आज स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, पसमांदा विकलांगों का विर्मश अश्वेत साहित्य आदि के साहित्यिक राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि मसविदे विश्लेषित विमर्श में दलित एवं गैर दलित के शोषणों में समानता होने के बावजूद उनमें कुछ भिन्नता होने के कारण दलित स्त्रियों की कुछ समस्यायें छूट जा रही हैं, जिन्हें साथ लेकर चलना जरूरी है। गैर दलित स्त्री की अपेक्षा दलित स्त्री को एक नये दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है, क्योंकि जिस स्तर से गैर दलित स्त्रियाँ अपने अधिकारों के लिए पित्रसत्तात्मक समाज से लड़ रहीं हैं । उस स्तर से अपने अधिकारों की मांग कर रही हैं , उस स्तर से दलित स्त्रियों की कुछ समस्यायें छूट रहीं हैं । हालांकि यह भी कि कुछ पढ़ी-लिखी दलित स्त्रियाँ सम्पूर्ण दलित स्त्रियों का प्रतिनिधित्व तो कर रहीं हैं, उनकी संख्या गैर दलित स्त्रियों की अपेक्षा बहुत कम है । इसका मूल कारण दलितस्त्रियों में उच्च शिक्षा का अभाव और दलित स्त्री का सीमित दायरे में आन्दोलन हो सकता है।
जब एक चेतनाशील नारी स्वयं यह कहती रही है कि एक स्त्री ही अपने भोगे हुए यथार्थ को ज्यादा मार्मिकता के साथ व्यक्त कर सकती है । पुरुष तो पढ़कर, सुनकर अथवा अपने समय के समाज के आधार पर ही सहानुभूति दिखाकर स्त्री अधिकारों की बात करता है । सवाल यह है कि जब पुरुष स्त्री के शोषण को व्यक्त कर पाने में असमर्थ है, तो एक गैर दलित स्त्री एक दलित स्त्री की वास्तविक संवेदना को क्या बखूबी बयां कर सकती है? और यदि कर सकती है तो दलित स्त्रियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने में हिचकिचाती क्यों है ?दलित स्त्री के मुद्दों पर बहुतायत फ़ॉर्मेल्टी क्यों अदा करती है ? गैर दलित स्त्रियों द्वारा दलित स्त्रियों पर कितनी किताबें लिखीं गईं । यही थोड़ा समझने की जरूरत है।
अधिकांशतः जब एक दलित स्त्री स्वतंत्र रूप जैसे ही विचरण करने की कोशिश करती है। किसी आततायी के स्पर्श पड़ने से केंचुए की तरह उसे सिमटना पड़ता है। वह केंचुआ बनाना नहीं चाहती लेकिन बनने पर मजबूर है। आततायी यदि सवर्ण हुआ तो लड़की के घरवाले उस दरिन्दे के खिलाफ कुछ नहीं बोलते स्वयं अपनी बेटी को ही चुप करा देते हैं। यदि वे कानून का सहारा लेते भी हैं या उसकी पुत्री ही स्वयं कानून की दहलीज पर अपना दुखड़ा रोती है, तो बीच में पूंजीवादी और मानुवाद की ऐसी दीवार घड़ी हो जाती है, जिसे तोड़ने की कोशिश में वह स्वयं टूट जाती रही है। इस सन्दर्भ में ओम प्रकाश वाल्मीकि की चंद पंक्तियाँ मुझे याद आती हैं – “कौन हूँ मैं ?/ मेरा अस्तिव है क्या?/ मैं धीरे धीरे क्या खाक हो जाऊँगी ? ” प्रो० विमल थोरात का मानना है कि स्त्री तिहरे शोषण का शिकार है जाति के आधार पर, महिला होने के आधार पर और गरीब होने के आधार पर । चूँकि जाति के आधार पर मुद्दा छुआ-छूत और कर्म काण्ड का आता है। एक अछूत स्त्री से एक सवर्ण पुरुष का देह से किस प्रकार संबंध रहता है। इसको जानने के लिये कन्नड़ साहित्यकार यू०आर०अनन्तमूर्ति के उपन्यास ‘संस्कार’ को अवश्य पढ़ना चाहिए । भले ही कहानी झूठी हो लेकिन यह भी सत्य है कि साहित्य में कोई भी यूँ ही कल्पना थोड़ी नहीं होती वह समाज से ही पनपती है। ‘संस्कार’ उपन्यास में श्री पति और बेल्ली के शारीरिक संबंधों को एक दृश्य देखिए जिसमें श्रीपति एक ब्राहमण पुरूष और बेल्ली एक अछूत स्त्री है, “जानते हो, क्या हुआ था, आज पिल्य और उसकी बीबी मर गए, जैसे राक्षस उन पर टूट पड़ा हो ।”श्रीपति को इस घड़ी बातों के लिए समय नहीं था। बेल्ली नग्न खड़ी थी। उसने उसे जमीन पर खींच लिया। …… क्योंकि दोनों इसतरह मर गये थे, हमने उनके शवों को वहीं झोपड़ी में ही आग लगाकर जला दिया किसी प्रकार का ज्वर आया था, चल बसे। आखें ऐसे बन्द कीं कि फिर खोल भी न सके।” श्रीपति अधीर हो रहा था। वह कुछ कह रही है, कुछ खोई-खोई सी है। मैं काम-लिप्सा की इतनी उतावली में आया हूँ , यह किसी की मौत की बात ले बैठी है। श्रीपति ने धोती बांधी। अंगवस्त्र पहना। जेब से कंघी निकाल कर बाल संवारे टार्च जलाकर देखा और फिर जल्दी से भाग निकला। बेल्ली केवल साथ सोने के लिए ही ठीक थी, बातें करने के लिए नहीं ।”
उर्पयुक्त प्रसंग सम्पूर्ण दलित स्त्रियों और सवर्ण पुरूषों के बीच संबंधों की पहचान करा सकता है यानि सर्वण पुरूष एक दलित स्त्री को एक भोजन की थाली ही समझता है। वह भी छिपकर समाज में तो वह किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगा ।यदि दलित स्त्री चाहेकि वह समाज में अपने शारीरिक शोषण का बखान कर उसे अपने जीवनसाथी बनाने की मांग करे तो सवर्ण समाज उससे पीछा छुड़ाने के लिए उसकी हत्या भी कर सकता है। इस तरह की कई घटनाएँ भी हो चुकी हैं। एक गैर दलित स्त्री का शोषण तो मात्र स्त्री होने के कारण है. लेकिन यहाँ एक दलित स्त्री स्त्री होने का शोषण झेल ही रही है। साथ ही दलित स्त्री होने का भी । राजी सेठ भी दलित और गैर दलित स्त्रियों में अंतर को अपनी कविता(औरत –औरत में भी अंतर है ) के माध्यम से स्पष्ट करने की कोशिश करती हैं – “ औरत-औरत होने में / जुदा – जुदा फर्क नहीं है क्या ?/ एक भंगी तो दूसरी बामणी । / एक डोम तो दूसरी ठकुरानी / दोनों सुबह से शाम तक खटकती हैं ।… एक सताई जाती है स्त्री होने के कारण/ दूसरी सताई जाती है स्त्री और दलित होने पर । ” अक्सर यह भी देखने को मिलता है कि एक स्त्री ही ननद और सास के रूप में एक स्त्री (बहू) का शमन करती है, लेकिन यह परिस्थितियाँ 60 के दशक के बाद से बदलने लगी हैं। संयुक्त परिवार एकल परिवार में परिवर्तित हो रहे हैं। संयुक्त परिवार जब बँटकर एकल परिवार में परिवर्तित होते हैं तो लड़के के हिस्से में दहेज व हिस्से में आई पिता की संपत्ति होती है । लेकिन दलितों में तो बहुतायत गरीबी ही रहती है। हिस्से में कभी-कभी खाने के बर्तन तो दूर रहने की जगह भी कम पड़ जाती है । ऐसी स्थिति में एक नई नवेली बहू को गृहस्ती बनाने में काफी मुसीबत का सामना करता पड़ता है। लड़का सारा गुस्सा अपनी पत्नी पर ही उतारता है। फिर धीरे धीरे शोषण के प्रकार और बढ़ने लगते हैं। उस अर्पयाप्त ग्रहस्थी को पूर्ण करने के लिए उस नई-नवेली दुल्हन को मजदूरी करने के लिए बाध्य होना पढ़ता है, फिर काम पर जाते वक्त यदि किसी ने पूछ भी दिया कि कहाँ जा रही हो? तुम क्या फला की पतोहू हो? इस प्रकार की वार्तालाप में यदि परिवारों वालों ने देख लिया तो समझो उस पर कयामत आना तय है। हमारे भारतीय समाज में लोग गरीब की स्त्री को भौजाई ही समझते हैं, फिर उस नई नवेली बहू को ये हमारा समाज कैसे छोड़ सकता है। यदि लड़के में नशा पत्ती करने के गुण हैं तो वह जरूर अपनी पत्नी को मर्दानगी दिखायेगा ही । ऐसी इस्थितियों में उसका (बहू) जीवन शोषण से लबालब बरसात में पोखर की तरह भरने लगता है जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता । वह अपना जीवन सिसकियों में गुजारने परमजबूर हो जाती है ।
श्री वीर भारत तलवार ने स्त्री प्रश्न पर लिखे अपने एक लेख का शीर्षक ही दिया, “बातें जो कही नहीं जाती”। इस लेख के आरम्भ में उन्होंने वर्षों पहले सुनी एक गजल को लिखा था जो स्त्री की अभिव्यक्ति को परिभाषित करने की कोशिश करती है:- “उनको ये शिकायत है हम कुछ नहीं कहते, / अपनी तो ये आदत है हम कुछ नहीं कहते/ कुछ कहने से तूफान उठा लेती है दुनिया,/ और उसपे ये कयामत है कि हम कुछ नहीं कहते, /कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते,/ दुनिया की इनायत है कि हम कुछ नहीं कहते।”
डॉ० कृपाकिन्जल्कम् जी (हिन्दुस्तानी त्रैमासिक पत्रिका-जुलाई-सितम्बर 2016) में ‘स्त्री-विमर्श और दलित स्त्री प्रश्न’ शीर्षक लेख में लिखते हैं कि, “हिन्दी साहित्य में अस्मितावादी विमशों के अन्तर्गत दलित – विमर्श एवं स्त्री-विमर्श के अंतर्गत दलित/गैर दलित स्त्री की विशिष्टता पर कई महत्वपूर्ण बहसें संचालित हुयी हैं। जिनकी केन्द्रीय नुक्ता पारिवारिक जीवन के भीतर पुरुष के पक्ष में झुके शक्ति सम्बन्धों एवं उच्चवर्णों के द्वारा दलित स्त्रियों के शोषण के साथ-साथ पारिवारिक दायरे के भीतर भी उनका शोषण है।”
कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ में लेखिका अपने वैवाहिक जीवन के चार दशकों में निष्क्रिय रहीं और अपने पति से अलग होकर बड़ी उम्र से सक्रिय हुई हैं। दलित नारी के सामाजिक यर्थाथ को बड़ी सादगी लेकिन प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। ‘दोहरा अभिशाप’ में लेखिका ने अपने परिवार तथा माँ- बाबा द्वारा समझदारी से चलने के कारण जीवन में आने वाली प्रत्येक मुसीबत, बीमारी, संघर्ष और परेशानी का डटकर मुकाबला करने के मार्मिक चित्र अंकित किये हैं। वे अपनी आत्मकथा में लिखती हैं कि, “कभी मैं गोबर उठाती, तो बहन इधर-उधर देखती, कोई आता दिखता तो मुझे झट इशारा करती थी। मैं गोबर उठाना छोड़कर खड़ी हो जाती थी। गोबर उठाने में शर्म लगती थी परंतु उपले बन जाने से कुछ घर के काम में मदद होगी, यह भवना मन में रहती थी।” कौशल्या बैसंत्री जी ने अपने पति (देवेन्द्र कुमार) द्वारा किये गये शोषण को बड़ी ही मार्मिकता के साथ चित्रित किया है, जो यह बताता है कि एक पढ़ी-लिखी दलित स्त्री का भी शोषण दलित समाज में सामंजस्य के अभाव में होता है। वे अपनी आत्मकथा में लिखती हैं कि, “देवेन्द्र कुमार (लेखिका के पति) को पत्नी सिर्फ खाना बनाने और शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी। पैसे आलमारी में ताले में बन्द रखता था और रोज दूध सब्जी के लिए पैसा देता था। ..मेरे कोई बात पूछने पर 10 मिनट तक कोई उत्तर न देता था। मेरे कपड़े, चप्पल की सिलाई के लिए पैसे लेने के लिए बहुत ही पीछे पढ़ना पड़ता, तब पैसे देने की बात आती तब कुछ न कुछ कारण निकालकर झगड़ा करता, मारने दौड़ता ।”
गैर दलित और दलित स्त्रियों में कभी-कभी यह भी देखने को मिलता है कि वे अपने पति को छोड़कर किसी दूसरे पुरुष के साथ चली जाती हैं। यह दशा दलित स्त्रियों में गैर दलित स्त्रियों की अपेक्षा अधिक देखने को मिलती है । स्त्री सोचती है कि यह पुरुष हम पर इतना मर रहा है तो यह हमको जरूर सुखी रखेगा । अतएव वे अपने पहले पति के शोषण से छुटकारा पाने के लिए उस गैर पुरूष के साथ चली जाती हैं, लेकिन शोषण का नया रूप तब सामने आता है जब वह उसे जी भर उपभोग करने के बाद किसी अनबन पर यह ताने मारता है कि “ जब तू अपने पहले पति की न हुई तो मेरी कैसी हो सकती है। ” गांव, मोहल्ले की औरतें तो इस मामले में चूकती ही नहीं। जरा सी बात पर यहाँ तक कि हँसी-मजाक में भी भगोडी, कलमुँही और न जाने कौन-कौन शब्दों से उसे अलंकृत कर अपनी जिह्वा में धार लगाया करती हैं। यहाँ उसका जीना और मुश्किल हो जाता है । कहावत है, “धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का । ” हालांकि स्त्रियों का दूसरे पुरुषों के साथ जाने के और भी कारण हो सकते हैं, कभी-कभी जीवन सुखी भी बीतता है। पहले पति की अपेक्षा लेकिन यह बहुतायत कम ही देखने को मिलता है ।
श्योराज सिंह बेचैन अपनी आत्मकथा मेरा ‘बचपन मेरे कंधों पर’ में अपनी माँ पर किये गये उस शोषण को लिखते हैं, जो उनके पिता द्वारा किया जाता है। वे लिखते हैं कि, “मुखी ( बेचैन की माता) के पति की मौत के बाद अपार दुःखों का सिलसिला शुरू हो जाता है। रामलाल यानि दूसरे पति के यहाँ / कुछ ठीक था लेकिन भिखारी यानि तीसरे पति ने तो जिन्दगी नरक ही बना दी। सबसे दुःखद यह है कि भिखारी अम्मा को लाठी डण्डे, कलाबू या पुरहे से मारा पीटा करता था।” अक्सर यह देखा जाता है कि जब एक दलित स्त्री अपनी ग्रहस्थी अच्छे से चलाने के लिए मजदूरी या छोटा-मोटा धंधा-पानी का काम शुरू कर देती है। बाहर काम में लेट-लपेट तो स्वाभाविक ही है। पुरुष घर में देर से आने पर खफा हो जाता है और उसे अपनी स्त्री पर शक करने की आदत हो जाती है । फलस्वरूप वह अपनी स्त्री को मारना पीटना शुरू कर देता है। मराठी में दलित लेखक लक्ष्मण गायकवाड़ की आत्मकथा ‘उचक्का’ में इस प्रकार का प्रसंग आया है। लेखक (लक्ष्मण गायकवाड़) की माँ जब दूध बेचने जाती थी तो कभी-कभी देर हो जाती थी, तब लेखक के पिता उसे पीटते थे और भी बहुत प्रकार से उसका शोषण करते थे। लक्ष्मण गायकवाड़ लिखते हैं कि, “दूध बेचकर अगर किसी दिन माँ देर से आती, तो बाबा कहता, “क्यों आज अपने यार के यहाँ गई थी क्या?” और फिर पीटता । “सरू (मेरी बड़ी बहन) मेरी नहीं है, ” ऐसा भी कहता। ”
हालाँकि शक करने के और भी कई कारण हो सकते हैं। इस सन्दर्भ में मराठी दलित साहित्यकार दयापवार अपनी आत्मकथा ‘अछूत’ (जो पहली मराठी दलित आत्म कथा मानी जाती है) में एक जगह महारवाड़ा में बबन की छोटी बेटी का किस प्रकार से उसका पति सन्देह के कारण शोषण करता है कि एक प्रसंग देखिए जिसे दया पवार ने खुले मन से लिखा है:-
“बबन सभी लड़कियों को मन से चाहता। उसके मन में एक बात हमेशा खटकती रहती कि एक भी लड़की की शादी वह ठीक स नहीं कर पाया। उसकी छोटी बेटी वेणू के दुखान्त के समय का मैं स्वयं गवाह था। वेणू की शादी गांव में खूब धूम-धड़ाके से हुई थी । वेणू बहुत सुन्दर थी। नक्षत्रों सी। माँ बाप से उजली थी। उसे जो घर मिला वह धनवान लड़के के पिताजी बम्बई के किसी कम्पनी में फोरमैने थे। लड़का दिखने में बड़ा ऊँचा-पूरा । घर में खेती-बाड़ी देखता । वेणू को पति द्वारा बहुत अधिक तकलीफ दिया जाना शुरू होता है। पति रात-रात उसे सोने न देता। उस पर सन्देह भी करता । बाहर खेतों में जाता तो चाबी ताले में बन्द कर देता। स्कूल में जब था, तब मैंने भी एक-दो बार उसका छल कम करने की कोशिश की। पति छोटे-मोटे कारणों पर ही चिढ़ जाता। बैल-ढोरों सा पीटता । “
उधर जब वेणु के पिता बबन को जब अपनी बेटी के शोषण के बारे में पता चलता है, तो वह बहुत टूट जाता है । टूटना तो स्वाभाविक है । वह अपनी बेटी को उस जाहिल दामाद के चंगुल से आजाद कराकर अपने घर लाता है और मजबूरन अपनी बेटी वेणू का हाँथ काफी उम्रदराज पुरुष को थमाता है। वेणु भी पिता के इस फैसले को बिना किसी विचार के मंजूर कर लेती है । अब वेणु का पति छल – बल से वेणु को अपनाने का खूब प्रयास करता है, लेकिन सब व्यर्थ चला जाता है । इस संदर्भ में दया पवार जी स्वयं प्रश्न करते हैं कि, “ इतना वैभव छोड़कर वेणु क्यों आई ? बूढ़ा पति क्यों अपनाया ? दुख – तकलीफों का कँटीला रास्ता उसने क्यों अपनाया ,यह सवाल आज भी मुझे निरुत्तर कर देता है । ”
दयापवार जी का आत्ममंथन स्त्री – विमर्श की दृष्टि से काफी मायने रखता है । चेतनशील मनुष्य के मन में इस तरह के प्रश्नों का उठना वाजिब है । दया (पवार) ने जिस मुखरता के साथ दूसरों की कहानी बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी ठीक उसी प्रकार अपनी और अपने परिवार की कहानी बेझिझक बयां की है । दयापवार जी अपने पिता के बारे में भी लिखतें हैं, जो उनके और माँ के बीच झगड़े का मुख्य कारण रहा करता था । इस शक की बीमारी में आकर उन्होंने ने भी अपनी पत्नी पर कई प्रकार के आक्षेप लगाने शुरू किये लेकिन गलीमत यह हुई कि स्त्री के प्रति स्वयं की स्त्री का भी अगाध प्रेम और उस मुसलमान लड़के जो महबूब नाम का था उसने रोते हुए कुरआन की कसम भी खाई कि “वो मेरी बहन है……..” फिर भी उसे मुम्बई छोड़कर अपने गाँव जाना ही पड़ा । दया पवार लिखते हैं कि, “उसके बाद वह कहीं नहीं मिला।” इस प्रकार शक की जड़े तुरंत उखड़ जाने के कारण वे अपनी पत्नी को प्रताड़ना न दे सके नहीं तो अंजाम कुछ भी हो सकता था। इसके मार्मिक उदाहरण भरे पड़े हैं।
आगे दया पवार जी ने अपनी आत्मकथा ‘बलूत’ में स्त्रियों के शोषण को दिखाया कि किस प्रकार वे घर के अन्दर और बाहर काम पर जाने पर शोषण झेलती हैं– “पुरूष हमाली (मजदूरी) करते। किसी मिल या कारखाने में जाते। स्त्रियों को कोई भी परदे में न रखता। उल्टे पुरूषों की अपेक्षा वे ही अधिक खटती थीं। शराबी पति उन्हें कितना भी पीटें वे उनकी सेवा करतीं । उनका शौक पूरा करतीं । सड़कों पर पड़ी चिन्दियाँ, कागज, काँच के टुकड़े, लोहा-लंगर, बोतलें बीनकर लाना उन्हें छाँट-छाँट कर अलग करना और सुबह बाजार में ले जाकर बेचना यही उनका धन्धा था। वहीं पास ही मंगलदास मार्केट में कपडे का व्यापार चलता था। उन दुकानों से फेंके गये कागज आदि ये औरतें इकट्ठा करती सबकी अपनी-अपनी दुकानें तय थीं । कचरा उठाने के लिए झगड़े होते वहाँ की दुकानों के नौकरों को छोटी-मोटी रिश्वत भी दी जाती। कुछ औरतें मास के ही वेश्यालय में वेश्याओं की साड़ियाँ धोतीं । कीमा-पाव से ऊबी वेश्याओं के लिए कुछ औरतें बाजरे की रोटियाँ और रायता पहुँचातीं । शौकीन ग्राहक इन आयाओं की ही माँग कर बैठता। ऐसे समय काँच -सी इज्जत बचाने के लिए वे सिर पर पैर रखकर भागतीं।”
और यही नहीं दलित स्त्रियाँ जाति के दंश में फँसकर किन हालातों से गुजरती हैं यह दया पवार जी के शब्दों में ही देखिए- “पानी लेने के लिए आते-जाते महार स्त्रियों की छाया हनुमान पर पड़ती। भगवान अपवित्र हो जाता है, इसलिए गांव वालों ने एक बार रास्ता बंद कर दिया। कुएँ पर यदि दूसरे रास्ते से जाना हो तो तालाब के किनारे-किनारे कीचड़ से लथपथ होकर जाना पड़ता, एक मील तक ।”
शोषणकारियों ने दलितों में कुछ ऐसी जातियाँ भी बनाई जिनको समाज में सम्मान तो बहुत दूर की बात एक गाली के रूप में आज भी जी रहीं हैं। इन जतियों में स्त्रियाँ ऐसे शोषण के जाल में फँसी हैं जो घर से लगाकर बाहर तक कदम-कदम पर या यूँ कहें कि हर वक्त शोषण का शिकार रहती हैं । ऐसी स्त्रियों माँ तो बनती हैं लेकिन पत्नी का दर्जा नहीं पा सकती। संतान तो जनती हैं लेकिन संतान को पिता का सुख तो दूर उसे पिता के नाम की मुहर लगवाने का भी हक नहीं मिल पाता । माँ ऐसे हालातों से गुजरती कि जिसके कारण अपने बच्चे को ममता का सुख भी नहीं परोस सकती। बच्चों को शिक्षा भी नहीं नसीब हो पाती। समाज में मानवता का झूठा ढिंढोरा पीटने वाले समाज में उच्च सम्मान पाने वाले राजनेता तक रंगरेलियाँ मनाने के लिए ऐसी स्त्रियों के पास आते हैं और कहते हैं कि मैं तुम्हें हर सुख दूंगा, पत्नी की तरह रखूंगा, लेकिन वे पत्नी बनाकर रखूँगा नहीं कहते । ऐसे लोग उस स्त्री की देह से जी भर खेल लेने के बाद, उसेगर्भवती करके ऐसे छोड़ देते हैं जैसे, ढोर किलनी छोडता है ।
किशोर शांताबाई काले की ‘छोरा कोल्हाटी का’ एक ऐसी ही मराठी दलित आत्मकथा है, जिसमें इस तरह की शोषित महिलाओं और उनके प्रताड़ित बच्चों का वर्णन है । इसमें कोल्हाटी जाति के एक बच्चे (लेखक) और उसकी माँ की एक ऐसी संघर्षगाथा है, जो नाचने वाली का धंधा छोड़कर गृहस्थ स्त्री का जीवन जीना चाहती है। इस आकांक्षा में उसने कहने भर की सफलता तो पाई , परंतु उसे अपने बड़े बेटे को अपने से दूर रखना पड़ा । माँ के होते हुए भी वह बच्चा माँ का प्यार नहीं पा सका । तमाम अवर्णीय कष्टों को झेलकर आज वह बच्चा डॉक्टर बन चुका है. लेकिन समाज ने उसे नाजायज औलाद का ठप्पा लगा दिया । वह लड़का (किशोर शांताबाई काले ) एक कांग्रेस विधायक का बेटा है, जो उसकी माँ का ‘चिरा’ उतारने के बाद उसके शरीर का भरपूर आनंद लेने के बाद उसे छोड़कर चला गया । इस सन्दर्भ में आत्मकथाकार कहता है- “एम०एल०ए० साहब ने ‘माँ का ‘चिरा’ उतारा। चीरा उतारने की रस्म शादी-ब्याह जैसी ही होती है। नाचने वाली के जीवन में जो भी पहला आदमी आता है, उसे नाचने वाली के परिवार द्वारा मांगी गई रकम अदा करनी पड़ती है। अदायगी सोना, जमीन, जायदाद या रूपयों के माध्यम से भी हो सकती है। पहली रात नाचनेवाली को सुहागन की तरह सजाया जाता है। भगवान की पूजा होती है। उसे सब रिश्तेदारों के पैर छूने पड़ते हैं। गले में मंगलसूत्र और पांव में बिछुए पहनाये जाते हैं। सोने के जेवर हों तो वे भी पहनाए जाते हैं। सुहागरात का कमरा फूलों से सजाया जाता है । ‘चिरा’ उतारने वाले को नाचनेवाली के जीवन में पति का स्थान मिल जाता है। फिर वह ‘चिरा’ उसकी मर्जी से उतारा गया हो या किसी और की मर्जी से। जब तक वह व्यक्ति उसकी देखभाल करता है. नाचनेवाली किसी और से यौन – संबंध नहीं रखती । नाचनेवाली के साथ यौन संबंध रखने वाले को उसका मालिक कहा जाता है, कोल्हाटी समाज में उसे कब्जा कहते हैं।”
ऐसी हैं हमारे भारत के कुछ सम्मानित व्यक्तियों की करतूतें। इनकी दृष्टि में स्त्री केवल शारीरिक भूख से बढ़कर कुछ नहीं। यानि इन स्त्रियों का जीवन पशु से भी बदतर है। इन्हें समाज से न कोई शिकायत है न कोई गिला वाणी होते हुए भी मूक रहकर पुरुषों की कलेवा बनकर, शोषणकारियों द्वारा बनाये गये जाल को परम्परा मानकर एक कठौते की तरह बस जी भर रही हैं। इस बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए इसी आत्मकथा के कुछ एक उद्धरण और देना आवश्यक है।
दो बच्चों की माँ होने के बाद शांताबाई के जीवन में कृष्णराव वडकर (नाना) नाम का व्यक्ति आता है। वह शांताबाई से सम्बन्ध बनाने के लिए मनुहार करता है, लेकिन शांताबाई तो पहले धोखा खा चुकी होती है और आगे की हकीकत का अनुमान लगाकर कृष्णराव की बातों में फँसना नहीं चाहती । दूध का जला छाछ भी फूँक –फूँक कर पीता है । इसलिए वह मना कर देती है । जब बार-बार मना करती है तो नाना के दोस्त भी उसे फुसलाते , फिर भी शांताबाई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, तब उसकी ही पार्टी की अन्य औरतें भी उसे नाना के साथ जाने के लिए समझाती हैं, लेकिन उसी पार्टी में सुमित्रा मौसी जो शब्द नाना से कहती हैं वह कोल्हाटी जाति की समस्त स्त्रियों की आकांक्षाएँ और उनके यथार्थ का वर्णन अभिव्यक्त हो जाता है- “साहूकार, यूं अपने होश न खोइए। यह नाच गाना क्या हमें अच्छा लगता है? क्या यह सब हम अपनी मर्जी से करती हैं ? हमें भी लगता है कि हमारा पति हो। घर गृहस्थी हो, लेकिन यह सब शायद हमारी किस्मत में नहीं है। हमारे परिवार वाले हमें किसी के साथ भेजकर खुश नहीं हैं। आप जैसे लोग नये-नवेले रिश्ते का जादू खत्म होते ही हमें छोड़ देते हैं। फूल में जब तक खुशबू है, उसे सब सूंघते रहते हैं, जब वह सूखने लगता है, उसे फेंक दिया जाता है। उस सूरत में नाचनेवालियाँ क्या करें? जो अपना घर-परिवार छोड़कर आपके पास ठहरती हैं, उसे आप आसानी से बेदखल कर देते हैं। नाचने वाली की उम्र हो जाये तो उसे आप क्या उसके सगे-सम्बन्धी भी नहीं पूछते। यह कई नाचनेवालियों के साथ हो चुका है, कि बहला-फुसलाकर, ब्याह का वचन देकर, रूपये-पैसे का लालच दिखाकर उससे संबंध जोड़ जाते हैं और वह अपने घरवालों की नाराजगी मोल लेकर आपके साथ चल पड़ती है। लेकिन जैसे ही जवानी ढलने लगती है, उसे छोड़ दिया जाता है। जिस नाचने वाली के बच्चे होते हैं, वह फिर भी अच्छी स्थिति में रह सकती हैं। लेकिन बच्चे न हों तो सड़कों पर आकर भीख माँगने के अलावा वह कुछ नहीं कर सकती, या फिर वह अपनी जान दे देती है। समाज उसे स्वीकार नहीं करता ।”
इसमें संदेह नहीं कि यह आत्मकथा नारी की अति दयनीय दशा को दिखाकर कठोर हृदय को भी पिघलाकर रख देती है।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न दलित जातियों में भिन्न-भिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार की कुरीतियों के प्रचलन एवं जातीय व्यवस्था के दंश से स्त्रियों का शोषण देखा जा सकता है। हमें इन सारे शोषणों की जड़ों को खत्म करने के लिए व्यापक स्तर पर एकजुट होकर भारतीय समाज को जागरूक कर शोषित दलित स्त्रियों को शिक्षित कराने और उनको समाज में बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए वृहत स्तर पर काम करना चाहिए ।
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- लिम्बाले, शरण कुमार:- छुआ छूत, नई दिल्ली. वाणी प्रकाशन।
निर्भय सिंह
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