माना आप बहुत सयाने हैं, लेकिन थोड़ा मनुष्य बनिए

  • अभिषेक श्रीवास्तव

माना आप बहुत सयाने हैं। आप जानते हैं कि मौत यहां भी है और वहां भी, इसलिए गांव लौट जाना ज़िन्दगी की गारंटी नहीं है। आप ठीक कहते हैं कि गांव न जाकर शहर में जहां एक आदमी अकेला मरता, वहीं उस आदमी के गांव चले जाने से कई की ज़िन्दगी खतरे में पड़ सकती है। सच बात है। तो क्या करे वो आदमी? गांव से दूर परदेस में पड़ा पड़ा हाथ धोता रहे? दूर दूर रहे अपनों से? मास्क लगाए? गरम पानी पीये? लौंग दबाए? क्या इससे ज़िन्दगी बच जाएगी?

वैसे, आपको खुद इस सब पर भरोसा है क्या? दिल पर हाथ रख कर कहिए वे लोग, जिन्हें एनएच-24 पर लगा रेला आंखों में दो दिन से चुभ रहा है। आप मास्क लगाए हैं, घर में कैद हैं, सैनिटाइजर मल रहे हैं, कुण्डी छूने से बच रहे हैं, गरम पानी पी रहे हैं। ये बताइए, मौत से आप ये सब कर के बच जाएंगे इसका कितना भरोसा है आपको? होगी किसी की स्टैंडर्ड गाइडलाइन है, लेकिन दुश्मन तो अदृश्य है और उपचार नदारद। कहीं आप भी तो भ्रम में नहीं हैं? आपका भ्रम थोड़ा अंतरराष्ट्रीय है, वैज्ञानिक है। हाईवे पर दौड़ रहे लोगों का भ्रम भदेस है, गंवई है। आप खुद को व्यावहारिक, समझदार, पढ़ा लिखा वैज्ञानिक चेतना वाला शहरी मानते हैं। उन्हें जाहिल। बाकी उस शाम बजाई तो दोनों ने थी – आपने ताली, उन्होंने थाली! इतना ही फर्क है? बस?

भवानी बाबू आज होते तो दोबारा लिखते: एक यही बस बड़ा बस है / इसी बस से सब विरस है! तब तक तो आप और वे, सब बारह घंटे का खेल माने बैठे थे? जब पता चला कि वो ट्रेलर था, खेल इक्कीस दिन का है, तो आपके भीतर बैठा ओरांगुटांग निकल कर बाहर आ गया? आपके नाखून, जो ताली बजाते बजाते घिस चुके थे और दांत जो निपोरने और खाने के अलावा तीसरा काम भूल चुके थे, वे अपनी और गांव में बसे अपनों की ज़िन्दगी पर खतरा भांप कर अचानक उग आए? लगे नोंचने और डराने उन्हें, जिन्हें अपने गांव में ज़िन्दगी की अंतिम किरन दिख रही है! कहीं आपको डर तो नहीं है कि जिस गांव घर को आप फिक्स डिपोजिट मानकर छोड़ आए हैं और शहर की सुविधा में धंस चुके हैं, वहां आपकी बीमा पॉलिसी में ये लाखों करोड़ों मजलूम आग न लगा दें?

आप गाली उन्हें दे रहे हैं कि वे गांव छोड़कर ही क्यों आए। ये सवाल खुद से पूछ कर देखिए। फर्क बस भ्रम के सामान का ही तो है, जो आपने शहर में रहते जुटा लिया, वे नहीं जुटा सके। बाकी मौत आपके ऊपर भी मंडरा रही है, उनके भी। फर्क बस इतना है कि वे उम्मीद में घर की ओर जा रहे हैं, जबकि आप उनकी उम्मीद को गाली देकर अपनी मौत का डर कम कर रहे हैं। सोचिए, ज़्यादा लाचार कौन है? सोचिए, ज़्यादा अमानवीय कौन है? सोचिए ज़्यादा डरा हुआ कौन है?

सोचिए, और उनके बारे में भी सोचिए जिनके पास जीने का कोई भरम नहीं है। जिन्होंने कभी ताली नहीं पीटी, जो मास्क और सैनिटाइजर की बचावकारी क्षमता और सीमा को समझते हैं, और जिनके पास सुदूर जन्मभूमि में कोई बीमा पॉलिसी नहीं है, कोई जमीन जायदाद नहीं है, कोई घर नहीं है। मेरी पत्नी ने आज मुझसे पूछा कि अपने पास तो लौटने के लिए कहीं कुछ नहीं है और यहां भी अपना कुछ नहीं है, अपना क्या होगा? मेरे पास इसका जवाब नहीं था। फिलहाल वो बुखार में पड़ी है। ये बुखार पैदल सड़क नापते लोगों को देख कर इतना नहीं आया है, जितना उन्हें गाली देते अपने ही जैसे तमाम उखड़े हुए लोगों को देख कर आया है। दुख भी कोई चीज है, बंधु!

मनुष्य बनिए दोस्तों। संवेदना और प्रार्थना। बस इतने की दरकार है। एक यही बस, बड़ा बस है…।

वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से 

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