दलित पॉप गीतों की लोकप्रियता

देश में दलित गीतों की एक नई परंपरा शुरु हो गई है. ये दलित गीत दलितों के स्वाभिमान को बढ़ाने के लिए प्रयोग किए जा रहे हैं. यह सिलसिला पिछले लगभग 6 साल से दिखाई दे रहा है कि दलित गायक दलितों की समस्या एवं दलितों के महापुरुषों के विषय में गाना गा रहे हैं. गायक परमजीत पम्मा का कहना है कि उन्होंने 2009 में ऑस्ट्रिया में हुयी रविदासी सम्प्रदाय के संत रामानंद जी हत्या के बाद दलितों के विषय में गीत गाने शुरू किये. परमजीत पम्मा का कहना कि पहले जाट जाति को देहाती, मूर्ख समझा जाता था लेकिन जाट गायकों ने अपनी जाति का महिमामंडन करते हुए अनेक गीत गाये. अब समाज में यह जाट गीत स्वीकार्य हो गए हैं. एक दिन ऐसे ही दलित गानों की स्वीकार्यता सर्वसमाज में होगी और दलितों के प्रति सोच बदलेगी. यह एक नई संस्कृति की शुरूआत है. एक नए कल्चर को बढ़ाने की कोशिश है जैसा कि हम जानते हैं कि कोई भी संस्कृति हो वह सांस्कृतिक प्रतीकों पर आधारित होती है. दलितों ने भी अपने प्रति को अपने महापुरुषों को इन गीतों में आधार बनाया है. समाजशास्त्री अंतोनियो ग्राम्सी ने कहा था कि किसी भी विचारधारा का संस्थानिक एवं कल्चरल आधार होता है, यह कल्चरल आइडियोलॉजी ही किसी बड़ी राजनैतिक शक्ति के आधारों में होती है. इसमें राजनीतिक प्रचार भाषण लोक साहित्य एवं प्रसिद्ध गीत सभी आते हैं. ग्राम्सी के अनुसार प्रसिद्ध गीत एवं मिथक भी एक प्रकार की बौद्धिक शक्ति होते हैं. ग्राम्सी ने कहा है कि शासक वर्ग अपने कल्चरल प्रतीकों के माध्यम से ही अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करता है. प्रभु सत्ता भौतिक एवं विचारधारा के कारकों का समुच्य होता है जिससे शासक वर्ग अपनी शक्ति को बनाए रखता है. प्रभु सत्ता भौतिक एवं विचारधारा के कारकों का समुच्य होता है, जिससे शासक वर्ग अपनी शक्ति को बनाए रखता है. प्रतिशत के हिसाब से देखा जाए तो पंजाब में दलितों की सबसे बड़ी जनसंख्या है. यहां लगभग 28 फीसदी दलित हैं. पंजाब में सबसे ज्यादा गीत जाट जाति के विषय में हैं. दलितों के गानों को जाटों का काउंटर कल्चर ही माना जाता है. ऐसे बहुत से गाने हैं जिनमें जाटों की वीरता का और उनके उच्च सामाजिक स्तर का बखान होता है. गायक परमजीत सिंह पम्मा कहते हैं कि हम दूसरी जातियों के गानों पर क्यों नाचे जब हम अपनी जाति के ऊपर बने हुए गानों पर भी नाच सकते हैं. पंजाबी की शीर्ष गायिका मिस पूजा भी दलित समाज से हैं. मिस पूजा ने भी रविदास समाज के ऊपर कई गाने गाएं हैं, जिसमें से सबसे प्रसिद्ध है- बेगमपुरा बसाना है, सारे कर लो एका. रविदास की बेगमपुरा की संकल्पना यूरोपियन यूटोपिया के समान है, बल्कि उससे भी जयादा विकसित है क्योंकि रविदास जी के वचन थे कि ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिले सभन को अन्न, रहें सभी प्रसन्न. इस प्रकार के गीतों का संवर्धन करने में डेरा सचखंड बल्ला की महत्वपूर्ण भूमिका है. डेरा सचखंड बल्ला की स्थापना संत श्री श्रवण दासजी जी महाराज के द्वारा की गई थी. डेरा सचखंड बल्ला जालंधर जिले में स्थित है. डेरा सचखंड बल्ला ने अनेक सीडी रिलीज की है जो रविदासिया मिशन के बारे में है. डेरा सचखंड बल्ला से संबद्ध अनेक गायक हैं जो रविदासिया मिशन से जुड़े हुए गीत गाते हैं. दलितों के गीतों की एक परंपरा सी चल पड़ी है. आज यूपी में, हरियाणा में अनेक दलित गायक हैं जो डॉ अम्बेडकर, गुरु रविदास के बारे में गाने गा रहे हैं. अपने गीतों से अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं. डेरा सचखंड बल्ला वालो ने गुरु रविदास की वाणी के ऊपर एक कार्यक्रम बनाया था जिसका नाम था अमृतवाणी गुरु श्री गुरु रविदास की. यह कार्यक्रम जालंधर दूरदर्शन पर 2003 में प्रसारित हुआ था. एक दलित गायक रूपलाल धीर की दूसरी एलबम रिलीज हुई है जिसका नाम है हम्मर. हम्मर एक आयातित अमेरिकन एसयूवी है तो वह उसी के ऊपर आधारित है कि दलित भी हम्मर जैसी गाड़ी रख सकता है. रूप लाल धीर का कहना है कि हमारा संगीत दलित समर्थक है ना कि किसी जाति के खिलाफ. चमार शब्द का उल्लेख गुरुवाणी में मिलता है जब गुरुओं ने हमें सम्मान दिया तो हमें इस पर गर्व क्यों नहीं होना चाहिए. एक गाने के बोल हैं, वाल्मीकियां दे मुंडे नहीं डर दे, मजहबी सिख मुंडे नहीं डर दे. अर्थ स्पष्ट है कि वाल्मीकि जाति के युवक बहादुर हैं. एसएस आजाद पंजाब में दलित पॉप के पायनियर हैं. उनके पहले एलबम का नाम था, अखि पूत चमारा दे. इसका मतलब है चमारो के गर्वीले पुत्र. यह एलबम सन 2010 में आई थी. यह एलबम कुछ लोगों के अनुसार पुत्र जट्टा दे के विरुद्ध आई एलबम फाइटर चमार सन 2011 में रिलीज हुई. उस में कुछ ऐसे गीत है जैसे हाथ लेकर हथियार जब निकले चमार इस एलबम की लगभग 20 हजार कॉपियां बिकी. रूप लाल धीर का कहना है कि एक गाना दिखाता है कि एक युवा दलित लड़का चंडीगढ़ में पढ़ रहा है. तब एक लडकी उसका ध्यान आकर्षण करने की चेष्टा करती है तो वह चमार लड़का कहता है पढ़ लिख कर मैं बनूंगा एसपी या डीसी या फिर किसी यूनिवर्सिटी का वीसी. मुझपे तुम्हारा आकर्षण नहीं चलेगा. आइडेंटिटी की पहचान की इस लड़ाई में भेदभाव और संघर्ष हो रहा है. ऑनलाइन यह बहुत ज्यादा दिखाई देता है. यू-ट्यूब पर एक दूसरी जातियों के विरुद्ध नफरत फैलाने वाले वीडियो भी अपलोड किए जा रहे हैं. विदेशो में रहने वाले दलित इस दलित पॉप के सबसे बड़े संरक्षक हैं. गायक पम्मा सुनराह का कहना है कि इस चमार पॉप ने हमारे हौसले को बढ़ा दिया है. यह जाट पॉप का रिएक्शन नहीं है यह दलितों की बात करता है. उल्लेखनीय है कि पंजाबी के अनेक गायक जैसे हंसराज हंस, दलेर मेहंदी एवं मीका दलित हैं. -लेखक जामिया मिलिया से पी.एचडी कर रहे हैं. संपर्क- 9213120777

दलित महिलाएं: अस्तित्व और अधिकार

मानव अधिकारों के हनन की समस्या दुनिया के सभी समाजों में एतिहासिक एवं सार्वभौमिक रूप से पायी जाती रही है. भारतीय समाज भी कोई अपवाद प्रस्तुत नहीं करता है. यहां भी कई प्रकार के मानव अधिकारों का उल्लंघन पाया जाता रहा है, जिसमें यहां की सामाजिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. भारतीय समाज के सन्दर्भ में यह तार्किक एवं निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कुछ सामाजिक वर्ग एवं संप्रदाय मानव अधिकारों के हनन के ज़्यादा शिकार ऐतिहासिक काल से रहे हैं या वर्तमान में इस समस्या से बुरी तरह प्रभावित हैं. ऐसा ही एक सामाजिक वर्ग जिसके मानव अधिकारों का उल्लंघन निरंतर प्राक् एतिहासिक काल से जारी है; वह है दलित समाज. दलित समाज को यदि हम स्त्री एवं पुरुष वर्गों में बांटकर देखें तो यह पता चलेगा कि दलित महिलाएं सामाजिक संस्तरण में सबसे निचले पायदान पर आती हैं. इस प्रकार दलित महिलाएं न केवल अन्य महिलाओं (उच्च जातियों की महिलाओं) से दयनीय एवं विषम परिस्थितियों का सामना करती हैं, बल्कि दलित वर्ग में भी स्त्री-पुरुष वर्गीकरण एवं पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के कारण उनकी स्थिति और भी कमजोर एवं संवेदनशील है. इस संबंध में कुमार (2009 अ), आलोयिशिस तथा अन्य (2011: xviii) कहते हैं कि वे त्रिस्तरीय शोषण का शिकार हैं जिसका आधार जाति, वर्ग एवं लिंग भेद है. इसी परिपेक्ष्य में यह शोधपत्र दलित महिलाओं के मानव अधिकारों की व्याख्या करने की कोशिश करेगा तथा भारतीय समाज में व्याप्त वास्तविक स्थिति को दर्शाते हुए इसमें बनी रहने वाली निरंतरता और बदलावों की समीक्षा करेगा. इस संदर्भ में किए गए शोध पत्र को हम पत्रिका के जून, 2015 अंक में प्रकाशित कर चुके हैं, यहां पेश है बचा हुआ हिस्सा- दलित महिलाओं के मानव अधिकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रावधान यदि हम दलित महिलाओं से संबंधित अंतरराष्ट्रीय प्रावधानों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों की अंतरराष्ट्रीय संविदा निम्न अधिकार प्रदान करती है. अनुच्छेद 8 द्वारा बंधुआ मज़दूरी का निषेध, अनुच्छेद 14 द्वारा सभी को क़ानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद 26 द्वारा नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, राजनैतिक या अन्य राय रखने के कारण, राष्ट्रीय या सामाजिक मूल, संपत्ति, जन्म अथवा अन्य किसी सामाजिक स्थिति के आधार पर भेदभाव को निषेध कर, इसी प्रकार अनुच्छेद 26, 25(c), 19(1), 21, 14(3)(g ), 16(1), 9(1), 9(2)(3)(4) एवं 18(1) ऐसे अधिकार प्रदान करते हैं जो दलित महिलाओं के नागरिक एवं राजनैतिक जीवन से संबंधित हैं (श्रीनिवासूलु 2008: 22-23). उधर दूसरी ओर दलित महिलाओं से संबंधित आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों की रक्षा के लिए आर्थिक एवं सामाजिक अंतर राष्ट्रीय संविदा के अनुच्छेद 7(a)(i), 7(b), 10(2), 6(1), 10(3), 13(2)(a), 9(a)(ii), 7(d) तथा 11 मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं (वही: 25-26). इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिलाओं की स्थिति को जानने के लिए एक आयोग की स्थापना भी 1946 में की. इसी आयोग के माध्यम से आगे चलकर 1965 में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव उन्मूलन की घोषणा का मसौदा तैयार किया गया, जिसे संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने 1967 में अपना लिया. सन् 1979 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने एक और समझौते को अपनाया जिसे ‘कन्वेन्शन ऑन दा एलिमिनेशन ऑफ ऑल फॉर्म्स ऑफ डिस्क्रिमिनेशन अगेन्स्ट विमन’ कहा गया (युनाइटेड नेशन्स, शॉर्ट हिस्टरी ऑफ CEDAW कन्वेन्शन). इसके द्वारा महिलाओं से संबंधित कई अधिकारों की रक्षा का क्रियान्वयन सुनिश्चित किया गया. दलित महिलाएं एवं मानव अधिकार: प्रावधान बनाम हनन उपरोक्त संवैधानिक, राष्ट्रीय एवं अंतर राष्ट्रीय क़ानूनों और प्रावधानों के बावज़ूद वर्तमान समय में भी दलित महिलाओं के अधिकारों का हनन बड़े पैमाने पर जारी है. दलित महिलाओं के अधिकारों के हनन को हम मोटे तौर पर दो भागों में बाँट सकते हैं: पहला वे हनन जो सौम्य प्रकृति के हैं या दूसरे शब्दों में जो हिंसात्मक नहीं हैं तथा दूसरे वे जो क्रूरता, हिंसा एवं जघन्य अपराध के रूप में अंजाम दिए जाते हैं. हालांकि यह विभाजन अपने आप में बहुत बारीक अंतर लिए हुए है, तथा कभी कभी इन दोनों के बीच अंतर करना मुश्किल हो जाता है अथवा ये मिश्रित रूप से दलित महिलाओं के मानव अधिकारों के हनन में सहयोगी सिद्ध होते हैं. यदि हम नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों की बात करें तो पाएंगे कि ग्रामीण एवं शहरी दोनों ही क्षेत्रों में दलितों को बंधुआ मज़दूरी का शिकार आज भी होना पड़ता है (इंटरनेशनल दलित सॉलिडॅरिटी नेटवर्क: दलित्स एंड बॉंडेड लेबर इन इंडिया). भारत सरकार के श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार हालांकि बंधुआ मज़दूरी को सन 1976 से ही एक क़ानून लाकर निषेध कर दिया गया है किंतु इसके बावज़ूद 30 मार्च 2012 तक 2 लाख 94 हज़ार 155 बंधुआ मज़दूरों की पहचान की गयी, जिसमें से लगभग बीस हज़ार को छोड़ कर बाकी का पुनर्वास कर दिया गया है (भारत सरकार, मिनिस्ट्री ऑफ लेबर एंड एंप्लाय्मेंट, ऐनुअल रिपोर्ट 2012-13: 79-81). सबसे महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि इन बंधुआ मज़दूरों में बहुत बड़ी तादाद दलितों (महिलाओं सहित) की होती है (सर्मा 1981). आर्या (2014) ने उत्तर प्रदेश के अपने अध्ययन में यह पाया कि दलितों और विशेष कर उनकी महिलाओं को न तो पंचायतों में साथ में बैठने दिया जाता है और न ही उन्हें अपनी बात रखने की अनुमति होती है. यदि कोई दलित महिला अपने अधिकारों को जानते हुए ऐसा करने का प्रयास करती है तो उसे परंपरागत सोच के कारण बदनाम तक कर दिया जाता है. इतना ही नहीं दलित महिलाओं का देवदासी के रूप में यौन शोषण भी निरंतर जारी है, चाहे वह तेलगु प्रदेशों में सुले या समी परंपरा हो या आन्ध्र और कर्नाटक में जोगिन या बसवी. इनसे ज़बरदस्ती वैश्या वृत्ति कराई जाती रही है (विजयश्री 2004). अभी हाल ही तक दलित महिलाओं को कुछ जगहों पर अपने वक्ष ढकने की भी अनुमति नहीं थी (अरुण 2007). कई इलाक़ों में यह पाया गया है की दलित महिलाएं केवल दो जून रोटी के लिए मैला ढ़ोने का काम करती हैं तथा जूठन खाने को मजबूर हैं (वाल्मीकि 2003). आज भी दलित महिलाओं को अन्य समस्याओं के साथ-साथ मुख्य रूप से अपशब्द सुनने पड़ते हैं, शारीरिक हमले सहने पड़ते हैं. उन्हें यौन हिंसा और अपराध का शिकार बनाया जाता है तथा घरेलू हिंसा के द्वारा उत्पीड़न किया जाता है (इरुदयम एवं अन्य 2011: 95). उपरोक्त वर्णित दलित महिलाओं के मानव अधिकारों के हनन की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इन अपराधों को अंजाम देने वाले प्रमुखत: उच्च जातियों तथा अन्य पिछड़ी जातियों के पुरुष होते हैं (वही: 99) इसी क्रम में यदि हम दलित महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक अधिकारों का विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि दलित महिला वर्ग को मज़दूरी के लिए समान वेतन नहीं दिया जाता है (सोसाइटी फॉर पार्टीसिपेटरी रिसर्च इन एशिया 2013). यदि हम शिक्षा के अधिकार की बात करें तो इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सन 2011 के आंकड़ों के अनुसार जहां कुल आबादी में से 64.6 फीसदी महिलाएं शिक्षित हैं वहीं यदि दलित महिलाओं का प्रतिशत देखें तो यह कई गुना कम होकर केवल 16.7 फीसदी ही है (भारत सरकार, सेन्सस ऑफ इंडिया 2011, प्राइमरी सेन्सस आब्स्ट्रॅक्ट). यदि केवल दलितों पर होने वाले अत्याचारों पर नज़र डालें तो आंकड़े बताते हैं कि 1997 से 2001 के बीच में प्रति वर्ष औसतन 25,587 मामले दर्ज हुए हैं (अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, सातवीं रिपोर्ट: 118). इन मामलों के विवरण के अनुसार इसी समय अवधि में प्रत्येक वर्ष औसतन 515 हत्याएं, 3493 घोर उपहति, 1024 बलात्कार, 332 मामले आगज़नी के तथा 20223 अन्य घटनाएं दर्ज हुई हैं (गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, नॅशनल कमिशन फॉर शेड्यूल्ड कॅस्ट्स एंड शेड्यूल्ड ट्राइब्स, 2001-02, सातवीं रिपोर्ट: 119). दलितों पर अत्याचार के ये मामले कम साक्षरता दर से लेकर अधिक साक्षरता दर वाले सभी राज्यों में घटित हुई हैं. घटते हुए क्रम में ये राज्य हैं – उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, आंध्रा प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात, उड़िसा (ओडिशा), बिहार, केरल एवं महाराष्ट्र (वही: 122). निष्कर्ष: इस प्रकार दलित महिलाओं के अधिकारों के सिंहावलोकन द्वारा यह कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक काल से ही दलित महिलाएं कई प्रकार के शोषण का शिकार रही हैं तथा इस भारतीय सामाजिक व्यवस्था में उनके मानव अधिकारों का उल्लंघन होता रहा है. यह भी स्पष्ट होता है कि दलित महिलाओं को हिंदू सामाजिक-व्यवस्था में सिर्फ इतना ही स्थान दिया गया जिससे उनकी सेवाओं का उपभोग उच्च जातियों के लोग कर सकें. ये सेवाएं मुख्यतयः दो भागों में बांटकर देखी जा सकती हैं- पहला शारीरिक श्रम से सेवा (मजदूरी, बेगारी, मैला ढोना इत्यादि) एवं दूसरा उनके शरीर से यौन सेवा (यौन शोषण, बलात्कार, देवदासी प्रथा इत्यादि द्वारा). किन्तु वहीं दूसरी और जब इन्हीं दलित महिलाओं के मानव शरीरों को अधिकार देने की बात आई तो उन्हें जानवरों के समकक्ष रखा गया. मध्य युग भारतीय काल से ही कुछ बहुत बदलाव की आवाज़ें बुलंद हुईं और आज़ादी के बाद डॉ. आम्बेडकर के अथक प्रयासों के फलस्वरूप दलितों और उनकी महिलाओं के अधिकारों ने संवैधानिक दर्ज़ा इख़्तियार किया. किंतु हिंदू सामाजिक-व्यवस्था के धार्मिक लेखों के आधार पर व्यवस्थित और अधिकृत होने के कारण पुरानी परंपरागत और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ सवाल उठाने और उसमें बदलाव करने की कोशिशों को कभी छूट नहीं दी गई और ऐसे कार्यों को हमेशा समाज विरोधी समझा गया. इसी निरंतरता के आधार पर उच्च जाति वर्ग के लोगों की मनः स्थिति और विचारधारा आज भी उस पुरानी व्यवस्था का अनुपालन करती चली आ रही है जो समाज में सांस्कृतिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत के रूप में प्रवाह हो रही है. इस प्रकार हिंदू समाज व्यवस्था का मूल आधार आज भी वहीं जड़ें जमाए बैठा है और वह मूल-संरचना के रूप में विद्यमान है. अब इसके उपर जो भी उपरी संरचनाएं जिन्हें समाजशास्त्रीय भाषा में ”सूप्रा-इन्स्टिट्यूशन्स” कहा जाता है उनका प्रभाव बहुत कम हो पाता है. क्यूंकि कभी भी आधुनिक सामाजिक व्यवस्था परंपरागत समाज को पूरी तरह बदल कर स्थापित नहीं होती है बल्कि पुरानी व्यवस्था में ही बदलाव के साथ प्रकट होती है. अतः दलित महिलाओं की स्थिति एवं उनके अधिकारों के उल्लंघन भी इसी प्रकार से पुरातन भारतीय समाज की मानसिकता और सामाजिक व्यवस्था में कुछ बदलाव करते हुए आज आधुनिकता के मुहाने तक पहुंची है, किंतु ऐतिहासिक मान्यताएं या दृष्टिकोण आज भी परिलक्षित होते हैं. दूसरे, यदि विभिन्न सामाजिक आंदोलनों ने दलित महिलाओं के अधिकारों की या मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण कार्य और बदलाव किए हैं तो वहीं दूसरी ओर उनपर अत्याचार करने वालों और उनके अधिकारों के उल्लंघन करने वालों ने भी अपने तरीकों में काफ़ी बदलाव कर लिए हैं. और चूंकि दलित वर्ग अभी इतना सक्षम नहीं है कि वह अपना प्रतिनिधित्व इन सूप्रा-इंस्टीट्यूशन्स में पूर्ण रूप से पा पाया हो, अत: वही लोग वहां फिर से मूलभूत सामाजिक संरचना को स्थापित करने की कोशिश करते हैं जिन्हें अब तक उस से फायदा होता चला आया है. इस प्रकार वर्तमान समय में भी दलित महिलाओं के मानव अधिकार सुरक्षित नही हैं और इस समस्या का हल तब तक नहीं निकल सकता जब तक शिक्षा के साथ साथ सत्ता की आधुनिक सात संस्थाओं में दलित महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं होगा. ये सात संस्थाएँ हैं – न्यायपालिका, राजनीति, नौकरशाही, विश्वविद्यालय, मीडिया एवं उद्योग (देखें कुमार 2014 ब).

अतीत के संदर्भ में स्वच्छ भारत मिशन और दलित विकास

स्कूल के दिनों में 2 अक्तूबर को गांव में सभी छात्रों की एक रैली निकलती थी. जिसे हमारे मराठवाड़ा अंचल में ”प्रभात फेरी” कहा जाता था. मजे की बात यह थी कि यह फेरी गांव के बाहरी रास्तों से निकलती थी जिस पर सुबह का मैला और गंदी नालियों का पानी हमेशा बहता रहता. आज भी इन्हीं रास्तों से निकलती है. इसे गांव में ”हागनदारी” कहने का प्रचलन रहा है. तो इस ”हागनदारी” के रास्ते पर फैले हुए शौच और मैले से बचते हुए, अलग-अलग किस्म के नारे लगाते हुए स्कूल के सभी छात्रों को पंचायत तक पहुंचना होता था. जहां पर तिरंगे झंडे को सलामी देनी पड़ती. इस ”हागनदारी” के रास्ते पर चलते समय शिक्षक लोग हम सभी बच्चो को एक नारा सिखाते थे…”बंदा रुपया चांदी का..सारा देश गांधी का” और बच्चे जोर जोर से इसे दोहराते. इस रास्ते के दो तरफ़ा हमेशा महिलाओं का ”स्टैंड अप” और ”सिट डाउन” हुआ करता था. लेकिन ”प्रभात फेरी” के दिन महिलाओं के लिए बड़ी मुश्किल हो जाती. ”प्रभात फेरी” आगे निकल जाने तक उन्हें ”स्टैंड अप” वाली पोजीशन में शर्म के मारे अपना समूचा शरीर सिकुड़कर मुंडी निचे झुकाये हुए खड़ा रहना पड़ता था.कई महिलाओं को तो ”पर्दा प्रथा” का अनुसरण करने पर मजबूर होना पड़ता|.यह स्थिति आज भी बहुत कुछ जस-की-तस है. उन दिनों ऐसा लगता था कि, वे सभी महिलाएं रास्ते के दोनों तरफ निश्चित अंतर रखके खड़ी है और एक हाथ में पानी का ”लोटा” जिसे मराठवाडा अंचल में एक बड़ा प्रसिद्ध और प्रचलित शब्द है- ”टमरेल” लेकर और दूसरे हाथ से साड़ी का पल्लू संभालते हुए ”प्रभात फेरी” का स्वागत कर रही हैं. एक तरह से यह उनके द्वारा गांधी बाबा और तिरंगे को दी जानेवाली सलामी ही थी! इसी बीच कोई बच्चा उनकी तरफ देखते हुए जोर से चिल्लाता- ”बंदा रुपया चांदी का..सारा देश गांधी का”. तब बड़ी शर्म से वे अपना मुंह छुपाने की कोशिश करती… और जब पंचायत के पास यह ”प्रभात फेरी” पहुंच जाती तो जितने सज धज के बच्चे सुबह स्कूल गए होते, वह रौनक पूरी तरह से बदल गई होती. ठीक ऐसे समय में मुखिया के निर्देश पर बांटी गई ”लेमन गोलियां” और छोटे-छोटे ”बिस्कुट” लेने की होड़ लगी रहती. हाथ-मुंह धोने की सीख का अनुकरण कोई नहीं करता. जो मिला उसे तुरंत अपने जेब और मुंह में ठूंसने और दुबारा हाथ आगे करने की कोशिश में लगे रहते. ऐसे में एक जिज्ञासा हमेशा बनी रहती कि, यह गांधी बाबा आखिर है कौन? जिसने हमकों ”लेमन गोलियां” और ”बिस्कुट” दिए. आजकल इस प्रथा में थोडा-सा बदलाव आया है- बच्चों को ”चॉकलेट” देने का प्रचलन आरंभ हुआ है! कभी-कभी यह भी लगता था कि इस तरह की ”प्रभात फेरी” को तो रोज निकलना चाहिए. फिर यह भी विचार दिमाग में आते रहते कि गांधी बाबा के नारे लगाते हुए निकाली गई यह ”प्रभात फेरी” इतनी कष्टदायी क्यों होती है? पंचायत तक पहुंचते-पहुंचते ”प्रभात फेरी” के बच्चों का उत्साह ”हागनदारी” के फूलों की खुशबू और कपड़ों पर उड़े हुए नाली के पानी के छीटों की बदबू में क्यों बदल जाता है? तब मन में बड़ी घृणा और गुस्सा उभरता था. लेकिन ”प्रभात फेरी” का उत्साह और ”शिक्षकों का डर” सब कुछ निगल जाने को मजबूर कर देता. ऐसे में अपने गुस्से को मजाकिया अंदाज में बयान करने के लिए बच्चे-लोग नारे लगाते.. ”बंदा रुपया चांदी का..सारा देश गांधी का”….”बंदा रुपया चांदी का..सारा देश गांधी का” और बीच में ही कोई शरारती बच्चा व्यंग करते हुए जोर से बोल देता… ”याच्याच नावाचा शेतसारा..अन पक्का सात-बाराचा उतारा.” (इसके ही नाम की खेती सारी और खसरा खतौनी भी) तब यह समझने में बड़ी मुश्किल होती कि यह ”शेतसारा” और ”सात-बारा” क्या है? और इसकी प्रासंगिकता क्या है? बहुत दिनों बाद समझ में आया कि इस देश में यह मान लिया गया है कि, सिर्फ गांधी बाबा ही इस देश के राष्ट्रपिता है. उनका दूसरा कोई सानी नहीं है?… लेकिन एक सवाल आज भी मस्तिष्क में घूमता है कि, ”गांधी बाबा” के जन्मदिवस की ”प्रभात फेरी” यानि सवारी ”हागनदारी” के रास्ते से ही क्यों निकाली जाती है. आज भी गावों में महिलाओं की ”स्टैंडअप” और ”सिट डाउन” वाली पोजीशन में क्यों बदलाव नहीं आया है? आज समूचे देश में हाथ में झाड़ू लेकर ”स्वच्छ भारत मिशन” मनाया जा रहा है और सेल्फी खिंच-खींचकर सभी मीडिया चैनलों एवं सोशल मीडिया पर दिखाया जा रहा है. जबकि हमारे गांव इससे कोसों दूर है. पिछले कुछ वर्षों में इस परंपरा में थोड़ा बहुत बदलाव जरुर हुआ है. ‘हागनदारी मुक्त गांव’ जैसी कई सरकारी योजनाओं के तहत गावों में सफाई रखने और शौचालय बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं. पर इसमें कुछ विडम्बनापूर्ण तथ्य भी सामने आये हैं. सरकारी योजना के तहत शौचालय बनाने हेतु दस हजार का अनुदान दिया जा रहा है. जिसके लिए लाभार्थी को एक हजार रुपये पहले जमा करने हैं. ऊपर से जो अनुदान मिलता है वह गांव के खास अभिजात्य वर्गीय लोगों तक सिमित हो रहा है, दलित और पिछड़े समाज के लाभार्थियों का प्रतिशत न्यूनतम है. यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इन समुदायों की भागीदारी न के बराबर है. ऊपर से सरकारी बाबू लोग, ठेकेदार और इंजिनियरों की मिलीभगत से प्रत्येक का अपना ‘कमीशन’ वाला हिस्सा तय है. कम से कम दो हजार ईंटे लगती है शौचालय बनाने में, जो छह हजार रुपये से कम में नहीं मिलती है. फिर बाकी का सामान है, जिसमें लोहे के रॉड, सीमेंट, टाइल्स, पानी की टंकी और शौच के अन्य साधन आदि कई वस्तुओं को खरीदना पड़ता है. शौचालय बनाने वाले मिस्त्री की मजदूरी और साधनों को लाने का किराया अलग से खर्चा है. बीच-बीच में तहसील के दफ्तर में ”चेक” पाने के लिए चक्कर काटना किसी भी लाभार्थी के लिए उसकी आर्थिक आय से महंगा हो जाता है. सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि जहां पीने के लिए पानी मुनासिब नहीं है, वहां शौचालय के लिए पानी कहां से लाया जाए और यही चिंता सबको सताती है. बावजूद इसके बहुत से लोगों ने ‘रिस्क’ तो लिया है. बढ़ती महंगाई के दौर में सरकारी स्तर पर अनुदान की रक्कम कम से कम पचीस हजार तो होनी चाहिए और सबसे बड़ी बात यह है कि किसी भी समुदाय की भागीदारी के बिना बहुत कुछ होना असंभव है. ऐसे में लोगों की मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन लाने की आवश्यकता पर बल देना चाहिए. आज जब देश के विकास और सफलता की चर्चा हो रही हैं तो यहीं अफ़सोस है कि तब से अब तक हम वहीं के वहीं खड़े है और विकास के नारे सिर्फ हवा में उड़ रहे हैं. इस हकीकत को समझने की आवश्यकता है. बावजूद इसके गांव की खसरा खतौनी में आज भी एक स्थापित नारा चलता है- ”बंदा रुपया चांदी का..सारा देश गांधी का”. ऐसे में फिर से बचपन के उस नारे के हवाले से ही कहना पड़ रहा है कि, ”याच्याच नावाचा शेतसारा..अन पक्का सात-बाराचा उतारा.” डॉ. शिवदत्ता वावळकर एस.एन.डी.टी. कला और वाणिज्य महिला महाविद्यालय में प्राध्यापक हैं.

गांधीजी की चलती तो संविधान सभा नहीं पहुंच पाते डॉ. अम्बेडकर

यह आम धारणा है कि गांधी की कृपादृष्टि के कारण ही डॉ. अंबेडकर का संविधान सभा में प्रवेश सम्भव हो सका था. इतना ही नहीं यह भी प्रचारित है कि गांधी ने ही उन्हें स्वतंत्र भारत का पहला कानून मंत्री बनवाया था. इस धारणा को अधिकांश दलित बुद्धिजीवियों ने भी अपना रखा है बल्कि मैं तो यह कहना पसंद करूंगा कि लगभग सभी दलित इस धारणा के शिकार हैं क्योंकि इस धारणा के प्रतिवाद में किसी दलित द्वारा लिखा गया कोई भी लेख पढ़ने को तो नहीं मिला लेकिन पुष्टि में लिखा लेख जरुर पढ़ने को मिला. यह दुखद स्थिति है. गांधी का डॉ. अंबेडकर के प्रति वितृष्णा की सीमा तक विरोध जग-जाहिर है. गांधी जीवनपर्यन्त दलित-विरोधी वर्ण-व्यवस्था की पैरोकारी करते रहे. वह डॉ. अंबेडकर का विरोध ही इसीलिए करते थे क्योंकि वह वर्ण-व्यवस्था का सम्पूर्ण विनाश चाहते थे. गांधी की ज़िद्द डॉ. अंबेडकर के मिशन की राह में सबसे बड़ी बाधा थी. वर्ण-व्यवस्था को अक्षुण्ण रखने का सीधा तात्पर्य जातिगत श्रेष्ठता के वर्चस्व को बनाये रखना था. डॉ. अंबेडकर इसी वर्चस्व को समाप्त करना चाहते थे. गांधी के साथ पूरा हिन्दू समाज उनके जीवन में भी खड़ा था और आज भी खड़ा है. अंबेडकर के साथ पूरा दलित समुदाय उनके जीवन में भी नहीं था और आज भी नहीं है. यह दलित समुदाय की विडम्बना है. वे हिन्दुओं की मानसिक दासता की बेड़ी को काटना ही नहीं चाहते. उन्होंने गांधी की दलित-मसीहा की दुष्प्रचारित छवि को मान्यता दे रखी है. यह उनकी वैचारिक दरिद्रता का सबूत है. वे सवाल करने की, जिज्ञासा करने की, आलोचना व आत्मालोचना करने की ज़रूरत नहीं समझते, इसीलिये अपनी तर्क-शक्ति को कुंठित कर रखा है. दूसरी तरफ, हिन्दू बुद्धिजीवियों ने दलित-विरोधी गांधी को सुनियोजित ढ़ंग से महिमामंडित करने का अभियान चला रखा है. वे उनकी दलित-मसीहा की छवि गढ़ने में सफल भी हो रहे हैं. इस लेख का उद्देश्य इसी धूर्तता का पर्दा फ़ाश करके पाठकों और उनके माध्यम से जनसामान्य को वास्तविकता को बताना है. प्रायः सम्पूर्ण बौद्धिक जगत अब तक इस तथ्य से भिज्ञ हो चुका होगा कि गांधी के बाद महानतम भारतीय के चयन हेतु आउटलुक पत्रिका, सीएनएन-आईबीएन और टीवी चैनल 18 ने सम्मिलित रूप से एक सर्वेक्षण कराया था. इसमें डॉ. अंबेडकर महानतम भारतीय चुने गए थे. आउटलुक के उस अंक में पक्ष-विपक्ष में कई लेख थे. अंग्रेजी वाले अंक में सुधीन्द्र कुलकर्णी का भी “The Theology of Intolerance” शीर्षक से एक लेख था. इस लेख में गांधी का महिमामण्डन इस वाक्य के द्वारा किया गया हैः- It is a glowing tribute to the large-hearted and visionary leadership of Gandhiji that he prevailed upon Nehru and other senior Congress leaders to give an important responsibility to Ambedkar in drafting the Constitution and also to include him in independent India””””s first government as law minister. (page 58) इसे हिन्दी में इस प्रकार अनुवाद किया जा सकता है-’’यह विशाल-हृदय और स्वप्नदृष्टा गांधीजी का अनुपम उपहार है कि उन्होंने नेहरू तथा अन्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को राजी करके अंबेडकर को संविधान-निर्माण की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी तो दिलवायी ही, स्वतंत्र भारत की पहली सरकार में कानून मंत्री के रूप में शामिल भी करवाया.’’ उक्त लेख को पढ़कर मैंने ई-मेल के माध्यम से सुधीन्द्र कुलकर्णी को यह पत्र भेजकर उनसे उनके कथन के अभिलेखीय साक्ष्य की मांग की. पर अनुस्मारक देने के बाद भी सुधीन्द्र कुलकर्णी ने मेरे पत्र का उत्तर नहीं दिया. पत्रिका के उक्त अंक पर पाठकीय प्रतिक्रिया जानने के लिये जब मैने इन्टरनेट पर पता लगाने का प्रयास किया तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. कुलकर्णी के लेख के विरोध में अनेकानेक पाठकों ने पत्र लिखे थे. उन्हीं में से दो पत्रों का अनुवाद/भावानुवाद यहाँ उदधृत किया जा रहा है. पहला पत्र जो श्री संजीव भंडारकर ने मुम्बई से लिखा है, उसका आशय निम्नवत हैः- कुलकर्णी की विचारधारा का कोई भी नेता/विचारक गांधी के बाद महानतम भारतीय की चयन सूची के शीर्ष 1000 लोगों में भी अपना नाम नहीं दर्ज करा सका. इसी कुंठा और हताशा के कारण वह डॉ. अंबेडकर पर अपना विष वमन कर रहे हैं. कुलकर्णी को यह सोचकर अपने आंसू पोंछना चाहिये कि जब नेहरू, पटेल, मंगेशकर, तेंदुलकर जैसे दिग्गज कहीं के नहीं रहे तो गोलवरकरों/हेडगेवारों/सावरकरों आदि का क्या हश्र होता? डॉ. अंबेडकर को प्रारूप समिति (ड्राफ्टिंग कमेटी) का अध्यक्ष बनाने में गांधी/नेहरू/पटेल की भूमिका का प्रचार आधुनिक भारत के इतिहास का सबसे बड़ा झूठ है. पैट्रिक फ्रेंच ने अपनी पुस्तक में इस तथ्य को बहुत स्पष्टता से रेखांकित किया है कि 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन से लेकर भारत की आजादी तक महात्मा का एक सूत्री एजेण्डा यह सुनिश्चित करना था कि कांग्रेस और ब्रिटिश डॉ. अंबेडकर को नेपथ्य में ढकेलकर किसी भी तरह मुख्यधारा में प्रवेश न करने दें. मुझे ऐसे किसी दृष्टान्त अथवा प्रगति की जानकारी नहीं है जिससे यह पता चल सके कि आज़ादी से लेकर अपनी मौत तक डॉ. अंबेडकर के लिये महात्मा का हृदय परिवर्तित हुआ हो. दूसरा पत्र बेंगलुरु से नवीन ने लिखा था. इस पत्र के द्वारा उन्होंने बड़े विस्तार से संबंधित प्रकरण पर बिन्दुवार चर्चा करके झूठ का पर्दाफ़ाश किया है. इतना ही नहीं पत्र की समाप्ति में उन्होंने गांधी के पक्षकारों को उन्हें गलत साबित करने की चुनौती भी दी है. इसका भावानुवाद यहां दिया जा रहा हैः- “संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर के शामिल होने को हमेशा गांधी का उनके झूठे प्यार से जोड़कर प्रचारित किया जाता है. भारतीय जनता पार्टी के ब्राह्मणीय मानसिकता से ग्रस्त पूर्वाग्रही प्रवक्ता एवं राजनीतिक प्रचारक यह भी दुष्प्रचार करते रहते हैं कि डॉ. अंबेडकर प्रारूप समिति के मात्र अध्यक्ष थे. संविधान निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं है. इन झूठों को शायद यह भी पता नहीं है कि अध्यक्ष का मूलभूत दायित्व क्या होता है और वह इसका निर्वहन कैसे करता है. रामचन्द्र गुहा सरीखे कुछ स्वनामधन्य इतिहासकार डॉ. अंबेडकर को अपनाना तो चाहते हैं लेकिन बिना किसी साक्ष्य के इस पूर्वाग्रह का त्याग करने को तैयार नहीं हैं कि गांधी के कारण ही डॉ. अंबेडकर संविधान सभा में प्रवेश पा सके थे.” इसके बाद उनके द्वारा घटनाक्रमों को जिस प्रकार सूचीबद्ध किया गया है, वे इस प्रकार हैं:- 1. कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य उत्पन्न राजनीतिक गतिरोध को समाप्त करने में जब कैबिनेट मिशन को सफलता नहीं मिली तो जुलाई 1946 में ब्रिटिश भारत के अधीन प्रान्तीय विधान सभाओं के चुनाव कराये गये. इन विधान सभाओं द्वारा संविधान सभा के लिये 296 सदस्यों का चुनाव किया गया. इस संख्या का निर्धारण लगभग दस लाख की आबादी के पीछे एक सदस्य का अनुपात था. संविधान सभा की शेष सीटों को देसी राजे-रजवाड़ों के प्रतिनिधियों के नामांकन से भरा जाना था. 2. इस चुनाव में कांग्रेस और वामपंथियों ने गठजोड़ करके डॉ. अंबेडकर और उनके ’शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ को चुनाव में हरा दिया. सरदार पटेल के निर्देश पर प्रधानमंत्री बी.जी. खेर के नेतृत्व में कांग्रेस ने यह सुनिश्चित किया कि डॉ. अंबेडकर बाम्बे से चुनकर संविधान सभा में जाने न पायें. 3. लेकिन बंगाल के नामशूद्रों ने इस खतरे को भांप लिया और हमारे महान नेता महाप्राण जोगेन्द्र नाथ मंडल (मुकुन्द बिहारी मलिक के सहयोग से) जो जैसुर और खुलना (अविभाजित बंगाल) से नामित हुए थे, ने अपनी सीट से इस्तीफा देकर डॉ. अंबेडकर के लिये 296 सदस्यीय संविधान सभा में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया. 4. डॉ. अंबेडकर पांच स्थान्तरणीय मत (Transferable votes) पाकर अविभाजित बंगाल विधान सभा से विजयी हुए. (जीत के लिये न्यूनतम चार मतों की ज़रुरत थी) इसलिये यह कहा जाता है कि डॉ. अंबेडकर को वोट देने वालों में एंग्लो इंडियन सदस्य, कुछ निर्दलीय दलित और सम्भवतः मुस्लिम लीग के सदस्य थे. 5. ‘शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ के सदस्य के रूप में संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर एकमात्र दलित प्रतिनिधि थे. 6. डॉ. अंबेडकर का बंगाल से कोई विशेष सम्पर्क नहीं था फिर भी वह वहां से चुनाव लड़ने के लिये बाध्य हुए क्योंकि उन्हें उनके गृहप्रान्त से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला. 7. दलितों के अधिकारों और प्रतिनिधित्व को लेकर डॉ. अंबेडकर और कांग्रेस के बीच 1940 के पूरे दशक में तीखी झड़पें चलती रहीं. डॉ. अंबेडकर कांग्रेस के कटु एवं असमर्पणकारी आलोचक थे क्योंकि उनका मानना था कि इस पार्टी की अनेक नीतियां दलितों और आदिवासियों के हित में नहीं हैं. 8. इस वैमनस्य के बावजूद एक बार संविधान सभा में पहुंच जाने के बाद राष्ट्रीय घोषणा-पत्र तैयार करने के लिये डॉ. अंबेडकर ने कांग्रेसजनों के साथ मिलकर काम किया. संविधान सभा के लिये कांग्रेस से नामित अधिकांश सदस्यों का संविधान सम्बन्धी ज्ञान अत्यन्त सीमित था. कांग्रेस ने उनका चुनाव मात्र इसलिये किया था क्योंकि वे कांग्रेसी थे और पूर्व में जेल की सज़ा काट चुके थे. 9. डॉ. अंबेडकर का व्यावसायिक दृष्टिकोण, संविधान का उत्कृष्ट व विशद ज्ञान और एक अखंड व शक्तिशाली भारत को देखने की चाहत ने कांग्रेसी सहित अनेक सदस्यों को प्रभावित किया. इसके चलते काग्रेस और डॉ. अंबेडकर के बीच के रिश्ते थोड़ा बेहतर हुए. 10. लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेसियों के मन में उनके प्रति द्वेष-भावना बनी रही जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण पूर्वी बंगाल के विभाजन के समय देखने को मिला. 11. विभाजन के लिये तय नीति के अनुसार पाकिस्तान/पूर्वी बंगाल प्रान्त के जिस निर्वाचन क्षेत्र में मुसलमानों की आबादी 50 प्रतिशत से अधिक हो उसे पाकिस्तान/पूर्वी बंगाल को दिया जाना था. जैसुर और खुलना जिसका प्रतिनिधित्व डॉ. अंबेडकर कर रहे थे, में मुसलमानों की आबादी 48 प्रतिशत तथा हिन्दुओं/अधिसंख्यक दलितों की आबादी 52 प्रतिशत थी. विभाजन की नीति के अनुसार इसे भारत में रहना चाहिये था लेकिन कांग्रेस ने कुत्सित चाल चलकर इसे पूर्वी बंगाल को दे दिया, जिसके कारण तकनीकी रूप से डॉ. अंबेडकर पाकिस्तानी संविधान सभा के सदस्य बन गये. डॉ. अंबेडकर ने पूर्वी बंगाल की सीट से इस्तीफा दे दिया. उनका कहना था कि उनके अधिकतर लोग भारत में रहते हैं, इसलिये उनका पाकिस्तानी संविधान सभा में रहने का कोई मतलब नहीं है. जैसुर और खुलना को पूर्वी बंगाल को देने के बाद कांग्रेस मुस्लिम बहुल क्षेत्र मुर्शिदाबाद को इस थोथी दलील के आधार पर भारत में लेने के लिये अड़ गयी कि वह सम्पन्न है तथा यहां से होकर गंगा बहती है, जिससे भविष्य में सिंचाई परियोजनाओं के विकास में मदद मिलेगी. आज मुर्शिदाबाद पश्चिम बंगाल का हिस्सा है. 12. सवाल यह उठता है कि मुस्लिम बहुल मुर्शिदाबाद को लेकर और हिन्दू बहुल जैसुर व खुलना को देकर क्या हम समृद्धिशाली हो गये? 13. मुर्शिदाबाद कभी सिल्क का फलता-फूलता औद्योगिक केन्द्र हुआ करता था और नवाबों के शासन काल के अधीन अठारहवीं सदी में बंगाल की राजधानी था, लेकिन आज इस जिले में सम्पूर्ण भारत की तुलना में गरीबों की संख्या सब से अधिक है. भारत की ग्रामीण आबादी का लगभग 1.47 प्रतिशत भाग पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में आबाद है. जिले में लगभग तीस लाख लोग तथाकथित गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने को अभिशप्त हैं. यह इस जिले की ग्रामीण आबादी का 56 प्रतिशत है और पूरे देश में सब से अधिक है. जबकि खुलना, जिसे बंगला देश को दे दिया गया था, आज वहां का तीसरा सबसे बड़ा जिला और एक बड़े व्यावसायिक धुरी के रूप में स्थापित है. निश्चित रूप से भारत के लिये यह एक बुरा सौदा साबित हुआ. 14. डॉ. अंबेडकर ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता से मुलाकात करके उन्हें अपने प्रति किये गये अन्याय से अवगत कराया. ब्रिटिश सरकार ने इस मुद्दे को बहुत गम्भीरता से लिया क्योंकि यह विभाजन के लिए निर्धारित नीति का उल्लंघन था. ब्रिटिश सरकार ने नेहरू को सूचित किया कि या तो जैसुर और खुलना को भारत में रहने दिया जाय अथवा डॉ. अंबेडकर को विभाजित भारत के किसी अन्य स्थान से संविधान सभा में भेजने की व्यवस्था की जाय अन्यथा इस मुद्दे का हल निकालने में समय लग सकता है और इससे विभाजन की प्रक्रिया भी विलम्बित होगी. चूंकि यह मामला सीधे-सीधे मुस्लिम लीग के साथ तय किये गये विभाजन की नीति से धांधलेबाजी का था, कांग्रेस को यह भांपने में देर नहीं लगी कि पहले से ही खूनी हिंसा से ग्रस्त विभाजन की प्रक्रिया पर इससे और बुरा असर पड़ेगा. 15.कांग्रेस की योजना मावलंकर को संविधान सभा का अध्यक्ष बनाने की थी. मावलंकर संविधान सभा के सदस्य नहीं थे. कांग्रेस ने पुणे निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित सदस्य न्यायविद जयकर से इस्तीफा ले लिया ताकि मावलंकर को उनकी जगह संविधान सभा में भेजा जा सके. 16. लेकिन जैसुर और खुलना सहित वहां से निर्वाचित डॉ. अंबेडकर के साथ किये गये अन्याय को लेकर ब्रिटिश सरकार की गम्भीर चिन्ता और उससे विभाजन प्रक्रिया पर मुस्लिम लीग के साथ पैदा होने वाले खतरे का भान कांग्रेस को हो चुका था. 17. पाकिस्तान-विभाजन को लेकर कांग्रेस का अनुभव सुखद नहीं था. तमाम हाथ-पांव मारने के बाद भी उसे मुस्लिम लीग के सामने मुंह की खानी पड़ी थी और वह भारत-विभाजन को रोक नहीं पायी थी. इसलिये वह नहीं चाहती थी कि अनुसूचित जातियों/जनजातियों के पृथक प्रतिनिधित्व को लेकर उसके सामने ’पूना समझौता’ के पूर्व की स्थिति पुनः उत्पन्न हो जाये. डॉ. अंबेडकर जैसे शक्तिशाली आलोचक का सामना करना उसके लिये आसान नहीं था. इस समस्या के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिये डॉ. अंबेडकर को किसी निर्णायक प्रक्रिया से जोड़ना अपरिहार्य हो गया था. 18. कांग्रेस के अन्दर कुछ ऐसे सदस्य थे जो संविधान सभा के 1946 के कार्यकाल में डॉ. अंबेडकर के साथ काम कर चुके थे और उनके व्यावसायिक दृष्टिकोण, संविधान पर उनके गहरे और विस्मयकारी ज्ञान से चमत्कृत थे और संविधान-निर्माण में उनके साथ काम करना मनोनुकूल समझते थे. ऐसे में जब कांग्रेस किसी संविधान-विशेषज्ञ के लिये दूसरे देशों की तरफ देख रही थी, डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘स्टेट्स एण्ड माइनारिटीजः व्हाट आर देयर राइट्स ऐण्ड हाउ टू सिक्योर देम इन द कांस्टीट्युशन ऑफ फ्री इंडिया’ की रचना भारत के संयुक्त गणराज्य के संविधान के रूप में की थी. इसे वह संविधान सभा को उपलब्ध कराना चाहते थे लेकिन इसके पूर्व ही यह पुस्तक की शक्ल से सभी कांग्रेस सदस्यों के पास पहुंच चुकी थी. उन्होंने डॉ. अंबेडकर के काम की सराहना की और उनके उत्कृष्ट ज्ञान के कायल हो गये. हमारे संविधान की बुनियाद में आज यही पुस्तक है. दूसरी तरफ संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर की अपरिहार्यता और एक अत्यन्त उपयोगी सदस्य के रूप में उनकी आवश्यकता को सभी समझने लगे थे. उनको अहसास हो चुका था कि डॉ. अंबेडकर के ज्ञान का लाभ प्राप्त किये बिना संविधान निर्माण का काम आगे नहीं बढ़ सकता. भारत स्वतंत्र तो हो सकता है लेकिन गणतंत्र नहीं बन सकता. ऐसी स्थिति में 30 जून 1947 को राजेन्द्र प्रसाद ने बाम्बे के प्रधानमंत्री बी.जी. खेर को पत्र लिखकर संविधान सभा के लिये डॉ. अंबेडकर का चुनाव सुनिश्चित करने का निर्देश दिया. इस पत्र के द्वारा प्रसाद ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि संविधान पर उत्कृष्ट ज्ञान के कारण यह सुनिश्चित करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर की सदस्यता को बनाये रखा जाय. सम्बन्धित पत्र इस प्रकार है- ‘अन्य बातों के अलावा हमने यह (भी) अनुभव किया है कि संविधान सभा और विभिन्न समितियों जिनमें उन्हें नियुक्त किया गया, दोनों जगह डॉ. अंबेडकर के काम का स्तर इतने उच्च कोटि का रहा है कि हम उनकी सेवाओं से स्वयं को वंचित नहीं कर सकते. जैसा कि आपको पता है वह बंगाल से चुने गये थे और उस प्रान्त के विभाजन के कारण अब वह संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे. मेरी प्रबल इच्छा है कि वह संविधान सभा के अगले सत्र जो 14 जुलाई से शुरू होने जा रहा है, की कार्यवाही में हिस्सा लें.’ राजेन्द्र प्रसाद के अतिरिक्त सरदार पटेल जिन्होंने 1946 में बाबासाहेब के प्रवेश को अवरुद्ध किया था, ने भी बहुत गम्भीरता से यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि बाबासाहेब अंबेडकर संविधान सभा में बने रहें. उसी दिन जिस दिन प्रसाद ने खेर को पत्र लिखा था, पटेल ने खेर से टेलीफोन पर बात करके डॉ. अंबेडकर का चुनाव सुनिश्चित करने के लिये शीघ्र कार्यवाही करने को कहा था. दूसरे दिन पटेल ने मावलंकर से यह कहकर उन्हें सांत्वना देने का प्रयास किया कि डॉ. अंबेडकर के चुनाव पर जल्द से जल्द कार्यवाही किये जाने की ज़रूरत थी और चूंकि एक ही सीट रिक्त थी इसलिये आपका चुनाव नहीं हो सका. पटेल ने मावलंकर को बताया कि यहां (संविधान सभा में) सभी लोगों का यह मानना है कि डॉ. अंबेडकर का रवैया बदल गया है और वह समिति के एक उपयोगी सदस्य रहे हैं. उन्होंने मावलंकर को समझाया कि उनके चुनाव की कोई बहुत जल्दी नहीं है और वादा किया कि अति शीघ्र एक सीट खाली होने वाली है और कांग्रेस इस पर उनके चुनाव की व्यवस्था करेगी. पटेल ने 3 जुलाई 1947 को मावलंकर को पत्र लिखकर अपने पूर्व कथन की पुष्टि करते हुए कहा- ‘हर व्यक्ति अंबेडकर को चाहता है.’ इस प्रकार कांग्रेस और अंबेडकर के बीच चल रही सन्धि-प्रक्रिया उस समय पूर्णता को प्राप्त हुई जब अंबेडकर सदस्य के रूप में संविधान सभा में लौटे और उनका जोरदार स्वागत हुआ. लेकिन यह विचार सर्वस्वीकृत नहीं है कि डॉ. अंबेडकर के संविधान सभा में प्रवेश के पीछे गांधी की कोई भूमिका नहीं है. माउण्टबेटन ने बिना मांगे ही नेहरू को मंत्रिमण्डल गठन के लिये मंत्रियों की सूची के कई विकल्प दिये थे. इन्हीं में से किसी एक सूची में डॉ. अंबेडकर का नाम सुखद आश्चर्य की तरह हो सकता है. लेकिन उन्होंने यह कहीं नहीं प्रकट किया कि किसकी सम्मति से अंबेडकर को कैबिनेट स्तर का मंत्रिपद दिया गया. (इसका स्पष्ट कारण यही हो सकता कि चूंकि जैसुर-खुलना को लेकर कांग्रेस द्वारा विभाजन-नीति की धज्जी उड़ाये जाने पर ब्रिटिश सरकार द्वारा गम्भीर चिन्ता व्यक्त की गयी थी और इसलिए उसे पता था कि अंबेडकर का नाम प्रकट होने पर वह कड़ा विरोध करेगी.) वैलेरियन रोड्रिग्ज ने अपनी पुस्तक ‘द एसेंशियल राइटिंग्स ऑफ बी.आर. अंबेडकर’ की भूमिका में इस विषय पर चर्चा करते हुए कहा है कि डॉ. अंबेडकर के प्रति गांधी की सदाशयी भूमिका की अभी तक कोई पुष्टि नहीं हुई है. धनंजय कीर का विश्वास है कि सरदार पटेल, एस.के. पाटिल, आचार्य डोंडे और नेहरू के सामूहिक प्रयास से डॉ. अंबेडकर मंत्रिमंडल में लिये गये थे. नेहरू द्वारा गांधी के सामने सूची प्रस्तुत करने पर उन्होंने उसका औपचारिक अनुमोदन भर किया था. इस औपचारिक अनुमोदन का आधार अंबेडकर के प्रति प्रेम न होकर यह रणनीति थी कि गन्ने के रस की तरह चूस कर उन्हें खुज्जी की तरह फेंक दिया जाये जैसा कि 1952 और 1954 के लोकसभा चुनावों में उनके साथ किया गया. 29 अगस्त 1947 को संविधान निर्माण के लिये एक समिति का गठन किया गया और डॉ. अंबेडकर को इसका अध्यक्ष चुना गया. इस समिति के एक सदस्य टी.टी. कृष्णामचारी का यह कथन ध्यान देने योग्य है- ‘यद्यपि प्रारूप समिति में सात सदस्य थे, (लेकिन) एक ने इस्तीफा दे दिया उसकी जगह दूसरा नामित हो गया. एक सरकारी कामों में अत्यधिक व्यस्त रहता था. बीमारी के कारण दो सदस्य दिल्ली से बहुत दूर (बाहर) रहते थे. परिणामस्वरूप डॉ. अंबेडकर को संविधान-निर्माण के बोझ को अकेले ही उठाना पड़ा. उन्होंने जो कार्य किया वह प्रशंसनीय है.’ विधि मंत्री के रूप में डॉ. अंबेडकर ने 4 नवम्बर 1948 को संविधान सभा के समक्ष संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया. गांधी और डॉ. अंबेडकर के राजनीतिक और सामाजिक दर्शन समान नहीं थे, दोनों कभी भी एक दूसरे के विचारों से सहमत नहीं हो सके. गांधी और कांग्रेस ने कभी भी डॉ. अंबेडकर के प्रति प्रेम का प्रदर्शन नहीं किया जिसकी पुष्टि संविधान निर्माण के बाद की एक घटना से होती है. 1952 में डॉ. अंबेडकर ने उत्तरी मुम्बई की लोक सभा सीट से चुनाव लड़ा था और अपने पूर्व सहायक एन.एस. काजोलकर से हार गये थे. कांग्रेस ने दलील दी कि डॉ. अंबेडकर सोशलिस्ट पार्टी के साथ थे, जिसने उन्हें धोखा दिया जबकि वास्तविकता यह थी कि हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर इस्तीफा देकर डॉ. अंबेडकर ने 1952 का लोकसभा का चुनाव लड़ा था और कांग्रेस ने उपजाति का कार्ड खेलकर उनके पूर्व सहायक एन.एस. काजोलकर को उनके खिलाफ खड़ा करके उन्हें चुनाव हरवा दिया.’ यह मामला यहीं पर नहीं रुका. बाद में कांग्रेस के समर्थन के बिना डॉ. अंबेडकर राज्य सभा के लिये चुन लिये गये. दुबारा 1954 में भंडारा सीट से लोक सभा का उपचुनाव लड़े और कांग्रेस ने उन्हें फिर हरवा दिया. निष्कर्ष डॉ. अंबेडकर के प्रति कांग्रेस और गांधी के तथाकथित प्रेम के खंडन के प्रमुख बिन्दु. गांधी क्या कर रहे थे जब … (1) 1946 में कांग्रेस ने संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर का प्रवेश बाधित कर दिया था. यदि गांधी के मन में डॉ. अंबेडकर से संविधान तैयार करवाने की योजना होती तो उन्हें इतने घटिया तरीके से न हरवाया जाता. संविधान तैयार करने का काम कोई बच्चों का खेल नहीं था और कांग्रेस/गांधी के पास निर्विवाद रूप से इतनी समझ तो थी ही कि जिस गुरुतर दायित्व को साकार करने के लिए 1946 में संविधान सभा का गठन किया गया था उसके लिये एक सुयोग्य, सक्षम तथा दक्ष व्यक्ति की आवश्यकता थी. फिर किसलिये कांग्रेस ने 1946 में बाबासाहेब का प्रवेश बाधित किया? (2) जब डॉ. अंबेडकर योगेन्द्रनाथ मंडल और बंगाली नामशूद्र की मदद से संविधान सभा में पहुंच गये, तो गांधी/कांग्रेस ने उनकी सदस्यता को फिर से बाधित करने के लिये गंदा खेल खेला. आजादी के बाद विभाजन-नीति का मखौल उड़ाते हुए बाबासाहेब के प्रतिनिधित्व वाले जैसुर और खुलना को पूर्वी बंगाल को दे दिया और उसके बदले मुर्शिदाबाद को ले लिया जो आज सम्पूर्ण भारत में सबसे गरीब जिला है. क्या गांधी जैसुर और खुलना को जो आज बंगला देश की व्यावसायिक धुरी है, उसे इसलिये देने को तैयार हो गये थे ताकि बाबासाहेब संविधान सभा में प्रवेश करने से वंचित हो जायें? क्या देश महत्वपूर्ण था अथवा दलितों को प्रतिनिधित्व से वंचित रखने का पूर्वाग्रह, जैसा कि 1932 में पूना समझौते के समय किया गया गया था? (3) यदि विभाजन-नीति का विधिसम्मत पालन करते हुए 50 प्रतिशत से अधिक हिन्दू आबादी वाले जैसुर-खुलना क्षेत्र जिनका प्रतिनिधित्व डॉ. अंबेडकर कर रहे थे, को भारत में शामिल कर लिया जाता तो आजादी के बाद कम्युनिस्ट शासित बंगाल में कराये गये लाखों नामशूद्रों का नरसंहार रोका जा सकता था. (4) आज़ादी के मात्र दो महीने पहले जून 1947 में न्यायविद जयकर का पुणे निर्वाचन क्षेत्र में इस्तीफा लेकर मावलंकर को संविधान सभा का अध्यक्ष बनाने की कांग्रेसी योजना न होती. (5) कांग्रेस/गांधी की योजना के अनुसार संविधान सभा का अध्यक्ष मावलंकर होते, चाहे कांग्रेस लॉबी का कोई अन्य सदस्य चाहे कोई विदेशी विशेषज्ञ, लेकिन इतना तय है कि 2 जून 1947 तक इस पद के लिए कांग्रेसी/गांधी की सूची में डॉ. अंबेडकर के नाम का कहीं कोई अता-पता नहीं था. तथ्य (1) कांग्रेस संविधान-निर्माण के लिए किसी विदेशी विशेषज्ञ की तलाश में थी और इसके उच्चजातीय चमचे मनु का संविधान लागू करवाना चाहते थे इसलिये संविधान सभा को नेतृत्व प्रदान करने के लिए वे कभी डॉ. अंबेडकर को पसंद कर ही नहीं सकते थे. डॉ. अंबेडकर ने देश को उत्कृष्ट संविधान दिया लेकिन हमेशा की तरह अनुसूचित जाति/जनजाति को भरमाने के लिए गांधी को उनका मसीहा बताया जा रहा है. इसे कुत्सित सौदेबाजी से प्रेरित राजनीति के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? (2)कांग्रेस ने डॉ. अंबेडकर के प्रति अपने वास्तविक प्रेम का प्रदर्शन 1952 और 1954 के लोक सभा चुनाव में किया था, जब उपजाति का राजनैतिक खेल खेलकर डॉ. अंबेडकर को हरवा दिया था. यदि कांग्रेस के मन में उनके लिए प्रेम था तो उनके विरुद्ध ऐसी चाल क्यों चली गयी? स्पष्ट है कि कांग्रेस का डॉ. अंबेडकर के प्रति कभी कोई लगाव नहीं था. उसने केवल डॉ. अंबेडकर के उत्कृष्ट ज्ञान का प्रयोग संविधान निर्माण में किया था. यह इस बात से भी पुष्ट होता है कि उन्हें 1990 के पहले तक भारत रत्न से सम्मानित भी नहीं किया गया था. (3) यदि किसी व्यक्ति ने डॉ. अंबेडकर की सहायता की थी तो वह महाप्राण जोगेन्द्र नाथ मण्डल और बंगाल के नामशूद्र थे. जिन्होंने जैसुर-खुलना सीट से इस्तीफा देकर डॉ. अंबेडकर का संविधान सभा में प्रवेश सुनिश्चित किया था. उनके इस बलिदान का बदला स्वतंत्र भारत में ब्राह्मणीय और कम्युनिस्ट व्यवस्था में शासित प्रदेश बंगाल में लाखों नामशूद्रों का नरसंहार करके लिया गया. हमको इतिहास के पृष्ठ में गुम इस महान नेता के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए. संपर्क- 9415303512, E-mail: smoolchand12@gmail.com

दलित सम्मान संघर्ष मंच करेगा रामलीला मैदान में महासंग्राम रैली, राजनीतिक दलों में हलचल

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नई दिल्ली। दलितों के संवैधानिक अधिकार दलित राजनीति का वैकल्पिक मंच तेजी से अपनी सक्रियता बढ़ा रहा है. दलित सम्मान संघर्ष मंच के अशोक भारती की अगुआई में कई राज्यों के दलित तेजी से एकजुट हो रहे हैं. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर और गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवानी के साथ पिछले काफी समय से गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के तमाम हिस्सों दलित चेतना पैदा करने का प्रयास जारी है. इसी क्रम में संगठन 27 नवंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में अपनी ताकत दिखाने की तैयारी कर रहा है और इस मंच पर कांग्रेस समेत कई दलों की निगाहें हैं. दलित सम्मान संघर्ष मंच के तहत होने वाली इस महासंग्राम रैली का मुख्य मकसद दलितों को उन्हें प्राप्त संवैधानिक अधिकारों की जानकारी देना तथा उसकी रक्षा में आवाज उठाना है. इसी मंच ने हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या मामले को भी राष्ट्रीय स्तर पर फैलाया था. संगठन ने पिछले डेढ़ साल से जमीनी पहल को काफी तेज कर दिया है. इसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न समाज में समितियों के निर्माण, दलितों की एकता तथा जमीनी कॉडर विकसित करने पर है. यूपी में गोरखपुर, वाराणसी, फैजाबाद, इलाहाबाद, लखनऊ, कानपुर, आगरा, मेरठ, सहारनपुर, बरेली, मुरादाबाद, गाजियाबाद समेत अन्य मंडलों में काफी सक्रिय है. दिल्ली समेत कई राज्यों में दलित सम्मान संघर्ष मंच ने तेजी से अपनी जमीन तैयार की है. बतौर अशोक भारती उनके संगठन से जुडऩे के लिए कांग्रेस, भाजपा, सीपीआई, भाकपा समेत कई दलों के नेता संपर्क साध चुके हैं. हालांकि अशोक भारती दलित सम्मान संघर्ष मंच के बारे में काफी कुछ बताने से परहेज करते हैं. इस बारे में पूछने पर वह केवल इतना बताते हैं कि 27 नवंबर को देश के लगभग सभी राज्यों से दलित रामलीला मैदान में एकत्र होंगे और महासंग्राम रैली के माध्यम से दलितों पर हो रहे अत्याचार, उनके संवैधानिक अधिकारों के हनन के विरुद्ध आवाज उठाई जाएगी. महासंग्राम रैली में पंजाब से अनुसूचित जाति, जनजाति यूनियन के अमृत सिंह बंगड़, प्रेम पाल डिमेली, हरियाणा से बाल्मिकी समाज के प्रमुख राकेश बहादुर, ब्रह्म प्रकाश, अंबेडकर महासभा लालजी निर्मल, उत्तर प्रदेश के आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति के आरपी सिंह, अंबेडकर विश्वविद्यालय से लखनऊ से निकाले गए छात्र श्रेयत बौद्ध समेत तमाम लोग शामिल होने की उम्मीद है.

मीडिया में जातिवाद की कहानी कह रही है यह लिस्ट

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आरक्षण को लेकर बहस के बीच इसका विरोधी पक्ष अक्सर गैर आरक्षित क्षेत्रों में दलितों-बहुजनों की गैरहाजिरी की ओर से आंखे मूंदे रहता है. मीडिया एक ऐसा ही क्षेत्र है, जहां 90 फीसदी से ज्यादा तथाकथित द्विज समुदाय यानि सवर्णों का कब्जा है. जब हम मीडिया में दलितों की भागेदारी की बात करते हैं तो इस पहलू पर हुए शोध बताते हैं कि यह आंकड़ा एक प्रतिशत भी नहीं है. हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा जारी एक सूची इस तथ्य की पुष्टी कर रही है. असल में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा सितंबर में पत्रकार दीर्घा सलाहकार समिति का गठन किया गया है. इस सूची में 18 पत्रकारों के नाम शामिल हैं, लेकिन जब आप इस सूची में शामिल नामों पर ध्यान देंगे तो आपको मीडिया में फैले जातिवाद का भयावह चेहरा दिख जाएगा. नामों से स्पष्ट हो रहा है कि इस सूची में शामिल तकरीबन सभी सदस्य सवर्ण समाज के हैं. दलित-बहुजन समाज के किसी भी पत्रकार का नाम इस समिति में नहीं दिख रहा है. आश्चर्यजनक तो यह है कि इस सूची में एक भी मुस्लिम पत्रकार का नाम शामिल नहीं है, जबकि भोपाल शहर में मुस्लिम समाज की आबादी 26.28 प्रतिशत हैं. जबकि प्रदेश में दलित, आदिवासी और पिछड़ा समाज भी बड़ी संख्या में है. इस सूची को मध्य प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष द्वारा वर्ष 2016-17 के लिए जारी किया गया है. हालांकि वहां के स्थानीय मीडिया में इस सूची को लेकर सुगबुगाहट भी तेज हो गई है. कई लोग इसको लेकर सवाल भी उठा रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार अनिल सरवईया ने ‘दलित दस्तक’ से बात करते हुए कहा कि ऐसी कमेटियों में जानबूझ कर एक खास वर्ग के लोगों को ही जगह दी जाती है. भोपाल में मुख्यधारा की मीडिया में आधे दर्जन से ज्यादा मुस्लिम पत्रकार हैं जो बड़े अखबारों में कार्यरत हैं और कई लोग ब्यूरो में भी सक्रिय हैं, जबकि दलित समाज के भी 5-6 पत्रकार हैं, लेकिन जब इस तरह की कमेटी बनती है तो दलित-मुस्लिम समाज के पत्रकारों को शामिल नहीं किया जाता. सवाल यह है कि गैर आरक्षित क्षेत्रों में दलितों-बहुजनों की अनदेखी की क्या वजह है?​

शूद्र ने किया देवी झांकी के चंदे से इंकार

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एक बार भंते सुमेधानंद जी एक शूद्र के घर पर बैठे हुए थे, उसी समय कुछ ब्राह्मणी लोग देवी की झांकी के लिये चंदा माँगने उस शूद्र के घर पर आये. उस शूद्र ने चंदा देने से इंकार कर दिया तो वे लोग बड़बडाने लगे कि ऐसे ही नास्तिक लोगों के कारण हिन्दू धर्म बर्वाद हो रहा है. तब भंते जी ने उस ब्राह्मण को अपने सामने बैठा कर इस प्रकार वार्तालाप की. श्रमण – हे ब्राह्मण ! आप देवी की झांकी क्यों लगाते हैं? ब्राह्मण – हे भंते ! देवी माँ हमारी आराध्य हैं. श्रमण – हे ब्राह्मण ! देवी आपकी पूज्यनीय क्यों है? ब्राह्मण – हे भंते ! देवी माँ ने राक्षस महिषासुर की हत्या करके हमारी रक्षा की. श्रमण – हे ब्राह्मण ! महिषासुर कौन थे? ब्राह्मण – हे भंते ! महिषासुर एक राक्षस थे. श्रमण – हे ब्राह्मण ! महिषासुर भारतीय लोगों के रक्षक थे, जो आपके अत्याचारों से भारतीय लोगों की रक्षा करते थे. जबकि आपकी देवी द्वारा भारतीय लोगों को गुलाम बनाने के लिए भारतीय रक्षक राजाओं की हत्या की गई थी. ब्राह्मण – हे भंते ! देवी माँ भारतीय लोगों की दुश्मन कैसे हो सकती हैं? श्रमण – हे ब्राह्मण ! आपके शास्त्रों , पुराणों और भगवानों द्वारा तेली, कुम्हार, भील, ग्वाल, नट, चमार, कायस्थ, सोनी, लुहार, नाई, बढ़ई, धोबी, चांडाल, भंगी, कल्हार, कोरी इत्यादि शूद्र लोगों को नीच और अधर्मी बताया है. क्या आपकी देवी ने इस भेदभाव के विरुद्ध कभी कोई संघर्ष किया? ब्राह्मण – नहीं भंते । श्रमण – हे ब्राह्मण ! ब्राह्मणी लोगों द्वारा शूद्रों और अछूतों को दी जाने वाली शारीरिक और मानसिक यातनाओं के विरुद्ध आपकी देवी ने कभी कोई लड़ाई लड़ी? ब्राह्मण – नही भंते. श्रमण – हे ब्राह्मण ! आपके भगवानों और देवी-देवताओं द्वारा शूद्रों के अधिकारों पर लगाये गए प्रतिबंधों को हटाने के लिए आपकी देवी ने कभी कोई संघर्ष किया? ब्राह्मण – नहीं भंते. श्रमण – हे ब्राह्मण ! कमजोर, लाचार, असहाय, बेसहारा और अनपढ़ शूद्रों और अछूतों के विकास और अधिकारों के लिए आपकी देवी ने कभी कोई संघर्ष किया? ब्राह्मण – नहीं भंते. श्रमण – हे ब्राह्मण ! ब्राह्मणी लोगों द्वारा शूद्रों और अछूतों के साथ किये गए अत्याचार, अन्याय, शोषण और जुल्म के विरुद्ध आपकी देवी ने कभी कोई आंदोलन छेड़ा? ब्राह्मण – नहीं भंते. श्रमण – हे ब्राह्मण ! शूद्रों द्वारा तीनों ब्राह्मणी वर्णों की बर्बरता पूर्ण सेवा और अछूतों की बेगार के विरुद्ध आपकी देवी ने कभी कोई आंदोलन छेड़ा? ब्राह्मण – नहीं भंते. श्रमण – हे ब्राह्मण ! भारतीय लोगों की समता, ममता और मानवता के लिए आपकी देवी ने कभी कोई संघर्ष किया? ब्राह्मण – नहीं भंते. श्रमण – हे ब्राह्मण ! सती प्रथा, बच्ची भ्रूण हत्या, देवदासी प्रथा, जाति प्रथा, छूत प्रथा, विधवा प्रथा, अनपढ़ प्रथा, मैला ढोने की प्रथा और शूद्र बलि प्रथा के उन्मूलन के लिए आपकी देवी ने कभी कोई संघर्ष किया? ब्राह्मण – नहीं भंते. श्रमण – हे ब्राह्मण ! ब्राह्मणी लोगों द्वारा अछूतों को कुर्सी और घोड़े पर नहीं बैठने देने, कुँए से पानी नहीं भरने देने, सार्वजनिक स्थानों पर पानी नही पीने देने, मंदिरों का पुजारी नहीं बनने देने के विरुद्ध आपकी देवी ने कभी कोई आंदोलन किया? ब्राह्मण – नहीं भंते. श्रमण – हे ब्राह्मण ! शूद्रों के विकास के लिए, प्यास से मरते अछूतों के लिए, मंदिरों में शूद्र और अछूतों के प्रवेश के लिए, सभी भारतीयों को एक साथ मिलजुल कर रहने के लिऐ, शूद्रों और अछूतों को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने के लिए और निर्दोष शूद्रों और अछूतों को कठोर दण्ड से छुटकारा दिलाने के लिए आपकी देवी ने कभी कोई संघर्ष किया? ब्राह्मण – नहीं भंते. श्रमण – हे ब्राह्मण ! सभी भारतीयों में परस्पर रोटी-बेटी के सम्बंध बनाने के लिए आपकी देवी ने कभी कोई संघर्ष किया? ब्राह्मण – नहीं भंते. श्रमण – हे ब्राह्मण ! आजादी से पूर्व आपकी देवी माँ का राज्य था और आप लोग अपनी देवी माँ के राज्य में भीख और पाखण्ड से अपना पेट पालन करते थे. देश की आजादी के बाद आपका उद्धार देवी माँ ने किया या बाबा साहेब अम्बेडकर ने? ब्राह्मण – हे भंते ! आपने सत्य कहा है, देश की आजादी से पूर्व हमारे पुरखे भीख और पाखण्ड से ही पेट भरते थे. बाबा साहेब ने ही हमें भिखारी से राजा बनाया है. श्रमण – हे ब्राह्मण ! आपको झांकी बाबा साहेब की लगानी चाहिए या आपसे भीख मंगवाने वाली देवी की? ब्राह्मण – हे भंते ! बाबा साहेब अम्बेडकर की लगानी चाहिए. श्रमण – हे ब्राह्मण ! देवी की झांकी के लिए आपको और भारतीय शूद्रों को चंदा देना चाहिए? ब्राह्मण – हे भंते ! नहीं देना चाहिये. श्रमण – हे ब्राह्मण ! आपका धन्य हो. ब्राह्मण – हे भंते ! आपने मुझे अंधकार से उबार दिया, आज से ही मैं इस अंधे मार्ग को और भारतीयों को अपमानित करने वाले इस धर्म को त्यागता हूँ और आपके समता, ममता और मानवता के सम्यक मार्ग को ग्रहण करता हूँ. श्रमण – हे बुद्धिमान ब्राह्मण ! आपका मंगल हो, कल्याण हो.

रोहित वेमुला के साथी ने किया कुलपति अप्पाराव से पीएचडी डिग्री लेने से इंकार

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हैदराबाद। हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक छात्र ने कुलपति अप्पा राव से पीएचडी की डिग्री लेने से मना कर दिया. इस छात्र को रोहित वेमुला के साथ विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया था. विरोध जताने के तौर पर छात्र ने अप्पाराव के हाथ से डिग्री नहीं ली. दरअसल, विश्वविद्यालय के 18वें दिक्षांत समारोह में छात्र वी. सुंकन्ना ने डॉक्टरेट की डिग्री लेने से इंकार कर दिया. सुंकन्ना ने कहा कि मैंने पहले ऐसा कोई प्लान नही बनाया था. मैंने सोचा था कि चीफ गेस्ट हमें डिग्री देंगे. जब मैं सामारोह में गया और देखा कि अप्पा राव डिग्री दे रहें, तब मैंने निर्णय किया कि मैं अप्पाराव के हाथ से डिग्री नहीं लूंगा. संकन्ना मंच पर गए और समारोह में उपस्थित सभी लोगों के सामने डिग्री लेने से मना कर दिया. संकन्ना कहा कि जब में मंच पर गया, मैंने उनसे कहा कि मैं आपके अलावा किसी अन्य व्यक्ति से डिग्री ले लूंगा लेकिन आपसे नहीं लूंगा. अप्पाराव ने मुझे बोला की अभी डिग्री ले लो और हम इस पर बाद में चर्चा करेंगे, लेकिन मैंने नहीं लिया. मंच पर इस विरोध के बाद कुलपति सुंकन्ना की मांग पर सहमत हो गए और प्रो- वाइस चांसलर विपिन श्रीवास्तव ने सुंकन्ना को डिग्री दी. सुंकन्ना का हाल ही में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस में प्रोफेसर के तौर ज्वाइंनिंग हुआ है. गौरतलब है कि रोहित वेमुला आत्महत्या मामले में अप्पाराव को जनवरी में फोर्स्ड लीव पर भेजा गया और उनपर एस/एसटी( प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटी) एक्ट के अंतर्गत मामला दर्ज हुआ है.

‘बहनजी’ की हुंकार, बसपा तैयार

आगरा स्थित जिस ऐतिहासिक कोठी मीना बाजार मैदान में तकरीबन 50 वर्ष पूर्व बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अपने ऐतिहासिक भाषण में लोगों को अपनी आत्मनिर्भर राजनीति की ओर चेतना से आगे बढ़ने का संदेश दिया था. उसी ऐतिहासिक मैदान से 21 अगस्त को बसपा प्रमुख एवं राज्यसभा की सदस्य तथा चार बार की उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने यूपी चुनाव के लिए हुंकार भर दी है. 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए दलितों, पिछड़ों एवं मुस्लिम अल्पसंख्यकों तथा अपर कास्ट के निर्बल वर्गों का आवाहन करते हुए उन्होंने यह समझाया कि कौन सा दल उनके हक एवं हुकूक के लिए सबसे अधिक प्रतिबद्ध है. बसपा सुप्रीमों ने सिंहनी की तरह दहारते हुए विपक्षियों पर चुन-चुन कर हमला बोला. उन्होंने हुंकार भरी कि भाजपा एवं कांग्रेस प्रदेश का भला नहीं कर सकते, क्योंकि ये पूंजीपतियों एवं धन्ना सेठों को मदद करने वाली पार्टियां हैं. दूसरी ओर उन्होंने सपा पर हमला बोलते हुए कहा कि यह गुंडों. माफियाओं, अपराधियों, अराजक तत्वों एवं भू- माफियाओं आदि की पार्टी है. इसलिए यह पार्टी भी प्रदेश का भला नहीं कर सकती. अर्थात बसपा सुप्रीमों ने भाजपा, सपा एवं कांग्रेस तीनों को बेनकाब किया. रैली को लेकर बहुजन समाज पार्टी के समर्थकों के उत्साह ने विपक्ष की नींद उड़ा दी है. 11 बजे से निर्धारित रैली में ‘बहन जी’ 1 बजे पहुंचीं, लेकिन समर्थकों के आने का सिलसिला सुबह 7 बजे से ही शुरू हो गया था. बसपा प्रमुख के निर्धारित कार्यक्रम से एक घंटे पहले ही सारा मैदान नीले झंडों और बहुजन समाज के महापुरुषों के नारों से गूंज रहा था. इस रैली को लेकर बसपा ने भी दावा किया था कि यह रैली ऐतिहासिक रैली होगी और हुआ भी यही. रैली में पहुंचें लाखों समर्थकों ने जता दिया कि वो यूपी के रण में बसपा के सैनिक बनकर लड़ने को तैयार हैं. यह रैली आगरा और अलीगढ़ मंडल की संयुक्त रैली थी. रैली नहीं जनसैलाब रैली में पहुंची भीड़ को जनसैलाब कहा जा सकता है. रैली स्थल में बसपा समर्थकों के हुजूम का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रैली स्थल से चार किलोमीटर दूर तक समर्थकों का जाम लगा था. यहां तक की बसपा प्रमुख की रैली खत्म होने तक समर्थक आयोजन स्थल पर पहुंचते रहे. रैली में आने वाले लोगों का उत्साह देखते ही बनता था. उनके चेहरे पर एक अजीब सा उत्साह था. यह बसपा की उपलब्धि कही जाएगी कि जब लोग रैलियों में लोगों को लेकर आते हैं, बसपा समर्थक खुद स्वप्रेरणा से रैली में बसपा के प्रति अपना समर्थन जताने पहुंचे थे. रैली में पहुंची भीड़ किराय की भीड़ नहीं थी. लोग इंतजार करते हुए ऊब नहीं रहे थे. रैली में आए लोगों का ऐसा जोश कम ही दिखाई देता है. महिलाओं की भागेदारी रैली स्थल पर महिलाओं की संख्या भी देखने वाली थी. रैली स्थल में महिलाएं सुबह से ही आकर बैठ गई थीं. औऱ जैसे ही ‘बहन जी’ मंच पर अपने चिर-परिचित अंदाज में लोगों का अभिवादन कर रही थीं इन महिलाओं ने भी हाथ हिलाकर बहन जी को जवाब दिया. रैली में पूरे समय ये महिलाएं बहन जी के भाषण पर ताली बजाती रहीं, जैसे उनकी हां, में हां मिला रही हो. महिलाओं का इतनी बड़ी तादात में रैली में आना महिलाओं पर बसपा सुप्रीमों की पकड़ को बताता है. और यह प्रमाणित करता है कि आज भी मायावती का रिश्ता महिलाओं से बहुत गहरा है. रैली से डरे विपक्षी दल  बसपा की आगरा रैली से अन्य सभी राजनैतिक दल घबरा गए हैं. बसपा की रैली में पहुंचे समर्थकों की सुनामी ने विपक्षी दलों में बड़ी रैली करने का जोश ठंडा कर दिया है. जाहिर है कि विपक्षी दलों द्वारा बड़ी रैली आयोजित करने पर इसकी तुलना बसपा की रैली से होगी, जहां वह कहीं नहीं ठहरेंगे. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में चुनावी जुगत में लगे कांग्रेस और भाजपा जैसे राजनैतिक दलों द्वारा रोड शो का सहारा लेने की बात कह रहे हैं. वो सभी जानते हैं कि बसपा के समान लोगों की भीड़ वे चाहकर भी नहीं जुटा सकते. विपक्षी दल चाहे कैमरे से कितना भी खेल कर लें, कैमरा चाहे लांग शॉट दे चाहे 360 डिग्री पर लगा दिया जाए, उसके बावजूद भी वे बसपा की रैली में आए हुए समर्थकों का मुकाबला नहीं कर सकते. ऐसे में भाजपा, कांग्रेस और सपा के जनसमर्थन की वास्तविकता की पोल खुल जाएगी. इसलिए ऐसा लगता है कि आने वाले समय में बसपा को छोड़कर कोई भी राजनैतिक दल उत्तर प्रदेश में रैली करने का साहस नहीं करेगा. यह बसपा की सबसे बड़ी जीत है. अल्पसंख्यकों और दलितों पर अत्याचार को लेकर मायावती का हमला बसपा सुप्रीमों ने भाजपा पर दलितों एवं अल्पसंख्यक मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार को लेकर हमला बोला. उन्होंने कहा कि जब से भाजपा केंद्र की सत्ता में आई है, तब से मुस्लिम भाईयों पर हमले बढ़े हैं. उनके साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है तथा उनकी जान-माल की भी सुरक्षा नहीं की जा रही है. लव जेहाद, धर्म परिवर्तन, गोरक्षा, सांप्रदायिक संघर्ष आदि बहाने के जरिए अल्पसंख्यक समाज पर शोषण एवं उत्पीड़न बढ़ा है जो कि प्रजातांत्रिक राजनीति के लिए ठीक नहीं है. इसी कड़ी में बसपा सुप्रीमों ने भाजपा पर आरोप लगाया कि भाजपा शासित प्रदेशों में भी दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं. उन्होंने साफ-साफ रोहित वेमुला, गुजरात के उना में दलितों पर अत्याचार तथा उत्तर प्रदेश में उन्हीं पर भाजपा के तत्कालिन उपाध्यक्ष दयाशंकर द्वारा आपत्तिजनक टिप्पणी का जिक्र करते हुए कहा कि ये सारे तथ्य इसको प्रमाणित करते हैं. बसपा प्रमुख का यह आरोप पूरी तरह से सच भ है. हाल ही में राजस्थान में डेल्टा मेघवाल केस, हरियाणा में एक लड़की के साथ दो-दो बार गैंगरेप, मध्यप्रदेश में दलितों पर सबसे ज्यादा अत्याचार की घटनाएं, महाराष्ट्रा में बाईक पर बाबासाहेब का नाम लिखे होने पर एक दलित युवा से मारपीट की घटनाएं यह प्रमाणित करती है कि भाजपा शासित राज्य में दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं और वहां की सरकारें दलितों को न्याय दिलाने में कोई रुचि लेती नहीं दिखती है. इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री द्वारा दलितों के लिए जताई गई हमदर्दी पर चुटकी लेते हुए बसपा सुप्रीमों ने कहा कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को समझना चाहिए कि केवल बातों से बात नहीं बनेगी. उनको बातों से आगे भी संस्थाओं के स्तर पर दलितों को सामाजिक न्याय दिलाने की बात सोचनी चाहिए. आरक्षण को लेकर बसपा प्रमुख की चिंता दलितों को सामाजिक न्याय दिलाने की बात को आगे बढ़ाते हुए बसपा सुप्रीमो ने भाजपा की केंद्र सरकार द्वारा आरक्षण खत्म किए जाने की साजिश को लेकर चिंता जताई. उन्होंने भाजपा शासित केंद्र सरकार पर इल्जाम लगाया कि सरकार धीरे-धीरे आरक्षण खत्म कर रही है. नियुक्तियों में आरक्षित पद का कोई भी विज्ञापन नहीं आ रहा है. सरकार में नियुक्तियां संविदा पर हो रही हैं, जिससे धीरे-धीरे आरक्षण खत्म हो रहा है. इसका कुल तात्पर्य यही हुआ कि भाजपा सरकार आरक्षण खत्म करने में लगी है. यहां यह बताना जरूरी होगा कि भाजपा और संघ के छोटे नेता से लेकर बड़े नेता का आरक्षण के प्रति रवैया सकारात्मक नहीं रहा है. और गाहे-बगाहे वे आरक्षण विरोधी बयान जारी करते रहे हैं. साथ ही प्रोमोशन में आरक्षण पर भाजपा का लोकसभा में जो रवैया था, उसका भी संज्ञान लेना चाहिए. आज लोकसभा में भाजपा का बहुमत है और प्रोमोशन में आरक्षण का बिल लोकसभा में आसानी से पारित हो सकता है, लेकिन भाजपा कोई भी पहल नहीं कर रही है. इसका मतलब यह हुआ कि भाजपा भी समाजवादी पार्टी की तरह प्रोमोशन में आरक्षण के खिलाफ है. और अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनती है तो प्रोमोशन में आरक्षण कतई लागू नहीं हो सकता. अतः एक ओर दलितों एवं अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हुई अत्याचार की घटनाओं को न रोक पाना और दूसरी ओर आरक्षण को निष्प्रभावी बनाने को देखते हुए दलितों और अल्पसंख्यकों को 2017 के उत्तर प्रदेश के चुनाव में अपने मतों का प्रयोग करने से पहले इस स्थिति पर विचार करना होगा. भाजपा पर प्रहार, भागवत पर तंज बसपा सुप्रीमों ने भाजपा पर प्रहार करते हुए कहा कि अच्छे दिन नहीं आए हैं. उन्होंने कहा कि नरेन्द्र मोदी ने जो चुनावी वादे किए थे, वो लेस मात्र भी पूरे नहीं हुए हैं. विशेष कर उन्होंने भारत का काला धन विदेशों से लाने की बात कही थी, जिससे हर गरीब के बैंक अकाउंट में 15 लाख रुपये आ जाएंगे, लेकिन अभी तक एक रुपया भी नहीं आया है. यहां पर हमें सबका साथ सबका विकास के नारे की भी पड़ताल करनी चाहिए. बसपा सुप्रीमों ने आरोप लगाया कि किसानों की बदहाली दूर करने की बजाय भाजपा की केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण का ऐसा कानून लाना चाहती है जिससे की किसानों की जमीन सस्ते दाम पर अधिग्रहित की जा सके. दूसरी ओर बैंकों का घाटा एक लाख 14 हजार करोड़ का जिक्र करते हुए उन्होंने गरीब जनता को समझाने का प्रयास किया कि यह पैसा आखिर धन्नासेठों के पास नहीं गया तो कहां गया. उन्होंने आरोप लगाया कि अमीरों के कर्जे को तो माफ कर दिया जाता है, पर गरीब कर्ज न चुका पाने की वजह से जान दे रहे हैं औऱ सरकार उनका कर्ज माफ नहीं करती है. कुल मिलाकर बसपा सुप्रीमों रैली में आई हुई जनता को यह बताने का प्रयास कर रही थीं कि भाजपा पूंजिपतियों की पार्टी है. इसी के साथ-साथ बसपा सुप्रीमो ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत को भी आड़े हाथों लिया. उन्होंने संघ प्रमुख द्वारा जनसंख्या बढ़ाने के सुझाव पर तंज कसा. उन्होंने कहा कि संघ के मुखिया यदि हिन्दूओं को अपनी जनसंख्या बढ़ाने के लिए कह रहे हैं तो श्री नरेन्द्र मोदी को यह भी बताना चाहिए कि जनसंख्या बढ़ जाने पर क्या वह उनकी रोजी-रोटी का भी इंतजाम कर पाएंगे. अभी वैसे ही ये सरकार गरीबों को रोजी-रोटी नहीं दे पा रही है तो बढ़ी हुई जनसंख्या को कैसे संभालेगी. शायद बसपा सुप्रीमों यहां राष्ट्र नेत्री के रूप में जनसंख्या नियंत्रण के बारे में ज्यादा चिंतित दिखीं. सपा और भाजपा की मिली भगत पर प्रहार बसपा सुप्रीमों ने भाजपा और सपा पर मिली भगत का आरोप लगाया. इस तथ्य का साक्ष्य देते हुए बसपा सुप्रीमों ने बताया कि उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था एकदम चरमरा गई है. जिसके खिलाफ कभी-कभी भाजपा धरना प्रदर्शन भी करती है. यद्यपि केंद्र में उसकी सरकार है. फिर भी वह उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने की बात नहीं करती. दूसरी ओर सपा के रहते हुए सैकड़ों की संख्या में संप्रदायिक संघर्ष उत्तर प्रदेश में हुए. भाजपा मुस्लिम पलायन की झूठी अफवाह फैलाती है. गोरक्षा के नाम पर गोरक्षक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न करते हैं. और उसके बाद भी सपा भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि हिन्दूवादी संगठनों पर कोई एक्शन नहीं लेती. जिससे कि उत्तर प्रदेश का सामाजिक माहौल खराब होने की हमेशा संभावना बनी रहती है. इससे अल्पसंख्यक समाज भी भयभीत बना रहता है. इस संदर्भ में हमें यह भी सोचना चाहिए कि यद्यपि भाजपा उत्तराखंड एवं अरुणाचल प्रदेश में जरा सी बात पर राष्ट्रपति शासन लागू करा सकती है लेकिन उत्तर प्रदेश में भीषण दंगे होते हैं, गोमांस रखने के आरोप में एक व्यक्ति को मार दिया जाता है, उसके बाद मथुरा में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी (एसपी) समेत अन्य पुलिस वालों की हत्या कर दी गई, बावजूद इसके वह उत्तर प्रदेश को राष्ट्रपति शासन लगाने लायक नहीं समझती. यह सपा औऱ भाजपा की मिली भगत नहीं तो और क्या है? यहां पर हमको यह भी सोचना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनावों में सपा के सभी लोकसभा प्रत्याशी हार गए लेकिन सपा के मुलायम परिवार के पांचों सदस्य कैसे जीत गए? क्या यह दोनों दलों के बीच मिली भगत का अंदेशा नहीं है? अतः बहुजन समाज को एवं अन्य समाज के गरीब तबके को इस मिली भगत को समझ कर बहुजन समाज पार्टी के सर्वजन हिताय- सर्वजन सुखाय नारे की ओर उन्मुख होना चाहिए. यूपी चुनाव में बसपा की मजबूत स्थिति बसपा सुप्रीमों ने मीडिया को भी आड़े हाथों लिया. उन्होंने मीडिया वालों पर यह आरोप लगाया कि जब कुछ लालची किस्म के बसपा नेता पार्टी छोड़ कर जाते हैं तो मीडिया इसे बढ़ा चढ़ाकर प्रचारित करता है और उनके द्वारा लगाए आरोपों को खूब हवा देता है. प्रिंट से लेकर टेलीविजन मीडिया तक इसमें शामिल है. यहां तक की टीवी चैनल बसपा छोड़ कर गए छोटे से छोटे नेता को खूब तरजीह देते हैं. उसका इंटरव्यू तक चलाया जाता है. ये सब यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि जैसे कि बसपा में भगदड़ मची हुई है. मीडिया और विपक्ष के इस सांठगांठ पर बसपा प्रमुख ने प्रश्न उठाया कि जाने वाला हर नेता बसपा में पैसा लेकर टिकट देने का आरोप लगाता है. उन्होंने सवाल उठाया कि एक तरफ तो विपक्ष और मीडिया यह कहते हैं कि बीएसपी में भगदड़ मची हुई है तो वहीं दूसरी ओर बीएसपी द्वारा पैसा लेकर टिकट देने का आरोप लगाया जाता है. तो मीडिया अगर यह मानती है कि बसपा में भगदड़ मची है तो आखिरकार कोई बसपा में पैसा लेकर टिकट लेने क्यों आएंगा? अगर लोग बसपा का टिकट चाहते हैं तो इसका मतलब यह हुआ कि बसपा मजबूत स्थिति में है. बसपा की मजबूत स्थिति इसलिए भी प्रमाणित होती है कि सभी ओर से नेता बसपा की ओर रुख कर रहे हैं. हाल ही में कई महत्वपूर्ण नेताओं का बसपा में शामिल होना इस बात की पुष्टी भी करता है. इस बीच एक दूसरा तथ्य यह भी है कि मीडिया में बसपा में शामिल होने वाले नेताओं की खबर प्रमुखता से कभी नहीं छपती. ना ही कोई टेलिविजन उनका इंटरव्यू दिखाता है. इस बात से यह प्रमाणित होता है कि 2017 के चुनाव में बसपा बहुत ही मजबूत स्थिति में है और इसी परिपेक्ष्य में बहुजन समाज अर्थात दलित, पिछड़े, अक्लियतों, अल्पसंख्यकों और अपर कॉस्ट के गरीब लोगों की उम्मीद बसपा की ओर ही दिख रही है. आगरा की इस ऐतिहासिक रैली के साथ ‘बहन जी’ ने चुनावी बिगुल फूंक दिया है. उन्होंने यह साफ कर दिया है कि यूपी चुनाव में बहुजन समाज पार्टी पूरी ताकत से लड़ने के लिए तैयार है. रैली के बाद यूपी चुनाव को लेकर बसपा ने अन्य विपक्षी दलों पर बढ़त बना ली है. 21 अगस्त को आगरा से शुरू हुई रैली के बाद बहुजन समाज पार्टी ने आजमगढ़, इलाहाबाद और सहारनपुर में भी बड़ी रैली का आयोजन किया. उत्तर प्रदेश चुनाव में यह साफ हो चुका है कि बसपा सबसे आगे है.

बसपा की भाईचारा कमेटियां देंगी मायावती के मिशन को रफ्तार

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लखनऊ। बसपा के मिशन 2017 के मद्देनजर पार्टी प्रमुख मायावती ने अपनी कवायद तेज कर दी है. राज्य के चारों प्रमुख कोनों पर लकीर खिंचने के बाद मायावती अब पार्टी के अन्य कद्दावर नेताओं को सामने लेकर आ रही हैं. असल में मायावती इस चुनाव में एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग का अपना पुराना सफल नुस्खा आजमाना चाहती हैं. गैर दलित वोटों को बसपा के समर्थन में लाने के लिए पार्टी के गैर दलित नेताओं को अपनी-अपनी जातियों की जिम्मेदारी सौंप दी है. इनके जिम्मे बसपा की भाईचारा कमेटियां हैं और उन्हें भाईचारा कोर्डिनेटर कहा जाता है. सभी भाईचारा कमेटियों को अलग-अलग क्षेत्र भी बांट दिए गए हैं. भाईचारा कमेटी के खास चेहरे हैं- रामअचल राजभर- ओबीसी वोट लालजी वर्मा- कुर्मी वोट सतीश मिश्रा- ब्राह्मण वोट नसीमुद्दीन सिद्दीकी- मुस्लिम वोट मुनकाद अली- मुस्लिम वोट चिंतामणि – धोबी समाज जयवीर सिंह- क्षत्रिय वोट जितेन्द्र सिंह बबलू- क्षत्रिय वोट सुरक्षित सीटों पर ब्राह्मण नेताओं को जिम्मेदारी बसपा सुप्रीमों ने अपनी पार्टी के ब्राह्मण नेताओं को प्रदेश की 85 सुरक्षित सीटों पर मेहनत करने का आदेश दिया है, ताकि उन सीटों पर दलित वोटों के अलावा बसपा के खाते में सवर्ण वोट भी आएं. इसके लिए सतीश चंद्र मिश्रा और रामवीर उपाध्याय को लगाया गया है. मिश्रा पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य यूपी और बुंदेलखंड की आरक्षित सीटों पर काम करेंगे, जबकि रामवीर उपाध्याय पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आरक्षित सीटों पर काम करेंगे. सतीश चंद्र मिश्रा इसकी शुरुआत गोरखपुर के खजनी में आयोजित रैली से कर चुके हैं. मुस्लिम वोट के लिए मुस्लिम चेहरों पर भरोसा बसपा प्रमुख मायावती की नजर मुस्लिम वोटों पर भी है. बसपा के पक्ष में मुस्लिम वोट साधने की जिम्मेदारी महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी, मुनकाद अली, नौशाद अली और अतहर खान के कंधों पर है. सिद्दीकी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई है, जबकि मुनकाद अली को वाराणसी, इलाहाबाद और मिर्जापुर डिविजन और नौशाद अली को बुंदेलखंड और अतहर खान को फैजाबाद और देवीपाटन मंडल का जिम्मा सौंपा गया है. ओबीसी वोटों की जिम्मेदारी प्रदेश अध्यक्ष रामअचल राजभर और अन्य पर बसपा ने ओबीसी वोटों की जिम्मेदारी अपने प्रदेश अध्यक्ष रामअचल राजभर और पूर्व स्पीकर सुखदेव राजभर को दिया है. इसके लिए दोनों ही नेताओं ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में सम्मेलन करना शुरू कर दिया है. हाल ही में रामअचल राजभर द्वारा मऊ में की गई राजभर समाज का सम्मेलन काफी सफल रहा था. इस रैली में करीब 70 हजार लोग मौजूद थे. कुशवाहा वोटों की जिम्मेदारी पूर्व विधानसभा परिषद सदस्य आर.एस. कुशवाहा उठा रहे हैं. जबकि प्रताप सिंह बघेल को भी इसकी जिम्मेदारी दी गई है. कुर्मी वोटों को एकजुट करने की जिम्मेदारी पूर्व मंत्री लालजी वर्मा और पूर्व सांसद आर.के सिंह पटेल को दी गई है. धोबी समाज के वोटों को एकत्र करने की जिम्मेदारी भाईचारा कमेटी (धोबी समाज) के प्रदेश प्रभारी चिंतामणि जी को दी गई है. चिंतामणि पिछले चार-पांच महीनों से अपने समाज के वोटों को बसपा के पक्ष में करने के लिए लगातार जुटे हुए हैं.

BBAU में बना रहेगा SC/ST का 50 प्रतिशत आरक्षणः इलाहाबाद हाइकोर्ट

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लखनऊ। बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय (बीबीएयू) में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति  के लिए 50 प्रतिशत का बना रहेगा. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बीबीएयू की पिछड़ा जन कल्याण समिति की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया. हाईकोर्ट के इस फैसले से अनुसूचित जाति के छात्रों को राहत मिली है. हाईकोर्ट ने विश्वविद्यालय प्रशासन को भी आदेश दिया कि भविष्य में ऐसी कोई भी नीति न बनाए जिससे छात्रों को हानि हो. अमित बोस, अभिषेक बोस और निलय गुप्ता याचिकाकर्ता समिति के वकील रहे. गौरतलब है कि बीबीएयू प्रशासन पिछले कई दिनों से विश्वविद्यालय से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले आरक्षण में कटौती करने का प्रयास कर रहा था. जिसका दलित छात्र विरोध कर रहे थे. छात्रों के विरोध करने पर प्रशासन ने उन्हें झूठे आरोप में फंसा कर निष्काषित कर दिया था. इसके अतरिक्त विश्वविद्यालय में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के छात्रों के साथ मार-पीट भी की जा रही थी. इतना अत्याचार होने के बाद बीबीएयू की पिछड़ा जन कल्याण समिति ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में आरक्षण के संबंध याचिका लगाई थी. बीबीएयू के एक छात्र ने कहा कि बीबीएयू में आरक्षण का मामला किसी समुदाय की हार या जीत का मामला नहीं है. यह अनुसूचित जातियों व जनजातियों के प्रतिनिधित्व से जुड़ा हुआ मामला है. चूंकि  विश्वविद्यालय के एक्ट और आर्डिनेंस में एक समुदाय विशेष को आगे बढ़ाने की बात लिखी हुई है, ठीक उसी क्रम में 50 प्रतिशत आरक्षण अनुसूचित जातियों को मिला. लेकिन अभी हमारी लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है. हम अपने पिछड़े भाइयों को उनका हक जो की मनुवादियों ने 50 प्रतिशत आरक्षण लेकर कब्ज़ा किया हुआ है, उसमें से हम ओबीसी भाइयों के 27 प्रतिशत आरक्षण के पक्ष में अपनी आवाज उठाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. उन्होंने ओबीसी छात्रों के बार में कहा कि जनसंख्या के अनुपात में जिसने आपके हक पर कब्ज़ा किया है उन मनुवादियों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करिये. अनुसूचित जातियां सदैव आपके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी थी और खड़ी रहेंगी. ओबीसी भाइयों को सनद रहे की किसने मंडल कमीशन का विरोध किया, और किसके आरक्षण में से आपको 27 प्रतिशत आरक्षण मिला वही लोग आपको आगे करके हमेशा से ओबीसी और अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों को आपस में लड़वाते आए हैं. दलित छात्रों ने अपने ओबीसी भाइयों के साथ सद्भाव और एकता का परिचय देते हुए 50%+27% आरक्षण की बात करते हुए एक दूसरे को मिठाई खिलाकर जश्न मनाया और नारा दिया कि ” 50 हमें मिल गया अब 27 की बारी है. ” बीबीएयू के छात्र गौतम बुद्ध केंद्रीय पुस्तकालय पर एकत्रित होकर दलित और पिछड़ा को साथ लेकर चलने की बात करते हुए माननीय न्यायालय से आये हुई निर्णय का सम्मान करने के साथ ही साथ आपसी एकता पर बल दिए.

चीन में है दुनिया की सबसे बड़ी बुद्ध की प्रतिमा, बनाने में लगे थे 90 साल

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चीन की सबसे पवित्र जगहों में से एक लेशान बुद्ध दुनिया के सबसे ऊंचे बुद्ध की प्रतिमा है. इस प्रतिमा की ऊंचाई 233 फ़ीट है और इसको बनाने में 90 साल लगे हैं. ऐसा माना जाता है कि इस प्रतिमा को साल के पहले दिन देखने से लोगों की सोई किस्मत जाग उठती है. ये प्रतिमा पवित्र Mount Emei पर नक्काश की गयी है. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि एक बौद्ध भिक्षु ने इस विशाल प्रतिमा को अपने हाथों से पहाड़ खोद कर तराशा है. इस विशालकाय बौद्ध प्रतिमा का निर्माण 713 A.D. में शुरू हो चुका था. ये एक चीनी सन्यासी Haitong का आईडिया था. इसके पीछे उसकी धार्मिक आस्था भी जुड़ी थी. उसने सोचा कि तथागत बुद्ध पानी के तेज बहाव को शांत कर देंगे, जिससे नदी में आने-जाने वाली नावों को कोई क्षति नहीं होगी. ये उसने तथागत की महिमा के बारे में सोच कर नहीं किया था, बल्कि उसने सोचा कि मूर्ति बनाने के दौरान जो भी मलबा पहाड़ से कट कर नदी में गिरेगा, उससे नदी की तीव्र धारा शांत हो जाएगी. सरकार ने इस योजना के लिए कोई फंडिंग नहीं की, बल्कि उस सन्यासी की ईमानदारी और वफ़ादारी साबित करने के लिए उसकी आंखें निकलवा दी. फिर भी ये निर्माण उसके शिष्यों द्वारा चलता रहा. अंत में एक लोकल गवर्नर की सहायता से ये 803 A.D. में पूरा हो गया. Dafo के नाम से मशहूर इस प्रतिमा में बुद्ध गंभीर मुद्रा में हैं. प्रतिमा में बुद्ध के हाथ उनके घुटनों पर है और वो टकटकी लगाकर नदी को देखे जा रहे हैं. ऐसा कहा जाता है कि जब बुद्ध की सिखाई बातें लोग भूलने लगेंगे, तब मैत्रेय अवतार में बुद्ध फिर से धरती पर आएंगे. 233 मीटर लम्बी इस प्रतिमा में उनके कंधे 28 मीटर चौड़े हैं और उनकी सबसे छोटी उंगली इतनी बड़ी है कि उसपर एक आदमी आराम से बैठ सकता है. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि उनकी भौहें 18 फीट लम्बी हैं. वहां के एक स्थानीय निवासी ने बताया कि बुद्ध ही पहाड़ हैं और पहाड़ ही बुद्ध हैं. बहुत से छोटी-छोटी धाराएं बुद्ध के बाल, गले, छाती और कानों से निकले हैं. ये प्रतिमा को कटाव और विखंडन से बचाने के लिए बनाए गए हैं. 1200 पुराने इतिहास को संजोने के लिए इस प्रतिमा का निरंतर रख-रखाव किया जाता है. उनके कान के पास एक छत बनाई गई है, जहां जाकर पर्यटक सुहाने नजारों का मजा लेते हैं. इस जगह के बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि ये जगह बुद्ध की इस प्रतिमा बनने के पहले से ही पवित्र थी.

एक ही दलित परिवार की तीन बेटियां एक साथ बनी लेक्चरर

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झुंझुनूं। बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि मैं किसी परिवार की तरक्की को इस तरह आंकता हूं कि उस परिवार में महिलाओं के शिक्षा की स्थिति क्या है. बाबासाहेब के उस सपने को झूंझुनूं के चिड़ावा की बेटियों ने साकार कर दिया है. वार्ड 25 निवासी नायक परिवार की तीन बेटियो ने एक साथ लेक्चरर (व्याख्याता) पद पर चुनी गई है. बेटियों के पिता बाबूलाल नायक खुद नवलगढ़ पंचायत समिति में सहायक लेखाधिकारी हैं. उनकी तीनों बेटियों का प्रथम व्याख्याता पद पर चयन हुआ है. बड़ी बेटी सरिता नायक का राजनीति विज्ञान में व्याख्याता के पद पर चयन हुआ है. वह वर्तमान में भीलवाड़ा में थर्ड ग्रेड शिक्षिका के पद पर हैं. वही दूसरी बेटी संगीता नायक संस्कृत में व्याख्याता बनी हैं जो वर्तमान में धतरवाला गांव में सैकंड ग्रेड शिक्षिका हैं. वहीं तीसरी बेटी सविता नायक का इतिहास व्याख्याता में चयन हुआ है जो फिलहाल अलीपुर गांव में सैकंड ग्रेड में शिक्षिका है. इस तीहरी सफलता से पूरे परिवार में खुशी है. पिता बाबूलाल नायक का कहना है कि बेटियां नियमित पढ़ाई करती रही, जिसके बाद उन्होंने यह सफलता अर्जित की है. उन्होंने कहा कि हर किसी को अपनी बेटियों को आगे बढ़ने में पूरा सहयोग करना चाहिए. गौरतलब है कि बाबूलाल की तीनों बेटियों की शादी हो चुकी है. बावजूद इसके तीनों ने लगातार अपनी पढ़ाई को जारी रखा है और प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रही हैं.

पिंडदान, श्राद्ध और मृत्युभोज ब्राह्मणों का ढोंगी विधान!

मेरे एक मित्र गया में अपने पितरों का पिंडदान करने के बाद कल ब्रह्मभोज देने वाले हैं. मेरे मन में कुछ शंकाए उमड़-घुमड़ रही हैं, उसे आपके समक्ष बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत कर रहा हूं. पिंडदान का विस्तृत वर्णन गरुण पुराण, अग्नि पुराण और वायु पुराण में किया गया है. कुआर(आश्विन) के अंधरिया को कृष्णपक्ष कहते हैं. इसी कृष्णपक्ष में अपने पितरों (मरे हुए पूर्वजों) को तृप्त करने के लिए, मोक्ष दिलाने के लिए और स्वर्ग भेजने के लिए पिंडदान किया जाता है. पिंडदान के लिए “गया” की महिमा अपरम्पार है. इस कार्य के लिए पूरे ब्रह्माण्ड में इससे उत्तम स्थान दूसरा कोई नहीं है! ये मैं नहीं कह रहा हूं बंधुओं, ऐसा शास्त्र कह रहे हैं. मैं तो आपके साथ मिलकर इसपर विचार करना चाहता हूं कि “शवदाह संस्कार से लेकर ब्रह्मभोज के बीच ब्राह्मणों ने कितनी बार मृतक को मोक्ष, स्वर्ग इत्यादि दिला चुके है? फिर भी ब्राह्मण पण्डे आप जैसे यजमानों का पिंड नहीं छोड़ते हैं! पुनः पिंडदान के नाम पर हर साल दान-दक्षिणा लेने का जुगाड़ किये हुए हैं! इस पर एक बार पुनः संक्षिप्त प्रकाश डाल लिया जाय:- मोक्ष – जीते जी भले ही आपने परमपिता परमेश्वर (कृष्णभक्ति) की भक्ति की हो या नहीं, मरते समय गंगाजल पिला देने से, मोक्षदायनी (गंगा, नर्मदा) नदियों में शवदाह करने से या हड्डियों को गंगा में विसर्जित कर देने से ही मोक्ष मिल जाता है. जीवनभर व्यक्ति चाहे जितना कुकर्म और अपराध किया हो, मरते वक्त कृष्ण-कृष्ण/राम-राम का जाप (रटा) करा दीजिए, मोक्ष मिल जाता है. ये मैं नहीं, गीता और अन्य शास्त्र कहते हैं! मोक्ष के बाद आत्मा का मिलन ईश्वर (परमात्मा) से हो जाता है. उस व्यक्ति की आत्मा अब किसी भी योनी में जन्म नहीं लेगी. फिर पिंडदान का औचित्य क्या है? स्वर्ग – किसी का अन्तिम समय आ गया हो, उसके प्राण निकलने वाले हो, तो बछिया अथवा गाय का पूंछ पकड़वा कर ब्राह्मण को दान कर दीजिये; उस व्यक्ति की आत्मा को बैकुंठ(स्वर्ग) निश्चित मिलेगा? यह झूठ नहीं है! शास्त्रों का कथन है. इस लोक में जितना आपने पूर्ण कमाया है, उसी के अनुपात में स्वर्ग सुख भोगेगें – “सूरा-सुंदरी-छप्पन भोग!” अब भला बताइए, जो स्वर्ग चला गया, वहां का आनंद छोड़कर कोई मृतक गया में आंटे का लोंदा खाने आयेगा? पिंडदान में पितरों को यही अर्पित किया जाता है. ये ब्राह्मण क्या बकवास करते हैं? बंधुओं, सोंचो, विचार करो!   नरक – विष्णु पुराण, गरुण पुराण, अग्नि पुराण और वायु पुराण में साफ़ शब्दों में बताया गया है कि पापियों को नरक मिलता है. भईया, जिसको नरक मिल गया, उसे भुगते बिना मृतक किसी अन्य लोक में नहीं जा सकता! नरकवासी आत्मा को बिना समय पूरा किये, पृथ्वीलोक में रिश्तेदारी निभाने की छुट्टी यमराज नहीं देते हैं! कहीं नहीं लौटा तो? अतः वह रक्त, पीव, मल-मूत्र (ये नरकवासियों के भोजन हैं) छोड़कर, गया में पिन्डा खाने नहीं आ सकता! अन्य 84 लाख योनी में जन्म – जिसको स्वर्ग-नरक और मोक्ष नहीं मिला, उनकी आत्मा चौरासी लाख योनियों में बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में घूमती रहती है. जब आत्मा किसी योनी में जन्म ले चुकी हो, अर्थात, आत्मा ने वस्त्र बदल लिया और वह मजे में है. उसे पिंडदान के नाम पर तृप्त करने का ढोंग क्यों रचते हैं? अब आपको इतनी बात न समझ में आये, तो आप दिमागी रूप से ब्राह्मणों के गुलाम हैं या फिर मंदबुद्धि. भूत-प्रेत योनी – जिनकी आकाल मृत्यु होती है (जैसे, किसी दुर्घटना आदि द्वारा) उनकी आत्मा भूत-प्रेत की योनी में चली जाती है. ऐसे मरे लोगों की आत्मा को ऊपर वर्णित किसी लोक या योनी में जगह नहीं दिया जाता. इनकी आत्मा पृथ्वी पर भटकती रहती है. ऐसे आत्मा को भूत-प्रेत योनी से मुक्त और तृप्त करने के लिए ही दसवें दिन दसगात्र किया जाता है. बड़ा फाडू आविष्कार है -दसगात्र! पीपल के पेड़ पर मटकी(घड़ा) टंगवाइये, पानी डलवाईये, वेदी बनवाइए, अंट-संट मन्त्र बचवाईये, ब्राह्मणों को खिलाईये और अंत में ब्राह्मणों के गिराए जूठन पर मृत व्यक्ति के नाम पर पिंडदान कीजिए! प्रेतात्मा को मिल गई शांति, हो गई तृप्ति, पा गई मुक्ति. झंझट समाप्त! बंधुओं, आपने देखा न तेरहवीं तक अस्तित्व विहीन आत्मा को मोक्ष, स्वर्ग, मुक्ति इत्यादि दिलाने के नाम पर ब्राह्मणवादी कितना ढोंग, पाखंड और कर्मकांड करवाते हैं. अपने परिजन को मोक्ष और स्वर्ग दिलाने के लिए सनातनी हिन्दू पुरोहितों को भरपूर दान-दक्षिणा भी देता है. फिर भी ये ढोंगी ब्राह्मण और दान-दक्षिणा के लालच में पितरों की तृप्ति हेतु, पितृपक्ष में पिंडदान का विधान खोजा है. पिंडदान ब्राह्मण धन की लालच के लिए करवाता है. अरे भाई, आत्मा तो अजर- अमर है न? तेरहवीं तक जो कर्मकांड पुरोहित करवाता है, वह सब तो पितरों की आत्मा को मोक्ष, स्वर्ग आदि दिलाने के लिए ही न किया जाता है? नहीं समझे न! भाई, ब्रह्मभोज तक का कर्मकांड ठगी और पिंडदान महाठगी है. सन 1998 से 2002 के बीच मैं चिकित्सा पदाधिकारी के पद पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, फतेहपुर, जिला- गया में पदस्थापित था. पितृपक्ष काल में अतिरिक्त चिकित्सकों की प्रतिनियुक्ति गया शहर में की जाती है, ताकि पितृपक्ष मेले में उमड़ी भीड़ को स्वाथ्य सेवा उपलब्ध कराई जाय और महामारी न फैलने दिया जाय. देश-विदेश से लाखों लोग यहां पिंडदान करने आते हैं. जहाँ तक मुझे याद है दो बार मेरी भी प्रतिनियुक्ति हुई थी. उस समय गया के कई पंडों से बात हो जाया करती थी. कुछ पंडों ने यह राज खोला कि “हमें पितृपक्ष का बेसब्री से इंतजार रहता है. इन 15 दिनों में दान-दक्षिणा में इतना धन मिल जाता है कि हम साल भर बैठकर खाते हैं.” अब आप स्वयं विचार करे! ब्राह्मण इस व्यवस्था को क्यों तोड़ना चाहेगा? आप ध्यान दीजिये, किसी भी कर्मकांड (जन्म से मरण तक) में ब्राह्मणों ने कदम-कदम पर दान लेने का विधान किया है! किसी के पास कोई प्रमाण नहीं है कि आत्मा कहां गई, स्वर्ग मिला या नरक, मोक्ष मिला या प्रेत बना! कोई माई का लाल प्रमाणित नहीं कर सकता? बंधुओं, मृत्यु के बाद कुछ भी शेष नही बचता है? 26 तत्वों से बना जीव 26 तत्त्वों में बदल जाता है. आत्मा नहीं है, स्वर्ग नहीं है, नरक नहीं है. मोक्ष, भूत-प्रेत आदि की अवधारणा बकवास है. जीवों की उत्पत्ति, विकास और विनाश भौतिक, रसायन और जीव विज्ञान के निश्चित नियमों के कारण होता है. यही सच है. पिंडदान, श्राद्ध और मृत्युभोज का आयोजन ढोंग है, इसे न करें. श्राद्ध के चक्कर में कितने कंगाल हो जाते हैं. मैं तो आपसे यह अपील करता हूं कि शवयात्रा में “राम-नाम सत्य है” कहना भी पाखंड है; इसे न बोलें. शवयात्रा में मौन रहें. और यदि बोलना ही है तो समाज को यह सच्चा सन्देश दे “जीना-मरना सत्य है” बोलें. ये कर्मकांड, बहुराष्ट्रीय कंपनी की तरह एक जाति विशेष (ब्राह्मण) द्वारा संगठित रूप से जनता का शोषण अभियान है, जिसमें बिना शारीरिक श्रम किये लाखों ब्राह्मण परिवार अनगिनत कर्मकांडों के नाम पर धनोपार्जन करते हैं. जनता की खून-पसीने की कमाई को दान-दक्षिणा के नाम पर ऐंठकर गुलछरे उड़ाते हैं. ऐसे असंख्य कर्मकांडों का जाल इन्होंने फैला रखा है! ये बड़े चालाक और धूर्त लोग हैं. क्या आपने ब्राह्मण समाज के उंच्च शिक्षित डाक्टर, इंजिनियर, प्रोफ़ेसर, जज, डीएम, इत्यादि को किसी यजमान के घर पुरोहिती करते देखा है? भाई, मैंने तो नहीं देखा है! इसका अर्थ क्या है? इसका मतलब है, ब्राह्मण समाज का सबसे निकम्मा और नाकारा सदस्य ही पुरोहिती के धंधे को अपनाता है. मेरी बात पर विश्वास मत कीजिए? गांव या शहर कहीं भी अपने आस-पास 10-20 पुरोहितों का सर्वेक्षण कर लीजिये और साक्षात्कार ले लीजिए. मित्रों, आप उनके बुने हुए जाल में बुरी तरह उलझे हुए हैं! आप अपने शिक्षित एवं बुद्धिजीवी होने का धर्म नहीं निभा रहे हैं? आस्था और अन्धविश्वास के कारण वाहियात बातों पर भी प्रश्न-चिन्ह लगाने का साहस आप में नही है? जो भी गलत धार्मिक कुरुतियां हैं, उसे ठीक कौन करेगा? आपके पूर्वज? जो मर-खप गए हैं! या वह जो जिन्दा हैं और जिनके पास ज्ञान और विज्ञान का भरपूर भंडार है! जिनके पास तर्क करने की, खंडन करने की और प्रमाणित करने की क्षमता है. वह व्यक्ति आप और हम हैं? अब सोचिये मत, तैयार हो जाइये और समाज को ढोंग, ढकोसला एवं पाखंड से मुक्त कराईए? अब आत्मा की शांति के नाम पर मृत्युभोज और पिंडदान बंद होना चाहिए? दुनिया में परिवर्तन मुर्दे नहीं किया करते! नवीन खोजें और बदलाव वर्तमान पीढ़ी ही करती हैं?

अंधराष्ट्रवाद और भ्रष्टाचार के दौर में शहीद होते जवान!

हर युद्ध,गृहयुद्ध की कीमत जैसे देश काल परिस्थिति निर्विशेष स्त्री को ही चुकानी पड़ती है, उसी तरह दुनिया में कहीं भी युद्ध हो तो उससे आखिरकार हिमालय लहूलुहान होता है. उत्तराखंड के कुमायूं गढ़वाल रेजीमेंट या डोगरा रेजीमेंट,नगा रेजीमेंट या असम राउफल्स सबसे कठिन युद्ध परिस्थितियों का मुकाबला तो करती ही है, गोरखा रेजीमेंट की टुक़ड़ियां अब भी ब्रिटिश सेना में शामिल है. हाल के खाड़ी युद्ध और अफगानिस्तान युद्ध में भी हिमालय जख्मी हुआ है, बाकी युद्ध, गृहयुद्ध का मतलब सौ बेटों की मृत्यु का सामना करने वाली माता गांधारी का शोक है या फिर कुरुक्षेत्र का शाश्वत विधवा विलाप है. हम अपने बेटों को शहीद बनाने पर आमादा क्यों हैं? बंद ताबूत में तिरंगे में लिपटी अनगिनत लाशें हमारी देशभक्ति के लिए इतना अनिवार्य क्यों है? साठ के दशक में हरित क्रांति के बावजूद हालात भुखमरी हुई थी. तबसे लेकर भूख का भूगोल बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ लगातार सीमाओं के आर-पार इस खंडित महादेश का सबसे बड़ा सच है. इस भूख के खिलाफ सही मायने में अभी कोई लड़ाई शुरु हो नहीं पायी है. आम जनता के हकहकूक के लिए कहीं कोई मोर्चा नहीं है. 1971 में भारत-पाक युद्ध के नतीजे से सिर्फ बांग्लादेश आजाद हो गया, ऐसा नहीं है. खुला युद्ध फिर नहीं हुआ, सच है लेकिन हम लगातार पाकिस्तान और चीन के साथ छायायुद्ध लड़ रहे हैं. शहादतों का सिलसिला कभी थमा ही नहीं. उसी युद्ध के नतीजे के तहत समूचा अस्सी के दशक में पूरा देश गृहयुद्ध की आग में जलता रहा और सिखों का नरसंहार के साथ साथ गुजरात नरसंहार तक नरसंहारों का अटूट सिलसिला हमारे अंध राष्ट्रवाद का अखंड युद्धोन्माद है. यही सियासत है और मजहब भी यही है. 1962 में हम चीन से युद्ध हार गये, तब भी हिमालय सबसे ज्यादा लहूलुहान हुआ. उस युद्ध के बाद हमारी समूची उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था बदल गयीं. आम जनता की बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं को नजरअंदाज करते हुए तब से लेकर आज तक हम लगातार युद्धाभ्यास कर रहे हैं. हमने इस युद्धोन्माद की वजह से समूचे देश को परमाणु चूल्हों के हवाले कर दिया है. हमारे बजट में रक्षा और आंतरिक सुरक्षा पर भारी खर्च और राष्ट्रवाद, देशभक्ति की पवित्र संवेदनशील भावनाओं की आड़ में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार हो रहा है. इसी अंध राष्ट्रवाद की लहलहाती फसल कालाधन है जो विदेशी बैंकों में जमा है और किसी अपराधी के किलाफ जांच इसलिए नहीं हो सकती के यह कालाधन रक्षा घोटालों का है. युद्ध परिस्थितियों में आपातकाल के समय अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता नहीं होती है और अंध राष्ट्रवाद में विवेक कहीं खो जाता है. इसलिए रक्षा घोटालों में अब तक किसी को सजा हुई नहीं है. अमेरिका के युद्धों में भी वहां के राजनेता और राष्ट्रनेता अरबों की सौदेबाजी करते रहे हैं. हाल में इसके तमाम खुलासा हुए है कि कैसे निजी और कारपोरेट हित में सिर्फ अमेरिका को नहीं, सिर्फ नाटो को नहीं, पूरी दुनिया को अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने युद्ध के हवाले किया है. मसलन तेल युद्ध का सच अब जगजाहिर है. अमेरिकी राष्ट्रवाद की आड़ में वहां की अर्थव्यवस्था बाकायदा युद्धक अर्थ व्यवस्था है. दुनियाभर में युद्ध और गृहयुद्ध में अमेरिकी हित निर्णायक होते रहे हैं. बाकी दुनिया की तरह इस महादेश के तमाम युद्धों और गृहयुद्धों की जड़ में वही अमेरिकी हित हैं जो सभी पक्षों को युद्ध गृहयुद्ध का जरुरी ईंधन समान भाव से मुहैय्या कराता है और अल कायदा, तालिबान और आइसिस अमेरिकी अवैध संताने हैं. इस महादेश के राष्ट्रनेताओं के कारनामों का खुलासा हो, हमारे कारपोरेट लोकतंत्र में इसकी कोई संभावना नहीं है. हमने उसी अमेरिका के साथ परमाणु संधि करके और फिर रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश का जो रास्ता तैयार कर दिया है, उसकी नियति फिर युद्ध है क्योंकि रक्षा क्षेत्र में निजी, कारर्पोरेट और विदेशी हितों के समरस समावेश से हमारी अर्थव्यवस्था भी अब युद्धक अर्थव्यवस्था बन गई है. गौर कीजिये, भारत में मौजूदा युद्धोन्माद कितना प्रायोजित है. हम पाकिस्तान के प्रति भारत की घृणा या कश्मीर मसले के मजहबी सियासत या सियासती मजहब की चर्चा यहां नहीं कर रहे हैं और यह भी नहीं कह रहे हैं कि इन युद्ध परिस्थितियों का आने वाले चुनावों में राजनीतिक परिणाम किसके हित में निकलेंगे. मसलन यूपी,पंजाब और उत्तराखंड में क्या क्या हो सकता है? मसला यह है कि कार्पोरेट हितों से प्रायोजित इस युद्धोन्माद का मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था से कितना और किस हद तक संबंध है सियासत और मजहब की बातें छोड़ दें तो शायद हम निरपेक्ष विवेक से इस युद्धोन्माद के औचित्य की विवेचना कर सकते हैं कि कैसे उपभोक्ता सामग्री की तरह हमारे शहीद बेटों की शहादत का इतने व्यापक पैमाने पर सुनियोजित विज्ञापन दसों दिशाओं में हो रहा है ताकि हमारे जो बेटे अब तक शहीद न हुए हों, वे शहीद बना दिये जा सकें. हमारा राष्ट्रवाद उसी कारर्पोरेट विज्ञापन अभियान का अभिन्न हिस्सा है. कहने को भारत की तरह पाकिस्तान में लोकतंत्र है और वहां भी चुनाव होते हैं. हम पाकिस्तान को आतंकवादी या फौजी हुकूमत कहने को आजाद हैं. हम कश्मीर मसले पर सीधे पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहरा कर बाकी सारा किस्सा नजरअंदाज कर सकते हैं. चूंकि दो राष्ट्र सिंद्धांत के तहत देश का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र बना लेकिन भारत तो हिंदू राष्ट्र नहीं है, हम यह अब दावे के साथ नहीं कह सकते. राजनीतिक समीकरण बेहद आसान है और राष्ट्रवाद सीमाओं के आर पार उसी भारत विभाजन की विरासत है, जिसे हम जुए की तरह पिछले सात दशकों से ढो रहे हैं और अपनी आजाद जिंदगी की नई शुरुआत कर ही नहीं सके हैं. जितना युद्धोन्माद भारत में है, उससे कम पाकिस्तान में नहीं है. भारत के मुकाबले पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की हालत बेहद संगीन है. उत्पादन में हो न हो, हथियारों की पारमाणविक दौड़ में पाकिस्तान किसके दम पर भारत की बराबरी कर रहा है, उस पर सिलसिलेवार गौर करने की जरुरत है क्योंकि सबसे बड़े उस दुश्मन के हवाले हमने अपनी रक्षा और आंतरिक सुरक्षा दोनों सौंप दिये हैं. सियासत और मजहब से के तंग दायरे से निकलकर इस युद्धोन्माद की युद्धक अर्थव्यवस्था और उसके कारर्पोरेट दांव को समझें और फिर यह विवेचना भी कर लें कि हम अपने बेटों को शहीद बनाने पर आमादा क्यों हैं? सबसे मुश्किल यह है कि इस महादेश में वियतनाम युद्ध विरोधी या इराक अफगानिस्तान युद्ध विरोधी किसी आंदोलन की कोई गुंजाइश नहीं है. हमारे पास बंद ताबूत में तिरंगे में लिपटी अपने बेटों की लाशों के इंतजार के सिवाय फिलहाल कोई दूसरा विकल्प नहीं है और बहुसंख्य जनती उसी शहादत की जमीन पर युद्धोन्माद का यह कारर्पोरेट जश्न मना रहा है.

भगवानों को घूस देना भ्रष्टाचार की असली जड़

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templeभ्रष्टाचार भारत में एक सांस्कृतिक मसला है. भारतीयों को इसमें कुछ भी अजीब नहीं लगता. वे भ्रष्टों को सुधारने की कोशिश नहीं करते, उन्हें सहन करते रहते हैं. भारतीय भ्रष्ट क्यों है, इसे समझने के लिए आइए उनके आचरणों और प्रवृतियों पर एक नजर डालें. पहली बात, भारत में धर्म सौदेबाजी का स्वरूप लिए हुए. भारतीय अपने देवी-देवताओं को तरह का चढ़ावा चढ़ाते हैं और बदले में उनसे खास तरह का इनाम चाहते हैं. ऐसा व्यवहार बताता है कि नाकाबिल लोग अपने लिए पक्षपात की कामना कर रहे है. मंदिर से बाहर दुनिया में ऐसी सौदेबाजी को ”रिश्वत” कहते हैं. अमीर भारतीय मंदिरों में कैश नहीं देता, वह सोने का मुकुट या ऐसे ही आभूषण वगैरह देता है. उसके उपहार गरीबों का पेट नहीं भर सकते, वे तो देवता के लिए ही होते हैं. उसे लगता है कि अगर यह किसी जरूरतमंद व्यक्ति को मिल गया तो बेकार चला जाएगा. जून 2009 में कर्नाटक के एक मंत्री जी जर्नादन रेड्डी ने तिरूपति मंदिर में 45 करोड़ रूपए मूल्य का सोने और हीरे से बना मुकुट दान किया. भारत के मंदिरों में इतना धन इकट्ठा होता है कि व समझ ही नहीं पाते, इसका क्या करें. मंदिरों के तहखानों में अरबों की संपत्ति पड़ी-पड़ी जंग खा रही है. यूरोपीय भारत आए तो उन्होंने स्कूल बनवाए , लेकिन भारतीय यूरोप-अमेरिका जाते हैं तो वे मंदिर बनवाते है. भारतीयों को लगता है कि जब भगवान भी कुछ भला करने के लिए चढ़ावा स्वीकार करते है तो हमारे ऐसा करने में क्या हर्ज है. यही वजह है कि भारतीय इतनी आसानी से भ्रष्टाचार में शामिल हो जाते हैं. भारतीय संस्कृति ऐसे आचरण के लिए गुंजाइश बनाती है. इसमें नैतिक तौर पर कलंक जैसी कोई बात नहीं होती. पूर्णतया भ्रष्ट जयललिता इसलिए सत्ता में वापस लौट आती है. पश्चिम में आप इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते. भ्रष्टाचार को लेकर भारत की नैतिक अस्पष्टता इसके इतिहास में भी झलकती है. इसका इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा है जिनमें शहरो और राज्यों के पहरेदारों ने पैसे खाकर हमलावरों के लिए गेट खोल दिए और सेनापतियों ने रिश्वत लेकर समर्पण कर दिया. भारतीयों के भ्रष्ट चरित्र की वजह से इस महादेश में युद्ध काफी कम में हुए. प्राचीन यूनान और आधुनिक यूरोप के मुकाबले भारतीयों ने काफी कम लड़ाइयां लड़ी है. नादिरशाह को तुर्की में भीषण लड़ाई लड़नी पड़ी. मगर भारत में लड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी. सेनाओं को विदा करने के लिए यहां रिश्वत ही काफी थी. पैसे खर्च करने को तैयार कोई भी हमलावर भारत के राजाओं को सत्ता से बेदखल कर सकता था, भले उनके पास दसियों हजार की फौज क्यों न हो. पलासी की लड़ाई में भी भारतीयों की तरफ से कोई प्रतिरोध नहीं हुआ. क्लाइव ने मीर जाफर की मुट्ठी गर्म कर दी और पूरा बंगाल 3000 लोगों के सामने बिछ गया. सवाल उठता है कि भारत में ऐसी सौदेबाजी की संस्कृति क्यों है, जबकि अन्य सभ्य देशों में यह नहीं है? भारतीयों का इस मान्यता में यकीन नहीं है कि अगर सभी लोग नैतिक आचरण करें तो सबकी उन्नति होगी. उनकी जाति व्यवस्था उन्हें एक-दूसरे से अलग करती है. वे नहीं मानते कि सभी मनुष्य समान है. इसकी परिणति उनके विभाजन और अन्य धर्मो की ओर पलायन में हुई. कई हिंदुओं ने सिख, जैन, बौद्ध आदि के रूप में अपने अलग धर्म बना लिए और बहुत सारे ईसाइयत तथा इस्लाम की ओर चले गए. इस सबका नतीजा यह हुआ कि भारतीयों का एक-दूसरे पर विश्वास नहीं रहा. भारतीय तो यहां कोई रहा ही नहीं. हिंदू , मुस्लिम, ईसाई जितने चाहो ढूंढ लो. भारतीय भूल गए कि 1400 साल पहले वे सब एक ही पंथ के थे. यह विभाजन एक बीमार संस्कृति के रूप में सामने आया. असमानता ने भ्रष्ट समाज को जन्म दिया. नतीजा यह है कि भारत में हर कोई हर किसी के खिलाफ है, सिवाय भगवान के और भी रिश्वतखोर है.

बीबीएयू में सुरक्षित नहीं है दलित छात्र, हुई गला दबाकर मारने की कोशिश!

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लखनऊ. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय(बीबीएयू)  के खेल संयोजक मनोज धधवाल पर एक दलित छात्र ने गला दबाकर जान से मारने का आरोप लगाया है. दलित छात्रों का कहना है कि कुछ दिनों पहले बीबीएयू में गलत तरीके से 8 दलित छात्रों को निष्कासित किए जाने के बाद लगातार प्रदर्शन से बौखलाए खेल संयोजक ने जान से मारने की कोशिश की. घटना के विरोध में और निष्कासन वापस कराने के लिए विश्वविद्यालय के गेट पर आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति और छात्रों ने विशाल धरना प्रदर्शन किया. प्रदर्शन के आगे बीबीएयू प्रशासन ने घुटने टेके और कुलपति के निर्देश पर प्रोफेसर आर.वी. राम ने गेट पर आकर संघर्ष समिति और छात्रों ज्ञापन लिया. कुलपति की तरफ से प्राक्टर रामचन्द्र ने आश्वासन दिया है कि 3-4 दिन में दलित छात्रों को न्याय मिलेगा. उन्होंने संघर्ष समिति से कहा कि निष्कासन वापसी का मामला अन्तिम चरण में और जल्द ही निष्कासन वापसी होगा. आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति ने ऐलान किया कि अगर न्याय नही मिला तो एचआरडी मंत्रालय सहित भाजपा के मंत्रियों का घेराव किया जाएगा और बीबीएयू के छात्र चक्का जाम करेंगे. आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति के संयोजकों ने प्रदर्शन को सम्बोधित करते हुए यह ऐलान किया कि कुलपति द्वारा दिये गये आश्वासन के अनुसार यदि जल्द ही निष्कासन वापस न हुआ तो बीबीएयू विश्वविद्यालय में फिर से बड़ा प्रदर्शन किया जायेगा और जरूरत पड़ी तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय का भी व्यापक घेराव किया जाएगा. गौरतलब है कि बीबीएयू में कुलपति से दो पक्षीय वार्ता के बाद भी अभी तक दलित छात्रों को न्याय नहीं दिया गया, जबकि कुलपति द्वारा आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति को यह आश्वासन दिया गया था कि 20 सितम्बर तक सभी दलित छात्रों का निष्कासन वापस ले लिया जायेगा. सभी निष्कासित दलित छात्रों अजय कुमार, श्रेयात बौद्ध, संदीप शास्त्री, संदीप गौतम, रामेन्द्र नरेश, जय सिंह, अश्वनी रंजन व सुमित कुमार ने भी आंदोलन में भाग लिया.

परिजन के निधन पर दलित का मुंडन करने से नाई ने किया इनकार, केस दर्ज

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naaiमंदसौर। मध्यप्रदेश के मंदसौर में परिजन के निधन पर दलित का मुंडन करने से इनकार करने का मामला सामने आया है. शिकायत के बाद पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज किया. 35 दिन में दलित व सवर्ण के आमने-सामने होने का यह तीसरा मामला है. इससे पहले 15 अगस्त को दलित सरपंच द्वारा लाई नुक्ती नहीं बांटने व दलित समाज की झांकी को आगे नहीं निकलने देने के मामले हो चुके हैं. दलित-सवर्ण विवाद को लेकर प्रदेश के संवेदनशील जिलों में शामिल मंदसौर में हर माह ऐसा एक मामला हो रहा है. जिम्मेदार अधिकारी मामलों में न्याय दिलाने व संभाग में सबसे अधिक सजा दिलाने का दावा कर रहे हैं. माल्याखेरखेड़ा निवासी गोवर्धन ने बताया कि उनके भाई की पत्नी का 19 सितंबर को निधन हो गया था. उसी दिन मुक्तिधाम पर मुंडन कराने की प्रथा है. इसके चलते गांव के ही सलून संचालक भोला नारायण को मुक्तिधाम पर बुलाया. उसने आने से इनकार कर दिया. इस पर दूसरे से मुंडन कराया. अगले दिन जब उससे इसका कारण पूछा तो उसने व उसके बेटे ईश्वर ने दलित समाज का होने के चलते नहीं आने की बात कही और गाली-गलौज की. गोवर्धन की शिकायत पर नाहरगढ़ पुलिस ने 20 सितंबर को केस दर्ज किया. मेघवाल समाज के प्रदेश अध्यक्ष राजेंद्र सूर्यवंशी का कहना है जिले में करीब 15 मामले ऐसे हैं जिनमें दलितों पर अत्याचार हुआ और उन्होंने केस भी दर्ज कराया है. दो मामले इसी माह के हैं जिनकी शिकायत की है.

नहीं चाहिए ऐसा विकास जो सेना के जवानों को शहीद कर दे!

70 वर्ष की आजादी के बाद भी जिस देश की 85 प्रतिशत आबादी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पायी हो और उसमें भी हम जैसी अधिकांश आबादी की जुबान पर यह जुमला “कोई होहिं नृप हमें का हानि” घर कर गया हो तो वह देश या समाज अपना सर उठाकर कैसे चल सकता है? यह हम सब कुछ जागरूक लोगों के समक्ष एक विचारणीय प्रश्न है. हम नट, मुसहर, डोम, मेहतर और बंजारा इत्यादि अति अछूत लोग भी तो इंसान हैं और इस 70 वर्षीय आजाद भारत के नागरिक भी हैं. सबकी तरह हमारे भी मुंह, नाक, आंख, कान, हाथ और पैर हैं. दिल और दिमाग भी है. हमारे भी बाल-बच्चे है और कठिन से कठिन काम कर देने की क्षमता भी हम्ही में है. हां! यह बात अलग है कि तुम्हारे ही घृणित षड्यंत्र की वजह से हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनपढ़ गंवार रहते चले आ रहे हैं और आज भी हमारी किसी को कोई चिंता नहीं है. हम सभी मानवीय अधिकारों से वंचित भी हैं. अगर सछूत शूद्रों से हमें अलग कर दो तो हमारी जनसंख्या भी इतनी नहीं कि हम किसी को चुनाव में जीता-हरा सकें और शायद यही वजह है कि हमारी कोई खबर भी नहीं लेता. हम निसहाय पड़े हुए हैं. लेकिन हमें इस भयानक परिस्थिति में छोड़कर तुम भी तो चैन की सांस नहीं ले पा रहे हो. विकास, विकास, विकास. किसके विकास की बात करते हो? जीडीपी ग्रोथ इतना हो गया. अगले वर्ष उतना हो जाएगा. बुलेट ट्रेन चलने लगेगी. सांसद-विधायकों के वेतन ढाई-तीन लाख हो जाएंगे. चमचमाती सड़कें हो जाएंगी. सैकड़ों की संख्या में स्मार्ट सिटी दिखने लगेंगी. तो बताओ, हमारे जैसे करोड़ों कंगलियों का क्या हो जाएगा? आजादी मिलने के बाद तुम बड़े-बड़े लोगों ने अपनी व्यवस्था कर लिया. जज-कलक्टर तुम्हीं बनोगे. सीओ-बीडीओ तुम्हीं बनोगे और दारोगा-डीएसपी-एसपी तुम्ही बनोगे. क्लर्क और चपरासी भी तुम्हीं बनोगे. मतलब सबकुछ तुम्ही बनोगे और सबकुछ तुम्हें ही चाहिए. बड़ी चिंता है हमारे घर की. हमारे राशन कार्ड की. अब 70 वर्ष की आजादी के बाद हमारे भी बच्चों की पढ़ाई की बात करने लगे हो. छिः छिः शर्म भी नहीं आती. हमारे नाम पर विदेशों से धन लाते हो और उसे भी गटक जाते हो. जो हमारे हित की बात करता है उसे जातिवादी कहते हो और जो हमारे लिये संघर्ष करता है उसे नक्सली कहते हो. नक्सली कहकर हम भूखे-नंगे आदिवासियों को अपनी जमीन से हमें बेदखल करते आ रहे हो और अब सुन रहे हैं आतंकवादी करार देकर हमारे सफाये की योजना भी बना रहे हो. करो जो जी में आए हमारी मेहनत पर गुलछरे उड़ाने वालों. हमारी भी तो कोई सुनेगा. एक बार बाबासाहेब ने सुना तो तुम्हारी हेंकड़ी गुम हो गई और इस बार कोई सुन लिया तो पता नहीं चलेगा कि तुम कहां गुम हो गए. हमारा विकास चाहते हो? झूठ! बिल्कुल झूठ. सब कुछ तो लूट लिया. तुम लिए रहो अपना सब कुछ पढ़े-लिखे योग्य लोग जो हो. हम तो अनपढ़-गंवार अयोग्य और अधम, अछूत, पापी, चंडाल लोग हैं. हम तो जज-कलक्टर नहीं बन सकते. एसपी-डीएसपी भी नहीं बन सकते. क्लर्क बनने के योग्य भी तो नहीं बनाया. चलो! हमारे विकास की भी अब चिंता छोड़ दो. चलो! और कुछ नहीं बना सकते तो हमें केवल चपरासी बना सकते हो तो बना दो. हम नट, मुसहर, मेहतर, डोम, बंजारा, हलखोर इत्यादि ऐसी अत्यंत अछूत जातियों के हर घर से केवल एक चपरासी. हर सरकारी-गैर सरकारी कार्यालयों में चपरासी का पद हमारे लिये सुरक्षित कर दो. देखो! छुआ-छूत का भी कैसे सफाया हो जाता है. योग्यता का बहाना मत बनाना. देखो हम सब कुछ कर लेंगे. जमीन खरीदकर अपना घर बना लेंगे. छह माह में हम साफ-साफ कपड़ा भी बिल्कुल तुम्हारी ही तरह पहनना भी सीख जाएंगे. अपने बच्चों को पढ़ा लेंगे. और इससे घर-घर शिक्षा की लौ भी जल उठेगी. तुमसे दो वर्ष बाद आजाद हुए चीन के समकक्ष भारत भी पूरी तरह मजबूत होकर दुनिया के नक्शे पर उभरेगा. फिर कोई आंख उठाकर भारत की ओर गुर्राने की हिम्मत भी नहीं करेगा. आज तो कोई भी आंखे लाल कर वापस लौट जाने की हिम्मत रखता है. पाकिस्तान तो रोज 56 इंच की छाती को 56 सेंटीमीटर का बनाकर चला जाता है. और हम रटा-रटाया वही जुमला “इसबार नहीं छोड़ेंगे” कह-कहकर टुकुर-टुकुर ताकते रह जाते हैं. तब तक वह दूसरा धमाका भी करके चला जाता है और आंखे भी तरेरने लगता है. कैसी है तुम्हारी खुफिया एजेंसी और कैसे तुम हो कि 20-25 किलोमीटर तुम्हारी सीमा में घुसकर तुम्हारी सैनिक छावनियों को भी धूल में मिलाते रहता है. हमारी बहादुर सेना तुम्हारे आदेश की मोहताज बन हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है. पठानकोट फिर उरी और तुम आंसू के केवल दो बूंद बहाकर दुनियावालों को गोलबंद करने के बहाने अपनी नपुंसकता का परिचय देते रहते हो. हम अछूत पढ़े-लिखे नहीं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम समझदार भी नहीं हैं. देश की यह दुर्गति देख हमें भी दुख होता है. आखिर हमारा भी तो यही देश है. हम भी तो इसी मिट्टी में पले-बढ़े हैं. काश! संकीर्ण जातीय दुर्भावनाओं से ऊपर उठकर हमें भी अपने साथ चलना सिखाया होता तो मुझे लगता है तुम्हें दुनियावालों के सामने हाथ-पैर फैला-फैलाकर भीख मांगने के लिये विवश नहीं होना पड़ता बल्कि दुनियावाले तुम्हारी चौखट पर माथा टेकने को मजबूर होते. बौद्धयुगीन् काल को याद करो. हमारी गौरव-गाथा आज भी दुनियावाले गाते नहीं थकते. लेकिन महात्मा बुद्ध का वह समता, स्वतन्त्रता और भाईचारे का संदेश तुम्हें आज भी मंजूर नहीं. तुम तो उच्च-नीच वर्ण और जातीय व्यवस्था के निर्माणकर्ता और आज भी पोषक बने हुए हो. यह समझते क्यों नहीं कि जबतक हमें नीच समझते रहोगे, दुनियावाले तुम्हें चिढ़ाते रहेंगे और तुम  56 इंच का सीना लेकर भी उनके चौखट पर नाक रगड़ते रहने के लिये मजबूर बने रहोगे.

इतिहास के आइने में दलित-आदिवासी महिलाएं

मेरे दिमाग में कई बार आया कि आदिवासी औरतों के चित्र ही निर्वस्त्र ही क्यों देखने को मिलते हैं…कुछ इलाकों में आज भी आदिवासी औरतें लगभग निर्वस्त्र सी रहती हैं. क्यों?  यह भी सोचा कि शायद धनाभाव इसका कारण रहा हो… कभी यह भी कि कहीं इस प्रकार नंगे बदन रहना उनकी सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा ही न हो… उनकी आदत का हिस्सा भी तो हो सकता है…. किंतु कभी सवर्णों ने इस साजिश के बारे में नहीं सोचा कि आदिवासी महिलाओं को ही नहीं, अपितु अपने परिवार की महिलाओं को भी ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता था. फेसबुक पर आई एक पोस्ट से जाना कि अठारहवीं सदी तक दक्षिणी भारत की किसी विशेष जाति की महिलाओं को वक्ष ढकने का अधिकार नहीं था. यह अधिकार सवर्णों ने छीन रखा था. समय के गुजरने के साथ-साथ यह कुप्रथा संस्कृति का हिस्सा बन गई. ऐसा नहीं था कि तब का समाज इस प्रथा के खिलाफ नहीं था किंतु सामाजिक हालातों के चलते आवाज नहीं उठा पाता था. आर अनुराधा जी ने भी ‘जनसत्ता’ 25 अगस्त, 2012 के अंक में छ्पी खबर को माध्यम बनाकर हाल ही में ‘जनसत्ता’ में ही माध्यम से इस बात को बड़ी ही हैरत के साथ प्रस्तुत किया है कि केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए पचास साल से ज्यादा संघर्ष करना पड़ा. इतिहास बताता है कि सर्वप्रथम केरल के त्रावणकोर इलाके में तन ढकने का अधिकार पाने के लिए विद्रोह के बाद 26, जुलाई 1859 को वहां के महाराजा ने अवर्ण औरतों को शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाजत दी थी. यह अजीब लग सकता है… पर केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में भी महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए 50 साल से ज्यादा का संघर्ष करना पड़ा. इसलिए वहां की महिलाओं के लिए 26 जुलाई का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण है. इसी दिन 1859 में इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खासतौर पर निचली जाति ‘नादर’ की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया था. ‘नादर’ की ही एक उपजाति ‘नादन’ पर ये बंदिशें उतनी नहीं थीं जितनी ‘नादर’ जाति की औरतों पर थीं. उस समय न सिर्फ अवर्ण बल्कि नंबूदिरी ब्राह्मण और क्षत्रिय ‘नायर’ जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे. नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था. वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं. लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था. नादर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था. सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें सब जगह अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी. पहनने पर उन्हें सजा भी दी जाती थी. यहां ध्यान देने की बात है कि एक महारानी जो स्वयं एक औरत थी… कितनी अय्याश रही होगी? एक घटना बताई जाती है कि जब एक निम्न जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी ‘अत्तिंगल’ ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला था. …यह जानकर आपको कैसा लगता है? पुरुष ही औरत का शोषक नहीं, बल्कि महिलाओं के शोषण करवाने में महिलाओं की भी हमेशा से खासी भूमिका रही है. शायद औरतों का ये साज-श्रंगार उसी मानसिकता का प्रमाण है… उनकी इस भूमिका के चलते ही पुरुष पहलवान हो गए. इस माने में महिलाओं के शोषण के मामले में महिलाएं भी उतनी ही दोषी हैं जितने कि पुरुष… औरतें आज तक ये ही नहीं जान पाईं कि उनको जितनी पुरुष की जरूरत है, उससे ज्यादा पुरुष को औरतों की जरूरत है. यही मानसिकता व्यभिचार को जन्म देती है. इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं. 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर ‘नादर’ जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए. बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने और यूरोपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं. धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया. इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कोशिश करती रहीं. यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ. ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले किए जाने लगे. जो भी इस नियम की अवहेलना करती, उसे बीच बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता था. अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते. यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरेआम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ब्लाउज या कंचुकी पहनने से डरने लगें. यह वह समय था कि जब अंग्रेजों के राजकाज का भी असर बढ़ रहा था. 1814 में त्रावणकोर के दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई ‘नादन’ और ‘नादर’ महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं. लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ. उच्च वर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे. आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया. एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश. फलत: ज्यादातर महिलाओं ने कपड़े पहनने शुरू कर दिए. इधर उच्च वर्ण के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया. बताया जाता है कि ‘नादर-ईसाई’ महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा. उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े. तभी वे भीतर जा पाईं. ऐसा होने पर कपड़े पहने जाने के लिए शुरू हुए संघर्ष ने हिंसक रूप ले लिया था. सवर्णों के साथ-साथ, वहां का राजा तक भी औरतों द्वारा कपड़े न पहने जाने की परंपरा निभाने के पक्ष में था. आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची-जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहनी चाहिएं. उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में अर्धनग्न औरतों को ख़ड़ा रखा जाता था. राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृष्यों का भरपूर आनंद लेते थे. राजा भी और गुलाम भी. आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया. कुलीन पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश पारित कर दिया कि किसी भी अवर्ण जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती. अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया. अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और कुलीन पुरुषों के खिलाफ विरोध की ताकत बढ़ गई. सभी जगह महिलाएं जबरन बिना किसी भय के पूरे कपड़ों में घर से बाहर निकलने लगीं. इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है. विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों ने कमजोर जातियों की दुकानों में एकत्र सामान को लूटना शुरू कर दिया. इस तरह राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई. दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया. कहा जाता है कि तब मद्रास के कमिश्नर ने त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अशांति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है. अंग्रेजों और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का ऊपरी हिस्सा वस्त्र से ढक सकती हैं. 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के असामाजिक कानून को बदल दिया गया. आखिर कई स्तरों पर विरोध के चलते त्रावणकोर की महिलाओं ने तो अपने वक्ष ढकने जैसा बुनियादी हक हासिल कर लिया, किंतु आदिवासी इलाकों में निर्वस्त्र रहने का प्रभाव आज भी देखने को मिलता है. अंडमान निकोबार द्वीप समूह की आदिवासी प्रजातियों में तो आज भी लोग निर्वस्त्र रहते हैं. जहां कहीं कपड़े पहनने का रिवाज आ भी गया है तो उनके कपड़ों की बनावट निर्वस्त्र रहने जैसी ही देखने को मिलती है. हमारे देश में, विकृत मानसिकता वालों की भी कमी नही है जो इस खुलासे को अपने स्वार्थ के हेतु निराधार अफवाह फैलाने का कारण मानते हैं. वो उल्टे ऐसे खुलासे करने वालों को ही विकृत मानसिकता वाले लोगों मे शामिल करते हैं… खेद की बात तो ये है कि उनमें ज्यादातर तथाकथित सवर्ण वर्ग की महिलाएं हैं जिन्हें खुद भी उसी प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता था/है.  जिसका शिकार निम्न वर्ग की महिलाओं को होना पड़ता था/है… घर के भीतर ही सही. कुछ लोग इसे समाज में विद्वेष फैलाने की कोशिश मान रहे हैं तो कुछ इसे जागरुकता की संज्ञा से नवाज़ रहे हैं… कुछ लोग इस खुलासे को वोटों की राजनीति से जोड़कर देखते हैं… जो सही भी हो सकता है और नहीं भी. कुछ लोग इस खुलासे को सवर्णों के विरोध में की जा रही साजिश के रूप में देख रहे हैं. कुछ का कहना है कि कल कैसा था…. कल क्या हुआ… इसे लेकर हम आज क्यूं चर्चा करें? उनका तर्क है कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह की आदिवासी प्रजातियों के लोग तो आज भी निर्वस्त्र रहते हैं. अब कोई यह तो बताए कि उनसे उनके वस्त्र किसने छीने… ऐसा कहने वाले लोग ये भूल रहे हैं कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह की आदिवासी प्रजातियों की केवल महिलाएं ही निर्वस्त्र नहीं रहतीं… पुरुष भी निर्वस्त्र रहते हैं. इसे पुरुष–सत्ता का प्रमाण कैसे माना जा सकता है?  दरअसल यह आर्थिक तंगी का परिणाम है… और कुछ नहीं. यह जानकर, क्या आपको नहीं लगता कि सवर्ण जातियों के लोग ही क्यों तमाम वर्गों के पुरुष आदिकाल से ही दिमागी तौर पर स्त्री-देह के प्रति आसक्त रहे हैं… कम–ज्यादा का अंतर हो सकता है… बस. यदि ऐसा न होता तो निम्न जातियों के पुरुष भी निम्न जातियों की औरतों के हिमायत में खड़े नजर आते…. किंतु ऐसा नहीं हुआ. पुरुष की इस प्रकार की मानसिकता ही आज भी औरतों के प्रति घातक बनी हुई है. पुरुष को यूं ही स्त्री विरोधी नहीं माना जाता… पुरुषों की हरकतें हमेशा से ही कुछ ऐसी रही हैं जिनके चलते समूचे समाज को पुरुषवादी सोच का धनी कहा जाता है. इतिहास की इस कड़बाहट को महिलाओं की वर्तमान स्थिति के बल पर नकारा नहीं जाना चाहिए. औरतों की आज जो भी सामाजिक अवस्था है ….वह केवल शिक्षा के प्रचार-प्रसार के चलते राजनीति और सरकारी नौकरियों की भागीदारी के कारण है. यह भी सच बात है कि वर्तमान में शिक्षित अथवा अशिक्षित, दोनों प्रकार की महिलाएं अनेक बार पुरुष पर भारी पड़ रही हैं… खासकर नौकरीशुदा पुरुषों के मामले में…. वो तमाम की तमाम सम्पत्ति को केवल और केवल अपनी पत्नि के नाम ही करते हैं… उसका परिणाम ये होता है कि अंत समय में पति “बेचारा”  बनकर अकेला रह जाता है… बच्चे मम्मी के साथ हो जाते हैं… संपत्ति का मोह जो बना रहता है और कुछ नहीं. पिता जैसे उधार की वस्तु बन जाता है. इसे पुरुष की कमजोरी भी माना जा सकता है. किंतु कुल मिलाकर औरत की सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में कोई खास अंतर नहीं आया है. सामान्य तौर पर आज भी औरत को जैसे पुरुष की सम्पत्ति ही माना जाता है. उसे आज भी सामाजिक सम्मान मिलना किसी सपने से कम नहीं. उसकी सामाजिक मामलों आज भी जैसे साझेदारी नहीं है. खैर! आज जबकि समाज को शिक्षा और विकास की बातों पर ध्यान देना चाहिए. हम ऐसी बातें फैला कर किसी एक वर्ग के पुरुषों की खिलाफत कर रहे हैं… ऐसा नहीं है.  हां! ये ठीक है कि हमें अफवाहें फैलाने के बदले इतिहास को लेकर समाज को शिक्षा और विकास की बातों पर ध्यान देना चाहिए…. किंतु इतिहास को सिरे से नकारना भी बेहतर समाज बनाने की प्रक्रिया के लिए घातक हो सकता है क्योंकि इतिहास हमें आगे का उन्नत मार्ग तलाशने का सबक देता है. – लेखक  लेखन की तमाम विधाओं में माहिर हैं. स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादन के साथ स्वतंत्र लेखन में रत हैं. संपर्क- 9911414511