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कोरोना के बहाने भारतीय जनता पार्टी शासित राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों में जो मजदूर विरोधी बदलाव किये हैं, उन्हें श्रम सुधार का नाम दिया जा रहा है. सच्चाई यह है कि किसी भी तरह से ये बदलाव श्रम सुधार नहीं बल्कि मोदी सरकार की सरपरस्ती में यह मजदूरों को बंधुआ बना देने का घिनौना षड़यंत्र है. पूरी दुनिया में साल 2019 के अंत में पैदा हुए कोरोना वायरस ने कोहराम मचा रखा है. पुष्ट आंकड़ों के अनुसार लगभग साढ़े तैंतालीस लाख (4342565) लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं. मानवता के दुश्मन इस वायरस ने अबतक लगभग तीन लाख लोगों की जान ले ली है. अकेले भारत में ही आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 80 हजार से ज्यादा संक्रमित मरीज हैं और मरने वालों की संख्या चार हजार से ऊपर पहुँच गयी है. ये कोई अंतिम आंकड़ा नहीं है बल्कि प्रतिदिन यह ग्राफ उपर की तरफ बढ़ रहा है. दुनिया भर में विभिन्न सरकारों ने कोरोना से जंग को अपनी पहली प्राथमिकता पर रखा है.
एक तरफ दुनिया कोरोना संक्रमण से लड़ने के लिए हरसम्भव प्रयास कर रही है, वहीं भारत में केंद्र और कुछ राज्य सरकारें इस मुश्किल समय का लाभ षड्यंत्रकारी गुप्त एजेंडों को लागू करने के लिए उठा रही हैं. प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में खुलकर यह स्वीकारा है कि “हम आपदा को अवसर में बदल रहे हैं.” दलील यह दी जा रही है कि कोरोना संक्रमण के कारण हुए लॉकडाउन से होने वाले कारोबारी और औद्योगिक घाटों को पूरा करने के लिए यह श्रम सुधार किया जा रहा है. जिस समय भारत का मजदूर सड़कों पर भूखे-प्यासे तकलीफों की इन्तहां झेलकर अपनी मिट्टी की तरफ पलायन कर रहा है, उसी समय सरकार ने उनकी पीठ पर श्रम कानूनों को निरस्त करके छूरा घोंपा है. सदियों की लड़ाई के बाद इन मजदूरों के पुरखों ने जो श्रमिक अधिकार हासिल किये थे, उनको अध्यादेश लाकर एक झटके में खत्म कर देने का कुकर्म इस देश में किया गया है. इन श्रमिक अधिकारों को हासिल करने के लिए ना जानें कितने खून बहे और न जानें कितनीं जानें गयीं हैं.
इस तथाकथित श्रम सुधार में मजदूरों के उन अधिकारों को निरस्त किया गया है जिनकी बदौलत वे अपने साथ हुए अन्याय को श्रम अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक चुनौती दे सकता था. इन कानूनों में समान वेतन, न्यूनतम वेतन, ट्रेड यूनियन बनाने का हक़, औद्योगिक नियोजन एवं विवाद, काम के घंटे, अवकाश, मध्यान्ह अवकाश, श्रमिक सुरक्षा, कैंटीन सुविधा, ठेका मजदूर के अधिकार, अन्तर्राज्यीय प्रवासी मजदूरों के अधिकार, कर्मचारी भविष्य निधि कमचारी राज्य बीमा, बोनस, असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़े अधिकार शामिल हैं. विडम्बना यह है कि जिन कानूनों का कोरोना से कोई सरोकार नहीं है उसे भी लॉकडाउन के नाम पर अप्रभावी बना दिया गया है. 1976 में लागू हुए “समान वेतन अधिनियम” में यह प्रावधान था कि एक ही काम के लिए श्रमिकों को अलग-अलग वेतन नहीं दिया जा सकेगा. इस कानून की वजह से पूंजीपति या फैक्ट्री मालिक समान काम के लिए मजदूरों को अलग-अलग वेतन पर नियुक्त नहीं कर सकता था. मतलब स्त्री हो या पुरुष, कम मजबूर हो या अधिक सबको समान काम के लिए समान वेतन मिलेगा. कोरोना के बहाने उत्तर प्रदेश में इस कानून को भी तीन सालों के लिए निरस्त कर दिया गया है, जो कतई तर्कसंगत फैसला नहीं है.
श्रम कानूनों की धार को कुंद करने में भारतीय जनता पार्टी द्वारा शासित उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात के साथ-साथ कांग्रेस द्वारा शासित राज्य राजस्थान भी शामिल है. कर्नाटक में तो बिल्डरों और ठेकेदारों के साथ बैठक करने के बाद मुख्यमंत्री ने वहाँ से चलने वाले श्रमिक स्पेशल ट्रेनों पर ही रोक लगवा दिया ताकि प्रवासी मजदूर अपने गाँव वापस न जा सकें. इन सभी राज्यों में काम के घंटे को 8 से बढ़ाकर 12 कर दिया गया है. इसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि इससे उद्योग जगत के रुके हुए पहिये को गति मिलेगी. सवाल यह है कि आखिर यह कौन सा विकास का इंजन है जो मजदूरों के खून से चलता है? उत्तर प्रदेश में अध्यादेश से पहले 38 श्रम कानून लागू थे. इनमें से कुछ कानूनों को छोड़कर जिनमें 1976 का बंधुआ मजदूर अधिनियम, 1923 का कर्मचारी मुआवजा अधिनियम और 1966 का अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम शामिल है, 35 कानूनों को हजार दिनों के लिए निरस्त कर दिया गया है. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी बयान में यह कहा गया है कि “महिलाओं और बच्चों से संबंधित कानूनों के प्रावधान जैसे कि मातृत्व अधिनियम, समान पारिश्रमिक अधिनियम, बाल श्रम अधिनियम और मजदूरी भुगतान अधिनियम के धारा 5 को बरकरार रखा है, जिसके तहत प्रति माह 15,000 रुपये से कम आय वाले व्यक्ति के वेतन में कटौती नहीं की जा सकती है.” इस अध्यादेश के बाद कई अहम श्रमिक कानून अब निष्प्रभावी हो गए हैं, इनमें मिनिममवेज (न्यूनतम मजदूरी) एक्ट काफी अहम है जिसके मुताबिक एक तय न्यूनतम राशि मजदूरों को देना अनिवार्य था. सभी उद्योग इसी के तहत ही श्रमिक व मजदूरों का भुगतान करते थे लेकिन अब सब अपनी सुविधानुसार करेंगे.
जब बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने काम के घंटे को घटा कर 12 से 8 किया था तब मजदूरों के वेतन को नहीं घटाने की सिफारिश की थी लेकिन मोदीकाल में जिस तथाकथित श्रम सुधार में काम के घंटे को वापस बढ़ाकर 8 से 12 किया जा रहा है, इस समय वेतन को बढ़ाने की कोई बात नहीं की जा रही है. इसका मतलब बिल्कुल साफ है कि यह मजदूरों की सरकार न होकर मालिकों की सरकार है. काम के घंटे को बढ़ाना एक अमानवीय फैसला है. 1886 में जब शिकागो में काम के घंटे को लेकर आन्दोलन हुआ था तब श्रमिकों ने “8 घंटा काम, 8 घंटा आराम और 8 घंटा मनोरंजन” के नारे के साथ अपनी जान की बाजी लगाकर इस अधिकार को प्राप्त किया था. मोदीराज में काम के घंटे को बढ़ाकर 12 किये जाने से शिकागो के शहीदों का अपमान हुआ है.
कोरोना तो एक बहाना है, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद से ही श्रम कानूनों पर हमला तेज कर दिया गया था. 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को विलय करके 4 श्रम संहिताओं में बदलने की पहल मोदी सरकार ने पहले ही शुरू कर दी थी. लगातार यह कुत्सित प्रयास जारी है कि कैसे ट्रेड यूनियनों की दखल को कम किया जाए और मजदूरों के शोषण का खुला खेल शुरू हो. इसके लिए कोरोनाकाल से पहले ही मोदी सरकार ने लम्बे संघर्ष और शहादत के बल पर हासिल किये गए श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलाव शुरू कर दिया था. जानकार बताते हैं कि 2014 में सरकार बनाने के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्व भ्रमण पर निकल पड़े लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद कोई विशेष पूंजीनिवेश भारत में लेकर नहीं आ सके.
आत्मनिर्भरता का नया नारा देने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार ने कोरोना से पहले बहुत तेजी से लाभ कमाने वाली सरकारी कम्पनियों को निजी हाथों में बेचने का काम शुरू कर दिया था. अब जैसा कि प्रधानमंत्री अपने राष्ट्र के नाम सन्देश में बोल चुके हैं कि आपदा को अवसर में बदलना है, तो कोरोना के बहाने मजदूरों के शोषण के नये युग का आगाज होते हम देख रहे हैं. पूरी दुनिया की कम्पनियां जो एशिया में चीन को अपना व्यापारिक केंद्र मानतीं थीं, अब कोरोना के बाद बहुत तेजी से अपना कारोबार चीन से समेट रहीं हैं. सम्भवतः केंद्र सरकार इस उम्मीद में बैठी हो कि श्रम कानूनों में ढील देकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत की तरफ आकर्षित किया जा सकेगा.
बहरहाल, श्रम कानूनों में किये गये मजदूर विरोधी बदलावों से श्रमिकों के शोषण के एक नये युग का आग़ाज हो गया है, जिसमें मजदूरों के खून से देश के विकास का इंजन चलाने की तैयारी की गयी है. ये बदलाव देश के कामगारों को बंधुआ मजदूरी करने के लिए बाध्य कर देंगें. इतिहास के पन्नों पर काली स्याही से यह बात दर्ज की जायेगी कि भारत में संघर्षों और शहादतों की कीमत पर मजदूरों ने जो अधिकार हासिल किये थे, मोदीकाल में वे अधिकार कोरोना के बहाने श्रम सुधार के नाम पर निरस्त कर दिए गये और मजदूरों को गुलामी की राह पर धकेल दिया गया.
लेखक सुशील कुमार स्वतंत्र भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दिल्ली राज्य परिषद के सदस्य और ट्रेड यूनियन नेता हैं।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं। इनकी दिलचस्पी खासकर ग्राउंड रिपोर्ट और वंचित-शोषित समाज से जुड़े मुद्दों में है। दलित दस्तक की शुरुआत से ही इससे जुड़े हैं।
