से वह पिछले 17 वर्षों से नहीं मिला है. बेटा हर साल मिलने का वादा करके ऐन वक्त में उसे गच्चा दे जाता है. वहीं, दूसरी ओर बाबूलाल का 102 वर्षीय पिता दत्तात्रेय वखारिया (अमिताभ बच्चन) उसके विपरीत जिंदगी से भरपूर ऐसा वृद्ध है जिसे आप 102 साल का जवान भी कह सकते हैं.

एक दिन अचानक दत्तात्रेय अपने झक्की बेटे बाबूलाल के सामने शर्तों का पिटारा रखते हुए कहता है कि अगर उसने ये शर्तें पूरी नहीं कीं तो वह उसे वृद्धाश्रम भेज देगा. असल में दत्तात्रेय, धमकी देकर और शर्तों को पूरा करवाकर बाबूलाल की जीवनशैली और सोच को बदलना चाहता है. अब 102 साल की उम्र में वह अपने 75 वर्षीय बेटे को क्यों बदलना चाहता है, इसके पीछे एक बहुत बड़ा राज है. इस राज का पता लगाने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.

कर्नाटक में देवगौड़ा के पीछे क्यों पड़े हैं मोदी

कर्नाटक चुनाव को लेकर प्रधानमंत्री मोदी हफ्ते भर के लिए कर्नाटक में हैं. इस दौरान मोदी जितनी चर्चा भाजपा के एजेंडे की कर रहे हैं, उतना ही ध्यान जनता दल सेक्युलर के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा को खुश करने में भी लगा रहे हैं. पीएम मोदी के निशाने पर लगातार देवेगौड़ा हैं. ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्या कर्नाटक में भाजपा मुश्किल में है और मोदी पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा को इसलिए खुश करने में जुटे हैं ताकि भाजपा की गाड़ी फंसने पर जेडीएस से समर्थन हासिल किया जा सके.

चुनाव पूर्व कर्नाटक को लेकर आ रहे सर्वेक्षण में भी यह साफ हो गया है कि वहां गठबंधन की सरकार बनेगी. इस सर्वेक्षण ने भाजपा और कांग्रेस दोनों की बेचैनी बढ़ा दी है. हालांकि भाजपा ज्यादा बेचैन दिख रही है. यही वजह है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी कर्नाटक में संभावित नतीजों को देखते हुए अपनी रणनीति बना रहे हैं.

हालांकि मोदी द्वारा देवेगौड़ा की तारीफ की रणनीति का जवाब देवेगौड़ा ने खुद दे दिया है. पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा का कहना है कि मोदी स्मार्ट पीएम हैं. वह कर्नाटक की राजनीति में हो रहे बदलाव और संकेत को अच्छी तरह से समझते हैं. लेकिन देवेगौड़ा ने साफ कर दिया है कि तारीफ अपनी जगह है लेकिन वह भाजपा और मोदी के साथ कोई गठबंधन नहीं करने वाले हैं.

 

एससी/एसटी कानून को लेकर पुनर्विचार याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई आज

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नई दिल्ली। एससी-एसटी एक्ट को लेकर सरकार द्वारा दायर की गई पुनर्विचार याचिका पर सुप्रीम कोर्ट आज सुनवाई करेगा. केंद्र के अलावा इस संबंध में 4 राज्यों ने भी पुनर्विचार याचिका दायर की है. एससी/एसटी कानून के तहत तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान पर रोक लगाने के आदेश पर पुनर्विचार की मांग करते हुए केंद्र ने 2 अप्रैल को कोर्ट का रुख किया था. जज एके गोयल और दीपक गुप्ता की संवैधानिक पीठ मामले की सुनवाई करेगी. एससी-एसटी कानून के तहत तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान पर रोक लगाने के आदेश पर पुनर्विचार की मांग करते हुए केंद्र ने दो अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था. गौरतलब है कि 20 मार्च को अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न निरोधक कानून के तहत आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी. सरकार ने भी हर पहलू पर विचार के बाद दो अप्रैल को इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए शीर्ष अदालत में याचिका दाखिल की थी. सरकार की ओर से यह भी संकेत दिया जा चुका है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपना रुख नहीं बदला तो फिर अध्यादेश लाकर भी पुराने कानून को स्थापित किया जा सकता है.  

डेरा में साधुओं को नपुंसक बनाने वाले डॉक्टर को कोर्ट का झटका

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चंडीगढ़। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने बुधवार को डेरा सच्चा सौदा नपुंसक मामले की सुनवाई की. इस दौरान अदालत ने आरोपी डॉक्टर पंकज गर्ग की जमानत याचिका पर 16 मई तक अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है.27 फरवरी 2018 को अंतरिम जमानत हासिल करने वाले डॉक्टर पंकज गर्ग ने कोर्ट से जमानत की गुहार लगाई थी.

आरोपी डॉक्टर पंकज गर्ग की जमानत याचिका का विरोध करते हुए सीबीआई के वकीलों ने कोर्ट को बताया कि आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोप अत्यंत गंभीर है. आरोपी ने डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम के कहने पर कई निर्दोष भक्तों को सर्जरी के जरिए नपुंसक बनाया था, जो न केवल एक अमानवीय कृत्य है, बल्कि गहरी साजिश भी है. आरोपी डॉक्टर के खिलाफ मौजूद सबूत ने भी वकीलों का काम आसान कर दिया.

बताते चलें कि आरोपी डॉ. पंकज गर्ग और डॉ. एमपी सिंह ने मिलकर डेरा के दर्जनों अनुयायियों को नपुंसक बनाया था. इस मामले के एक आरोपी डॉ. एमपी सिंह को 7 जनवरी को गिरफ्तार करके अंबाला जेल भेजा गया था. हाईकोर्ट ने 23 दिसंबर 2014 को एक पीड़ित हंसराज चौहान द्वारा दाखिल याचिका की जांच सीबीआई को सौंपी थी.

सीबीआई ने 7 जनवरी 2015 को मामला दर्ज करके राम रहीम के खिलाफ याची हंसराज चौहान को धमकाने,धोखाधड़ी और शारीरिक रूप से चोट पहुंचाने के आरोप में केस दर्ज किया था. चार्जशीट में 160 से अधिक नपुंसक बनाए गए अनुयायियों की सूची सौंपी थी. राम रहीम पर 400 से अधिक अनुयायियों को नपुंसक बनाने का आरोप है.

दिल्ली की लुटियन जोन में है सोनम के होने वाले पति का 173 करोड़ का बंगला

सोनम कपूर 8 मई को अपने बॉयफ्रेंड आनंद आहूजा के साथ शादी के बंधन में बंधेंगी. कपूर परिवार ने इसकी आधिकारिक घोषणा कर दी है. ये शादी मुंबई में होगी. सोनम के होने वाले पति आनंद आहूजा दिल्ली बेस्ड फैशन और लाइफस्टाइल एंटरप्नयोर हैं. आनंद दिल्ली बेस्ड बिजनेसमैन हरीश अहूजा के पोते हैं. उनकी गिनती देश के टॉप एक्पोर्ट हाउस मालिकों में होती है.

सोनम कपूर के होने वाले पत‍ि आनंद के दादा जी हरीश अहूजा ने 2015 में पृथ्वीराज रोड पर बंगला खरीदा था. 3170 स्वायर यार्ड में बना यह बंगले की कीमत 173 करोड़ के करीब है.

हरीश अहूजा के एक्सपोर्ट हाउस के क्लाइंट में जानी-मानी कंपनियों का नाम जुड़ा हुआ है. इनमें GAP, टॉमी जैसे ब्रांड शामिल हैं.आनंद अहूजा अपने फैमिली बिजनेस को संभालते हैं. आनंद अपनी फैमिली बेस्ड बिजनेस ‘शाही एक्सपोर्ट्स’ नाम की कंपनी के एमडी भी हैं.

आनंद आहूजा बास्केटबॉल लवर माने जाते हैं. वे इस खेल को और इसके खिलाड़ियों को काफी पसंद करते हैं. उनके इंस्टाग्राम अकाउंट पर पोस्ट तमाम तस्वीरों के जरिए आनंद के इस क्रेज को समझा जा सकता है. वे Los Angeles Lakers टीम के सपोर्टर रहे हैं.

आनंद ने नई दिल्ली के अमेरिकी एंबेसी स्कूल से पढ़ाई की. इसके अलावा उन्हानें यूएस की पेंसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के व्हार्टन स्कूल, से एमबीए की डिग्री हासिल की. आनंद ने यूएस में Amazon.com में एक प्रोडक्ट मैनेजर के रूप में अपनी इंटर्नशिप की.

आनंद आहूजा ट्रैवलिंग के बहुत बड़े शौकीन हैं. यही वजह है कि सोनम के संग उन्हें अक्सर यूरोप, न्यूयॉर्क जैसे कई जगह साथ में छुट्टियां मनाते देखा गया है. आनंद आहूजा ने सोनम के साथ न्यू ईयर पेरिस में सेलिब्रेट किया था.

दलित आदिवासी आंदोलन के लिए जिम्मेदार कौन?

सियासी गलियारों में बड़े ज़ोरशोर से आवाज उठ रही है कि दलित आदिवासी आंदोलन के लिए जिम्मेदार कौन है? और इस प्रकार दलितों आदिवासीयों के स्वयं प्रेरित शोषण के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन की आड़ में राजनीतिक पार्टियाँ अपने-अपने ढंग से रोटियाँ सेकने में लगी हैं. वे पार्टी जिसका परंपरागत दलित वोट बैंक रहा है वे दलित हिमायती बनकर तथा वह पार्टी जिसनें सबका साथ सबका विकास करने का प्रोपेगैंडा खड़ा किया था. जमीनी स्तर पर कार्य न कर पाने की स्थिति में एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की राजनीति, सियासी गलियारों में चल पड़ी है. जिस पार्टी ने सबके विकास के नाम पर वोट मांगे थे, आज उसके पास गिनाने के लिए कुछ भी 2019 का चुनाव लड़ने के लिए नहीं हैं. उल्टे दलितों के प्रति अत्याचारों में इजाफा ही हुआ है. जिन पार्टियों का दलित परंपरागत वोट बैंक रहा हैं उन पार्टियों के द्वारा सामाजिक रूप से दलितों का उत्थान न कर पाने की स्थित में ही दलितों ने विकास के नाम पर वोट दिया वहाँ पर भी दलितों को निराशा ही हाथ लगी है.

शिक्षा के प्रति आकर्षण और सोशल मीडिया के सहयोग से दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, को समझ में आने लगा है. पार्टियों के अदला-बदली से कुछ नहीं होने वाला दोनों तरफ ज्यादातर जातिवादी मानसिकता से पोषित लोग ही बैठे हैं. इसी कारण 2 अप्रैल 2018 को देश व्यापी स्वयं प्रेरित जन आंदोलन हुआ. इस आंदोलन में कुछ दुःखद घटनाएँ भी हुईं. शांति से चल रहे आंदोलन को वर्चस्ववादीयों ने घटते वर्चस्व से देखा और उपद्रवी तांडव मचाया एवं निहत्ते लोगों पर गोलियाँ चलाई ज्यादातर मारे गए लोगों में दलित ही थे. आज भी दलितों आदिवासियों को चिन्हित कर उनके साथ ज्यादती जारी है. इससे ये जाहिर है जातिवादी मानसिकता आज भी अपने चरम पर है.

विशेष पार्टी के समर्थित लोग कहते है. ये एक दम कैसे हो गया इसमें इस पार्टी की चाल हैं? ज़्यादातर पार्टियाँ आंदोलन को आपने-अपने तरीके से व्याख्यायित कर वोटों की खेती करने में जुटीं हैं. वहीँ दलित आदिवासी मुद्दे सियासी गलियारे में नदारद हैं. वह एक-दूसरे पर आक्षेप लगाकर बच निकलते हैं जबकि दलितों आदिवासियों को सामाजिक रूप से न्याय, सम्मान, अधिकार की जरूरत है. जिसे कोई भी सत्ताधारी पार्टी प्रभावी रूप से क्रियान्वयन कर, कर सकती है लेकिन जातिवादी मानसिकता उनके आड़े आती है. सिर्फ बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के नारे लगाना और सार्वजनिक जगहों पर सम्मान करने का काम करते हैं. जिससे जमीनी हकीकत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता.

अब सवाल ये भी कुछ लोग उठाते हैं. 70 साल देश को आजाद हो गए दलित आदिवासी पिछड़े मुख्यधारा में क्यों नहीं शामिल होना चाहते. तब मुझे आरक्षण फिल्म का वो डायलॉग याद आता है “आपके अंदर प्रतिभा नहीं है आप डरते हैं प्रतियोगिता से, तब शेफली खाँन बोलते हैं, सबकी स्टाटिंग लाइन एक होना चाहिए. आओं सुख-सुविधाओं और संपत्ति का बटवारा कारों और हमारी तरह जी के देखों तब प्रतियोगिता कारों कौन हराम की खाता है? आपने अपनी जैवे भर ली है और कहते हो प्रतियोगिता करों.”

क्या सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति जहाँ सब कुछ पैसे से बिकता हो अपने आप को सारी सुविधाओं से संपन्न व्यक्तियों के सामने खड़ा कर पायेगा? कुछेक हो भी जाएंगे वह भी मजबूरी में सिस्टम के हिस्सा हो जाएंगे जबतक कोई बड़े स्तर पर प्रयास न किया जाए.

अब सवाल ये खड़ा होता है. क्या किसी जति, समुदाय के सामाजिक राजनीतिक आर्थिक विकास से सशक्त राष्ट्र का निर्माण हो सकता है? क्या सभी जति समुदाय के लोगों की सहभागिता ज़रूरी नहीं? अगर इन सब को देखते हुए दलितों आदिवासियों पिछड़ों के उत्थान के लिए कोई क़ानून बनता है. क्या ये शसक्त राष्ट्र निर्माण के लिए उचित नहीं?

अशोक कुमार सखवार पी-एच.डी. शोधार्थी, हिंदी विभाग, साँची बौद्ध-भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय,

चंद्रशेखर रावण पर रासुका तीन महीने और बढ़ी

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सहारनपुर। भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर रावण की रासुका की अवधि तीन महीने और बढ़ गई है. एक मई को चंद्रशेखर के वकील की ओर से अदालत में जमानत की याचिका डाली गई थी, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया. इसके साथ ही अदालत ने चंद्रशेखर रावण की रासुका की अवधि को तीन महीने और के लिए बढ़ा दिया. अदालत के इस फैसले से चंद्रशेखर रावण की रिहाई की कोशिश में लगे संगठनों और भीम आर्मी को तगड़ा झटका लगा है.

मई 2017 में सहारनपुर में भड़के जातीय हिंसा के बाद भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर रावण पर 4 नवंबर को रासुका लगा दी गई थी. 12 जनवरी को रासुका पर सुनवाई हुई थी. इस दौरान रासुका की अवधि को तीन महीने के लिए बढ़ा दिया था. अब एक बार फिर से अदालत ने रावण पर रासुका की अवधि को बढ़ा दिया है.

  संदीप कुमार  

संपादकीय: दलित दास्तान

कहने को हमारे संविधान में सबको बराबरी का दर्जा हासिल है, लेकिन ऐसी घटनाएं रोज होती हैं जो बताती हैं कि संवैधानिक प्रावधानों और कड़वे सामाजिक यथार्थ के बीच कितना लंबा फासला है. उदाहरण के लिए दो ताजा खबरों को लें. एक खबर उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले से आई कि अगड़ी जाति के कुछ दबंगों ने एक दलित को इसलिए मारा-पीटा, क्योंकि उसने उनके कहने पर उनकी फसल काटने से इनकार कर दिया. उस दलित का आरोप यह भी है कि उसकी मूंछ खींची गई और जबर्दस्ती उसका मुंह खोल कर पेशाब डालने की कोशिश की गई. जिले के पुलिस अधीक्षक ने प्राथमिक जांच में मारने-पीटने के आरोप को सही पाया है, बाकी आरोपों की जांच चल रही है. पुलिस अधीक्षक ने एफआइआर लिखने में टालमटोल और देरी की बिना पर थाना प्रभारी को निलंबित कर दिया है. दूसरी खबर राजस्थान के भीलवाड़ा जिले की है, जहां विवाह की एक रस्म पूरी करने के दौरान दलित दूल्हे का घोड़ी पर सवार होना कुछ लोगों को रास नहीं आया, और उन लोगों ने उस परिवार पर हमला बोल दिया. नतीजतन तीन-चार व्यक्ति घायल हो गए. पीड़ित परिवार का यह भी आरोप है कि उन्होंने पुलिस की मदद लेनी चाही, पर पुलिस हाथ पर हाथ धरे रही. अलबत्ता पुलिस ने मूकदर्शक बने रहने के आरोप को गलत बताया है.

बहरहाल, ऐसी घटनाओं को कानून-व्यवस्था का सामान्य मामला नहीं माना जा सकता. ऐसी घटनाएं बताती हैं कि कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत और समाज में जो चल रहा है उसके बीच कितनी गहरी खाई है. सदियों से हमारे समाज में कुछ तबके जैसा भेदभाव, अपमान और उत्पीड़न झेलते आए हैं उसे देखते हुए ऐसी घटनाएं कोई आश्चर्य की बात भले न हों, पर कई कारणों से बेहद चिंताजनक जरूर हैं. जिस पैमाने पर ये घटनाएं हो रही हैं, उन्हें सिर्फ अतीत के भग्नावशेष कह कर उनसे पिंड नहीं छुड़ाया जा सकता. सच तो यह है कि पिछले कुछ बरसों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं और सरकारी आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं. दूसरी तरफ, आरोपियों को सजा मिलने की दर घटी है. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2010 से 2016 के सात वर्षों के दौरान, साल के अंत में दलितों के खिलाफ लंबित मामले 78 फीसद से बढ़ कर 91 फीसद, और आदिवासियों के खिलाफ लंबित मामले 83 फीसद से बढ़ कर 90 फीसद पर पहुंच गए. यही नहीं, इनमें से ज्यादातर मामलों में आरोपी छूट गए.

दलितों के खिलाफ अपराधों के मामलों में दोषसिद्धि की दर 2010 में अड़तीस फीसद थी, जो कि घट कर 2016 में सिर्फ सोलह फीसद रह गई. आदिवासियों के खिलाफ अपराधों के मामलों में दोषसिद्धि की दर में गिरावट छब्बीस फीसद से आठ फीसद की रही. इसलिए ऐसी घटनाओं और ऐसे मामलों को अतीत की निशानियां कह कर टाला नहीं जा सकता. विडंबना यह है कि दलितों पर अत्याचार की घटनाओं में बढ़ोतरी उन राज्यों में भी दिखती है जो आधुनिक विकास और औद्योगिक प्रगति में आगे हैं. मसलन, गुजरात में. उना कांड से लेकर हाल में भावनगर जिले में घुड़सवारी के शौक के कारण इक्कीस वर्षीय एक दलित नवयुवक की हत्या तक, ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं जो विकास के गुजरात मॉडल पर सवालिया निशान लगाती हैं. क्या विकास का मतलब सिर्फ बड़े बांध, फ्लाइओवर और विदेशी निवेश ही होता है, या सामाजिक बराबरी और सामाजिक सौहार्द भी कोई पैमाना है?

  – साभार: जनसत्ता 

अपने बच्चों का भला चाहते हैं तो इन बड़े शहरों में न पालें

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नई दिल्ली। विश्व स्वास्थ संगठन (WHO) द्वारा हाल ही में प्रदूषण को लेकर जारी रिपोर्ट डराने वाली है. डब्ल्यू एच ओ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों में 14 भारत में हैं. इन शहरों में रहना किसी भी हालत में बीमारियों के लिहाज से सुरक्षित नहीं है.

डब्ल्यूएचओ ने देश के 122 शहरों में हवा की शुद्धता आंकी है. अब अगर वायु शुद्धता के मानकों की बात करें तो देश का कोई भी शहर इस मानक के आस-पास नहीं ठहरता. बल्कि वायु प्रदूषण की स्थिति खतरनाक स्तर से भी 10-12 गुना ज्यादा है. ये स्थिति हमें थोक के भावों में बीमारियां सौगात में देती है.

डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2016 में वायु प्रदूषण से पैदा हुई बीमारियों से दुनियाभर में 42 लाख लोगों की मौत हुई है, इसमें से 90 फीसदी भारत के शहर हैं. हालात इतने खराब है कि पर्यावरणविदों का कहना है कि, अगर आपके पास कहीं और रहने का विकल्प हो तो आपको अपने बच्चों दिल्ली और बड़े शहरों में मत पालें.

आंकड़े कहते हैं कि भारत में तीस लाख से ज्यादा मौतें प्रदूषित हवा के संपर्क में आने से हो रही हैं. वर्ष 2012 के आंकड़ों के अनुसार हर एक लाख की आबादी पर 159 लोग उन बीमारियों से ग्रस्त होकर मौत के शिकार हो जाते हैं, जो हवा के जहरीले तत्वों के संपर्क में आते हैं. वर्ष 2010 की रिपोर्ट कहती है कि वायु प्रदूषण से जनित बीमारियां देश की पांचवीं बड़ी किलर बन गई हैं.

दिल्ली और देश के ज्यादातर बड़े शहरों में वर्ष 1991 की तुलना में अब तक प्रदूषण दोगुना से तिगुना हो चुका है. हवा में मौजूद सल्फेट, नाइट्रेट और ब्लैक कार्बन की ज्यादा मात्रा हवा को लगातार जहरीली बना रही है. इसका कारण कार और ट्रकों का ट्रैफिक, कारखाने, पावर प्लांट्स, भवन निर्माण और खेतों की आग है.

रिटायर्ड जज ने क्यों कहा भारत के दलित-आदिवासी और अल्पसंख्यक डरे हुए हैं

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मुंबई। जस्टिस लोया केस को लेकर बड़ा बयान देने वाले मुंबई हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस बीजी कोलसे पाटील ने सत्ता के सांप्रदायिकरण पर बड़ा बयान दिया है. उन्होंने कहा है कि भारत में अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित और गरीब बुरी तरह डरे हुए हैं. उनके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है. सांप्रदायिक ताकतों ने लोकतंत्र के सभी केंद्रों पर कब्जा कर लिया है. जस्टिस कोलसे ‘अलायंस फॉर जस्टिस एंड पीस’ द्वारा कराए जा रहे ‘जज कन्वेंशन’ में बोल रहे थे. जिसका विषय ‘लोकतंत्र की सुरक्षा’ था.

इस दौरान पाटील ने कहा कि उन्हें लगातार डराने की कोशिश की जाती रही है. उनके साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है. अपने भाषण में जस्टिस कोलसे ने एक बार फिर जस्टिस लोया की हत्या का मामला उठाया. जस्टिस कोलसे ने कहा कि सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ की सुनवाई करने वाले जज बीएस लोया की संदिग्ध हालातों में मौत हो गई. उन्होंने आरोप लगाया कि लोया के अलावा उनके दो राजदारों एडवोकेट श्रीकांत खंडालकर और रिटायर्ड जज प्रकाश थोम्बरे की भी हत्या की गई है. पाटील का दावा है कि वो कोई हादसा नहीं था. इसलिए अगला नंबर उनका है. इससे पहले इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को जस्टिस कोलसे ने काला दिन बताया था.

देश के शीर्ष सत्ता के सांप्रदायिकरण पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि भले ही देश के वंचित, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक खतरे में हो, मुल्क का संविधान सभी को बराबर अधिकार देता है. कहीं भी अन्याय हो तो उसके खिलाफ लोग आवाज उठाएं. उसका विरोध करें. सच बोलने से बिल्कुल भी ना डरें.’ जस्टिस पाटील ने आगे कहा कि जब जनता ही अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर आ जाएगी तो जेल भी कम पड़ जाएंगी. लोग संवैधानिक दायरे में रहकर अपना अभियान चलाएं.

इस गांव में हर घर के सामने है क़ब्र

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SHYAM MOHAN BBC

आंध्र प्रदेश के कुरनूल ज़िले में अय्या कोंडा एक ऐसा गांव है, जहां हर घर के सामने एक क़ब्र है. इस गांव में पहुंचते ही लोगों के दिमाग़ में एक प्रश्न कौंधता है कि ‘क्या वो किसी क़ब्रिस्तान में आ गए हैं जहां कई घर हैं, या उस गांव में जो क्रबिस्तान से अटा पड़ा है.’

अय्या कोंडा कुरनूल ज़िला मुख्यालय से 66 किलोमीटर दूर गोनेगंदल मंडल में एक पहाड़ी पर बसा है. मालादासरी समुदाय के कुल 150 परिवारों वाले इस गांव के लोग अपने सगे संबंधियों की मौत के बाद उनके शव को घर के सामने दफ़न करते हैं क्योंकि यहां कोई क़ब्रिस्तान नहीं है. इस गांव के हर घर के सामने एक या दो क़ब्र देखने को मिलती हैं. गांव की महिलाओं और बच्चों को अपनी दिनचर्या के लिए भी इन्हीं क़ब्रों से होकर गुजरना पड़ता है.

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महिलाएं इन्हें पार कर पानी लेने जाती हैं तो बच्चे इनके इर्दगिर्द खेलते हैं. ग्रामीणों का कहना है कि ये क़ब्र उनके पूर्वजों की हैं जिनकी वो रोज पूजा करते हैं, प्रसाद चढ़ाते हैं और अपने रिवाज़ों का पालन करते हैं. घर में पकाया जाने वाला खाना परिवार के सदस्य तब तक नहीं छूते जब तक उसे मृतकों की क़ब्र पर चढ़ाया नहीं जाता है.

इस रिवाज के बारे में गांव के सरपंच श्रीनिवासुलु ने बीबीसी से कहा, “आध्यात्मिक गुरु नल्ला रेड्डी और उनके शिष्य माला दशारी चिंतला मुनिस्वामी ने गांव के विकास में अपनी पूरी शक्ति और धन लगा दिया था. उनकी किए कामों का आभार मानते हुए ग्रामीणों ने यहां उनके सम्मान में एक मंदिर स्थापित किया और उनकी पूजा करने लगे. ठीक उसी तरह अपने परिवार के बड़ों के सम्मान में ग्रामीण घर के बाहर उनकी क़ब्र बनाते हैं.”

 श्याम मोहन द्वारा बीबीसी तेलुगू के लिए लिखे लेख का अंश

उमा भारती ने दलितों के लिए दिया गजब बयान

छत्तरपुर। भाजपा की वरिष्‍ठ नेता और केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने दलितों के साथ भोजन करने को लेकर एक बयान दिया है. उन्‍होंने मध्‍य प्रदेश के नौगांव के ददरी गांव में लोगों को संबोधित करते हुए कहा, ‘मैं दलितों के घर में भोजन करने नहीं जाती. क्‍योंकि मैं अपने आप को भगवान राम नहीं मानती कि शबरी के घर जाकर भोजन किया तो दलित पवित्र हो जाएंगे. दलित जब मेरे घर में आकर भोजन करेंगे और मैं उन्‍हें अपने हाथों से खाना परोसूंगी तब मेरा घर धन्‍य हो जाएगा, मेरे बर्तन धन्‍य हो जाएंगे, मेरा पूजाघर धन्‍य हो जाएगा.

कार्यक्रम के दौरान सामूहिक भोज का भी कार्यक्रम था लेकिन उमा भारती ने खाने से यह कहते हुए मना कर दिया कि ‘मैं आज आपके साथ बैठकर भोजन नहीं कर पाऊंगी, क्‍योंकि मैंने भोजन कर लिया है.’ हालांकि इस बयान पर राजनीतिक विविद होने के बाद उमा भारती के कार्यालय की ओर एक बयान जारी कर सफाई दी गई है. केंद्रीय मंत्री ने बताया कि उन्‍हें नौगांव में समरसता भोज की जानकारी पहले से नहीं थी. बयान के मुताबिक, उन्‍हें छतरपुर से तकरीबन डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पपोड़ा (टीकमगढ़ जिला) जाना था. इसके कारण वह वहां मौजूद लोगों से क्षमा-याचना कर पपोड़ा के लिए रवाना हो गईं. बयान में कहा गया, ‘वो जमाना चला गया जब दलितों के घर में बैठकर भोजन करना सामाजिक समरसता का सूत्र था. अब तो राजनीति में जो दलितों के साथ भेदभाव होता है, उसमें समरसता लानी पड़ेगी. आर्थिक उत्‍थान, सामाजिक सम्‍मान और शासन-प्रशासन में बराबरी की भागीदारी ही सामाजिक समरसता का मूलमंत्र है.’ उमा भारती का यह रवैया ऐसे समय सामने आया है, जब पिछले महीने दलितों के प्रदर्शन के बाद भाजपा आलाकमान के निर्देश के बाद पार्टी नेता और मंत्री दलित प्रेम दिखा रहे हैं.

भाजपा नेता का दलित प्रेमः दलित के घर होटल का खाना

लखनऊ। पार्टी के दबाव और वोट के लालच में भाजपा के नेता भले ही दलितों की चौखट लांघने को तैयार हो जा रहे हैं, उनके भीतर का ‘जातिवाद’ अब भी मौजूद है. यूपी में दलितों के घर एडवेंचर करने पहुंच रहे सरकार के मंत्री दलितों के घर तो चले जा रहे हैं, लेकिन दलितों के घर का खाना उनकी हलक के नीचे नहीं उतर रहा है.

योगी सरकार में राज्य मंत्री सुरेश राणा मंगलवार को जब अलीगढ़ में एक दलित के घर खाना खाने पहुंचे. लेकिन वहां पहुंच कर उन्होंने लाव-लश्कर के साथ होटल से मंगाया हुआ खाना खाया. मंत्री अलीगढ़ की तहसील खैर इलाके में जब खाना खाने पहुंचे तो उन्होंने वहां सलाद, दाल-मखनी, छोले-चावल, पालक-पनीर, उड़द की दाल, मिक्स वेज, रायता, तंदूरी रोटी के अलावा मिठाई में गुलाब-जामुन, कॉफी और मिनरल वाटर का लुत्फ उठाया. इतना ही नहीं बीजेपी की ओर से कोशिश है कि सरकार के मंत्री दलित के घर ही रात गुजारें और खाना वहां पर खाएं. लेकिन, सुरेश राणा दलित के घर पर रुकने की बजाय सामुदायिक केंद्र में रुके जहां उनके आराम के लिए पूरा इंतजाम किया गया था.

इससे पहले मुख्यमंत्री योगी भी निशाने पर रह चुके हैं. योगी आदित्यनाथ ने भी प्रदेश के प्रतापगढ़ इलाके में दलित परिवार के घर जाकर खाना खाया था. लेकिन वहां योगी के लिए उन्हीं की मंत्री स्वाति सिंह रोटी सेकती देखी गईं.

 

That’s how India celebrated Buddha Poornima!

2018 Buddha Poornima, was a day of celebration and reverence as the day went by in India. We present you updates from various corners of the country where Buddha Poornima was celebrated with reverence and Dhamma values were shared and propagated.

Starting on the day of 26th April, an All India Buddhist Conference was held at Bamiyan Buddha Vihar, AmbedkarPuram, Saharanpur, Uttar Pradesh. Bauddha Dhamma Unnati Samajik Sansthan, Sahranpur, Uttar Pradesh and Metta Maitri Sangha, Nagpur organized this conference. During this10 day Dhamma camp in Bamiyan Buddha Vihar, there was active discussion and participation from participants from varied age groups. Vigorous discussions on topics such as: ‘Buddha’s Dhamma as spirituality or social revolution, need of Dhamma or Dharma in politics today, use of Dhamma in day to day life, Vipassana a part of Buddhism or Vipassana is whole Buddhism occurred. This ten-day camp from 16th April to 25th April was abuzz with activity with teachings of Buddha being propagated through various mediums such as Meditation, Exercise, Karate basics, Vandana_trisharan Panchasheel, 3 sessions with various topics in Buddhism, Games and feedback session under the guidance of Bhante Suniti and Bhikunni Maitiya. Not only that, Bhante Suniti and Bhikkuni Maitiya took the participants for one day educational tour to Kalsi, Uttarakhand, to observe Edicts of Ashoka, also known as Ashok Sila lekh and visited Mindrolling Tibetian Seminary at Dehradun. On the day of Buddha Poornima, Buddhist citizens of Dehradun observed a Dhamma Parikrama for world peace and harmony. Organized by Doon Buddhist Committee at Parade Ground, Dehradun, the celebrations were graced by the presence of His Eminence Choegon Rinpoche Tenzin Chokyi Gyatso. During this 2562 Buddha Poornima celebration at Dehradun, His Eminence spoke of not only Buddha and his Dhamma but also the transition that the country is going through. The transition from the times when Gandhi’s portrait was always placed before His Holiness Dalai Lama to now when in 2018 Babasaheb Ambedkar’s portrait has replaced Gandhi. On this occasion, Bahujan singer-song writer, Himanshu unveiled his debut audio Cd, “Mahakarunic the Lord Buddha.” This event saw a gathering of about one and half thousand people. Slums of marginalized communities at Panchsheel Nagar, Sion, Mumbai were pulsating with Bhim songs of revolutionary balladeer and Dalit activist, Shambha ji Bhagat. The man who is known for his fearless clarity, ‘we are not here to entertain you, we are here to disturb you.’ Speaking to the balladeer about his Buddha Poornima celebration he shared, “the audience that I have been performing for years is now going through a transition; a sociological change perhaps. Earlier people took time to understand what our songs were all about but now, the audience is aware of the nuances of our political commentary. Now the audience has evolved to understand whom are we talking about and what system are we attacking. Interestingly during this transition women’s participation has considerably increased.” Nagpur’s Bheem Chowk saw massive participation from various Buddhist rallies from different Buddha Vihars. In presence of Bhikkuni Sumedha, Bhante Suniti and Bhikkuni Maitriya, the evening began with Buddha vandana, Trisharan, Panchasheel, candle lighting, and garlanding of Babasaheb’s statue. A small pravachan and kheer daan also occurred.

​ JYOTI NISHA

4 दिन में ‘एवेंजर्स: इन्फिनिटी वॉर’ ने कमाए 100 करोड़

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हॉलीवुड सुपरहीरो फिल्म ‘एवेंजर्स: इन्फिनिटी वॉर’ दुनियाभर में कमाई के नए रिकॉर्ड स्थापित कर रही है. फिल्म के इंडियन बॉक्स ऑफिस कलेक्शन ने ट्रेड एक्सपर्ट्स को भी चौंका दिया है. एवेंजर्स ने 4 दिनों में 147.21 करोड़ रुपये की ग्रॉस कमाई कर ली है. भारत में इस सुपरहीरो फ्लिक की ताबड़तोड़ कमाई ने कई पिछली हॉलीवुड फिल्मों के रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए हैं. अप्रैल के आखिरी हफ्ते में रिलीज हुई एवेंजर्स ने बॉलीवुड बॉक्स ऑफिस के कलेक्शन ग्राफ को कई प्रतिशत ऊपर कर दिया है. ट्रेड एक्सपर्ट तरण आदर्श ने एवेंजर्स को गेम चेंजर बताया है. उनका अनुमान है कि ये फिल्म आसानी से ‘द जंगल बुक’ के लाइफटाइम बिजनेस को तोड़ देगी. साथ ही भारत में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हॉलीवुड फिल्म बनकर उभरेगी.  

यूपी बोर्ड की परीक्षा को लेकर जरूरी खबर

लखनऊ। उत्तर प्रदेश बोर्ड की परीक्षा को लेकर कुछ बदलाव किए गए हैं. यह जानकारी परीक्षा में बैठने वाले बच्चों से लेकर उनके अभिभावकों के लिए महत्वपूर्ण है. अगले वर्ष से यूपी बोर्ड में हर विषय के दो पेपर होने की बजाय एक ही पेपर की परीक्षा होगी. कई बार बेवजह परीक्षाओं की तारीखें बढ़ती रहती थी, आने वाले साल से परीक्षाओं को भी 15 दिन में समेटा जाएगा. इसे वर्ष 2018-19 के शैक्षिक सत्र में लागू कर दिया गया है.

माध्यमिक शिक्षा परिषद की सचिव नीना श्रीवास्तव के मुताबिक, इस सत्र से एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम लागू हो रहा है. सीबीएसई में एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम लागू है और वहां हाईस्कूल व इंटर में हर विषय के एक-एक प्रश्नपत्र की परीक्षा होती है. एक ही पेपर होने से एक तरफ जहां विद्यार्थियों पर दबाव कम होगा वहीं मूल्यांकन व परीक्षा परिणाम तैयार करने में भी कम समय लगेगा. वहीं उत्तर पुस्तिकाएं और प्रश्नपत्र भी कम छपवाने पड़ेंगे. एनसीईआरटी ने दो की जगह एक पेपर करने की सारी कवायद पूरी कर ली गई है. अब इसमें नौंवी और 11वीं के प्रश्न नहीं पूछे जाएंगे. अभी तक कक्षा 9-10 के सवाल हाईस्कूल में और 11-12वीं के पाठ्यक्रम के सवाल इंटरमीडिएट में पूछे जाते थे.

वहीं अगले वर्ष भी बोर्ड परीक्षाएं फरवरी में करवाई जाएंगी. प्रयोगात्मक परीक्षाएं दिसंबर 2018 में शुरू होंगी. इसके लिए छात्र-छात्राओं के पंजीकरण के लिए वेबसाइट खोल दी गई है. परीक्षा के फॉर्म अगस्त में भरवाए जाएंगे. ऐसे में जरूरी है कि परीक्षार्थी और अभिभावक संभावित समय को ध्यान में रखते हुए परीक्षा की तैयारी करें.

कैराना उपचुनाव में भाजपा के लिए मुसीबत

लखनऊ। उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट के लिए होने वाले आगामी उपचुनाव को लेकर एक बार फिर हलचल तेज हो गई है. इस सीट को लेकर भाजपा नेताओं में डर का माहौल है. जातीय समीकरणों के लिहाज से सपा-बसपा का गठबंधन भाजपा के सामने अपनी सीट बरकरार रखने के लिये कड़ी चुनौती साबित हो सकता है.

मुस्लिम और दलित बहुल कैराना सीट पर सपा और बसपा मिलकर उसके सामने फिर कड़ी चुनौती पेश कर सकती हैं. इस लोकसभा सीट के लिये उपचुनाव 28 मई को होगा. वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में ‘मोदी लहर’ और राजनीतिक रूप से खासा दबदबा रखने वाले मुनव्‍वर हसन के परिवार में वोटों के बंटवारे के बीच भाजपा के हुकुम सिंह ने कैराना लोकसभा सीट जीती थी. अब उनके निधन के बाद यह सीट खाली हुई है. उपचुनाव की तारीख़ का ऐलान होने से पहले ही यहां चुनावी माहौल बनना शुरू हो चुका था. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा रिक्‍त की गयी गोरखपुर और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य द्वारा छोड़ी गयी फूलपुर लोकसभा सीट पर मिली हार के बाद भाजपा कैराना लोकसभा उपचुनाव को लेकर बेहद सतर्क है.

कैराना लोकसभा क्षेत्र में लगभग 17 लाख मतदाता हैं. इनमें तीन लाख मुसलमान, लगभग चार लाख पिछड़े और करीब डेढ़ लाख वोट जाटव दलितों के हैं, जो बसपा का परम्‍परागत वोट बैंक माना जाता है. यहां यादव मतदाताओं की संख्‍या कम है ऐसे में यहां दलित और मुस्लिम मतदाता खासे महत्‍वपूर्ण हो जाते हैं. इस क्षेत्र में हसन परिवार का खासा राजनीतिक दबदबा माना जाता रहा है.

वर्ष 1996 में इस सीट से सपा के टिकट पर सांसद चुने गये मुनव्‍वर हसन की पत्‍नी तबस्‍सुम बेगम वर्ष 2009 में इस सीट से संसद जा चुकी हैं. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में इस परिवार में टूट हुई थी. तब मुनव्‍वर के बेटे नाहीद हसन सपा के टिकट पर और उनके चाचा कंवर हसन बसपा के टिकट पर चुनाव लड़े थे, मगर दोनों को पराजय का सामना करना पड़ा था. हालांकि नाहीद दूसरे स्‍थान पर रहे थे.

इस सीट पर राष्‍ट्रीय लोकदल (रालोद) भी प्रभावी रहा है और वर्ष 1999 तथा 2004 के लोकसभा चुनाव में उसके प्रत्‍याशी यहां से सांसद रह चुके हैं. अगर सपा, बसपा के साथ रालोद का वोट भी जुड़़ जाता है तो भाजपा के लिये मुश्किल और बढ़ सकती है.

बौद्ध धर्म क्यों अपना रहे हैं भारत के दलित?

रविवार की रात को बुद्ध पूर्णिमा के पावन अवसर पर गुजरात के ऊना गांव के दलित परिवार समेत राज्य के विभिन्न स्थानों से आये 300 से अधिक दलितों ने अंबेडकर द्वारा प्रचारित बौद्ध धर्म को अंगीकार किया.

बौद्ध धर्म के मानने वालों के लिए बुद्ध पूर्णिमा सबसे अधिक महत्वपूर्ण दिन है. वैशाख में पड़ने वाली इस पूर्णिमा के दिन ही शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में सिद्धार्थ का जन्म हुआ था, इसी दिन लंबी तपश्चर्या के बाद सिद्धार्थ गौतम को ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे विश्व में बुद्ध के नाम से विख्यात हुए और इसी दिन उनका परिनिर्वाण हुआ. रविवार की रात को बुद्ध पूर्णिमा के पावन अवसर पर गुजरात के ऊना गांव के उस दलित परिवार समेत 300 से अधिक दलितों ने बौद्ध धर्म को अंगीकार किया. इस परिवार के सदस्यों को जुलाई 2016 में हिंदुत्व से प्रेरित तथाकथित गौरक्षकों ने बेरहमी के साथ कोड़ों से मारा था.

इसके पहले 11 अप्रैल को महाराष्ट्र के शिरसगांव में 500 से अधिक दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाया था. इन दोनों घटनाओं को पिछले सालों में लगातार बढ़े जातिगत तनाव और बढ़ते जा रहे अत्याचारों के खिलाफ दलितों के सामाजिक-राजनीतिक प्रतिरोध के रूप में देखा जा रहा है.

दिलचस्प बात यह है कि गुजरात विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के विधायक प्रदीप परमार भी धर्मांतरण के समय उपस्थित थे और उनका कहना था कि वह विधायक केवल इसलिए हैं क्योंकि भीमराव अंबेडकर ने ऐसा संविधान बनाया कि एक दलित होते हुए भी वह विधायक बन पाए. जब से केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आयी है, तब से देश भर में गौरक्षा के नाम पर मुसलमानों और दलितों पर हमले बढ़े हैं और इस कारण जातिगत एवं साम्प्रदायिक तनाव में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है. ऐसा नहीं है कि इस सरकार के सत्तारूढ़ होने के पहले स्थिति बहुत बेहतर थी. हिन्दू समाज की सवर्ण जातियों में दलितों के प्रति स्वाभाविक रूप से हिकारत और नफरत का भाव रहता है जिसके पीछे जातिगत श्रेष्ठता की भावना है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2007 और 2017 के बीच दस सालों के दौरान दलितों के प्रति अपराधों में 66 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और दलित महिलाओं पर होने वाले बलात्कारों की संख्या दो गुनी हो गयी. इसलिए उत्तर प्रदेश हो या महाराष्ट्र या गुजरात या राजस्थान, दलितों के बीच बेचैनी और असंतोष बढ़ता जा रहा है और पिछले एक साल से इसकी अभिव्यक्ति धरनों, प्रदर्शनों और आन्दोलनों के माध्यम से हो रही है. उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर रावण और गुजरात में जिग्नेश मेवाणी इसी प्रक्रिया के दौरान उभरे युवा दलित नेता हैं.

समस्या यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके जैसे अन्य हिंदुत्ववादी संगठन अंबेडकर के जीवनकाल में हमेशा उनका विरोध और ‘मनुस्मृति’ जैसे जातिव्यवस्था के पोषक एवं समर्थक धर्मग्रंथों का समर्थन करते रहे. इसलिए अब जब प्रधानमंत्री मोदी अंबेडकर की प्रशंसा करते हैं, बौद्ध भिक्षुकों को दलितों के बीच अपने संदेश के साथ भेजते हैं और उनकी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब दलितों के घरों में जाकर वहां खाना खाने के बहुप्रचारित और सार्वजनिक आयोजन करते हैं, तो इस सबको दलित गंभीरता से नहीं लेते और इसे केवल दिखावा और छलावा ही समझते हैं. अंबेडकर ने तो अपनी मृत्यु से लगभग बीस वर्ष पहले घोषणा कर दी थी कि उनका जन्म भले ही एक हिन्दू के रूप में हुआ हो, उनकी मृत्यु हिन्दू के रूप में नहीं होगी. अपनी मृत्यु से दो माह पहले अक्टूबर 1956 में अपने हजारों अनुयायियों के साथ अंबेडकर ने हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और तभी से प्रतिवर्ष दलित अपना असंतोष और विरोध व्यक्त करने के लिए धर्मांतरण का सहारा लेते हैं.

अगले साल लोकसभा चुनाव होने वाले हैं और उसके पहले कई विधानसभा चुनाव होने हैं. दलितों की आबादी भारत की कुल आबादी का लगभग बीस प्रतिशत है. अब इस आबादी को दबा कर रखना अधिक से अधिक मुश्किल होता जा रहा है लेकिन फिर भी सरकारें उनके उत्थान के लिए सार्थक और कारगर उपाय करने के बजाय केवल प्रतीकात्मकता का सहारा लेती हैं. आने वाले दिनों में इन प्रतीकात्मक कदमों का कोई खास असर होने वाला नहीं है क्योंकि अब दलितों के बीच अपनी अस्मिता, आत्मगौरव और अधिकार की चेतना बढ़ रही है. उनकी समस्याओं का समाधान बुनियादी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों के नहीं होने वाला. अब उनके बीच पढ़े-लिखे और आधुनिक चेतनासम्पन्न युवाओं का नेतृत्व पनप रहा है. यह नेतृत्व समाज में सम्मान के साथ जीने का अधिकार और सत्ता में वाजिब हिस्सेदारी मांग रहा है. उसके बिना यह संतुष्ट होने वाला नहीं. निहित स्वार्थों के लिए यह खतरे की घंटी है. साभारः DW.COM