अपने छात्र जीवन में मैं साहित्य का छात्र नहीं रहा. बाद के दिनों में भी कविताओं से कम ही लगाव रहा. इसके बावजूद मुझे रविंद्रनाथ टैगोर का नाम पता है, हिंदी-अंग्रेजी के नामचीन कथाकारों-साहित्यकारों के बारे में जानता हूं. फिर आखिर अण्णाभाऊ जैसा महान साहित्यकार कैसे छूट सकता है. कुछ मराठी मित्रों से उनके बारे में काफी कुछ जानने को मिला तो यह भी साफ हो गया कि आखिर मैं उनके बारे में बहुत क्यों नहीं जान पाया. वजह उनका दलित होना है. वाल्मीकि से लेकर रैदास और फिर डॉ. अम्बेडकर तक दलित समाज के महापुरुषों के विचारों को दबाया जाता रहा है. ब्राह्मणवादी समाज की यह कोशिश रही है कि न तो इनके विचार दलित समाज तक पहुंचे और न ही नई पीढ़ी अपने इन महापुरुषों के बारे में जान पाए.
अन्नाभाऊ साठे का जन्म 1 अगस्त 1920 में हुआ. उनका पूरा नाम तुकाराम भाऊ साठे था लेकिन वह अण्णाभाऊ साठे के नाम से विख्यात हैं. वह विश्वविख्यात साहित्यकार हैं. वह महाराष्ट्र के दलित परिवार में जन्मे. महज एक दिन के लिए स्कूल गए. लेकिन इसी एक दिन की सीख ने उन्हें सामाजिक प्रताड़ना की अवहेलना सहने की दीक्षा दे दी. उन्होंने ठान लिया कि जिस व्यवस्था ने उन्हें प्रताड़ित किया है, अपनी प्रतिभा से एक दिन उसके मुंह पर तमाचा जरूर मारेंगे. जिस स्कूल में उन्हें अपमानित होना पड़ा था उन्होंने दुबारा कभी उसका मुंह तक नहीं देखा. मुंबई में साईन बोर्ड के अक्षरों को देखकर और उन्हें बोर्ड पर रंगकर उन्होंने पढ़ना और लिखना सीखा. और मनुवादी व्यवस्था से जूझते हुए खुद को साबित भी किया.
मूलरूप से मराठी में लिखने वाले अण्णाभाऊ के कलम की ताकत इतनी थी कि विश्व के 27 भाषाओं में उनकी रचनाओं का अनुवाद किया गया. वह दलित-जीवन का सशक्त चित्रण करनेवाले पहले बड़े लेखक थे. उन्होंने विविध कहानियां लिखी. उनकी रचना में समाज के निम्न स्तर के शोषितों, पीड़ितों के जीवन का संसार दिखाई देता है. उन्होंने जो जीवन जिया उसी का चित्रण किया. उसमें कल्पना का अंश नहीं था. उनके पात्रों को रोटी-कपड़ा-मकान की मूलभूत जरूरतों के लिए खून-पसीना एक करना पड़ता था और सामाजिक अवमानना को भी झेलना पड़ता था. इसी परिवेश में विद्रोह के बीज बोए जाते हैं. आनेवाले परिवर्तन की आहट इन कथाओं में सुनी जा सकती है.
साठेजी प्रतिबद्ध रचनाकार थे और बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के आंदोलन से भी प्रभावित थे. वे शोषण के और धर्म-पाखंड के विरोधी थे.उनकी कहानियों के चर्चित होने का एक और कारण अपनी रचनाओं द्वारा दलितों के उन्मुक्त जीवन का चित्रण भी था. साथ ही उन पर आदर्शवाद का भी प्रभाव था. उनके समानांतर दलित युवा रचनाकारों को अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का अनुकूल वातावरण मिल गया. दलित साहित्य के आंदोलन के रूप में मराठी की साहित्यिक संस्कृति में एक तूफान-सा आ गया.
अण्णाभाऊ ने लिखा ‘जग बदल घालूनू घाव गेले मला सांगूनी भीमराव’ (इस दुनिया को बदलना है. मुझे भीमराव ने यहीं सीखाया है). यह माना जा सकता है कि बाबासाहेब द्वारा शुरु किए गए आंदोलन का साहित्य की दुनिया में सही मायने में प्रतिनिधित्व अण्णाभाऊ ने ही किया. उनकी रचनाओं में संघर्ष एवं वर्णवर्चस्ववादी व्यवस्था के प्रति तथा उसमें पीसने वालों के प्रति कड़वी टिपण्णीयां हैं जो पाठकों को समाज से जोड़े रखती है. यह आज भी होता है इसीलिए अण्णाभाऊ आज भी मराठी साहित्य के महानतम लेखकों मे से एक है.
अण्णाभाऊ ने 34 उपन्यास, 13 नाटक, कई पोवाडा गीत, 14 वगनाटिकाएं और एक प्रवास वर्णन लिखा. उनकी लेखनी किस स्तर की होगी यह इसी से समझा जा सकता है कि उनकी तकरीबन सभी रचनाओं का अनुवाद दुनिया भर की 27 भाषाओं मे किया गया. मराठी साहित्य जगत के शायद ही किसी लेखक को यह सम्मान मिला हो. वहीं अगर भारत देश की बात करें तो भी ऐसे लेखक विरले ही मिलेंगे. लेकिन जहां एक के बाद एक अद्भुत रचना करते हुए उन्होंने अपने साहित्य का अंबार लगा दिया तो दूसरी ओर साहित्य के इस दमकते सितारे की चमक को कम करने की हर संभव कोशिश की जाती रही.
विदेशों में भारत की पहचान को बुलंद करने वाले इस साहित्याकर को अपने ही देश में तमाम उपेक्षाओं का शिकार होना पड़ा. कहने को इनके नाम पर डाक टिकट भी जारी हुआ. महाराष्ट्र में कुछ जगहों पर मूर्तियां भी बनीं. लेकिन जितनी प्रसिद्धी पर इनका हक था, वह उन्हें नहीं मिल सका. मराठी साहित्यकारों की दुनिया ने इस महान साहित्यकार को हमेशा उपेक्षित रखा गया. विदेशों में उन्हें सबसे अधिक सम्मान रशिया में मिला. कहा जाता है कि वह रशिया में इतने प्रसिद्ध थे कि एक वक्त था जब रशिया ने अण्णा के नाम को देखते हुए और उनके भारतीय होने के कारण भारत को बड़ी मदद की थी. लेकिन विदेशों में मान्यता और सम्मान मिलने के बावजूद वह अपने ही देश में आज तक उचित सम्मान नहीं पा सके. 18 जुलाई 1969 को उनका महापरिनिर्वाण हो गया.

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
