अतीत के संदर्भ में स्वच्छ भारत मिशन और दलित विकास

स्कूल के दिनों में 2 अक्तूबर को गांव में सभी छात्रों की एक रैली निकलती थी. जिसे हमारे मराठवाड़ा अंचल में ”प्रभात फेरी” कहा जाता था. मजे की बात यह थी कि यह फेरी गांव के बाहरी रास्तों से निकलती थी जिस पर सुबह का मैला और गंदी नालियों का पानी हमेशा बहता रहता. आज भी इन्हीं रास्तों से निकलती है. इसे गांव में ”हागनदारी” कहने का प्रचलन रहा है. तो इस ”हागनदारी” के रास्ते पर फैले हुए शौच और मैले से बचते हुए, अलग-अलग किस्म के नारे लगाते हुए स्कूल के सभी छात्रों को पंचायत तक पहुंचना होता था. जहां पर तिरंगे झंडे को सलामी देनी पड़ती. इस ”हागनदारी” के रास्ते पर चलते समय शिक्षक लोग हम सभी बच्चो को एक नारा सिखाते थे…”बंदा रुपया चांदी का..सारा देश गांधी का” और बच्चे जोर जोर से इसे दोहराते. इस रास्ते के दो तरफ़ा हमेशा महिलाओं का ”स्टैंड अप” और ”सिट डाउन” हुआ करता था. लेकिन ”प्रभात फेरी” के दिन महिलाओं के लिए बड़ी मुश्किल हो जाती. ”प्रभात फेरी” आगे निकल जाने तक उन्हें ”स्टैंड अप” वाली पोजीशन में शर्म के मारे अपना समूचा शरीर सिकुड़कर मुंडी निचे झुकाये हुए खड़ा रहना पड़ता था.कई महिलाओं को तो ”पर्दा प्रथा” का अनुसरण करने पर मजबूर होना पड़ता|.यह स्थिति आज भी बहुत कुछ जस-की-तस है.

उन दिनों ऐसा लगता था कि, वे सभी महिलाएं रास्ते के दोनों तरफ निश्चित अंतर रखके खड़ी है और एक हाथ में पानी का ”लोटा” जिसे मराठवाडा अंचल में एक बड़ा प्रसिद्ध और प्रचलित शब्द है- ”टमरेल” लेकर और दूसरे हाथ से साड़ी का पल्लू संभालते हुए ”प्रभात फेरी” का स्वागत कर रही हैं. एक तरह से यह उनके द्वारा गांधी बाबा और तिरंगे को दी जानेवाली सलामी ही थी! इसी बीच कोई बच्चा उनकी तरफ देखते हुए जोर से चिल्लाता- ”बंदा रुपया चांदी का..सारा देश गांधी का”. तब बड़ी शर्म से वे अपना मुंह छुपाने की कोशिश करती… और जब पंचायत के पास यह ”प्रभात फेरी” पहुंच जाती तो जितने सज धज के बच्चे सुबह स्कूल गए होते, वह रौनक पूरी तरह से बदल गई होती. ठीक ऐसे समय में मुखिया के निर्देश पर बांटी गई ”लेमन गोलियां” और छोटे-छोटे ”बिस्कुट” लेने की होड़ लगी रहती. हाथ-मुंह धोने की सीख का अनुकरण कोई नहीं करता. जो मिला उसे तुरंत अपने जेब और मुंह में ठूंसने और दुबारा हाथ आगे करने की कोशिश में लगे रहते. ऐसे में एक जिज्ञासा हमेशा बनी रहती कि, यह गांधी बाबा आखिर है कौन? जिसने हमकों ”लेमन गोलियां” और ”बिस्कुट” दिए.

आजकल इस प्रथा में थोडा-सा बदलाव आया है- बच्चों को ”चॉकलेट” देने का प्रचलन आरंभ हुआ है! कभी-कभी यह भी लगता था कि इस तरह की ”प्रभात फेरी” को तो रोज निकलना चाहिए. फिर यह भी विचार दिमाग में आते रहते कि गांधी बाबा के नारे लगाते हुए निकाली गई यह ”प्रभात फेरी” इतनी कष्टदायी क्यों होती है? पंचायत तक पहुंचते-पहुंचते ”प्रभात फेरी” के बच्चों का उत्साह ”हागनदारी” के फूलों की खुशबू और कपड़ों पर उड़े हुए नाली के पानी के छीटों की बदबू में क्यों बदल जाता है? तब मन में बड़ी घृणा और गुस्सा उभरता था. लेकिन ”प्रभात फेरी” का उत्साह और ”शिक्षकों का डर” सब कुछ निगल जाने को मजबूर कर देता. ऐसे में अपने गुस्से को मजाकिया अंदाज में बयान करने के लिए बच्चे-लोग नारे लगाते.. ”बंदा रुपया चांदी का..सारा देश गांधी का”….”बंदा रुपया चांदी का..सारा देश गांधी का” और बीच में ही कोई शरारती बच्चा व्यंग करते हुए जोर से बोल देता… ”याच्याच नावाचा शेतसारा..अन पक्का सात-बाराचा उतारा.” (इसके ही नाम की खेती सारी और खसरा खतौनी भी) तब यह समझने में बड़ी मुश्किल होती कि यह ”शेतसारा” और ”सात-बारा” क्या है? और इसकी प्रासंगिकता क्या है? बहुत दिनों बाद समझ में आया कि इस देश में यह मान लिया गया है कि, सिर्फ गांधी बाबा ही इस देश के राष्ट्रपिता है. उनका दूसरा कोई सानी नहीं है?… लेकिन एक सवाल आज भी मस्तिष्क में घूमता है कि, ”गांधी बाबा” के जन्मदिवस की ”प्रभात फेरी” यानि सवारी ”हागनदारी” के रास्ते से ही क्यों निकाली जाती है. आज भी गावों में महिलाओं की ”स्टैंडअप” और ”सिट डाउन” वाली पोजीशन में क्यों बदलाव नहीं आया है?

आज समूचे देश में हाथ में झाड़ू लेकर ”स्वच्छ भारत मिशन” मनाया जा रहा है और सेल्फी खिंच-खींचकर सभी मीडिया चैनलों एवं सोशल मीडिया पर दिखाया जा रहा है. जबकि हमारे गांव इससे कोसों दूर है. पिछले कुछ वर्षों में इस परंपरा में थोड़ा बहुत बदलाव जरुर हुआ है. ‘हागनदारी मुक्त गांव’ जैसी कई सरकारी योजनाओं के तहत गावों में सफाई रखने और शौचालय बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं. पर इसमें कुछ विडम्बनापूर्ण तथ्य भी सामने आये हैं. सरकारी योजना के तहत शौचालय बनाने हेतु दस हजार का अनुदान दिया जा रहा है. जिसके लिए लाभार्थी को एक हजार रुपये पहले जमा करने हैं. ऊपर से जो अनुदान मिलता है वह गांव के खास अभिजात्य वर्गीय लोगों तक सिमित हो रहा है, दलित और पिछड़े समाज के लाभार्थियों का प्रतिशत न्यूनतम है. यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इन समुदायों की भागीदारी न के बराबर है. ऊपर से सरकारी बाबू लोग, ठेकेदार और इंजिनियरों की मिलीभगत से प्रत्येक का अपना ‘कमीशन’ वाला हिस्सा तय है. कम से कम दो हजार ईंटे लगती है शौचालय बनाने में, जो छह हजार रुपये से कम में नहीं मिलती है. फिर बाकी का सामान है, जिसमें लोहे के रॉड, सीमेंट, टाइल्स, पानी की टंकी और शौच के अन्य साधन आदि कई वस्तुओं को खरीदना पड़ता है. शौचालय बनाने वाले मिस्त्री की मजदूरी और साधनों को लाने का किराया अलग से खर्चा है. बीच-बीच में तहसील के दफ्तर में ”चेक” पाने के लिए चक्कर काटना किसी भी लाभार्थी के लिए उसकी आर्थिक आय से महंगा हो जाता है. सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि जहां पीने के लिए पानी मुनासिब नहीं है, वहां शौचालय के लिए पानी कहां से लाया जाए और यही चिंता सबको सताती है. बावजूद इसके बहुत से लोगों ने ‘रिस्क’ तो लिया है. बढ़ती महंगाई के दौर में सरकारी स्तर पर अनुदान की रक्कम कम से कम पचीस हजार तो होनी चाहिए और सबसे बड़ी बात यह है कि किसी भी समुदाय की भागीदारी के बिना बहुत कुछ होना असंभव है. ऐसे में लोगों की मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन लाने की आवश्यकता पर बल देना चाहिए. आज जब देश के विकास और सफलता की चर्चा हो रही हैं तो यहीं अफ़सोस है कि तब से अब तक हम वहीं के वहीं खड़े है और विकास के नारे सिर्फ हवा में उड़ रहे हैं. इस हकीकत को समझने की आवश्यकता है. बावजूद इसके गांव की खसरा खतौनी में आज भी एक स्थापित नारा चलता है- ”बंदा रुपया चांदी का..सारा देश गांधी का”. ऐसे में फिर से बचपन के उस नारे के हवाले से ही कहना पड़ रहा है कि, ”याच्याच नावाचा शेतसारा..अन पक्का सात-बाराचा उतारा.”

डॉ. शिवदत्ता वावळकर एस.एन.डी.टी. कला और वाणिज्य महिला महाविद्यालय में प्राध्यापक हैं.

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